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तदुक्तं 'नानात्मानो व्यवस्थात' इति ।
अन्यथाऽन्यशरीरावच्छिन्नादृष्टस्यान्यशरीरावच्छिन्नफलजनकत्वे कथं नातिप्रसङ्गः ?
'एकसन्तान एव फलजननान्नायं' इति चेत् ? किमैक्यमत्र सन्ताने एकजातीयत्वं वा पूर्वापरभावापन्नत्वं वा ? दद्यमपीदमतिप्रसक्तम्, अन्यसन्तानत्वेनाऽभिमतानामपि तथात्वात् । * जयलता
तदुक्तं नानात्मानी व्यवस्थान इति । व्याख्यातञ्च न्यायकन्दलीकारेण नानात्मानो व्यवस्थात इति सूत्रेणात्मनानात्वप्रतिपादनाद बहुत्वसंख्या सिद्धेत्यर्थ: 1 अथ कसे व्यवस्था : नाना मेदभाविनां ज्ञानसुखादीनां अप्रतिसन्धानम् । ऐकात्म्ये हि यथा बाल्यावस्थायामनुभूतं वृद्धावस्थायामनुसन्धीयते मम सुखमासीन्मम दुःखमासीदिति । एवं देहान्तरानुभूतमप्यनुसन्धीयन, अनुभविकत्वात् । न चैवमस्ति । अतः प्रतिशरीरं नानात्मानः । यथा सर्वत्रैकस्याकाशस्य श्री कर्णशष्कुल्पायुपाधिभेदा दीपलब्धिव्यवस्था तथात्मकत्वेऽपि देहभेदादनुभवादित्यवस्थेति चेत ? विषमोऽयमुपन्यासः प्रतिपुरुषं व्यवस्थिताभ्यां धर्माधर्माभ्यां उपगृहीतानां शब्दोपलब्धिहेतुनां कर्णशष्कुलीनां व्यवस्थानाद्युक्ता तदधिष्ठाननियमेन शब्दग्रहणव्यवस्था । ऐकात्म्ये तु धर्माधर्मयारव्यवस्थानाच्छरीरव्यवस्थाभावे कि कृता सुख-दुःखात्यन्निव्यवस्था मनस्तसम्बन्धस्यापि साधारणत्वात् । (न्या.कं. पू. २१० ) इति । साम्प्रतं तु वैशेषिकसूत्रं व्यवस्थातो नाना' (वै.सु. ३/२/२०) इत्येवमुपलभ्यते
विपक्षाधमाह अन्यथा नानात्माऽनभ्युपगमे, अन्यशरीरावच्छिन्नादृष्टस्य चैत्रदारीरावच्छिन्नादृष्टस्य अन्यारीरावच्छिन्नफलजनकर देवदत्तशरीरावच्छिन्नसुखादिकारणले कथं नातिप्रसङ्गः १ उपलक्षणात् चैत्रानुभूतस्य देवदनस्मृतत्वादिप्रसङ्गोऽपि द्रष्टव्यः ।
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ननु बालशरीरानुभूतस्य वृद्धशरीरावच्छेदेन रमरण नैवं स्यात्, बालशरीराद वृद्धशरीरस्य भिन्नत्वात् । न च शरीरभेदेऽपि शरीरिण एकवेन नानुभवस्मरणयो: वैयधिकरण्यमिति वाच्यम् एवं सति ब्रह्माद्वैतनयेऽपि एकसन्ताने शरीरसन्नाने एव चैत्रशरीरावच्छिन्ना: दृष्टेन फलजननात् सुखादिकार्योत्पादनातु नायं अनुपदोक्तातिप्रसङ्गगलक्षणां दोष इत्यपि तुल्यमिति चेत् न, यतः किं ऐक्यं ऐस्यपदप्रतिपायं अत्र चैत्रशरीरादी सन्ताने एकजातीयत्वं सजातीयत्वं वा पूर्वापरभावापन्नत्वं वा ? इति कल्पनोभयी समुपतिष्ठते । द्वयमपीदमतिप्रसक्तम्, अन्यसन्तानत्वेन = देवदत्तशरीरसन्तानान्तरविधया अभिमतानां अपि तथात्वात् शरीरत्वेन रूपेण सजातीयत्वात् पूर्वपरभावापन्नत्वात् । न हि चैत्रशरीर मैत्रदाररयो: पूर्वापरत्वं आदि को बुखार होने पर तुम दवा खाने लगोगे, देवदन को ठंड लगने पर तुम काश्मीरी साल से अपने को आच्छादित करने के लिए प्रवृत्त हो जाओगे | इस तरह अद्वैतवाद में प्रवृत्ति के नयत्य का उच्छेद हो जायेगा ।
अष्ट- फल में कार्यकारणभाव से आत्मा अनेक है
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* न्यायकन्दलीसंवादः
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इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि अदृष्ट यानी धर्म-अधर्म और सुख-दुःख के बीच कार्यकारणभाव होता है । धर्म से सुख उत्पन्न होता है और अधर्म से दुःख - यह सर्वमान्य है । सुख उसीको मिलता है जिसमें पुण्य धर्म हो और दुःख उसीको प्राप्त होता है जिसमें अधर्म पाप हो । मगर आत्मा को एक मानने पर तो चैत्र पाप करेगा और मैत्र धर्म करेगा तो भी चैत्र को सुख की प्राप्ति एवं मैत्र को दुःख की प्राप्ति हो जायेगी, क्योंकि चैत्रात्मा और मैत्रात्मा परस्पर अभिन्न हैं । मगर ऐसा नहीं होता है। इसीसे सिद्ध होता है कि आत्मा एक नहीं है किन्तु अनेक हैं । इसलिए तो अन्यत्र भी कहा गया है कि 'व्यवस्था से आत्मा अनेक हैं' व्यवस्था का मतलब है भिन्न व्यक्ति के अदृष्ट से भिन्न व्यक्ति को फल न मिलना, भिन्न व्यक्ति से अनुभूत वस्तु का अन्य को स्मरण न होना इत्यादि । यदि आत्मा को अनेक न मानी जाय तब तो अन्य शरीरावच्छेदेन अदृष्ट होने पर अन्य शरीरावच्छेदेन मुखादि फल उत्पन्न होने का अतिप्रसंग आयेगा, क्योंकि आत्मा तो दोनों की एक ही है ।
ॐ सन्तान में ऐक्य कल्पना अप्रामाणिक क
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एकसं यदि वेदान्ती की ओर से कहा जाय कि
'चैत्र-मैत्र शरीर अलग अलग होने पर भी चैत्रीय शरीर की जो परम्परा चलती है वह एकसन्तान है एवं मैत्रीय बालशरीर, युवाशरीर, वृद्धशरीर की जो परम्परा चलती वह भी एक सन्तान है जो चैत्रीयशरीरसंतान से भिन्न है । अतः चैत्रसरीर से जन्य अदृष्ट से मैत्रशरीर में सुखादि फल की उत्पत्ति का कोई अनिष्ट प्रसङ्ग नहीं आयेगा, क्योंकि अदृष्ट एक ही सन्तान में सुखादि फल को उत्पन्न करना है तो यह भी