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3973 कलिकालसर्वज्ञ आचार्यदेवश्री हेमचन्द्रसूरिचित तीतरामस्तोगाष्टमप्रकाशाततिहितमार्मोन
साराविशारद - न्यायाचार्य - महामहोपाध्यायश्री यशोविजयरिगवररचित
मुनि यशोविजाकत - जिलातावृति - रमणीयाव्याख्याऽchied
स्याद्वादरहस्य
(मध्यम)
(तृतीय खण्ड)
(दिव्याशिष) मातपोनिधि यायविशारद संघहितचिवक गच्छाधिपति स्व.आचार्यदेवेश
श्रीमदविजय भुक्तभानुसूरीश्वरजी महाराज
(प्रेरक-प्रोत्साहक) शिदानवाकर गाधिपति आचार्यदेव श्रीमविजय
जयघोषसूरीमारजी मसat
-: प्राप्तिस्थान :
-: प्रकाशक :
दिव्यदर्शन ट्रस्ट ३६. कलिकुण्ड सोमायटी,
धोलका. Pirn - 387810.
१. प्रकाशक २, भरतभाइ चतुरदास शाह, कालुशीपाल, कालूपुर,
अमदाबाद. Pin -380001
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मध्यमस्यावादरहस्ये बण्डः-३ का.५
हे शारने मा.... ... ... ... (२)
तता से हमें तार दे मा... हे. jार की देवी से संजीत तुज से हर मोरे, हर जीव तुज से हमे है अकेले, हम हैं अधूरे मेरी शरत में हमें चार से मा..हे. सुनियोंने समझी, गुणियो को lott संतो को भाषा, आगमों की वानी हम भी तो समझे, हम तो जाने विद्या का हाको Etcार दे मा...हे. तु विधी कगल ऐ बिराजे हाथों में वीणा, मुना सर पे का माल से हारे मिटा शेरे 6मको उजालों का परिवार दे मा...हे.
ग्रंथशरीरपरिचय
पत्रक्रमांक
प्रकाशकीय वक्तव्य
अवतरणिका विषयानुक्रम प्रस्तुत प्रकरण - तृतीय खण्ड
परिशिष्ट १ से २
| ५४९-८८४
८८५-८९१
संशोधक न्यायादिशास्त्रमर्मज्ञ तपोस्त मुनिप्रवरश्री पुण्यरत्नविजयजी महाराज
कोम्युटर्स टाईए सेटींग 卐 प्रथम आवृति ]
श्री पार्श्व कोम्प्युटर्स, • वि.सं. २०५२
| २३, चार सोसायटी, केजरत्न पर, मूल्य: क.१४५.००
धोडासर, अहमदावाद-1000१0. नकल - ६००
प्रोन :- 396246
सर्वाधिकार श्रमणप्रधान -श्री श्वेतांबरमूर्तिपूजक जैन संघ के स्वाधीन
नांध :- बह ग्रंब लामिक जयनाराक मन साधु यावानी भगवंत की भेट रूप में मिल सकेगा । ताननिधि में प्रस्तुत पुस्तक का
मुद्रण माग म बिना न के गृहस्प र पुस्तक को अपनी मालिकी में नहीं रख सकते ।
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दीक्षा
जन्म
:- बि. सं. १८५२ अपाढ रद . २ बम्बई
वि.सं. २००६ वैशाख वद . ६ बम्बई गणिपद :- वि. सं. २०३५ कार्तिक रद . १. अमदावाद पन्यासपद : चि. सं. २०७४ बैशाख शुक्ल . . भमदाबाद आचार्यपट :- वि. सं. २०४० महाशुक्ल . १३ जलगाँव गठाधिपनिपद :. वि. सं. २०४५ वैशाख वद - ४ बम्बई
1509IINTub) || शिद्धांतदिवाकर Tesonlend । पामलात जाय जयघोषसूरीश्वरजी महाराजा) col में समर्पण
- शिशु यशोविजय
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मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड: - ३
प्रकाशकीय वक्तव्य
held meter dan (get ast) ei miten de ceus) à quattr कम और तीन खान प्रस्तुत करते हुए हम अपूर्व आनंद
स्वादरूप ( महम) की अनुभूति कर रहे है। प्रकृतीस्खा में
के को
es la
BUJANGIÇ er nicht aus siege tante मुदित है।
केासकों के गलत गरायों तंत्र में समीक्षा की है हरि हेरेबलाइट्स, रेन्महोणस, परमेश तंत्र देमल, रिपेनोशा, शोपाहार आभारोइस, एरिस्ट प्लेटले हिलेल आदि मिलोसोफरों की भात वयों को भी सरखा समालोचना जलता के तीनों खानों में की है, जिसका पता हमें तीनों स्वा की विषमादक परम आने पर मिला है // काल करने से
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जैव की अल्पता का भी हमें काम झाा प्राप्त हुआ। साथ ही सुगम एवं स्पष्लरूप से स्वाद रहस्य ( महम) के पदार्थभावार्थ का चोरा करताली रमणीय हिन्दी व्याख्यातो तो 'सोतो में ' कहावत चरितार्थ कर दी है। जैसे उपयोगी महत्त्वपूर्ण कोन दालीक अन्य की संस्कृत एवं हिन्दी भाषा के माध्यम से इतनी सुन्दर व्याख्या प्रस्तुत करने के लिये हम मुनिश्री गोविजीका करते हैं और रखते हैं कि इस प्रकार के संघों की संस्कृत-हिन्दी-गुजराती भाषा के माध्यम से व्याख्या करते हुए महोपाध्यायजी महाराज के साहित्यको हित एवं स्पष्ट कर के प्राथमिक अभ्यासुर्ग के बनायें तथा तिस्तान से अध्यापनक्षेत्र की सीमा से बाहर रह गये श्रम के अनंत अमुल्य संथों को क्षेत्र में लाने का श्रेय और प्रेम करे तथा उन ग्रंथों जातीयों के प्रकाशन का नाम हमारी संस्था को देने के लिये उभारता प्रदर्शित करें। परत महत्वपूर्ण के स्वाम की दोनों व्याख्यानों में मुति रहने पायेतदर्थ कदिपरिकर्मितमति सस्ती निधी पुनस्त्नविजयजी महाराज को संशोधन के लिये पर्ला पश्चिम लिया है। अभी कमी है। कार्य में कोई क्षति रह जाए उसके लिये व्याख्याकार गुलियोले भी है। फिर भी गुलक कोई पुर
समर्थ में कमांक उदास उसवम परेशान करने के के और
सूरची महारान से निर्मितीत
कारकों का महान श्रीजगारविरति (महराम) recen
सेमारी है । प्रकाशन के समयावधि में सर्वाभ सदर कम्पोज सेटिंग मुद्रमदि कार्यसोहेल तृतीय स्थान के प्रकाश में पार्थ कोम्नसंवाले अजमाई तथा भाई को भी सविन सोच है भी हमारे नियति स्त
भुवनभानु सूरीश्वरजी महाराजा को पुनित प्रेरणा से प्रारम्भ हमारी संस्था को आज भी उनकी दिव्य कृपा से ऐसे भारतीय प्रवल रहा है। इस बात का हमें गौरव है और
भी ऐसे
साल के प्रकाशन कालाहारी संख्या को मिलता हो ऐसे
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की हम प.पू.
गुरु से करते है
प्रवारी समुद्रास इसका सकरके पारमार्थिक विश्कों के की ओर मचे करे यहाँ एक शुभेच्छा /
परमपूज्य सिद्धांत दिवाकर गाभिने अन्य श्रीमद्विजयजय सूरीधरजी म.सा. पासवरी पद्मसंनविजयजी गणिवर की शुभम जैन संघ हुबली श्रीगोडीजी महाराज ट्रस्ट, पानी की निजी विजयी कसे वागर जैन संघ, गोग्गॉन बम्बई की ओर से ज्ञाननिधि से शर्थिक सहयोग मिला है
लिं. विकवमिट्रस्ट के ट्रस्टी कुमारपाल वि. शाह भरतभाई चतुरवास शाह मयंक भाई शाह आदि
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|| श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः ||
अवतरणिका
"मेरी कृति क्यों पसंद नहीं आई ? क्या वह मौलिक एवं अच्छी नहीं है ?'
"जी हजरत ! वह मौलिक भी है और अच्छी भी। किन्तु इस कृति का जो भाग भौलिक है वह अच्छा नहीं है और जी भाग अच्छा है वह तनिक भी मौलिक नहीं है
मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्ड :
=
पर्युक्त प्रसन में एकान्नयादी के सिद्धान्तों का प्रतिविम्व निहित है। उनमें तनिक भी मौलिकता नहीं है या आंशिक भी समानता नहीं है ऐसा नहीं है किन्तु उनमें जो मौलिकता है वह मिथ्यात्व एवं कुतर्कण्टक और कुयुक्तिस्वरूप कंकड़ों से व्याप्त होने के सबब भयावह है और उनमें जा समाई समीचीनता है वह मौलिक एकान्तवादनिर्मित नहीं है, अपितु जनकान्तवाद पर अवलम्बित है। एकान्तवाद में उपलब्ध मौलिकता एवं सत्यता विश्वल है, क्योंकि यह मीतिकमा मिध्यात्वत्रयुक्त है और सत्यना अनेकान्सवादप्रयुक्त है, द्वादशाङ्गीमूलक है। जैसे प्राज्ञ प्रेमीजन इत्र की आमोद और कृत्रिम आकार होने पर भी मौलिक जड़ता एवं प्राणहीनता के सवव कागज के फूलों के ग्राहक बनते नहीं हैं ठीक वैसे ही प्राज्ञ मुमुक्षुजन भी स्वचित् स्याद्वादस्वीकारमूलक मत्वना एवं सरस्वतीप्रसादप्रयुक्त तर्कगर्भितला होने पर भी मौलिक मिध्यात्व एवं के सिद्धान्तों के उपासक बनते नहीं हैं। जब कि अनेकान्तवाद में उपलब्ध मौलिकता तथा मन्पना ठीक वैसे ही व्याप्त है जैसे प्राकृतिक गुलाब में निहित सौंदर्य और सुवास अतएव परमात्मप्रेमी मु सापेक्षवादस्वरूप सुमन मे सचिदानंदस्वरूप परमेश्वर की पूजा पर्युपासना किये बिना रह नहीं सकते। परदर्शनी के एकान्न सिद्धान्तों में जी क्वाचित्क कादाचित्क सत्यता उपलब्ध होती है वह भी मौलिक सम्पक सापेक्षवाद पर ही निर्भर है। यह निरूपण कलिकालसर्वज्ञ श्रहमचंद्राचार्यजी ने वीतरागस्तीय के अष्टम प्रकाश में किया, जिसके रहस्यार्थ ऐदम्प की व्यक्त करने के लिये महापाध्याय श्रीमद् पशाविजयजी महाराज ने स्याद्वादरहस्य नामक तीन विवरण ग्रन्थ बनाये
मध्यमपरिमाण स्याद्वाद रहस्य ग्रन्थ के दो खण्डों का प्रकाशन होने के बाद तृतीय खण्ड वाचकवर्ग के करकमल में प्रस्तुत हो रहा है, जिसमें पूर्वचन उपलता (संस्कृत टीका) एवं रमणीचा (हिन्दी टीका) का समावेश किया गया है। वीतरागस्तांन के अष्टम प्रकाश की ९.१०.११.१२वीं कारिकाओं का विवरण प्रस्तुत तृतीय खण्ड में समाविष्ट है। वीं कारिका में चित्रप का स्वीकार करनेवाले वैशेषिक एवं नैयायिक भी स्वाद्वाद का स्वीकार करते हैं। इसका निर्देश पल है। इस कारिका में निहित रहस्यार्थ का चंतन श्रीमदजी ने नत्र्य न्याय की पारिभाषिक पदावली में हृदयंगम वाली से किया है। यद्यपि साम्प्रदायिक प्राचीन नैयायिक एवं वैशेषिक जिस पद्धति से स्वतन्त्र चित्र रूप का प्रस्थापन करते है उसमें अनेकान्तवाद का प्रतिविम्ब अदुष्टचर है तथापि नीलपीत रक्तादिकपाल से आरब्ध घट में नीलपीताभवजन्य चित्ररूप निरवती भवजन्य चित्ररूप आदि अनेक चित्र रूप का स्वीकार करनेवाले नैयायिकदेशीय के मत में तो अनेकान्तवाद का अङ्गीकार अनिवार्य ही है
इस विषय का महोपाध्याय ने अप्रतिम प्रतिभा से प्रतिपादन किया है। चित्ररूपविषयक विशेष विवेचन के लिये श्रीमदजी ने स्वरचित व्यत्ययाद और चित्ररूपप्रकाश का अवलोकन करने की सूचना की है। साम्प्रतकाल में श्रीमदजी का समवादगर्भित वादनामक ग्रन्थ उपलब्ध है जिसमें प्रथमपाद है चित्ररूपप्रकाश व्यापवादार्थ ग्रन्थ अभी अप्राप्य है। इनके अलावा स्याद्वादकल्पलता (स्तबक्र. ६. कारिका, ३७), नयापदेश, आत्मख्याति आदि श्रीमदजी के ग्रन्थों में भी चित्र रूप का विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। चित्र अमंद, सामान्य विशेष, उपसर्जनत्य अनुपसर्जनत्व, वाच्यत्यावाच्यत्व आदि के विरोध का परिहार शब्द और अर्थ के बीच संकुलनामक सम्बन्ध के स्थान में वान्यवाचकभाव सम्बन्ध का स्थापन कर के वों कारिका का विवरण समाप्त किया गया है । मिश्रः विरुद्ध सत्त्वगु का अपलाप कर नहीं मना
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मांगा के पश्चात् भेद किया गया है। अंत में
रजांगुण, तमोगुण से घटित प्रकृतितत्त्व का स्वीकार करनेवाला सांख्य मनीषी भी अनेकान्तवाद इस विषय का संक्षित निरुपण १०वीं कारिका एवं उसके विवरण में उपलब्ध है । ११वीं कारिका में परलोक, आत्मा, मोक्ष के बारे में भ्रान्त नास्तिक के मत की उपेक्षा की १. दिव्यदर्शन ट्रस्ट की प्रस्तुत माला ग्रन्थ का प्रकाशन हो चुका है, जिसमे गतिश्री पशविजयी हेमरता (संस्कृत टीका एवं चहा (हिन्दी) टीका का समावेश किया गया है।
कलिकालसर्वज्ञजी
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मध्यमस्याबादरहस्य खण्ड:
है मगर श्रीमदजी ने मन की कड़ी समीक्षा की है । पृथ्वी आदि भूतचनुष्क में रिक्त आत्मतन्त्र का स्वीकार आवश्यक है. यह सिद्ध कर के प्राचीन नास्तिकमत का संक्षेप से जा निराकरण यहाँ किया गश है वह स्याद्वादरत्नाकर. धर्मसंग्रहणी, स्याद्वादभंजरा आदि प्राचीन ग्रन्थों में विस्तार से उपलब्ध है । नव्य नास्तिक का मत यह है कि --> 'अवच्छेदकलासम्बन्ध में डादि के प्रति अवच्छेदकतासम्बन्ध से कारणीभूत शरीर में लाघव से तादात्म्यसम्बन्ध से ही कारणता का स्वीकार सङ्गन है, जिसके फलस्वरूप शर्गरानतिरिक्त आन्भद्रव्य की सिद्धि होती है। एवं अनुमिति भी मानस प्रत्यक्षात्मक ही है, न कि प्रत्यक्षभिन्न मा <- किन्तु श्रीमद महोपाध्यायजी ने अपना प्रकाण्ड प्रज्ञा से नव्यनास्तिक मत का निराकरण कर कं. आत्मा का दागा भिन्न एवं अनुमिति की मानस प्रत्यक्ष से भिन्न सिद्ध की है । इस विषय का भी विस्तार से निरूपण स्यावादकम्पलता में प्रथम स्तबक एवं न्यायालांक में श्रीमदजी ने किया है। प्रासङ्गिक रूप से दिशा और आकार में अभेद का (पृष्ठ ६८५.) श्रीमदजी ने निम्पण किया है । तत्पश्चात् शब्द में व्यत्व की सिद्धि के प्रमग में दाद को पवनगुण माननवाले नव्यन यायिक के मन का उन्मूलन किया गया है । आगे चल कर शब्द का नित्य माननंगलं मीमांसकों के मन का गचं गन्द को अनित्य माननेवालं नैयायिकों के मत का प्रतिपादन एवं प्रत्याख्यान कर के शब्द में नित्यानित्यत्व की सिद्धि की गई है (पृष्ठ ७३६) । तदनन्तर मन का अतिरिक्त सिद्ध कर के 'धर्म - अधर्म - आकाशजाँच - समय - पुद्रा ट्रय ह' इस जिनीवन द्रव्यविभाग की समाचानता स्थापित की गई है, (एप्प ७३९-७४३) । द्रव्यविभाग निरूपण के प्रसङ्ग में यहाँ जमा उदयविधेयभावनिरूपण उपलब्ध है. जहाँ तक हमारा ग्ल्याल, वैग उदेश्यविधेयभाव का मूक्ष्म प्रतिपादन अन्यत्र अपव्य है (गृष्ट ७४ पृष्ट ४.४।। जात्मा में चैतन्यात्मकता की मिद्धि के प्रसङ्ग से ज्ञानानात्मक
आत्मग को मानने वाले मान्यनन का (पट ७६ } एवं ज्ञाना-ज्ञानामथस्वभाव आत्मद्रव्य के प्रस्थापक भट्ट के मन का (पृष्ठ ७६.७) निराकरण किया गया है। बाद में आत्मा को परिणामी, कर्ता और साक्षात भाका सिद्ध कर के योग - सांगव्य - भट्ट मत का निगन किया गया है (पृष्ठ ७७.) । तत्पशान ८१ इलाकों में नैयायिकादिगम्मत आत्मविभुत्वबाट की सूक्ष्म समीक्षा की गई है (पृष्ठ ७७०-८१७) । तदनन्तर आत्माद्धतमत का निराकरण कर के अनेक आत्मा की सिद्धि की गई है (पृष्ठ ८२) और अनुप पौगलिक है' इस बात का निर्देश (पृष्ठ ८२६) किया गया है । आगे चल कर माक्ष के प्रति समुचित ज्ञान और क्रिया में मोक्षकारणता का प्रतिपादन कर के विस्तारार्थ स्वकृन ज्ञानकर्मसमुचयवाद की देखने का निर्देश किया गया है। हमारा सौभाग्य है कि महोपाध्यायकृत नयापदा ग्रन्थ की स्वीपज्ञ नयामृततर्राङ्गणानामक विनि के अन्तिम भाग में ज्ञानकर्मसमुचयवाद संपूर्णतया उपलब्ध है । बाद में प्रसङ्गसङ्गति से अन्यथासिद्धि की मननीय नीमांसा श्रीमदी ने की है। हमारा दर्भाम्प है कि पाँचवी अन्यथा मिद्रि के प्रतिपादन का प्रारम्भ होने के पश्चात श्रीमदजी का यह मध्यमपरिमाण +पादादरहल्यनामक विवरणग्रन्थ मूलादर्श में भी अनुपलब्ध है । इस (अन्यथासिद्धि) विश्ण का निरूपण वादवारिधि आदि ग्रन्धों ग ग श्रीमदजी की अनेकान्तब्यवस्थानामक. कृत्ति में विस्तार में उपलब्ध है, जिसके अनुसार मन त्रुटित व्याख्या का अनुसन्धान कर के ११वीं कारिका की मूल व्याख्या पूर्ण करने का प्रयत्न किया है और उसकी भी जपलता (संस्कृत टीका) और रमणीया (हिन्दी टीका) में निवेचना की है।
१२वीं कीरिक + गोम्सदृष्टान्न से उत्पाद-यय-धान्य का प्रत्यक वस्तु में व्यापकता का, जो सर्वज्ञकथिन है, स्वीकार सत्सरीक्षाकुशल व्यक्ति । -इस विषय का प्रनिगढन कर के मूलकारश्री ने अष्टम प्रकाश का उपमंहार किया है । मगर प्रस्तुत मभ्यमानाय गावाटरहस्यनामक विवरणग्रन्थ त्रुटित होने की वजह १२वीं कारिका विवरण में अलङ्कत नहीं है। अनार ग्रन्धान ग १२ वी कारिका की लयुगरिमाग स्याद्वादरहम्य में जो व्याख्या उपलब्ध है, वहीं यहाँ मध्यमपरिमाण ज्यादादरहस्य नामक बरिन वारणमन्य के अनुसन्धान में मंने समाविष्ट की है, और उसका भी विवचन जयदता और रमणीया में किया है।
टीमादयसपनाबारे में
गरहितांगरत गगनाव पूज्य गुरुजनों का आदिप ल कर वि.सं. २: महा सुद ? के इशभ दिन सुबह करी ५समय पर मदार आगमनाभग्न में स्वादादरम्य ग्रंथ पर जयस्ता टाका प रमणच्या व्याख्या के मर्जन का श्रीगशा
१. दिशादर्शनरस्ट की ओर से महापाभ्याप रानत पाहार इंच का प्रकादान हो चूका है. जिन गाना चोधितपनन भानुमती
(सम्कृत) का न निदा पनी (गजगता) पाय गमावर है ।
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मध्यमस्याद्वादरहस्य खबर:-३ हुला । अध्यापन आदि कार्य में अधिक कायम रहने की वजह मंत्र मास तक प्रथम खंड के कंबल १४ पृष्ठ तक लखनकार्य हुआ । मत्र मास में मद्रास स कोईम्बतर की और पूज्य विद्यागुरुदेव निराजश्री जयसुन्दरविजयजी म.सा. (वर्तमान में पन्यामप्रवर) की पावन निश्रा में बिहार का शुभारंभ हुआ और विहार काल के दौरान प्रथम खण्ड के पृ.४५ से पृ. ५. नक व्यायाधर का निर्माण हुआ । 'परमपूज्य वर्धमाननगनिधि दादागुरुदेव श्रीमविजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महागज की पवित्र निश्रा में काईचतुर में चातुर्मामनवर स लंकर मासक्षमण (३१ उपवास) तपश्चर्या की पूर्णाहति पर्यन्त व्याख्याद्वयसहित पृ.१.१ म पृ.१८ तक लपवन हुआ । गतुगर के गप भाग में प्रथम खण्ड का अवशिष्ट कार्य (पृ.१८१ में पृ.२१७ क की दानां व्यारन्याओं का गर्जन) समा । बानुर्मास के बाद कोईम्बतर से इरोड़ होकर महामास में बंगलोर हुंचे जयक विका * चार दिनीन बाट के पृ.२१८ म पृ.५२. तक टीकाद्वय का कार्य हुआ । तत्पश्चान वनलार मं प्राय: ५ माम की स्थिरता के काल में
.: तक दोनों विचनाशा का सृजन हुआ । बाद में बैंग्लोर सं हुबली की और बिहार काल के मध्य
में प....५ तक दोनों ज्याच्या ओं का कार्य सम्पन्न हुआ। परमपूज्य दादागमदेवश्री का धन्यनिश्रा में हुबलीनगर में चानुमामाचा में सिद्धि नष का शुभारंभ किया और उसकी समाप्ति तक नृतीय ग्बण्ड के ...... स पृ.७, तक दानां व्याख्या का आलंग्वन हमा । उप चन्नुमास के शेष भाग में प्रस्तुत तृतीय खण्ड के .. ..... नक दाना टीकामा पर्जन के साथ वि.सं. १८ कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा के दिन सुबह टीकाइयकार्य समाम हुआ । प्रतिदिन प्रायः / घंटे तक संयमीओं के अध्यापन कार्य को मुग्ध कर के जो समग चरता था उसम. २१ नाम की कालिक अवधि में, उपयुक्त जयलता एवं रमणीया दानों व्याच्याओं का सृजन एवं समापन हुआ। इसमें पाद गुरुजनों की महती मा एवं महाले आशिष ही प्रधान कारण है. अन्यथा इतना लम्बा • चौडा जटिल कार्य करना मा बस की बात ही कहाँ ? न्यारन्यादयस्वरूप बडे हिमालय के एयरस्ट दिखिर तक पहुंचना मेर जन पंग जन के लिये स्वप्न में भी नामुमकिन था । माना कि गुरुजनों की कृपाग्यमय रॉकंद / मुनिक को पाकर मैं वहाँ तक पहुंच गया, जिसके बाद आनंद की कोई अवधि ही नहीं रही ।
कुलकर के कुल १,७८. का मंग हस्नलिखित मंटर मुद्रण के तानां वण्डों में मिल कर ८८५ प में समाविष्ट है । महल मुहूर्त में गारंभ के पश्चात टीकादय का सर्जन कार्य नियमित रूप में आगे चलता रहा और बीच में प्रायः किसी भी विग्न न रुकावट नहीं इाली . सा गुरुजनां की गर्यपास्ति एवं प्रभाव का अनुठा फलास्वाद करने का सहभाग्य पत्रं सद्भाग्य मिला. जिससे प्राप्त आनंद के अनुभव की शब्दावली में बांध कर विज वाचकवर्ग के सामने पेश करने के लिंग में असमर्थ है । जब गांव :
उUPICHAR
नव्यन्याय की गई परिभापिक पदावली में गर्भित नवीन अकाट्य तकंजाल से जिस ग्रन्थ का प्राय: प्रत्यक पवित न्याम है. ग अनिटिल प्रस्नल ग्रन्थ की संस्कन और हिन्दी का का सर्जन एवं संपादन करना में वास की बात ही कहाँ ? किन्नु स्वर्गस्य सिद्धान्तमहोदधि मूरिशिगर्माण सुविशालगन्चाधिपति गहाणु अमणी भगवान प्रेममूरीश्वरजी महाराजा * पट्टारकार संघहिचिन्तक न्यायविशारद वर्धमाननगनिधि गच्छाधिपति दादागुरुदेव श्रीमदविजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महागजा के मङ्गल आदि में दाकर कार्य भी खुकर बन गया । मो जीवन में गुरुकृपा का या गव में बहा कल्पनानीन चमत्कार नि:सन्दिग्धता में कहा | मकन। ।।
आपके पट्टालङ्कार सादिवाकर सुविशालकमंग़ाहित्यगर्जक समतारागर गरिवर श्रीमदविजय जयघोपसूरिजी महागज की भी मल अवसर पर कैसे चमर सकता है जिनकी कृपा म एवं अगलय मार्गदर्शन से हमाग संयमवश्ग सदा प्रसन्न - प्रफुलिन जी पाया रहा है ।
माम भवाध में इवता हई हमाग मा का, अनि पाग की एमाह किये बिना नियाजकृगारज दादा कर के रमणीय रत्नत्रय का दान करने वाले सामानावर पविजयजापानमा कायमचंगगा सुन्निर हेमचन्द्रग्जिी मसान की निर्धासिकता की काय मूल मकना :
प्रस्तन ग्रन्य के प्रथम खण्ड क संशोधक तकसमान पतामवाप्रतिनाममात्र विद्यागुरुदेव पंन्यासप्रवर श्री जयसुन्दरविजयजी गणिवर मार्गदर्शन मंशाचनमहायता के चिना में यह भगारय कार्य कर हांगिल कर सकता ?
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मध्यमस्याद्वादरहस्य स्वयः-३
पग्रमणितीयोंद्धारक प्रशनिस्वभाव पूज्यपाद गुरुदेवश्री विश्वकल्याणविजयजी महाराज मेरे लिये सदैव स्मरणीय . बंदीय - उपासनीय बने रहेंगे, जिनकी पाचन प्रेरणा से रत्नत्रचीसग्निा में नयी उद्योगउमियाँ उमड़ रही हैं ।
निस्वार्धपरार्थव्यसनी पडदर्शनपरिकर्मिनान सूक्ष्मप्रज्ञासम्पन्न तपांगत मुनिराजश्री पुण्यरत्नविजयजी महाराज को कदापि भूल नहीं सकना, जिन्होंने प्रस्तृत संपूर्ण ग्रन्थ के टीकाद्धययुक्त नीना खंडों के मंशोधन की जबाबदारी उदारता से स्वीकृत की और प्रसन्नता एवं नि:स्वार्थता से निभाई ।
प्रारम्भिकन्यायादिविद्याप्रदाता संपर्मकला मुनिराजनी अभयशेखरविजयजी महाराज, प्राकृतादिविद्यादाता सदाप मन्त्र मुनिराजश्री अजितशेखरविजयजी महाराज, रत्नत्रयीसमाररावक अात्माय कल्यागभित्र मुनिवरश्री कल्याणगेधिविजयजी महाराज, श्रीमुक्तिबल्लभविजयजी महाराज, श्रीचिमलनोधिविजयजी महाराज, श्रीयुगसुन्दरविजयजी महाराज आदि तथा सहवर्ती सब मुनिभगवंतो के सहकार को भी में नहीं भूल सकता ।
इस गन्ध का अध्ययन कर के मुमुक्षुत्रगं कदाग्रहरिपमुन होकर विश्वकल्याणकर एवं विश्वमहाटकर अनेकान्तवाद का उपासक बन कर जात्मश्रेय और प्रेम को प्राप्त कर यही मङ्गलकामना ।
गुरुपादपमरणु मुनि यशोविजय कारसूरि आराधना भवन, सुरन, वि.सं. २०४०..
MARACEB
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विपय
चित्ररूपवादप्रारम्भः
पि
नीलाभावादः प्रतिबन्धकत्वविचारः
नीलरूपाभाव नीलरूप का प्रतिबंधक से नहीं
सकस
पीटरपाकवाटी नीलाभापाविषन्धकत्वनिराकरणम्
लघुस्याद्भादरहस्यसंवादः
नीलाभावादि में चित्रमुमकिन
पा
पृथ्वी ही चित्ररूप का छन् है नीलाभावाभित्रकारणताविचार:
कार्यसहभाव से हेतुला का चिनार
लघुस्याहारस्यसंवाद:
|रूपमात्रजाऽतिरिकन चित्ररूप के प्रति पाक
कारण-मतविष
पाकजचित्रप्रतिशेषः
अपरमतयतनम्
विषयमार्गदर्शिका
विषय
नीलपीतार नीलानुत्पादनिरूपणम्
|| रामभद्रसावभीममतारिणम्
चित्ररूप के प्रति रूपत्वेन कान्ता रामभद्र सार्वभौम
रामभद्रमतमीमांसा
असमवायिकारणत्वेन हेतुताप्रकाशनम
अयमवायिकारणत्वस्याननुगतम् जन्यरूपकारणमापिमर्शः
जनरूप के प्रति रूपगामान्य कारण सम्बन्धानुगमस्या दोनाची जाविष्कार कारणत छेदक सम्बन्ध में अननुन निर्दोष नीरतर नामजन्पचित्ररूपसमर्थनम स्वविजातीयत्वस्वसंवलितत्वपदार्थविशदीकरणम विजातीयरूप की कारणता का विचार कपनम्
नाधिकारणतागर्भित विपनामा कता पादस्वभावस्य चित्रकारणता रुन चित्रकारणत्वप्रतिपादनम् अखण्डाभावत्वंन कारणनानङ्गीकारः
विभिन्न निन्न रूप की विभिन्न कारणता
कल्पलतायनुसारेण यापाठोपा रूपरूप पाकर प्रतिवन्धकता
पृष्ठ
१५०
०५०
मतविशेष
१
५५०
443
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७६५
अपरमतास्वरसवीजा5पिष्करणम् रूपविदीनबदवादी मतविदोष श्रदाकाशसंयोगाऽचाक्षुपत्वविचार: रूपविघटवादी के मन की समालोचना नीलरूपघटनादिकृतपरिष्कारः
संयोगादि के अचाक्षुप की उपपत्ति का प्रयास अल्यासज्यवृत्त्याकाशगुणाऽचाक्षुषोपपादनम् रूपाभाव में अल्पसमंदनगोचरचापपतिवन्धकता का समर्थन चाक्षुरप्रयोजकप्रतिपादनम
अण्डाकार:
चाक्षुपाभाव निमप्रतिबन्धकतापिचार: समनियताभानाभेददर्शनम्
त्रुदिविचान्तिविमर्शः
मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः ३
उद्भूर्तकन्दस्य व्यापकता
नीरूपवादी नवनिपायिक के मत सोचना
सूट का समर्थन
चित्ररूपप्रकाशातिदेश:
सत्ताप्रतीति से नवादा मत
ऋजुमतप्रकाशनम्
अपावृत्ति नानारूपादिमत
छेदकता रूपं समान रूपता दफनाया कारणनियम्यता
बच्छेदकतया नीलादि के प्रति समवाय में नीलादि हेतुना मतविशेष
tream रूपं यस्य हेतुता
नापिशिष्टद्रव्य अबका रूप का हेतु नहीं है अवच्छेदकतया जन्यरूप के प्रति समवाय से
पृठ
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उच्चता मतविशेष
मूर्तत्वेन जन्यरूपकारणतासमर्थनम् स्वापपुलिष्यमपाय से नीदाभाडेना अवयविनि अवच्छेदकतया नीलायापनिपरिहारः उपनिमितसमवाय गं रूपकारणता स्वामिव से नीलेतराविहा द्रव्यमये प्रयाजनप्रकाशनम
८६८
५६.८
८६५
कमिताविष्कार:
537
अच्छे पनियामकविचारः
आधुनिकमतनगर:
552
नादान्यसम्बन्ध से नापलादि पतियन्धक अन्वयव्यभिचाराविष्करणम
sk
नेद के पति स्वस्यापकरमचाय से नील की कारणता Bold Type नयलला (संस्कृत टीका के यि के सूचक है | Normal Type रमणीगा हिन्दी व्याख्या के सूचक
है
६
८८-५
८७
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Page #10
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मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड: 3
विषय
नव्यदीपप्रकाशनम्
नोटेवरथेन प्रतिबन्धकता में गौरव अनवकाय प्रतिबन्धकतागांरवस्याऽविरोधितम् सामानाधिकरण्यस्यान्याप्यवृत्तिता समानाधिकरण्पारणत्र नागभावहेतुतामन व्याप्यवृनंरवच्छेदकत्वे मानाभावः
सामानाधिकरण्य अपायत्ति नहीं है अन्नम्भमतप्रतिक्षेपः
अव्याप्यवृतिचाक्षुषकारणताविचारः अपापवृत्तिरूपपक्ष और चित्ररूपपक्ष में तुल्य
कार्यकारणभाव
वाय चित्ररूपपरिहार:
नीलकण्ठमतावेदनम्
अत्पापवृतिकामत में दीपान
व्याप्यवृत्ति नीलपीतादिरूपवादी अपन
अपरमता अवग्गजांनम
नाव में पीतवात्रआपत्ति का निराम
भाग्यवृच्वाधारता साचिक
व्याप्यवृतिनानारूपवादी
'मुच्छ पाण्डुर' इत्यत्र समम्यर्थविचारः
रामभट्टमनप्रकाशनम्
स्वावादकल्वलनासंवादः
भेदाभेद अन्योन्यव्यात है
गृहं रामतनिरासः
उसे सन्त्रास का समावेश
स्याद्वाटम अरीसंवादः
फरणाकणईरुण सिद्धिविना
एकत्र करणा करणां भयसमावेशः
एकान्तवाद में करणाकरणस्वभाव की अनुपपनि
धर्मधर्मिभावविचार
नागार्जुनमतनिराकरणम् संवृत्तित्रैविध्यप्रदर्शनम्
शशशुङ्गभानमीमांसा
वासना की अनुपपति आवश्यक नियुक्तिवचनविचारः
नृत्याधारानीकार
लिरूप में पी६०५
उसन्यानिनिगकरण
विशेषावश्यकभाष्यसंत्राट:
पृष्ट
..
रामगृहस्थ समभी
सांगतसिद्धान्तसमीक्षा
धर्मधर्मिभावविचार में बौद्धमण्डन
धर्मधर्मित्वमीमांसान्तर्गतादिदर्शन निराकरण
२०७
५०६
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14.9
७५८
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६११
६२५
६५३
६ ४४
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८.१०
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६.१५
ܚܐ ܐ ܐ
६.१८
६५८
६१८
विषय
समवायनिगमं तत्त्वार्थमूत्रसंवादः
अत्यन्तभिन्न पदार्थों में अनुगत एक सामान्य नहीं है 522 अत्यन्तमित्रे समानपरिणामाभावाऽनम
अमृतस्वभाववृत्ति मृत्यमानपरिणामात्मक ही ह अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकासंवादः
स्थास कांदा आदि में पान का निरास स्याद्वादम अरीमंत्राद:
दर्शन और ज्ञान में जीवस्वभाव मे विषयप्राधान्यनियमन ज्ञान-दर्शन विशेष मामान्यग्राहकत्वविचार:
उपसर्जन के सम्यग निषेचन की अनुपनि शंका नव्यमते दर्शनलक्षणप्रदर्शनम उन्मिलितरुवग्राहकनर्यात्रिषयत्व मुख्यत्व नहीं हो सकता
माधनताज्ञानप्रवृत्यो कार्यकारणभावः
5:
प्रतिनिपतप्रवृत्तिनियमन के प्रमोद का परिहार नाम से ६२९ अतद्व्यावृति सामान्य नहीं है
वस्तुनः सामान्यविशेषोभयात्मकता
केवलसंवेदने नयव्यापाराऽसम्भवः वादिदेवसूरिवचनतात्पर्याविष्करणम उपसर्जनत्व का सम्यग निवनंत आवश्यकदीपिकासंवादः
अर्थ एकान्ततः शब्दायाच्य हे वॉल अगत्पदार्थबोधविमर्शः
श्रद्धमत में मच्छ से प्रतिनियन प्रवृत्ति की अनुप सुगतसम्मतविकल्पितार्थविलयः
अर्थ में एकीकरण नामुमकिन
शब्द और अर्थ के बीच रास्तविक सम्बन्ध मुमकिन बृहत्कल्पभाष्यसंवादः
त्रिपुराणंवसंवादः
तार्थसम्बन्ध नहीं की गकता
१० कारिका
शक्ति सङ्केतभेदोपदर्शने भापारहस्यवृत्तिसंवादः अनेकान्त में सांख्यसम्मति साङ्ख्यकारिकासंवादः ४४ वीं कारिका का सामान्य अर्थ तत्त्वार्थ लोकवार्तिकार्तिदेशः
भूतचतुष्क से अन्य आत्मा नहीं है मीमांसा पार्तिकसंवादः
ममवाप से ज्ञान का कारण शरीर शरीरकारणतावादसंवादः
ज्ञानाग्रचाक्षुपसङ्गतिः
जानादि चक्षुआदि के अयोग्य है अवयस्यनङ्गीकारोऽभिनवनास्तिकर्मत अनुमतिय मानवत्या
नयनास्तिक
नव्यनास्तिक
ܟ
नूनन चात्रांक
पृ
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६२२
६२०
६२३
६२३
६२५
६२५
६२६
६२६
६२७
६२८
६८
६५.
६२०
६३
६३०
६५१
६.५१
६३९
६६०
६३३
६३३
६३४
६२४
६३५
६३८
६.३६
६३६
६३७
६२७
ረ ६.३८.
६३५
६४२
६४०
Page #11
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मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः ३
पृष्ठ
"
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..
६४०
'चिपय नत्यमने शरीरस्याऽऽत्मतं प्रन्यामत्तिलाश्वम गगरात्मवादी को प्रत्याजिराघर त्रुटिपाचषकारणकलापावंदनम् महत्त्व पीर उदभूत रूप में स्वतन्धकारणना 'अयोग्यवृत्तिधमायांग्यसभिकर्णग्रभावकूट प्रत्यक्षमात्र का कारण प्रत्यक्षसामान्यसामग्रीविचारः 'मम शरीरमि'निप्रतीतिपरीक्षणम् पार्थिवदेह कलेदनादेगेपाधिकना दिया गवं काल में कोई गमाग नहीं हैं. दिनकरीपवृत्तिम्वण्टनम आकाश अतिरिक्त इम्य नहीं है, . नुतन नास्तिक मुक्तावलीकृन्मनिराकरणम मन असमवेत भूत है . नगन नास्तिक. प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारसंवाद स्वभाव अनुपलब्धि से आत्मा की असिद्धि नामुमकिन . उनपक्ष स्याद्वादरत्नाकरमवादः आरोपयोग्य में ही आप मुमकिन लघुस्याद्वादरहस्यसंवादः अनुलब्धिसतकनिराकरणम् चाांक मत में भूनननुष्क की गनुपानि भूतचतुष्टयमात्रतत्नत्यपाहा कक्तिमत्वन कारणता में सापत्र - यावादी 'एकशक्तिमञ्चन हेनुताप्रकाशनम भूतचतन्यमनिरासः आत्म-कर्म-परभव मोक्षसिद्धिः न्यायभाष्यसंवादः नव्यनास्तिकमतवाहन नारिनकनये मनाहाकारासम्भवः मानस प्रत्यक्ष नवनास्तिकमत में नामुमकिन अनुमितित्वस्य परामर्शकार्यतावच्छेदता रामदाकारतावदक अमिनित्य दी है. स्याद्वादी अनुमितिकारणताविचारविमर्शः अनुमितिकाग्णनापां न्यभिचारप्रदर्शनम् अप्रामाण्यस्याननुगमः अपामाण्यग्रहाभावानामनुमिनिह तुतानहीकारः अपामाण्यज्ञानाभाव की स्वतन्त्र कागता नामुमकिन ग्नकांशकाग्मतानभ्युपगमः मुनावलीगमन्द्रीयनिरखण्डनम्
अनुमिनीमि' का पिय विधयताविशेष ही है अनुमानस्य प्रमाणान्तग्ननियार:
विषय राजदुतरानमितिल ही गतत्परामदांकार्यनादक मानसानुमितिमीमांसा अनमिति मानसपत्यविगप है नच नास्तिक लौकिकविषयताविष्यम्
६६३ अनुमिति को मानस प्रत्यक्ष मानने में बायब - नवनास्तिक भिन्नविषयकानुमिनः चक्षुमनोयोगविगमोनग्त्वम् मानसान्यसामग्रीप्रतिवभ्यताविचारः अपेक्षितशुद्धपाटप्रदर्शनम अनुमिनरपरोक्षतोषपादनम् विशिश्वैशिष्ट्याचगाहिज्ञाननिरूपणम् अनुमिनि 'गेश की है. . समाधान अनलादभोगविषयत्तोपपादनम् अनुमति का मानसप्रत्यक्ष में अन्नभांच मामुमकिन . नैयायिक मानसानुमितिनिराकरणम् उकालोपस्थितघटादिभानापादनम उत्तेजकावनिरूक्तिः नैयायिकसिद्धान्तसमीक्षा मानस प्रत्यक्ष में अनुमिति के अन्नभांत्र का समर्थन कापमात्रवृनिजातेः कार्यतावच्छेदकत्वनियमानङ्गीकारः विजातीयसुखादौत्तेजकत्वम गुरु-दुःख में अनुगत जातिविदोष का स्वीकार असतात ६७० परामर्शगादाधरीमंवादः मानसत्वन्यायानुमितित्वजात्यसिद्धिः "साक्षात्कगेमि' प्रतानि का आदन पाचं निरास अनुमितिविपयतायाङ्गीकारः अस्वासपीजाऽऽवेदनम् नत्तचिन्तामणिकृवचनमण्डनम दिशातिरेक रयावादरत्नाकर-तत्वार्थसिद्धसनीयचुन्यादिसंवादः अवगाहना स्वरूप विचार कान्ट-हंगलादिमतनिगमः दिशा और काल स्वतन्त्र य हैं. . नायिक अतिरिनाटिकालनिबारः आकाशातिरित दिशादच्य अनुपपन्न - म्यादादी मुक्तावली - दिनकरीयवृत्त्यानिराकरणम ददिकसम्बन्धवादी नवमत का निराकरण दीधितिकृन्मनापाकरणम् नत्वार्थसिद्धमेनीयवृनिसंवादः मान्दम्यवसिद्धि नन्द अभिघातजनक है . ग्याद्वादी
६८.५
..
.
६६.
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________________
T
मध्यमस्याद्वादरहस्ये यण्ड ३
विषय
हारिभद्वावश्यकवृति भापारहस्यसंवादेन विचारविमर्शः दाद की आकाशगुण मानने में गाय वचननिगमः
चिन्तामधिकृन्यतविरामः
कारण है.
| उद्धृतरूण मूतंप्रत्यक्ष का नहीं द्रव्यचाक्षुष का स्वाज्ञादी मिपाप्रशस्तपादभाष्यकृन्मतव्यपोहः इन्द्रियान्तराज्ग्राह्यग्राहकत्व इन्द्रियान्तरत्वव्यवभपक
गुणान्तभावनेन्द्रियान्तरयस्थानीकारः तत्वार्थसिसंपादन] मधूपाकृन्मतनिरासः
प्रचीन नानापों का दिसाधक अनुमान
मीमांसाश्रोकार्तिककृन्मतापराकरणम्
"क्रिया का आश्रम होने से शब्द द्रव्य
शब्दस्य द्रव्यत्वं गीग्वानवकाशः
द्रव्यपक्ष में गांव की आका और परिहार शब्द के चाक्षुप और स्पार्शन का परिहार मुक्तावलीकारविश्वनाथभङ्गवचनप्रतिक्षेपः
शब्दस्य वीणादिगुणत्तनिंगमः
दाद पवनगुण है नयमत गगनस्वराभियय नयमते सन्द पवनगुण नहीं स्वाहादी न्यायरत्नाकर मधुपाकृन्मतापादः
मदनशब्दगुणन्याकरणम्
स्पाद्वादी
शब्दद्रव्यत्वबाधक हेतुपचाराकरण भनेकान्तवादनियतारम्भवावाङ्गीकारः शब्दाश्रय स्पर्शवान है
प्रभसूरिप्रभूतिमत्प्रकाशनम् न्यायभाष्यकृद्वचनव्यपोह:
वहिरिन्द्रियव्यवस्थापकपदर्शन
शब्दस्य स्यर्शशून्याश्रयकत्वासिद्धिः
प्राचेत भाविक का द्वितीय हेतु असिद्ध एवं व्यभिचारी
मदतीसंवादः
नैयायिक के तृतीय चतुर्थ हेतु भी व्यभिचारी स्वाद्वादकल्पलता संवाद:
न हेतु स्वरुपाि
दासबंधा नित्य है मीमांसक खण्डा उत्पादापरिचार
एक तारत्य - मन्दत्वादिसमावेशसमर्थनम रिलाय
नैवाधिकमत में व्यय की आशंका परार्थमालाकारमतप्रदर्शनम
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७५५
७४४
विषय
मीमांसकमतिरोपदर्शनम्
मनिपक्ष में गांव का परिवार अनित्यत्वपक्ष में गौरवप्रदर्शन मीमांसकमते कल्वस्यैव कार्यतावच्छेदकता क ख आणि एक की ह मीमांसकमते शब्दवस्व कार्यतावच्छेदकता बीमांसकमते गौरवास
मीमांसक
विजातीयासंयोग स्वतंत्र कारण है।
शावरभाष्यसंवादः
श्रवणादि गुणत्वादिप्रत्यक्ष में
कारण मीमांसकाविदय स्फोटविचार:
शब्द मन्द है नैयायिक मोमोस को मांशाप 'वीणायां शब्दः" इतिप्रनीतिविचारः शब्दस्थलेऽभिनवमीमांसा
रघुनाथशिरोमणि
शब्द चारक्षणरधारी नानाविधनाशकताविचार: परिष्कृतक्षणिकत्वनिरुकिः शिरोमणिनयनिराभिनवमीमांसा
७६६ ড?
७२८
विजातीयपोगका कार्यापदक श्रावणमीमांगक ७
कोलाहलस्थलीयश्रावणमीमांसा
मीमांसकनरिय
शब्द की भांति ज्ञानादि में चतुःक्षणस्थायित्व
प्रसन साम्प्रदायिक
अपात्यविशेषगुणनाशविचारः
शब्द एवं नानादि की क्षणचतुकस्थायिता में प्रतिवन्ति • ज्ञानादः स्वोनगत्पन्नज्ञानादिनाश्यता
नेपाषिक
पृष्ठ
و
दिनकरभमतनिगमः
नृसिंह पट्टाभिगम गदाधरमतयाननम्
शब्द नित्यानित्य
स्वाहाटी
पाणिनिसूत्र न्यायभाष्य द्वारा वृदवृतिलघुन्यासादिसंवादः
७५८
لاو
७१०
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७२० ७२.१
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७२४
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१७०३
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७५४
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७२.६
१२६
७७
चरमशब्दनाशकताविचारः
अस्वरसवजद्भावनम्
यदि में खोजबर्निगुणनाव्यता की मीमांसा ७३ गमरुद्रभट्ट मतप्रकाशनम्
-५३५
मुक्तावलीमा दिनकरीपवृमिनिगनः योग्यता एवं पिपलका निर्वाचन अपेक्षायुद्धिनाशविचारः विनिर्विकल्पक विनाशक मज्ञानादि स्वनाशक है स्वस्य स्वनाशकत्वमीमांसा
नेपायिक
SHA
५५
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७३५
७३३
५३
५६
७४६
११
ピン
Page #13
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________________
विपय
कालप्रत्यक्षविचार: मनःप्रकरणसंवादावेदनम्
संथा अतिरिक्त मन असिद्ध पृथिव्याः स्वेतरभिन्नत्वविचारः तत्वार्थसूयाद्वदलाकरसंवाद आधुनिक विज्ञानमिद्धान्तमण्डनम् उदेश्य विधेयभावमीमांसा
-
विशेषता
दापग्रस्त दीधितिसंगठ
स्याद्वादी
विधेयतासमनिश्तरूप से व्यापकलालाभ अमान्य
परिष्कृत व्यापकता भी दोस्त विशेषान्वषितावकसंसर्गविचार: सिद
अननादव्यवादिना व्यापकत्वापादनम्
धनं मे अन व्यापकता
| सत्पदप्रयोजनप्रकाशनम्
विधेयत्ावच्चिन समयापकता का भान दोषग्रस्त
दीधित्युक्तिव्याख्यानम्
नानाविधेषतावच्छेदकस्थले व्यापकत्वमीमांसा
चरमपत्र की तावदन्यतम में लक्षणा भी दोषग्रस्त न्यायसूत्रसंवाद : पट्टाभिरामोक्ल्यतिदेशव अस्वरसबीजावेदनम
अन्यतमत्व में लक्षणा अन्य विज्ञान भेद में ही लक्षणा प्रामाणिक
मथुरानाथसम्मतिदर्शनम्
विभाग यूनाधिकरूपवज्ञापक है प्राचीन नैयायिक
लीकापनमतनिरामः
नच नैयायिक
तरीण्डिन्यन्यायनिरुपणे पात अनमहाभाष्यसंवादः पदानुपस्थित रूप से शान्दवीध नृत्यमला अनरसीजविचार: वृहद्रव्यसङ्ग्रह - तद्वृत्तिसंवादः आत्मस्वरूपविचार
सिद्धहेगशब्दानुशासनसंपाद ज्ञानमय आत्मा श्रुतिरिव वृहदारण्यकोपनिषदादिसंवादः मुकावनीनिरामः
आत्मधर्म लाभ नहीं
ब्रह्मवैवर्त देवीभागवत - योगसूत्र- साख्यसूत्रादिसंवादः
कालिकनिर्युकन्पतिदेशः
जालादि पुणधर्म है स्याद्वादी
पुष
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६. ४
દુઃ
विषय
अष्टमीमांसा
आत्मा ज्ञाना ज्ञानोभयात्मक है आत्मा में केवल गुणस्वभावत्व है
आत्मनः गुणस्वभावत्वसाधनम्
भात्मनि दोपस्थपाधिकता
विद्यानन्द का वक्तव्य प्रतिवन्दिग्रस्त भट्ट दिगम्बर-मीमांसक प्रतिबन्दिः
मध्यमस्थाद्वादरहस्ये खण्ड:
पृष्ठ
७०२
-
-
७६२
अटसहस्रीकार ७६२
७६२
७६५
भट्ट
'सुगममवाप्तमितिप्रतीतिविचारः
ज्ञान और अन्नान एकत्र अतिगंधी भट्ट भांशभेद:
ज्ञानाज्ञानी भयस्वभाववादी भट्ट के मत की समालोचना भावस्वरूपाऽज्ञानानीकारः
'सामहं न जानामि प्रतीति की उपनि होनामायन्यानप्रतिबन्धकताविचार:
तदनवोक सदभावावच्छेदक नहीं हो सकता साङ्ख्यकारिका माठरवृन्यादिसंवादः
पुरुष सर्वथा निप है सांख्यमत
नेवापिकसंगत कूटस्थत्व आत्मा में नामुमकिन- सांख्य कूटस्थवनिरुक्तिः
प्रकृति का ही बन्ध- मोक्षादि सांख्यमत मायाद
साङ्ख्यकारिकासंवादः सांख्यमतनिरास सांख्यकारिकानिराकरणम् आत्मा देकपरिमाणवा आत्मविभुत्ववादारम्भः आत्मा में मूर्त्तत्व है
वराहमिहिर गर्ग पाचिकसंवादः आत्मा सक्रिय है
कालस्य परिणामिनिमित्तमात्रत्वम्
अदूर स्वापसंयोगसम्बन्ध से जन्यसंद का
जनक पाषिक
अदृस्य कारणत्वमीमांसा
काशिकानन्दिसंवादः
अदृष्ट में कालिकाबच्चि कारणता मुनासिव कालिकसम्बन्ध से अकारणतापक्ष में गौरव शंका जन्यतावच्छेदकविचार:
जन्यसत्त्व में कार्यतावच्छेदकता मुमकिन
महत्त्वस्य त्रिविधकारणावेदनम्
महत्त्व में द्रव्यप्रत्त्वकारणता से आत्मभवसिद्धि
का प्रयास
नृसिंहमतनिरूपणम्
७६५
७६६
७६६.
