Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 272
________________ न्यायखण्डवादः ** नन्वत्र मूलमिला समग्रवृत्ति स्वच्छन्दचन्दनतरी व्यभिचारचारः । शाखासु चारुपवनाभ्यवहारलग्नव्यासङ्गसङ्गमभुजङ्गमसङ्गभाजि ||१६|| (अत्रोत्तरम् ) आजीविका ननु तवास्ति किलेयमेव देवाधिदेवसमयाज्ञ ! यदाग्रहोऽसौ । बोधं प्रयोगरचना वचनावतीर्णा स्याद्व्याप्यवृत्तिमिह तु प्रथमं प्रसाध्य ॥५७॥1 जयलता पितप्रतियांम्पनुयोगभावसम्बन्धाश्रयकृतत्वम्, तेन स्वकर्मक्षयकृत त्रिभागहीनचरमशरीरावगाह्नावस्थितक्षीणसकलक्लेशप्रदेशशालिनि सिद्धं नाव्याप्तिः । तत्समानावगाहनाकत्वञ्च तदवगाहकनभः प्रदेशसङ्ख्या समव्याप्तसङ्ख्याकनभः प्रदेशावगाहनाकत्वमित्यधिकं न्यायखण्डखाये (न्या.खं.खा.गा. ७० पु. ४०८) द्रष्टव्यं बुभुत्सुभिरित्यलं विस्तरेण ॥५५॥ नैयायिकः षट्पञ्चाशत्तमयेन शङ्कते ननु अत्र = 'यो यवमात्रव्यायोपलभ्यमानगुगः स तावन्मात्रेव्यापकः' इति नियमे व्यभिचारचारः = धारालकरालव्यतिरेकव्यभिचारप्रचारः दुर्वार एवं यतः शाखासु चारुपवनाभ्यवहारलग्नव्यामङ्कजङ्गमभुजङ्गमभाजि = प्रवहमानसुरभिमास्तास्वादमग्नासनसञ्चरत्सर्पसंयोगशालिनि स्वच्छन्दचन्दनतरी सुललितविलाससरसचन्दनगाद मूलमिलदग्रसमग्रवृत्ति = व्याप्यवृत्ति सांग्भमिति गम्पते । चन्दनतरोः स्वान्द्रियव्याप्य पलम्यमानगुगलले पि तावदुव्यापकत्वाभावात् । इत्थञ्चावस्थानदेशादन्यत्राऽपि गुणोपलब्धेर्हतुर्व्याभिचारीति योगाशयः ॥ ५६ ॥ = स्याद्वादी नमपक्षिपति ननु भो ! देवाधिदेवसमयाज्ञ ! जैनेन्द्रराद्धान्तापरिचित ! नैयायिक तब किल इयमंत्र 'यो यावदुपलभ्यमानगुणः स तावदुव्यापक' इति वचनरचना आत्मवैभवसाधनाय आजीविका स्यात्, अन्यथा कथं दूरवर्ति देशानुमीयमानादृष्टाश्रयव्यापकात्मतन्त्रसिद्धि ने स्यात् ? ' तर्हि अस्तु तत एवात्मवैभवसिद्धिरिति चेत ? मेवं वोचः यदाग्रहः = यस्मात् कारणात् कदाग्रह: असी आत्मविमुत्वसिद्धिमनोरथः । कुतः कदाग्रहत्वमस्य सत्स्यति । उच्यते यतः प्रथमं इह सभायां व्याप्यवृत्तिं = स्वाभावाऽसमानाधिकरणं बोधं प्रसाध्य पश्चात् तु 'आत्मा सर्वगतः सर्वत्रीपलभ्यमानगुणत्वात्' इत्येवंस्वरूपा तव प्रयोगरचना वचनावतीर्णा स्यात् । न चैवं सम्भवति कायष्यतिरिक्तदेशे आत्मगुणानां योधादीनां त्वयाऽनङ्गीकारात् 12. = 7 'यो रात्रैव...' यहाँ व्यभिचार की शंका और निराकरण नैयायिक : जिसके गुण की जहाँ उपलब्धि होती है वह केवल वहीं होता है - यह नियम व्यभिचारदोपग्रस्त है । इसका कारण यह है कि मूल से लेकर अग्र शाखा पर्यन्त समग्र भाग में रहनेवाली खुशबू चन्दन के वृक्ष में, जिसकी शाखाओं में बहनेवाले मनोहर पवन का आस्वाद लेने में मन बने हुए और चारों ओर घूमते साँप का संगम उपलब्ध होता है, व्यभिचारग्रस्त है । पद्म का तात्पर्य यह है चन्दन की सौरभ केवल चन्दनवृक्ष में ही रहती है फिर भी उसका ज्ञान तो बन्दवृक्ष की शाखा में रहे हुए सर्प को भी होता है। सर्प की प्राणेन्द्रिय में चन्दनसौरभ नहीं होने पर भी वहाँ सुगन्ध की उपलब्धि होती है । इसलिए अपने आश्रय को छोड़ कर गुण की उपलब्धि अन्यत्र नहीं होती है और गुण की उपलब्धि जहाँ होती है उसको छोड़ कर अन्यत्र गुणी नहीं रहता है' यह स्याद्रादिकथन निरस्त हो जाता है। अन्यथा सर्पादि की प्राणेन्द्रिय को भी चन्दनीय सौरभ का आश्रय मानना होगा स्याद्वादी ओ 1 नैयायिक ! आपने यह क्या बोल दिया कि 'यो यावन्मात्रोपलभ्यमानगुणः स तावव्यापकः ' यह व्याप्ति व्यभिचारदोपग्रस्त है। तुम नैयायिक भी आत्मा में विभुत्व की सिद्धि के लिए यही तो वचन कहते हो कि 'आत्मा व्यापक है क्योंकि उसके गुण की सर्वत्र उपलब्धि होती है ।' यदि उपर्युक्त व्याति व्यभिचारप्राप्त है तब तो तुम उसके बल से कैसे उपर्युक्त अनुमानप्रयोग की रचना को वचननिबद्ध कर सकते हो ? सचमुच तुम देवाधिदेव सर्वज्ञ के सिद्धान्त में अपरिचित हो । इसीलिये यह कदाग्रह रखते हो कि आत्मा विभु है । आत्म में विभुत्व की सिद्धि के लिए तो सबसे पहले आत्मा के गुण ज्ञान को व्याप्यवृत्ति = स्वाभावासमानाधिकरण सिद्ध करना पड़ेगा, बाद में तुम उपर्युक्त अनुमानप्रयोग कर सकते हो कि - 'आत्मा सर्वव्यापक है, क्योंकि उसके गुण की सर्वत्र उपलब्धि होती है' । मगर यह तुम्हारे बस की बात नहीं है, क्योंकि ज्ञानादि को न तो तुम सर्वत्र वृत्ति मानते हो और न तो हम । तब कैसे आत्मा में विभुत्व की सिद्धि हो सकेगी ? दूसरी बात यह है कि आत्मा में विभुत्व की सिद्धि के लिये आपको उपर्युक्त व्याप्ति में व्यभिचार को भी दूर करना पड़ेगा। पहले व्यभिचार को दूर कीजिये, क्योंकि आपने ही व्याभिचार का उद्घान किया है ॥५७॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363