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.६८. मध्यमस्यावादरहस्य खण्डः ३ - का. अखण्डाभावत्वेन कारणतानहीकारः *
वादीनां यावत्वावच्छिमप्रतियोगिताकाभाव एकश्चित्रत्वावछि प्रति हेतुरिति - राज, प्रतियोगिकोटानुदासीनप्रवेशाप्रवेशाभ्यां वितिगमनाविरहात् ।
वित्रत्वावछिन्ने रूपत्वेनैव हेतुता, नील-पीतोभयजन्यतावच्छेदकचित्रत्वाऽवान्तरजात्यच्छिन्ने लील-पीतोशयत्वेनैव, प्रितयारन्धे तत्रितयत्वेन हेतुता, नील-पीतोभयाचारब्धचित्रे
-* जयलता हैतदागकरणे हेतुमाह → प्रतियोगिकोटी = समवायसम्बन्धाबन्छिन्न-चित्रतावच्छिन्नकायनानिरूपिनस्यम्पसम्बन्धावच्छिन्नकाराणनाश्रयीभूताभावप्रतियोगिकुक्षी, उदासीनप्रवंशाप्रबंशाभ्यां विनिगमनाविरहादिनि । इदमत्राकृतम् क्वचित चित्ररूपय रूपजन्यत्वात् कविध पाकरूपाभयजन्यवान चित्रं प्रति कचित नीलपादाभयाददासीनवं कांचन विजातीयरूपविजातीयपारुयोरुदामीनत्यम । अन; कारणाभूनाभावप्रतियोगिकोटी नदभावप्रवेशः कर्तव्य आहास्चित न ? इत्यत्रा विनिगमः, उदासीनप्रवेशे तु नील-वायुसंयोगान्यतराभावादरपि चित्रकारणीभूनाउभावप्रतियागिकोटी प्रवेशपातेन अप्रामाणिकगौरवात् नवप्रवेश में विजानायचित्ररंग कार्यत्वप्राप्ती द्विविधकार्यकारणभावकल्पनागारवादुभयतः पाशाररित्यग्यण्डाभावस्याहतुवामान भावः । किश्च पाकमात्रजचित्रीत्याद व्यतिरकव्यभिचारस्य दर्निवारत्वम् । न हि तन्त्र निरुक्कयावत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताको भावः स्वरूपसम्बन्धेन वर्तत, निरुक्तानां नीलपीतामयाभावादीनां विजानीयरूप-विजानीयरूपजनकपाकाभयापवादाना व तन स्वरूपसम्बन्धेन सच्चात् । कारणीभूताभावप्रतियोगिकोटी चित्रजनकपाकाभानस्य प्रवेशे नु गौरबम. ममयायेन चित्रत्वावच्छिन्ने पाकजन्यत्वविरहात् । किश्चैवं नील-पीतोभयाभात्रादीनां कारणीभूताभावप्रतियोगितप्रामी नित्रं प्रति तषां प्रतिबन्धकत्वकल्पना प्रसङ्गो दुर्निवारः । न चेष्टापत्तिरिति | वान्यम्, तेषां कारणाभावत्यव्यवहारादिति । किञ्च प्रसिद्धान्वयव्यतिरेकग्रहविषयतावदकरूपर्णव कारणत्वाचिन्यं, अन्यथा प्रायशोऽन्यत्रा प्यभावविशेषस्यैव हेतुत्वप्रसङ्गगादिति दिक ।
अवान्येषां गतमाह ---> चित्रत्वावछिन्ने = समवायेन चित्रसामान्य प्रनि स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन रूपत्वेनैव । यद्यपि हेतुना नथापि प्रसिद्धान्वयव्यतिरंकाभ्यां नील-पीतोभयजन्यतावच्छेदकचित्रत्वावान्तरजात्यवच्छिन्ने = समवायन
नीलपीतीभयमात्रजन्पचित्रमात्रनिचित्रत्व-व्यायजात्यवच्छिन्न प्रति, स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धन नीलपीतोभयत्वेनैव हंतुतेत्यत्रानुषच्यते । यत्र स्वसमबायिसमवेतत्त्वसम्बन्धन नीलपीतरकत्रितयं तत्र गमवायेन तादृशत्रितयचित्रात्यनिः यत्र च | तदभावस्तत्र तादृशत्रित्तयजचित्राभाव इत्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां त्रितयारन्ध = नील पान -रत्नादित्रितयमात्रा समवापिकारणकचित्रमात्रवृनिचित्रत्वन्यनवनिजातिविशेषावभिन्न प्रति स्वसमबायिसमवेतत्वसम्बन्धन तत्रितयत्वेन = नीलपीतरनादित्रिकत्व हेतुता = असमयायिकारणता 1 उपलक्षणात् चतुष्कारब्धं तचतुम्कत्वन हेतुनेत्यादि गम्यम् ।।
तन्न, प्र. । प्रकरणकार श्रीमदनी इस मत को यह कह कर असंगत बनाते हैं कि चित्र रूप के कारणीभून एक अभाव की प्रतियोगिकोटि में उदासीन के प्रवेश और अप्रवेश से विनिगमनाविरह है। मतलब यह है कि चित्ररूपमामान्य के प्रनि नीलपीनोभय, पीतरक्तोभय, विजातीयरूप-विजातीयरूपजनकपाकोभय आदि सभी कारण नहीं हैं, किन्तु इनमें से कोई एक ही कारण होता है। अन्य तो उदासीन होते हैं। मगर यहाँ तो उपर्युक्त मत में कारणीभूत अभाव की प्रतियोगिकुक्षि में उदासीन और अनुदासीन दोनों का प्रवेश किया गया है। अनः यहां प्रश्र यह उपस्थित होता है कि कारणीभूत अभावप्रतियोगिशरीर में उदामीन का प्रवेश हो या नहीं ? इस विषय में कोई निर्णायक नर्क नहीं है, क्योंकि उदामीन अभाव का कारणीभूनाभावप्रतियोगिकुक्षि में प्रवेश करने पर तो नील-बायुमंयोगान्यतराभाव आदि का भी वहां प्रवेश हो जायेगा और उदासीन अभाव का वहाँ प्रवेश न करने पर अनेकविध कार्य-कारणभाव की कल्पना का गौग्य उपस्थित होता है। इसलिए अखंडाभाव हेतुताराला उपयुक्त मन अनादरणीय है . यह फलित होता है ।
विभिन्न चित्ररूप की विभिन्न कारणता - मतविशेष नित्रत्वार. इति । अन्य विद्वानों का यह मत है कि --> चित्रसामान्य के प्रति रूपत्वेन रूपसामान्य कारण है। मगर सब चित्र रूप समान होते नहीं हैं। जैसे नील-पीतकपाल से उत्पन घट के चित्र रूप में, रक-पीतकपालद्वप से आरब्ध पट के चित्र रूप में एवं नील-पीस-तकपालत्रितय से जन्य घट के चित्र रूप में वैजात्य अनुभवसिद्ध है। अतः अन्नपव्यतिरेक से नीलपीतउभयकपाल से जन्य घट में समवेत चित्रवन्याप्यजाति(त्रित्वविदोप) से अवच्छिन्न के प्रति नील और