७६
७६७
७६८
७६८
६९.
७६९
'S'
७७०
065
७७१
७१
ডঙ२
७७३
৬৬३
७७४
७७५
یا
دواي
७:
७५६
'U'sty
Sis
७:५८
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19199
७८०
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364
७८५
७८२
Page #14
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मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः ३
विषय
-
-
-
NNNNNNNA
sti.
निपमहत्व विभुत्व मान्य नहीं . म्यादा आत्मपरिमाणस्य जन्यत्वकथनम आत्मनः सोच-निस्नारसमर्थनम आत्मरूपानिमवादः अनलादरूध्वंगन्यादिनानि . .. स्याहादरत्नाकरसंवादः दीपिति-स्याद्वादमार्गसंवादः |सम्मतितर्कवृत्तिमनगदः |पांगशास्वसंवादः
अश्याटरिनार अवधानस्य मंग्कारजनकन्नानगीकारः प्रतिमायाः पूजाफलप्रमाजकत्वम आत्मवैभव के बिना दारी में आक्रिया नामुमकिन । अवस्कान्नदृशान्त विचारः भवान्तरीय शागर का जन्म स्वाभगम्योग ग अदएकारणता नामुमकिन । स्वादाद मावादात्नाकम्मवादः आकर्पणत्वस्य जानिन्नानङ्गीकारः छन्द के प्रति अदाकारणता व्यभिचारगम्त . म्यानादी न्यायकन्दलीकारमतव्यपोहा वात्मा का जथंचित द गाभिमत
"५०.६ मात्मनः बाइनसमर्थनम् पद्यनयतंतु दृशन्न मे मा की पंडितना अइतना मुमकिन न्यापावण्रग्वाय-ग्याद्वादकल्पलतामंचान जान की प्राध्याय नाना प्रामाणिक न्यावाद आत्मपातिसंवादः समुद्भानविचारत्रिम छान्दोग्योपनिषदादिमनानगसः अनेक रिभु आन्माां का नामार नाममकिन आदतवादी मधुसूदन-वाचस्पनिमिश्र-मश्रप्रभृतिमनादेदनम् पचपादिकाविवगणादिसंवादः छान्दोग्योपनिषद-ब्राममूत्रशाशरभाण्यसंवादः स्वाहाटमञ्जरीटीकाकार सम्मतिटीकाकारसंवादः [अन्ययोगव्ययगानकारवाद न्यायमण्डादायसंवादः "पा पत्रव...' कहाँ अभिचः काका मार निराकरण
पायकन्दलीम्याशारम प्रगमनानः 'मानानना आत्मा 11 ग्वादाता पतहारनपनात्मना देशमानता तापतरोपनिपदादिमवादः आत्मा अगुपग्माण नहीं ।
आत्मप्रवादाभिधानएवमगादः तिप्यगुप्ताभिधाननिहवननिरामः अन्त्यप्रदेशगतातिशयमीमांमा वित्तीयनिलबनय चक्रकादिदपणम् विद्राणिक्षमाश्रमणवचनमवादः मुक्कावन्दीकास्मतनिगमः विशेपावश्यकभाष्य-निर्मवादः मित्रश्रीथावरून तिष्यगुप्तप्रतिबोधः सामव्यपदेशात्मक आत्मा के स्वीकार में दागदावन और निगकरण आत्मग्ल्यातिसंवादः ब्रह्ममूवशाङ्करभाष्यमबाटः
आत्मादतमत का तिरूपण ॥ निराकरण गरीरनिष्टप्रत्यासत्त्या कारणत्वाऽमाझा आत्मनिश्पत्यासत्या कारणत्वापपादनम तहमनःप्रत्यासत्या तुतानिगकरणम् ब्रह्माद्धतमत में प्रयत्नाभाव की भापनि वशेषिकसूत्रसंवादः सामुक गरीराच्यदिन सुखकामना असंभव न्यायकन्दलासंवादः शादृष्ट फरर में कार्यकारणभाव ग आत्मा अनेक है। सन्तान में तय कापना प्रामाणिक ब्राह्मबिन्दूपनिषदादिमतापाकरणम् मुकारलीकृन्मतनिराकरणम् गयापार में पिन ति नामकिन अनेकान्तव्यवस्थागंवादः हात्मा निधर्मक नई ब्रह्मणो निधर्मकत्वमण्टनम जनतक निशीथपीठिकाणि-ललिगयकारण्यकसंवादः परलोक मुक्ति की सिद्धि मुकिस्वरूपामांमा नयापदेशगंवादः ज्ञानकर्मसमुच्चयबाद गाना-विष्णुपुराणादिसंबादः उदयनानुसारिमतद्योतनम मिडसनदिवाकग्नचनतात्पपांविष्करणम ज्ञान-कर्मणामुक्ती तुल्यबंदेव तुता कारगनार का गवार अपमहसीतापयनिकरण - जनतय संवादः नयापिकरमत करना । अपनगाड का निम्ण मुक्तारला भा-मभूपाकागनिमतप्रदर्शनम आध ययापिड का रिकृत यमय कपालबाग चक्षामयोगानन्यथागितलवारणम
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मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः ३
विएप
८६.
दिपय
प्रम अन्यथासिद्धि के विदायण की व्यर्थता की दांका पत्रं उसका निरसन पृथपदार्थप्रकाशनम फकिकातात्पर्ययोतनम् | पृथकादानिधन . नयायिक सम्बन्धभेद कारणत्वभंदः नीलकण्ठादिमतप्रकाशनम् प्रथम न्यथासिड के क्षण में अन्य मत मुकावली-प्रभा-दिनकरीयादिकृन्मतदर्शनम् 'रूपवन दण्डप में घटकारगना की शंका में परिहार : अतिप्रमनधर्मणाऽपि कारणलवधिविचार: परिष्कृतप्रथमान्यधासिद्धलक्षणम् | रामरुद्रमतप्रकाशनम् द्वितीय अन्वयानद्ध का प्रतिपादन नृसिंहमताऽबटनम गदाधरमनप्रकाशनम् द्वितीय अन्यवामित्र के भर में गामि एवं अनिपामि १५५ गमरुद्र-नृसिंहमनद्योतनम द्वितीय अन्न्यागिद्ध के लक्षण में परिष्कार मामाना उपपादकत्वनिर्माता गणाटकन्य का निर्माण नामुमकिन अपूर्व प्रति यागस्यान्यधासिद्धत्यापाकरणम Art:य न्यागिद्ध का ननाय लक्षण भी सदीप महादेव-नृसिंहमतनिगसः दीधिनिकार-नृसिंहपकाशिकाकुन्मनवियातनम
नीय अाधामिद का प्रनिगादन 'पजमाविभक्त्यर्थविद्याननम पाकाग-4 के रूपागभाव में अन्यनिग्य का नाका ३ गन्ध प्रति रूपमागभावम्यान्यधामिडविचारः नगा अन्यथासिल के २५१४१ का परिकार गमग्दभद-नृसिंहशानिमता:चंदनम नृतीयान्यधामिद्धेः पांग्कृतरक्षणम नामा पहिंमार म भा मौका भदायानपानम
या निसपनिमाजिक ? र || न
मन कारपणनावादगंनाः
कृलापिता पञ्चम अन्यथासिद्ध तत्वचिंतामणिसंवादः गदावर विषनाथ-रघुनाथ-महादेवादिमनयोतनम दृढवण्डवेन परकारणता अस्वीकार्य-दीधितिकार पदाधरोक्तिप्रदर्शनम् नयायिकमतानुसार परिस्कृत कारगता का रूप अनत्रयोदक का निर्वाचन व्यापकताइयगर्भककारणनावादः परिष्कृत कारणवलक्षण . नैयायिक जगदीशतकालद्वारमनप्रकाशनम उदयनाचार्यमतावंदनम् अनलाभाषाभाष स्वरूपसम्बन्ध में रहता है. . नयापिक ६ मनानाभाल्य प्रतियागिरूपताविचारः मीर के पति नीलाभा की कारणता का समर्थन अनुसन्धानप्रारम्भः नयापिकसंमतकारणता असंगत-स्याद्वादी दिनकरीयवृनिखण्डनम् ईश्चरजानादि में घटादि के प्रति अन्यथासिद्धल की आपनि ६ द्वितीपायथासिद्धिनिरासः श्रावणात्यक्ष के प्रति द्वितीयान्यचासिद्धत्वापान मनुषाकारमतनिरासः दिनकरीयवृत्तिनिरामः कारणलक्षण में भेदकूट या अरवपदाभाष का
ना नामुमकिन जगदीवामतनिरासः पक्षधागश्रमनिकन्दन न्यूनतालीप नामुमकिन अध्यात्मापनिपदादिसंवादः पाशुपतब्रह्मपनिषदादि संवादः चन्म कारिका की व्याख्या प्रभानन्दमूरि-विशालगजसूखिचनसंवादः पदहा ॥ परिणाम में त्रितयात्मकता विष्कम्भक्रम प्रवाहक्रमस्वरूपवियांतनम् पास्तमीमान्त-निर्मामान्नरवरूपप्रकाशनम अप्रमहसी प्रवचनमाग्मनादः
- पय धाय में अभिनेत ग्यादानकल्पलता-सम्मतितकंनिर्मादः पिदार में विटाप का प्रदर्शन परमाणकारणतावादित्रितवमान भंदापानम गावापान स पारनपद स्याठादकल्परताव्यान्यालंगः जबरनाकृत्यशग्निः
चन हायवासिांनिगमः
रायपामिन गायरमनपदशनम
17. के. सागर
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श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः ।
श्रीमद्विजय-प्रेग-भुवनभानु जयघोषसूरीश्वरेभ्यो नमः । ऍ नमः ।
महामहोपाध्याय - न्यायविशारद - न्यायाचार्य श्रीमद्-यशोविजयगणिवरविरचितम् मुनियां विजयकृत- जयलता रमणीयाभिधानव्याख्याभ्यां भूषितम्
स्याद्वादरहस्यम्
(मध्यम) (तृतीय: खण्ड: )
अधानेकान्तवादे योग- वैशेषिकी अपि सन्मानयन्ति चित्रमिति
चित्रमेकमनेकय रूपं प्रामाणिकं वदन् ।
योगो वैशेषिको वापि नानेकान्नं प्रतिक्षिपेत् ॥५॥
यद्यपि चित्ररूपाभ्युपगन्तारी साम्प्रदायिको नैयायिक-वैशेषिकौ चित्रे घटे ल
गयलता ज्ञानावृविक्षयप्रापकेवलाऽऽलोकशालिले ।
नमोऽस्तु सततं तस्मै कारुण्यकेनिशालिने ||५||
नवमकारिकावतार्थमुपक्रमते अथेति 1 सन्मानयन्ति मूलकुन श्रीहेमचन्द्रसूरय इति दीप बीतरागस्तोत्र विवरणकृतस्तु प्रकृतं एकं चित्रं रूपं तत्रैव चानेकाकाररूपं प्रमाणेनोपपन्नं वदन्ती अक्षपाद कणादी न स्याद्वाई निराकुरुत: । तेपां हमने मेचकज्ञानमेकमनेका कारमुररीक्रियते यतः तेषामेचे सिद्धान्तसिद्धिः एकस्यैव चित्रपटा | देवलाल रक्कारताना नावृताने कविरुद्ध धर्मोपलम्भेऽपि दुर्लभो विरोधगन्धः । तस्मादरमद्वद यौगिक-वैशेषिकासकान्नमनानुमतिं वितन्वन्ती (वी. स्ती वि.पू.८३) इत्येवं विवृतवन्तः सङ्क्षेपतः ।
-
.
प्रकृतप्रकरणकार: नवमकारिक व्याख्यानयति यद्यपीति अस्य चाग्रे ( दृश्यतां ६०७ तमे पृष्ठे ) तथापीत्यनेनान्वयः । चित्ररूपाभ्युपगन्तारी = नीलपीतादिव्यतिरि कच्चिनवर्ण स्वीकतारी, साम्प्रदायिकी
स्वगुरुपरम्परायानमिद्धान्तानुयायिनी
रमणीया
एवीं कालिका को प्याख्या
इति । आठवीं कारिका की व्याख्या के अनुसार अनेकान्तवाद का स्वीकार जैसे प्रकारान्तर से योगाचार बीज करता है, ठीक वैसे ही अन्य पद्धति से योग = नैयायिक और वैशेषिक भी सापेक्षवाद को मान्य करते हैं। अतएव मूलकार श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा वीतरागस्तोत्र के प्रस्तुत अष्टम प्रकाश की पूवीं कारिका में तैयायिक और वैशेषिक का अनेकान्तवाद में सन्मान करते हैं कि एक चित्र रूप अनेकात्मक एवं प्रामाणिक है' ऐसा बोलने वाला नैयायिका वैशेषिक भी अनेकान्तवाद का प्रतिक्षेप कर सकता नहीं है। इस कारिका का यह सामान्य अर्थ है। अब प्रकरणकार श्रीमद महोपाध्यवजी महाराज इस कारिका की व्याख्या करते हैं, यह बताई जा रही है। सर्वप्रथम आपातत: मूल कारिका के शब्दार्थ की अनुपपति 'को 'पि' शब्द के द्वारा विस्तार से बताते हैं । बाद में आगे चल कर 'नथापि' शब्द से प्रस्तुत कारिका के तात्पर्यार्थ को प्रकरणकारभी योतित करेंगे (देखिये पृष्ट ६०७) । यह वाचकवर्ग को ध्यान में रहे। सुनिये, 'यद्यपि शब्द से प्रस्तुत वाच्यार्थ की असंगति की रामकहानी ! यद्यपि चित्र रूप का स्वीकार करने वाले साम्प्रदायिक
सम्प्रदायानुगामी नैयायिक
=
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.: मध्यमस्याहादरहस्य खण्ड: ३ . का.५
* चित्ररूपनादप्रारम्भः *
रूपान्तरमभ्युपगच्छतः, नीलादिप्रतीतेवयवनीलादिनैवोपपत्तेः । 'नीलादिसामग्रीसत्वात्तत्र नीलादिकमपि कुतो नोत्पद्यत' इति चेत् १ (न), स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन नीलेतररूपादेः प्रतिबन्धकत्वात् ।
-ॐ जयलता * नैयायिक - वैशेषिकी चित्रे = अतिरिक्तचित्ररूपरमवायिनि घटे न समवायेन रूपान्तरं नीलपीतादिकं अभ्युपगच्छतः । अत: 'चित्रमंकमनेकञ्च प्रामाणिक बदन इत्याद्यभिधानमपाकमेव, अनभ्यगताभिधानाचात् । समवायन चित्ररूपविशिष्ट नीलगातादिकं. रूपान्तरं यदि नास्ति तदा 'वटा यमत्र नालस्तत्र व पीन' इत्यादिप्रतीतिः कथमुपपद्यत ? इत्याशङ्कायामाह -> नीलादिप्रातः = अवयविविशेश्यकनीलादिप्रकारकधियः स्वसमवायिसमवंतत्वसम्बन्धन अवयवनीलादिना एवं उपपनः । यधा जपाकुसुमसंयुन स्फटिक रक्तिमाप्रतीत: स्वसमवायसंयोगलक्षणपरम्परासंसर्गेण जपाकुसुमरकरूपेणवीपपनेनं शुक्ले स्फटिक समवायन रक्तरूपं स्वीक्रियते सधैव नाल-पीतादिकपालममवते चित्रघंट नालादिप्रतीतः स्वसमवायिसमबेतत्त्वलक्षण - परम्पगसम्बन्धन कमालनालादिवर्गच महतनं चित्रबटे समवायन नालादिकं रूपान्तरमभ्युपगम्यत इति भावः ।
ननु समवायेन रक्त नीलादिकं प्रति म्यममवायिसमवेतत्वसम्बन्धन रक्त-नीलादः कारणत्वाद्रक्तावयवशून्य स्फटिक रक्तरूपानुत्पादो युक्तः तत्सामग्रीविहान परन्तु नील-पीनादिकपालजन्य चित्रे घंटे समदायन नीलादेरनुत्पादो न युक्तः, तत्र स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धन नालांतः सत्त्वादित्याशवन कश्चिच्छकते > नीलादिसामग्रीमत्त्वात् = समवायेन नीलादेः सामग्दा: स्वसभवाधिमगवतत्वसम्बन्धन नीलादिस्पलयानाः सन्तान नत्र -- चितवमजिनि च यमायेन नीलादिकमपि कुतो नोत्पद्यते ! चित्ररूपमित्र नीलादिकमपि घटे समयायेना भ्युपगन्तुमुचितं. स्वसामग्रीबलायातस्य सुरगुरुग्णापि निराशमशक्यत्वादिनि माङ्कादायः । तत्र मामविकल्यमुपदर्य नीलादग्नुत्पनि दृढयति -> स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धन नीलेतररूपादेः समवायन नीलादिक प्रति प्रतिवन्धकत्वादिति । स्वादाबंग्य नीलंतररूपादेः समवायिनि पानादिकयाले समवनस्य चित्रघटस्य स्वसमवायिसमवेतत्वसंसगंण नालेतररूपविशिष्टत्वान्न नत्र समवायन नीलादिकं जायत प्रतिबन्धकाभावस्थाऽपि कारणत्वान
और वैशपिक चित्रवर्णविगिर घर में नील, पीत आदि अन्य वर्ण का स्वीकार करते नहीं हैं। अतः वे एक-अनेक चित्ररूप को मान्य करते नहीं हैं। चित्र घट में यह इस भाग में नील है, उस भाग में पीन है' इत्यादि जो प्रतीति होती है, उसकी उपपनि नो घटावयच में कपाल के नील, पात आदि रूप के द्वारा स्वाश्रयसमवतत्वसंबन्ध में भी हो सकती है। स्व = कपालगत नील, पीत आदि रूप, उमका आश्रय = कपाल, उममें ममवेन है घट । इस तरह कपालीय नील, पीत आदि रूप स्वायसमक्तत्वसम्बन्ध में घर में रह कर नादृशातीनि और व्यनहार को उत्पन कर सकने हैं। अतः नदर्थ अवयवी घट में नील, पीन आदि वर्ण का स्वीकार नहीं किया जा सकता ।
* चित्रपवादस्यल* नीला, इति । यहाँ यह शंका हो कि -> 'घट में चित्र रूप की उत्पनि के लिए जैसे पटावयव = कपाल में रहने वाले अनेक नील. पीत आदि रूप सामग्री है वह तो घर में नाल, पीत आनि रूप की उत्पनि के लिए भी समान ही है । अतः घर में चित्रवर्ण की भाँनि नील, पीत आदि रूप भी उत्पन्न होने चाहिए, न कि केवल चित्र का' - तो वह निगधार है, क्योंकि नील रूप की उत्पत्ति के प्रनि नीलेनर रूप प्रतिबन्धक है। प्रतिबन्धकतावच्छंदकसंबंध है स्वममयायि. समवेतत्य 1 स्वपद मे अभिमन कपालीप नीलता (पीत, रक्न आदि का के समचार्या कपाल में गए ममत्रत होने से कपालीय नीलेतर रूप स्वसमवायिसमवेतत्वसंबन्ध में घट = अवयवी में रहता है । प्रनिरन्धकतावच्छंदक मंबन्ध में पर प्रतिबन्धकविशिष्ट होने की वजह प्रनिरध्य नील रूप की समय सम्बन्ध से उसमें उत्पत्ति हो मकनी नहीं है । घट में नील रूप ममपाय संबन्ध में तभी उत्पन्न हो सकता है, जब घट के अवपत्र में नीलनर रूप न द्वा, क्योंकि पदाचया में नीलनर म.प होने पर वह स्वसमवायिसमवतत्वसंबन्ध में घट में रह जाने में घट में समाय संबन्ध में नील मप की उत्पनि में प्रतिबन्धक बनना है। इस तरह चित्र घट में ममवाय सम्बन्ध से पीन रूप की भी उन्पान नहीं हो सकती, क्योकि चित्र घट के अपयर कपाल में पीननर नील, रक्त आदि) रूप समवेत होने की वजह वह स्वसमवायिसमवतत्वमबन्ध में घट = अश्वर्या में रहता है। पीन रूप का पीतता कप प्रतिबन्धक होने में उस घट में समवाय संबन्ध से पीत रूप की भी उत्पत्ति हो नहीं मकती। अतः वहाँ केवल चित्र रूप की ही उत्पत्ति होगी, न कि नील, पान आदि रूप की भी । प्रतिभकाभान भी मामगी में
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I
1
* नीलाभावादे: प्रतिबन्धकत्वविचारः **
स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन नीलाभावादेस्तथात्वे तु यत्रैकावयवे नीलमपरत्र च नीलजनकान्तिसंयोगस्तत्राऽवयविनि व्याप्यवृत्ति नीलं न स्यादिति नील-नीलजनकतेज: संयोगान्यतरत्वावच्छिन्नाभावस्य तथात्वं वाच्यम् ।
तदभावे च सामग्ररिकल्पात । एवं चित्रघंटे समवायेन प्रतिरूपमपि नोपजायते कपालीयपीततररूपादे: स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन चित्रपट सत्त्वेन सामग्रीचकल्या | आपादकविरहे आपादमस्याऽऽन्याय्यत्वात्, अन्यथाऽतिप्रसङ्गादिति चित्ररूपवाद्यभिप्रायः । ननु समत्रायेन नीलादिकं प्रति स्वसमवायसमवेतत्वसम्बन्धेन नीलेतरादेः प्रतिबन्धकत्वं यतुन स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्थेन नीलाभावादेः प्रतिबन्धकत्वं ? इत्यत्र विनिगमनाविरहात्रैतत्प्रतिवस्य प्रतिबन्धकभावः कल्पयितुमर्हतीत्यारे का निराकर्तुमुपक्रमते स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेनेति । स्वपदेन नीलाभावादेः परिग्रहः, तदाश्रये कपालादी समतां यो घटादि: तत्र समवायेन नीलादिकं प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन नीलाभावादः तथात्वे = प्रतिबन्धकत्वं स्वीक्रियमाणं तु नीलादेरनुत्पन्नानुपपद्यमानायामपि यत्र घटादी एकावयवे कपालादी समवायेन नीलं वर्तन अपरत्र च = विवक्षित कपालेतरकपालादी घटाद्यवयवे च नीलजनकाग्निसंयोगः समवायेन वर्तते तत्र अवयविनि घटादी व्याप्यवृत्ति नीलं न स्यात् समवामेन नोत्पद्येत, नीलाभावाश्रयं नीलजनकाग्निसंयोगवति कपालादी घटादेवयविनः समवेतत्वेन नीलाभावस्य स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन वर्तमानत्वात् । न च तत्रावयविनि घटादी नीलादिकं नैवोत्यत इति वक्तव्यम्, नील-नीलजनकाशिसंयोगाभ्यां तत्र व्याप्यवृत्तिनीलरूपोत्पादस्य प्रत्यक्षेणोपलब्धः । ततश्व तत्र व्याप्यवृत्निनीलरूपत्वादान्यधानुपपन्या समवायेन नीलं प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन नीलनीलजनकतेजः संयोगान्यतरत्वावच्छिन्नाभावस्य तथात्वं = प्रतिपलं भवता वाच्यम् । तत्रावयविनि घटादी स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धन नील नीलजनकतेजः संयोगान्यतरस्य सचिन नादशास्यतरत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताका भावलक्षणस्य प्रतिबन्धकस्यायोगेन नीलरूपस्य निराबाधसामग्रीकत्वात् समवायेन व्याप्यवृत्ति नीलरूपमेवीत्यनुमर्हति । किन्त्वेवं कल्पनायां प्रतिबन्धकता
-
५०१
=
-
प्रविष्ट होता है। प्रतिबन्धक होने पर प्रतिबन्धकाभात् कारण न होने की वजह नील, पीत आदि रूप की सामग्री ही नहीं है। अतः चित्र घट में स्वसामग्री से नील, पीत आदि रूप की उत्पत्ति का आपादन करना असंगत है। अतः कपालसमवेत नील, पीत आदि रूप से घट में अतिरिक्त चित्र रूप की ही उत्पत्ति होगी यह फलित होता है।
नीलरूपाभाव नीलरूप का प्रतिबंधक हो नहीं सकता पीपावादी
स्वाश्र० इति । नील और अनील कपाल से आरम्भ चित्र घट में नील आदि रूप की उत्पत्ति का कारण यदि इस तरह किया जाय कि 'समवाय सम्बन्ध से नील रूप के प्रति स्वसमवायिसमवेतत्वसंसर्ग से नीलेतर रूप प्रतिबन्धक नहीं है किन्तु स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से नीलरूपाभाव ही प्रतिबन्धक है । इस तरह प्रतिबध्य प्रतिबन्धकभाव की कल्पना करने पर भी नील और अनील कपाल मे आरब्ध घर में अतिरिक्त चित्र रूप की ही उत्पत्ति होगी, न कि नील आदी रूप की भी, क्योंकि अनील कपाल में वर्तमान नीलरूपाभाव स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध में घट में रह कर वहाँ समवाय संसर्ग से नील रूप की उत्पत्ति का प्रतिबन्ध करता है। स्व नीलरूपाभाव के आश्रय कपाल में घट समवेत होने से कपालआश्रित नीलरूपाभाव घट में स्वाश्रयसमवेतत्वसंबंध से रह सकता है यह तो सर्वमान्य है। अतः नील रूप के प्रति नीलेतर रूप को प्रतिबन्धक मानना असंगत है तो यह नामुनासिब है, क्योंकि इस प्रतिबध्य प्रतिबन्धकभाव को मान्य करने पर नीलरूपवाले कपाल और नीलजनकाग्निसंयोगवाले कपाल से आरब्ध घट में व्याप्यवृत्ति नील रूप की उत्पत्ति न हो सकेगी। जिस कपाल में नीलरूपजनक अग्निसंयोग है वह तो नीलरूपाभाव का आश्रय है । अतएव तादृशकपालाश्रित नीलरूपाभाव स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से घर में रह कर वहाँ रूप की उत्पत्ति का प्रतिरोध करेगा ही । मगर वस्तुस्थिति तो यह है कि इस स्थल में घट में व्याप्यवृति एक नील रूप की ही उत्पत्ति होती है, जिसकी संगति समवाय संबन्ध से नील के प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसंबंन्ध से नीलाभाव को प्रतिबन्धक मानने पर कथमपि हो सकती नहीं है ।
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यदि इस समस्या के निराकरणार्थ यह मान लिया जाय कि 'समवायसंबन्ध से नील रूप के प्रति स्वाश्रयसमवेतत्व संसर्ग से नीलरूपाभाव प्रतिबन्धक नहीं है किन्तु नील नीलतजनकारिसंयोगान्यतरत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताक अत्यन्ताभाव ही प्रतिबन्धक है। नीलजनकाभिसंयोगवाले कपाल में नील रूप न होने पर भी नीलजनकानिसंयोग का अभाव नहीं है । नीलनीलजनकानिसंयोगाऽन्यतर के रहने से वह कपाल नील नीलजनकाग्निसंयोगान्पतराभावचाला नहीं है। अन्यतर के आश्रय में
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५५२ मध्यमम्यादाटरहस्य खण्डः ३ - का.५ ** नीलाभावादेविप्रप्रतिबन्धकमनिराकरणम् *
एवमपि संयोगस्याऽव्याप्यवृतित्वेन तददोषतादवस्थ्यात् प्रतियोगिव्यधिकरणस्य तस्य तथात्वं वाच्यमिति गौरवम् ।
* जयलता * वच्छंदकगारवमापद्यते ।
किञ्च एवमपि .. समवायन नीलं प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धन नील-नीलजनकतेज:संयोगान्यनरत्त्वावच्छिन्नप्रतियोगिनाकाभावस्य प्रतिश्यकत्वकल्पन:पि, संयोगस्य = जन्यसंयोगत्वावच्छिन्नस्य अव्याप्यवृनित्वेन = स्वाभावसमानाधिकरणत्वेन, तदोषतादवस्थ्यात - व्याप्यवृत्तिनीलरूपान्तपादामजस्य तदवस्थत्वात, नीलजनकतेज:संयोगवत्यपि कपाले नीलजनकतेजःसंयोगाभावस्य सचान, नील-नीलजनकतज:संयोगांभयसन नादृशान्यतरत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताकामारस्यायोगात् । न ह्युभयसत्चदशायामन्यतराभायः प्रतिपादयितुं दास्यते । अनः पुनरपि पत्रकारपवे नीलमपरत्र व नीलजनकाग्निसंयोगस्नत्रावचिनि व्याप्यत्ति नीलं न स्यादिति दोषो वज्रलेपापित एव । तनिराकरणकृतं च प्रकृते समापन नीलं रूपं प्रति स्वाश्रयसगवतत्वसम्बन्धन प्रतियोगिन्यधिकरणस्य तस्य = नील-नजनकतेज:संयोगान्यतरत्यावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्य अत्यताभावस्य तधात्वं = प्रतिबन्धकत्वं वाच्यं = स्वीकार्यम । नीलजनकतंज संयोगवनि कपाले वर्तमानस्य नीलजनकतंज:संयोगाभावस्य स्वप्रतियोगियधिकरणत्वाभावेन तनावयविनि घटादा स्वाश्रयसमवनस्वसम्बन्धेन तादृशान्यनरत्याच्छिन्नप्रतियोगिनाकस्य प्रतियागिन्यधिकरणाभावस्याइसत्वाना नीलरूपोत्यादस्पान्याहतप्रसरत्वम् । न हि प्रतिबन्धकासत्त्वदशायां स्वकार'कलापात्कार्य नात्पद्यत इति शक्यते बकुम् । एवं पूर्वोक्तदापनिराकरणेऽपि तब मते प्रतिबन्धकतावच्छेदकदारीरकुक्षी गौरवं प्राप्तम् । समवायन नीलं प्रति मया स्वसमवापिसमवेतत्वसम्बन्धन नीलतररूपस्य प्रतिबन्धकत्वं कल्प्यते त्वया तु स्वाश्रयस भवेतत्वसमरन्धान प्रतियोगिव्यधिकरणस्य नील-तजनकतंज:संयोगान्यतरत्वावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकरयान्त्यन्नाभावस्य प्रतिबन्धक. त्वमुपयत इति त्वत्पक्षे गौरवं स्फुटमेव । न च प्रतिबध्यतावच्छेदकस्यैव प्रतिबन्धकामायकार्यतावच्छेदकल्वात प्रतिवध्यताबन्छन्दकगौरवस्यैव दांपत्वं न तु प्रतिबन्धकतावच्छंदकगौरवस्येति न कश्चिदोष इति साम्प्रतम्, तथापि समवायेन नीलं प्रति स्वसमवायसमचनत्वसंसर्गणनालस्य कारणत्वेन नीलाभावस्य प्रतिबन्धकत्वकल्पनाया अक्तत्वात् । न हि कारणाभावस्य प्रतिबन्धकत्वं कल्प्स्यते मनीषिभिः किन्तु निबन्धकाभावस्यैव कारणलम् । किश्चैत्र मति समवायन नीलं प्रति स्वसमवापिसमवेतत्वसम्बन्धेन नीलरूपस्य प्रतिबन्धकाभावविधया कारणत्वमापद्येत देवानाम्प्रियस्येति प्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्धघटकीभूतं स्वाश्रयत्वमपि कालिकेतरसम्बन्धेन वाच्यम् । ततश्च मम्बन्धकृतं गौरवमपि । शरीरकृतं अर्धकृतं उपस्थितिकृतश्च गौरवं स्फुटत्त्वान्नाय दश्यते । लाघवानुराधन नालतरादेः नदधेतुत्वं विहाय नीलाभाबादेः तथात्वीपगमे तु विपरीतमेव गौरवमिति 'भग्नं । व्रतं नैव तप्ता च वासना' इति न्यायापातः इति न किश्चिदतत ।
तादशान्यतरत्वावच्छिन्त्रप्रतियोगिताक अत्यन्ताभाव कैसे रहेगा ? कपाल नादशान्यतगभान का आश्रय न होने पर उसमें समवेत घट स्वाश्रयसमवेतत्वसंबन्ध से तादृशान्यतरत्वावछिनप्रतियोगिताक अभाव का, जो अवयवी में नील रूप की उत्पत्ति का प्रतिबन्धक है, आयय नहीं होने से वहाँ व्याप्यवृत्ति नील रूप की उत्पनि मुमकिन हो जायेगी। अत: नील के प्रति तादृशान्यतराभाव को ही प्रतिबन्धक मानना संगत है। -
बमपि इति । तो यह भी असंगत है, क्योंकि संयोग अन्याप्यवृति गुण होने की वजह जिस कपाल में नीलरूपजनक अग्निसंयोग रहता है वहाँ उसका अभाव भी रहने से नीलरूपजनकाग्निसंयोगवाले कपाल में नील रूप का एवं नीलरूपजनक अग्निसंयोग का भी अभाव रह जायेगा । इस तरह कपाल में उभयाभाव सिद्ध होने पर तादृशान्यतराभाव तो रहेगा ही। अतः पुनः स्वाश्रयसमवेतत्वसंबन्ध में घट में प्रतिबन्धक की उपस्थिति होने की वजह उस घट में नील रूप की उत्पत्ति न हो संकंगी । इसके निराकरणार्थ पदि ऐसा कहा जाय कि ---> 'तादृशान्यतराभाव भी प्रतियोगिन्यधिकरण हो तभी नील रूप का प्रतिबन्धक हो सकता है। प्रस्तुत में कपाल में रहनेवाला तादृशान्यतगभाव प्रतियोगिव्यधिकरण नहीं है किन्तु प्रतियोगिसमानाधिकरण है, क्योंकि कपाल नीलजनक अग्निसंयोग का आश्रय होने में स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से सदृशान्यतर (= नीलजनक अमिसयांग) घट में रहता है । घट में स्वाश्रयसमवेतन्वसंबन्ध से वर्तमान तादशान्यतराभाव प्रतियोगिव्याधिकरण नहीं होने से नील रूप की उत्पत्ति में प्रतिबन्धक हो सकता नहीं है' <-तो यह भी अनुचित है, क्योंकि समवाय सम्बन्ध से नील रूप के प्रति स्वसमचायिसमवेतत्वसम्बन्ध से नीलतर रूप को प्रतिबन्धक मानने की अपेक्षा स्वाधयसमवेतत्व संसर्ग स प्रतियोगिच्यधिकरण नील-नीलजनकाप्रिसंयोगान्यतगभाव को प्रतिबन्धक मानने में गौरव है। अतएव यह गौरवग्रस्त प्रतिवध्य
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* लघुस्याहादरहस्यसंवादः यदि त्ववयवे नीलजनकसंयोगेन नीलजननोत्तरमेवाऽवयविनि नीलोत्पत्तिरित्यभ्युपगम्यते तदा नीलादी नीलामावादेपे कार्यसहभावेन प्रतिबन्धकत्वं युक्तिमत् ।
चित्रत्वावच्छिन्नं प्रति च पृथिवीत्वेनैव हेतुत्वम् । न च नीलमात्रारब्धेऽपि तहापतिः, रूपनचित्रे नीलेतर-पीतेतरादेरपि हेतुत्वात् ।
-* जय *प्रकृते च लघुस्याद्रादरहस्ये 'नालायभावस्यैव स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन विरोधिमिति तु वायूपनीतसुरभिभागादनीरूपत्वं न शोभते' (ल.स्या.र.पू. २२) इत्येवं गाठी वनंत इनि ध्येयम् ।
ननु मयावधिनि नालादिजनकोऽग्निसंयागी नवा भ्युपगम्यत किन्त्ववयवसमवेतरूपादेवा बर्यावनि नीलादिम्पत्तादोऽभ्युपगम्यन इत्याशयं विलुपाकगदिनां दर्शयति यानि । अभ्युपगमवादसूचनायेदम् । तुर्विशेषगार्थः, नदेव दर्शयति →
अवयवे = कपालादी नीलजनकसंयोगन = नालापजनकतंजःसंयोगन, अवयं नीलजननांत्तरं = नालरूपोत्पादानन्त| रोत्तरकाल एब अवयचिनि बटादा नीलोत्पनि: भवाति अभ्युपगम्यत भवद्भिः तदा समवायन नीलादी - नालादिकं प्रति. नीलाभावादरपि, अपिना नालतररूमादिसमुच्चयः. प्रतिवन्धकत्वं युक्तिमत, व्यतिरकव्यभिचारविरहात गौरवानवकाशाच वस्तुनस्तु अनुपदानादिरा नीलाभागदः कारणाभावात्मकत्वमव, न तु प्रतिबन्धकत्वमिति ध्ययम् ।
ननु चित्रं प्रति केन रूपेण हेतुत्वं ? इत्याशङ्कायामाह -> चित्रत्वावच्छिन्नं प्रति च = याचित्रम्प पृथिवीत्वेनैव | | हेतुत्वम्, स्पस्व पृथिवी-जल नजीनिये पि चित्ररूपस्य पृथिवीमात्रवृत्तित्वात् । एवकारण पाकत्वादेव्यंबन्दः कृतः । प्रकृने कार्यतावच्छेदकसम्बन्धः समवाय:, कार्यतावच्छेदकधर्मः चित्रत्वं, कारणनारदकसंसर्गः तादात्म्यं कारणतावच्छेदकधर्मश्र पृथिगत्वम । नन ममवायन चित्ररूपं प्रति तादात्म्मन प्रथिन्या: कारणले यस्मिन् कपाल कवलं नालरूप तत्स चित्रांन्यादप्रमङ्गो दुर्निवारः, घटस्य पार्थिवद्रयवादित्याशङ्कामगाकर्तुमुपक्रगत न चेति । नीलमात्रारब्ध = नीलतररूपशून्येन मालरूपचनः कपालदिना प्रार- बटादावववनि अपि तदापत्तिः = अतिरिक्तचित्ररूपान्यत्तिप्रसङ्गः 1 तन्निरासे युनिमाविष्कगति रूपनचित्रे = अअयवसम्बतरूपजन्य चित्ररूप, नालतर-पतितरादः अपि तत्वात् । अयं भाव: चाक्षुषल्यायन्छिन्त्र प्रति | प्रतिबन्धकभाव स्वीकार्य हो नहीं सकता . यह नात्पर्य है ।
= जीलामाबाद में शिवमपहेतुता मुमकि] - पियवादी यदि. इति । अगर यहाँ यह कल्पना की जाय कि --> 'अवयर में नीलरूपजनक अनिसंयोग सर्वप्रथम अवयव में ही नील रूप का उत्पत्र करेगा और बाद में अवयवगन नील रूप ही अवयवी में नील रूप को उत्पत्र करेगा । अनएच स्वाश्रयसमवेतत्व संसर्ग से प्रतियोगिब्यधिकरण नील-नीलजनकाग्निसंयोगान्यतात्वावच्छिन्त्रप्रतियोगिताक अत्यन्ताभाव को ममवाय | संसर्ग से नील रूप का प्रतिबन्धक मानने की आवश्यकता नहीं है । इसका कारण यह है कि पाकज और अपाकज स्थल में हम अवयवसमत रूप को ही अवयवी में समवाय संबन्ध से होनेवाले रूप का असमवायिकारण मानते हैं <- तर नो अनयनी में नीलादि रूप के प्रति कार्यमहभावन नीलाभार आदि को भी प्रतिबन्धक मानना युक्तिसंगन है । अवयवरूप से अवयविगत रूप की उत्पनि मानने में नील-नीलजनकाग्रिसंयोगान्यतराभाव को प्रतिवन्धक मानने की आवश्यकता नहीं हैऐसा सूचित होता है। अनः गौग्य टोप को अवकाश नहीं है।
* पृटती ही चित्र ५५ का हेतु है ॐ चित्रत्व।, इति । अन्य विद्वानों की यह राय है कि चित्रत्वावन्छिन : यावत चित्ररूप के प्रति पृथ्वीवरूप में ही पृथ्वी में काग्णना है । मतलब कि घट, पट आदि पृथ्वी होने की वजह ही उनमें चित्र रूप उत्पन्न होता है। यहाँ यह शंका हो कि --> 'चित्र रूप के प्रति पृथ्वीन्यरूप में कारणता का स्वीकार करने पर तो केवल नीलरूपवाले कपाल से आरब्ध घट में भी चित्र रूप उत्पन्न होने की आपत्ति आयेगी, क्योंकि पृथ्वी द्रव्य = पार्थिव द्रव्य होने की वजह एट चित्र कंप का कारण है - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि चित्रमात्र के प्रति पृथ्वी द्रव्य कारण होने पर भी रूपजन्य चित्र रूप के प्रति नीलेनर, पीततर आदि रूप भी कारण हैं । आशय यह है कि पृथ्वी द्रव्य तो चित्ररूप सामान्य का कारण है और नीलतर, पीनंतर आदि रूप चित्रविशेष का कारण हैं । केवल नीलमपचाले कपाल से आरब्य घट में रूपजन्य चित्ररूप का आपादन नहीं किया जा सकता, क्योंकि उस घर में नीलेतर रूप आदि का अभाव है।
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४०४ मध्यमस्याद्भादरहस्ये गुण्टा ३ का ५ * नीलाभावादभित्रकारणताविचारः
केचितु
नीलाभावादिषट्कस्यैव तद्धेतुत्वम् । न च नीलपीतोभयकपालारब्धे घंटे पाकनाशितावयवपीतस्वचित्रेऽवयवे व्याप्यवृतिनीलोत्पत्तिकाले तदापत्तिः, कार्यसहभावेन तस्य
* जयलता *
चक्षुष्टुवेनेव कारणन्तेऽपि अञ्जनादिकान्दीनचाक्षुष प्रति अञ्जना हेतुत्यान्नास्माकं रात्री अञ्जनादिसंस्कृतचक्षुषां तस्करादीनां चाक्षुषमिवाञ्जनादिकालीनं चाक्षुषमुपजायते तथव चित्रत्वावच्छिन्नं प्रति पृथिवीत्वेनैव कारणत्वेऽपि रूपजचित्रं प्रति नीलंतरप्रतिनदिरपि जनकत्वान्न नीलमानारब्धे चित्रोत्पादप्रसङ्गः । एनेन तत्र रूपजं चित्रं मास्तु, चित्रमात्रं तु स्यादिति प्रत्युक्तम्, अन्यत्र चाक्षुषे आलोकसंयोगादेखि रूपनाऽतिरिनचित्रे पाकस्य हेतुत्वाभ्युपगमान । समवायेन चित्रत्वावच्छिन्नं प्रति तादात्म्येन पृथिया: रूपजविनं प्रति स्वसमवायिसमवेतत्वादिसंसर्गेण पाकस्य हेतुत्वमिति न नीलमानसमा चित्रांगद प्रसङ्ग इति तु निष्कर्ष: ।
समवायेन तस्मात्सर्गेण नीलंतर- पतितर- रक्ततरादिषट्कस्थ हेतुत्वकल्पनापेक्षया स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन नीलाभावादिपदकस्यैव हेतुत्वं कल्पयितुमर्हति अन्योन्याभावापेक्षया उत्यन्ताभावस्य लघुतरशरीरत्वात् । युक्तनदेव. अन्यथा कायदे नाले अपर व पीतजनकाशिसंयोगस्तत्र चित्रोत्पादाऽ नापनेः नीलेतरादिषट्कस्य तत्र विरहादित्याशयवतां केषाञ्चिन्मनं प्रकरणकारः समावेदयति केचित्त्विति । नीलाभावादिषट्कस्यैव तद्धेतुत्वं = चित्रकारणत्वं, एवकारेण नीलंतर- पतितरादेर्व्यवच्छेदः कृतः ।
ननु चित्रं प्रति नीलाभावादिपदकस्यैव हेतुत्वेऽभ्युपगम्यमाने तु यो घटः नीलपीतकरालाभ्यां समारम्भस्तत्र पाकेन यदा कपालपीतरूपं घटसमवेतचित्ररूपं च नाइयते तदनन्तरं पाकनाशितपीतरूपं कपाले व्याप्यवृत्ति नीलरूपं सञ्जायते तत्समकालमेव घंटे चित्ररूपोत्पादन दुर्निवार:, तदव्यवहितपूर्वक्षणावच्छेदेन घंटे स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन नीलाभावादिषट्कस्य विद्यमानत्वात् । चित्रं प्रति नीलंतर परततरादेः हेतुत्वं तु नायं प्रसन्न, पाकनाशितपीतरूपकपालवृत्तित्र्याप्यवृत्तिनीलोत्पत्तिकालाऽव्यवहितपूर्वक्षगावच्छेदन गीलेतरादिरूपस्य स्वसमवायसमवेतत्वसम्बन्धेन पटेऽविद्यमानत्वान् । ततश्व नीलंतरांदेरेव तद्धेतुत्वं युक्तं न तु नीलाभावादिकस्येति शङ्कामपाकर्तुमुपक्रमते > न वेति । नीलपीतोभयकपालारब्धे = नीलपीतकपालाभ्यामार घंटे अवयविनि तदापत्तिः प्रकृतेनवीयते पाकनाशितावयवपीतस्वचित्रे = पांकेन नाशितं अवयवपीत कपालपीतरूपे स्वचित्र
=
घरू सति अवयवे चटगवायिकारण कपाले पांकन व्याप्यवृत्ति - नीलोत्पत्तिकाले - स्वाभावासमानाधिकरणनीलरूपोत्पादक्षणावच्छेदेन तदापत्ति चित्ररूत्पादापतिः । शङ्काग्रन्थी भावितार्थ एवानुपदम । तन्निराकरणे हेतुमावेदयन्ति कार्यसहभावेन कार्योत्पादसमकालीनत्वेन न तु कार्योत्पादाऽव्यवहितपूर्वकालिकत्वेन तस्य नीलाभावादि
=
=
कार्यसहभाव से हेतुता का विचार
केचि इति 1 चित्र रूप के विषय में कुछ विद्वानों का यह मन्तव्य है कि "चित्र रूप के प्रति नीलाभाव, पीताभाव, रक्ताभाव, नाभाव, कृष्णाभाव, और हरितवर्णाभाव- ये छ कारण हैं। नीलाभावादिपटक स्वाश्रयसमवेतत्व संबन्ध से चित्र रूप का हेतु होने से जहाँ एक अवयव में नील रूप है और अन्य अवयवों में पीतजनक अग्निसंयोग है वहाँ अवयवों में पीत रूप की उत्पत्ति के पूर्व भी अवपत्री में चित्र रूप की उत्पत्ति मानने में कोई बाधा नहीं है, क्योंकि नीलाभाव, पीताभाव आदि पट्क स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से घटात्मक अवयत्री में विद्यमान है। अतः समवाय सम्बन्ध से चित्र रूप के प्रति स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से नीलाभावादिपक की ही कारण मानना संगत है। यहाँ यह शंका हो कि > 'जहाँ नील पीत दो कपालों से चित्र घट उत्पन्न होता है और पाक से पीत अवयव के पीत रूप का और स्व = घट के चित्र रूप का नाश होता है यहाँ नष्टपतिरूपवाले अवयव में पाक द्वारा व्याप्यवृत्ति नील रूप की उत्पत्तिकाल में घट में चित्र रूप की उत्पत्ति का प्रसंग होगा, क्योंकि उसकी अव्यवहित पूर्व क्षण में घट में स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से नीलाभावादिषट्क विद्यमान है, किन्तु वस्तुस्थिति यह है कि बस घट में चित्र रूप उत्पन्न नहीं होता है तो यह असंगत है, क्योंकि नीलाभावादिपक में चित्र रूप के प्रति कार्यसहभावेन हेतुता है । अत: कार्योत्पत्ति की अन्यवहित पूर्व क्षण में नीलाभावादिपट्क की विद्यमानता अनपेक्षित है। किन्तु कार्योत्पत्तिकाल में ही नीलाभावादिषट्क की विद्यमानता अपेक्षित है । चित्ररूपांत्पत्तिक्षण में नीलाभावादिपदक के रहने पर ही चित्ररूपात्मक कार्य की उत्पत्ति हो सकती है। उपर्युक्त स्थल में नष्टपीतरूपवाले कपाल में व्याप्यवृतिनीलरूपोत्पत्तिक्षण में नीलरूपाभाव नहीं होने से चित्ररूपोत्पत्ति के प्रसंगरूप दोष का सम्भव नहीं है ।
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li
* लघुम्यादादरहस्यसंवादः * हेतुत्वात् । अस्तु वा नील-नीलजनकतेज:संयोगान्यतरत्वावच्छिमाभावादेव तथात्वं तेन ज नील-पीत-श्वेतत्रितयकपालारब्धे पीत-श्वेतयोः कमेण ताशे श्वेतनाशकालेऽपि तदापत्तिरित्याहः । अश्मिसंयोगजचित्र प्रति च विजातीयतेजःसंयोग एव हेतुः, रूपमात्रजाऽतिरिक्त एव वा
- यात पटकस्य चित्ररूपं प्रति हेतुत्वात् । पाकनाशिनपानरूप कपाले ब्याप्यवृत्तिनालरूपांत्पत्तिकालावच्छेदेन घट स्वाश्रयसमईतत्वसंसर्गेण नीलाभावादिषदकस्य विरहान तदा घंट चित्रीत्पादनसङ्गः ।
ननु समवायन चित्रे प्रति स्वाश्रयसमयतत्वसम्बन्धन कार्यसहभावन नीलाभावादिपटकस्य कारणत्वमिति प्रकृनपरिष्कारकरगेऽपि यो घटो नाल-पति-श्वेतकपाले: समारब्धः तत्र पाकन प्रथमं पीतमपं नाश्यते तदनन्तरक्षणे च चतरूपं नादयत तदनन्तरक्षणे च तत्र पाकन न्यायनि नीलरूपमृत्यद्यत तत्र श्वननाशकालाबनलंदन घटे चित्ररूपोत्पादनसङगो दुर्निगर:. नदा | घटे स्वाश्नयसमवतत्वसम्बन्धेन नीलाभावादिषटकस्य सन्चादित्याशङ्कायां कल्पान्तरं प्रादुष्कुर्वन्ति → अस्तु वेति । तथात्वं = चित्ररूपकारणत्वम् । तेन = समवायन नित्रं प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धन नाल-नीलजनकतंज:संयोगान्यतरत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाव-पीत-पीतजनकतेजःसंयोगान्यतरत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावादिषदकस्यैव हेतृत्वरबीकारण, न नील-पीतश्वेतत्रितयकपालारब्धे पटे वयविनि पांकन पीतवतयाः कपालसमतरूपयो क्रमण नाशे अंतनाशकालेऽपि बदापतिः = चित्ररूपोत्पादप्रसङ्गः, नदा घटे स्वाश्रयसमबतत्वसम्बन्धन नीलजनको नामयोगसच्चन नील-नीलजनकनज:संयोगान्यतरन्यावचिन्नप्रतियोगिताकाभाबाद: चित्ररूपहताविरहात् । न हान्यतरमन-न्यतस्त्रावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्नत्राभ्युपगन्तुमर्हनि ।
