Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 291
________________ ८२४ मध्यमादरहस्यं स्वदः ३. का. ११ * ब्रह्मविन्दुपनिषदादिमतापाकरणम् तथा च भिन्नात्मवाद एव सामानाधिकरण्येनाऽदृष्टफलयोर्हेतुहेतुमद्भावो युज्यते । ॐ गयलता परंण नाभ्युपगम्यत इति । ततश्च यथानुभवितुंरकत्वेन बाल्यावस्थायामनुभूतं वृद्धावस्था समय एवं देहान्तरानुभूतमपि स्मर्यत, अनुभवितुरेकत्वात्, अनुभवाचच्छेदकशरीरभिन्नत्वं तूभयत्रैव स्मृत्यवच्छेदक विश्वयाऽभिमते शरीरेऽस्त्येव । तथा च भिन्नात्मवाद एव सामानाधिकरण्येन स्वसमानाधिकरणत्वसम्बन्धेनेव अदृष्टफल्यो : उपलक्षणात् अनुभव स्मरणयोश्च हेतु- हेतुमद्भावो युज्यते, न स्वात्मान | एतेन एक एवं हि भूतात्मा भूने भूते व्यवस्थितः । एकथा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ।। (.चि. १२) इति ब्रह्मबिन्दूपनिपद्भचनम्, 'आत्मैवेदं सर्व' (का. १/२/५/२) इति छान्दोग्योपनिषद्वचनम् 'नेह नानास्ति किञ्चन' (बृ.उप. *४/४२०) इति बृहदारण्यकोपनिषद्वचनम्, 'ब्रह्मैव सर्व (मु.उप. २ / २ / ११) इति मुण्डकोपनिषद्वचनम्, मनसैवेदमातत्र्यं नेह नानास्ति किञ्चन । मृत्योः स मृत्युमाप्नोति नानं पश्यति ॥ (क. ४/१४) इति कठोपनिषद्वचनम्, 'आत्मा या इदमेक एवाग्र आसीन (एं. १ / १) ऐतरेयोपनिषद्वचनञ्च प्रत्याख्यातानि । सोपयोगित्वात् स्याद्वादरत्नाकर प्रदर्शन। नक्त श्रीवादिदेवसूरिभिः तत्र प्रतिक्षेत्रं भिन्न' इत्यमुना पुनर्विशेषणेनात्माद्वैतवादिदर्शनं निरस्यते । दृष्टेष्टबाधितत्वात् । तथाहि संसारिणस्तावदात्मन एकत्वे जननमरणकारणादिप्रतिनियम नोपपद्यते ।। तद खल्वेकस्मिन् जायमाने सर्व एव जायेरन म्रियमाणे म्रियेरन, अन्धादी नेकस्मिन् सर्व एवान्धादयः । विचित्तंते वैकस्मिन् सर्व एव विचित्ताः स्युरिति प्रतिनियमानुत्पत्तिः प्रतिक्षेत्रं तु पुरुषभेदे युज्यत एवं जननादिप्रतिनियमः । न चैकस्यापि पुरुषस्य दशपधान मेदाज्जननीतिनियमः इति युक्तम् पाणिस्तनायुपधानभेदेनापि जननादिप्रतिनियमापत्तेः । न हि पाणी छिन् स्तनादी महत्यवयवं जाते सुवनिर्मृना जाता वा भवतीति । किञ्च संसार्यात्मन एकत्वस्वीकृतावेकस्मिन शरीर व्याप्रियमाणे सर्वायपि शरीराणि सारिन । नानात्वापगमे पुनस्तस्य नायं दीपः । ननु जनन - नरगादिप्रतिनियमः समस्तऽपि भ्रान्त एवेति चेन ? न, भवत इव सर्वस्य तद्भ्रान्तत्वनिश्वासक्तेः । ममैव तनिश्चयस्तदविद्याप्रक्षयादिति चेत् ? न, सर्वस्य तदविद्याप्रक्षयप्रसङ्गात् अन्यथा त्वनी प्रसक्तिर्विरुद्धधर्माध्यासात् । ममावियप्रक्षयो नान्यामिति अप्यविद्याविलसितमेवेति चेत् १ तहिं सर्वोऽप्येवं प्रतिपद्येत । तत्रैवेत्थं