________________
२१५
जान्युआरी २०१३
व्याख्याओ आपी छे तेनुं शुं ? आवी व्याख्याओ पण प्राप्त थाय छे एवो उल्लेख पण स. विं. मां करी दीधो होत तो ठीक थात एम लागे छे. त्रैलोक्यमण्डनविजयजीनो वांधो एक ज व्याख्या बांधी लेवा सामे छे अने ते माटेनां कारणो तेमणे आप्यां छे. व्यं.प. नी एकथी वधु व्याख्याओ मळे छे, तो तेन समावेश विवरणमां थवो जोइतो हतो; बधी व्याख्याओनी संगति साधी आपती एक अभिनव व्याख्या शोधी आपवानी जरूर हती, ते पूरी नथी थई. स.विं.मां तो अन्य व्याख्याओ जाणे छे ज नहि एवी छाप मन पर पड़े छे. त्रैलोक्यमण्डनविजयजीनी रजुआत तुलनात्मक रीते, समन्वय दृष्टिए थई छे. स.वि. मांथी ऊभा थता प्रश्नो तेमणे उपस्थित जरूर कर्या छे, पण व्यक्तिगत 'हुमलो' नथी कर्यो.
‘घटकुम्भादिपदवाच्यता' एवी व्याख्या उपाध्यायजीए आपी छे ज, पण ए सदृशपर्यायनी परम्परा ज छे ए मुद्दो त्रैलोक्यमण्डनविजयजीना लेखमां सारी ते स्पष्ट थवा पाम्यो छे. बे भिन्न व्याख्याओनो समन्वय तेमणे कर्यो छे. व्यावहारिक प्रयोजन न होय त्यां सप्तभङ्गी न रचाय एवा भावनुं निरूपण स.वि.मां थयुं छे. त्रैलोक्यमण्डनविजयजीए योग्य रीते ज कह्युं छे के व्यावहारिक प्रयोजन न होय त्यां पण अज्ञानादि दूर करवानुं प्रयोजन होई शके अने सप्तभङ्गी बनी शके. एवी रीते, “घटपदवाच्यं अस्ति न वा ?" ए प्रश्न वाच्यताविषयक नथी, पण अस्तित्वधर्मविषयक छे एवा त्रैलोक्यमण्डन– विजयजीना कथनमां तथ्य छे. आचार्य श्री अभयशेखरसूरिजीए आवा बिन्दुओनी चर्चा करी होत प्रत्युत्तर वाळ्यो होत तो तत्त्वरसिकोने तथा बौद्धिकोने कंइक नवुं जाणवा मळत. आचार्यश्रीए आवी तात्त्विक चर्चामां रस न लीधो ए अफसोसनो विषय छे.
—
व्यं.प., सविकल्प निर्विकल्पनी व्याख्याओमां- अर्थघटनमां पूर्वसूरिओने पण मुंझवणनो सामनो करवो पड्यो छे. प्रस्तुत चर्चामां पण आवुं ज बन्युं जणाय छे. आ चर्चा स्वस्थरूपे आगळ चाली होत तो ए मन्थनना परिणामे कंइक सार प्राप्त थात.
-
Jain Education International
—
आचार्यश्री अभयशेखरसूरिजी बहुश्रुत, शास्त्रीय पदार्थोना जब्बर चिन्तक अने विवेचक छे. एमनां पुस्तकोमां शास्त्रीय - आगमिक पदार्थोनुं मार्मिक विवरण
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org