___ आहुरित्यननाऽस्यामः प्रदर्शितः, नीलतरादिषटकापेक्षया नाल-नालजनकत जासंयोगान्यनरत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाव - । घटकम्य सदतुल्वे गौरवात संयोगम्याऽव्याप्यवृत्तिल्वेन प्रतियागिन्यधिकरणचनि। च महागौरवात् । न चानवच्छिन्नविशेषणतया प्रतियोगिताबच्छेदकाविशषितोक्ताभावहतुन्वकल्पनायाः सुघटत्वमिति वाच्यम्, प्रतियागिकोटाबुदामीनप्रसंशाप्रबंशाभ्याम - शिनिगमन । न बागच भासदारया च पातजनकाग्रिमंयोनस्तत्र चित्ररूपांत्यन्युपपत्नये नीलाभावादिषटकहेतुत्वकल्पनाया न्याय्यत्वमिति वक्तव्यम, तत्र रघलश्वयं पीनरूपांत्यन्यनन्तरंगेवावपविनि चित्ररूपोत्पनिस्वीकारण व्यतिरेकभि. बाराश्योगादित्यादि विभावनीयम् । प्रकने लघस्याद्वादरहस्य नारनर -पीनंतरवादिनत्र नद्धततेत्यप्यन्ये' इत्यधिकः पाठः।
अबकयां मतमाह. अग्रिमयोगजचित्रं प्रति विजातीयतेजःसंयोग एवं हेतु , कारंग नौलतरादिषदकस्य नीलाभावादिपटकस्य नील-नालजनकनेज:मंयोगान्यतरवावच्छिन्नाभावादिषटकस्य च व्यवच्छन्दः कृतः । ममवायनाऽनिसंयोगजन्यचित्रं प्रनि म्घसमवापिसमयतत्वसम्बन्धन विजानीयन न:संयोगनव कारणत्वम्वीकारे नीलमात्रजन्यमंट पाकेर चित्ररू
अग्न, इनि । अथवा यह भी कहा जा सकता है कि ममचाय में चित्र रूप के प्रति स्वाश्रयसमवतत्व सम्बन्ध से नील-नीलजनकतंजःसंयोगान्यनरत्वावच्छिन्नानियोगिताक अभाव ही कारण है। उपर्युक्त कार्य-कारणभाव का त्याग कर के इस नवीन कार्य-कारणभाव को मान्यता देने का कारण यह है कि - चित्र रूप के प्रति कार्यमहभावन नीलाभावादिपरक को कारण मानने पर जहाँ नील-पीन और धन इन नीन-पवाले कपाला ग कार घट उत्पन्न होता है और उसमें पाक में पीन का और अंत संप का नारा क्रम होता है यहाँ उस घट में धेन के नाशकार में चित्ररूपान्पनि का प्रमंग होगा, क्योंकि उम काल में पान, मन आदि मगों का अभाव स्वाश्रयसगनल मम्वन्ध में विद्यमान रहता है । इम टोप के निवारणार्थ नील और नीलजनकनजागयोगान्यनग्यापन्निलियोगिताको अभाव को चित्र कप का कारण मानना भावश्यक .। अब म कार्यकारणभाष को मान्य करने पर गायन प्रचार में चित्ररूपोन्माद का अनिए प्रगंग नहीं आयेगा, क्योंकि उक्त प्रा में पाक में पानरूपनाथ अनन्नर तरूपनाशकाल में नरमपनन संयोग होन मेनाल-नीलजनकालिमपोगान्यतरा. भान नहीं है। कारण के विरह में कार्य का भागादन हो जाना नहीं है । अनः समवाय मावन्ध ग चित्र रूप के प्रति म्वाधषममतन्य सम्बन्ध मे नील नीलजनकनेजमयोगान्यतरन्याम्लिन्नईतयोगिताक प्रभाव को हा कारण जानना मुनामिल है। पमा र विमानों का अभिप्राय यहाँ प्रकरणकार ने न्यन, किया है । WHIमाजास विद्या प्राय
I] - माविना अग्रि, इति । यहाँ अमक विद्वानों का यह, अभिप्राय है कि पाकन चित्र रूप के प्रति पाक = विजानीय अग्रिमयांग ही हंन है। इस कार्य कारणभार का भान्य करन पर चित्र म्पक पति नाल-नारजनकतनामयोगान्यनग्न्वारनिनियागिताक
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६५६ मध्यमस्याद्भादरहस्ये खण्डः ३ का ५
* पाकजचित्रप्रतिक्षेपः
स हेतुः फलबलेन वैजात्यकल्पनात् । तेन नोभराज उभयो: पृथक्कारणत्वकल्पनम् । पाकजचित्रे वा मानाभाव:, पाकादवयवे नानारूपोत्पत्त्यनन्तरमेवाऽवयविनि चित्रस्वीकारे लाघवादित्येके ।
ॐ जयलवा क्षै
पोत्पत्तिः सङ्गच्छते । नीलेतरादिषट्कादेः तत्कारणत्त्वपक्षे तु नेयं घटामञ्चति तत्र तद्विरहात् । लाघवानुरोधेन कल्पान्तरमाविष्कुर्वन्ति रूपमात्रजाऽतिरिक्के = अवसमवेतरूपमा जम्पचित्ररूपातिरिक्तचित्ररूपे, एवकारेणाऽग्निसंयोगज. चित्ररूपव्यवच्छेदः कृतः । बाकारः कल्पान्तरप्रदर्शनार्थः । सः = विजातीयतेजः संयोगः स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन हेतुः । कल्पान्तरानुसरणप्रयोजनं स्वपदमेव दर्शयिष्यते प्रकरणं । फलबलेन = अन्वयव्यतिरेकमहिम्ना, वैजात्यकल्पनात् चित्रजनकानिसंयोगसमवेतजातिविशेषस्य सिद्धेः । एतेन अभिसंयोग जन्यचित्ररूपनिरूपितकारणतावच्छेदकीभूतवैजात्याऽसिद्धेः न विजातीयतेजःसंयोगस्य तद्धेतुत्वसम्भव इति प्रतिक्षितम्, अग्निसंयोगत्वावच्चिन्नस्य तद्धेतुत्वकल्पने सर्वस्मिन घटादी चित्रोत्पादसङ्गात्, तेजः परमाणुसंयोगस्य तत्र सर्वदा सन्तात् । न चैतद्दृष्टमिष्टं वेति तदन्यथानुपपत्त्या सिद्धो धर्म एको नित्यश्चतु तदा लाघवम' तिन्यायात् तज्जनकाग्निसंयोग जातिविशेषः सिध्यतीति भावः । तेन = विजातीयाग्निसंयोगनिष्ठजनकतानिरूपितजन्यतावकेदकधर्मः रूपमात्रजातिरिक्तचित्रत्वं न तु तेज: संयोगजचित्रत्वमित्यभ्युपगमेन न उभयजे = नीलेतरादिपाकोभयजन्ये चित्ररूपं उभयोः नीलंतरादि- पाकयोः पृथक्कारणत्वकल्पनम्, तस्य विजातीयतेज:संयोगकार्यतावच्छेदकाकातत्वात् । विजातीयतेजः संयोगमात्रजचित्र • पाकरूपी भयजचित्रयोः रूपमात्रज भिन्नत्वेनानुगतीकृत्य तो प्रति पाकस्य हेतुत्वसम्भव इति भावः । प्रकृतकल्पे व समवायेन रूपमात्रजं चित्रं प्रति स्वसमवायसमवेतत्वसम्बन्धेन नीलेतरादिषट्कस्य रूपमात्रजचित्रातिरिक्तचित्रं प्रति च विजातीयतेजः संयोगस्य कारणता कल्पत इति कार्यकारणभावजयकल्पनम् । अन्पन्न तु अवयवरूपषाको भयजचित्रं प्रति अवयवरूप - पाकमी: मिलितयो: कारणत्वकल्पनमधिकमिति ज्यायानयमेव पक्षः ।
=
ननु रूपमात्रजचित्रातिरिक्तचित्रे विजातीयतेजः संयोगत्वेन कारणत्वं यदुत अग्निसंयोगमात्रजचित्रातिरिक्तचित्रेऽवयवरूपत्वेन हेतुत्वं ? इत्यत्र विनिगमनाविरहो दुरुद्धर: उभयजचित्रे उभयोः पृथक्कारन्याऽकल्पनं तुभयत्र तुल्यमिति नोपदर्शिनकार्यकारणभावः श्रद्धातुमईतीत्याशङ्कायां कल्पान्तरमाह् पाकजचित्रे वा मानाभाव इति । नन्वन्वयव्यतिरेकाभ्यां पाकात् = विजातीयतेज: संयोगात् अवयवे = अवयवेषु नानारूपोत्पत्त्यनन्तरं नीलपीतादिनानाविधवत्पादानन्तरक्षण एव न तु तत्पूर्वं अवयविनि चित्रस्वीकारे अतिरिक्तकार्य कारणभावाकल्पनेन लाघवात् । पाकावापरमाण्वन्तमवयवविनाशी भवतु मा वा । अब नास्माकमाग्रहः अभावत्व आदि रूप से कारणता के स्वीकार का गौरव प्रसक्त होता नहीं है । रूपजन्य चित्र रूप के प्रति विजातीयसंयोग नहीं बल्कि स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से नीलेतर आदि रूप कारण होने से कारणता अवच्छेदकधर्मशरीर में नीलजनकतेजः संयोग | के निवेश की कोई आवश्यकता नहीं है। चित्ररूपकारणतावच्छेदकधर्मघटकीभूत अभिसंयोगनिष्ठ वैजात्य की कल्पना का गौरव आपातत: प्रतीत होने पर भी वह दोपात्मक नहीं है, क्योंकि वह फलबल से कल्प्य होने से प्रामाणिक है। अग्निसंयोगसामान्य से पाकन चित्र रूप उत्पन्न नहीं होता है, किन्तु असंयोगविशेष से ही पाकन चित्र रूप उत्पन्न होता है। यदि ऐसा न माना जाय तो प्रायः सभी द्रव्य के साथ अभिपरमाणुओं का संयोग होने से सर्व रूपी वन्य में पाकजन्य चित्र रूप की उत्पत्ति का अनिष्ठ प्रसंग आयेगा | अन्वयव्यतिरेक में अग्निसंयोगविशेष में ही पाकज चित्र रूप की कारणता का निश्वय होने से चित्रपौत्पादक अभियोग में वैजात्य = जातिविशेष की कल्पना न्याय्य है । अथवा हम यह भी कह सकते हैं कि रूपमात्र से जन्य चित्र रूप से अतिरिक्त चित्र रूप के प्रति ही विजातीय अग्निसंयोग कारण है । इस कार्यकारणभाव को मान्य करने का लाभ यह है कि अवयवरूप और गाव उभय से जन्य चित्र रूप के प्रति अवयवरूप और पाक = विजातीय अभियोग दोनों में स्वतंत्र कारणता की कल्पना का गौरव प्रसक्त होता नहीं है, क्योंकि रूपमात्रजन्पचित्ररूपातिरितवित्रत्वस्वरूप पाककार्यतावच्छेदक धर्म से वह चित्र रूप आकान्त है। इस पक्ष में रूपमानजन्य चित्र रूप के प्रति स्वसमवायसमवेतत्व सम्बन्ध में नीलेतर आदि रूप कारण है और लदनिरिक रूपमात्रजन्य चित्ररूप से भिन्न) चित्र रूप के प्रति विजातीयतेजः संयोग कारण है । इन दो कार्यकारणभाव की ही कल्पना करनी पड़ती है । उभयजन्य चित्र रूप के प्रति स्वसमवायसमवेतत्वसम्बन्ध से नालेतरादिपदक और पाक इन दोनों में कारणता की कल्पना का गौरव अप्रसक्त हैं ।
पाक इति । अथवा यह भी कहा जा सकता है कि चित्ररूप केवल अवयवसमवेत रूप से ही उत्पन्न होता है, न कि पाक से क्योंकि पाकजन्य चित्र रूप के स्वीकार में कोई प्रमाण नहीं है। यहाँ यह शंका हो कि 'नीलकपाललय
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* अपरमतयातनम * चिलचित्रजनकत्वेनामिमतस्यैकस्य पाकस्थाऽवयवनीलपीतादिजनकत्वेनाभिमतस्यैकस्य पाकस्याऽवयवनीलपीतादिजनकत्वे नीलजनकतावच्छेदक-पीतजनकतावच्छेदकजात्योः साकर्यात् । अयादिजनकतावच्छेदकजातेस्तत्र नानापाकानां वा कल्पने
जयलता | परं पाकादययवश्वेव नानारूपाण्युत्पद्यन्ते । ततश्न तेभ्य एवा वयविनि चित्रमुत्पद्यते अवयविरूपस्य अवयबरूपा समवापिकागाकत्यात् ।। अतश्चित्ररूपं न पाकनं किन्तु रूपजमवेत्यभिप्रायः ।
एक इत्यनना:स्वरस : प्रदर्शितः । तदद सगष्टयति तचिन्न्यमिति । चिन्ताबीजमवाविष्कगति चित्रजनकत्वेन अभिमतस्ये. ति । स्वयं परण चित्रजनकपास्या नाकारात् 'चित्रजन करप' त्यनुकवा चित्रजनकल्यनाभिमनस्य 'त्युक्तम् । एकस्य पाकस्य अवयवनीलपीतादिजनकल्वे स्वाक्रियमाणे नीलजनकतावच्छेदक-पीतजनकतावच्छेदकजात्योः साङ्कर्यादिति । चित्राइजनकत्वना भिमत नालजनक पाक नालजनकतावच्छेदकजानेः सत्त्वपि पीतजनकतावच्छेदकजानेरसत्वात, चित्राजनकत्वना:भिमत पीतजनके पाक पीतजनकतावच्छेदकजातः सत्त्वेऽपि नालजनकतावच्छेदकजातेरसत्त्वात् चित्रजनकत्वेना:भिमत पाक नील-पातजनकनायचंदक जात्वा: सत्चात साङ्कय स्फुटमेव । अत एव तन्निराकरणाय पाकजं चित्ररूपमभ्युपगन्तव्यमित्यभिप्रायः।
ननु सायपरिहाराय न पाक नित्ररूपं स्वीकर्तव्यं किन्तु चित्रजनकल्वेनाभिमते पाक नील-पीतोभयजनकतावच्छेदिकाया एकस्या एव जाते: स्वीकारः समुचित:. न न नीलजनकतावच्छेदक-पातजनकतावच्छेदकजात्याः स्वीकारः । यद्वा चित्ररूपस्थले नीलजनकपाकादन्य एव पातजनकपाक: स्वाकर्तुमचितः ! ततश्च न सायविकाश इत्याशङ्कामपाकर्तुमाह -> उभयादिजनकतावच्छेदकजाते: नीलपीतोभयादिनिष्टजन्यतानिरूपितजनकतावच्छेदिकाया एकस्या जातः, तत्र = चित्र जनकत्वना भिमतं 'गाके, कल्पन इत्पत्रानुपज्यत आवृन्या । तत्र = अवयवे नानापाकानां = नील- पीनादिजनकानेकविध
से आरम्ध घट में भी विजानीय अमिसंयोग से चित्र रूप की उत्पत्ति नो प्रत्यक्ष प्रमाण से ही सिद्ध है। हाथ कंगन को आरसी क्या ? अत: प्रत्यक्ष प्रमाण ही विजातीय अमिसंयोग में चित्र रूप की तुता को सिद्ध करता है। यहाँ अवयवगन अनंक नीलेतर आदि रूप से अचयी में चित्र रूप की उत्पनि का समर्थन तो नहीं किया जा सकता, क्योंकि अवयत्र = कपाल में नीलंतर आदि रूप ही अविद्यमान हैं तो वह अनुचित है, क्योंकि पाक से साक्षात् (सर्व प्रथम) अक्यवी = बट में चित्र रूप उत्पन्न होता नहीं है, किन्त अवयव = कपाल में ही पाक मे सर्व प्रथम अनेक नीलेतर, पीततर आदि रूप उत्पन्न होने हैं। बाद में अवयवगत नीलनगदिपटक ही स्वसमवायिसमवेतत्व सम्बन्ध में घट में रह कर वहाँ समवाय सम्बन्ध से चित्र रूप को उत्पन्न करता है । पाक तो अवयव कपाल में नीलेनगदिपटक को उत्पन्न कर के चरितार्थ हो जाना है । अतएव घटसमवंत चित्र रूप के प्रति वह अन्यथासिद्ध सिद्ध होता है । इसलिए चित्र रूप के प्रति विजातीय अभिसंयोग की कारणता अप्रामाणिक है. यह फलित होता है । चित्र रूप के प्रति तीन या दो नहीं मगर एक ही कारण होता है, जिसका नाम है नीलतरादिपटक। अनेकविध कारणता का स्वीकार न होने से इस पक्ष में लापत्र भी सिद्ध होना है-यह अमुक मनीषियों का बक्तव्य है।
नश्चिन्त्य, इति । मगर यह वक्तव्य आंखें मूंद कर स्वीकर्तव्य नहीं है। इसके उपर भी थोडा मा चिन्तन - मनन करना चाहिए । चिन्तन का एक पहलू यह है कि -> 'अवयदी में चित्र रूप के जनकविधया जा पाक संमन है, उसीका अवयव में नील, पीत आदि रूप का जनक मानने पर नील . पीतादि की जनकतावच्छेदक जानि में मांफयं होगा, क्योंकि चित्र रूप के अजनक नीलजनक पाक = विजानीय अप्रिसंयोग में नीलजनकताअवच्छेदक जाति है किन्तु पानजनकनावच्छेदक जाति नहीं है । बम ही चित्र रूप के अजनक पीनजनक पाक में पीतजनकतावच्छेदक जाति है किन्तु नीलजनकत्तावच्छेदक जानि नहीं है और वे दोनों जातियाँ चित्ररूपजनक विजातीय अनिसंयोग में नियमान हैं। इस सांकर्य दोष के कारण पाक सं अवयव में नील-पीत आदि अनक रूप की उत्पत्ति और अचयवगत पाकजन्य नीलेनर . पीनेनगदि रूप से अवयवी में चित्र रूप की उत्पत्ति की कल्पना असंगत है । यदि सांकर्य दोप के निराकरणार्थ चित्र रूप के जनकविधया अभिमत पाक में नीलजनकतावच्छेदक और पीतजनकतावच्छेदक दो जातियां न मान कर नीलपीतोभयजनकतावच्छंटक एक जातिविशेप की कल्पना की जाय या तो यहाँ नीलजनक पाक और पीनजनक पाक को, अलग अलग माना जाय तर यद्यपि सांकर्य दोप का निराकरण तो हो सकता है तथापि अतिरिन जाति की या विभिन्न पाक की, अवयवों में अनेकविध रूपों की, उनके
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५५८ मध्यमस्याद्रादरहस्ये खण्ड: २ का ५ * रामभद्रसार्वभीममताविष्करणम् *
गौरवादित्यपरे । अवयवेषु नानारूप-तत्प्रागभाव- प्रध्वंसादिकल्पने गौरवादित्यर्थः ।
चित्ररूपे रूपत्वेनैव हेतुता नीलमात्रारब्धे तु प्रागभावाभावादेव न चित्रोत्पत्तिः । अस्तु वा चित्रं प्रति चित्रेतररूपाभावस्य चित्रेतरत्प्रति च चित्राभावस्य कार्यसहभावेन हेतुता । अतो नातिप्रसङ्ग इति तु रामभद्रसार्वभौमाः ।
ॐ जयलता है
विजातीयानलसंयोगानां वा कल्पने गौरवादित्यपरे । गौरवमेव स्पष्टयति अवयवेषु नानारूप तत्प्रागभाव प्रध्वंसाविकल्पने नीलपीता धनेकरूपाणां नीलपीतादिप्रागभावानां नीलपीतादिप्रागभावध्वंसानां, नीलपीतादिप्रध्वंसानां आदिपदेन नीलपीतादिजनकतावच्छेदकनानाजातिव्यतिरिक्ताया नीलपीताभयजनकतावच्छेदिकाया जाते, पाकनानात्वस्य नीलेतररूपादी नीलादिप्रतिबन्धकत्वरूप चित्रजनकत्वस्य च कल्पने गौरवादित्यर्थः ।
चित्ररूपं रामभन्नमतमाविष्करोति चित्ररूपे समवायेन चित्ररूपं प्रति रूपत्वेनैव हेतुता समवायिसमवेतत्वसम्बन्धावच्छिन्न रूपत्वावच्छिन्नकारणता । एवकारेण नीलेतरादिषट्क- नीलाभावादिषट्क- नील नीलजनकतेज:संयोगान्पतरत्वावच्छिन्नाभावादेर्व्यवच्छेदः कृतः । कारणतावच्छेदकलाघवानुरोधादयमेव कार्यकारणभावी गुतः ।
नन्वेवं सति नीलकपालद्वयारम्भं घटेऽपि समवायेन चित्रमुतायेत स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन रूपस्य तंत्र सत्त्वादित्याशङ्कायामाह नीलमात्रारब्धे नीलेतरशून्य-नीलरूपवदवयवसमवेते ऽवयविनि तु प्रागभावाभावात् विरह, स्वकारण नीलेारादिविरहव्यवच्छेदः कृतः न समवायेन चित्रोत्पत्तिः ।
=
स्व.
=
ननु रूपस्य चित्ररूपाऽसमवायिकारणत्वस्वीकारे रूपसमवायिसमवेतं द्रव्यं वित्रप्रागभावेनाऽवश्यं भवितव्यम्, स्वासमवायिकारणस्य स्वप्रागभावत्र्याप्यत्वनियमात् । व्याप्यतावच्छेदकसम्बन्धः स्वकार्यं प्राककालीनत्व - स्वसमवायिसमवेतत्वोभयसंस|र्गः व्यापकतावच्छेदकसम्बन्धश्च स्वरूपसंसर्गः । एतदनभ्युपगमे तु स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन कपालगन्धवति घटेऽपि गन्धप्रागभावविरहः स्यादित्याशङ्कायां कल्पान्तरमावेदयति अस्तु वेति । समवायेन चित्रं प्रति चित्रेतररूपाभावस्प स्वरूपसम्बन्धन कार्यसहभावेन हेतुतेत्यत्राऽनुषज्यतं । एतेन नीलकपालव्यारब्धे घंटे नीलोत्पादक्षणे चित्ररूपोत्पनिप्रसङ्गः परास्त:, नीलोत्पादक्षणे घंटे चित्रेतररूपाभावस्य चित्रकारणस्य विरहात् । समवायेन चित्रेतरत् रूपं प्रति च स्वरूपसम्बन्धेन चित्राभावस्य कार्यसहभाचेन हेतुता स्वीक्रियते । अनेन नीलपीत कपालद्वपारधे घंटे चित्रोत्पनिक्ष नीलाद्युत्पत्तिप्रसङ्गः प्रतिक्षिप्तः, चित्रात्पादसमये घंटे चित्राभावस्य नीलादिकारणस्य विरहात् । तदेवाह अतः = दर्शितकार्यकारणभावद्वयाभ्युपगमात् नातिप्रसङ्गः = न चित्रोत्पतिक्षणं नीलाद्युत्पत्तिलक्षणां नीलाद्युत्पत्तिक्षणे चित्रोत्पत्तिलक्षणोऽतिप्रसङ्ग इत्यर्थः । यथा तद्भावना सा त्वनुपदमेवीका कार्यसहभावेन दर्शितकार्यकारणभावानुपगमे तु नीलोत्पादक्षणं चित्रोत्पादप्रसङ्गः स्यादवति सहभावेन तथात्वीति: चित्रं प्रति रूपत्वेन' कारणतावादिमते युक्तवति भावः ।
ऋजवस्तु समवायेन चित्रं प्रति स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धन रूपस्य स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन च चित्रेतराभावस्य प्रागभाव एवं प्रध्वंस आदि की कल्पना का गौरव अपरिहार्य होने से यह पक्ष मान्य नहीं किया जा सकता' - ऐसा अपर विद्वानों का वक्तव्य है ।
ॐ चित्ररूप के प्रति रूपत्वेन कारणता
रामभद्र सार्वभौम C
चित्र० इति । रामभद्र सार्वभौम का यह मन्तव्य है कि 'समवाय सम्बन्ध मे चित्र रूप के प्रति स्वसमवायिसमवेतत्व सम्बन्ध से रूपत्वेन रूपसामान्य ही कारण है । ऐसा कार्य कारणभाव मानने पर नीलकपाललय से आरम्भ घट में नील रूप के साथ चित्र रूप की उत्पत्ति की आशंका नहीं की जा सकती, क्योंकि उस घट में चित्र रूप के कारण रूपसामान्य की उपस्थिति होने पर भी चित्र रूप के दूसरे कारण चित्ररूपप्रागभाव का अभाव होने से वह उत्पन्न नहीं हो सकता । अथवा यह भी कहा जा सकता है कि समदाय सम्बन्ध से चित्र रूप के प्रति स्वरूपसंबन्ध से चित्रेतरूपाभाव भी कार्य सहभावेन कारण है और चित्रेतर रूप के प्रति चित्राभाव कार्यसहभावेन कारण है । अतएव नीलकपालद्रयारब्ध घट में चित्रोत्पत्ति की आपत्ति - क्षण में चित्रतर नील रूप विद्यमान होने से चित्रेतररूपाभावस्वरूप चित्र रूपकारण के अभाव से चित्रोत्पत्ति का अतिप्रसंग हो नहीं सकता । इसी तरह नीलपीत कपालद्वयारब्ध घट में नीलोत्पत्ति की आपत्ति - भ्रूण में चित्र रूप विद्यमान होने से
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रानभद्रमतमीमांसा *
सचिवा
अत्र रूपवनीरूपोभयावयवारब्धावयविनि चित्रानुत्पत्तिस्त स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन रूपाभावाभावरूपजन्यरूपत्वावच्छिन्नसामग्यभावादेवेति बोध्यम् ।
-* जयला . * हेतत्त्वं चित्रेतरतानि च स्वाश्रयममवेतत्वसम्बन्धन चित्राभावस्य हेतुल्वम । यत्रकावयवे नील तत्र स्वरूपेण चिनेतरपीताभावग्य विद्यमानत्वात् अपरत्र व पीतं तत्र स्वरूपसम्बन्धन चित्रेतरनीलाभावस्य सन्चात घंटे स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन चित्रेतराभाबस्य सत्चन चित्रोत्पत्निसम्भव इत्येवं रामभद्रसार्वभौममनं व्याचक्षते, तन्मन्दम्, एवं सति नीलकपालद्वपारधेऽपि घटे चित्रोत्यादप्रसङ्गस्य दुरित्वात घट स्वाश्रयसमदतत्वसम्बन्धेन चित्रेतरपाताभावस्य सत्त्वात् । न च चित्रेनरयावद्रपाभावस्य निरुक्तसम्बन्धेन । तहेतुत्वान्नायं दोष इति वाच्यम, गौरवात्, रामभद्रेण तथा नभ्युपगमाच्च । एतेन प्रतिबन्धकनारच्छेदकसम्बन्धगौरवं कार - णतावच्छेदकसम्बन्धगारवश्च प्रदर्शितं इति दिक् ।
नन समवायन चित्र प्रति स्वसमवागिसमवेतत्वसम्बन्धन रूपत्वावच्छिन्नस्य कारणत्वा-गीकारे योश्चयी रूपवता नीरूपण चावयवन समारब्धस्तत्रापि चित्ररूपांत्पादः स्यात चित्रकारणस्य रूपस्य सत्तादित्याशङ्कायामाह अत्र = समवायंन चित्रं प्रति समवायन चित्रंतररूपस्य प्रतिबन्धकत्वं स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन रूपस्य कारणत्वमिति रामभद्मावनौममते, रूपचनीरूपोभयावयवारब्धावयरिनि = रूपविशिष्ट-रूपशून्यो भयावयवाभ्यामारवयविनि चित्रानुत्प श्रयसमवेतत्वसम्बन्धन रूपाभावाभावरूप-जन्यरूपत्वावच्छिन्नसामग्ग्रभावात् = रूपाभावप्रतियोगिकाभावस्वरूपाया जन्यरूप. त्वावछिन्नस्य सामग्या विरहात पवेति बोध्यम् । इदमत्राकूनं समवायेन चित्रं प्रति स्वसमवायिसमवनत्वसम्बन्धेन कारणत्वं समवायन रुपं प्रति च स्वाश्रयसमदतत्वसम्बन्धन रूपाभावस्य प्रतिबन्धकत्वं रूपाभावाभावस्य च कारणत्वम् । रूपवत्रीरूपो भयावयत्रारब्धः वयचिनि म्बाश्रयममवतल्यसम्बन्धेन रूपस्य चित्रकारणस्य सत्त्वेऽपि स्वाश्रयसमवंतत्वसम्बन्धेन रूपनतिबन्धकस्य रूपाभावस्य सत्त्वेन झपकारणस्य रुपाभावाभावस्य विरहान चित्रोत्पादासनः सामान्यसामग्रीसमरहिताया एव | विशेषयामग्याः कामांजकत्वनियमात । न च स्वसमवायिसमवेनत्वसम्बन्धन रूपरया वयचिनि सत्त्वं रूपाभावाभावस्यापि तत्र मिद्धिः अभावप्रतियोगिकामावस्य प्रथमाभावप्रतियोगिस्वरूपत्वादिति वक्तव्यम, रूपाभागभावस्या भावत्वेन प्रतीयमानस्य भावचन झायमानाद्रूपादतिरिक्तत्वाभ्युपगमात् । एतत्सुचनार्थमंत्र रूप प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धन रूपाभावाभावस्य कारणत्वमुक्त अन्यथा स्वसमवायिममवनत्वसम्बन्धस्य रूपकारणाताबच्छेदकविंधयोपादानं कृतं म्यादिति ध्येयम् ।
अत्र समवायेन चित्रं प्रनि स्वसमवायिसमवेनत्वसम्बन्धन रूपत्वावच्छिन्नस्य कारणत्वं चित्रेतररूपाभावस्य च स्वरूपसम्बन्धन कार्यसहभावेन कारणवमिति पूर्वमनत्वान रूपवत्रीरूपोभयाचयवारब्धावयविनि चित्रीत्पादापादकस्यैव विरहः, तदा स्वरूपेण चित्रेतररूपाभारस्यैव विरहान । अतस्तत्र चित्रोत्पत्तिनिराकरणार्थ रूपं प्रनि स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन रूपाभावाभावस्य प्रतिबन्धकाभावविधया कारणाभिधानमननिप्रयोजनं गौरवग्रस्तञ्च । म.पसामान्यसत्त्वं रूपाभावबद्धधनुदयात रूपाभावाभावव्यवहाराच रूपाभावाभावस्य रूपानतिरिनत्ववादिनां प्राचां मतेन सह विरोधश्चात्राधिक इत्यस्माकमाभाति । चित्ररूपाभावस्वरूप चित्रंतररूपकारण के अभाव से चित्रेतररूप = नील आदि रूप की उत्पत्ति का अतिप्रसंग नहीं हो सकता'।
रूप के प्रति रूपाभावाभावत्तेन कारणता - अब रूप. इति । यहाँ यह शंका करना कि -> 'चित्र रूप के प्रति रूपसामान्य को कारण मानने पर नो रूपी और अरूपी दो अवयव से आरय अवयवी में भी चित्र रूप की उत्पनि का अनिष्ट प्रसंग आयेगा, क्योंकि स्वसमवापिसमवेत्तत्व सम्बन्ध से चित्ररूपोत्पादक रूपसामान्य (रूपी अवयव का रूप) उस अचयत्री में रहता है' -ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि उस अवयवी में स्वसमवायिममवेनत्व सम्बन्ध से रूपसामान्य, जो चित्ररूप का जनक है, होने पर भी रूपमामान्य की मामग्री नहीं होने में वहाँ चित्र रूप की उत्पत्ति नहीं हो सकती । रूपसामान्य के प्रति स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से रूपाभागाभाच कारण है। वह अवयवी रूपी और अरूपी अवपवों से आरब्ध होने से स्वाश्रयसमवंतत्वसम्बन्ध से पाभाव का, जो समवाय सम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाले रूप के प्रति प्रतिवन्धक है, आश्रय होने से स्वाश्यसमवेतत्व सम्बन्ध से रूपाभावाभाववाला नहीं है । रूपाभावाभावात्मक रूपसामान्यसामग्री ( = रूपत्वावच्छिन्नसामग्री) स्वाश्रयसमचेतत्त्वसम्बन्ध से न रहने पर रूपविशेष = चित्र रूप की उत्पत्ति का आपादन कम किया जा सकता है। सामान्य कार्य की सामग्री होने पर ही विशेष कार्य की सामग्री में कार्यविशेष (यहाँ वित्र रूप) की उत्पत्ति हो सकती है। यहाँ रूपसामान्यकारणतावञ्छंदक | सम्बन्ध के घटकीभूत स्वपद में रूपाभावाभाव का ग्रहण अभिमत है. यह ज्ञातव्य है ।
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५.६० मध्यमस्याबावरहस्य खण्डः ३ - का. * असमनायिकारणत्वेन हेतुताप्रकाशनम् *
अग्निसंयोगजचित्रे रूपजमकाग्निसंयोगोऽवच्छेदकत्वसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताकनीलजनकाग्निसंयोगाभावादिषदकं स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन रूपाभावश्च हेतुः । रूपनचित्रे नीलादिजनकविजातीयसंयोगाभावानां बहन हेतुताकल्पनापेक्षयाऽग्निसंयोगजचित्रे रूपत्वावच्छिमाभावस्यैकस्य तधात्वे लाघवादित्यपि कश्चित् ।
केचित्तु नीलेतररूपाऽसमवायिकारणत्व-पीतेतररूपाऽसमवायिकारणत्वादिनैव चि प्रति Trenmururammarnarana मयलता *
अग्निसंयोगजचित्रे = पाकमात्रजन्यचित्रत्वावच्छिन्नं प्रति रूपजनकाग्निसंयोगः = विजातीयतेजःसंयोगः हेतरित्यत्रानुपज्यते । समवायेन पाकमात्रजचित्रं प्रति स्वसमवायिसमबेतत्वसम्बन्धेन विजातीयतेजःसंयोगस्य हेतुत्वमित्यर्थः, पाकमात्रज प्रति पाकस्य हेतुत्वौचित्यात्। 'तथापि पीतकपाले नीलजनकतंज:संयोगसत्वदायां नीलपीताभरकपालारब्धघंटे चित्रोत्पादप्रसङ्गस्य दुरित्वमि' त्याशङ्कायां हेत्वन्तरमाह अवच्छेदकत्वसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक-नीलजनकामिसंयोगाभावादिषट्कं हेतुरित्यबाप्यनुषज्यते । अवच्छेदकतासम्बन्धन नीलजनकतंज:संयोगादिषट्कस्प समवायेन पाकजं चित्रं प्रति प्रतिबन्धकत्वात् तदभावष ट्रकस्य प्रतिबन्धकाभावविधया पाकजचित्रकारणत्वम् । तेन पीतकपाले नीलजनकतेज:संयोगसन्चे नाल-पीनोभयकपालारब्धं घटे न चित्रप्रसः . अवच्छेदकतासम्बन्धेन नीलजनकनेज:संयोगसत्त्वेन तादशाभावपटकविरहात । यदा नीलजनकतेज:संयोगादि षटकमबच्छेदकतासम्बन्धन नास्ति तदैव रूपजनकतेज:संयोगेनाऽवयविनि चित्ररूपोत्पादसम्भवः प्रदर्शितकार्यकारणभावबलेनति भावः । पानावयवसपनाशानन्तरमेदाऽनिसंयोगेनाऽवयविनि चित्ररूपारम्भ इति समवायेन पाकनं चित्र प्रति स्वाश्रयसमचे तत्यसम्बन्धन रूपाभावध हेतुः, अवयवरूपस्य अग्निसंयोगजचित्रप्रतिबन्धकल्लादित्यभिप्रायः ।
नन रूप चित्रं प्रत्येव नीलादिजनकतेजःसंयोगाभावानां हेतुत्वं कल्यतामित्याशड़कायामाह ---> रूपजचित्रे = समवायन रूपजचित्रत्वावच्छिन्नं प्रति नीलादिजनकविजातीयसंयोगाभावानां नील-पीत-रक्तादिजनक-विजातीयतेज:संयोगप्रतियोगिकाभावानां, हेतुताकल्पनापेक्षया = कारणत्वम्वीकारापेक्षया, अग्रिसंयोगजचित्रे = समवायन पाकचित्रत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्य, एकस्य तथात्वे = कारणत्वकल्पने, लाघवात् अर्धकृत-शरीरकृतादिलाघवात् इत्यपि चित्ररूपस्थले कश्चित् आहेति गम्यते ।
केवित्त्विति । अस्य आहुरित्यनेनान्वयः । नीलेतररूपासमवायिकारणत्व-पीतेतररूपाऽसमवायिकारणत्वादिनच = नीलंतरस्वरूपचित्रासमवायिकारणत्वेन, पतितरात्मकचित्रासमवायिकारणत्वेन, आदिना रक्तसरादिस्वरूपासमबायिकारणत्वापरिग्रहः । एबकारण नीलतरत्यादिव्यवच्छंदः कृतः । सभवायन चित्रं = चित्रत्वावच्छिन्नं प्रति हेतुता । तत्फलमाचक्षते ---> इति
अग्नि.इति । यहाँ अन्य विद्वानों का यह अभिप्राय है कि चित्र रूप के दो भेट हैं (१) पाकज और (२) रूपन। पाक का मतलब है विजातीय अग्रिमयोग । पाकज चित्र रूप के प्रति तीन कारणविशेष हैं (१) रूपजनक अनिसंयोग, जो स्वसमवायिसमवेत्तत्वसम्बन्ध से पाकज चित्ररूप का कारण है। एवं (२) अबोदकतासम्बन्धावच्छिमप्रतियोगिताक नीलादिजनकविजातीयाग्रिसयागाभानादिपदक भी हेतु है । अवयवी के अमुक अवयव में नीलजनक अप्रिसंयोग न हो, अमुक अवयव में पीनजनक अमिसंयोग न हो, अमुक अवयन में रक्तादिजनक अग्निसंयोग न हो तब अपच्छेदकलामम्रन्याचच्चिनप्रतियोगिताक नीलजनकाभिसंयोगाभावादिषट्क की उपस्थिति रहती है, जो अवयवी में चित्र रूप को उत्पन्न करता है । नीलजनक अनिसंयोगादि के होने पर तो अवयी में नीलादि रूप की ही उत्पनि होती है, न कि चित्र रूए की । अतः नीलजनकानिसंयोगाभारादिषट्क को चित्र रूप का हनु मानना आवश्यक है। (३) एवं अवयवी में स्वाश्रपसमवेतस्यसम्बन्ध में रूपाभाव भी चित्र रूप का कारण है । अवयव में रूप का नाश होने पर ही अवयची में चित्र रूप की उत्पत्ति होती है। इस तरह ये तीन चित्र रूप के कारण हैं। पति रूपजन्य चित्र रूप के प्रति नीलाविजनक अमिसंयोग के अभागे को हंतु माना जाय तर अनेक में चित्ररूपहेतुना की कल्पना का गौरव होता है । इसकी अपेक्षा पाकज चित्ररूप के प्रति रूपसामान्याभार को ही स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से हेतु मानना मुनासिब है, क्योंकि वह एक होने में कारणता में लापन होता है। पाक से अवयवरूपों का नाश होने पर ही अवयवी में पाकज चित्र रूप उत्पन्न हो सकता है. पही मानना संगत है । ऐसा भी किमी विद्वान का वक्तव्य है।
केचि. इति । अमुक विद्वानों का यह कथन है कि → 'समवाय सम्बन्ध से चित्र रूप के प्रति नीलेतररूपासमवायिकारणत्व
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* असमवायिकारणत्वस्याननुगतत्वम् *
हेतुतेति पाकरूपयोर्न पार्थक्येन कारणतेत्याहु: । तच्चिन्त्यं असमवायिकारणत्वस्याउननुगतत्वाद् गुरुत्वाच्च । नीलादिकं प्रति नीलेतररूपादेः प्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्धः स्वाऽरामवायिकारणसमवायिसमवेतत्वमेव । न चेतरत्वस्यापि सम्बन्धमध्ये प्रवेशाप्रवेशाभ्यां विनिगमनाविरहः नीलेतररूपत्वादिना स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन प्रतिबन्धकतावा
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* गगलवा *
हेतो: पाक रूपयो : = विजातीयतेजः संयोगावयवरूपयो: न चित्ररूपविशेषं प्रति पार्थक्येन = स्वातन्त्र्येण कारणता कल्पनीया । समवायेन चित्रं प्रति नीलेतरादेरेव कारणत्वं किन्तु कारणतावच्छेदको न नीलेतरत्वादिः परन्तु चित्राऽसमवायिकारणत्वधर्म एव । कारणतासामान्यस्य कारणस्वरूपत्वात् चित्राऽसमवायिकारणता क्वचित् नीलेतरस्वरूपा क्वचित् पीतंतरात्मिका क्वचिच रक्तेतरादि-स्वरूपा वा । समवेतकार्यमात्रस्य स्वाऽसमवायिकारणजन्यत्वनियमस्य सर्वेरेव स्वीकृतत्वान्न चित्रं प्रति पाकरूपयो: पृथक्कारणत्व - कल्पनमित्यतिलाघत्रमिति केचित्तुमताभिप्रायः ।
=
आहुरित्यनेनाऽस्वरसः प्रदर्शितः । तदेवाह तच्चिन्त्यमिति । चिन्ताबीजाविष्करणाग्राह असमवायिकारणत्वस्य | असमवायिकारणस्वरूपस्य अननुगतत्वात् सकलचित्रास मवायिकारणसङ्ग्राहकानतिप्रसक्तधर्मविरहितत्वात् नीलेतर - पीततरादीनां विजातीयत्वात् । न ह्यननुगतधर्मस्य कारणतावच्छेदकत्वं सम्भवति व्यभिचारप्रसङ्गात् । असमवायिकारणतावेन रूपेण तदनुगतीकृत्य चित्रहेतुतासमर्धनेऽपि असमवायिकारणत्वस्य गुरुत्वाच न चित्रकारणतावच्छेदकत्वं सम्भवति । स्वसमवायिकारणसमवेतत्वे सति समवेतकार्यजनिनियामकत्वे सति समवेतकार्यस्थितिनियामकत्वस्वरूपाया असमवायिकारणताया नीलेतरत्वाद्यपेक्षया गुरुत्वं स्फुटमेव । अत एव न तस्या: चित्रकारणतावच्छेदकत्वं सम्भवति सति लघुसमनियतधर्मे गुरौ नदयोगादिति दिक् ।
यस्य चित्रं प्रति हेतुत्वं तस्यैव नीलादिकं प्रति प्रतिबन्धकत्वम् । तत्र प्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्धमेवादर्शयति नीलादिक समवायेन नोत्याद्यवच्छिन्न प्रति नीलंतररूपादे प्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्धः स्वाऽसमवायिकारणसमवायिसमवेतत्वमेव । स्वपदेन चित्ररूपग्रहणम् । तस्याऽसमवायिकारणीभूतस्य नीलेतरादिरूपस्य समवायिनि अवयव समवेतो योऽवयवी तत्र निरुक्तसम्बन्धेन नीलंतररूपादेः सस्यान्न समवायेन नीलाद्युत्पादप्रसङ्गः ।
ननु तथापीतरत्वं नीलादिनिष्ठप्रतिबध्यतानिरूपित प्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्धशरीरकुक्षी प्रवेशनीयं न बा ? इत्यन्त्राऽविनिंगमान्नैतत्प्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावस्योपादेयत्वं स्यादित्याशङ्कामपाकर्तुमुपक्रमते न चेति । 'यश्वोभयोः समो दोषः परिहारस्तयो: सम' इत्याशयेन प्रतिवन्द्या प्रत्युत्तरयति नीलेतररूपत्वादिनेति । नीलादिकं प्रति नीलेतरादेः त्वया नीलेतररूपत्वादिना प्रतिबन्धकत्वमुपेयते मया तु स्वाऽसमवायिकारणत्वेनेत्येवं विशेषेऽपि नीलादिप्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्धशरीरे पीतेतररूपासमवायिकारणत्व आदि रूप में ही हेतुता है । कपाल में नीलेतररूप का असमवायिकारण, पीनेतररूप का असमवायिकारण होने पर घट में चित्ररूप उत्पन्न होता है । इस कार्य कारणभाव का स्वीकार करने का लाभ यह है कि चित्र रूप के प्रति पाक और अवयवरूप में स्वतन्त्र कारणता की गुरुतर कल्पना करनी अनावश्यक होती है।' ← मगर विचार करने पर पह वक्तव्य असंगत प्रतीत होता है, क्योंकि चित्र रूप की कारणतावच्छेदकीभूत असमवायिकारणता असमवायिकारणस्वरूप होने से अननुगत है । समवायिकारणवृत्तित्वे सति समवेतकार्यजनकत्वं सति समवेतकार्यस्थितिनियामकत्वस्वरूप असमवायिकारणता गुरुतरवारीवाली है- यह तो स्पष्ट ही है । जो धर्म अननुगत (= अनेकत्र अवृत्ति) और गुरु हो वह कारणतावच्छेदक नहीं हो सकता है। अतः निरुक्त नीलेतरस्वरूपासमवायिकारणता, पीतेतरस्वरूपासमवायिकारणता आदि को चित्र रूप का कारणता - बच्छेदक नहीं माना जा सकता यह फलित होता है। यहाँ इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि समवाय सम्बन्ध से नीलादि रूप के प्रति नीलेतररूपादि प्रतिबन्धक होने से नीलेतर पीतेतरादि रूप से चित्र रूप की उत्पत्ति होने पर नीलादि रूप की उत्पत्ति का प्रसंग नहीं हो सकता । नीलादिरूपनिष्ठ प्रतिबध्यता से निरूपित नीलेतररूपादिनिष्ठ प्रतिबन्धकता का अवच्छेदकसम्बन्ध * स्वाऽसमवायिकारणसमवायिसमवेतत्व | स्वपद से चित्र रूप का ग्रहण करना अभिमत है। उसके असमवायिकारणीभूत नीलंतर आदि रूप चित्ररूप के समवायी कपालादि अवयव में अवयत्री घटादि समवेत होने से घट में नीलादि रूप उत्पन्न नहीं हो सकता । यहाँ यह शंका हो कि 'नीलादिप्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्धशरीर में इतरत्व का प्रवेश करना या नहीं ? इस विपय में कोई विनिगमक नहीं है। मतलब कि नीलेतरादि को स्वासमवायिकारणसमवायिसमवेतत्व सम्बन्ध से नीलादि का
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५६२ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्ड ३ का ५ * जन्यरूपकारणतानिमर्गः *
दिनोऽपि तुल्यत्वात् । जन्यरूपत्वावच्छिन्नं प्रति च रूपत्वेनैवाऽसमवायिकारणत्वं न तु नीलादी नीलादेः, प्रयोजनाभावात् । न च प्राकृपक्षोक्तदोषानतिवृत्तिः, सम्बन्धाननुगमस्या - दोषत्वात्, सम्बन्धनानात्वेऽपि तावत्सम्बन्धपर्याप्त प्रतियोगितावच्छेदकताकात्यन्ताभावघटि* जयलता है इतरत्वप्रवेशाप्रवेशविनिगमनाविरहस्त्वावयो: समान एवेति यः परिहारस्तत्र त्वया दर्शयिष्यते स एव मयापीत्यत्र मौनमेवावयोः श्रेयस्करमिति भावः ।
रूपत्वस्य कार्याकार्यसाधारणतया कार्यतावच्छेदकत्वायोगादाह-जन्यरूपत्वावच्छिन्नं प्रतीति । सामानाधिकरण्येन जन्यत्व विशिष्टरूपत्वस्योपाधितया गुरुत्वेन न कार्यतावच्छेदकत्वं सम्भवतीति प्रागुक्तदिशा जन्यरूपमानवृत्तिवैजात्यावच्छित्रं प्रतीत्यर्थः कार्यः । रूपत्वेनैवेति । एवकारेण नीलत्वादेर्व्यवच्छेदः कृतः । समवायेन जन्यरूपमात्रवृत्तिजातिविशेषावच्छिन्नं प्रति स्वरामवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन रूपत्वावच्छिन्नस्याऽसमवायिकारणत्वमित्यर्थः । कण्ठत एवकारफलमाह् न तु नीलादी समवायेन नीलत्वाद्यवच्छिन्नं प्रति, स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धन नीलादेः असमवायिकारणत्वमित्यत्रापि घण्टालोलान्यायेनानुषज्यते । अत्र हेतुमाह प्रयोजनाभावादिति । नीलादी नीलंतररुगादेः प्रतिबन्धकतयैवोपपत्ती नीलादिकं प्रति नीलादेरसमवायिकारणत्वकल्पने प्रयोजनविरहादित्यर्थः ।
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नन्वेवं सत्यवच्छेदकतासम्बन्धेन नीलादी समवायेन नीलेतरादेः प्रतिबन्धकल्ये समवायेन नीलादी च स्वसमवायिसम वेतत्वसम्बन्धेन नीलेतरादेः प्रतिबन्धकत्वमित्येवं प्रतिबन्धकतावच्छेदकादिसम्बन्धभेदे कारणतावच्छेदकसम्बन्धेऽप्यननुगमप्रसङ्ग इत्याशङ्कां निराकर्तुमाह् न च प्राकृपक्षांतदोषानतिवृत्तिरिति । यथा प्राकृ प्रतिवन्धकतावच्छेदकसम्बन्धशरीरे इतरत्वप्रवेशा प्रवेशाविनिगमे उभयग्रहणप्राप्ती प्रतिबन्धका भावनिष्ठकारणतावच्छेदकसम्बन्धाननुगमदोषप्रसङ्गः तथा प्रकृते नानाप्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्धप्राप्त प्रतिबन्धका भावनिष्ठकारणतावच्छेदकसम्बन्धाननुगमप्रसक्तिरित्याशयः शङ्ककाकर्तुः । तत्र समाधने
सम्बन्धानानुगमस्य = कारणतावच्छेदकादिसंसर्गनानात्वस्य अदोपत्वात् कारणतावच्छेदकधर्मादिकुक्षी तदप्रवेशात् । 'सम्बन्धाननुगत कथं कारणवाद्यभेदः ?' इत्याशङ्कामपाकर्तुमाह-सम्बन्धनानात्वेऽपि तावत्सम्बन्धपर्याप्तप्रतियागितावच्छेइकताकात्यन्ताभावघटितायाः = स्वाश्रयत्व - स्वाश्रयसमवेतत्वादिसम्बन्धपयांप्तायाः प्रतियोगितावच्छेदकताया निरूपकेणाप्रतिबन्धक मानना या स्वसमवायिसमवेतत्व सम्बन्ध से १ इस विषय में कोई निर्णायक युक्ति नहीं है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि समवाय सम्बन्ध से नीलादि के प्रति नीलेतरादि को नीलेतरत्वादिरूप से स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से प्रतिबन्धक माननेवाले बादी के मत में भी यह दोष समान ही हैं, क्योंकि 'नीलेतरादि रूप स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से नीलादि का प्रतिबन्धक है। या स्वासमवायिकारणसमवायिसमवेतत्व सम्बन्ध से ? इस समस्या का कोई प्रत्युत्तर इस मत में भी नहीं है ।
[D] जन्यरूप के प्रति रूपसामान्य कारण [[]
