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________________ जान्युआरी - २०१३ १८७ में भी एकमत है कि वर्तमान में दृष्टिवाद अनुपलब्ध है । यद्यपि दिगम्बर परम्परा यह स्वीकार करती है कि उसके जो आगमतुल्य ग्रन्थ हैं, वे इसी आधार पर निर्मित हुए है । अंगबाह्यों के सम्बन्ध में दोनों परम्पराओं में आंशिक एकरूपता और आंशिक मतभेद देखा जाता हैं । दिगम्बर परम्परा अंगबाह्य की संख्या १४ मानती है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा ऐसा कोई स्पष्ट निर्देश नहीं करती हैं । तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बरमान्य स्वोपज्ञ-भाष्य में अंगबाह्य को अनेक प्रकार का कहा गया है । दिगम्बर परम्परा की तत्त्वार्थ की टीकाओं और धवला में १४ अंगबाह्यों के नामों के जो निर्देश उपलब्ध है, उनमें उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, कल्प, व्यवहार, कल्पिकाकल्पिक, महाकल्पिक, पुण्डरीक, निशीथ आदि है। ज्ञातव्य है कि धवला में अंगबाह्यों के जो १४ नाम गिनाये हैं, उनमें कल्प और व्यवहार भी है । धवला में कप्पाकप्पीय महाकप्पीय, पुण्डरीक और महापुण्डरीक - ये चार नाम तत्त्वार्थभाष्य की अपेक्षा अधिक है और उसमें भाष्य में उल्लेखित दशा और ऋषिभाषित को छोड दिया गया है। साथ ही इन नामों में से पुण्डरीक और महापुण्डरीक को छोडकर शेष सभी ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा में भी मान्य है। कल्पाकल्पिक का उल्लेख नन्दीसत्र में है, किन्तु अब यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। शेष सभी ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा में आज भी उपलब्ध माने जाते हैं । श्वेताम्बर परम्परा में सूत्रकृताङ्ग में पुण्डरीक नामक एक अध्ययन भी है । जहाँ तक आगम साहित्य के वर्गीकरण का प्रश्न है, श्वेताम्बर परम्परा में दो प्रकार के वर्गीकरण उपलब्ध होते है- १. नन्दीसूत्र का प्राचीन वर्गीकरण और २. जिनप्रभ की 'विधिमार्गप्रपा' का आधुनिक वर्गीकरण । नन्दीसूत्र का प्राचीन वर्गीकरण लगभग ईसा की पाँचवी शताब्दी का है, जबकि आधुनिक वर्गीकरण प्रायः ईसा की १३वी-१४वी शती से प्रचलन में है। नन्दीसूत्र के प्राचीन वर्गीकरण में आगमों को सर्वप्रथम अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य, ऐसे पूर्व में प्रचलित दो विभागों में ही बाँटा गया है । किन्तु इसकी विशेषता यह है कि वह अंगबाह्य ग्रन्थों के प्रथमतः दो विभाग करता है- १. आवश्यक और २ आवश्यक-व्यतिरिक्त । पुनः आवश्यक के सामायिक आदि छह विभाग किये गये हैं । आवश्यक-व्यतिरिक्त को पुनः कालिकं और उत्कालिक ऐसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520561
Book TitleAnusandhan 2013 03 SrNo 60
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2013
Total Pages244
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size9 MB
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