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जान्युआरी
आ
लेख परत्वे करेल कठोर टिप्पणी' वांची. प्रथम दृष्टिए ज मारा मन पर छाप ए पड़ी के आचार्यश्रीनो प्रतिभाव कंइक वधु ज तीव्र स्वरूपनो छे. "जेमने आटली पण गतागम पड़ती नथी एमनी सप्तभङ्गी जेवा गहन विषय पर चर्चा करवानी क्षमता केटली ?" "आ महात्माने प्राथमिक वातोनी पण वास्तविक जाणकारी नथी." "आवी अधिकार बहारनी आत्मघातक चेष्टा..." वाक्यो रोषजनित छे. मुनिश्री पादनोंधमां उद्धृत करेली न्यायदर्शननी एक पंक्तिमा एक शब्द भळतो लखायो छे - जे मुख्य चर्चानो भाग नथी, अवान्तर मुद्दो छे - तेने आगळ करीने आचार्यश्रीए 'गतागम नथी', आत्मघाती चेष्टा' जेवा उद्गारो लखी नाख्या छे. स्वस्थ चर्चाने बदले आमां रोषभर्यो प्रत्याघात देखाय छे. मुनिश्रीना लेखमां चर्चित बिन्दुओ पर आचार्य श्रीए कोई चर्चा ज नथी करी. आवा विषयोमां जे बिन्दुमां क्षति के विपर्यास जणातो होय तेनी चर्चा थाय ए विद्वज्जगतनो सुस्थापित शिरस्तो छे. तेने अनुसरवाने बदले "आ
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आ महात्माओ ओ ज लेखमां नीचे एक टिप्पण आपी छे जेमां घटत्वकुम्भत्व - कलशत्व वगेरे जुदी जुदी जातिओ नथी (अर्थात् जातिभेद नथी पण अभेद छे) से वात जणावी छे ने पछी 'व्यक्तेरभेदो जातिबाधकः' आवो जे न्यायदर्शननो नियम छे तेनुं तात्पर्य पण उपरोक्त ज छे ओम जणाव्युं छे. हवे न्यायदर्शननो प्राथमिक अभ्यासु पण जाणतो होय छे के व्यक्तेरभेद... अ आकाशत्व अंगे जातिबाधक छे, घटत्व- कुम्भत्व वगेरे जातिभेद अंगे तो 'तुल्यत्व' बाधक छे. ओटले जणाय छे के आ महात्माने आ प्राथमिक वातोनी पण वास्तविक जाणकारी नथी. वळी 'घटत्व- कुम्भत्व वगेरे जातिना अभेदनी वात करवी छे, ने आमां पण (व्यक्तिना ) अभेदनी वात छे, माटे व्यक्तेरभेदनो उल्लेख करी दो... ' ओवी ओमनी कल्पना होवी सूचित थती लागे छे. ओटले अवुं पण केम सूचित न थाय के 'जाति नहीं, पण जातिमान् व्यक्ति छे ओवी सामान्य वात पण आ महात्मा जाणता नथी.... '
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ओटले जेमने आटली पण गतागम नथी ओमनी सप्तभङ्गी जेवा गहनविषय पर चर्चा करवानी क्षमता केटली ? अनी कल्पना करी शकाय छे. तेथी ओमणे करेली चर्चा पर विचारणा करवानो तो प्रश्न ज ऊभो थतो नथी. पण, 'आवी अधिकार बहारनी आत्मघातक चेष्टाथी पाछा फरवानी सद्बुद्धि अमने ओमना गुरु भगवन्त आपे के स्वयं मळे' ओवी परमकृपाळु परमात्माने आपणे सहु प्रार्थना करीओ.
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