जन्य इति । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि समवाय सम्बन्ध से जन्यरूपत्वावच्छिन के प्रति स्वसमवायिसमवेतत्व सम्बन्ध से रूप ही असमवायिकारण है । जब अवयव में रूप होगा तब स्वसामग्री से अवयवी में रूप उत्पन्न होगा । इस सामान्य कार्य कारणभाव से ही निर्वाह हो जाने से समवाय सम्बन्ध से नीलादि के प्रति स्वसमवायिसमवेतत्व सम्बन्ध से नीलादि को अग्रमवायिकारण मानने का कोई प्रयोजन नहीं होने की वजह तादृश अनेक कार्य कारणभाव के स्वीकार की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि नीलादि के प्रति नीलेतरादि रूप को प्रतिबन्धक मानने से ही नीलेतराभावादिस्वरूप प्रतिबन्धकाभावात्मक कारण से नीलादि रूप की उत्पत्ति हो सकती है । अतएव नीलादि के प्रति नीलादि को स्वतंत्रता कारण मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। यहाँ यह शंका हो कि 'नीलादि के प्रति नीलादि को कारण न मान कर नीलेतरादि रूप को प्रतिबन्धक मानने पर समवाय सम्बन्ध से नीलादि के प्रति स्वसमवायिसमवेतत्व सम्बन्ध से नीलेतरादि को प्रतिबन्धक मानना होगा और अवच्छेदकतासम्बन्ध से नीलादि के प्रति समवाय सम्बन्ध मे नीलेतरादि को प्रतिबन्धक मानना होगा, अन्यथा नीलपीतकपालद्वयान्य घट में उत्पन्न होनेवाले नील रूप की नील कपाल में अवच्छेदकतासम्बन्ध से उत्पत्ति न हो सकेगी, क्योंकि अवच्छेदकतासम्बन्ध से नील रूप का तब कोई कारण न होगा। मगर ऐसा स्वीकार करने में प्रतिबन्धकाभावनिष्ठ कारणता का अवच्छेदक सम्बन्ध स्वाश्रयत्व और स्वाश्रयसमवेतत्व होने से कारणतावच्छेदक सम्बन्ध में अननुगम दोष आयेगा । जैसे पहले प्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्धशरीर में इतरत्व के प्रवेश - अप्रवेश से प्रयुक्त विनिगमनाविरह से दोनों का स्वीकार करने पर प्राप्त प्रतिबन्धकाभावनिष्ठ कारणता के अवच्छेदक सम्बन्ध में अननुगम दोष आता था' <- तो यह अनुचित है,
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* सम्बन्धाननुगमम्याग्दीपतारीजाविकार: * | तायाः तावत्सम्बन्धपर्याप्त प्रतियोगितावच्छेदकतावच्छेदकताकान्योन्याभावघटिताया वा | व्याप्तेरसोदेल काराणताया अदात् ।
- जयलता त्यन्ताभावेन गर्भितायाः, व्याप्तः इदं विशेषगम् । लाघवानरोधात कल्पान्तरमाह-जावत्सम्बन्धपर्याप्त प्रतियोगितावच्छेदकताबचोदकताकान्योन्याभावघटितायाः = निरुक्तसम्बन्धपर्याप्साया: प्रतियोगितावादकतावच्छेदकताया निरूपकेगाइन्पान्थाभावन घटितायाः, व्याप्तेः अभेदन = मंदविरहेण, कारणताया अभेदात् । अयं भावः कार्यतावच्छेदकसम्बन्धेन स्वाव्यवहितपूर्वक्षणाबच्छेदन यत्र कार्य तत्र कारणतावच्छेदकसम्बन्धन बावत्कारणतावच्छेदकावच्छिन्नसत्त्वमिति कार्य कारणाभावववृत्यभारप्रतियोगित्वाभावरूपा कारणबदन्पवृत्त्यभावप्रतियोगित्वाभावस्वरूपा वा व्याप्तिः वर्तते । नत्र कारणात्यन्ताभावश्च यावत्कारणता| बच्छेदकसम्बन्धेषु पर्याप्ता या कारणनिष्ठानियागिताया अबच्छंदकता ननिरूपको ग्राह्यः । द्वितीयव्याप्तिघटकः कारणवत्ततियोगिकभेदश्च सकलकारणतावच्छेदकसम्बन्धेषु 'पर्याप्ता या कारणवन्निष्ठभेदीयप्रतियोगिताया अबछेदकीभूनकारणनिष्ठावच्छेदकत्वस्पावच्छेदकता ननिरूपको बोध्यः । यावन्तः कारणतावच्छेदकसम्बन्धाः तावत्सम्बन्धपर्याप्तायाः प्रतियोगितावचंदकतायाः प्रतियोगितावच्छेदकताबच्छेदकताया वा अभिन्नत्वेन तटिना न्याप्तिरपि न मिद्यत । तदभेदत्र कार्याव्यवहितपाकक्षणावच्छेदन | कार्यतावच्छेदकसम्बन्धेन कार्याधिकरणवृत्त्यत्यन्ताभावनिरूगितप्रतियोगिल्वाभावस्वरूपा व्याप्तिनिरूपिका व्यापकतात्मिका कारणताऽपि नब बिभिद्यते इति विभावनीयम् ।
यदि च कारणतावच्छेदकसम्बन्धाननुगतौ कारणताया अवश्यं भेदस्तहि, चाक्षुषसामान्य प्रति चक्षष्टवन कारणत्वाभिधानमपि कधं सगळेत ? न हि चक्षुरेकमेव प्रत्यासत्त्या स्वविषयदेशे चाक्षुषं जनयति । विषयतासम्बन्धन द्रव्यचाक्षुयं प्रति चक्षुपः स्वसंयोगसम्बन्धेन कारणत्वान, रूपादिचाक्षुषं प्रति स्वसंयुक्तसमवायन, रूपत्वादिचाक्षुष प्रति स्वसंयुक्तसमवेत - समवायन, द्रव्यवृन्यभावचाक्षुषं प्रति स्वसंयुक्तविशेषणतया, रूपादिवृत्त्यभावचाक्षुषं प्रति स्वसंयुकसमवेतविशेषणतया, रूपत्यादिवृन्यभावानुषं प्रनि च स्वसंयुक्तसमवेतसमवेतविशेषणतया । कारणतावच्छेदकप्रत्यारानिभेदेऽपि निरुक्तरीत्या कारण
स्योंकि सम्बन्धाननुगम वास्तव में दोप ही नहीं है। कारणतावदक धर्म आदि में ही अननुगम होपस्वरूप है, न कि कारणताबच्छेदकादि सम्बन्ध में अननुगम। कारणतावच्छेदक आदि धर्म में अननुगम होने पर कारणना भी अननुगन = विभिन्न हो जाने से कारणतावच्छेदक धर्म में अननुगम दोधात्मक माना गया है। कारणनाअवच्छेदक सम्बन्ध में अननुगम होने पर कारणता अननुगत = भिन्न होती नहीं है। अतएव वह दोपस्वरूप नहीं है। कारणतावच्छंदकसम्बन्ध में अननुगम होने पर भी कारणता अननुगत नहीं बनने का कारण क्या है ? इस समस्या का समाधान सुनिये, कार्यतावनडेदकसम्बन्ध से स्वाव्यवहितपूर्वक्षणावच्छेदन कार्य जहाँ रहता है वहाँ कारणतावच्छेदकसम्बन्ध से यावत् कारण रहने हैं । अतः कार्य याप्य है और कारण व्यापक है। कार्य में जो कारण या कारणता से निरूपित व्याप्ति रहती है वह द्विविध है (१) कारणाभावववृत्त्यत्यन्ताभावप्रतियोगिताऽभावात्मक एच (२) कारणवदन्यवृत्त्यत्यन्ताभाषप्रतियोगित्वाभावस्वरूप । कारणतावच्छेदकसम्बन्ध से कारण जहाँ रहने नहीं हैं वहाँ कार्यतावटक सम्बन्ध से कार्य नहीं रहने से वहाँ रहनेवाले अन्यन्ताभाव का प्रतियोगी कार्य बनना नहीं है। अतएव तादृशप्रतियोगिलाभावस्वरूप न्याप्ति कार्य में रहेगी । एवं कारणतावच्छेदकसम्बन्ध में कारणविशिए से भिन्त्र में रहनेवाले अत्यन्ताभाव की प्रतियोगिता कार्य में रहनी नहीं है । प्रथम त्र्यालि के घटक कारणात्यन्ताभाव की प्रतियां गिला की अबञ्छंदकना ( = अवच्छेदकसंमर्गना) याक्कारणतावदकसम्बन्ध में पर्याप्त ( = पर्याप्तिसम्बन्ध से रहनेवाली) हो वहीं अभिमत है, जो कारणतावच्छेदकसम्बन्ध अनेक | होने पर भी एक ही है, जैसे घट और पर अलग होने पर भी उनमें पर्याप्त द्वित्व संख्या अभिन्न ही है । कारणाभावीयप्रतियो| गिता अवच्छेदकता अभिन होने से उससे घटित व्याप्ति भी भिन्न होती नहीं है । एवं दूसरी व्याप्ति के घटक कारणवदन्योन्याभाच ( कारणवदन्यत्व) के प्रतियोगी कारणविशिष्ट में रहनेवाली भेदप्रतियोगिता के अवन्टेदक = कारण में रहनेवाली भेटप्रतियोगितावच्छेदकता के अवच्छंदक सम्बन्ध में रहनेवाली भेप्रतियोगितावच्छेदकनावदकता भी यावत्कारणतावनोदकसम्बन्ध में पर्याप्त हो वही अभिप्रेत है । वह एक होने में उससे घटित उपयुक द्वितीय व्याप्ति भी भिन्न होती नहीं है। इस तरह कारणवावच्छेदक सम्बन्ध में अननुगम होने पर भी द्विविध व्याप्ति विभिन्न होती नहीं है । व्याप्ति अभिन्न होने में व्याप्तिनिरूपित कारणना भी बदलती नहीं है । अतएव कारणतावच्छेदकसम्बन्ध में अननगम टोपात्मक नहीं है।
& edurછે, સતવધ મેં ઝlgી વિલ ફક अत एव. इति । उपर्युक्त रीति से कारणतावच्छेदकसम्बन्ध में अननुगम कारणताभेदक म होने से ही संयोग आदि
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५.६४ मध्यमस्यावादरहस्य खण्डः ३ . का.९ *नीलतर - नीलतमजन्यचित्ररूपममर्थनम *
अत एवाननुगताभिरपि संयोगादिप्रत्यासत्तिभिः चाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति चक्षुष्दवेन कारणतोक्तिः प्राचां सङ्गच्छते । इत्था नानारूपवदवयवारब्धे नीलादिबाधाच्चिप्ररूपसिन्दिर्निराबाधा । वित्रं प्रत्यपि प्रागुक्तदिशा नीलेतरपीतेतरत्वादिनैव हेतुता । नीलेतरत्व नीलतरतरत्वादिकं बोध्या, तेन नीलतर-नीलतमाभ्यामारब्धेऽपि तदुत्पत्तिनिरयायेत्यादिकं न्यायवादा प्रपचितमस्माभिः ।
* जयलता ताया अभेदः स्वीक्रियत तदेवेदं सुष्ठ सङ्गगच्छेतेत्याशयेनाह . अत एव = सम्बन्धनानात्वेऽपि तावत्सम्बन्धपर्याप्तनिरुक्तावच्छन्दकन्वाऽभेदप्रयुक्तव्याप्त्यभेदप्रयुक्तकारणत्वाभेदाङ्गीकारादेव, अननुगताभिः = साधारणाननिप्रसक्तधर्मशून्याभिः अपि संयोगादिप्रत्यासत्तिभिः विषयतासम्बन्धेन चाक्षुपत्वावच्छिन्नं प्रति चक्षुषः चक्षुष्ट्वेन कारणतोक्तिः प्राचां नैयायिकानां सुष्ठ सङ्गच्छते ।
इत्यञ्च = नीलादी नीलेतररूपादिनानिबन्धकतयैवोपपत्तौ तत्र नीलादिहेतुतायां मानाभावेन च, नानारूपबदचयवारन्धे अवयविनि नीलादिवाधान चित्ररूपमिद्धिः निरावाश = रूपत्वावन्छिन्त्रसामग्याः सन्चात् नीलादिषट्कसामग्रीवाधाच चित्ररूपसिद्धरव प्रामाणिकत्वम, व्याग्यवृत्तेरवछंदकाल्योगात, नीलेतरादौ नीलादेः प्रतिबन्धकत्वे विनिगमनाविरहाचाऽवच्छेदकतया नीलादिकं प्रति समवायन नीलेतरादेः प्रतिबन्धकत्वापेक्षया समवायेन नीलादिकं प्रति स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धन नीलेतररूपादेः प्रतिबन्धकत्वकल्पनाया एच न्याय्यत्वात् । न चैवं रूपत्वावच्छिमसामन्या चित्ररूपोत्पादे स्वीक्रियमाणे चित्रत्वं तत्राऽऽकस्मिकं स्यात, ततश्च नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा प्रसज्येतति शकनीयम, नीलेतर-पीनेतरादेः तदेतत्वाभ्युपगमादित्याशयेनाह -> चित्रं प्रति = समवायेन चित्रत्वावन्छिनं प्रति अपि प्रागुक्तदिशा स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन नीलेतर-पीतेतरवादिनैव हेत्ता, न तु रूपवादिना । अतो न नानारूपवदवयवारब्धेश्वयविनि चित्रत्वस्याकस्मिकत्वप्रसङ्ग इति भावः ।
नन्वेवं सति नीलतर-नीलतमावयवाभ्यामारब्धेश्वयविनि सभवायन चित्ररूपं न स्यात, नदवश्वयोः नीलेतरादेः पीतादिरूपस्य चिरहेगाश्वयविनि स्वसमवायिसमवेतत्त्वसम्बन्धेन नालंतर-पीतेतरादिरूपविरहादित्याशङ्गकामामाह- नीलेतरत्वञ्च नीलतरतरत्वादिकं योध्यमिति। न तु पीतत्वादिस्वरूपमिति गम्यम् । तत्फलमाह -> नेन = नौलतरतरत्वादिस्वरूपनीलेतरत्वादिस्वीकारण, नीलतर-नीलतमाभ्यां अवयवाभ्यां आरब्धे अवयविनि अपि किं पुनः नीलपीतारब्ध इत्यपिशब्दार्थः, तदुत्पत्तिः = समवायेन चित्ररूपजानिः, निरपाया अवयविनि स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धन नीलतर-नीलतमरूपस्वरूपनीलेतरादिषट्कसत्त्वात् । न्यायवादार्थ इति । साम्प्रतं नायं ग्रन्थ उपलभ्यत इति चविद्यतेऽस्मन्मनः ।
सम्बन्ध अननुगत होने पर भी यावत् चाक्षुष प्रत्यक्ष के प्रनि चक्षुट्वेन चक्षु की कारणता का प्रतिपादन करनेवाला प्राचीननैयायिकवचन भी संगत हो सकता है । आशय यह है कि विपयता सम्बन्ध से द्रव्यचाक्षुप के प्रति चक्षु संयोगसम्बन्ध से कारण है। रूपादिचाक्षुप के प्रति स्वसंयुक्तसमवायसम्बन्ध से एवं रूपत्वादिचाक्षुप के प्रति स्वमंयुक्तसमवेतसमवाय आदि सम्बन्ध से कारण है। स्वसंयोग, स्वसंयुक्तसमवाय आदि सम्बन्ध अननुगत होने पर भी चाक्षुपकारणतावच्छेदकसम्बन्धविधया तभी मान्य हो सकते है, यदि प्रदर्शित रीति से कारणतावच्छेदकसम्बन्ध अननुगत होने पर भी कारणता का भेद न माना जाय । अब हम प्रस्तुत विषय की ओर चलते हैं । प्रदर्शित पद्धति से अवयविरूणसामान्य के प्रति अवयवरूप को असमवायिकारण मानने से एवं नीलादि के प्रति नीलेतरादि रूप को प्रतिबन्धक मानने से अनेकरूपवाले अवयवों से आरब्ध अवयत्री में नीलादि रूप की उत्पनि नहीं हो सकेगी, क्योंकि समवाय सम्बन्ध से नीलादि के अधिकरणविषया अभिमत अवयवी में स्वसमायिसमवेतत्वसम्बन्ध से नीलतगदि रूप रहते हैं। निरुत प्रतिवध्य-प्रतिबन्धकमान की वजह अनेकरूपवाले अवयवों में समन अवयवी में नीलादि रूप बाधित होने में गवं रूपत्वावच्छिन्न की सामग्री विद्यमान होने से वहाँ समवाय से चित्र रूप की सिद्धि निरापाय होगी। हौं, चित्र रूप की उत्पत्ति रूपत्वावच्छिन्न की सामग्री से नहीं होती है, किन्तु पूर्वदर्शित रीते से नीलेतर, पीतेनर आदि रूप में ही होती है। समवाप से चित्र रूप के प्रति स्वसमवायिसमक्तत्वसम्बन्ध से नीलसर - पीनंतरचाटिरूप से असमवाधिकारणता विवक्षित है। यहाँ कारणतावच्छेदकधर्मघटकीभूत नीलतरत्व नीलतरतरत्वादिस्वरूप अभिमत है, न कि पीतत्वादिस्वरूप । इसका लाभ यह होगा कि एक अक्यर में नीलनर रूप एवं अन्य अवयव में नीलतम रूप होने पर भी अत्रपत्री में समवाय सम्बन्ध से चित्र रूप की सिद्धि निगवाध होगी, क्योंकि नीलनर से अन्य नीलतम एवं नीलतम से इतर नीलतर रूप अवयवी में स्वसमवायिसमवेतत्व सम्बन्ध से रहते है। पदि नीदेनररूपपद से पीतादि रूप ही लिया जाय तब नीलतर - नीलतमरूपवाले
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* स्वविजातीयन्त -लसंवलितत्वपदानिशदीकरणम विजातीयांच प्रति रूपविशिष्टरूपत्वेनैव हेतुत्वम् । वैशिष्ट्यच स्वविजातीयत्वस्वसंवलितत्वोभयसम्बन्धेन, स्वजात्य चित्रत्वातिरिक्तं यत् स्ववृत्ति तदिमधर्मसमवाशित्वम् । स्वसंवलितत्व स्वसमवारिसमवेतद्रव्यसमवाथिवृतित्वम् । विजातीयचित्र प्रति च --* रालता
- चित्ररूप द्विविध रूपमात्रजं झपमात्रजातिरिक्तञ्च । ने चित्रल्वच्याप्यज्ञात्पवछिन्ने परस्परं विजातीयं च । तत्र प्रथमन्दिश्याहः → विजातीयचित्रं = समवायेन रूपमात्रजन्यचित्ररूपमात्रवृत्तिवैज्ञान्यावच्छिन्नं प्रति रूपविशिष्टरूपत्वेनैव | हेतुत्वम् । नीलजार नेतरतामिकमेकांना स । निजाताचित्रकारणनायच्छेदकवटकीभूतं वैशिष्ट्यं कन सम्बन्धन ग्राह्य ? इत्या भड़कायामाहः -> वैशिष्ट्या स्वविजातीयत्व-स्वमंवलितत्वांभयसम्बन्धेन उपादयम् । एतत्सम्बन्धगंब राष्ट्रपति स्ववजात्यश्च चित्रवानिग्निं यत् स्वनि ननिधर्मसमवायित्वमिति । यथा मालपीतकपालद्वयारब्धवटग्थलं स्वपदन नाम पग्रहण चित्रभिन्नं यन नीदम्पति नीन्दन -मृपत्व-गुणन्वादिकं तदिन्नरय पीतत्वधर्मस्य समवायनाश्रयतायाः कपालपातसगे सच्चन निझनास्वविजानीयत्वमाबन्धन नालापविशिष्ट पातम्पं भवति । स्वसंवलितत्वं च = प्रकृतं नालम्पसबस्तित्वं हि नीता पनिष्ठं स्वसमबायिसमवेतद्रव्यसमवायित्तित्वमिति । स्वपदेना-त्र कपालनालरू.पग्रहणं, तत्ममचायिनि नीलकपाले समवेतं यन घटद्रव्यं तस्य समवयेनाश्रयी भूने परतकपाले वृनि = समवन पीतमपमिनि स्वसमवायिसमवेतद्रव्यममवायिवृनित्यसम्बन्धनापि नालरूपविशिष्टं पीतरूपं भवति : यदि च द्वितीयसम्बन्धकुक्षी द्रव्यपदनिवेशो न स्यात् नहि स्वसमवायिसमवविधया नीलकणवृत्तिकयालय-अध्यन नीलरूपादपि ग्रहण : सज्यतति नदमोहाय द्रव्यादनिवाः । द्वितीयसम्बन्धानुपादाने तु नाल. कपालद्धयारब्धवटेपि समवायन चित्रान्पत्तिः प्रसज्येत. स्वविजातीयत्वसम्बन्धन पानमपविशिष्टनालरूपस्य स्वसमवायिसम. वनत्वसम्बन्धेन तत्र सन्चान् । कवलं स्वयंचलितत्वसम्बन्धन पबिशिष्टरूपवन तधावपि स एव दोपः, म्यम्मवायिममतद्रव्यसमवायिनिविलक्षण-स्वसंचलितत्वसम्बन्धन नालम्पविशिष्टनालरूपस्य स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धन नीलकपालद्वयारन्धे घटे सत्चात् । अतः प्रकृते उभयसम्बन्धन वैशिष्टयोपादानम् । निरुक्तबचनात्य-स्वसंवलितल्योभयसम्बन्धन पविशिष्टरूपं स्वसमवापिसमवतन्वसम्बन्धन पत्र नत्र समजायन म्पमात्रज विजातीयं चित्ररूपमुत्पद्यत इति कार्यकारणभावः । न च प्रकृत स्वत्वाननुगमय दोषत्वम, सम्बन्धमध्ये नत्प्रवेशात् । सम्बन्धकुक्षिप्रविष्टानां केवलं परिचायकत्वं न तु विशेषणत्वमिति सम्बन्धाननुगमम्यादीपत्वमित्यत्राभिप्रायः । द्वितीयचित्रमपम दिल्याह --> विजातीयचित्रं प्रति च = रूपमात्रजाःतिरिक्तचित्रमात्रवृनि
अवयवों से आग्ध अवयवी में चित्र रूप की उत्पत्ति कथमपि संगत हो सकती नहीं है। इस विषय का अधिक विस्तार से निरूपण न्यायवादार्थ ग्रन्थ में प्रकरणकार ने किया है। अतः उस ग्रन्थ को देखने की सूचना अधिक जिज्ञासु को मिलती है । मगर वेद की बात यह है कि वर्तमानकाल में पह ग्रन्धरत्न उपलब्ध होता नहीं है ।
* विजातीय चित्ररूप को गणता का विचार विभाइति । यहाँ अमुक विद्वानों का यह मन्तव्य है कि 'चित्र रूप के दो प्रकार है-रूपज चित्ररूप और पाकन चित्ररूप, जो परस्पर विजातीय हैं। प्रथम चित्र रूप अधांत रूपमात्रजन्य विनानीय चित्र रूप के प्रति स्वविजातीयत्व-स्वसंवलितत्व उभय सम्बन्ध रूपनिगिएकप कारण है। इन सम्बन्धों में स्वविजातीयत्वपद का अर्थ है चित्रवभिन्न स्वनि धर्मों में भिन्न धर्म का समवाय सम्बन्ध से भाश्रयत्व और स्वसंबसिनत्यपद का अर्थ है समवाय सम्बन्ध से स्त्र के आश्रय में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाले द्रव्य का जो समवाय सम्बन्ध में आश्रय, उसम वृत्तित । जैसे किसी पद की उत्पनि नील और पीत कपाल से होनी है नव उम घट में विजानाय चित्र रूप की, जो रूपमात्रजन्य है, उत्पनि होती है। क्योंकि कपालगन नील रूप अन्यकपालगन पीत म्प में विशिष्ट बनता है। वह इस तरह स्वापद से ग्राह्य कपालगन नील रूप, उसमें वृनि चित्रवभिन्न धर्म नीलत्व, रूपन्य आदि । उनसे भिन्न धर्म है पीतच, जिमका समाय में आश्रय है अन्यकपालगत पीत रूप । अतः स्वस्निातीयत्वसम्बन्ध में नीलरूपविशिष्ट पंग रूप बनता है । इस तरह दूसरे सम्बन्ध के घटकीभून स्वपद से प्रतिपाय है कपालगत नाल कप, जिसका ममवापसम्बन्ध में आश्रय नाल कपाल है। उसमें समवाय सम्बन्ध से घट द्रव्य रहना है, जिसका ममचाय सम्बन्ध में आश्रय है पीत कपाल । उस पीत कपाल में नि है पीत रूप । अनः स्वसमचाथिसमवेतद्रव्यसमवापिवृत्तित्वसम्बन्ध में नीलमपविशिष्ट पात रूप हो सकता है । इस तरह उपयुक्त दोनों सम्बन्धों से रूपरिशिष्टरूप, जो कि समवाय से उत्पन
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.६६ मध्यमस्याद्वादरहस्य स्वण्डः ३ . का.५ *मतबपगौरवकथनम् - विजातीयतेजःसंयोगत्वेत हेतुतेत्यासाहुः ।
चित्रत्वावच्छिन्नं प्रत्येव स्वविजातीयत्व-स्वसंवलितत्वोभयसम्बन्धेन रूयाऽसमवायिकारणविशिष्टरूपाऽसमवायिकारणत्वेन हेतुता । रूपासमवायिकारणत्वा जनकताविशेषसम्बन्धेन रूपवत्वमेवेत्यरोके । मतदयमिदं स्फुरगौरवतास्तम् । . .. .
---* आयलता - वजात्यापकिन्न हि विजातीयतेजःमयोगत्वेन हेतुतेनि । समवायेन रूपमाघजातिरिक्तचित्रं प्रति समवायन विजातीयतेजःसंयोगस्य कारणत्यमित्यर्थः । आहरित्यनेना स्परसः प्रदर्शितः । तद्रीजच चक्ष्यते ।।
प्रकृने केषामभिप्रायमाह - चित्रत्वावच्छिनं प्रत्येति । एवकारेण विजातीयचित्रलाबन्चित्रं प्रतीत्यस्य व्यवच्छेदः कृनः । स्वविजातीयत्व-स्वसंवलितत्वोभयसम्बन्धन निम्नस्वरूपण रूपविशिष्टक एस्य रूपाऽसमवायिकारणविशिष्टरूपासमवायिकारणत्वेन इंतता । असमवायिकारणत्वस्थ समवायिकारणनि सति समवेतकार्यजनिनियामकत्वं सति समवेतकार्यस्थितिनिधामकत्वरूपतया नदघटितकारणतावच्छेदकरवीकारे महागौरत्रमित्याशङ्गकामपाकर्तुमाह रूपाऽसमवापिकारणत्वञ्च जनकताविशेषसम्बन्धन - स्वासमनायिकारणतासम्बन्धन रूपवत्त्वमेव - अवयविरूपवत्त्वमेव ।
तपयित्तमपक्रमते --> मनद्वयमिदं सकटगीरवग्रस्तमिति । मतदयेऽपि निरुतोभयसम्बन्धन रूपविशिष्टरूपस्य बगमवायिसमवतत्वसम्बन्धन तत्कारणत्वस्य तुल्यल्वपि प्रथममते रूपविशिष्टरूपत्वस्य कारणनावच्छेदकधर्मत्वं द्वितीयकल्पे च होनेवाले विजातीय चित्ररूप का कारण है, स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्ध से उस घट में रहता है। अतः उस घट में रूपमात्रजन्य चित्र रूप की समवाय सम्बन्ध से उत्पनि निरागाध है । दूसरे विजातीय चित्र रूप का, जो केवल पाकज है, कारण विनातीयतेजःसंयोग है। विजातीय भनिसंयोग अवयवी में रहने पर वहाँ विजातीय (पाकज) चित्र रूप की ममवाय सम्बन्ध से उत्पनि होती है । इस नरह चित्ररूपस्थल में द्विविध कार्य-कारणभाव का स्वीकार करने से ही व्यभिचार आदि का अवकाश म होने से अन्यविध कार्य-कारणभाव का स्वीकार असंगत है।
समतायिकारणतागर्मित शिवम्यसामान्य कारणता 28 चित्रन्या इति । इस समन्ध में कुछ विद्वानों का पह वक्तव्य है कि -> 'चित्ररूपसामान्य के प्रति ही स्वविजातीयत्व और स्वसंचलितत्व दोनों सम्बन्ध से रूपाऽसमवापिकारणविशिधरूपाऽसमवायिकारणत्वस्वरूप धर्म से ही रूपरिशिष्टरूप में कारणता है । रूपाऽसमायिकारण में रहनेवाली रूपासमापिकारणता जनकनाविशेषसम्बन्ध रूपवत्वस्वरूप ही है, न कि समायिकारणसमवेतन्चे सनि समवनकार्योन्पत्तिनियामकत्वं सति समवेतकायस्थितिनियामकत्वस्वरूप । अवयवरूप अवयविरूप का जनक होने मे जनकताविरोपमम्बन्ध से अवयविरूप अवयवरूप में रहगा । अवयवरूप में जनकनविशेपमम्बन्ध = असमायि. कारणतासंबंध में रहनेवाला रूपक्व ही अवयवरूपनिष्ट रूपाऽसमवापिकापणना है । अनः असमवायिकारणता सम्बन्ध से अवयिरूपबत्त्वविशिष्ट = पाममवायिकारण जर म्वचिजातीयत्व . स्वसंवलितत्त्वांभय सम्बन्ध में रूपाइसमवापिकारण से, जो स्वयं भी जनकतासंसर्ग से रूपवविशिष्ट है, विशिष्ट बनना है नब अवयवी में वह स्वसमवापिसमवेतत्वमम्बन्ध से रह कर वहाँ ममत्राय सम्बन्ध में चित्ररूप को उत्पन्न करता है' <-। उपर्युन मत में और इस मन में चित्र रूप का कारण स्वविजातीयत्व. मगंवलितत्व उभयसम्बन्ध में रूपविशिष्टरूप ही है। मगर प्रथम मत में कारणतावदक धर्म कपविशिष्टरूपत्व है. जब कि दूसरे मन में काग्णतावदक धर्म प्रदर्शित रूपाइसमचाविकारणत्वविशिष्टरूपाउसमत्रायिकारणल है । दूसरी विशेषता यह है कि प्रथम मन में चित्र का का द्विविध-रूपमात्रजन्य और पाकमारजन्य माना गया है। जब कि द्वितीय मन में चित्र रूप को कंधार, पजन्य ही माना गया है। मतलब कि विजातीय अग्निभयोग प्रथमतः अनन्यव में ही कप का उत्पन्न कंग्गा और पाक जन्य नार-पीतादि अत्रयवरूप ही निम्न उभयगम्बन्ध में स्पधिनियमपान्मक बन कर निम्न रूपागमनायिकारणनिशिए.
पासमकायिकारणत्वधर्म ग स्वसमायममवेतत्वसम्बन्ध में अवयवी में रह कर रहाँ ममत्राय सम्बन्ध में चित्र प का उन्पन्न कंग्गः । विजानीय अग्निसंयोग साक्षान अवयवी में चित्र रूप को उत्पन्न नहीं करना है। अत: डिविर काय कारणभाव के स्वीकार की कोई आवश्यकता द्वितीय मत में नहीं है ।
मगर प्रकरणकार श्रीमदजी उपयुक्त टोनों मन गोवदोपग्रस्त होन मं मान्य करत नहीं हैं। कारणतारन्तानापार कसम्यागर में गीग्य तो दोनों मत में है। प्रथम मन में विविध कार्य-कारणभार के स्वीकार का गाय आधा । पाप नाय
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* यावत्नावच्छिन्नाभावस्य चित्रकारणता * रात -> नीलपीतोभयाभाव-पीतरतोभयाभावादीनां स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धावछिमप्रतियोगिताकानां समवायावच्छिमप्रतियोगिताकानां च विजातीयविजातीयपाकोभयाभा
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*रूपासमवापिकारणविशिष्टरूपासमवायिकारणवस्य तथात्वगिति विशेपस्तथापि कारणलावन्दकनाघटकसंम्पर्गगरीरगौरवमभयत्रच, प्रथमकल्पे द्विविधकार्यकारणभावकल्पनं चित्ररूपवजात्यद्वयकरपनञ्चाधिकमा । यद्यपि द्वितीयकल्पवयप पाकान नानारूपोत्पत्त्यनन्तरमेव निकामयसम्बन्धन रूप विशिष्ट पादेवावयविनि समवायन चित्ररूपाल्पनिः स्वीक्रियत इति न द्विविधकार्यकारणभावकल्पनागौरवं तथापि द्वितीयकला कारणतावच्छेदक शरीर महागौरबम्, कपासमनायिकारणविशिष्टासमवाविकारणत्यस्य रूपवत्वविशिष्टविशिष्टरूपवत्वविशिष्टत्वस्वरूपत्वाभ्युपगमात, आधान्तिम शिष्ट्रय जनकताविशंषसम्बन्धन मध्यम च हन निमक्तोभयसम्बन्धन चोध्यम् । अप्रामाणिकगौरवग्रस्तत्वन मतद्वयमनुपादयत्यभिप्रायः ।
जन समायेना-वर्यावनि चित्ररूप कनित स्वममवापिसमवेतत्त्वसम्बन्धन नालगनोभयग्य पीतरकभियादा मच्च जायते, कचिच्च नमवागन विजातीयरूप-विजातीयरूपजनकपाकाः सच्चे उपजायते । अतस्तदनुगंधन लाघवात् बसमवायिसमनतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकानां नीलपीतोभय-पीतरनाभयाभानादीनां समवायसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताकानां विजानीयरूपविजातीयरूपजनकपाको भयाभावादीनां स्वरूपसम्बन्धन यावत्त्वावच्छिन्त्रप्रतियोगिताक एक एवाभावः समवायन चित्रसामान्य प्रति हलुरित्यागयवनां मतं स्वस्तिमपनयति -> यत्त्विति । तन्नत्यनेनाग्रे म्यान्वयः । उपप्रायमेतत् विशषभावना वम् नालगीतकालद्धयारब्ध घटे. स्वसमवापिसमवेतत्त्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्य नील-पीता भयाभावस्य स्वरूपसम्बन्धन विरहात् निरुक्तयावच्चावच्छिन्नप्रतियोगिताको भाव: स्वरूपसम्बन्धन वर्तत इति तत्र समन्यायेन विनोत्पत्ति: मुघटा । नीलकपालद्वयारचे घंटे तु स्यम्पसम्बन्धन निरुक्ता नाळपातीभवादयः विजातीवरूप-विजातीयरूप जनकपाकोभायाभावादयश्च वर्नन्त इति स्वरूपसम्बन्धन निरुक्यायन्यायच्छिन्नप्रतियोगिताकस्या भावम्य चिन्हेण चित्ररूप नापजायते, कारणविरह कायोत्पादाव्यांगात् । नीलकपालद्रयाग्ध घंटे केवलं प्रथमनीलकपालारच्छदन समगायन पीनरूपजनकविजानीयाणकारचदहशायां तु रमवायमम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्य नामरूपलक्षणविजातीयरूप-तद्विजानीयापानरूपजनकपाकोभयाभावस्य स्वरूपसम्बन्धन विरहेण निरुक्मयावच्चावच्छिन्न प्रतियोगिताकस्याभावस्य स्वरूण मत्त्वान समवायन चित्ररूपांत्यनिनिंरावाधा । नतश्च रागवायन चित्रल्यान्छिन्नं पनि चापसम्बन्धेन निरुक्तयावाचावनिछन्नप्रतियोगिताकामाववनवम्यानभावस्य हेतनि अनुमनाभिप्रायः । मन में द्विविध कार्य-कारणभाव के स्वीकार का गौरव तो नहीं है, मगर कारणतावदकाम रूपवत्त्वविशिष्टविशिष्टरूपवत्वविशिष्टत्व तो स्पष्टतया गुरुतर हो जाता है। यहाँ प्रथम और तृतीय वैशिष्ट्य जनकतासम्बन्ध से ग्राब है एवं द्वितीय वैशिष्टय स्वबैजान्य - स्वसंवलितत्व उभयसम्बन्ध में उपादेय है । मतद्वप अप्रामाणिक गौरव से ग्रस्त होने में अमान्य है. यह तात्पर्य है ।
* वि. Pleण यावाचावरियाप्रतियोगिताक अभाववि.ले.प. - अन्रागत
चनु, इति । अन्य विद्वानों का यह वक्तव्य है कि → 'नील-पीन एवं पीत-नन आदि स्वसमचाथिसमवेनत्व सम्बन्ध से जिसमें रहते हैं उसमें चित्र रूप की उत्पत्ति होती है । इसी प्रकार जिसमें विजातीय चित्ररूपजनक विजातीपपाक समवायसम्बन्ध से रहता है अथवा विजातीय रूप और विजातीयरूपान्तरजनक पाक समवाय सम्बन्ध में रहना है, उसमें भी चित्र रूप की उत्पत्ति होती है। वह इस नरह . नील कपारद्वय में उन्पन घट में विभिन्न अवयवावच्छेदन विजातीयरूपढ़य का जनक पाक होने पर घर में चित्र रूप की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार नालकपालद्धय से उत्पन्न यट में किसी एक कपालावच्छेदन विजातीयरूपजनक पाक का सनिधान होने पर भी चित्र रूप की उत्पत्ति होती है। इन सभी स्थितिओं के संग्रहार्थ स्वसमवायिममवतत्व सम्बन्ध में नीलापीतोभयाभाव पीतरक्कोभयाभार आदि अभाव और समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक विजातीयविजातीयपाकोभयाभाव • इन सब अभावों का जो स्वरूप सम्बन्ध से यावत्वावच्छिन्त्रप्रतियोगिताक अभाव, वहीं एक अमाव सर्वत्र समवाय सम्बन्ध में चित्ररूपमामान्य का कारण है। मतलब यह है कि जहाँ समस्त ये अभाव रहेंगे बहाँ यावत् अभाव का अभाव नहीं होने की वजह कारण का वाध होने से समवाय सम्बन्ध मे चित्र रूप की उत्पत्ति न होगी । जहाँ इन अभावों में में कोई एक अभाव न होगा जैगे नील - पीनकपाल से घटोत्पत्तिस्थल में घट में स्वसमवापिसमबेनत्वसम्बन्ध से नील-पीनांभयाभाव नहीं होगा। यहाँ उपर्युक्त सभी प्रभावों का यावत्त्वावच्छिन्न प्रतियोगिताक अभाव होने की वजह समवाय सम्बन्ध में चित्र रूप की उत्पनि होने में कोई बाधा होती नहीं है । -
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.६८. मध्यमस्यावादरहस्य खण्डः ३ - का. अखण्डाभावत्वेन कारणतानहीकारः *
वादीनां यावत्वावच्छिमप्रतियोगिताकाभाव एकश्चित्रत्वावछि प्रति हेतुरिति - राज, प्रतियोगिकोटानुदासीनप्रवेशाप्रवेशाभ्यां वितिगमनाविरहात् ।
वित्रत्वावछिन्ने रूपत्वेनैव हेतुता, नील-पीतोभयजन्यतावच्छेदकचित्रत्वाऽवान्तरजात्यच्छिन्ने लील-पीतोशयत्वेनैव, प्रितयारन्धे तत्रितयत्वेन हेतुता, नील-पीतोभयाचारब्धचित्रे
-* जयलता हैतदागकरणे हेतुमाह → प्रतियोगिकोटी = समवायसम्बन्धाबन्छिन्न-चित्रतावच्छिन्नकायनानिरूपिनस्यम्पसम्बन्धावच्छिन्नकाराणनाश्रयीभूताभावप्रतियोगिकुक्षी, उदासीनप्रवंशाप्रबंशाभ्यां विनिगमनाविरहादिनि । इदमत्राकृतम् क्वचित चित्ररूपय रूपजन्यत्वात् कविध पाकरूपाभयजन्यवान चित्रं प्रति कचित नीलपादाभयाददासीनवं कांचन विजातीयरूपविजातीयपारुयोरुदामीनत्यम । अन; कारणाभूनाभावप्रतियोगिकोटी नदभावप्रवेशः कर्तव्य आहास्चित न ? इत्यत्रा विनिगमः, उदासीनप्रवेशे तु नील-वायुसंयोगान्यतराभावादरपि चित्रकारणीभूनाउभावप्रतियागिकोटी प्रवेशपातेन अप्रामाणिकगौरवात् नवप्रवेश में विजानायचित्ररंग कार्यत्वप्राप्ती द्विविधकार्यकारणभावकल्पनागारवादुभयतः पाशाररित्यग्यण्डाभावस्याहतुवामान भावः । किश्च पाकमात्रजचित्रीत्याद व्यतिरकव्यभिचारस्य दर्निवारत्वम् । न हि तन्त्र निरुक्कयावत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताको भावः स्वरूपसम्बन्धेन वर्तत, निरुक्तानां नीलपीतामयाभावादीनां विजानीयरूप-विजानीयरूपजनकपाकाभयापवादाना व तन स्वरूपसम्बन्धेन सच्चात् । कारणीभूताभावप्रतियोगिकोटी चित्रजनकपाकाभानस्य प्रवेशे नु गौरबम. ममयायेन चित्रत्वावच्छिन्ने पाकजन्यत्वविरहात् । किश्चैवं नील-पीतोभयाभात्रादीनां कारणीभूताभावप्रतियोगितप्रामी नित्रं प्रति तषां प्रतिबन्धकत्वकल्पना प्रसङ्गो दुर्निवारः । न चेष्टापत्तिरिति | वान्यम्, तेषां कारणाभावत्यव्यवहारादिति । किञ्च प्रसिद्धान्वयव्यतिरेकग्रहविषयतावदकरूपर्णव कारणत्वाचिन्यं, अन्यथा प्रायशोऽन्यत्रा प्यभावविशेषस्यैव हेतुत्वप्रसङ्गगादिति दिक ।
अवान्येषां गतमाह ---> चित्रत्वावछिन्ने = समवायेन चित्रसामान्य प्रनि स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन रूपत्वेनैव । यद्यपि हेतुना नथापि प्रसिद्धान्वयव्यतिरंकाभ्यां नील-पीतोभयजन्यतावच्छेदकचित्रत्वावान्तरजात्यवच्छिन्ने = समवायन
नीलपीतीभयमात्रजन्पचित्रमात्रनिचित्रत्व-व्यायजात्यवच्छिन्न प्रति, स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धन नीलपीतोभयत्वेनैव हंतुतेत्यत्रानुषच्यते । यत्र स्वसमबायिसमवेतत्त्वसम्बन्धन नीलपीतरकत्रितयं तत्र गमवायेन तादृशत्रितयचित्रात्यनिः यत्र च | तदभावस्तत्र तादृशत्रित्तयजचित्राभाव इत्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां त्रितयारन्ध = नील पान -रत्नादित्रितयमात्रा समवापिकारणकचित्रमात्रवृनिचित्रत्वन्यनवनिजातिविशेषावभिन्न प्रति स्वसमबायिसमवेतत्वसम्बन्धन तत्रितयत्वेन = नीलपीतरनादित्रिकत्व हेतुता = असमयायिकारणता 1 उपलक्षणात् चतुष्कारब्धं तचतुम्कत्वन हेतुनेत्यादि गम्यम् ।।
तन्न, प्र. । प्रकरणकार श्रीमदनी इस मत को यह कह कर असंगत बनाते हैं कि चित्र रूप के कारणीभून एक अभाव की प्रतियोगिकोटि में उदासीन के प्रवेश और अप्रवेश से विनिगमनाविरह है। मतलब यह है कि चित्ररूपमामान्य के प्रनि नीलपीनोभय, पीतरक्तोभय, विजातीयरूप-विजातीयरूपजनकपाकोभय आदि सभी कारण नहीं हैं, किन्तु इनमें से कोई एक ही कारण होता है। अन्य तो उदासीन होते हैं। मगर यहाँ तो उपर्युक्त मत में कारणीभूत अभाव की प्रतियोगिकुक्षि में उदासीन और अनुदासीन दोनों का प्रवेश किया गया है। अनः यहां प्रश्र यह उपस्थित होता है कि कारणीभूत अभावप्रतियोगिशरीर में उदामीन का प्रवेश हो या नहीं ? इस विषय में कोई निर्णायक नर्क नहीं है, क्योंकि उदामीन अभाव का कारणीभूनाभावप्रतियोगिकुक्षि में प्रवेश करने पर तो नील-बायुमंयोगान्यतराभाव आदि का भी वहां प्रवेश हो जायेगा और उदासीन अभाव का वहाँ प्रवेश न करने पर अनेकविध कार्य-कारणभाव की कल्पना का गौग्य उपस्थित होता है। इसलिए अखंडाभाव हेतुताराला उपयुक्त मन अनादरणीय है . यह फलित होता है ।
विभिन्न चित्ररूप की विभिन्न कारणता - मतविशेष नित्रत्वार. इति । अन्य विद्वानों का यह मत है कि --> चित्रसामान्य के प्रति रूपत्वेन रूपसामान्य कारण है। मगर सब चित्र रूप समान होते नहीं हैं। जैसे नील-पीतकपाल से उत्पन घट के चित्र रूप में, रक-पीतकपालद्वप से आरब्ध पट के चित्र रूप में एवं नील-पीस-तकपालत्रितय से जन्य घट के चित्र रूप में वैजात्य अनुभवसिद्ध है। अतः अन्नपव्यतिरेक से नीलपीतउभयकपाल से जन्य घट में समवेत चित्रवन्याप्यजाति(त्रित्वविदोप) से अवच्छिन्न के प्रति नील और
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* कपलनायनुसारेण यथाश्रुतपापपादनम् * | च नील-पीतान्यतरादीतररूपं प्रतिबन्धकमिति न तियारब्धचिगवति दितयारब्धविधापत्तिः।। गौरवं तु प्रामाणिकत्वादिष्टमि पारी । अत्र लीलतर-नीलतमोभयत्वादिना तनुभयजन्यचित्रं प्रत्यपि हेतुता वाच्या, तत्प्रति च नीलतर-नीलतमायतरेतररूपत्वेन प्रतिबन्धकता, तेन
-* जयलाता - नन्वेवं सति नाल-गीत-रक्तत्रितयजन्यतावच्छेदकचित्रवत्र्यायजानिविरोपावनिचित्ररूपचति घटादा नीलपीना भयादिजन्यचित्ररूपमुतायत, तत्र स्वसमवायियमवनत्वसम्बन्धन नालपानोभयादः सचान । न च संपत्तावन्छिन्नम्य व्यायवृत्तित्वनकचित्रम् पयत्यारचित्ररूपान्पन्ययागादिति रक्तव्यम, तथापि जगविश्वसामग्रामन्च प्रथम भयजन्यं चित्रमतपद्येन यदुन जिपजन्य मानमादित्याशकांपाभाह-नीलपीनोभयाद्यारधचित्र च स्वस मनायिसमवतत्वसम्बन्धन नीर-पीतान्यतरादीनारूप प्रतिबन्धकमिति स्वीकारात नाल-गीत-रककालत्रितयजन्यचंट स्यसमवापिसभवनत्वसम्बन्धन नीलपातान्यतरतरस्य रकरूपस्य द्वितयजचित्रप्रतिबन्धकस्य सत्त्वात न त्रितयारधचित्रवति = समवायन नील-पान - रत्नादि-निकोत्पन्नचित्ररूपरिशिष्टे द्वितपारधवित्रापतिः = समवायसम्बन्धन नीलपातीमयादिमावजन्यताब लेटकीभूतचिवतन्या यजातिविशिष्ट-चित्ररूपांतपाद. | प्रसङगः । न हि प्रतिबन्धकम्पन्न कार्यमुत्पत्तुमर्हति । एवं नील-पीत-रकादित्रितयाग्भत्रि व नील-पीत रकान्यतभेतररूपस्य प्रतिबन्धकन्वान्न रूपचतुकास्थविविशिष्टे वयगिनि समयान त्रिनयमावचित्ररूपरोतासग इत्यादिकं स्वन उन्नयम् ।
कश्चित्तु आधुनिक; --> ''अत्र 'नीलगातादातरम्प इनि राठ एव सगुचितः । मूलादान सम्माज्यते च लखनत्वरया कर्तनाई- 'अन्यनर' शब्दस्य कर्तनं विस्मृतं' - इत्याह, तदज्ञानविनमितम, एवं मांत नीलगातारञ्चपि द्विनयजं चित्रं ने स्यात, नालपीनादातरम्य नालम्य पातम्य च तत्र मन्नान । न हि ना पीनं वा रूपं नीलपीतोभयात्मकं भवति । न च नयोपदेशे प्रकुने 'नीलपीतीभयादिमात्रारब्धे च नीलपानादीनामावन प्रतिबन्धकल्यात इतिपाठदर्शनन विीषिका कार्या. प्रकृतप्रकरणपाइपलादेव 'अन्यनर' पदस्य तन्मध्य प्राईवद. स्याद्वादकल्पलताया चित्ररूपप्रकाशं च 'नीलपातान्यनग. दीनररूपत्वन' इत्येवं पाठदर्शनात्मलं विवादेन ।
न च चिधत्वच्यायनानाजाति - नदाछिन्न-निरूपिनानाधिकाम्णना-प्रनिबन्धकतादिकल्पनागीरवाना गक्षः मर्माचीन इति वक्तन्यम, तस्य फलमुखत्वनाउदोषत्वादित्या शयनाह -> गौरवं = नानाजान्यादिकल्पनागौरवं, तु प्रामाणिकत्वात् - कार्यकारणभावादिनिश्चयानन्तरमुपस्थितत्वेन फलमबत्नात, इमित्यन्ये बदन्तीति झापः ।
नन्वेवं सति नीलतर-नीलतमाभयारब्धेन्वयविनि चित्रं न स्यात, स्वसमचायिसमवेतत्वसम्बन्धन नत्र नीलातिग्निरूपम्य विरहादित्याशढ़कायामनन्मत्तीपष्टम्भार्थं प्रकरणकदाह अत्र = निरुक्तपक्ष, नीलनर-नीलनमोभयत्वादिना भयजन्यचित्रं - नीलतर-नीलतमाभयजन्यनारच्छेदकाचित्रत्वज्याप्यजातिधिदीपावच्छिन्नं, प्रत्यपि हेतुता राज्या = दीकाया । अन: स्वसमवायि. समवंतलसम्बन्धन नीलनर-नीलतमोभयवनि न चित्रनत्यनिग्रगङ्गः । तथापि नील-पातीभयारयचित्ररूपवति नौलतर-नीलतमी| भयारब्यचित्रोत्पनिप्रसड़गस्य दर्निवारत्वमित्याशडकायामास - तत = गमवागन नीलतर नीलतमाभयारन्धा नीलनर-नीलनमान्यतरेतररूपत्वेन प्रतिवन्धकता स्वीकार्या, तन - निरुतगतिबध्य-प्रतिचन्धकमावस्वाकांग्ण, न नीलपीनोभया
| पीत रूप की नीलपीनाभयलेन कारणता है। एवं नील-पीत-रक्तकपालबिनय मे आग्ध घट में वृत्ति चित्रवव्याप्यजाति (चित्रत्व| विशेय) से अवच्छिन्न = विशिष्ट के प्रति नील-पीन रक्त की नील-पीत-रक्तत्रितयत्वेन कारणता है । यहाँ यह वांका हो कि
-> 'नील-पीत-रक्तकपालत्रिक मे जन्य घर में नीलपीनाभयजन्य चित्र रूप भी क्यों उत्पन्न नहीं होता है ? - तो | इसका समाधान यह है कि नीलपीतोभयमात्रजन्य चित्ररूपविशेप के प्रति नील - पीतान्यतरादि से भिन्न स्कादि रूप प्रतिबन्धक है। यद्यपि इस मत में गौग्न प्रतीत होता है, क्योंकि चित्रत्क्याप्य अनेक चित्रविशंप की कल्पना करनी पड़ती है नधापि यह गौरव प्रामाणिक होने से पात्मक नहीं है । प्रामाणिकना इसलिए है कि नीलपीतोभयमात्रजन्य चित्र रूप और नीलपौत-रक्तत्रितयजन्य चित्र रूप में बजात्य अनुभरसिद्ध है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि नीलतर-नीलतमोभयकपालमात्रजन्य घट में समवेत चित्ररूपवियोप के प्रति नीलतर , नीलतमोभयत्वेन कारणता माननी होगी, जिससे नीलतर-नीलतमाभयकरारजन्य पद में समवेत चित्ररूप की उत्पत्ति निगराध हो मक। यहाँ इस शंका का कि -> 'नील-पीतकपालजन्य घट में नीलतर. नीलतमजन्य चित्र रूप की भी उत्पनि क्यों होनी नहीं हैं? - समाधान यह है कि नीलसर - नीलतमाभपमात्रजन्य
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.. मध्यमम्यादादरहस्य खण्डः ३ - का..