प्रतिपत्तों परेषामप्रतिपन्नी तु न कदाचित्रिरुद्धधर्माध्यासान्मुच्यसे । तथा च प्रत्यात्मदृष्टेनात्मभेदेन T तोऽयं संसात्मकत्ववादः । तथेष्टेनापि प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावादिनेति प्रागेव प्रदर्शितम् । तथा मुक्तात्मनोपेकले मोक्षसाधनाभ्यासवैफल्यं परंमात्मनोऽन्यस्य नुक्तस्याऽसम्भवात् सम्भव मुक्तानेकत्वसिद्धिः । यो यः संसारी निर्वाति स स परमात्मन्येकत्र लीयत इत्ययुक्तम्, तस्य विकारित्वप्रात्यानित्यत्वप्रसङ्गात् । तथा च कुतस्तदेकत्वप्रवाद इत्यसापि दृष्टेष्टबाधितः । नवविद्या नानात्माभिमानः इति चेन् नैवन् यतः स्वयमविद्या न तावत्परमात्मनः, तस्य मुक्तत्वेनाऽविद्यासम्पर्कनुपपने: । नापि जीवात्मनानविद्या, तं हि परमात्मनः सकाशादन्येऽनन्ये वा ? यद्यन्ये तदात्माद्वैतविरोधः । अधानत्यं नहिं असंगत है, क्योंकि सन्तान में रहनेवाला एकत्व क्या है ? इसका सम्यक निर्वाचन नहीं हो सकता है । यदि ऐक्य का अर्थ यह किया जाय कि 'संतानस्य ऐक्य एकजातीयत्व स्वरूप है अर्थात् चैत्र के बालशरीर, युवाशरीर, बृजशरीर में एक अनुगत जाति रहती है जिसकी वजह वह एकसन्तान कहा जाता है तो यह अतिप्रसक्त बन जायेगा, क्योंकि अद्वैतभन में आत्मा एक ही होने की वजह एक ही चैत्र के बाल, युवा आदि शरीर में जैसे एक जाति रहती है ठीक वैसे ही मंत्रीय शरीर आदि भी त्रात्मा के ही होने की वजह उनमें भी वह जाति अवश्य रहेगी जो चैत्रीय शरीर में रहती है। तब तो चैत्रशरीरावच्छिन अदृष्ट से मैत्रशरीरावच्छिक सुखादिस्वरूप फल की उत्पत्ति की आपत्ति दुर्निवार बन जायेगी, क्योंकि विवक्षित ऐक्य शरीर में विद्यमान है। यदि संतानगन ऐक्य का अर्थ यह किया जाय कि 'पूर्वापरभावापचत्व ही संतानगत ऐक्य हे तो यह भी अतिप्रसक्त ही होगा, क्योंकि जैसे चैत्रीय बालदह और चैत्रीय वृद्धशरीर में पूर्वोत्तरभावापनत्व रहता है ठीक वैसे ही ज्येष्ठ चैत्र के देह की अपेक्षा मैत्र की काया में पूर्वापरभावापचत्व पूर्वोत्तरकालीन्नभावत्व रहता ही है तब तो वापस चैत्रशरीरावच्छिन्न अदृष्ट से मैत्रशरीरावलि फल के उत्पाद का अनिष्ट प्रसन्न ज्यों का त्यों बना रहेगा । इसलिए यहीं मानना ठीक है कि चैत्र आत्मा और मैत्र आत्मा आदि परस्पर भिन्न हैं । तभी इस नियम का सकेगा कि जो अदृष्ट को उत्पन्न करता है उसीको सुखादि फल की प्राप्ति होती है, न कि अन्य को करण्यसम्बन्ध में अदृष्ट और सुखादि के बीच कार्य कारणभाव के मुताबिक भी आत्माएँ अनेक हैं अच्छी तरह निर्वाह हो - इस तरह सामानाधि • यह सिद्ध होता है । =

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