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१४६ मध्यमस्याद्वादहस्य स्वण्टः : का..१ * नृसिंहमताऽवेदनम *
यथा घटादावाकाशम् । तस्य 'शब्दो द्रव्यहेतुको गुणत्वादि'त्यनुमानात्कार्यकारणभावलक्षणानुकूलतर्कसधीचीनासिध्यत: शब्दपूर्ववृत्तित्वं गृहीत्वैव घटादिपूर्ववृत्तित्वग्रहात् । शब्दस्य 'घटान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वास पूर्वान्यथासिन्दयन्त वशका । संयोगादौ तु द्रव्यत्वेन
-* जयलता - थागिद्धत्वमिति तर्कसङ्ग्रह नृसिंहीयकार: (त.सं..) :
अथ शब्दा द्रव्याश्रिती गुणल्यादेत्यनुमानालन्दाश्रयत्वेनापस्थित आकाशे विनाणि शब्दपूर्वनित्गृहं घनादिपूर्ववृतित्वग्रहसम्भव इति चेन् ? नैवम् गुणस्य साश्रयकत्व व्याप्ती विपक्षबाधकतांगावस्य पूर्वमुक्तत्वाद. शन्नो द्रन्यहतको जन्मगुणत्वादिल्या. || अनुमानादव कार्यकारणभावभड्गप्रसालणविपक्षबाधकतकंप्रयुक्तात्तत्मिद्भरित्याशयनाह - तस्य = आकादाय ‘शनो द्रव्यहेतुक गुणत्वात् - जन्यगणत्वान' इत्यनुमानात् कार्यकारणभावलक्षणानुहलतर्कसधीचीनात सिध्यतः = स्वात्मलाभं लभतः शब्दपूर्ववृत्तित्वं गृहीत्वैव = विज्ञायैव घटादिपूर्ववृत्तित्वग्रहान् । यदि शब्द जन्यगुणत्व सत्यपि द्रव्यहतुकात्वं न स्यात्स्यादेव | तहि जन्यगुण-द्रव्ययाः कार्यकारणभावभङ्ग इति विपक्षबाधकतर्कसहकारगांतानुमानाल्क्लुप्तपृथिव्याटिद्रव्यग्रनियागिकान्यवन्यनिरे -
काननुविधायिनि शब्द आकाशसमवायिकारणकत्वसिद्धिः । ततः कन्दसमवायिकारणवनवाकाशस्य घटादिपूर्ववृनित्वग्रहादन्यथासिद्धत्वं घटादिनिरूपिनमनणग्रपन । .. . . . ... ___कश्चित्तु - ‘शब्दा द्रन्यजन्या जन्यगुणत्वादित्यनुमित्यात्मक-कार्यकारणभावग्रहरूपानुकूलतसहकृतेनैव गन्दो इळ्याश्रिता गुणन्वादि'त्यनुमानन शब्दाश्रयत्वं गगने गृहीत्वा तेन रूपेण घदपूर्ववृनित्वं ग्राह्यम् । तथा च सन्दपूर्ववृतित्वं गृहीत्वैव गगनस्य वटपूर्ववृत्निवग्रहाद् बनिरूपिनान्यथासिदत्वमनपाय नि व्याचष्टे ।
पतन सदाश्रयत्वनान्यथासिद्धत्वमानवति किमनन द्वितीयान्यवासिनिर्वचनंतति प्रत्युक्तम् इन्दस्य घटादिकं प्रनि पृधगन्धपतिरकनिगगित्वशून्यतया तेन प्राक्तनान्यथासिद्धयंचत्वादिन्यादायेनाह . शब्दस्य = शब्दत्वावच्छिन्नस्य घटान्वयन्यनिरकाननुविधायित्वात्र पूर्वान्यधासिद्धयन्तर्भावशङ्का ।
न च घटाकाशसंशंग-विभागादाबाकाशस्यान्पधा सिद्धवप्रसङ्गा दुर्वारः; शब्दसमवाधिकारगत्वनराकास्य घटाकाशगंयोग - विभागादिकं प्रति वृत्तित्वग्रह शब्दपूर्वानत्वटितधर्मावचित्रकारणांनिरूपितघटाकाशसंगंगादिनिष्ठकार्यताश्रयनिरूपितनियत - पूर्ववृत्तित्वाश्रयत्यादिति वाच्यम्, संयोगादी = घटाकाशसंयोग-विभागादिकं प्रति तु गगनस्य द्रव्यत्वेन पूर्ववृजित्वग्रहसम्भरात् । . 'शाद के प्रति आकावा पूर्ववर्ती = कारण है . यह ज्ञान हो ही जाता है । इस रीति में आकाश में वाद के प्रति पूर्वनिता = कारणता का निश्चय कर के ही घटादि कार्य के प्रति उसमें पूर्ववृत्तिता = कारणना का हम निश्रय कर पाते हैं। ऐसी स्थिति में शब्द के प्रति ही आकाश को कारण माना जाता है और घटादि के प्रति उसे अन्यथासिद्ध ही कहा जाता है।
शब्दस्य. । यहाँ इम शंका का कि -> 'दाद के प्रति पुनिता का घट के साथ ही आकाश में ज्ञान होने से 'येन सहव...' इत्यादि प्रधम अन्यथामिद्ध के लक्षण की आकाश में प्रवृत्ति होने की वजह आकाश का अन्नभाव आद्य अन्यथासिद्ध में हो जायेगा' - समाधान यह है कि शब्द के प्रति घट नियत पूर्नवृत्ति नहीं होने से शब्द पद के अन्वय न्यनिक का अनुसरण करता नहीं है तब घट का ज्ञान कर के ही आकाश में शन्द के प्रनि पुर्ववृनिता के भान का प्रामाणिक नियम कैसे बनाया जा सकता है? इससे सिद्ध होता है कि प्रथम अन्यथासिद्ध के लक्षण की आकाश में प्रवृत्ति नहीं होती है। तदर्थ द्वितीय अन्यधामिद्ध का स्वीकार आवश्यक बन जाता है। अतः आकाश का प्रथम अन्यथासिद्ध में अन्नांव अप्रामाणिक है , यह निश्विन होना है।
गंयांगादा. । यहाँ यह शंका करना भी कि. -> 'आकाश वान्द का कारण होने की वजह शब्दहतुत्वेन रूपेण ही आकाश की घट के प्रति पूर्ववृत्ति माना जाय तब हो जैसे आकाश पद के प्रति अन्यधासिद्ध है दीक वैसे ही मंयोग, विभाग आदि के प्रति भी आकाश अन्यथासिद्ध हो जायेगा, कोकि घटाकाशमयोग आदि के प्रति भी आकाश को दहेनुत्यस्वरूप आकाशव धर्म से ही कारण मानना होगा, जिससे आकार में शब्द के प्रति पूर्वनिना = कारणता का भान कर के ही बटाकाशगंयांग आदि के प्रति पूर्ववृत्तिना = कारणना का भान सिद्ध होता है - नामुनासिब है, क्योंकि बदाकारासंयोग आदि के प्रति ना आकाश द्रव्यवन रूपेण पूर्ववृनि बन सकता है । यह जरूरी नहीं है कि आकाश को गदहेतुत्वेन डी घटाकाशसंपांग आदि के प्रति पूर्वनि माना जाय । नब तो शब्द के प्रति पूर्ववृत्तिता का भान किये बिना भी आकाश