*रूपजमग पाकग्य प्रतिबन्धकता*
नील-पीतोभयारब्धविश्वति तदापतिः । रूपजस्वयं प्रत्येव विजातीयाग्निसंयोगस्य प्रतिबनधकत्वाच्च यत्रकावयवे नीलमपरत्र पीतं तदन्यत्र च श्वेतजनकाम्जिसंयोगस्तदवयविनि व्दितगारन्धविनाधापतिर्नेति बोध्यम् । वस्तुतो दितयजचित्रादौ स्वधात्योधकरणपयांपततिकत्वसम्बन्धन ब्दितयादेः का
- सला ग्धचित्रवति = नालापाताभकामानायिकारणकांचनम् पविशिष्टे, बदापत्तिः = नालना दीलनमोभयजन्यनाबच्छेदकचित्रला. वान्तरजात्यमित्रचित्रमगोनिप्रसनिः. म्यसमवाचिया बनान्यसम्पायन तन नीलतर-नालतमान्यनरेनरस्य पीतम पग सच्चात् ।
लन तथापि नालपानी भयरूप श्वेतजनकपाकात घट नीलपानीभवकार्यतावच्छेदकचिन्तावान्तरजान्यवच्छित्रात्यनि: दयारा, नत्र म्यगगवापिसमवेतन्यसम्बन्धन नीलपीतं भयम्य स्वरूपसम्बन्धन स्वसमवासियमवतन्तसम्बन्धावन्छिन्त्रप्रनिगगिताकस्य नालगीतरत्नम्पनियाभायम वसन्धादित्याराड़कायामाह -> रूपजरूप - समवायन रूपमानजन्यरूपमात्रयूनिवजान्यावचिननं प्रत्येव विजातीयाऽग्निसंयोगस्य प्रतिबन्धकत्वाचेनि । एनकारण पाकमानजपं रूपमात्रजानिरिक्तमपं प्रति वा तस्य प्रतिबन्धकवं व्यवछिन्नम; नधनान्चयन्यतिरेकसिद्धेः। कृतप्रतिनिध्य-प्रतिबन्धकभावफलमाह, यत्र अवविनि एकावनवे = एकावयवादन नीलं, तथा अपात्र = अपरायचाबजिन्नस मवायन पातं तदन्यत्र = तदतिग्निकावयवावरदेन च शेतजनकाग्निसंयोगः नदनि रमवायन द्वितयारध-चित्राद्यापतिः - लालपानी नियमावजन्यतावच्छेदकावन्निचित्ररूपांत्यादशक्तिः ननि वाध्यम. नत्र विमानायने नःसंयोगल्य रूपमात्र गरूपप्रतिबन्धकस्य सत्वं रूपविशेषजन्यचित्ररूपविशेषापादनाच्या - गात । न हि कार्यसामान्यप्रतिबन्धकासन्य काविशेषादयत्तिः सम्भवति ।
कृतकल्प चित्रवाहिन्न स्वमनचाथिसमवेतन्तसम्बन्धन रूपलेन हेनत्वं, विजातीयचित्रत्वावच्छिन्न नीलपीता भयत्वेन केन नदत्यतरेतररूपत्वन च प्रतिबन्धक, विजातीय चित्रन्यानच्छिन्नं न नील-पीन- रत्रितयत्वेन हेनत्वं नदन्यतमंतररूपत्वेन व पतिवन्धक, विजानावित्रचावच्छिन्न पचतुकलेन हेतत्वं नगन्यनमंतररूपत्वेन च प्रनिबन्धकत्वं, विजानायचिरत्वावच्छिन्त्र म पश्चालन हतत्वं नदन्पनमनररूपन्न प्रतिवन्य , विजाताचित्रत्वावच्छिन्न रूपद्रकल्वेन हेतुत्वं, रूपमात्रजरूपसामान्ये व विज्ञानात ज:संयोगस्य पनिबन्धकवमित्य गुम्नरकपनायाः मागानिपुर्व मोपस्थितवन निरु+गौरवस्य फलाभिमस्वत्त्वा-नागादित्यामाकायामाह, - वस्नुन इति । समवायन द्वितयनचित्राटी = दिनयमानजन्यचित्रादिक प्रति, आदिपंदन त्रितयजन्याचवारिग्रहणम् । स्वपर्याप्त्यधिकरणपर्याप्त निकत्वसम्बन्धेन द्वितयाद: कारणतत्ति । प्रकृतं कारणताकछेदकं.
चित्र मप के प्रति नीदतर नीलतमान्यता से भित्र पीनादि म्प प्रतिबन्धक है, जो नीलपीताभपकपालजन्य घट में स्वममवापिसमयतत्वमम्बन्ध में रहता है । अतः यहाँ नीलतर - नीलनमाभयमात्रजन्य चित्र रूप का आमादन नहीं हो मकना 1
यहाँ यह शंका कि -> 'नीलपीनोभयमात्रजन्य चित्ररूप के पनि स्वसमयायिसमवंतत्वसम्बन्ध से नीलपीतोभयत्वेन कारणता का स्वीकार करने पर जो घटनाल-पीलकपालय में भारभ है, उममें एक भाग में भेतरूपजनक विजातीय अग्रिमयोग होने पर भी नीलपीनाभयमात्रनन्य चित्र कप की ममवाय सम्बन्ध से उत्पन्न होने की आपनि आयेगी, क्योंकि उस घट में ग्राममायिसमवेतत्वसम्बन्ध में नीलपीना भय विद्यमान है पवनाल - पानान्यतर में भिन्न रकादिरूप, जो नीलपीतोभयमात्रजन्य चित्र रूप के प्रनि प्रतिबन्धक है, भविद्यमान है' <- इसलिए असंगन है कि अपमानजन्य रूप के प्रति विजानीयाग्निमंयोग प्रतिबन्धक है । प्रस्तुन स्थल में घट में नरूपजनक विजातीय अग्निमयोग विद्यमान होने से रूपमात्रजन्य रूप की ही उत्पनि हो सकती नहीं है, तो फिर नीलपीतोभयम्पमात्रजन्य चित्र रूप की उत्पत्ति का आपादान करना कैस संगन होगा १ अनः चित्रमामान्य के प्रति मप की काग्णता, रूपमात्रजन्य रूप के प्रति चिजातीयअनिसंयोग की प्रनिबन्धकता आदि की कल्पना संगत ही है. <- यह अन्य विद्वानों का अभिप्राय है।
यस्तत, इनि । यदि त्रितयारध चित्र रूप के आश्रय में द्वितयारध (नीलपीतोभयादिजन्य) चित्र रूप के प्रति नीलपातान्यतगीतग्रूपत्वेन उपर्युक्न प्रतिबन्धकता की कल्पना के गौरव का परिहार ही अभीष्ट हो तो समवायसम्बन्ध में विजातीयरूपयजन्य चित्रादिम्प के प्रति विजातीय रूपदय को स्वपर्यायधिकरणापर्याप्मयनिकत्वसम्बन्ध में कारण मानना चाहिए । ऐसा मानने पर विजातीयरूपत्रितयारध चित्र पके आश्रयीभूत घट में विजातीयरूपद्धयारब्ध चित्र रूप की उत्पनि की आपत्ति नहीं दी जा सकती, क्योंकि उक्त घट तीनपवाले तीन कपालों में पाभिसम्बन्ध से वृति - रहता है। अतः उस घट में रूपद्धय
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* आपनिकमानगसः * रणता, जाऽतो तीलपीतामयजादी लीलपीतात्यतसदीताररूपत्वेन प्रतिबन्धकताकल्धनगौरवम् । चित्रं प्रति चित्रेतरसामग्रीत्वेन प्रतिबधकत्वान नीलमाचारब्धे चित्रापतिः ।
- राल | द्वितयत्वादिकं न न प्रत्यकं नाम पात्यादिकं. लिातकापालजयगन्याटाग दिनमारचानुत्पादायगान, घट निस्कनसम्बन्धन प्रत्येकाने: घटस्य प्रत्यक कामांधत्वान् । स्वपदेन सपद्वितयाट ग्रहणम । सग्य पांभिगम्भाधनाधिकरगं कपालदयारच्या घटः परिसम्बन्धन नव वर्नन. नल कपालबिनपादा ! अती नालापानीमयकालान्धस्य घटम्य विनयपर्याप्यधिकरणीभूतकपालमयमांनकत्वान नालापीद्विस्यं स्वपोत्यधिकरणपमिनिकन्यसम्बन्धेन तब घट वतंट न तु नील| पीन-सनकगावितयारधटेपि । अन एवं नील-स्ति-रक्तरितयारनित्राश्रयीभूत घटनापीतदिनपचित्रात्यदासङ्गायि परिहतः, नील-पीन कनकपालारब्धाधारयत्रितपपर्याप्त्यधिकरणकपालांत्रकपर्याप्मत्तिकचन नालीनद्वितयस्य स्वपर्याप्त्यधिकरणपर्याप्तवृत्तिकन्यसम्बन्धन नरिमन बटेन: । न अनः = निरुग्नकार्यकारणभावी गमात्. नीलपीतांभयजादी = समवायन नाललीद्वियमात्रज-चित्रादिकं प्रति, स्वगमवामिमाम्चतत्वसम्बन्धन नीलपीतान्यतसदीतररूपत्वेन प्रतिबन्धकताकल्पनगौरवम्, निरुक्तरीत्या नील पीत रक्तकपालवितवाद्यारभयंत निरक्तसम्बन्धन द्वितयादव विरहण नागकन्या तानुशातिवन्धकताकल्पनाया अनावश्यकत्वात् । न धषि नीलकराद्धयारब्धं घट चित्रांपादम्य दारवं, स्वपर्याप्त्यधिकरणार्यामनिकन्यमाबन्धन नीलद्विनयम्य न्त्र सत्यादिति वाच्यम्, सम्वायन चित्रं प्रनि चित्रेतरसामग्रीत्वन प्रतिबन्धकत्वात. विवानिरिकलालमात्रसामन्या: मन्यात. न नीलमात्रारब्ध = नालंतररूपशन्पनीरकपाल याद्यारधट. चित्रापनिः + समवायन चित्रात्यादप्रयः । अन एच नालापानकपालारचे घट पातकपालापच्चंदन नीलजन्कयाकदसाय चित्रापनिप्रसङ्गाजप प्रत्यक्तः, चिसामनास्तत्र सन्यात । गलपानाभवाद: सम्वारनकला वृत्तः खाधिकरमापर्याप्तत्तिकत्वसम्बन्धन कारणवीरनामम्भरः स्यादित्यत: पर्याप्तिपदकाग्णताउछटकसम्बन्धी ।।
कश्मिनु आधुनिकः गम्यायन नीलपातोभयमानचित्र प्रांत म्प अगाधिकरणांतनिकत्तमम्बन्धन नासत्य-गानन्वगतद्विल्यस्य कारणत्वमिति व्यार, तन्मन्दम् गहन्याथा इन्यमानविन नीकल्च-पातल्लादः 'द्ववाद्यनाश्रयत्वना सम्भवपानान् । अपक्षाबुद्धिविशेषविषयत्वम् पम्य द्वित्यांदा एगीकारोपिन युक्तः, भ्रमात्मका रक्षाबुद्धिविदोपविषयत्यमादाया तिप्रसन्नात् । न च प्रमाणावभीषणांपादानान्नदोष इनि बाच्यम्, नथाप तादशापेक्षाबुद्धयनुवाददायां नीलपीतकशालारब्धय चित्रानुत्पादप्रसगात्, भिपताया नानसमानकालीनत्वात् । न चान्ननं गत्वा मह वजिमादाय ने नदनानिरिति वक्तव्यम, नथापि प्रमादिनिंगन गावात. तादगकुष्टिकल्पनापेक्षया पाभिसम्वन्धनव म्वाधिकग्णनिवेशविरक्षाविन्यात, यन कागणनापनकमारधार. रामचलाभापि म्यादिनि धिभावनायं मभिः |
प्रकृतकाचे न चितिवन्धकताबन्दक निवेतरम्परगनाम्यानिगुरुज्यम् । न च प्रतिबन्धकतावच्छंदकगाग्यस्या-दोपवाति वक्तव्यम, नथा; कारणाशितगरजरकरणात्य पं माननीय आहारिया इनग्मफटकारणांगशष्टककाम्णन्यमां : इत्यत्रा निगमान । सायम्माननाग नागिंगमन संयम । नयमपि लिपानकावर त्रिपका पाप
गायन. बसमागमाचतवन रस पस्य नत्र मच्चान । अनमयन नाच गान पसगवपिन नगन-
म न- निया धकाधकल्पनभावत्यकामति नर्ग
का म्बपर्यायधिकरणपयांप्रवृनिकमा सम्बन्ध नराधिन है। यहां म्पदय का उन, मावनील पातकपादयजन्य घट में पहला है, न वि. नील-पीन - पनपात्रितयगमन घर में | गगन नान-पानववादमाजजन्य पद में चित्रम्.पोपान की अनुपान और नान्द-पात- कनकपारतिय जन्य घट में नील-पीनाभयमारजन्य चिनोत्पनि की जापान नहीं हो । यहाँ पहा करना कि --> डिनय का बन गया में चित्र म्प के प्रति कारण माना जारवयालय में समर्थन कर भी समवाय गम्बन्ध में विद्याप-गला बन जायगा, क्योंकि पादयगन नीलम्पह TE भम्बन्ध में घट में रहना है <- नामुनागिर है, नयाँचिसमाय मानचित्र मा के प्रांत
त्रिगामी पनिया है । भीरपालयमारजन पट में ॥ नील का की सामा रहने में यहां समराय गमय में चित्र 4.14 1 हो सकना ,।
लulinापमानारोजी
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'. मध्यमस्या दादरहस्य ग्याष्टः . . का.: * नाल पानाग्धं नीलानन्यादनिरूपणम *
नीलपीतोमयकपालारघटे नीलानुत्पत्तिनिर्वाहाय तु स्वाश्रयसम्बन्धेन नीलं प्रति स्वव्यापकसमवायेनेव नीलादेर्हेतुत्वं वाच्यं, न तु लीलादी नीलेतरादेः प्रतिबन्धकत्वमिति । न च तथापि तत्र समवायेत नीलापतिः स्वाश्रयसम्बन्धेन नीलसामन्याः समवायेन नीलसामग्रीव्यापकत्वादिरापरे ।
-* गयलाता *गौरखतादयस्थ्यात ‘ग्वण्डितपि गाल न शान्तः काम' इति न्यायापान उत्पाशकापामाह - नीलपीतोभयकपालारब्धपटे नीलानुत्पत्तिनिहाय तुर्विशेषण नदेवाह - स्वाथ्यसम्बन्धेनेति स्याश्रयसगवायसंसर्गणनि यावत् । स्वब्यापकसमवायनैति * व्यापक यग्य समवायम्य तन स्वच्या रकममवायन, सिमगागननि यापन । स्वपंदन नीलादः ग्रहणम । इदश्च कारणतान्छेटकरसम्बन्धप्रदर्शन, वकांग्गा स्यममवाविसमतत्तसम्बदन्यवादः कृतः नाममात्राग्चबटस्थते. विशिष्टयमवायन कापारनालम्पं कपालं वर्तत । अन् एक वटीपनीलमग ज्याश्रमसम्यानन कपाले नायतं, तस्य नालम्पनयाभूतबदममवापिन्धान। नील- पातानयकपालारब्धघटम्बल ने स्वागसमवायन मालम्पस्य पीतकापाले पि सम्भवान निमनामनपातकपाले नालसरं न बनत इति हेत्वभावात् । नत्र नालापानमन्तः । अत एव न नदनुराधन नीलादी नलितगदः प्रतिबन्धकन्चकल्पनन्या भावदयकत्वम । गतेन गौरवतादव याटिक गपि प्रत्यारन्यातम् । न च तथापि = स्व श्रयसनयायन नीलं प्रति स्वव्यापकसमवायन मालय कारणत्वां गग मेन ग्बाश्रयसमवायेन प्रकृत नीलम पानुत्पादानवहिप, तत्र . नील पानाभवनपालावधटे. समवायन नालापतिः दारा. स्वसमवापिसगवंतत्वसम्बन्धन नीलम्पस्य तत्र सच्चादिति बकच्यम्, स्वाश्रयसम्बन्धेन नालसामग्रया: = स्व.श्रवसमवायसम्बन्धावच्छिन्नकार्यताश्रयां भताररूपसामग्नयाः, समचायेन नालसामग्रीव्यापकत्वात् = समनायसम्बन्धा
__नालातो. इति । यहाँ यह शंका हो सकती है कि -> 'उपयुक्त कार्यकारणभाव और प्रतिवश्य-प्रतिबन्धकभाव का स्वीकार करने पर भी नील पीमाभयकपालजन्य घट में चित्र रूप की भाँति नील कप की भी समवाय सम्बन्ध में उत्पत्ति होने की आपत्ति आयगी, क्योंकि उस घट में स्वसमवायिसमवनत्वमम्बन्ध में नील रूप रहता है, जो कि ममवाय सम्बन्ध में नील रूप के पनि कारण है । इस भापत्ति का वारण तब हो सकता है, यदि समयाय गं नील के प्रति स्वसमवायिसमयतत्वसम्बन्ध में नीलनर को प्रतिबन्धक माना जाप । मगर आप ऐसा कह सकत नहीं हैं, क्योंकि इन प्रतिवध्य प्रतिबन्धकभावां की कल्पना में गांव होने से आपन इस पक्ष का त्याग कर के उक्त अभितन कार्य-कारणभाव का स्वीकार किया है <- मगर यह का इमगि निगधार हो जाती है कि हम स्याश्रयसमयाय सम्बन्ध से नील रूप के प्रनि स्वव्यापकसमवाय सम्बन्ध में नील रूप का कारण मानते है । मतलब यह है कि जब घट में समवाय सम्बन्ध में नील रूप उत्पन्न होता है तब वही नीर रूप म्दाश्रय-समवायसम्बन्ध में घट के अवयव में उत्पन्न होता है। स्वपदाथ है घटनालम्प, जिसके आश्रय - पट का समचाय कपाल में रहने से घटीय नील र.प स्वाश्रयमभवाय सम्बन्ध से उस कपाल में रहेगा। नीलकपालद्वय में घट उत्पन्न होने पर स्वाश्रयसमवाय सम्बन्ध ग घट के कपाल में नील रूप उत्पन्न होता है और नम कपाल में स्वव्यापकसमवाय सम्बन्ध से नील रूप भी रहता है । स्वच्यापकसमयाय का मतलब है --> स्व हे व्यापक जिमका पंगा समवाय यानी स्वविशिष्ट समवाय से कागणीभूत नाल का सविधान अपेक्षिन है। जब घर के जनक सभी कपाल में केवल नील रूप रहता है, नभी कपाल में बयापकममत्राय सम्बन्ध में नील कप रहता है । जब पटकारणीभूत एक कपाल नील और दसरा कपाल ग्यत होता है नच यदि गर्ग नाल, रूप उत्पन्न होगा ना स्वाश्रयसमवायसम्बन्ध में नील रूप के प्रति खचिशिरगमवाय में नील कप की कारणता में व्यभिचार हो जायेगा, क्योंकि नाल-ग्नकपालारम्धपटानिष्ट बह, नीर रूप स्वाश्रयममवाय सम्बन्ध में रनकपाल में भी रहेगा । फिन्न नीर माप स्वन्यापकसमवायमम्बन्ध से वहाँ नहीं रहने से नीम रूप की उत्पनि का अनिए प्रमंग नाममकिन है। इसलिए यहां गमवाय सम्बन्ध में नील रूप के प्रनि बगमनायिसमवेनाव सम्बन्ध में नीलतग्रूप को प्रतिवन्धक मानन की कोई आबध्यकता नहीं है। यहाँ यह प्रा हो कि --> नौलपातकपालद्ववजन्य घर में ग्वाश्रयगमवाय सम्बन्ध में नील #प की उत्पनि मन दो, स्याकि म्यध्यापकगमनाय गम्बन्ध में नाल मप अनुपस्थित है । मगर उस घट में समवाय सम्बन्ध में ना नील भपकी उत्पान होना ही चाहिये, क्योंकि उस घर के अवयव मं नील कप रहता है' <-सा यह भी असंगत है, क्योंकि स्वावयगम्बन्ध में नाल की मामी स्वयमवायगम्बन्ध रा नील की गामग्री की व्यापक होती है। मतलब कि स्वाश्रयसमदायसम्बन्ध में उत्पन्न हम बार नल का मामग़ा कारणनावश्क सम्बन्ध से जहां रहती है वहीं ही गमवाय सम्बन्ध में उन्पन्न होनेवाले नील म.प की गागा कारणानावटक सम्बन्ध में रहती है। जहाँ च्यापक नहीं होना है यहां व्याप्य कभी रहना नहीं है। प्रस्नुन
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* अपरमतास्वरमवीजाऽऽविष्करणम् *
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केचित नानारूपवदवयवारब्धो घटो नीरूय एव । न चैवमप्रत्यक्ष: स्यात्, द्रव्यतत्समवेतचाक्षुषसाधारण्येन चाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रत्येव स्वाश्रयसमवेतवृतित्वसम्बन्धेन रूपस्य कारण
- जयलता वच्छिन्नजन्यताश्रयाभूतनीलरूपकारणकलापव्यापकत्वात, स्वाश्रयसमवायावच्छिन्नकार्यताश्रयाभूतनीलरूपसामग्रीविरहे समवायसम्बन्धा| बच्छिन्नकार्यनाश्रयनीलरूपसामग्रीविलयसिद्धः समवायन नालपोत्पादापादनाव्यांगात् । 'सामग्री बैं कार्यजनिका न त्वेकं कारणमिनि किं न श्रुतं ? इत्यभिप्रायः । अत एव नीलादी नीलेतरादः प्रतिबन्धकल्वमताहो नीलेतरादी नालादः प्रतिबन्धकत्वमिति विनिगमनाचिरहोऽपि न सावकाशः; नादशनिबध्यप्रतिबन्धकभावानभ्युपगमात, दही नास्ति कुतो दुःखम !
यद्यपि प्रकृतकल्प नीलादी नलितगदः प्रतिबन्धकल्या कल्पनेन लाघवं तथापि स्वाश्रयसमवायन नालादिक दि स्वव्यापकसमवयन नीलादः कारणत्वं, समवायन नीलादिमामग्रयाः स्वाश्रयसमवायन नीलादिसामग्रीच्याप्यत्वमित्यादिकल्पनागौरवमतिरिच्यत इति विभाव्य 'अपर' इत्यनंना स्वरसाद्भावनं कृतम् ।।
ननु सम्बायन नालं प्रति स्वसमवायिसभवतलसम्बन्धन नलितगदेः प्रतिबन्धकत्वात् परतं प्रति पतितररूपादः प्रतिबन्धकत्वात शुक्लादिकं प्रति च शुक्लतरादेः प्रतिबन्धपात्वात विजातीवानेफर पदयवसमत ययावनि नकमपि कारमुपजायन किन्तु नीरूप एब स भवतात्याशयवनां मतमाविष्कराति ---> केवित्त्विनि । नानारूपवदवयवारब्धः = विजानीयानेकरूपविशिष्टावयवजन्यः घटः स्वोत्यादानन्तरमपि नीरूप एव अवतिष्ठते । न च एवं = घटस्य स्वोत्पादोत्तरकालेऽपि नीरूपत्वोपगमे, स घटः अप्रत्यक्षः = चाक्षुषसाक्षात्कारागांचर: स्यात्, विषयतासम्बन्धेन द्रव्यचाक्षुषं प्रति स्यसमवायसम्बन्धेनोद्भतरूपस्य हेतुत्वादिति वाच्यम्, द्रव्य-तत्समवेतचाक्षुपसाधारण्येन = द्रब्य द्रव्यचूनिगा चरचाअषसाक्षात्कारानुगतत्वन, विषयतासम्बन्धन चाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति स्वाश्रयसमवेतवृत्तित्वसम्बन्धन एवं रूपस्य कारणत्वात - कारणत्वाङ्गीकारात् । विषयतया घटचाक्षुपं यदा घटे वर्तने तदा स्वाश्रयसमवेतवृनित्वसम्बन्धन कपालिकारूपगपि तत्र पर्नत पच, घटस्य कपालिकारूपाश्रयीभूतकपालिकाममवतकपालत्तित्वात् । यदा च विषयतया घटपरिमाणादिचाक्षपं घटापरिमाणादी वर्तन नदा स्वाश्रयममवतनित्वसम्बन्धेन कपालरूपमपि तत्र वर्तत एच, घटपरिमाणादः कपालरूपाश्रयाभूतकपालममतबट्यूनित्वात् । बाबादि-नवृत्तिपरिमाणादौ तु स्वाश्रय. समवेत्तवृतित्यसम्बन्धेन रूपस्य विरहात्र तत्र विषयतया चाक्षुषोत्याद इत्यन्चय-त्र्यतिरेकाभ्यां विषयनासम्बन्धन द्रव्य-द्रग्यवृत्तिगोचरचाक्षुघमात्रवृनिवजात्यावच्छिन्नं प्रति स्वाश्रयसमवेतवृनित्वसम्बन्धन रूपस्य कारणत्वावधारणान्न नीरूपघटतत्परिमाणादः चाक्षुषत्वा - नापतिः । एतेन विषयतया द्रव्यचाक्षर्ष प्रति स्वसमवायेनातरूपस्य कारणत्वं, द्रव्यवृत्तिपरिमाण्गादिचाक्षुषं प्रति च स्वसमवाय - गृत्तित्वसम्बन्धेनोद्धृतरूपस्य कारणत्वमिति निरस्तम्, गौरवात् । प्रकृतकल्प कारणवाचर्क रूपपदमुद्रतपरं ज्ञेयम, अन्यथा पिशाच-तत्परिमाणादिवानुपापनेः । स्वाश्रयसमवेतसमयतत्वसम्बन्धेन रूपस्य कारणत्वोक्तो तु नानारूपबदवयवसमवेतपदावृत्तिमहात्वादरचाक्षुषत्वमापत, नस्योपाधितया समवायातिरिकसम्बन्धन वृत्तित्वादित्यनः स्वाश्रयसमवेतवृनित्वसम्बन्धन कारणत्वा|| में नीलपीनाभयकपालजन्यघटस्थल में स्वाश्रयमम्बन्ध रे उत्पन्न होनेवाले नील रूप की सामग्री व्यापकतावच्छेदक सम्बन्ध से नहीं रहने की वजह समवाय सम्बन्ध में उत्पन्न हानवाले नील रूप की सामग्री भी च्याप्यतावच्छेदक सम्बन्ध से रहनी नहीं है। सिर्फ एकाद कारण होने की वजह कार्योत्पति की आपति नहीं दी जा सकती किन्तु कार्यसामग्री रहने पर ही कार्योत्पाद की आपत्ति दी जा सकती है। प्रस्तुत में नीलपीतकपालद्वयजन्य पद में समवाय सम्पन्ध से उत्पन्न होनेवाले, नील रूप की सामग्री ही नहीं होने में उसका आपादन नामुमकिन है - ऐसा अपर विद्वानों का वनव्य है।
" पविहीनघरवादी मतविशेण : कचित्तृ. इति । कुछ विद्वानों का यह वक्तव्य है कि. -> विभित्ररूपाने अवयरों में उत्पत्र घट में कोई भी रूप उत्पत्र होना नहीं है। यहाँ यह शंका हो कि > 'यदि उस घट में रूप ही नहीं है तब तो उस घट का चाक्षुप प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा, क्योंकि रूपविहीन द्रव्य का कभी किसीको कहाँ भी चाक्षुप प्रत्यक्ष होता नहीं है - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्यविषयक चाक्षुप प्रत्यक्ष में रूप को स्वतंत्र कारण न मान कर द्रव्य और द्रव्यसमवेन के चाक्षप के प्रति स्वाथयसमवंतवृत्तित्वसम्बन्ध में रूप को कारण मान लेने मे नीरूप घट का भी चाक्षुष प्रत्यक्ष होने में कोई बाधा नहीं हो सकती, क्योंकि नीरूप घट के चाक्षुप में कपालिकागत रूप स्वाश्रयसमनवृत्तित्वसम्बन्ध से कारण होगा और नीलघटसमवेत परिमाण, संख्या, संयोगादि के प्रत्यक्ष में कपालगत रूप स्वाययसमवेतवृनित्वसम्बन्ध मे कारण होगा । अतः नीरूप घट और उसमें समवेत
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२७४ मध्यमस्माद्भादरहस्ये खण्ड: ३ का. ९ * घटाकाशसंयांगाचाक्षुपत्वविचारः *
त्वात् । अत एव त्रुटिचाक्षुषानुरोधेन परमाणुन्दयकयोरपि सिद्धिरित्याहुः ।
वच्चिन्त्यम्, चित्रकपालिकास्थले तदसम्भवात् । किञ्च, घटाकाशसंयोगाद्यचाक्षुषत्वानुरोधेन * गयलता
भिधानमिति । लाघवानुरोधादतत्कल्पे द्रव्यतत्समवेतस्पार्शनसाधारण्येन स्पार्शनत्वावच्छिन्नं प्रति स्वाश्रयसमवेतवृत्तित्वसम्बन्धेनव स्पर्शस्य हेतुत्वमिति चेतसि प्रणिधातव्यम् ।
प्रकृतकल्पस्वीकारनान्तरीयकफलविशेषमावेदयन्ति
अत एव द्रव्य तद्वृतिसाधारणचाक्षुषं प्रति स्वाश्रयसमवेतवृत्तित्व| सम्बन्धन रूपस्य कारणत्वस्वीकारादेव त्रुटित्राक्षुषानुरोधेनेति, उपलक्षणात् 'त्रुटिपरिमाणादिचाक्षुषानुरोधेन इत्यपि द्रष्टव्यम्, परमाणुयणुकयोरपि सिद्धिः विषयतया व्यणुकचाक्षुपाश्रये व्यणुके स्वाश्रयसमवेतवृत्तित्वसम्बन्धेन परमाणुरूपस्यैव वृत्तित्वसम्भवात् त्र्यशुकस्य परमाणुरूपाश्रयपरमाणुसमंवतद्वयणुकवृत्तित्वात् विषयतया त्रसरेणुपरिमाणादिचाक्षुषाधिकरणं त्रसरेणुपरिमाणादी च स्वाश्रयसमवतवृत्तित्वसम्बन्धेन द्वयणुकरूपस्यैव वृत्तित्वसम्भवात् वसंरेणुपरिमाणादेः पशुकरूपाश्रयद्वयणुकसमवेत त्रुटिवृत्तित्वात् । परमाणु द्वद्मणुक्रानुपगमे तु गुणत्वावच्छिन्नस्य द्रव्यमात्रवृत्तित्वनियमेन त्रुटि तत्परिमाणादिचाक्षुषकारणचिरहसिद्ध्या त्रुटितत्परिमाणाद्यचाक्षुषमापद्येत । एतच्च प्रत्यक्षविरुद्धमिति निरुक्तकार्यकारणभावबलेन त्रुटितत्परिमाणादिचाक्षुषान्यधानुपपन्या परमाणुरूप द्व्यशुकरूपयाः सिद्धौ तदाश्रयतया परमाणु द्व्यणुकयोरपि सिद्धिरप्रत्यूहवेति केषाञ्चिदभिप्रायः ।
आहुरित्यनेन प्रकरणकृता स्वकीयाऽस्वरसोद्भावनं कृतम् । तदेव कण्ठत आवेदयति तचिन्त्यमिति । चिन्ताची जमेच प्रदर्शयति चित्रकपालिकास्थले नानारूपवदवयवारब्धकपालिकासमवेतकपालारब्धपदस्थले तदसम्भवात् - घटतत्सम|वेतपरिमाण संयोग कस्वप्रभूतिचाक्षुषाऽनुपपत्तेः । नानारूपवदवयवारम्भवदस्येव तत्र कपालिकाया नानाजातीयरूपवदवपवारच्यत्वेन नीरूपत्वसिद्धः तत्समचेतपालनीरूपत्वसिद्धया न नत्र घंटे स्वाश्रयसमवेतवृत्तित्वसम्बन्धेन कपालिकारूपं वर्तते न वा नदुद्घदसमवेतपरिमाणादी स्वाश्रयसमवेतद्वृत्तित्वसम्बन्धेन कपालरूपं वर्तते येन तचाक्षुषं सम्भवत् । सार्वजनीनञ्च नानारूपवदवयवारब्धकपालिकासमंवतकपालारब्धघट तत्परिमाणादिगीचरं चाक्षुषम् । ततश्चैतादृशच्यतिरेकव्यभिचारादेव न विषयतया द्रव्यतत्परिमाणादिचाक्षुषं प्रति स्वाश्रयसमवेतवृत्तित्वसम्बन्धन रूपस्य कारणत्वाभिधानं सङ्गतिमङ्गति ।
'इत्थञ्च तादृशघटस्य नीरूपत्वं तादृशघटवृत्तिसंयोगादिचाक्षुपं न स्यादिति वक्ष्यमाणग्रन्थप्रस्तावार्थमुपक्रमते किचेति । यदि विषयतया द्रव्य तत्समवेतगोचरचाक्षुषं प्रति स्वाश्रयसमवेतवृत्तित्वसम्बन्धेन रूपस्य कारणत्वं स्यात् तदा घटाकाशसंयोगादिचाक्षुषमपि स्यादव, कपालरूपस्य स्वाश्रयसमवेतवृत्नित्वसम्बन्धेन यदाकाशसंयोगादी सत्त्वात् घटाकाशसंयोगादः कपालरूपाश्रयकपालद्रव्यसमवेतगोचरसमवेतघटवृत्तित्वात् । न च तद् भवतीत्यतो घटाकाशसंयांगायचाक्षुफ्त्वानुरोधेन चानुपत्वावच्छिन्नं दोनों के चाप साक्षात्कार की अनुपपत्ति हो सकती नहीं है। ऐसा मानने से ही परमाणु और यणुक की भी सिद्धि हो सकती है, क्योंकि ज्यणुक = त्रुटि के प्रत्यक्ष के प्रति परमाणुगत रूप स्वाश्रयसमवेतवृत्तित्वसम्बन्ध से कारण होगा और त्रुटिसमवेत परिमाणादि के प्रति यणुकगत रूप स्वाश्रयसमवेतवृतित्वसम्बन्ध से कारण बनेगा । परमाणु का स्वीकार किये बिना त्रुटि के में त्र्यणुक चाकी उपपत्ति कथमपि संगत न होगी, क्योंकि स्व = परमाणुरूप के आश्रय = परमाणु में समवेत मणुक वृत्ति होने से परमाणु का स्वीकार करने पर ही स्वाश्रयसमवेतवृत्तित्य सम्बन्ध से परमाणुरूप के आश्रय व्यणुक के चाक्षुप की उपपत्ति होगी एवं त्रुटिंगत परिमाणादि के चाक्षुप की संगति हृयणुक के अङ्गीकार के बिना नामुमकिन है, क्योंकि स्व यणुक की मान्य करने पर ही स्वाश्रयसमवेतवृनित्यसम्बन्ध
=
शुकरूप के आश्रय = द्व्यणुक में वृत्ति (समवेत) त्र्यणुक होने से
से रूप के आश्रय त्रुटि के चाक्षुप की उपपत्ति हो सकती है। इस तरह द्रव्य और द्रव्यममवेत के चाय की साधारण कारणता का स्वीकार कर के स्वाश्रयसमवेतवृत्तित्वसम्बन्ध से ही रूप को उसका कारण मानना सुसंगत है'। <रूपविहीन घटवादी के मत की समालोचना
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तचिन्त्यम् इति । मगर प्रकरणकार श्रीमदजी का उपर्युक्त कथन के खिलाफ यह मन्तव्य है कि उक्त मत विचारणीय है, न कि बिना विचार किये स्वीकार्य । इसका कारण यह है कि चित्रकपालिका स्थल में उसका सम्भव नहीं है । अन्तर्निहितार्थ यह है कि जहाँ कपालिका ही विभिन्नरूपवदवयवों से उत्पन्न होगी वहाँ कपालिका भी नीरूप होगी । अतः उस स्थल में घट और घटसमवेत परिमाणादि के चाक्षुष साक्षात्कार की अनुपपत्ति होगी। कपालिका नीरूप होने से कपाल भी नीरूप डी होगा । तत्र कपालिकारूप स्वाश्रयसमवेतवृत्तित्वसम्बन्ध से घट में और कपालरूप स्वाश्रयसमवेतवृत्तित्वसम्बन्ध से घटसमवेत
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* नीरूपघटवादिकृतपरिष्कार: *
चानुषत्वावच्छेि प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन रूपाभावस्य प्रतिबन्धकत्वकल्पनमेवोचितम् । स्वावच्छिन्नगुणाधिकरणतावत्प्रत्यक्षत्वसम्बन्धेन पर्याप्तिमत: स्वावच्छिन्नाधेयतावदमुणप्रत्यक्षत्वसम्बन्धेन पर्याप्तिमत्त्वावच्छिनं प्रति हेतुत्वकल्पनेऽध्यव्यासज्यवृत्या
* गयlldचानुषमात्रवृत्तिवेजात्यावच्छिन्नं प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धन रूपाभावस्य प्रतिबन्धकत्वकल्पनमोचितम् । आकादशस्य नीरूपत्वंन घटाकाशसंयोगादी पाभावस्य स्वाश्रयममवतत्वसम्बन्धन सत्वात तस्य रूपाभावाश्रयाकाशसमबेनत्वात् । ततश्च नगनारूपबदवयवारश्चवटस्य नीरूपत्वोपगमे तत्समवेतपरिमाणसंयोगादरचाचपत्वमेब स्यादिनि न नानारूपवदवयवारब्धघटस्य नीरूपत्वाभ्युपगमः श्रेयानिति निहितार्थः ।
ननु याबदाश्रगप्रत्यक्ष सत्येव ब्यामन्यवृनिगुणप्रत्यक्षं भवति. न तु यत्किश्चिदाश्रयप्रत्यक्षे मतीति व्यासज्यनिगुणान्यक्षं प्रति यावदाश्रयप्रत्यक्षस्य हेतुत्वात न अदाकाशसंयोगादिप्रत्यक्षत्वातिरित्याशयन नारूपघटवाद्याह स्वावच्छिन्नगुणाधिकरणनाबन्प्रत्यक्षत्वसम्बन्धन पर्याप्तिमत इति। हेतुत्वकल्पन इत्यनेनास्य सम्बन्धः । स्वपदन पर्याप्तिग्रहणम् । तदवच्छिन्ना = पर्याप्तिरिशिष्टा या गुणाधिकरणता = मंयोगादिगुणनिष्ठाधेयत्तानिरूपिता अधिकरणना नद्वत् यत् घट्पटादि वस्तुजानं तदोरं प्रत्यक्ष म्याग्छिन्नगुणाधिकरणतावद्विषयकान्यमलगम्चन्भेन प्राप्तिम्न निति । निरुक्तसम्बन्धन पर्याप्तिमतः प्रत्यक्षस्यैव स्रावञ्चिन्नाधेयताबद्गुणप्रत्यक्षत्वसम्बन्धेन पर्याप्तिमत्त्वावचिन्न प्रति हेतुत्वकल्पने नानारूपवदवयवारब्धघटपटसंयोगादिगांचरं चाक्षुषं निरातङ्कम । तथाहि 'वटपटयोः मयोग' इत्याद्याकारकस्य कार्यभूतस्य प्रत्यक्षस्य पर्याप्त्यवच्छिन्ना या ताशघटपटनिष्ठाधिकरणता ननिरूपिता या नादशघटपटसंयोगनिष्ठा आधेयता तद्वत्संयोगादिगोचरचाक्षुषत्वन कार्यतावच्छेदकतावच्छेदकीभूनस्वाच्छिन्नाधिकरणतानिहापिताधयनाबद्गुणविषयकप्रत्यक्षत्त्वसम्बन्धन पर्यासिविशिष्टतया कार्यतावच्छेदकीभूतचिपयत्तासम्बन्धन नाशघटादिवृत्तित्वात् तादृशघटादावर कारणतावच्छेदकी भूत्तविषयतासम्बन्धन तानशघटादिगोचरं तन प्रत्यक्ष वतन यत् कारणतावच्छेदकतवजंदकीभूतन म्बायन्छिन्नगणाधिकरणताबद्रांचर प्रत्यक्षल्बसम्बन्धन पर्याप्तिमद्धति । यदा च कंबलं घटगोचरं पटगोचरं
परिमाणादि में न रहने से नहाँ विपयता सम्बन्ध से चाक्षुप साक्षात्कार की कथमपि सङ्गति न होगी । इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि द्रव्य-द्रव्यसमवेतचाक्षुप के प्रति स्वाश्रयसमवेतवृत्तित्वसम्बन्ध में रूप को कारण मानने पर तो घटाकाशसंयोगादि के भी प्रत्यक्ष की आपनि आयेगी, क्योंकि आकाश नीम्प होने पर भी कपाल रूपवान होने से कपालरूप के आश्रय कपाल में समवंत घट में घटाकाशसंयोग आदि वृत्ति होने से उसमें स्वाश्रयसमवेतवृत्तित्वसम्बन्ध सं रूप रहता है। मगर घटाकाशसंयोगादि का चाक्षुप होता नहीं है - यह तो सर्वजनविदित है । अतः घटाकावासयोगादि के अचाक्षुप के अनुरोध से द्रव्यसमवेतगांचर चाक्षुप के प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध में रूपाभार को प्रतिबन्धक मानना ही पड़ेगा, चूंकि तभी रूपाभाव के आश्रय आकाश में सभवेन घटआकाशमयोग आदि में स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से रूपाभाव रहने में विपयतासंबन्ध से वहाँ घटाकाशसंयोगादिगोचर चाक्षुप न हो सकेगा। इस तरह जर व्यसमचंतविषयक चाक्षुप के प्रति स्वाश्रयममवेतत्वसम्बन्ध से रूपाभाव को प्रनिरन्धक मानना आवश्यक ही है तब तो नानारूपबदनरचारन्य घट को नीरूप मानन पर उस घट में समवेत संयोगादि का चाक्षुष न हो सकेगा, क्योंकि रूपाभाव के आश्रय उस घट में समवेन से संयोगादि में स्वाश्रयसमवंतत्वसम्बन्ध से रूपाभाव रह जायेगा, जो वहाँ विषयता सम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाले तादृशघटसंयोगादिविषयक चाक्षुष का प्रतिरन्धक होता है।
घटाकाशसंयोगादि के चाक्षुषको उपपत्ति का प्रयास स्वावन्धि इति । यहाँ नीरूपयटवादी की ओर से यह कहा जा सकता है कि -> 'व्यासज्यवृत्ति गुण के प्रत्यक्ष के || प्रति पारदाश्रयगोचर प्रत्यक्ष हेतु है। इसको नन्य न्याय की परिष्कृत शैली से बनाना हो तो यह भी कहा जा सकता है कि स्वावच्छिबाधेयताविशिष्टगुणविषयकात्पक्षत्व सम्बन्ध से पर्याप्तिविशिष्ट प्रत्यक्ष विषयतासम्बन्ध से कार्य है और स्वावच्छित्रगुणाधिकरणतावद्विपयकप्रत्यक्षत्व सम्बन्ध से पर्याप्तिविशिष्ट प्रत्यक्ष विपयतासम्बन्ध से कारण है । यहाँ कार्यतावच्छेदक धर्म पर्याप्ति है और कारणतावच्छंटक धर्म भी पर्याप्ति ही है। कार्यतारनंदक सम्बन्ध है विषयता और कारणतावच्छेदकसम्बन्ध भी है विषयता । कार्यतावच्छंटकतावच्छेदक मम्बन्ध यानी कार्य में कार्यनावच्छेदक का रहने का सम्बन्ध है स्वावच्छिन्त्राधेयनाबद्धणगोचरप्रत्यक्षत्व संसर्ग और कारणतावच्छेदकतावच्छेदक सम्बन्ध यानी काग्णतावच्छेदकविधया अभिमत धर्म का कारण में रहने का नियामक सम्बन्ध है स्वावच्छिन्त्रगुणाधिकरणताचतिपयकप्रत्यक्षत्व मंसर्ग । अवच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्धयटकीभूत स्वपद से पर्याप्ति का ग्रहण अभिमत है। जैसे घटपटउभय का चाक्षुष होता है तब वह शाप स्वावच्छिन्नगुणाधिकरणतावद्विपयकप्रत्यक्षत्वसम्बन्ध में पर्याप्तिनिशिष्ट
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५७४ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः ३ . का.. * घटाकाशसंपांगापासूपत्वविचार* त्वात् । अत एव शुदिचाक्षुषानुरोधेन परमाणुन्दयणुकयोरपि सिन्दिरित्याहुः । तचित्यम्, चित्रकपालिकास्थले तदसम्भवात् । किर, घटाकाशसंयोगाधचाक्षुषत्वानुरोधोन
-* जयलता *भिधानमिति । लाघवानुरोधादतन्कल्पे द्रव्यतत्समवनस्पार्शनसाधारण्यन स्पानित्यावच्छिन्नं प्रति स्वाश्रयसमवतवृत्तित्वसम्बन्धेनंब स्पर्शस्य हेतुल्यमिति चेतसि प्रणिधातव्यम् ।।
प्रकृतकल्पस्वीकारनान्तरीयकफलविशेषमावेदयन्ति -> अत एव = द्रव्य-तद्वृनिसाधारणचाक्षुषं प्रति स्वाश्रयसमवनवृतित्वसम्बन्धेन रूपस्य कारणत्वस्वीकारादेव, त्रुटित्राक्षुपानुरोधेनेति, उपररक्षणात् 'त्रुटेपरमाणादचाक्षुषानुरोधेन' इत्यपि द्रष्टव्यम, परमाणुव्यणुकयोरपि सिद्धिः, विषयतया व्यणुकचाक्षुपाश्रये व्यगुक स्वाश्रयसमवेतवृत्तित्वसम्बन्धन परमाणुमपस्यच वृतित्वसम्भवात. त्र्यणुकस्य परमाणुरूपाश्रयपरमाणुसमक्तद्वयणकवृत्नित्वात्. विषयतया त्रसरेणुपरिमाणादिचानुपाश्विकरणे बसरे गुपरिमाणादी च स्वाश्रयसमंवतवृत्तित्वसम्बन्धन द्वयणुकरूपस्यैव वृत्तित्वसम्भवात, त्रसंरणुपरिमागादेः व्यणुकरूपाश्रयणुकसमवेतटि| वृत्तित्वात । परमाणु-द्वपणुकानुपगमं तु गुणत्वावन्छिन्नस्य द्रव्यमात्रवृनिवनियमन त्रुटि-तपरिमाणादिचाक्षुषकारणचिरहमिद्धया
टितत्परिमाणाद्यचाक्षषमापद्येन । एतच्च प्रत्यक्षविरुदमिति निरुक्तकार्यकारणभावबलेन दितत्परिमाणादिचारूपान्यधानपपन्या परमाणुरूप-द्वयगुकरूपयोः सिद्धी नदाश्रयतया परमाणु-यणकयोरपि सिद्धिरप्रत्यहंति केषाश्चिदभिप्रायः ।
आहुरित्यनेन प्रकरणकृना स्वकीया:म्वरसादावनं कृतम् । तदेव कण्ठत आवेदयति । तच्चिन्त्यमिति | चिन्ताचीजमंच प्रदर्शयति - चित्रकपालिकास्थले नानारूपबदबायवारकपालिकासमवेतकपालारब्धघटस्थले, तदसम्भवात् = घटतत्समवेतपरिमाण-संयोगकत्वमभूतिचाक्षणानुपपत्तेः । नानारूपवदवयवारचघटस्येव नत्र कपालिकाबा नानाजातीयरूपरदचयवारब्धत्वन नारूपवसिद्भः तत्समदंतकपालनारूपत्वचिद्भया न नत्र घटे स्वाश्रयसमवेतवृतित्वसम्बन्धन कमालिकारूपं वर्तते, न वा नघटसमवतपरिमाणादी स्वाश्रयसमवनवृत्तित्वसम्बन्धेन कपालरूपं वर्तते येन चाक्षुष सम्भवत् । सार्वजनीनच नानारूपावदवयवारब्धकपालिकासमवंतकपालारब्धघट-तत्परिमाणादिगोचरं चाक्षुषन । ततश्चलादान्यतिरकन्यभिचागंदव न विषयतया द्रव्यनरपरिमाणादिचाक्षुषं प्रनि स्वश्रयसमवेतवृनित्वसम्बन्धेन रूपस्य कारणत्वाभिधानं सङ्गनिमङ्गति ।
'इत्यश्च नाशघटस्य नीरूपत्वं नादृशघटवृत्तिसंयोगादिचाक्षुषं न स्यादि ति वश्यमाणग्रन्थप्रस्तावार्थमुपक्रमते । किनति । यदि विषयतया द्रव्य -तत्समवेतगोचरचाक्षुष प्रति स्वाश्रयसमवनवृत्तित्वसम्बन्धन रूपस्य कारणत्वं स्यात तदा घटाकादासंयोगादिचाक्षुषमपि स्यादव, कपालरूपस्य स्वाश्रयसमवेनवृत्तित्वसम्बन्धन वटाकारागयोगादी सन्चात, घटाकादासंयंगादः कपालरूपाश्रयकपालसमवतघटवृत्तित्वात् । न च तद् भवतीत्यतो घटाकाशमयांगायचाक्षुषत्वानुरोधेन चाचपत्वावच्छिनं = द्रव्यसमवतगोचरदोनों के चाक्षुप साक्षात्कार की अनुपपनि हो सकती नहीं है। ऐसा मानने में ही परमाणु और दूयणुक की भी सिद्धि हो सकती है, क्योंकि व्यणुक = त्रुटि के प्रत्यक्ष के प्रति परमाणुगत रूप स्वाश्रयसमवेतवृत्तित्वसम्बन्ध से कारण होगा और त्रुटिसमवन परिमाणादि के प्रति व्यणुकगत रूप स्वाश्रयसमवेतवृतित्वसम्बन्ध में कारण बनेगा । परमाणु का स्वीकार किये बिना त्रुटि के चाक्षुप की उपपत्ति कथमपि संगन न होगी, क्योंकि स्व = परमाणुरूप के आश्रय = परमाणु में समवेत दयणुक में त्र्यणुक वृत्ति होने से परमाणु का स्वीकार करने पर ही स्वाश्रयसमवनवृत्तित्य सम्बन्ध मे परमाणुरूप के आश्रय व्यणुक के चाक्षुष की उपपत्ति होगी । एवं त्रुटिगत परिमाणादि के चाक्षुप की मंगति द्वयणुक के अङ्गीकार के बिना नामुमकिन है, क्योंकि स्व = द्यणुकरूप के आश्रय = द्वयणुक में वृत्ति । समवन) त्र्यणुक होने म दयणुक को मान्य करने पर ही स्वाभपसमवेतवृनित्वसम्बन्ध मे द्वयणुकरूप के आश्रय त्रुटि के चाक्षुप की उत्पति हो सकती है। इस तरह द्रव्य और द्रव्यसमवन के चाक्षुप की साधारण कारणता का स्वीकार कर के स्वाश्रयसमवंतवृनिन्वसम्बन्ध में ही रूप को उसका कारण माननः सुसंगत है' । <
नरूपविहीनघटनादी के गत की जालोचन! - चिन्त्यम्. इनि । मगर प्रकरणकार श्रीमद्नी का उपर्युक्त कथन के खिलाफ यह मन्तव्य है कि उक्त मत विचारणीय है, न कि रिना विचार किये स्वीकार्य । इसका कारण यह है कि चित्रकपालिका स्थल में उसका सम्भव नहीं है। अन्तर्निहितार्थ पह है कि जहाँ कपालिका ही विभिन्नरूपबदवयवों से उत्पन्न होगी वहाँ कपालिका भी नाप होगी । अतः उस स्थल में घट और घटसमवेत परिमाणादि के चाक्षुप साक्षात्कार की अनुपपनि होगी। कपालिका नीरूप होने से कपाल भी नीरूप ही होगा। तब कपालिकारूप स्वाश्रयसमवंतवृत्तित्वसम्बन्ध में घट में और कपालरूप स्वाश्रयममपतवृत्तित्वसम्बन्ध से घटसमवेत
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* नीरूपपटवादिकृतपरिष्कारः
चाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन रूपाभावस्य प्रतिबन्धकत्वकल्पनमेवोचितम् । स्वावच्छिन्नगुणाधिकरणतावत्प्रत्यक्षत्वसम्बन्धेन पर्याप्तिमतः स्वावच्छिन्नाधेयतावद्गुणप्रत्यक्षत्वसम्बन्धेन पर्याप्तिमत्वावच्छिन्नं प्रति हेतुत्वकल्पने ऽप्यव्यासज्यवृत्याजै जयलवा कै
Gya
चाक्षुषमात्रवृत्तिबैजात्यावच्छिन्नं प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन रूपाभावस्य प्रतिबन्धकत्वकल्पनमेोचितम् । आकाशस्य नीरूपत्वेन घटाकाशसंयोगादी रूपाभावस्य स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन सत्त्वात् तस्य रूपाभावाश्रवाकाशसमवेतत्वात् । तलव नानारूपवदवयवारब्धघटस्य नीरूपत्वापगमे तत्सभवेतपरिमाणसंयोगादेरचाक्षुषत्वमेव स्पादिति न नानारूपवदवयवाव्ययस्य नीरूपत्वाभ्युपगमः श्रेयानिति निहितार्थः ।
ननु यावदाश्रयप्रत्यक्षे सत्येव व्यासज्यवृत्तिगुणप्रत्यक्षं भवति न तु यत्किञ्चिदाश्रयप्रत्यक्षं सतीति व्यासज्यवृत्तिगुणप्रत्यक्षं काशसंयोगादिप्रत्यक्षत्वापनिरित्याशयेन नीरूपपटवायाह स्वावच्छिन्नगुणाधिकरणतः
| वत्प्रत्यक्षत्वसम्बन्धेन पर्याप्तिमत इति । हेतुत्वकल्पने इत्यनेनाऽस्य सम्बन्धः । स्वपदन पर्याप्तिग्रहणम् । तदवच्छिन्ना | यप्तिविशिष्टा या गुणाधिकरणना = संयोगादिगुणनिष्ठागतानिरूपिता अधिकरणता तद्वत् यत् घटपटादि वस्तुजातं तद्गोचरं प्रत्यक्षं स्वावच्छिन्नगुणाधिकरणतावद्विषयकप्रत्यक्षत्वसम्बन्धन पतिमत् भवति । निरुक्तसम्बन्धन पर्याप्तिमतः प्रत्यक्षस्यैव स्वावच्छिन्नाधेयतावद्गुणप्रत्यक्षत्वसम्बन्धेन पर्याप्तिमत्त्वावच्छिन्नं प्रति हेतुत्वकल्पने नानारूपवदवयवारयदपदसंयोगादिगीचरं चाक्षुषं निरातङ्कम् । तथाहि घटटयोः संयोग' इत्याaareera कार्यभूतस्य प्रत्यक्षस्य पर्याप्त्यवच्छिन्ना या तादृशघटपट निष्ठाधिकरणता तनिरूपिता या तादृशघटपटसंयोगनिष्ठा आधेयता तद्वत्संयोगादिगोचरचाक्षुषत्वेन कार्यतावच्छेदकतावच्छेदकभूतस्यावच्छिन्नाधिकरणतानिरूपिता श्रेयतावद्गुणविषयकप्रत्यक्षत्वसम्बन्धन पर्याप्तिविशिष्टतया कार्यतावच्छेदकीभूतविषयतासम्बन्धेन तादृशघटादिनित्यान तादृशपदादावेव कारणतावच्छेदकीभूतत्विषयतासम्बन्धेन नाशादिचरं तत् प्रत्यक्षं वर्तत यत् कारणताबच्छेदकतावच्छेदकीभूतन स्वावच्छिन्नगुणाधिकरणतावचत्प्रत्यक्षत्वसम्बन्धेन पर्यामिति । यदा च केवल घटीचरपटगीचरं
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| परिमाणादि में न रहने से वहाँ विपयता सम्बन्ध से चाक्षुष साक्षात्कार की कथमपि सति न होगी । इसके अतिरिक्त यह [ भी ज्ञातव्य है कि द्रव्य-द्रव्यसमवेतचाप के प्रति स्वाश्रयसमवेत्तवृतित्वसम्बन्ध से रूप को कारण मानने पर तो घटाकाशसंयोगादि के भी प्रत्यक्ष की आपत्ति आयेगी, क्योंकि आकाश नीरूप होने पर भी कपाल रूपवान् होने से कपालरूप के आश्रय कपाल में ममत्रेत घट में पटाकाशसंयोग आदि वृत्ति होने मे उसमें स्वाश्रयसमवेतवृतित्वसम्बन्ध से रूप रहता है। मगर घटाकाशसंयोगादि का चाक्षुष होता नहीं है - यह तो सर्वजनविदित है | अतः घटाकाशसंयोगादि के अचाप के अनुरोध से इव्यसमवेतगोचर चाक्षुष के प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से रूपाभाव को प्रतिबन्धक मानना ही पडेगा, चूंकि तभी रूपाभाव के आश्रय आकाश में समवेत घट आकाशसंयोग आदि में स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से रूपाभाव रहने से विपयतासंबन्ध से वहां घटाकाशसंयोगादिगोचर चाक्षुष न हो सकेगा । इस तरह जब द्रव्यसमवेतविषयक चाक्षुष के प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से रूपाभाव को प्रतिबन्धक मानना आवश्यक ही है तब तो नानारूपवदवयवारब्ध घट को नीरूप मानने पर उस घर में समवेत संयोगादि का चाक्षुष हो सकेगा, क्योंकि रूपाभाव के आश्रय उस घट में समवेत ऐसे संयोगादि में स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से रूपाभाव रह जायेगा, जो वहाँ विपयता सम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाले तादृशघटसंयोगादिविपयक बाप का प्रतिबन्धक होता है ।
* घटाकाशसंयोगादि के अचाक्षुष की उपपत्ति का प्रयास
स्वच्छ इति । यहाँ नीरूपघटबादी की ओर से यह कहा जा सकता है कि > 'व्यासज्यवृत्ति गुण के प्रत्यक्ष के प्रति यावदाश्रयगोचर प्रत्यक्ष हेतु है। इसको नव्य न्याय की परिष्कृत शैली से बनाना हो तो यह भी कहा जा सकता है कि स्वावच्छिबाधयताविशिष्टगुणविषयकप्रत्यक्षत्व सम्बन्ध से पर्याप्तिविशिष्ट प्रत्यक्ष विपत्तासम्बन्ध से कार्य है और स्वावच्छिन्नगुणाधिकरणताद्विपयकप्रत्यक्षत्व सम्बन्ध से पर्याप्तिविशिष्ट प्रत्यक्ष विपयतासम्बन्ध से कारण है । यहाँ कार्यतावच्छेदक धर्म पर्याप्त है और कारणतावच्छेदक धर्म भी पर्याप्त ही है। कार्यतावच्छेदक सम्बन्ध है विपयता और कारणतावच्छेदकसम्बन्ध भी है विषयता । कार्यतावच्छेदकतावच्छेदक सम्बन्ध यानी कार्य में कार्यतावच्छेदक का रहने का सम्बन्ध है स्वावच्छिनापतावणगोचरप्रत्यक्षत्व संसर्ग और कारणतावच्छेदकतावच्छेदक सम्बन्ध यानी कारणतावच्छेदकविधया अभिमत धर्म का कारण में रहने का नियामक सम्बन्ध है स्वावच्छिन्नगुणाधिकरणत वद्विषयकप्रत्यक्षत्व संसर्ग । अवच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्धघटकीभूत स्वपद में पर्याप्ति का ग्रहण अभिमत है। जैसे घटपटउभय का चाक्षुप होता है तब वह चाश्रुप स्वावच्छिन्नगुणाधिकरणतावद्विषयकप्रत्यक्षत्वसम्बन्ध से पर्याप्तिविशिष्ट
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.: ७६, मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः ३ . का.९ * अव्यामज्यवृन्याकाशगुणा चाक्षुषोपपादनम * काशादिगुणाऽचाक्षुषत्वोपपतये रूपवत्वस्य प्रत्यासतिघटकत्वे गौरवात् । न च स्पर्श
-* जयलता हैवा चाक्षुषं भवति तदा घटादी कारणनावच्छेदकतारन्छेन्दकीभूतस्वावच्छिन्नगुणाधिकरणतावात्पाद सम्बन्धावच्छिन्नाधयना - वल्पयामिमतः प्रत्यक्षस्य कारणलावच्छेदकीभूतविषयतासम्बन्धेनाध्वर्तमानवान नत्र 'धरपटयाः संयोग' इत्याद्याकारकं चाक्षुषं कार्यतावच्छेदकीभूतविषयतासम्बन्धेनापजायते यत् कार्यतावच्छेदकतावच्छेदकाभूतस्याबन्दिमाधयनावद्गविषयकप्रत्यक्षत्वसम्बन्धेन कार्यतावच्छंदकीभूतपर्याप्तिमद्भयति । अत एव घटाकावासंयोग दिचाक्षुषापनिरपि निश्वकाशा, आकादास्याचा पत्त्वेन घटमात्रगोचरचाक्षुषम्म पर्याप्त्यवच्छिन्नघटाकाशगयांगादिगणाधिकरणताश्रन्यात्रिपकवन स्वाच्छिन्दगुणाधिकरणतावत्प्रत्यक्षत्वसम्बन्धन एयसिमन एवामप्रसिद्भया विषयतया तत्कारणाधिकरणस्या:प्यप्रांगदत्यनागदनाउसम्भवात् । विषयतया पात्यपश्छिन्नगुणाधिकरणताबद्नांचरग्रत्यक्षस्य विषयतया पर्याप्त्वनिछन्नाधेयतावद्गणविषयकप्रत्यक्षं प्रति हेतुत्यमित्युको कार्यताबन्दक-कारणताचन्नछेदकधर्मगौरवमापनेत । अतः स्वावच्छिन्नगुगाधिकरणतावत्प्रत्यक्षत्वसम्बन्धन पयांतिमतः स्वावच्छिन्नाधेयताबद्गुणात्यशत्वसम्बन्धेन पर्याप्तिमत्त्वावच्छिन्नं प्रति हेतुत्वमित्युनम् । प्रकृते करगताबच्छेदकं कार्यतावच्छेदकञ्च पर्याप्तिमत्त्वमेव, कारणतावच्छेदकताबच्छेदकः सम्बन्ध: स्वावच्छिन्नाधारतावतात्यक्षत्वं, कारणताचच्छेदकसम्बन्धश्च स्वविषयत्तिता, कार्यतावच्छेदकतावच्छंदकः सम्बन्धः स्वावच्छिन्नाधेयनावत्प्रत्यक्षत्वं कार्यतावच्छेदकसम्बन्धश्च विशेष्यतेति नाननगमः । न चात्र कार्यतावच्छेदकतावबंदकसम्बन्धगौरवमाझड़कनीयम, अवच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्धगौरबस्यानोपल्यात् । एमञ्च नानारूपवदवयवारब्धघटादेः नारूपत्वाभ्युपगमोऽपि निहतीति प्रतिवादिनाभिप्रायः ।
प्रकरणकार: ननिरासार्थमाह- अपीति । निरुताकार्यकारणभावस्वीकारण घटाकाशसंयोगायचाक्षप-नारूपघटनत्यमवेतचानुपाशुपपादन:पि, अव्यासज्यवृत्त्याकाशादिगुणाऽचाचपन्योपपनय इते । विषयतासम्बन्धेन द्रव्यसमवेतविषयकं चाक्षुपं प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धन रूपाभावस्य प्रतिबन्धकत्वानुपगमे त्वाकादशादिगणगौचरमपि चाक्षुषमुपजायेत, चक्षुषः स्वसंयुक्तसमवग्यसम्बन्धन भन्दादावाकाशादिगण सच्चान, शदादासज्यवृतित्वाइभावेन विषयतासम्बन्धेन तच्चाक्षुषं प्रति स्वावचिन्त्रगुणाधिकरणतावत्यक्षत्वसम्बन्धेन पर्याप्तिमत: प्रत्यक्षस्य विषयतासम्बन्धनाऽतुत्वेन अनपेक्षणात् । न च विषयतासम्बन्धन न्यसमवेतगोचरचाक्षु प्रति चक्षुषों न स्वसंयुक्तमनवायन हनुत्वमपि तु स्वसंयुक्तम्पसमवाचिद्रत्र्यसमवायसम्बन्धनब हतुवमिति नाकाशादिगुणचाक्षुषापनि:, आकाशाद नीरूपत्त्वादिति वक्तव्यम्, अन्यासज्यवृत्याकाशादिगुणाऽचाक्षुषत्वोपपत्तये रूपवत्त्वस्य = रूपप्रतियोगिकसमवायवच्चस्य प्रत्यासत्तिघटकत्वं = द्रव्यसमवेतचाक्षुपनिरूपिनकारणतावादकसम्बन्धकक्षिप्रविष्टत्वे, गौरवात् । बनता है; क्योंकि वह घटपटसंयोगात्मक गुण की अधिकरणता, जो पटापटउभप में पर्याप्त होने से पर्यासिरिशिष्ट है, के आश्रय घटपटउभयविषयक है। निरुक्तसम्बन्ध से पर्याप्तिविशिष्ट घटपटउभयगंचरप्रत्यक्ष विपयतासम्बन्ध से घटादि में रहता है। अत: स्वावच्छिन्नाधेयतावद्वणविषयकप्रत्यक्षत्वसम्बन्ध से पर्याप्तिविशिष्ट प्रत्यक्ष, जो पर्याप्त्यवग्निाधिकरणता से निरूपित आधयना के आश्रय संयोग गुण को अपना विपय ग्नाने की बजह 'घटापटयो। स्यांगः' इत्याकारक कार्यात्मक होता है, भी प्रकारलाग्यविषयतासम्बन्ध से घटादि में ही रहेगा । इस तरह कार्य-कारण के समानाधिकरणच की भी उपपति हो सकती है। इस कार्यकारणभाव को मान्य करने की वजह घटाकाशसंयोग आदि के चाक्षुप प्रत्यक्ष की आपनि नहीं आयेगी, क्योंकि आकाश नीम्प होने की वजह चाक्षुप का विषय न होने में केवल घट का ही चाक्षुप होगा, जो पर्याप्तिविशिष्ट घटाकाशमयोगादिगुणनिरूपिताधिकरणता के आश्रय घटआकाशउभय को अपना विपय नहीं बनाने की वजह स्वाच्छित्रगुणाधिकरणतावद्विपयकप्रत्यश्चत्वसम्बन्ध से पोनिविशिष्ट नहीं है। इस तरह कारणतावच्छेदकतावदलसम्बन्ध से कारणतावच्छेदकधर्मविशिष्ट घराकाशमपानादिचाक्षुपकारण ही प्रसिद्ध नहीं है, तब घटाकाशसंयोगादि में विपयतासम्बन्ध में चाक्षुप की उत्पनि का आपादन करना कैसे संगत होगा ? निरुक्त कार्य-कारणभाक को मान्य करने से ही घटाकाशसंयोगाति के चाक्षुष की आपति का परिहार हो जाता है नत्र द्रव्यसमवेनगोचरचाक्षुप के प्रति स्वाधयसमरेतत्वसम्बन्ध से रूपाभाव को प्रतिबन्धक मानने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। इस परिस्थिति में नानारूपवदवयवारब्ध घट को नीरूप मान कर द्रव्य - द्रव्यसमवेतचाक्षुष के प्रति स्वाश्रयसमवेतवृतित्वसम्बन्ध में रूप को ही कारण मानने का जो पूर्व में प्रतिपादन किया गया था वही सुसंगत है । -
सपाभार में द्रत्यासमवेतगोचारचाक्षुषप्रतिषत समर्थन में अप्यन्या.इनि । मगर प्रकरणकार श्रीमदजी उपर्युक्त वक्तव्य के खिलाफ अपने मन्तव्य को व्यक्त करते हुए कहते हैं
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* चाक्षुषप्रयोजकप्रनिपाटनम * शब्दावल्यतमभेदस्य चाक्षुषप्रयोजकत्वात् स्यादेरित शब्दादेरपि तत्वतत्त्वेन चाक्षुषाऽहेतुत्वादेव वा नाकाशादिगुणचाक्षुषापतिरिति तास उदासीनप्रवेशाप्रवेशाभ्यां विनिगमनाविरहेणाऽखाण्ड
-* जयला * व्यासज्यवृत्तिगुणप्रत्यक्षे याचदाश्रयप्रत्यक्षस्य हेतुत्वकल्पनं, च्यासन्यवृनिगुणचाक्षुषे च चक्षुषः स्वगंयुक्तरूपममवापिसमवायसम्बन्धन हेतुत्वकल्पन; तदपेक्षया चाचपं प्रति रूपाभावस्यैव प्रतिबन्धकत्वकल्पनचांचिता । नथा च नानाविजातीयरूपबदवपवारब्धघटस्य नीरूपत्वे तत्समवेतसंयोगादिचापं नैव स्यान, तत्संयोगादा स्वाश्रयसमवयन रूपाभावस्य सत्वादिति निहितार्थः ।
ननु मया नानारूपबदन्यवारश्चनीरूपयट्यादिना विषयतासम्बन्धन द्रव्यममतचाक्षुपं प्रति चक्षुषः स्वसंग कममवायनव कारणत्वमयतेन त स्वसंरक्तरूपसमवायिसमवायेति न करणतायछंदप्रत्यानिगौरवम् । न चाकाशादिगुणगौचरनाक्षपापनिदनिवारयापदर्शितरीत्यति वाच्यम, विषयनासम्बन्धन नाश्च पनि बम्पसम्बन्धन गलां-शब्दावन्यनमन्वाच्छिन्त्रप्रतियोगिताक. || भदस्य कारणत्वाभ्युपगमेनैव तत्प्रच्यचात्, शदादी स्पर्दा- शब्दाद्यन्यनमत्वस्य भवन नरवच्छिन्नमनिया गिताकान्यान्याभावम्य विरहात. भदस्य स्वप्रनिनागिताबन्दकेन समं विरोधादित्याद्याशहां निराकरीमपक्षिति ->न चेति । दायमित्यनना स्यान्वयः । स्पर्श-शब्दाद्यन्यतमभेदस्य = स्वरूपसंसर्गण स्पर्श-शब्द-रग-गन्ध-गुरुत्व-ज्ञाना -कृनि-नगनपरिमाणाद्यन्यननत्वावचिन्न - तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नतियोगिताकामावस्य, चाक्षरप्रयोजकत्वात = विषयतासम्बन्धन चाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति हतत्वान, नाकाशादिगागचापापनिरित्यत्रान्वीयते । भारितार्थमेव । गत्यता गगनादिगणनाक्षप्रमुपपादपति - स्पर्शादरित्र शब्दादेरपि तत्त्वतत्त्वेन = शब्दत्व-गगनपरिमाणत्यादिना विषयविधया चाक्षुपा तत्वादव वेति । यथा स्पर्श स-ग-ध-गुरुत्वादि स्पर्गच. रसत्व-गन्धत्व-गुरुत्वत्वादिना विषयविश्या चाशुषत्वावच्छिन्नं प्रनि अहंतुः = प्रतिबन्धकः इति न पशादी स्वसंयुक्तसमवायन चक्षुः सञ्चागि विषयतासम्बन्धन चक्षुषमपजायते तधन शब्द-गगनपरिमाणादिः विषयविधया मान्दत्त-गमनपरिमाणदिन चाक्षुषत्वावन्छिन्नं प्रति अहतः = प्रतिबन्धक इति शब्दाद स्वर्गय नरामयागन चक्षुषः मन्नेपि न विषयतासम्बन्धन चाक्षुषोत्पत्ति भवितुमर्हति। अत एव विजानीया कम्पबदययवारब्धघटस्य नारूपत्वपिन तत्संयोगाद्यचाक्षुषाचप्रसङ्गः सावकागः, रूपाभावस्य प्रतिबन्धकताकलानादिति फकिकार्थः।
करणकारः तन्निराकुरुते - उदासीनप्रवेश प्रवेशाभ्यां = चाक्षपत्वावच्छिन्नकारणीभूतभेदतियागिकुक्षा उदासननिवेशा:कि → उपर्युक्त रीति से व्यासज्यवृत्तिगुणप्रत्यक्ष के प्रति याबदाश्रयगोचर प्रत्यक्ष को कारण मान कर घटाकाशमयोगादि के चाक्षुप की आपत्ति का निवारण करने पर भी आकाशादि के अव्यासज्यवृनि शब्दादि गण के चाक्षुप की आपनि मुंह फाई खष्टी रहती है। मतलब कि स्वसयुक्तसमवाय सम्बन्ध से चक्षु इन्द्रिय शब्द में, जो क चक्षुसंयुक्त आकाश में समवेत है, रहने से उसमें विषयता सम्बन्ध में चाक्षुष प्रत्यक्ष उत्पन्न होना चाहिए । शन्न तो केवल आकाश में ही समनाय सम्बन्ध से रहने से अच्यासज्यवृत्ति गुण होने की वजह उसके प्रत्यक्ष के प्रति तो यावाश्रयप्रत्यक्ष यानी स्वावद्रियगुणाधिकरणनाबत्प्रत्यक्षत्वसम्बन्ध से पर्याप्तिमत् प्रत्यक्ष विषयनासम्बन्ध से कारण ही नहीं होने से उसकी अपेक्षा नहीं रहेगी । यदि उन्नत आपत्ति का चारण करने के लिए ऐसा कहा जाय कि -> 'इव्यसमवेतविषयक चाक्षुप के प्रति चक्षु स्वसंयुक्तसनबाप सम्बन्ध से कारण नहीं है किन्तु स्वसंपुक्त-रूपसमवायिव्य समवाय सम्बन्ध में कारण है । आका रूपसमवायिद्रव्य नहीं होने चक्षु स्वसंयुक्त-रूपसमचायिद्रव्यममवाय सम्बन्ध से शब्द में न रहने की बजह शब्दादि के चाक्षुप साक्षात्कार की भापति को अवकाश | नहीं है' <- तो यद्यपि शन्दादि के अचाक्षुप की नो उपपनि हो जायेगी मगर कारगतावच्छेदक प्रत्यासनि के मध्य में रूपचन्न * रूपसमवायित्व का प्रवेश होने की वजह गौरव दोष प्रसन्न होगा । स्वमंयुक्तममवाय की अपेक्षा ग्वसंयुक्तरूप. समयायिव्यानुयोगिकसमवायसम्बन्ध का कारणनावटक मानने में गांव ना स्पष्ट ही है। यदि यहाँ यह शंका हो कि -> "विषयतासम्बन्ध से द्रव्यममवेतचाक्षप के प्रति चक्षु ना स्वसंयुक्तसमवाय सम्बन्ध में ही कारण है मगर स्वरूपसम्बन्ध से स्पर्शान्दादिअन्यतमप्रतियोगिक भेद भी विषयतासम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाले द्रत्र्यसमराक्षप का इंतु है। आकाशगुणा सच्चाद नो स्पर्शशब्दादिअन्यतम होने से उममें स्पर्शशब्दादिअन्यतमप्रतियोगिकभेद स्वरूपसम्बन्ध में नहीं रह सकता, क्योंकि मंट स्वप्रतियोगितावच्छेदक का असमानाधिकरण होता है । भदप्रतियागितावच्छेदक स्पर्शशन्दादिअन्यत्तमत्व के आश्रय शब्दादि में उक्त भेद नहीं होने से उसके चाक्षुप का आपाटन असंगत है । अधचा हम यह भी कह सकते हैं कि जैसे सम्पादि स्पर्शव-रूपत्वादिरूप से विषयविधया चाक्षुप के हेतु नहीं है ठीक वैसे ही शन्द, आकाशपग्मिाण आदि भी दाब्दन्च- आकाश. परिमाणत्वादिरूप से विपयविधया चाक्षुप के हेतु नहीं है। इसलिए आकाशादिगुण के चाक्षुप का आपादन नहीं किया जा
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.७८ मध्यमस्यावादरहस्य खण्डः ३ - का... * अपरभेदहेतुनाऽनहीकारः * भेदस्याऽहेतुत्वमित्युक्तत्वात, रूपाभावस्य चाक्षुषप्रतिबन्धकत्वे शब्दादीनां तत्वतत्त्वेन हेतुत्वाऽ
-* जयलता *निवेशाभ्यां, विनिगमनाविरहेण अखण्डभेदस्याऽहेतुत्वमिति । स्पर्श-रस-गन्ध-गुरुत्वादेस्तु चाक्षुपकारणीभूतभेदप्रतियागिकोटौ निवेशा निर्विवादसिद्भः । परं तत्र गगनगुणादेः प्रवेशः कार्यो न या : इत्यत्र न चिनिगमर्क किञ्चिलभ्यत, नस्योदासीनत्वात् ।। तथापि चतु नत्र तस्य प्रवेशः स्वीक्रियत, नदेव परमाग-दुयणक-पिशाचादपि तत्र प्रवेशापनेः। यदि भेदप्रतियागिकोटी तन्निवेशो नासोनियेत तत एन ना भूत शन्दादरपि तत्र निवेशः, शब्दादेतब निशे च परमाण-यणक- पशानादेशि निवेशम्य तत्र प्रत्याख्यानमशक्यत्वात, अन्यथा अर्धवासप्रसङ्गात् । न च महयाद्भतरूपादिविरहेण व तदचाक्षपोपपत्तनं तस्य प्रतियोगिकोटी निवेश इति वान्यम, लापप्रदिवाईयत परभागिपत्वन शब्दादेरप्यवाक्षपोषपनेन तस्य पनियोगिकोटी निवेशनीयत्वमित्यस्यापि सुवचत्वात् । एवञ्चोदासीनसनाशा:समावशाभ्यामविनिगमात् निरुक्तान्योन्याभावस्य न चानुपहेतुत्वं सम्भवतीति भावः। उक्तत्वादिति 'प्रतियोगिकोटाबुदासीननवेशाप्रवेशाभ्यां विनिगमनाविरहादिति (दृश्यना ६८ नमे पृष्ठं) पूर्वमुकत्वान् । 'अस्तु तर्हि स्पर्श-शब्दादीनां तत्त्वतन्चन चाक्षुषा-हेतुत्वम् । एवनपि शब्दाद्यचाक्षुषोपपनः' इत्याशकामपाकर्तुमाह रूपाभावस्य चाक्षुषप्रतिबन्धकत्वे - चाक्षुषत्वावच्छिन्ननिष्ठप्रतिबध्यतानिरूपित प्रतिबन्धकताव स्वीक्रयमाण सति, शब्दादीनां नत्त्वतत्त्वेन हेतुत्वाऽकल्पनलाघवात् = चाक्षुषप्रनिबन्धकत्वाकल्पनेन लाघवान् । अर्य भाग: विषयतया चाक्षुषं प्रनि शब्दस्य डाब्दवन गगनपरिमाणस्य गगनपरिमाणत्वेन गगनकत्वस्य च गगनकत्वत्वेन प्रतिबन्धक्तमित्यादिकल्पनायां गौरवं नदपेक्षया मयाभावस्यैकस्यैव चाक्षषप्रतिबन्धकलकल्पनायां लावमिनि रूपाभावस्य॑य चानुपानिबन्धकत्वं न्यायप्राप्त नानारूपदवयवारन्धनीरूपघट तत्समवेनसंयोगाद्यचाक्षुपत्वं बज्रलेपापितमेवति ध्वनितार्थः ।।
__ नन विषयतासम्बन्धन द्रव्यसमवंतविषयकचाक्षु प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धन चाक्षुषाभावर पत्र प्रतिबन्धकत्वं न तु || रूपरभावस्य । न च सरेणुचाक्षुष व्यभिचारः तदाश्रयस्य द्रुयगुलस्या चाक्षुषत्वेऽपि त्रुटी विप्रयतासम्बन्धन बाक्षषादयस्याफ्लरिनि बाच्यम्, प्रनिरध्यतावच्छेदककोटी त्रुटिद्रयान्यत्रय नशेनैव तत्पन्यवान् । त्रुटिभिन्नद्रज्यममयंतगोचरचानु प्रते स्वाश्रयसमवतत्वसम्बन्धेन चाक्षुषविरहस्य प्रतिबन्धकल्यमिदा न इन्दादिचापत्यप्रसङ्गः, आकाशस्या चाक्षपत्वेन स्याश्रयममयतत्वसम्बन्धन चाक्षुषाभावस्य शब्दादा मच्चान् । इत्यञ्च रूपाभावस्य प्रतिबन्धकवा स्वीकारेऽपि घटाकादासंयोगाद्यचाक्षुषत्वोपपत्नी नानारूप. बदवपवारयघटस्य स्योत्पादकालानन्तग्मनि नीरुपये दोपल्दागन्योलगि नास्तानि नीरूपवटवाघभिप्रायमरहम्नचितमपक्रमते
सकता । आकाशादिगुण विषयविधया चानुप के हेतु ही नहीं है तब उसमें विपयविधया चाक्षुप की आपत्ति भी कैसे दी जा मकती ?' <- तो यह भी अयुक्त है। इसका कारण यह है कि स्पर्श-शब्दादिअन्यतमत्वावन्छिवप्रतियोगिताक भेद को स्वरूप सम्बन्ध से द्रव्यममवेतपिपक चाक्षुप का, जो चिस्यतासम्मन्धावच्छिन्न कार्यता का आश्रय है, कारण मानने पर कारणीभूत भंद की प्रतियोगिकोटि में उदासीन के प्रवेशाऽप्रवेश का कोई चिनिगमक नहीं है । अतः पूर्वोक्त गति से अवग्यभेदविधया वह कारण नहीं हो सकता । मतलब यह है कि चाचपकारणीमतभेदप्रतियोगिनि में स्पर्श, रस, गन्ध, गुरुत्वादि धर्म का समावेश तो सर्वमान्य है। मगर शन्दादि का निवेश विवादग्रस्त है, क्योंकि वे चाक्षप के प्रति उदासीन है। फिर भी भेप्रतियोगिकोटि में शन्दादि का निवेश किया जाय तर तो परमाण, दयणुक, पिदाच आदि का भी भेटप्रतियोगिकोटि में निवेश हो जायेगा, जो नीरूपघटवादी को भी अभिमत नहीं है। अतः स्पा-रस-गन्ध-गुरुत्व-गगनगुणादि-परमाणु-यगुक -पिशाचादि अन्यतमप्रतियोगिक भेद को चाक्षुपकारण माननं की आपत्ति नीरूपपटवादी क मत में आयेगी । पदि कारणीभूतभेदप्रतियोगिकोटि में परमाणुद्वयणुकादि का निवेशा अमान्य हो तब तो शब्दादि का निवेश भी अमान्य होने से केवल स्पर्श-रसादिअन्यतमप्रतियोगिक भेद को ही चाक्षुपकारण मानना होगा, जिसके फलस्वरूप में प्रतित्रादी के मत में गन्दादि के चाक्षुप की पुन: आपसि आयेगी। इस तरह भेदप्रतियोगिकोटि में उदासीन के प्रवेशाप्रवेश का विनिनमक नहीं होने से उक्त अखण्ड भेद को चाक्षुष साक्षात्कार का कारण नहीं माना जा सकता तथा शब्दादि को तत्त्वतत्वम्प से विषयविधया कारण मानने की अपेक्षा उचित तो यही है कि रूपाभार को ही चाक्षुप साक्षात्कार का प्रतिरन्धक मानः जाय । रूपाभाव को ही चाक्षुपप्रतिबन्धक मान लेने पर शब्दादि में तत्त्वतत्त्वेन = शब्दत्व धर्म से विषयविपया चाक्षुप की प्रतिबन्धकता की कल्पना अनावश्यक होने में लायव भी है । इस नरह जब रूपाभाव में प्रतिबन्धकना सिद्ध हो गई तब नानरूपवदवयवारय घट को नीरूप मानने पर जत्समवेत संयोगादि धर्म का चाक्षुप साक्षात्कार कैस सिद्ध हो सकेगा ? अत: नानाविजातीयरूपबदक्यवारन्ध घट को नीरूप नहीं मान, जा मकता . यह फलित होता है।
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* चाक्षुषाभावनिष्टप्रतिबन्धकताविचार:
कल्पनलाघवाच्च । न च चाक्षुषाभावस्यैवाऽस्तु द्रव्यान्यसच्चाक्षुषं प्रति प्रतिबन्धकत्वं, आश्रयाऽचाक्षुषत्वेनैव व्यणुकाद्यचाक्षुषत्वोपपत्तौ महत्त्वस्यापि प्रत्यासत्यघटकत्वे लाघवादिति वाच्यम्, लौकिकविषयितावच्छिन्नचाक्षुषाभावापेक्षया समवायसम्बद्धावच्छिन्नरूपाभावस्य लघुत्वात् ।
* जयलता
Gya
५.७९
> न चेति वाच्यमित्यनेनाऽस्याऽन्वयः | स्वाश्रयसमवेतत्वसंसर्गेण चाक्षुषाभावस्यैव न तु रूपाभावस्य अस्तु द्रव्यान्यसच्चाक्षुषं | प्रति प्रतिबन्धकत्वमिति । द्रव्यपदं चसरेणुपरं अन्यथाऽनुपदं वध्र्यमरणाङ्गकाग्रन्थाऽलखता रिति । सत्पदं च सत्ताजातिमती द्रव्यसमवेतस्य बोधकम प्रतिबध्यतावच्छेदकारीस्लामवानुरोधेन द्रव्यसमवेतानं विहान सत्योपादानमिति ध्येयम् । कि त्रुटिभिन्नसचाक्षु प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन रूपाभावस्य प्रतिबन्धकत्वकल्पने तु द्वष्णुकादिगोचरं चाक्षु दुर्निवारं पार्थिव परमाण्वादी रूपस्य सत्त्वेन तत्समवेतद्व्यणुकादा स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन रूपाभावस्य विरहात् । न च महत्वस्यापि चाक्षुष सहकारित्वान्नायं दोष इति वाच्यम्, तथा सति महत्त्वस्य पृथक्कारणत्वकल्पनागौरदात् । न च चाक्षुषकारणतावच्छेदकसम्बन्धकोटी तत्प्रवेशान्न पृथक्कारणत्वकल्पनमिति वक्तव्यम्, तथागि नन्मते आश्रयाऽचाक्षुपत्वेनैव द्व्यणुकाद्यचाक्षुषत्वोपपत्ती, आदिपदेन पार्थिवपरमाणुरूपादिग्रहणं महत्त्वस्यापि प्रत्यासत्त्यघटकत्वं लाघवात् कारणतावच्छेदकसम्बन्धारीरत्वात । नानावय चारब्ध- नीरूपघटवादिमते आश्रमचाक्षुषाभावस्यैव प्रतिबन्धकत्वस्वीकारात् वियतासम्बन्धेन द्रव्यसमवेतचाक्षुषं प्रति संयुक्तसमवायेनैव चक्षुषः कारणत्वं परन्तु रूपाभावनिष्ठ चाक्षुषप्रतिबन्धकतावादिमते तु द्रव्यसमवेतचाक्षुषं प्रति चक्षुषः स्वसंयुक्तमहत्त्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन चक्षुषः कारणत्वमिति स्फुटमेव तत्र गौरवम् । न च सम्बन्धगौरवस्यादपत्वमिति वाच्यम् सति लम्रा गुरो: सम्बन्धत्वकल्पनाया अन्यान्यत्वादिति शङ्काग्रन्थतात्पर्यम् ।
प्रकरणकारः तन्निराकरोति > लौकिकविपवितावच्छिन्नचाक्षुषाभावापेक्षया = स्वनिष्ठत् किविपयितानिरूपित्तविषयतासन्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकच्चाक्षुपाभावपेक्षया समवायसम्बन्धावच्छिन्नरूपाभावस्य = समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकरूपाभावस्य चाक्षुरप्रतिबन्धकल्योपगमें लाघवात् = लघुत्वात् । अयं समाधानाशयः अलौकिकविषयितानिरूपितविषयतमा य चाक्षुषं नास्ति तत्समवेतरूपादीनां चाक्षुषत्वानुरोधात् लौकिकविपयितानिरूपितवतासंसगांव च्छिन्नप्रतियोगिताकचाक्षुषा भावस्यैव स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन चाक्षुषप्रतिबन्धकत्वमभ्युपगन्तव्यं नीरूपघटादिना । मया तु समायावन्निरूपाभावस्यैव तथात्वमिति प्रतिबन्धकतावच्छेदकता घटक शरीरलाघवाभावस्त्र प्रतिबन्धकत्वं युक्तिमदित्यभिप्रायः । न सम्बन्धगरिवस्याज्दीपतमित्युगीरणीयम्, सनि लघौ गुरोः सम्बन्धत्वकल्पनाया अन्याय्यत्वादिति त्वयोक्तत्वात् free मया सत्राक्षु प्रत्येव
इस
ना. इति । यदि यहाँ नीरूपघटवादी ओर से शब्दादि के अचाप की उपपनि के लिए ऐसा कहा जाय कि -> 'विषयतासम्बन्ध से द्रव्यान्यसद्विपचक चाक्षुप के प्रति स्वाश्रयमतत्वसम्बन्ध से चापाभावप्रतिबन्धक होने से आकाशादि के गुण का, जो द्रव्यभिन्न होते हुए महाजातिमान् है, चाक्षुप प्रत्यक्ष हो सकता नहीं है, क्योंकि आकाशादि का चाक्षुप प्रत्यक्ष नहीं होने से स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध मे चाक्षुभाव आकाशादिगुण में रह जाता है। यह तो सर्वजनविदित है कि घटादि उच्य का चाप नहीं होने पर घटगत परिमाण, रूप आदि का भी नाम होता नहीं है । अतः आश्रयविपयक बाप का अभाव गुणादि के बाप में प्रतिवन्धक बनना न्यायप्राप्त है । क का नहीं होने पर भी व्यणुक का चाक्षुष होने से सद्विषयक चाप को प्रतिवस्य न कह कर इन्यान्य सद्विषयक चाय को प्रतिबध्य कहा गया है प्रनिबध्य प्रतिबन्धकभाव का स्वीकार करने का लाभ यह है कि शुक के आश्रय परमाणु का चाक्षुप नहीं होने से हो यशुक के अचाक्षुष की उपपत्ति हो जाने से महत्त्व को चापकारणतावच्छेदक प्रत्यासति का घटक मानने की आवश्यकता नहीं होने से लाघव भी है। मतलब कि चक्षु की स्वरांयुतमहत्ववद्रव्यसमवेतच सम्बन्ध से द्रव्यवाक्षुप का कारण मानने की आवश्यकता नहीं है । स्वयुक्तसमवाय सम्वन्ध से ही द्रव्यचारकारणता की उपपनि हो जाती है । अतः शब्दादि के अचाप के अनुरोध में रूपाभाव को चाक्षुपप्रतिबन्धक मानने कि आवश्यकता नहीं है। इस परिस्थिति में नानारूपवदत्रयवान्ध घटादि को नीरूप मानने पर भी तत्समवेत संयोगादि के अचाक्षुष की आपति का भी कोई अवकाश नहीं है त यह कथन भी असंगत है। इसका कारण यह है कि यदि आप लाघव से ही चाक्षुपाभाव को चाक्षुपप्रतिबन्धक मानते हैं तत्र तो रूपाभाव को ही वाक्षुपप्रतिवन्धक मानना मुनासिव है। मतलब यह है कि भावीकविपवितावाला और अलौकिकविपयितावाला इस तरह विविध है। इनमें से अलीकिकचाक्षुपत्रिपयितावाले बाप का अभाव तो आश्रितगोचर चाक्षुप का प्रतिवन्ध नहीं बन सकता है, क्योंकि अलौकिकविपयिताबाले घटचाक्षुष का अभाव होने पर भी घट में आश्रित रूपादि
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०८ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड: ३ का ५ * समनियताभावादर्शनम्
चाक्षुषलौकिकविषयत्वावचिन्नप्रत्यक्षाभावादेरपि तथात्वे विनिगमकाभावोक्तिस्तु कस्यचिन शोभते, समनियताभावाऽभेदात् ।
* गा
रूपाभावस्य प्रतिबन्धकत्वं कल्पले त्वया तु संरशुद्रन्यान्यत्वस्य प्रतिबध्यतावच्छेदककोटी देयत्वन प्रतिबन्धकाभावनिरूपितकार्यताबच्छेदक गौरवमधिकम् । श्राञ्चाक्षुषत्वेनैवकायचाक्षुत्पादनेऽपि गगनादेरचाक्षुषत्वोपपादनं न कथनपि परस्य सङ्गगच्छते तत्र स्वाश्रयसमवायेन चाक्षुषाभावस्यैव विरहात् । न च द्रव्पपदं न बुटिल्यपरमिति न तदनुपपतिरिति वाच्यम्, तथा सति शुकादेरपि प्रतिबध्यताकुक्षिवहिभांवापातेन महत्त्वस्य प्रत्यासत्यघटकल्याभिधानाऽसङ्गत्वापत्तेः । ततश्च सच्चा प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धन समाचावच्छिन्नरूपाभावस्यैव प्रतिबन्धकत्वमर्हति । ततश्च नानावयवारयदस्य नीरूपत्वे तलनसंयोग - परिमाणादीनां चाक्षुपं नैव स्यादिति प्रकरणकृतस्तात्पर्यम् ।
= उत्यान्यसचाक्षुष
नीरूपपटवादिमनप्रतिक्षेपिणः कस्यचिन्मतं खण्डयितुमुपदर्शयति -> > चाक्षुपलौकिकविपयत्वावच्छिन्नप्रत्यक्षाभावांदेरपि चाक्षुषसाक्षात्कारनिष्ठलौकिकविषयितानिरूपितविषयत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकप्रत्यक्षात्यन्ताभावादेरपि तथाचे प्रतिबन्धकत्वं विनिगमकाभावातिरिति । विषयतासम्बन्धेन द्रव्यान्यसचाक्षुषं प्रति प्रतिबन्धकत्वं स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन लौकिकविपयितानिरूपितविषयतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकचाक्षुषाभावस्य यदुत चाक्षुपनिलौकिक विषयितानिरूपितविषयतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकप्रत्यक्षा भावस्य । इत्यत्र विनिगमनाविरहात् न लोविकविषयतावच्छिन्नचाक्षुषा भावस्य प्रतिबन्धकत्वाम्युपगम: श्रेयानिति उक्तिः तु कस्यचिन्न शोभते ।
=
तदशोभनत्वे प्रकरणकारी हेतुमाह--> समनियताभावाभेदात् समव्याप्यव्यापकाभावानामैक्पादिति । निरुक्तचाक्षुषाभावप्रत्यक्षाभावयोः समत्र्यासत्वेनाऽतिरित्वकल्पने गौरवान् निरुक्तप्रत्यक्षाभावाधिकरण लौकिकविपयतया चाक्षुषस्याऽनुपलब्धः, निरुक्तचाक्षुषाभावाभिकरणं निरुप्रत्यक्षाभावव्यवहाराच तक्यमेवेति । एतेन प्रदर्शितविनिगमनाविरहः प्रत्युक्तः, शब्दभेद का चाक्षुप होता है । अतः लीकिकविपयतात्राले चाक्षुपाभान को ही स्वाश्रयममत्रेतत्य सम्बन्ध से चाक्षुप का प्रतिबन्धक मानना होगा । अतः प्रतिबन्धकता अवच्छेदक धर्म का शरीर लौकिकविपयिताविशिष्टचाक्षुपप्रतिद्योगिकाभावत्व होगा। मगर रूपाभाव को चाक्षुष का प्रतिबन्धक मानने में रूप का कोई विशेषण आवश्यक नहीं है । केवल समवायसम्बन्धावच्चिप्रतियोगिताक रूपाभाव ही प्रतिबन्धक बन सकता है । अतः प्रतिबन्धकतावच्छेदकगीरव दोष हमारे पक्ष में अप्रसक्त है। अथवा यह भी कहा जा सकता है नीरूपबादी को लोककवियितानिरूपितविपयतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक चानुपाभाव को स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से प्रतिबन्धक मानना होगा जब कि हमारे पक्ष में समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक रूपाभाव को ही स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से प्रतिक मानना होगा। स्पष्ट ही है कि नीरूपवादी के मन में प्रतिबन्धकतावच्छेदकताघटक सम्बन्ध में हमारे मत की अपेक्षा गौरव है । जब लघुसम्बन्ध सम्भव हो तब गुरुभूत सम्बन्ध की कल्पना करना एवं उसे मान्य करना अन्याय हैं । अतः रूपाभाव को ही प्रतिबन्धक मानना होगा, जिसके फलस्वरूप नीरूपसमवेत संयोग परिमाण आदि के अच्चाक्षुष की आपत्तिः पुनः मुँह फांड खडी रहेगी । अतः नानारूपवदवयवाच्य घटादि को नीरूप नहीं माना जा सकता • यह फलित होता है ।
=
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चाप इति । नीरूपघटवादी के प्रतिवाद में अन्य विद्वानों का यह वक्तव्य है कि 'ferent सम्बन्ध से द्रव्यान्यसद्विपकचाक्षुप के प्रति स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से लौकिकविपवितानिरूपितरियतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक चाक्षुप्राभाव का प्रतिवन्धक मानना या चाक्षुपली किकविपयितानिरूपित विपयता सम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक प्रत्यक्षाभाव का प्रतिबन्धक मानना ? इस विषय में किसी भी पक्ष की साधक युक्ति नहीं है । विनिगमनाविरह से दोनों को प्रतिबन्धक मानना होगा | अतः निरुक्त चाक्षुपाभाव की प्रतिबन्धक नहीं कहा जा सकता < मगर प्रकरणकार श्रीमदजी इसके खिलाफ में यह कहते हैं कि नीरूपघटवाडी के प्रति विनिगमनाविरह दोष का उद्भावन करना ठीक नहीं है, क्योंकि समनियताभाव परस्पर अभित्र होते हैं । जहाँ जहाँ निरुक्त चाक्षुपाभाव स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से रहता है वहाँ वहाँ निरुक्त प्रत्यक्षाभाव भी अवश्य रहता है और जहाँ जहाँ निरुक्त प्रत्यक्षाभाव उसी संबन्ध से रहता है वहाँ वहाँ निरुक्त चाक्षुषाभाव भी अवश्य रहता है । दोनों परस्पर समनियत = समत्र्याप्य-व्यापक होने से दोनों को परस्परभिन्न मानने में गौरव है । अतः समनियताभाव को परस्पर अभिन्न मानना ही संगत है । इस विषय का निरूपण पूर्व व्यवहारनय से ध्वंसनिरूपणा में किया गया है । जिज्ञासु जब कि समनियताभाव परस्पर अभिन ही है
वहाँ अपनी निपुण निगाह डाले यह विज्ञप्ति (देखिये प्रथम खंड पृष्ठ १० )
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* त्रुटिविधान्निनिमः * किश्च जुटावेव विश्रामे महत्त्वस्योभयथा प्रत्यासत्यघटकत्वेन विनिगमनाविरहादपि : रूपाभावस्य प्रतिबन्धकत्वम् । रूपाद्युत्पतिक्षाणे रूपचाक्षुषं तु पूर्व विषयाशावादेव नेत्युशयत्र तुल्यम् । इत्थच ताटशघटस्थ नीरूपत्वे ताहशघटवृतिसंयोगादिचाक्षुषं न स्यात् ।
-* जयलता ज्या भेदात, विनिगमनाचिरहस्याऽर्थ नंदल्याप्यत्वल. अन्यथालिनगड़गादिति विभावनीयग ।
प्रकरणकारः प्रास गिजमुक्त्वा पूर्व यानानाविजयनग्यरूपयदयश्वारश्चन्दामपघटवादिना बपने प्रयगुकायचाक्षुषानुगंधन | महत्वम्प प्रत्यायन्यबाट कन्वेन लाघवगुन नस्वानं यार्धापनुमुपकमत --> किंञ्चनि । त्रुटी = ग्रसरेणी एव, न तु परमाणी. अवचिनः विश्राम - पंचग्गने क्रियमाणे, तु महत्वस्य उभयथा = चाक्षुषाभावनिष्ठप्रतिबन्ध कत्तापक्ष रूपभावनिष्टपति बन्धकत्वपश्यं च प्रन्यासत्यघटकत्वन - चाचपन्यापन्छिन्कार्यतानिरू, पिताया: चक्षुर्निष्ठकारणनया भवच्छेदकत्यसम्बन्धपक्षादप्रविष्टत्वन, विनिगमनाचिरहादपि रूपाभावस्य प्रतिबन्धकन्वं = चाक्षषप्रनिरन्धरत्वं स्वीकार्यम. अन्यथा पक्षपातमात्राद। वस्तुतस्तु 'रमा'गाचंबा वचना विधान्तत्वात अम्मदत्तनशा चाक्षुषाभावस्य प्रतिबन्धकत्वादसम्मान रूपाभावस्यय नधात्वमिति दृढतरमबंधेयम् ।
नन स्वाश्रयममंचनसम्बन्धन पानावग्गव विषयतया सचाक्षर्ष प्रति प्रतिबन्धकल्य रुणयत्पत्निक्षणेगि रूपादेः नाक्षषं कुता न भवान ! नदा पानावर म्याश्रयम्भवन्त्यसम्बन्धेन मुमटी विरहात, कार्यसहभान प्रतिबन्धकल्वस्वीकारादिति स्वाश्रयस मदत त्यसंसर्गण पाशुपा भावस्पच निरन्कत्वमायुप्रेयमिति नानारूपयययवारब्धनाम्पधनवायाशड़का यामाह - रूपायुत्पत्तिक्षणं झपचाक्षुपं = मियतया मरणादी चाक्षुपोत्यादः तु पूर्व = रूप दियः पलक्षणकार्बोतादापादननगाः व्यवहितपूर्वक्षणाव-देन. विषयाभावान् = रूपादिस्वरूपस्वगांचरबिरहान् एव न भवनाति उभयत्र = चानुपामावस्याभावप्रतिबन्धकतावादिमटयोः तुल्यमिनि । प्रत्युत न मने पाकजनितरूपनागक्षणाबन्छेदन घटममंचसंयोगादः चप कती न भवति ? इति पर्यनुयोगस्या समाधयल्लम, नत्र नदानी स्वाश्रयसमंचतत्वसम्बन्धन बानुपसन्चे बाधकानावान. म.सामावर त्वया प्रनियन्धकल्यानुसनमान । न च सदानी संयानादिचाक्षुष भवत्यति बनव्यन, शपधमाश्रयत्वात् । ततश्च रूपाभावस्पद चाक्षुषप्रतिबन्धकत्तमभ्युपयन । नगमवति - इत्थन = श्याचर्णितरीत्या स्वाश्रयसम्वतत्वसम्बन्धन रूपाभावस्पंच विषयता सम्बन्धन सचाक्षर्ष प्रति प्रतिबन्धकवामि-श्री च. नाशघटस्य - नानाविजातीयम्पपदवयवारयटम्य वात्मादानन्तरमपि नीरूपत्वे स्वीक्रियमाण नादृशघटवृनिसंयोगादिचाक्षुषं विपयतासम्बन्धन तत्संयोगादा न स्यात्, नत्र म्याश्रयसमवंतत्वसम्बन्धन पाभायम्य सत्त्वात् । अता न नादशवटस्य नीरूपत्वं श्रद्धयगिनि निष्कर्षः । तर तो निम्क्त चाक्षुपाभाव को प्रतिबन्धक मानो या निम्न प्रत्यक्षाभाव को प्रतिबन्धक मानो - कंबल शब्दभेद है, अर्थभेद नहीं । अतः इस परिस्थिति में विनिगमनाविन्ड दीप प्रसक्न नहीं हो सकना, अन्यथा दण्ड को कुम्भ का कारण माना जाय या घट का ' एगा चिनिगमनाविरह भी प्रसक्त होगा । अतः नीरूपघटवादी के मन का प्रत्याख्यान करना हो तो यही कहना चाहिए कि 'समवायावच्छिन्नप्रतियोगिताक झपाभाव को प्रतिबन्धक मानने की अपेक्षा लौकिकविपयितानिपत. विषयतासम्बन्चादिनप्रतियोगिताक वाशुपाभाव का प्रतिवन्धक मानने में गौरव है' । यही हमने पूर्व में कहा था । इम नरह प्रासंगिकरूप से नीरूपघटबादी के प्रन्बिाटी के मत का प्रत्यारघ्यान कर के पुनः नीरूपघटवादी के मन का उन्मूलन करने के लिए आगे कुत्र करते हैं।
