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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १
होय छे. अमारा जेवाने तेओश्री प्रत्ये आदर-अहोभाव रहे छे, अने हुं धाएं छु के त्रैलोक्यमण्डनविजयजी पण आचार्यश्री माटे-तेमनी बहुश्रुतता माटे - आदर धरावता ज हशे. अंग्रेजीमां कहीए तो तेओ आ क्षेत्रे Senior छे. मुनिश्री आ क्षेत्रे Junior छे. अग्रगामीओ अनुगामीओ प्रत्ये सद्भाव अने सहानुभूति दाखवे एवी अपेक्षा रहे, अने अनुगामीओ अग्रगामीओ तरफ आदरभाव राखे ए अपेक्षित छे. आचार्यश्रीनो प्रत्याघात-"मुनिश्रीने प्राथमिक वातोनी पण जाणकारी नथी"- ए गळे ऊतरे तेवी वात नथी. प्रस्तुत लेखमां ज मुनिश्रीए जे गम्भीर अने प्रमाणपुरस्सर चर्चा करी छे ते 'गतागम' वगर थई शके तेवी नथी. मुनिश्रीना अन्य लेखो पण तेमनी विदग्धतानी साक्षी पूरे छे. आचार्यश्रीए आवा स्वाध्यायशील मुनि माटे सहानुभूति दाखववानी जरूर हती.
तात्त्विक चर्चामां एक-बीजाना विधानने पडकारवामां आवे तेमां दोष नथी. ए चर्चामां कटुता-कलुषता न आवे ए जोवानुं छे. एक साधु तरीके ज नहि पण कोई पण वाद-प्रतिवादमां बन्ने पक्षोए सन्तुलन न खोवू ए बहु ज इच्छनीय । अनिवार्य / उपकारक वस्तु छे. श्री दिवाकरजीए ज 'वादद्वात्रिंशिका' मां आपेली एक सीख अहीं नोंधवानुं मन थाय : यत्नः श्रुताच्छतगुणः शम एव कार्यः ।
- द्वा. ७, श्लो. २७ "शास्त्राभ्यास करतां सो गणो वधारे प्रयत्न प्रशम केळववा माटे करवो जोइए."
- उपा. भुवनचन्द्र
पत्रचर्चा-१ नो प्रतिभाव
खंभात दि. ६-१-२०१३ पूज्य उपाध्याय श्रीभुवनचन्द्रजी म.,
सादर वन्दना अवधारशो. आपनो पत्र मळ्यो. रजू थयेली वातो अत्यन्त हृदयस्पर्शी अने मर्मवेधी
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