Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 350
________________ * स्याद्वादकल्परताव्याख्यालंशः * हापि द्रव्ये सर्वदा स्थायिनि पूर्वपरिणामोच्छेदोत्तरपरिणामोत्पादौ प्रतीतिबलादेव न विरुदाविति || भात इति श्रेयः श्री: ॥५॥ * जयलता. . द्वयोरभेदः; अन्यथा कृतगारसप्रत्याख्यानस्य दुग्धायकैकभोजने:पि न व्रतमङ्गः स्यादिति । तस्मात् = द्रव्यपर्यायोभयात्मकत्वात त्रयात्मकं = उत्पादव्ययधोव्यापृथग्भूतं वस्तु इति स्याद्वादकल्पलतान्याख्यालेशः। निगमपति - तथा इहापि = दान्तिक पि द्रव्ये सर्वदा स्थायिनि द्रव्यत्वस्य ध्वंसप्रतियोगितानवच्छेदकत्वात्, पूर्वपरिणामांच्छेदोत्तरपरिणामोत्पादौ प्रतीतिबलादेव न विरुद्धी अस्खलत्सार्वजनीनस्वरसवाहिप्रत्यक्षस्यानपलपनीयत्वात् इति भावः । यथा चैतत्तत्त्वं तथा पूर्वमनेको विभावितमचेत्यलं विस्तरंगनि शम् ||१२|| इस जयलताकृत्प्रशस्तिः तपागच्छे श्रीसगुणगणमणिश्रेणिनिधयः तप:श्रीन्यायाम्भानिधय उचिताचारविधयः । स्वभक्तच्छापूर्त्तिचिदशतरवा बुद्धिगुरवः समुद्भूताः श्रीमद्विजयिविजयानन्दगुरवः ॥१॥ श्रीसंघे ददतां विद्यासौख्यकल्याणसम्पदः । पट्टपद्माकरे तेषां जातः कमलसूरिराट् ॥२॥ तत्पगगने जातो वीरविजयवाचकः । चन्द्रवद्गोविलासैः कुवलयवोधतत्परः ॥३॥ तत्यगगनदिनमशिरजनिष्ट जनेष्टदानदेवमणिः । श्रीविजयदानमुनिमगिरनुगुणाधरितरजनिमणिः ॥४. रत्नाकरादिवतस्मात् शिष्यरत्नं बभूव सत् । वीशी पे हि नो मन्ये यद्गुणवर्णने प्रभुः ।।५।। सौभाग्याद्भुतवैभवो भवमहाम्भोराशिकुम्नीश्वः । तन्पढें गुस्प्रेमसूरिंगणभृन्नन्यादविद्यापहः ||६|| दाक्षिण्यैकनिधिळधान्न सहजे देहे-प्यहो मूर्छितं कारुण्यामृतवारिधिर्विनिदधे गुप्तौ स्वकीयं मनः । शान्तात्माऽनुचरं चिरस्य विनिजग्राहन्द्रियाणां गणं, यो विज्ञातसमस्तदस्तुरभवत् तुल्यश्च हेमाश्मनोः ॥७|| कालिमकृति कलिकाले कालेऽभूत् कालिमा मनाग नास्य । प्रत्युत स एव येन स्वयशस्सुधया शुचीचक्रे ||८|| मनसि घनविवेकस्नेहसंसेकदीतो द्युतिनतनुत यस्प ज्ञानरूपः प्रदीपः । असमतमतमांसि ध्वंसपत्रासाऽसौ न खलु मलिमसं स्वं किन्तु कुत्रापि चक्रे ||२|| वर्ण्यते किमतः तस्य श्रीसिद्धान्तमहोदधेः । माहात्म्यं यत्करस्पर्शान् संसारी संयमी भवेत् ॥१०॥ तत्रोदियाप तमसामवसायहेतुर्निस्तारक्युतिभरी भुवनप्रकाशः । गच्छाधिषी भुवनभानुगणी नमस्यपादा नवार्क इव सहितकञ्चित्तः ।।११।। नैयायिकानामुपकारकाणां तपस्विनां कीर्तिमतां कवीनाम् । अव्यपकानां सुधियां च मध्ये दध सदा यः प्रधमत्वमेव ||१२|| सुरगुरुसमा प्रेक्षा गिरश्च अवस: सुधा, अधरितधरं धैर्य यस्य क्षमानुऋतक्षमा । शमदमवनः पाताल प्राविशद्भवलं यशः शशिज्यकरं नाभूत्कस्याद्भुताय मुन्प्रिभोः ||१३|| न लगेगा और दधिभोजनव्रती दुग्ध का आस्वाद को नर भी उसे पाप न लगेगा । मगर ऐसा नहीं है। इससे दुध और दही में भेद सिद्ध होता है। मगर जिसने गोरस का प्रत्याख्यान किया है वह न तो दूध को पीता है और न तो दही को खाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि दुग्ध और दधि में गोरसात्मना अभंद रहता है। केवल दुध ही गोरस हो तब तो दधिभक्षण करने पर भी गोरसप्रत्याख्यानी को पाप न लगना चाहिए और केवल इधि ही गोरस हो तर तो दुग्धपान करने पर भी गोरसप्रत्याख्यानी को पापकर्मचन्ध नहीं होना चाहिए । मगर ऐसा होता नहीं है । गोरसप्रत्याख्यानी राहे दूधपान करे या दधिमक्षण करे मगर उसे पापकर्मबन्ध होता है । इसोसे सिद्ध होता है कि दूध और दही गोरसात्मना परस्पर अमित्र भी हैं। मतलब कि दधि का उत्पाद, दुग्धविनाश एवं गोरसस्थैर्य परस्पर एक काल में एक द्रव्य में विरुद्ध नहीं है . यह सिद्ध होता है। जैसे इस दृष्टान्त में उत्पाद-व्यप-ध्रौव्य त्रितयात्मकता की सिद्धि होती है ठीक वैसे ही यहाँ सर्वदा स्थायी द्रग्य में पूर्वकालीन परिणाम का नाश और उत्तरपरिणाम का जन्म भी प्रतीति के बल से ही परस्पर विरुद्ध नहीं है। इसकी शांति से भावना करनी चाहिए ॥१॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363