किच .इति । इसके अनिरिक्त बात यह है कि अवयवी का परमाणु में विश्राम न मान कर प्रसरेणु में ही विश्राम माना जाय तब तो चाक्षुप के प्रति स्वाश्रपसम्वतन्यसम्बन्ध से चाक्षुपाभाव को प्रनिरन्धक मानो या रूपाभार का प्रतिबन्धक | मानो, दोनों ही पक्ष में चाभूप के प्रति चानिष्कारणता अवच्छेदकसम्बन्ध की कुत्ति में महत्त्व का निवेश अनावश्यक होने || से रूपाभाव का चाक्षुषप्रतिबन्धक मानने पर भी प्रन्यासनगौरब दोर अप्रसस्त है । अतएत्र रूपाभाव को चाक्षुपप्रतिबन्धक मानना या चाक्षुपाभाव को " इस विवाद का कोई अंत नहीं आने की वजह रूपाभाव को भी चाक्षुप का प्रतिबन्धक माना जा सकता है। यहाँ पह, शंका हो कि --> रूपाभाव को चाक्षर का प्रतिरन्धक मानने पर तो जब घटादि में रूपादि उत्पन्न होता है उसी ममय रूपादि के चाक्षुप की आपनि आयगी, क्योंकि उस समय रूप में स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध में रूपाभाव, जो आपक मनानुसार चाक्षुप का प्रतिबन्धक है, नहीं रहना है - तो इसबा ममाधान यह है कि किसी भी
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५८२ मध्यमस्याबादरहस्य खण्डः ३ - का.५ उद्धनकत्वस्य द्रव्यचाक्षुपकारणता
(ौता उद्भुतैकत्वस्याऽयोग्यव्यावृत्तधर्मावशेषस्यैव वा द्रव्यचाचषकारागत्वेन रूपं विनापि , घटादिचाक्षुषत्वोपपादनेन ताहशघटस्य नीरूयत्वसमर्थनं नवीनानां याccictict |
- जयलता - एतेन = विषयतासम्बन्धेन द्रव्यममवेतचाक्षपत्वावन्छिनं प्रति म्याश्रयसमवेतवसम्बन्धेन रूपाभावस्य प्रतिबन्धकत्यप्रतिपादनेन, अरूप चाऽग्रे प्रत्यारण्यातमेव इत्यनेनान्वयः । उद्भतैकत्वस्यति । पिशाचादः चाक्षुषत्ववारणाय उद्भुतपदनिवेशः ॥ विषयनासम्बन्धन द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति स्वसमवायसम्बन्धन उद्भूतकत्वस्य कारणत्वमिति गावः । यद्यपि उद्धृतत्त्वं रूपरुपनदियव प्रसि न संध्यायां तथापि फलबलेन प्रकृतं तत्कल्पनम् । परन्त्येवं तत्कल्पनायामन्यान्याश्रयः कत उद्भूतरिरद्धा उद्भूतकत्वस्य द्रव्यचा पकारणत्वमितिः ततिद्धी चैकल्ये उद्भूतल्यसिद्धरिति । न च पिशाचादिचाक्षुषत्वा भावान्यथानुपपत्त्या तत्कल्प्यन इत्ति बान्यम्, उद्भूतरूवाभावादव नद्पपनः । न चोद्भुतस्पर्दापमानाधिकरणकत्वमेबोन्यूनैकत्वमिति बनव्यम् , तथा मति वायोरपि चा पत्त्वापत्तेः, त्वन्मतेऽणि बायाबुद्भुतस्पाभ्युपगमान । न चाशतरूपसमानाधिकरणमे कन्वमेवातंकवपदार्थ :. एतेन पिशाचाद्यनुपलब्धिरपि व्याख्याता इनि बक्तव्यम्, गवं सनि नानाजातीयरुपदपवारश्यघटादर. चाक्षपत्तापातेन नीरूपत्व-सिद्धिमनोरथ आयुष्मतां व्याहन्येन । न च प्रकृष्टमहत्त्वसमानाधिकरणमेकत्वमाद्भर्तकत्वादन ज्ञायत इनि वाच्यम्, तथा सनि गगनादेरपि चाक्षुषत्वप्रसङ्गगात् । इत्थञ्चैकवे उद्भूतत्वस्या सिद्धी उनकत्वस्य द्रव्यचाक्षुषकारणत्वाभिधानं वन्ध्यामृतस्य कुम्भकर्तृत्वाभिधानतुल्यमापद्यतत्याशड़कायां कल्पान्तरमाविर्भावन्ति अयोग्यव्यावृत्तधर्मविशेषस्य = चारयोग्यद्रव्यावृत्तिधर्मविशेषस्य चक्षयोग्यद्रव्यमाननिरूपिनवृनित्वविशिष्टद्रव्यत्वादिस्वरूपस्य पब, वान तृतमास्य. द्रव्यचाक्षुषकारणत्वेन = विषयतासम्बन्धन द्रव्यविषयकचाश्नषत्वावच्छिन्न प्रति कारणत्वन, रूपं विनाऽपि घटादियाभूपत्वोपपादनेन = निरुक्तधर्मविशएबलंगव घटादिद्वय विषयतासम्बन्धन चाक्षपादयसाधनेन, तादृशघटस्य = नान जानीयरूपवदययवारयघटस्य, स्वान्यादानन्तरमपि नीरूपत्वसमर्थनं नवीनानां प्रत्याख्यातमेव, सिद्धप्रतिबन्धकताबद्रूपाभाचे सति तादृशबटम्मवेतचापासम्भवापातात. द्रव्यचाक्षुषकारणाभूतधर्मविशेषनिष्ठा योग्यद्रव्यच्यावृनिनियामकस्योद्भुनरूपस्यैव 'नटेतारस्तु किं तेन ?' इतिन्यायेन चाक्षपकारणत्वस्वीकारस्य न्याय्यत्वाचति । एतेन घराकाशसंयोगादीनां गुरुत्वादिवदयोग्यत्वादेवन नचाक्षुषत्वपमङ्ग इति प्रत्याख्यातम्, उदासीनप्रवेशाप्रवेशाभ्यां विनिगमनाविरहस्योकत्वादिति दिक । प्रत्यक्ष के प्रति अव्यवहितपूर्वक्षणावच्छेदन विषय कारण होने की वजह रूपोत्पत्तिक्षण की पूर्व क्षण में रूपात्मक विषय ही नहीं होने से उसके चाक्षुप की आपति नहीं दी जा सकती । यह प्रत्युत्तर तो आपके और इमारे मन में तुल्य है । अत: स्वाश्रयसमवंतत्वसम्बन्ध से रूपाभाव को विपयनासम्बन्ध से सच्चा प का प्रतिबन्धक मानना पडेगा । जर यह अनिता से भी प्रतिवादी को स्वीकार्य होगा तब ता नानाविजातीयरूपवाले अवयवों से आरब्ध घट को अपनी उत्पत्ति के बाद भी नीरूप मानने पर उसमें समवाय सम्बन्ध में रहनेवाले संयोगादि के अवाक्षुप की आपत्ति बज्रलेप हो जायेगी, क्योंकि उस संयोगादि में स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से रूपाभाव रहता है। प्रतिबन्धक के रहने पर कार्य का जन्म कैसे हो सकता है। इसी सवय नील, पीत आदि अनेकवर्णवाले अवयवों से आरम्ध पटादि को स्वोत्पत्ति के बाद नीरूप नहीं माना जा सकता <- यह फलित होता है' . ऐसा प्रकरणकार का अभिप्राय है।
*जीरूपशटवादी सत्यतयायिक के मत की समालोचना # पतन इति । यहाँ नव्य विद्वानों का यह वक्तव्य है कि → 'समचाय सम्बन्ध में अद्भुत एकत्व अथवा अयोग्यव्यावृत्त धर्मविशेष अर्थात् चक्षुयोग्यवृत्तित्वविशिष्ट द्रव्यत्व - यह द्रव्यचाप के प्रति कारण है । अतः विभिन्नानकरूपवाले अब आरब्ध घर में रूप उत्पन्न न होने पर भी उसका चाक्षुप साक्षात्कार हो सकता है, क्योंकि उसमें समवाय सम्बन्ध से उद्धृन एकत्व रहता है, जो पिशाचादि में रहता नहीं है । अथवा समयाय सम्बन्ध से वहां चक्षुयोग्यवृनित्वविशिष्ट व्यत्व रहन में भी वहाँ विषयतासम्बन्ध से चाक्षुप साक्षात्कार की उत्पनि हो सकती है :
मगर प्रकरणकार महोपाध्यायजी नन्य नैयायिकों को कहते है कि -> अब पटनाये होत क्या जर गौर चार गये खेत ! हमने अभी बता दिया है कि स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से रूपाभाव द्रव्यसमवेतविषयक चाक्षुए का, जो विस्यनासम्बन्ध से स्वगोचर में उत्पन्न होना है, प्रतिबन्धक है तब तो तादृश नीरूप चट में रहनेवाले संयांग, परिमाण आदि का भी चाक्षुष साक्षात्कार न हो सकेमा, क्योंकि उन संयोग आदि में स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध में रूपाभाव रहना है 1 नानाविजानीयरूपवाले
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* निःस्पर्शयदममर्धनम्
स्पार्शनं प्रति तु स्पार्शनाभावस्यैव प्रतिबन्धकत्वं न तु स्पर्शाभावस्य त्रुटिसमवेताऽस्पार्शनानुरोधेन संयुक्तसमवायप्रत्यासतिमध्ये प्रकृष्टमहत्वस्य घटकत्वे गौरवात् । एवच
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* जयलवा *
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यथा नानारूपवदववयारब्धनरूपघटादिनाविषयतया द्रव्यसमवेतचाक्षुषं प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन चाक्षुषाभावस्यैव प्रतिबन्धकत्वं स्वीक्रियतं न तु रूपपराभावस्य तथैव शक्यते मया चतुं नानारूपवारब्धनिःस्पर्शवादिना विषयतासम्बन्धेन | स्पार्शनं प्रति तु स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन स्पार्शनाभावस्यैव = त्वगिन्द्रियजन्यसाक्षात्काराभावस्यैव प्रतिबन्धकत्वं न तु स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन स्पर्शाभावस्य । इयांस्तु विशेष रूपवादिमते उक्तदोषपरम्पराया अनिर्वालनीयत्वं मत्यक्षे तु नास्ति दीपगन्धलेशोऽपि । न च स्वाभावस्य कुतो न तत्प्रतिबन्धकत्वमिति वाच्यम्, तथा सति त्रुटिपस्यानित्वापत्तेः सुरगुरुगाऽपि निराकर्तुमशक्यत्वात् स्वतंयुक्तसमवायेन त्वगिन्द्रियस्य स्वसंयुक्तमुतिसमवेतस्पर्श सच्चात् लुटे स्पर्शवचन तत्पर्श स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन स्पर्शाभावस्य विरहाट अनि कारणकलाएं कार्योत्पादस्य न्याय्यत्वात् । न च प्रकृष्टमहस्वाणि तच सहकारित्वान्नावं दीप इति वक्तव्यम्, नत्र पृथककारणत्वकल्पने गौरवात् । न च चिपयतया समवेतस्पादानत्वावच्छिन्नं प्रति त्वमिन्द्रियस्य विरहादेव न तत्स्थादर्शनप्रसङ्ग इति वाच्यम्, त्रुटिसमवेताऽस्पार्शनानुरोधेन संयुक्तसमवाय| प्रत्यासत्तिमध्ये = त्वगिन्द्रियनिष्ठकारणतावच्छेदकी भूतस्वसंयुक्तसमवायसम्बन्धदारीरक्षी प्रकृष्टमहत्त्वस्य घटकत्वे = निरुतरीत्या गौरवात् = कारणतावच्छेदकस सर्गगीरवापातात् । न च सम्बन्धगौरवस्यादुष्टत्वमिति वाच्यम्, सति ली गुरोः सम्बन्धकल्पनाचा अन्याय्यत्वात्, अन्यथा दत्वस्यापि स्वाश्रयजन्यभ्रमिवत्वसम्बन्धेन घटकारणत्वप्रसङ्गात् । न च त्वन्मते क न बुद्धिसम्वेतरपर्श - परिमाणादिस्पार्शनत्वापत्तिरिति साम्प्रतम्, घुटेरेोभयमले स्पातित्वविरहात् स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धन स्पाइनिसाक्षात्काराभावस्य वृदिस्पर्शादी सत्त्वात् सनि प्रतिबन्धक कार्यात्यादयोगात । अनेन लौकिकविपयितावच्छिन्नप्रतियोगिता कस्पार्शनाभावापेक्षया समवायसम्बन्धावप्रतियोगिताकस्पर्शाभिावस्य लघुत्वादिति विपरीतमेव गौरवमिति निरस्तं, त्रुटि तत्समंत्रेतरूपादिरूपार्शनत्वस्य परमते दुवरित्वात् । न च द्वयणुकाद्यस्पार्शनानुरोधेनभयपक्ष महत्त्वस्य प्रत्यासन्निमध्ये चदयं निवेशनीयत्वादिति वाच्यम्, वृदावेवावयविनी विश्रान्तत्वमा प्रकृतं स्पार्शनाभावप्रतिबन्धकत्वप्रतिपादनात । अस्तु वा परमापमेवास्यविनो विश्रान्तिः तथापि सम्म केवल लगिन्द्रियनिष्टकारणताया अवच्छेदकत्वप्रत्यासनी केवलं महत्त्वस्व | निवेश: तु बुद्धिसमताऽस्नानत्वीपपतये नवाऽपि प्रकृष्टत्वदानावस्यकत्वादधिकगौरवमिति व्ययम् । न च तथापि त्वन्मत | त्रायुरान्वेन्स्पर्शाऽस्पार्शनत्वापत्तिर्दुर्निवारा, वायरस्पार्शनत्वेन तत्प स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन स्पार्शनाभावस्य सत्त्वादिनि अवयवों से आरम्भ पदादि में समवेत संयोग परिमाण आदि का चाक्षुप तो अनुभवसिद्ध होने से समवाय सम्बन्ध मे बन एकत्व को या अयोग्यद्रव्यव्यावृत्त धर्मविशेष को द्रव्यचाक्षुप का कारण नहीं माना जा सकता । इस विषय में अधिक विचार भी किया जा सकता है ।
का स्पलीवेहीन घर का समर्थन क
रुपा, इति । श्रीमद्जी एक नयी दिशा में अपनी कलम को चलाते हुए यह बताते हैं कि जैसे विभिन्नरूपवाले अवयवों . से आरब्ध घटादि को उत्पत्ति के अनन्तर भी नीरूप माननेवाले प्रतिवादी ने कहा था कि स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से चाक्षुपाभाव ही विषयतासम्बन्ध से द्रव्यसमवेतचाक्षुप का प्रतिबन्धक है, न कि रूपाभाव । ठीक वैसे ही हम कह सकते हैं कि स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से स्पार्शनाभाव ही विपयतासम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाले द्रव्यसमवेतगोचर स्पार्शन साक्षात्कार का प्रतिबन्धक है, न कि स्पर्शाभाव | इसका कारण यह है कि यदि विपयतासम्बन्ध से rates स्पार्शन साक्षात्कार के प्रति स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से रपशभाव को प्रतिबन्धक माना जाय तब तो त्रुटित स्पर्श के स्पार्शन प्रत्यक्ष को आपत्ति आयेगी, क्योंकि अणु में स्पर्श होने से स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध में सरेणुसमवेत स्पर्श में स्पर्श ही रहेगा, न कि स्पर्शाभाव। जब कि कार्याधिकरणविश्रया अभिमत में प्रतिबन्धक ही रहता नहीं है तब तो स्वयुक्तसमवायसम्बन्ध से स्वगिन्द्रिय, जो कि रेणु में संयुक्त है त्रुटिस्पर्श में रह जाने की वजह त्रुटस्पर्श का स्पार्शन प्रत्यक्ष होना ही चाहिए। मगर वह होता नहीं है यह तो सर्व दार्शनिकों का एकमत है । यदि उसके निवारणार्थ यह कहा जाय कि > स्पर्शनेन्द्रिय केवल स्वसंयुक्तसमवायसम्बन्ध से द्रव्यसमवेतविषयक स्पार्शन प्रत्यक्ष का कारण नहीं है, किन्तु स्वसंयुक्त प्रकृष्टमहत्त्वचद्रव्यसमवायसम्बन्ध से ही उसका कारण है । त्रसरेणु में स्पर्श अवश्य है मगर उसका महत्त्व = महत्परिमाण प्रकृष्ट नहीं होता है, अपकृष्ट होता है । अतएव
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०८४ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः ३ का ५
* चित्ररूपप्रकाशानिदेशः
तादृशघटस्य निःस्पर्शत्वे तु न क्षतिरिति । विस्तरस्त्वञत्यो 'मत्कृतचित्ररूपप्रकाशेऽवसेयः । जवस्तु 'तादृशो घटो न नीरूपो रूपवत्त्वप्रतीतेः सार्वजनीनाया भ्रमत्वकल्पनाऽयोगादि 'त्याहुः ।
* नयलता
G
वक्तव्यम्, 'शीतली वायुः वाति इत्यादिप्रतीत्या तत्समानित्वसिद्धेः । न च तथा वायुस्पर्श एवं विषयो न तु प्रायुरिति बक्तव्यम्, `दीतलं बायुं स्पृशामीत्यनुध्यवसायानुपपत्तेः । इत्थञ्च वा सर्शनत्वेन तत्पर्थी स्वाश्रयममंतत्वेन साडांना भावविरहान विपतमा एर्शनानुपपत्तिः । निगमयति एव = द्रव्यसमवेतरूपानं प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धन स्पार्शनाभावस्यैव प्रतिकल्पं न तु स्पशास्वत्व सिद्धी च तादृशघटस्य नानाजातीयरूपवदवयवारख्धघटस्य निःस्पर्शत्वं तु न श्रुतिः तत्काल स्पार्शनत्वसिद्धेस्तत्र घंटे स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन स्यार्शनाभावविरहात स्वसंयोगसम्बन्धेन त्वचा स्पार्शनोत्पाद बाधकाभावात् । अत एव तादृशस्वहीन- घटमभवेन परिमाणादिस्यार्शनल्यानुपपत्तिरपि प्रत्याख्याता, तत्यरिमाणादः स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धन स्पर्शनाभावाभावात् स्वमंयुक्तसमवायेन स्पोन्द्रियद्वारा सम्वन्धेन स्पार्शनीया बाधकाभावाद । इत्यन्वे नानाजातीयरू चदवय्वाग्न्धधदस्य नीरूपत्वाभ्युपगमापेक्षया निःस्पत्वाभ्युपरम एव श्रेयनिति तात्पर्यम् । इदञ्च प्रौढिबादन बाध्यं तेन नाऽपसिद्धान्तनिग्रहस्थानप्राप्तिरिति ध्येयम् । त्रिस्तरस्तु अत्रत्यः = तादृशघटनिःस्पर्शत्वसमर्थकः मत्कृतचित्ररूपप्रकाश' एकाकरणकाररचितवादमालान्तर्गतचित्ररूपप्रकाशाभिधानवाद अवसेयः । साम्प्रतं वादमालायां स उपलभ्यते परं न तवती:धिकविस्तर उपलभ्यते किन्तु अतोऽपि सक्षेप एवं इदं सम्भवति प्रकृतप्रकरणवन सोऽपि जयन्यादिदेवाका कृतः स्यात बृहचित्ररूपप्रकाशे चैतत्समर्धनमपि विस्तरेण प्रोक्तं स्यादिति । लच्यं तु केवलिवधम् ।
ऋजवस्त्विति । अस्य चाद्दुरित्यनेनाऽन्वयः । नादृशः = नानाजातीयरूपवदव्यवास्व्थः घटी नवोत्पादकालीनरक्षणाच्छेदन नीरूपः तत्र रूपवताधियः सार्वजनीनत्वात् । न च स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेना- बय्वरूपमंत्र तवावयविनि नासत इत्यन्यव स्थितस्याऽन्यचाऽऽरोपात स्फटिक रक्ततार्थिय इव तत्र तस्या भ्रात्वविति वान्यम्, सार्वजनीनाया रूपवत्त्वप्रतीतेः भ्रमत्वकल्पना:योगात्, स्वानुभूतावविश्वासे सर्वाऽनाश्वासप्रसङ्गात् तकंरस चानवस्थानादनुभवचाचितं तन्नरूपयमिनि आहुः |
I
स्पर्शन इन्द्रिय स्वमंयुक्तप्रकृष्टमहत्वद्रव्यसमवेतत्व सम्बन्ध से स्वमंयुक्त सरे स्पर्श में नहीं रहने की वजह उसमें पियतासम्बन्ध से स्पार्शन साक्षात्कार उत्पन्न होने का अवकाश ही नहीं है तो यह भी असंगत है, क्योंकि तब समवेतविषयक स्पार्शन प्रत्यक्ष की कारणतावच्छेदक प्रत्यासत्ति में प्रकृष्ट महत्व के निवेश का गौरव प्राप्त होता है । अतएव आपके वक्तव्य की मान्यता नहीं दी जा सकती हमारे मत में तो त्रसरेणु के स्पर्श के स्पार्शन साक्षात्कार को कोई अवकाश ही नहीं है, क्योंकि सणेणु का स्पार्शन साक्षात्कार नहीं होने से स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से स्पार्शनाभाव प्रसरेणुसमवेत स्पर्श में रहता है, जो पियतासम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाले द्रव्यसमवेतस्पार्धन का प्रतिबन्धक होता है। प्रतिबन्धक रहने पर कार्य को उत्पन्न होने का अवकाश कहाँ ? अतः विपयतासम्बन्ध में उत्पन्न होनेवाले द्रव्यसमवेतविषयक स्पार्शन के प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वमम्बन्ध से सार्शनाभाव की ही प्रतिबन्धक मानना चाहिए, न कि स्पर्शाभाव को ऐसा सिद्ध होने पर विभिन्नरूपवाले अत्रों से आरब्ध घटादि को स्पर्शविहीन माना जा सकता है, क्योंकि उसके कारणीभूत कपालों का स्पार्शन साक्षात्कार होने से उस वट में स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से स्पार्शनसाक्षात्काराभाव, जो द्रव्यसमवेतविषयक स्पार्शन साक्षात्कार का प्रतिबन्धक होता है। नहीं रहने से स्वसंयोगसम्बन्ध से त्वन्द्रिय द्वारा जन्य - सार्शन साक्षात्कार उसमें पियतासम्बन्ध से उत्पन्न हो सकता है अर्थात उस स्पर्शविहीन घट का स्पार्शन प्रत्यक्ष हो सकता है। इस तरह नानाविजातीयरूपवाले अवयवों से आरब्ध पदादि को रूपविहीन नहीं माना जा सकना मगर स्पर्शविहीन माना जा सकता है, क्योंकि उक्त रीति से उसके स्वीकार में कोई बाधक नहीं है । इस विषय का विस्तार से निरूपण महोपाध्यायजी ने स्वरचित 'चित्ररूपप्रकाशवाद में किया है, जो वर्तमान काल में उपलब्ध होता है - यह एक सुखद सन्देश है। अधिक जिज्ञासु वहाँ अपनी निगाह डाल सकते हैं - अनुज्ञा एवं सूचना प्रकरणकार श्रीमदुजी ने दी है ।
ऐसी
BE रूपवत्ताप्रतीति से नीरूपयवाद का अत अश्रध्देय
ऋजः इति । नानाजातीयरूपवाले अवयवों से आरम्य घट की उत्पतिकाल के बाद भी नीरूप माननेवाले के १. देखिये दिव्यदर्शनस्ट प्रकाशित वादमाला ग्रन्थ पृ. १ से ४४.
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* ऋजुमतप्रकाशनम् * एकाशि- ताऽव्याप्यवृत्तीनि नानावपाण्येत । न चावचछेदकतया नीलाद्यभावादिसामग्रीबलात्पीताधवयवावच्छेदेन नीलाद्यापतिः, अवच्छेदकतया जन्यरूपत्वावच्छिन्नं प्रत्येवाडवच्छेदकतया रूपत्वावच्छिन्नाभावस्य हेतुत्वात् । न चैवमपि नील-पोतावयवार पीतावरावा
- यI . एकडेगिनस्विनि । शिरोमणिभट्टाचार्य मनानपाचनान्यतयः नः पूनःकल्पाला पिया। नंयार तत्र = नानाजानीयरूपनववारच्चवर्यानि, अनन्दकतासम्बन्धन अन्याप्यवृतीनि नानारूपाणि एच उत्पमन्त । न च नाई 'एक मां' इति प्रततिः कथं : इत्पदीरणीयम, को चान्यगदिशः' इतित्रत लम्याः समकवविषयल्यान । एतेन अनिरिग,कचित्ररूपकल्पनापि परास्ना, गौरवात् । नचादि नियन्गभिन्न प्रति नारन्यादिना इतृत्वं व्यभिचागत. मगबन तन्नादमात्रारब्धःपि नापन:, नीदना-तिनम्त्यादिनातभावं. पाकचित्र भिचागन् । न च पकजांच मामामार इन वान्यम्, तथापि चित्रम्धले नालानिमाणीवाद मालामापनियानी-मादी लिन पाद: प्रनिबन्धकल्पकल्पन माग्मान।
आधयाप्यनिनागरिकपन य गरयः । नाहि. बच्छदकनया गालादा मप उत्पन्न पुनम्जना गम्बन्धेनाध्यय नालादिरूपांत्यनिवारणाय अव-दकनासम्म धन रादिक. प्रति असन्तासम्वन नामद निवन्धमात कलगर्गमिर्गत गारचम । न चाकसमन्वन्नाम दमित्यजावनीयम, नापिनीन्यभाषादिमामलयालम सन्चादिल्याबद्रकापालनमापक्रमन्नं न चेति । समादधत --> अवशेदकतया = स्वनिरूपनारदकतासम्बन, जन्यरूपत्वान्छिन्नं = 'पूची निगन्या जन्यम्। मात्र नजान्यायमित्र, प्रति एक, न न नाला वाहिन्न प्रति. अवच्छेदकनया रूपत्वावच्छिन्नाभारस्य देतवान = प्रतिबन्धका भाविधता कारणामुपागात, नाजियागावापान भरतस्य कामकागमाधाना कार्यतावमटकत्वाव्यांगायत्यताम् । गयक धनं. पीतादिम्पसत्त्वना:वच्छेदकतासम्बन्धन पत्तावप्रिनिमागिताफगावरान विरहान पानाधवयवावच्छे टेन नीलाधुनिमदर । न हि पनि प्रनिबन्धक कार्यमुत्नुहनि ।
चित्र पवाद नपाइने ->न चेति । एवमपि = गौरवात अनन्दकन्या नालाही पटकनमा नालागाजतः । कारणत्वं परित्याग :बच्छेदकासम्बन्धन गन्यम् पल्मापच्छिन्न बन्छरकतया मालाछिन्ना नवम्प कागवायगा:-17. ! नीलपीतावयवारये पटादा पीतावयवावदन पाक - राजनीतिजागयोग गनि. पानावयचारलंदन रनोत्पनिकाले
प्रतिवाद में अन्य प्राञ्जल विद्वानों का यह वक्तव्य है कि ताइम = नानारूपवढ्ययवजन्य घट स्वात्मदानम्कान अबदन मपविहीन तो नहीं हो सकता, क्योंकि सब लोगों को उसी घट में संपवना की जो बद्धि होती है, उस अमात्मक नहीं कहीं जा सकती । वह प्रतीति ही उस घट में रूप को सिद्ध करता है । हाथ कंगन को भारमी वया: प्रत्यक्षद्धि होने में मारा घट को नीरूप नहीं माना जा सकता ।
अन्यप्रावृति जारूपनातिना. एकद- इनि । यहाँ नयायिक एकदशीय विद्वानों का यह वक्तव्य है कि अनेकरूपवाने अवयों सं आरब्ध घट में अन्याप्यनि अनेक रूप ही उत्पन्न होने हैं । चित्र घट में 'इह एकम्प' यह प्रतीनि 'पको धन्याशिः' इस प्रीति की भाँनि ममूहगन एकत्व के द्वारा उगन होती है। यहाँ यह शंका हो कि –> 'जिग अचयवानटेन घट में पीन रूप रहता है यहां भी नील आदि म्प उत्पन्न होने की आपनि आयगी, क्योंकि पानावयवावन्दन नीलाभाव, रक्ताभाव आदि विद्यमान है, जो नीलादि रूप का हेतु होना है' -तो यह निराधार है, क्योंकि अबजेटकतासम्बन्ध मे पाभाव जन्यरूपन्नादिअवच्छिन्न के प्रति ही हतु होला है, न कि नीलन्य ग्यतत्वादिभवछिन्न के प्रति । भाशय यह है कि मप के अन्यायनिवपक्ष में अवच्छेदकतासम्बन्ध में रूप उत्पन्न हो जाने के बाद पुन: उसी सम्बन्ध में अवयर में रूप की उत्पत्ति का वारण करन के लिए अवच्छेदकतासम्बन्ध में अन्य सपके प्रति ही अच्छंटकतासम्बन्ध में रूप का प्रतिबन्धक नान कर अवच्छंदकतासम्बन्ध में रूपाभाव को हेतु माना जाता है । अवच्छेदकतासम्बन्ध में नीर के प्रते अवच्छेदकनासम्बन्ध में नीलाभाव का, पीत के प्रति पीनाभाव को हेतु नहीं माना जाता, क्योंकि मा स्वीकार करने में गौपच है 1 अनः पीतात्रयवावदन म.पाभाव केवल जन्य रूप का इंतु है, न कि नील कप बा । जन्य रूप तो वहाँ उत्पन्न आ ही है, क्योंकि बटोनिक्षणारछेनेन घट में कपाटावच्छेदेन रूपाभाव रहा हुआ भा। अनः वाद में पीतावयवावरेंदन नीलादि की उत्पत्ति का आपादन नहीं
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५८६ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खरः ३ - का.. * अवच्छेदकतया रूपे समान रूपतता*
वच्छेदेन पाके रक्तोत्पत्तिकाले नीलाद्यापतिः, कार्यतालवच्छेदकावरियाऽलापाद्यत्वात् । यदि तु नीलपीतश्चेतत्रितयकपालारब्धे पीतश्चेतयोः क्रमेण नाशे श्चेतनाशकाले तत्र जन्यरूपत्वावणिमापत्ति: सम्भाव्यते, तदाऽप्यवच्छेदकतया जन्यरूपत्वावच्छिनं प्रत्येव समवायेन रूपस्य हेतुता कल्या , न तु नीलाही नीलादेः, प्रयोजनाभावाद, गौरवाच्च ।।
- जयलता - = रकम पीत्वादक्षगावच्छेद- नीलाद्यापनिः दर्वारा, ननाचक्षणायछंदन पाकन एतावयवरूपनाशान मानावच्छिन्त्रप्रति. मागिताकाभारस्य अवशेदकतत्सम्बन्धन सन्चात् इति वारम्, कर्यतानरच्छेदकावच्छिन्नस्याऽनापाद्यत्वादिति । नालत्यादः मपत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताकाभारनिएकारणतानिमपितकार्यतानवदकत्वनाऽवच्छंटकनया रूपत्वन्लिन्नाभावाधिकरण नीलत्वाद्यवच्छिन्नापादनस्यानहत्वात . जन्यरूपत्वानच्छिन्नग्य रक्तरूपस्य तत्रोलादाटक अभिचाग जोगात । लयुस्याहादरहस्य 7 प्रकृन 'कार्यसहभान तदभावादिति समाहितम ।।
यदि त्विति । अस्य चाग्रे सम्भाव्यत इत्यनेना:न्न्यः । नील-पीत-श्वेतत्रितयकपालारञ्च घंटे पाकन पीहभेनयों: झपयो: क्रमेण नाशे = नाझरधर, वेतनाशकाले = श्वनरूपनशक्षणायन्दन, तत्र बटे अंतरूपध्वंमाधिकरणकपासावच्छेदन, जन्यरूपत्वावच्छिन्नापनिः अबच्छेदकतासम्बन्धन संपल्यावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाबसन्चबलात सम्भाव्यत इति । अयमाक्षप. ग्रन्धारा चयचिनि सम्मवायन रूपोत्पत्त्यन्न्तरमंचावच्छेदकतासम्बन्धनास्वयंव मग उत्पद्यते । अवच्छटकनासम्बन्धन जन्यरुपल्यापन्छिन प्रत्यवच्छेदकतया ममत्वावच्छिन्नाभावस्य हेतृत्वोपगम प्रकृत श्वतवाद क्षणे मकपालावच्छेदेन रूपाभावग्य सच्चन रूपम्यावच्छेदकतासम्बन्धनात्यक्षि: दुर्वास, तस्प रूपाभावकार्यताबन्छंटकाक्रान्नत्वात् । न चैवं भवदीत व्यनिरकभितार इति भावः । समाधानग्रन्धमवताग्यन्ति -> तपाति । नित्यानिनिवारण कृनं-पि, अवच्छेदकतया जन्यरूपत्वावन्निं प्रत्येच, न तु नालवाद्यजिन्नं प्रवगि, समवायन रूपस्य हेतुता कल्या । वत्तम्पनाशक्षणाचच्छदन नत्र ममापन कपाविरहादेव गछेदकलया रूपत्वावछिन्नम्योत्पतिः, आपादकविरह आपरादरासम्मवान् । एवकारफलमाविकुर्वन्ति -> नन अबछेदकतासम्बन्धन नीलादी समवायन नीलादेः हतला कल्प्या इनि आवर्तन । तत्र नयनाहः प्रयोजनाभावादिति । अबछेदकतया जन्यरूपतापन्छिन समवायन याभावस्यैव हेतुत्वस्वीकारण प्रदर्शिता निवारणलक्षणप्रयोजनसिद्धः नालदी नालादेः हेतृत्वकल्पनभनतिप्रयोजनम् । ननु प्रयोजनविरह-पि सामग्रयाः स्वकार्याऽर्जन नलस्त्वात्तत्कल्पने कि जिन्नम ? + हि प्रयोजनक्षनिभिया सामग्री कार्य नायतत्याशङ्कायां इन्वन्तरमाचेदयन्ति --> गौरवान् = अनानाणिकरियात् । लघुना बाजुमार्गण सिध्यतीर्थस्य चक्रण साधना योगात् । ननश्च नानाजादायमापबन्दयपवार यायनि अव्याप्यवृत्ति - किया जा सकना । यहाँ यह शंका वा कि. -> 'भवटकनासम्बन्ध से जन्य रूप के प्रति अवच्छेदकतासम्बन्ध से स्याभाव को प्रतिबन्धकाभावविधया कारण मानने पर भी नील-पीतकपालद्धय से जन्य पद में जब पीतकपालअक्छेदन रक्तरूपजनक पाक = विजानीयाग्निमयोग होने पर पीनकपालाबछेदन स्पन कप उत्पन्न होता है तभी यहाँ नीलादि रूप उत्पन्न होने की आपत्ति आयेगी, क्योंकि रचतोत्पति के पूर्वक्षणावदन वहां रूपाभाव रहना है तो यह भी इसलिए निराकृत हो जाती है कि रूपाभाव का कार्यताव छेदक जन्यरूपत्व है, न कि नीलत्यादि । सामग्री के द्वारा स्वकार्यतावच्छेदकअवच्छिन्न का ही आपादन किया जा सकता है, न कि स्वकार्यतानवच्छेदकधर्मविशिष्ट का । नौलत्यादि तो रूपाभाव का कार्यतानवञ्चरक है। अनएन नीलवादिविशिष्ट की उत्पनि का वहाँ आपादन नहीं किया जा सकना । यदि यहाँ ऐसा उद्भावन किया जाय कि ---> 'जय घट नील, पीत और श्रेन कपाल में उत्पन्न होना है और पाक द्वारा पहले पीतरूप का और अंतरूप का नादा होता है नब भेननाशक्षणावच्छेदन यहाँ जन्प रूप की उत्पत्ति की आपत्ति होगी, क्योंकि जन्यरूपन्य रूपाभाव का कार्यतावच्छेदक है और रूपाभाव भी वहाँ रहता है। मगर वस्तुस्थिति यह है कि अवयची में समवाय मम्बन्ध से रूप की उत्पनि होने के बाद ही अवच्छेदकतासंबंध से रूप की उत्पनि होने में नर वहाँ कोई भी रूप उत्पन्न नहीं होना है' <- तो इस आपनि के निवारणार्थ यह कहा जा मकता है कि जन्यरूपत्वावच्छित्र के प्रति ही समवायसम्बन्ध सं रूप हेतु है। अंतनाशक्षण में यद्यपि अबच्छेदकतासम्बन्ध में घट में रूपाभाव विद्यमान है, मगर समवाय से रूप की अनुपस्थिति होने से उसमें अवां टकनासम्बन्ध मे जन्यरूपत्वावच्छिन की उत्पत्ति हो नहीं सकती। इस तरह अवच्छेदकतासम्बन्ध मे जन्यरूपत्वविशिष्ट के प्रति समवाय सम्बन्ध में रूपमामान्य का ही कारण मान लेन में उपर्युक्त स्थल के अनुरोध में अवच्छटकतासम्बन्ध से नील के प्रति समवाय मम्बन्ध
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* अबछेदकनायाः कारणनियम्यता चेत -> समवायस्टोवाऽवच्छेदकताया अपि कारणनियम्यत्वादवच्छेदकतया नीलादिकं | प्रति समवायेन नीलादेः कारणत्वम् । मतवेवमाये घटादावण्यवच्छेदकतया नीलाद्युत्पतिः स्यादिति चेत् ? अत्र केचित् अवच्छेदकतया नीलादिकं प्रति समवायेजाऽवयवनीलत्वादिना
-* जय *| नानारूपाण्यवात्पद्यन्ते लापवास्. न त्यतिरिकं चित्रं गौरवादिनि एकदेशीयानामभिप्रायः ।
अब मतविशेषमाविर्भावयन्ति -> केवित्त्विति । समवायस्पच अवच्छेदकताया अपि कारणनियम्यत्वादिति । नानाजातीयरूपबद्वयबारब्धयविनि अन्यायानि नानारूपाण्यात्पद्यन्ते । नतश्च पीताबययावच्छेदन नीलोत्पानामङ्गवारणाय अवचंद्रदकतया नीलादिकं प्रति समवायन नीलादेः कारणत्वम यगमन्तव्यग ॥ न च समवायन नील नायत एव. पीताचयवाचन देनेत्यत्र चापादकामात्र इति वकन्यम, समवयस्पेवा रदकताया आगे कारणनियम्यत्वात् अवच्छेदकलगा नीलांयादानगीकारेश्वविनि जायमानस्य नीलरूपस्य नीलवरवध्व-दकत्वासम्भवात । एतेन नालस्य म्वाश्रयावच्छेदन नीलजनकल्यस्वाभाच्यादव न पातावयवावच्छेदन तदापत्तिरिति प्रल्याख्यातम, विननादशकायक रणभावं तधास्वाभाच्या निवाहात्।। अवच्छेदकतया नीलादी समवायन नीलाद: कारणत्वान्युपगमेनब पीतायययावन्डेदन नीलाधुनिासाडगवारणसम्बन अवच्छंद्रकतया नौलादी न समवायन नीलतरादः प्रतिबन्धकत्वकल्पनाया आवस्यकत्वम । अत एवाव्याणवृत्तिनानारूपक्षे नालादी नालेतरांद: नीलतरादी वा नीलादेः प्रतिबन्धकल्वे विनिगमनाचिरहोडपि प्रत्युक्तः, अनभ्युजगती पालम्भदानान ! एतेन प्रनिबध्यप्रतिबन्धकभावकल्पनागान्वमपि प्रत्याख्यातम् ।
ननु एवमपि = अवच्छेदकतया नीलादी समवायन नीलाद; कारणालोपगमपि, घटादी अवधिनि अपि अवछेदकतया नीलाद्युत्पत्तिः स्यात्, समवायेन नीलादे: सच्चादिति चेत् ? अब पर्यनयान केचित समाधानार्ध अवच्छंदकनया नीलादिकं प्रति समवायेन अवयवनीलत्वादिना = अवयवनिमपितवृत्तिविशिष्टतालत्वादिना द्रव्यविशिष्टनीलत्वादिना = सामानाधिकरण्यसे नीलरूप की कारणना, अवच्छंदकतासम्बन्ध से पीत रूप के प्रति समवायसम्बन्ध से पीत म.प की कारणला.. इत्यादि कार्यकारणभावों की कल्पना करनी नहीं चाहिए, क्योंकि उसका कोई प्रयोजन नहीं है और अप्रामाणिक गौरव रोग भी है । इस तरह नील-पीतादि कपालों में भारब्ध घट में भिन्न भिन्न कपालभवच्छेदन अन्यायवृत्ति नील, पीत आदि अनेक रूप की उत्पत्नि मानने में कोई दोष नहीं है . यह फलित होता है ।
अगोदकराया जीलादि के प्रति समवाय हो. oीलादिहेतुता - विशेष कचिः इति । यहाँ अन्य कुछ मनीपियों का यह वक्तव्य है कि ---> नानाजातीयरूपरदवयवों से आरब्ध अवयवी । | में अव्याप्यनि विभिन रूप उत्पन्न होते हैं। ---> 'अवयवा में नीलादि रूप कंवल समवाय सम्बन्ध से ही उत्पत्र होता है, न कि अवञ्दकतासम्बन्ध में <-सा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अबच्छेदकनासम्बन्ध से नील की उत्पनि न मानने पर अपनी में उत्पन्न होनेवाले नील रूप की अवडकना अवयव में भी न होगी । आनएब यह कहना भी कि --> 'नीलपीतकपालाध घट में नील समवायसम्बन्ध में उत्पन्न होता ही है किन्तु पीनभाग में अवच्छेदकत्ता सम्बन्ध में नीलोत्पत्ति का कोई आपाठक नहीं होने से पीनकपाल में जपच्छंदकनासम्बन्ध से नीलोत्पान का प्रसग नहीं हो सकता' <- अनुचित है, क्योंकि समवाय जैसे कारण से नियम्य होता है, ठीक वैसे ही अवञ्चकता भी कारण स नियम्य होती है। अत: पीतकपाल | में अवच्छेदकतासम्बन्ध में नीलमप की उत्पत्ति का कारण करने के लिए यही मानना होगा कि --> अबन्दकतासम्बन्ध | स नीलादि के प्रति समवाय सम्बन्ध में नीलादि रूप कारण होता है । पहाँ यह शंका हो कि -> 'पला कार्य-कारणभाव
मानने पर घर में उत्पत्र होनेवाले नील रूप की घट में अवच्छेदकतामम्बन्ध से उत्पनि होने की आपत्ति होगी, क्योंकि | वहाँ समवायसम्बन्ध से नील रूप रहता है' - ता इनके समाधान में अन्य विद्वानों का यह कथन है कि अवजंदकतासम्बन्ध मे नीलादि के प्रति समवायसम्बन्ध में अवयवनीलआदि रूप हो कारण होता है या स्वसमवापिसमधनत्यसम्बन्ध में विशिष्टनीलादि रूप ही समवाय सम्बन्ध में कारण होता है । सा मानने पर उक्त पनि का अवकाश नहीं है, क्योंकि घट में समवायसम्बन्ध में नाल, रूप ही रहना है, न कि अपयवनीलरूप अथवा यह भी कहा जा सकता है कि घर में कोई इज्य समन नहीं होने से घटसमवेत नीलरूप स्वसमवापिसमवनत्वसम्बन्ध में द्रव्यविशिष्ट नहीं बनना है। अनाम घट में स्वसमवारिसमवेतन्यसम्बन्ध से द्रव्यविशिष्टनीलरूप की समवाय सम्बन्ध से उपस्थिति रहती नहीं है । इस परिस्थिति में घर में अवच्छन्द्रकतासम्बन्ध से नीर रूप की उत्पनि का प्रसंग कैसे आयेगा ! कारण न होने पर कार्य का आपादन नहीं हो सकता । न रहेगा बाम,
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'... मध्यमम्याद्वादरहस्य खण्डः ३ . का. * अवच्छ दकनया रूप द्रव्यस्य वना* द्रव्य-विशिष्टनीलत्वादिलेव वा हेतुत्वगि साहः ।
न च नीलविशिष्टद्रव्यत्वादिनापि तथात्वे विनिगमनाविरहो नीलविशिष्टद्रव्यस्य पीत-1 कपालेऽपि सत्त्वात् तत्राऽप्यवच्छेदकतया नीलापत्तेः विशिष्टाधिकरणतायास्तत्राऽभावात् । nो त्ववच्छेदकतया जत्यरूपत्वावच्छिन्नं प्रति एव समवायेन द्रव्यस्य हेतुत्वमित्यूचुः।
- जयताdT *सम्बन्धन बसमवारिसमजत्वसम्बन्धेन द्रव्यविशिष्टनालनादिना पत्र वा, नत नीलत्वादिना, हेत्त्वमिति । पदादी समवायन अवरबिनीलादः सनगि अन्त्यनिगिन निविदा मागच्यात नाध्यच्छदकतासम्बन्धन नत्र नीलादरुत्पादासड़गः । गद्रा घटादी समवायन नीलादेव मन्नत स्वसमयिसमवनत्ववचन ब्यविशिष्टनीलादः मन्चमिति नाम्वन्दकतासम्बन्धन नालादम्पत्तिप्पसमा आपादकविरह. आगदनाध्यांगादित आहः ।।
न च स्वसगवायसगवतत्वलम्बन्धन दयावांशष्टनालयादवट नीलविशिष्टद्रव्यत्वादिनाऽपि तथात्व = अबच्चेटकतासम्बन्धन नालादिकं प्रति देतृत्व. बिनिगमनाविरह इन न सार्थकारण भावनिश्रय इन चान्यम, उसमवामिनवेदत्वसम्बन्धन नीलविशिष्टद्रव्यस्य मगवायसम्बन्धन पीनकपापि मचान नीलपातकपालद्वयारञ्चघटस्थर तत्र = पीत्तकगले अपि अवनंदकतया नीरापत्ते; - नीलरूपीनादामलान् । अप समाधानाशपः नालगनकपालव्याघटस्थाले नीलसमवापिनि भारु घटस्य समवेतन्वन स्बसम्यागिसमवन्त्वसम्बन्धन नालरूपविशिघटनन्यस्य समयायसम्बन्धन नीलकपाल इन पानकपाले नि सयन निकापाले ग्यवादकत्तासम्बधन नाटकगोत्पादप्रमाणात नापटिनाम्य नाबन्दकनया नीलं प्रति इतनं किन्नु द्रव्यविशियनाला पस्यनि विनिर मनाविन्हः परादित न न च स्वम्गाविसमंचनासम्बन्धन ब्यचिशिष्टनालग्याउन्च्छेदकनया नालं प्रति हतुवे कथं न पातकपाल नालोत्पादः : न्यविदिशश्नालस्य नलविशिष्टद्रव्याभिन्नत्वेन नालविशिष्टद्रव्यवति द्रव्य - विशिष्टनालम्यापि न्यायप्राप्नत्यात, अन्यथा भूतल संयोगेन घटांगष्टपटरवनझायां परिशिष्ट्या सन्चापरिनि वाच्यम्, यथा बिशिरस्य दादानतिरके पि चिराष्ट्राधिकरताया अतिरिक्तत्वं तदेव दयविशिष्टनालस्य नीलविशिष्टद्रव्यानतिरेकडपि तदधिकरणतया: नानात्वान् विशिष्टाधिकरणतायाः - गिटनीलाधिकरणताया; नत्र = पीतकपाले, अभावात् स्वनिरूपितरसमवाय. सम्बन्धाम्लिन्नाधिकरणताच्छिन्न प्रतियोगिताकम्य प्रत्याशिष्टनालाभायम्य स्वरूपंण निकपाले सन्वान्न तत्रान्वच्छंदतासम्बन्धन नालम्पत्यादप्रसङ्ग इति गृदार्थः ।
अन्यायनिनानास पवादिनः अन्य विति । अस्य चरित्यनेना न्ययः । अवच्छंदकतया नालादिकं प्रति समवायन नीलादः हेतृत्वमित्येवगम्यागमे पदकार्यकारणभावकारापातेन गौरवात् अवदकत्तया जन्यरूपन्यावच्छिन्न प्रत्येब, न त न बाजेगी बांसूर्ग !
