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________________ जान्युआरी - २०१३ २१९ खोटी ठरशे ओ नक्की गणजो. सप्तभङ्गीनुं माळखुं पण अटलुं ज चुस्त छे. अमांनी ओक पण ईंटने जो खेरवी देवामां आवे तो आखी इमारत कडडभूस थाय तेम छे. माटे अनी चुस्तताने जाळवी राखवी अनिवार्य छे. परन्तु ओ क्यारे बनी शके ? प्राचीन निरूपणना परिप्रेक्ष्यमा आचार्य भगवन्तनी विचारणाओने मूलवीओ तो ज. अने ओ माटे परस्परनो संवाद सधाय ते जरूरी बने छे. कमनसीबे आq थवानी शक्यता जन्मे ते पहेलां ज समाप्त थई गई छे ! अन्तमां, आपे आ विषयमां ऊंडो रस लीधो अने बन्नेयनां लखाणो मध्यस्थभावे तपासी जइने पत्रलेख पाठव्यो, ते माटे पुनः पुनः उपकृत छु. पू. आ. श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिशिष्य त्रैलोक्यमण्डनविजय सम्पादकीय नोंध सर्जन अने संशोधन बे वच्चे एक पायानो तफावत ए छे के संशोधन अथवा विवेचन हमेशां सर्जननी खामी शोधी देखाडे छे, अने सर्जन ए वस्तुने भाग्ये ज सहन करी शके छे. सर्जन- (सर्जकनुं पण) मानस 'दिग्विजय'र्नु होय छे. "आ सर्जन श्रेष्ठ सर्जन ज छे, अने तेमां कोई भूल होई शके ज नहि; माटे तेने बधाए विना विरोधे स्वीकारी लेवू ज जोईए" - आवं मानस ते दिग्विजयी मानस छे. हवे संशोधनने एवी टेव छे के ए दिग्विजयी लागता सर्जनमांथी पण कशीक भूल शोधी आपे छे ! अने सर्जन तेने पोतानु अपमान समजी बेसे छे ! सदीओथी चालती, दर्शनो अने दार्शनिको वच्चेनी, खण्डन-मण्डननी प्रक्रियाने समग्रताथी तपासीशुं तो जणाई आवशे के ते, वास्तवमां सर्जन अने संशोधन वच्चे थती मुठभेड ज छे. एके युक्तिओ द्वारा पोताना मतनुं मण्डन/ सर्जन कर्यु, तो बीजाए तेनुं संशोधन/खण्डन कर्यु. जोके, तेमनी ते प्रवृत्तिना सत्फलरूपे आपणने अनेक दर्शनो मळ्यां, ग्रन्थो मळ्या, अर्थघटनो सांपड्यां, महान् सर्जको पण मळ्या. ए रीते आ समग्र प्रवृत्ति विधायक बनी रही. अने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520561
Book TitleAnusandhan 2013 03 SrNo 60
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2013
Total Pages244
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size9 MB
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