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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १ यापनीय शाखा का साहित्य, शौरसेनी प्राकृत में पाया जाता है । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि छान्दस्, अभिलेखीय प्राकृत, पाली और प्राचीन अर्धमागधी एक दूसरे से अधिक दूर भी नहीं है । वस्तुतः सुदूर क्षेत्र की भायूरोपीय वर्ग की सभी भाषाएं एक दूसरे के निकट ही देखी जाती है । आज भी आचाराङ्गसूत्र की प्राचीन प्राकृत में अंग्रेजी के अनेक शब्द रूप देखे जाते हैं, जैसे बोंदि (Body), एस (As), आउट्टे (Out), चिल्लड़-चिल्ड्रन (Children) आदि ।
___ आज प्राकृत की प्रत्येक संगोष्ठी में यह प्रश्न भी उठाया जाता है कि प्राकृत से संस्कृत बनी या संस्कृत से प्राकृत बनी? तथा इनमें कौन कितनी प्राचीन है ? । जैन परम्परा में ही जहाँ 'नमिसाधु' प्राकृत से संस्कृत के निर्माण की बात कहते हैं, वहीं हेमचन्द्र 'प्रकृतिः संस्कृतम्' कहकर संस्कृत से प्राकृत के विकास को समझाते है । यद्यपि यह भ्रान्ति भाषाओं के विकास के इतिहास के अज्ञान के कारण है। सर्वप्रथम हमें बोली और भाषा के अन्तर को समझ लेना होगा । प्राकृत अपने आप में एक बोली भी रही है, और भाषा भी। भाषा का निर्माण बोली को व्याकरण के नियमों में जकड़कर किया जाता है। अतः यह मानना होगा कि संस्कृत का विकास प्राकृत बोलियों से हुआ है । प्राकृत मूल में भाषा नहीं, अनेक बोलियों के रूप रही है । इस दृष्टि से प्राकृत बोली के रूप में पहले है, और संस्कृत भाषा उसका संस्कारित रूप है । दूसरी ओर यदि प्राकृतभाषा की दृष्टि से विचार करें, तो प्राकृत भाषाओं का व्याकरण संस्कृत व्याकरण से प्रभावित हैं, अतः संस्कृत पहले
और प्राकृतें (लोकभाषाएँ) परवर्ती है । मूलमें प्राकृतें अनेक बोलियों से विकसित हुई हैं, अतः वे अनेक है । संस्कृत भाषा व्याकरणनिष्ठ होने से परवर्ती काल में एक रूप ही रही है । जैन ग्रन्थो में भी प्राकृतों के अनेक रूप जाते है, यथा-मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री और उनसे विकसित विभिन्न अपभ्रंश । आज जो भी प्राचीन स्तर का जैन साहित्य है, वह सभी इन विविध प्राकृतों में लिखित है । यद्यपि जैनाचार्यो ने ईसा की तीसरी-चौथी शती से संस्कृत भाषा को भी अपनाया और उसमें भी विपुल मात्रा में ग्रन्थों की रचना की, फिर भी उनका मूल आगमसाहित्य, आगमतुल्य और अन्य विविध विधाओं का विपुल साहित्य भी प्राकृत भाषा में ही है।
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