________________
प्रस्तावना
"घृष्यमाणाङ्गारवदन्तरङ्गस्य विशुद्धधभावे कथमिदमुदहारि कुमारिलेन
विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिग्यचक्षुषे ।।
श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्धधारिणे ॥" अर्थात् घिसे गये कोयलेकी तरह यदि अन्तरंगकी विशुद्धि नहीं होती तो कुमारिलने ऐसा क्यों कहा है कि मैं विशद्धज्ञानरूपी शरीरधारी और तीन वेदरूपो दिव्य चक्षओंसे सम्पन्न तथा श्रेयकी प्राप्तिमें निमित्त अर्धचन्द्रधारी शिवको नमस्कार करता हूँ।
यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि कर्ममीमांसामें भी उत्तर कालमें सेश्वरवादकी छाया मा गयी थी। और नैयायिक वैशेषिकोंकी तरह मीमांसक भी शिवके भक्त बन गये थे। बार्हस्पत्य अथवा चार्वाक
सोमदेवने मोक्षके विरोध बार्हस्पत्योंका मत दिया है कि जब परलोकी आत्माका अभाव होनेसे परलोकका ही अभाव है तब मोक्षकी चर्चा ही बेकार है। यशस्तिलकके चतुर्थ आश्वासमें सोमदेवने बार्हस्पत्योंका पक्ष लेकर बोलनेवाले चण्डकर्माको 'प्रयुक्तलोकायतमतधर्मा' कहा है। सिद्धर्षिने अपनी उपमितिभवप्रपंचकथामें कहा है कि बार्हस्पत्य लोग लोकायतपुरके निवासी थे। सिद्धषिने उनके मतको प्रमुख जैनेतर दर्शनोंमें लिया है। ई०९६३के गंगनरेश मारसिंहके कुडुलर ताम्रपत्र में एक जैनाचार्यको 'लोकायत लोकसम्मतमतिः' लिखा है। अतः यह निश्चित है कि दसवीं शताब्दीमें और उसके लगभग लोकायत एक प्रमुख मत था। इस मतके अनुयायो भारतीय दर्शन-साहित्यमें चार्वाकके नामसे प्रसिद्ध है। किन्तु इस दर्शनका कोई ग्रन्थ अभी तक प्रकाशमें नहीं आया है। एक बार्हस्पत्य सूत्र नामका ग्रन्थ कहा जाता है जो सम्भवतया अतिसंक्षिप्त है।
तत्त्वोपप्लवसिंह चार्वाक दर्शनका एक अपूर्व ग्रन्थ है जो बड़ोदासे प्रकाशित हुआ है। इसका अनुमानित समय ईसाको आठवों शताब्दी है। इसमें 'पथिव्यप्तेजोवायरिति तत्त्वानि तत्समदाये शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञा' यह वाक्य आया है । शान्तरक्षितके तत्त्वसंग्रहको कमलशीलरचित पंजिका (१०५२०) में 'पृथिव्यापस्तेजो वायुरिति चत्वारि तत्त्वानि, तेभ्यश्चैतन्यमिति' इतना वाक्य उद्धत है और आगे लिखा है कि कुछ वत्तिकार 'उत्पद्यते तेभ्यश्चैतन्यम्'ऐसा कहते हैं और कुछ 'अभिव्यज्यते' ऐसा कहते हैं। विद्यानन्दिने अपने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें (पृ० २८) 'पृथिव्य(व्या)पस्तेजो वायुरिति तत्त्वानि, तत्समुदये शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञाः तेभ्यश्च. तन्यम्' इस रूपमें उद्धृत किया है। प्रभाचन्द्रने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ. ११६) में तथा न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ३४१-४२ ) में भी विद्यानन्दिकी तरह हो उद्धृत किया है। तथा आगे 'मदशक्तिवद् विज्ञानम्' इतना अंश और उद्धृत किया है। वादिराजने भी अपने न्यायविनिश्चयविवरण (भा० २ पृ० ९३ ) में, उक्त वाक्योंको खण्डशः अलग-अलग उद्धृत किया है; किन्तु इनमें से किसीने भो इनको 'बृहस्पतिसूत्र' नहीं बतलाया। भास्करने ब्रह्मसूत्रभाष्य..(३-३-५३ )में उक्त सूत्रोंको बृहस्पतिके सूत्र बतलाते हुए इस प्रकार उद्धृत किया है,
"तथा बार्हस्पत्यानि सूत्राणि-पृथिव्यप्तेजो वायुरिति तत्त्वानि तत्समुदाये शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञा तेभ्यश्चतन्यं, किण्वादिभ्यो मंदशक्तिवद् विज्ञानमिति ।"
अकलंकके सिद्धिविनिश्चयके टीकाकार अनन्तवीर्यने अपनी टीकामें (पृ. २७७ ) 'अंथ तत्त्वोपप्लवकृद् आह–चार्वाकश्चारुचर्चितं' आदि लिखकर अन्तमें लिखा है, 'परपर्यनुयोगपराणि बृहस्पतेः सूत्राणि' इति सूक्तं स्यात् ।' अतः बृहस्पतिके सूत्र और उसको व्याख्याओंके पाये जानेका उल्लेख उक्त उद्धरणोंसे मिलता है।
१. सो० उपा० पृ० ३। २. "लोकायतमिति प्रोक्तं पुरमत्र तथा परम् । बार्हस्यत्याश्च ते लोका वास्तव्याः पुरेऽत्र मोः ।"