जौलविशिष्टदा अगोदकमाया रूप iPा हेतु नहीं है व नील. इति । यहाँ यह शंका हो कि -> 'अवच्छेदकतासम्बन्ध में नाल रूप के प्रति स्वसमवायिसमचतत्व सम्बन्य से विशिएनीलरूप को समय सम्बन्ध में कारण माना आय या स्वममवायिसमयतत्व सम्बन्ध से नीलविशिष्टद्रव्य को समवायसम्बन्ध से कारण माना जाय ? इस विषय में माई विनिगमक नहीं होने में दोनों का कारण मानना पड़ेगा, जिससे महागीरख दोप प्रसन्न होगा <-ता यह इसलिए निगधार हो जानी है कि निरुक्त. नीलविशिष्टद्रव्य के नील का कारण मानने पर जो घट नील पीतकपारबय में उत्पन्न हुआ है वह पात कपाल में समर्वत है ठीक वैसे नील कपाल में भी ममदत होने सनीन रूए स्वसमवायसमवेतन सम्बन्ध मे घटद्रव्य में रहेगा, जिसके फलस्वरूप स्वरामवाविसमवेत्तत्व संसर्ग से नीलरूपविशिष्टघटात्मक दत्य ममशय सम्बन्ध से पीत कपाल में रहने की वजह पात कपाल में अवच्छेदकतासम्बन्ध सं नील रूप की उयान होने का अनिष्ट प्रमग आयगा । इसी सचव अवनकतासम्बन्ध से नील के प्रति द्रव्यविशिष्ट नीलरूप की भाँति नीलविशिष्ट द्रव्य को गमवाय सम्बन्ध में कारण नहीं माना जा सकता । अब तो विनिगमनाविरह दोप मी - दो , ग्यारह हो गया न ?! दन्यविशिष्ट नील झा की अधिकग्णना पीत कपाल में नहीं होने से स्वसमापिसमवेत्तत्वसम्बन्ध से दन्यविशिष्ट नील रूप का चहां अभार होने से अवच्छंद्रकनासम्बन्ध मे वहाँ (=पीन कपाल में) नील कप की उत्पत्ति का अवकाश नहीं है।
. ARI मागे प्रति रामपाय से यहेतुत। - माविशेष अन्य, इति । अवयवी में व्यायनि अनेक रूप की उत्पत्ति मानने वाले अन्य विद्वानों अवछंदकतामम्बन्ध में पद
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* मूतंन जन्यरूपकारणतासमर्थनम् * | महापे ज, द्रव्यत्वेन वा हेतुत्वं मूर्तवाहिना वा ? इति तथापि विनिगमनाविरहात् । परे तु केवलनीलादिकपालेऽवच्छेदकतया तदवारणाय स्वाश्रयवृतिद्रव्यसगवायसाबन्धे
-* ाराला - नालत्वावचिन्न प्रत्यगि, समवायन द्रव्यम्य हेतुत्वं न त रूपस्य नीलादों हेतुत्वन । इत्यश्च नानाजानीयरूपदवयवरकारबरिन्धले अध्यायनानि नानारूपाण्यवीराद्यन्न इत्यभ्युपगमागि निर्वहनि घटादाववन्दकतया रूपांत्पत्तिप्रसङ्गश्च परिहनो भवति, घटादी समवायन द्रव्यविरहात् । नीलादेः हेतुत्वानुपगमादतिलाधयमेनन्कल्प इत्यूचुः ।
___ तदपि न चाम, अवच्छेदकतासम्बन्धन जन्यरूपत्वावच्छिन्नं प्रने समवायन द्रव्यत्वेन वा हेतुत्वं मूर्तत्वादिना वा ? आदिपान भूनवादग्रहणम इति तथापि चिनिगमनाविग्हात् । न च भूतत्वस्यापकष्टपरिमाणवचरूपतया कारणतवच्छन्दक गौरवात द्रव्यत्यनंब तत्त्वमिति वक्तव्यम्, क्रियात्मवादिकारणताबन्दकता मनत्वस्य जानित्वाङ्गाकारात । न च भूतत्वादिना सहकमिति शकीयम्, भूत्त्वस्य जातित्वानुगमात्। चिनिगमनाविरहानोक्तहेतुहेतुमद्भाशेषगमा ज्यायानिनि भावः ।
वस्तुतस्तु सम्भवति बलमा गुरुविशेषधर्म सामान्य धर्मस्य कारणतानबदकत्वात सामान्यधर्नम्प द्रव्यत्वस्य न काग्णतावच्छकदत्वं किन्तु लघुनों मूतत्वस्यैवति अबच्छेदकनासम्बन्धेन जन्यम्पत्यापन्छिन्नं प्रनि सम्बायन मूर्तत्वन काग्णत्वं वन मर्हति । इदन्नु प्रकृतकल्पे दूषणं स्यात जाबन्दकतासम्बन्धन रूप उत्पन्न तनत्र सम्बन्धना वयच रूपोत्पनिवारणायामवचंद्रदकतारमण रूपं प्रनि अवच्छंदकतया रूपं प्रतिबन्धकं कल्पनीयमिति गौरवम् । न चाऽवयविनि समवयेनात्पद्यमानमेव रूपमवदन्तया वयचे उत्पनुमहात्यविनि रूपस्य प्रतिबन्धकस्य सत्त्वेन रूपसारविरहादेव नाचवे वच्छंदतया तदा रूपात्पन्नापतिरिति वाच्यम्, एवं ह्ययावनिष्टरूपाभावोऽवच्छंदकतया रू पनि हेतुर्वान्य: स्यात् । तथा व नानारूपवत्कारारब्धवटस्य नील. रूमादीलकपालिकारच्छंदनाउनत्यनिग्रसङगत, तदवयविनि कपाले रुपसत्त्वादिति दिक ।
नन अवच्छेदकतया नीलादी ममवायन नीलादः कारणत्वस्वीकारपक्ष न केवलनालादिकपाले पि अवच्छनकतया नीलादिक जायेत, समवायन नीलादेस्तत्र सत्यात् । तन्निवारणकृतेश्वच्छदकतासम्बन्धन नीलदा स्वाश्रयवृत्ति-व्यस मदायसम्बन्धन नीलाभायादरेव कारणत्वं कल्पनीयम् । यदि कपालं नीलपीतादिकपालिकारब्धं स्यातदेव स्वस्य + नालायभावस्य जाश्रये = नौलपीतादिकापालिकासमवेतकपाले समवायेन वृत्ति यद् घटद्रव्यं तत्तमवायस्य नीलपीतकपालिकारब्धकपाले सत्चन तत्र स्वाश्रयवृत्तिद्रव्यसमवायेन नीलाद्यभावस्य सत्त्वादवच्छेदकतया नीलादिकमुत्पद्यत । पर केवलनीलादिकपाले निरुक्तसंसर्गेण नीलाद्यभावविरहान्न तत्र नालाद्युत्पत्तिरित्यारायवतामपरेषां अन्याय'वृत्तिनानारूपबादिनां मतमाह अपरै न्विति । केवलनीलादिकपाले अबच्छेदकनया तद्वारणाय = नीलाद्युत्पनिवारणाय स्वाथ्यवृत्ति-द्रन्यसमवायसम्बन्धेन निकरीत्या अवश्यकल्प्यहेतुताकस्य नीलायभावम्यैव | में नीलादि रूप की उत्पनि की आपनि का परिहार करने के लिए इस तरह कार्यकारणभाव का स्वीकार करने हैं कि - -> अवच्छेदकता सम्बन्ध में जन्यरूपत्वावभिन्न के प्रति ममवायसम्बन्ध मे द्रव्यत्वेन इन्य हेतु बनता है। जैसे नील • पीनकपाल. दयागय घटस्थल में कपाल में ममवाप सम्बन्ध से घटात्मक द्रव्य रहने की वजह यहाँ अवजेटकता सम्बन्ध सं रूप की उत्पनि हो सकती है - होती है । मगर घट में समवाय सम्बन्ध में कोई भी द्रव्य रहता नहीं है । अत एव घट में अवच्छेदकता सम्बन्ध से रूप की उत्पत्ति नहीं हो सकती है किन्नु गमवायसम्बन्ध में ही उत्पत्ति हो सकती है, जिसका कारण है स्वसमवापिसमवंतत्व सम्बन्ध से कपालरूप । इस तरह घट में अवच्छेदकतामम्बन्ध में रूपांत्पति का प्रमत नहीं हो मकता' <-।
ताप, इति । मगर अमुक विद्वानों का इसके प्रतिवाद में यह कथन है कि -> अवच्छेदकनासम्बन्ध मे जन्यम्प । के प्रति समवाय सम्बन्ध को द्रव्य को द्रव्यत्वेन कारण मानना या मुर्नत्वेन । इस विषय में कोई रिनिगमक नक नहीं है। द्रव्यय की भाँति मूर्तल को भी कारणताऽवदक धर्म माना जा सकता है, क्योंकि अबदकनासम्बन्ध से जहाँ रूप उत्पन्न होता है वहाँ समयाय सम्बन्ध से द्रव्य की भाँनि मूर्तपदार्थ भी अवउप पडता ही है। कारणताअबतक धर्म में पिनिगमनाविरह होने से उपर्युक्त कार्य कारणभाव भी अश्रद्धय है । प्राधान्यामनाय जी
! - अपरमत पर । अवांछनकतासम्बन्ध से घटादि अवय में रूप की उत्पनि के प्रमों को हटाने के लिए अपर विद्वानों का पहाँ यह कथन है कि 'अवच्छेदकता सम्बन्ध में जाने के प्रति ममवाय सम्बन्ध में नील को कारण मानने पर ना केवल नीलरूपवाले कपाल में भी अवच्छेदकना सम्बन्ध से नील रूप उत्पन्न हान की आपत्ति आयगी, क्योंकि वहाँ समवाय सम्बन्ध
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..यमस्यादाटरहस्य स्खएरः ३ - का.. * अवान अयच्छेदकतया नीलाधापत्तिपरिहारः * ताऽतश्यकल्यहेतुताकस्य नीलाद्यभावस्यैव ताशघटाहावभावात नावच्छेदकतया नीलाद्युत्पत्तिः।।
स्तुतस्तु अवच्छेदकतया जन्यरूपत्वावच्छिन्नं प्रति द्रव्यविशिष्टसमवायेनैव रूपस्य हेतुत्वात् न घटादाववच्छेदकतया नीलाधापतिः । केचित -> केवलनीलकपालादिष्ववच्छेदकतया नीलादिवारणायाऽवयवान्तरवृत्तिनीलेतर- -
- जयलता *तादृशघटादी = नालपीतकापालाद्यारधवदादी अभावात् न तत्र अवच्छेदकतया नीलायुत्पत्तिः । बदस्य स्वाश्रयत्वसम्बन्धेन नीलाद्यभावविशिष्टत्वेऽपि समवायेन द्रव्या विशिष्टत्वात स्वाश्रयवृत्तिद्रव्यसमवायन नीलायभावविरहान्न तवायच्छेदकतासम्बन्धन नीलाधुतातिरिति भावः ।
परन्वंतत्कल्प नीलं प्रति नीलाभावस्य, पीनं प्रति पाताभावस्यत्येवं रीत्या परफल-फलबन्नावकल्पनागारकं नालपीतकपालद्वितयारब्धघटस्थले चपीदकपालावदेन नालायुत्पादापनिर्दवारा गौलाद्यभावाश्रयपातकपालवृत्तिपटद्रव्यसमवायित्वन पीतकपाले स्वाश्रयत्तिद्रव्यसमवायेन नालायभावस्प सत्त्वादित्यस्वरसात्कल्पान्तरमाह ---> वस्तुत इति तुर्विशेषद्योतनार्थ: । प्रकृतकल्प कार्यतावच्छेदक: जन्यरूपत्वधर्मः कार्यतावच्छेदकसम्बन्धोऽवच्छेदकत्वं कारणतावच्छेदकधर्म: रूपकरणतावच्छेदकसम्बन्धश्च द्रव्यविशिष्टसमवायः वैशिष्ट्यमपि समवायटितसामानाधिकरण्यनैव बोध्ये, अन्यथा कालिकादिकमादाय पुनर्षि घटेश्वच्छेदकतया रूपोत्यादापने: । घटादावन्त्याचबिनि समवायन रूपसत्त्वेऽपि द्रव्यासपचेन समवायन द्रव्यविदिष्टी य: समवायः तेन द्रव्यविशिष्टसमवायसम्बन्धेन रूपरमाःसत्त्वात न घटाटाववच्छेदकतया नीलाद्यापत्तिः । न च नीलत्वाद: रूपकार्यतानवच्छेदकत्वेन न नदयच्छिन्नापादनं सम्भवति । अत पत्र तनिवारणार्थो नार्य यत्नः श्रेयानिति वाच्यम्, नीलपदस्य रूपपरत्वात् । न च नधा सनि आदिशब्दनरर्थक्यापने: एकं सीव्यता परप्रच्युनिरिति वाच्यम, भादायत = गृहात वस्तु यत: प्रभूति स आदिगिति व्युत्पत्त्या आदिपदस्योत्पनिबोधकत्वापात्पन्यापनिरिति नदधसङ्गतरिति भाषनीयम् ।
कचित्त्विति । अस्य वायुपगच्छन्तीत्यनेनान्वयः । केवलनीलकपालादिषु = नीलेनररूपशून्यप नीलकपालादिषु अवच्छेदकतया - अवच्छन्दकतासम्बन्धन नीलादिवारणाय = नीलाद्युत्पादापनिनिराकरण कृते व्याप्यनिनीलस्थल:से नील रूप रहता है । इस आपत्ति के निवारणार्थ यही कार्य-कारणमार मानना होगा कि अबच्छेदकतासम्बन्ध से नीलादि रूप के प्रति स्वाश्रयवृत्तिद्रव्यसमवायसम्बन्ध से नीलायभाव हेतु बनना है । इस जन्य-जनकभाव को मान्य करने पर केवल नीलरूपवाले कपाल. में अवच्छेदकता सम्बन्ध में नील रूप की उत्पाने की आपत्ति नहीं आयेगी, क्योंकि उस कराल की कपालिका में नीलरूपाभाव नहीं होने से वह स्वाश्रयवृत्तिद्रव्यसमवाय से उस कपाल में नहीं रहता है। यदि वह कपाल नीलपीतकालिका से जन्य होता टन उसमें अवच्छेदकता सम्बन्ध में नील रूप उत्पन हो सकता है, क्योंकि यह कपाल स्व = नीलरूपाभाव के आश्रय = नीलपीतकपालिकाजन्य कराल में वृति = घट द्रव्य में ममरत होने से म्याश्रपवृत्तिद्रव्यसमवापसम्बन्ध में नीलरूपाभार का आश्रय बनता है । इस हेतु-हेतुमद्भाव का स्वीकार जर कंवल नीलादिरूपवाले कपाल में अपदकतामचन्य से नीलादि की उत्पत्ति के निवारणार्थ आवश्यक है तब पट में प्रवदकना सम्बन्ध में नीलादि रूप की उत्पनि का अनिष्ट प्रसङ्ग निगरकाश हो जायेगा, क्योंकि नीलपीतकपालद्वयारध घट नीरादिअभाव का आश्रय होने पर भी उममें कोई भी द्रव्य वृत्ति = आथित = समर्थन नहीं होने से बह घट स्वाभयतिद्रव्यसमवाय सम्बन्ध में नीलाभाव का आश्रय नहीं है ।
द्रव्यविशिष्टत्मामताय से रूपकात बस्नुन, इति । मगर वस्तुस्थिति यह है कि लापबमहकार से अवच्छेदकता सम्बन्ध से जन्यरूपत्वावनि के प्रति दन्यविशिष्टसम-याय सम्बन्ध से रूप ही कारण होता है। इस कार्य-कारणभार के स्वीकार में घट में अवच्छेदकतासम्बन्ध से नीचादि रूप की उत्पनि का अनिष्ट प्रमा अनुपस्थित रडगा, क्योंकि घट में समवाय सम्बन्ध में कप होने पर भी पट में को ट्रम्प नहीं होने से वहाँ द्रव्यविशिष्टसमचायसम्बन्ध से प नहीं रहता है । कारण नहीं होने पर कार्य का आपादन नहीं किया जा सकता । इस तरह इस सामान्य जन्य-जनकभाव का स्वीकार करने से ही बटादि अपयनी में अवच्छेदकता सम्बन्ध से नीलादि रूप की उत्पनि का वारण हो जाने से विशेष कार्यकारणभाव की कल्पना करने की कोई आवश्यकता नहीं रहती है।
स्वामवासिसमवेतद्रव्यसनारा लिदिएता - मावि
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* पपप्रवेशप्रयोजनप्रकाशनम् *
रूपादेः स्वसमवायिसमवेतद्व्यसमवायसम्बन्धेन हेतुत्वमभ्युपगच्छन्ति ।
सत्यल्ये, कपालान्तरावच्छेदेन पाकाद्रक्तरूपोत्पत्तिकाले कपालान्तरविद्यमानान्नीलादव्याप्यवृत्तिनीलाऽनापत्तेः ।
ॐ जयलवा
व्यायवृत्तित्ववारणायेति यावत्, अबच्छेदकतासम्बन्धेन नीलादिकं प्रति अवयवान्तरवृत्तिनीलेतररूपादेः स्वसमवायिसमवेत| द्रव्यसमवायसम्बन्धेन हेतुत्वमिति । अवच्छेदकता संसर्गेण नीलादी समवायेन नीलादे: हेतुत्वं तु केवलनीलकपाले यवच्छेदकतया नीलमुपजायेत तत्र समवायेन नीलरूपस्य सत्त्वात् । एतेन अवच्छेदकतया नीलाद। स्वसमवायिसमवेतद्रव्यसमवायेन नीलेतराद: कारणत्वमित्यपि प्रत्याख्यातम्, नीलपीतकपालारव्यवस्थाले नीलंतररूपसमवायिरीत कप समवेतघटद्रव्यसमवायित्वेन केवलपीतकपाले केवलनीलकपाले च स्वसमवायसमवेतद्रव्यसमवायसम्बन्धेन नीलेतररूपसत्त्वादवच्छेदकतया नीलोत्पादप्रसङ्गात् । अतोवच्छेदकतया नीलादी स्वसमवायिसमवेतद्रव्यसमवायित्वसम्बन्धेनाऽवयवान्तरवृनिनतिररूपादेरेव कारणत्वन् । एतेन केबलनीलकपाले बच्छेदकतया नीलोत्पादसङ्गोऽपि परास्तः, केवलनीलकपालकारणीभूतकपालिकाया नीलेतररूपाऽसमवायित्वेन केवलनील| कपालं स्वसमवाथिसमवेतद्रव्यसमवायेन नीलेतररूपविरहात् । नीलपीतकपालिकाद्वयारब्धकपालजन्यघटस्थले व नीलतरपीतरूपसमवामिकपालसमवेतपद्रव्यसमवायिनि कपाले स्वसमवायिसमवेतद्रव्यसनवायसम्बन्धेन पीतेनररूपसत्वादवच्छेदकतया नीलोत्पतिरपि सङ्गच्छते । रूपन्य-गुणत्व- कर्मत्वादी अवच्छेदकतया नीलाद्युत्पत्तिवारणाय कारणतावच्छेदकसम्बन्धकुक्षी द्रव्यपदनिवेशः । कारणतावच्छेदकीभूतं अवयवान्तरवृत्तित्वं च समवायन ग्राहाम्। अतो न कालिकादिकमादायाऽतिप्रसङ्गतादवस्थ्यम् । अवयवान्तरत्वच अभिमतकार्याधिकरणापेक्षा बोध्यं तेन न केवलनीलकपालावच्छेदकतया तदुत्पादप्रसङ्गः ।
तत्रेत्यन्ये । अवच्छेदकतया नीलादाववयवान्तरसमवेतनीलेतरादेः स्वसमवायिसभवेनद्रव्यसमवायेन कारणत्वीपगमे नीलकपालद्वितयारधघटस्थले कपालान्तरावच्छेदेन पाकात् = विजातीयरतजनकतेजः संयोगात् रक्तरूपोत्पत्तिकाले = पाकजरतरूपांत्पादक्षणावच्छेदेन कपालान्तरविद्यमानात् = पाकशून्यकपालसमवेतान् नीलाद् नीलरूपात् अवच्छेदकतासम्बन्धन तत्र | अव्याप्यवृत्निनीलाsनापत्तेः स्वाभावसमानाधिकरण्णनीलरूपीपादानुपपत्तेः तदानी रक्तरूपस्योत्पद्यमानत्वेन तत्पूर्वं स्वसनवायि
=
.०.१
—
केचित्तु इति । कुछ विद्वानों का यह अभिप्राय है कि
"अबच्छेदकता सम्बन्ध में नीलादि के प्रति समवाय सम्बन्ध
से नीलादि को कारण मानने पर केवल नीलरूपवाले कपाल आदि में भी अवच्छेदकता सम्बन्ध से नील रूप की उत्पत्ति का अनिष्ट प्रसत उपस्थित होगा, क्योंकि वहाँ समवाय सम्बन्ध से नील रूप रहता है। मगर वहाँ समवाय से नील रूप होने पर भी अवच्छेदकता सम्बन्ध से नीलरूप उत्पन्न होता नहीं है। अतः केवल नीलरूपवाले कपालाति में अवच्छेदकतासम्बन्ध । से नीलरूपांत्पत्ति के निवारणार्थ ऐसा जन्यजनकभाव मानना आवश्यक है कि अवच्छेदकतासम्बन्ध से नीलादि रूप के प्रति अवयवान्तरवृत्ति नीलेतरादिरूप स्वसमवायिसमवेत द्रव्यसमवाय सम्बन्ध से हेतु होता है। जैसे नीलपीत कपालिकाजन्यकपालारम्भ घटस्थल में कपाल में नीलेतर ( पीत) रूप स्वसमवायिसमवेतद्रव्यसमवाय सम्बन्ध से रहता है, क्योंकि अपने अवयवान्तर के नीलेतर रूप के समवायी कपाल में समवेत घट द्रव्य का समवाय कपाल में रहता है। अतएव उस कपाल में अवच्छेदकता सम्बन्ध से नील रूप उत्पन्न हो सकता है। मगर जिस कपाल के अवयवान्तर में नीलंतर रूप नहीं है, केवल नील रूप ही है, उस कपाल में अवच्छेदकतासम्बन्ध से नीलेतर रूप की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि वहाँ स्वसमवायिसमवेतद्रव्यसमवायसम्बन्ध से नीलेतर रूप ही नहीं रहता है। ऐसा कार्य कारणभाव मानने का लाभ यह है कि घट में अवच्छेदकतासम्बन्ध से नीलादि । रूप की उत्पत्ति का प्रसत नहीं आयेगा, क्योंकि घट के अवयरान्तर में नीलेतर रूप होने पर भी घट में अन्य कोई द्रव्य समवेत नहीं होने की वजह स्वसमवायिसमवेतसमवायसम्बन्ध से नीलेवर रूप रहता नहीं है। इस तरह भी नील- पीतकपालद्वयारम्भ घट में reaासम्बन्ध से नीलादि रूप की उत्पत्ति का निवारण हो सकता है ।
तन्नेत्यन्ये । मगर अन्य विद्वानों यह कह कर उपर्युक्त कार्य कारणभाव का निराकरण करते हैं कि अवच्छेदकतया नीलादि के प्रति स्वसमवायसमवेतद्रव्यसमवाय सम्बन्ध से नीलंतर रूपादि को कारण मानने पर जिस नीन्दकपालद्वयारन्य घट के एक कपाल में पाक से रक्त रूप की उत्पत्ति होती है उसी समय घट के नील कपाल में समवेत नील रूप से घट में अव्याप्यवृत्ति नील रूप उत्पन्न होता है वह उत्पन्न नहीं हो सकेगा, क्योंकि उसकी पूर्व क्षण में वहाँ स्वसमवाथिसमवेतद्रव्यसमवायसम्बन्ध से नीलेनर (रक्त) रूप रहता नहीं है। नीलंतर रक्त रूप तो उस क्षण में उत्पन्न होता है। अतः उसकी पूर्व क्षण में नीलेनर
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.०२ मध्वमस्याहादरहस्य खण्ड: . का.. *अभिनयकशिमताधिकारः
रक्तोत्पत्यानन्तरमेव तत्राऽप्यन्याय्यवृत्तिनीलोत्पत्तिरित्रापरे ।
नन्वेवमपि नानारूपवत्कपालाधार घटे तत्कयालावच्छेदेन नीलाधापत्तिरिति चेत् ? स्टील पालिसवच्छिमातहदच्छेदेनेष्टत्वमेव तस्याः ।
* जयलता सम्वेतदन्यसमवायसम्बन्धन नीलेतररूपस्याऽसत्त्वात. कार्योन्यादान्यवहितपूर्वक्षणावरदेन कायाधिकरणविधयाभिमने कारणताबच्छेदकसम्बन्धनाश्वत: कारणत्वाच्योगात । उत्थश्च न्यतिरकन्यभिचारकलालित्वान्नावन्डेदकतया नीलादी म्बममवापिसमवेनद्रव्ययमन्त्रायसम्बन्धन नीलंतररूपादेः कारणत्वमित्यन्यधामाशयः ।
पाकात रक्तोत्पत्त्यनन्तरमेय, न तु पाकजरूपांत्यत्तिक्षणावच्छेदन, नत्र नलकपालद्रयान्वयट कपलान्तावच्छंदन ग्न, रूपजनकापाकस्थले, अपि अवच्छेदकतासम्बन्धन अव्याप्यवृनिनीलोत्पत्तिरिति म व्यतिरकन्यभिचागं लब्धावकाश.. तया व्यायवृत्तिनीलोत्पादाऽव्यवहितप्राकृक्षणावच्छदन स्वसमबाविस संवतद्रव्यममायनाक्यवान्तरसमचतीलतगत प ... अपरे वदन्ति । अपर इत्पन्नास्वरसोद्भावनं कृतम्, रक्तांत्यदानन्तरमंत्र तत्र नीलात्यादा न जानात्तिणाव-::.. युवत्यादिविकलत्वेन झापथमानदेयत्वात् । न च निरुक्तकार्यकारणभावमलप्रसङ्ग व रत्नांत्यादक्षण: पनकतया तत्र . . .: बाधक इति वाच्यम्, परम्परालयग्नस्तत्वप्रसङ्गात. सिद्ध तादृशकार्यकारणभाचे रकान्यदानन्नगायाप्यनिनीलोत्पादगिद्ध: पड़े च तस्मिन् निरुक्तफल-फलबद्भादसिद्धेरिति दिक ।
एकदेशिनस्तु नीलमात्रारब्धे कपालान्तवदेन पकिन रतरूपांत्यांना प्राकतनीलरूपनादादेवा व्यायवृनिनीलोत्पनेः अवच्छेदकतया नीलादी अवच्छेदकनया नीलाभानादस्व तत्वनि ब्याचक्षने ।
ननु एवमपि = अवछंदकतया नीलादा समवायन नालाद कारणत्वं गगनगि. नानारूपवत्कपालाद्यारब्धं = नीलमात्र-पीतमात्रकपालिकादयारधन लपातकपाल कपालान्तगरब्ध, पर तत्कपाळावच्छेदन = अबछदकतासम्बन्धन नीलपीताभयाश्रयकपाले नीलाद्यापत्तिः समवायन तब नीलादेस्सन्चादिति । न चापदफनया नीमादी समयावना वयवनालाद: म्बममवापिसमवेतत्वेन द्रव्यविशिष्टनीलादेर्वा समवायन हेतुल्लाभ्यपगनेकी ननिस्तारः । नानारूपचदयपदारब्धववियव भवनामन्याप्यवृत्तिनानाजानीयरूपाभ्युपगमो न तु नानाजातोयरूपदवपवार ययाति चेत् : न, नानाजातीय नियं ग्य- ॥ वयविनीबाच्याग्यवृत्तिनानारूपोपगमात् । अत एव नीलकपालिकावच्छिन्नतदवच्छेदन = स्बसमा . . .लिका - विशिष्टतत्कपालावच्छेदेन, स्वसमबतत्वसम्बन्धन नीलकपालिकाचिकटतत्कपालं अयच्छन्दका मानना , इष्टत्वमेव तस्याः = तत्कपालगतनालाग्रुत्यतः ॥ यदि च नीलमान-पानमात्रकपालिकाद्वयारञ्च-गामालकालाधारब्धघाटगतनीलादौ नीलकालिकाविशिष्टतत्कापालावच्छेद्यत्वमनभवचिद्धमित्यशाच्यते तदाऽवच्छेदकत्या नीलादः समवायन नीलंतररूपाय प्रतिबन्ध
रूप की अनुपस्थिति है। कारण की उपस्थिति तो कार्याधिकरणविधया अभिमन में कारणतार टकसम्बन्ध से कार्योपनि की पूर्व क्षण में होनी ही चाहिए । इस व्यतिरेक व्यभिचार के प्रसंग से उपर्युक्त कार्यकारणभाव को मान्य नहीं किया जा सकता' । <- मगर यहाँ अपर विद्वानों का यह मन्तव्य है कि नीलकपालद्वारब्ध घट के एक कपान में पाक में रक रूप की उत्पत्ति होती है, न कि रनोत्पत्तिक्षण में । जब अन्याप्यवृति नील रूप अवच्छेदयाना सम्बन्ध से कपाल में उत्पन्न होता है उसकी अव्यवहित पूर्व क्षण में तो स्त्रसमवापिसमवेतद्रव्यसमवायसम्बन्ध में अवयरान्नग्रामवंत नीलतर - ग्न रूप उस कपाल में रहता ही है, क्योंकि तब वह पाक में उन्पग्रमान होता है। अनः अवटकनासम्बन्ध से नीलादि रूप के प्रति अवयवान्तरसमवंत नीलेतररूपादि को स्वसमवायिसमवेनद्रव्यसमवायसम्बन्ध में करण मानन में कोई दोष नहीं है ।
नन्धवइति । यहाँ यह शंका हो सकती है कि -> 'अवच्छेदकतासम्बन्ध में नीलादि के प्रति समवाय सम्बन्ध में नीलादि को कारण मानने पर भी नीलमात्र और पीतमान मप से विशिष्ट कपालिकाद्वय से उत्पन्न होने वाले नीलपीतकपाल से घट उत्पन्न होने पर नील-पीतकपाल में अवच्छेदकतासम्बन्ध से तन्कपालगत नील रूप की उत्पनि की आपनि आयेगी, क्योंकि समवाय सम्बन्ध से नील रूप वहाँ रहता है। आपनं नो अव्याप्यवृत्ति अनेक रूए का स्वीकार अवयवी में किया है, न कि अवयव में* <- मगर यह शंका इमलिए निराकृत हो जाती है कि नीलकपालिकाविशिष्टकपालावच्छेटेन नत्कपाल में अवदकतासम्बन्ध से तत्कपालगत नील रूप की उत्पनि इष्ट ही है। अत: यह इष्टापनि है, न कि अनिष्पापत्ति । हमें अवयनी की भाँति अवयव में भी अन्यायवृत्ति अनेक विजातीय रूप को मान्य करने में कोई हिचकिचाहट नहीं है।
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अवच्छेद्यत्वनियामकविचारः *
पतु अदकतया जीलादिकं प्रति समवायेन नीलादिना न कारणत्वं किन्तु नीलेतरकपालादीनामेव प्रतिबन्धकत्वमिति न तमीलाद्यवच्छेदकं किन्तु नीलकपालिकैव तादृशीति, ततुम्, कपाल नीलाद्यवच्छेदिकाया: कपालिकाया घटनीलाद्यवच्छेदकत्वाऽयोगात्
ॐ गयलता
कन्वमङ्गीकृत्य नीलमात्र गीतभानकपालिकाद्वयानीलकणले तदुत्ययापनिनिवारणायेति विभावनीयन ।
नीलगाव - पीत मात्र कपालिकायारन्ध-नीलपीनकरालास्स्वयम्पले नीली कपाळायचंदन नीलादिवारणाय मनविशेष दर्शयतियत्त्विति । तत्तुच्यमित्यनेनऽयाययः । अवच्छेदकतया नीलादिकं = नावाप्रति समवायेन नीलादीनां न कारणत्वं नीलपीतकपाले नया नीलायागते किन्तु नीलेतरकपालादीनामेव तादात्म्येन प्रतिबन्धकत्वमिति नीलादी स्वरूपण तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकनीलंतर कप लादिभेदस्य कारणम् । अनेन नीलमायगांनमात्रकपालिकाळ्यारवतीलपीतकपाले बच्छेदकतासम्बन्धेन नीलाद्यापत्ति प्रत्युक्ता यती नीलकपालस्य नीलतरकपाटभिन्नत्वविरहात् न तत् = नीलपीतकपालं नीलायकम् । तर्हि किं तददकं ! इत्याशङ्कायामाह --> किन्तु नीलकपालिकेच तादृशी नीलपरीतकपालारम्भिका नीलायवच्छेदिका च तत्र तादात्म्येन नलेतरकाळादेरसयात् । ततः नीलमात्र - पीतमात्रकपालिकाद्वयारन्ध-कपालास मटनीलरूपवच्छेदकतया नीलपीतकालसगवायि-नीलमात्रकपालिकाया बोत्पद्यते न तु नीलपीतकपाटे, निरुक्तरीत्या आपदक विरहादित्यभिप्रायः ।
तत्तुच्छम्, कपालनीलाद्यवच्छेदिकायाः = नीलपीतकपालस्यचेननीरूपादिनिष्टावच्छेद्यतानिरूपिता बच्छेदकनाविशिष्टायाः कपालिकायाः = नीलमात्रादिकपालिकारण बदनीलायबच्छेदकत्वाऽयोगात्, अपरिसमवेताऽच्या चवृत्ति पदाधनिष्ठाञ्च्छेयतानिरूपितावच्छेदकतया अवयवनवास्ययंत्र एवं सन्वात् न वाच्यवयास मलयचेऽपीति नियमात् । अती नीटमात्र पीतमात्रकपालिकाका नीलगतच्छेदकतया न नीलमात्र कालिकायामुत्तुमर्हति किन्तु नीलपीतकपाल एवेति लगायत गीली नीलाद्युत्पत्तिः न बावच्छेदकतया नीलादा अच्छेदकता. सम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकम्पनी नियुकाः तन्त्रिस्ताः पीतल पातकपालिकावच्छेदेन नाव भातस्याऽचलेदकता पति पोगितावनीला मनवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताको यो नीलेतराभावः सामान प्रतियोगिताकस्य यभावस्य स्वरूपसम्बन्धन कारणत्वमिति स्वीक्रियते सम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताकस्व नीलाभावस्य सामानाधिकरण्येन समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगितानागभाववित्वनिरान नीलपीतकाराले बच्छेदकतया नीलाद्युत्पत्तिरिति वाच्यम्,
=
८५३
* वादायसम्मन्य से नीलेनंदकपालादि अप्रतिबन्धक
यत्तु इति । अन्य विज्ञानों का यह मन्तव्य है कि अवच्छेदकता सम्बन्ध में नीलादि के प्रति समवायसम्बन्ध से नीलादि रूप कारण नहीं है किन्तु नीलेतरकपालादिअभाव ही कारण है, क्योंकि अवच्छेदकतया नीलादि के प्रति नीलेतरकपालादि प्रतिबन्धक है । इसलिए नील- पीतकपालादि में अवच्छेदकता सम्बन्ध से नीलादि रूप की उत्पत्ति की आपनि को अवकाश नहीं है, क्योंकि अवच्छेदकतासम्बन्ध से होनेवाले नीलादि का अवच्छेदक नील-मीतरूपवाला कपाल नहीं है किन्तु नीलकमालिका दी हैं । नीलकपालिका में तो अच्छेदकतासम्बन्ध से घटगन नील रूप की उत्पत्ति होती ही है. क्योंकि अवच्छेदकतासम्बन्ध से नीलादि का प्रतिबन्धक नीचेतरकपालादि तादात्म्यसम्बन्ध से रहता नहीं है । इस तरह तादात्म्यसम्बन्ध से नरकपालादि को ही अवच्छेदकतासम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाले नीलादि रूप का प्रतिबन्धक मानना समीचीन है' |
->
तुच्छ इति । मगर यह भी असङ्गत है, क्योंकि कपालिका तो कपालगत नीलादिरूप की अवच्छेदिका होने की बजह घटगत नीलादि रूप की अवच्छेदिका नहीं बन सकती । अवपत्री में वृति अव्याप्यवृति पदार्थ का अच्छे अवची काही अवयव हो सकता है, न कि अवयवी के अवयत्र का अवयव भी । अतः नीलपीतपान में अच्छेदकतासम्बन्ध मे नील रूप की उत्पत्ति की आपति ज्यों की त्यों बनी रहेंगी। यदि उक्त आपत्ति के निवारणार्थ यह कहा जाय कि --> 'अवच्छेदकतासम्बन्ध से नीलादिरूप के प्रति वच्छेदकनासम्बन्धावच्छिन नीलादिअभाव कारण है तो भी नीलपीतपाल में अवच्छेदकता सम्बन्ध से नीलादि रूप की उत्पत्ति होने की आपनि ज्यों की त्यों बनी रहती है, क्योंकि नीलपीतकपाल में पीतकपालिकावच्छेदेन नीलाभावादि रहता ही है। यदि वक्त आपत्ति के निवारणार्थ ऐसा कहा जाय कि 'अवच्छेदकता
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.५.९ मध्यमस्याडादरहस्ये खण्डः ३ . का...
अन्वयाचाराधिकरणम * अवच्छेदकतासम्बन्धातच्छिापतियोगिताकस्य नीलेतराभावविशिष्टनीलाधभावस्याऽवच्छेदकतया नीलादी हेतुत्वे गौरवात्, व्याप्यवृत्तिनीलवत्कारालेऽवच्छेदकतया घटनीलसत्त्वेऽध्यवच्छेदकतया तदापत्तेश्च । अवच्छेदकतासम्बन्धावछिन्नप्रतियोगिताकनीलेतराभावविशिष्टनीलाध
-* जयअवच्छेदकतासम्बन्धावन्चिनप्रतियोगिताकस्य = अवच्छंटकतासम्बन्धावच्छिन्ननीलादिनिप्रतियोगितानिस्पकर, नीलेतराभावविशिष्टनीलायभावस्य = सामानाधिकरण्यसम्बन्धेन सभवापसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक-नीलतराभावविशिष्टस्य नीलादिरूपाभायस्य, अवच्छेन्द्रकनया नीलादी हेतुन्वे स्वीक्रियमाणं गौरवान् = कारणतावच्छेदकधर्मादिगारवान् । न च फलमुखत्वेन तस्याःदोपत्वमिति वाच्यम्, प्रमाणान्फलफलवझायनिश्चयानन्तरमुपस्थितगौरवस्यैव फलमुखपदार्थत्वात् । प्रतने तादृशजन्यजनकभाचनिश्चयपूर्वमेवा:न्वयन्यभिचारापस्थितः तथा वक्तुमशक्यत्वादित्याशयेन दोषान्तरमाह व्याप्यवृत्तिनीलबत्कपाले = नीलनात्रपातमात्रकमालद्वितयारब्ध-घटसमवायिनि न्यायवृचिनीलरूपवनि कपाले, अवच्छेदकतया = स्थनिष्ठानच्छद्यतानिरूपितावच्छेदकतासम्बन्धन घटनीलसत्त्वे = घटसमवेतनीलरूपस्य सच्च अपि अवछंदकतया तदापत्तेत्र = कपालसमंवतालरूपोत्पन्यापनश्च, नत्कालवृतिनीलरूपस्य व्याप्यत्तित्वेनादवच्छेदकनासम्बन्धन नीलमात्रकपालेश्वर्तमानतया वन्दकतासम्बन्धावच्छिन्नतियोगिताकम्य नीलाभावस्य समानाधिकरण्यन समन्वायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियाग्तिाकनीलतराभावविशिष्टम्य स्वरूपसम्बन्धन नीलमाकपाल सत्त्वान् । न च नीलमात्रकपालेश्वच्छंदकतया कपालसमवनव्याप्यनिनीलरूपमुत्पद्यत किन्न घटवृत्त्यच्याप्यत्ति-नालरूपमन्यन्वयन्यभिचाराचार्य हेतु-हेतुमद्राबादप्युपादेय इति तात्पर्यम् ।
ननु नौलमान-पानमात्रकपालिकाद्रयारब्ध-नीलपातकपालजन्यघटस्थाले नाल-पातकपाल बन्दकतासम्बन्धन नालायुत्पनिवारणावा-यछदकतासम्बन्धन नीलादी अवच्छंदकतासम्बन्धावनिकन्न प्रतियोगिताकस्य नालायभावस्य सामानाधिकरण्येनावन्दकता- | सम्बन्धान्छिनप्रतियोगिताकनीलतराभावविशिष्टस्य व हतत्वं स्वीक्रियते । न च नालापातकपाले नीलनात्रपालिकारच्चंदन नीलतराभावस्य सत्त्यान तत्र पातमात्रक्रपालिकापच्छंदन स्वरूपेग सती:वच्छन्दकतासम्बन्धावछिन्नप्रतियोगिताकस्य नीलाद्यभावग्य यामानाधिकरण्यन अवलंदकतासम्बन्धवच्छिन्त्रप्रतियोगिताकनीलतराभावविशिष्टल्यानदवरवा चन्दकनया नालायुत्पादापनिर्सिन वक्तव्यम, नालेतरसामानाधिकरण्या विशिष्टानाषणस्वरूपस्वकारटकनासम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताकस्य नालाहभावस्य सामाना. चिकरण्येनाऽवच्छेदकतासम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताकीलतगभावविशिष्टस्यायच्छेदकतया नीलादी हेतुत्वाभ्युपगमारत, प्रकृतव्यच्छंदकतासम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताकस्य नालनराभावस्य नलिनरसामानाधिकरण्या:विशिष्टावच्छेदकतासम्बन्धावन्छि प्रतियोगिताकनालाद्यभावविशेषणविरहात, अवचंदकतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकनीलावभावस्य स्वरूपेण नीलपतकपाले रुचात् । इत्य। निरुतनीलतराभावविशिष्टनालाद्यभावस्यावच्छेदकतन्या नीलादी कारणत्वं नालेतरसानानाधिकरण्या-विशिष्टविशेषणत्वस्य च कारणताबच्छेदकल्यमित्यहीकारणेव नीलपीनकपालवच्छेदकतया नीलाद्युत् निवारणसम्भव इत्याशङ्गकामपाकर्नुलाह --> अवच्छेदकतासम्मन्धावच्छित्रप्रतियोगिताकनीलतराभावविशिएनीलायभावस्य भावर्णित विग्रहस्वरूपस्य नीलेतरसामानाधिकरण्याऽविशिष्ट
सम्बन्ध में नालादि के प्रति अवच्छंदकतासमन्धावच्चियानियोगिनाक नीलेतराभावविशिष्ट नीलाद्यभाव कारण है' <- नर यमपि नीलपीनकपाल में अवदकतासम्बन्ध मे नीलादि रूप की आपनि का निवारण हो सकता है, क्योंकि नीलपीतकपाल में पीनकपालिकावच्छित्रप्रतियोगिताक नीलायभाव रहने पर भी वह नीलेनराभावविशिष्ट नहीं है, क्योंकि नीलपीतकपाल में समवायसम्बन्ध से नीलेकर पीतरूप रहता है तथापि यह कार्यकारणभाव मान्य नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसके स्वीकारपक्ष में कारणतावदक धर्म में गौरव प्रसक्त होता है।
याण्यइति । इसके अतिरिक दोष यह है कि जहाँ नील-पीतरूपवार, घट के आगम्भक एक कपाल में व्याप्यवृनि नील रूप और दूसरे कपाल में पीतरूप होता है वहाँ व्याप्यनितीलरूपवाले कपाल में अवन्दकतासम्बन्ध में घटनीलरूप की उत्पत्ति होने की आपनि आयगी. क्योंकि उम कपाल में समरायसम्बन्ध में नालेनर रूप नहीं है और उसका नील रूप कपाल में च्याप्यवृनि होने की बजह, ममचाय सम्बन्ध में वहाँ रहता है, न कि अवछटकनासम्बन्ध में । अतः समवायावछिनप्रतियोगिताक नीलेतगभार मे विशिष्ट अवच्छेदकतासम्बन्धावनिप्रतियोगिताक नीलाधभार होने से व्याप्यवृत्तिनीलरूपवाले कपार में भी अबदकता मबन्ध में कपासनीलरूप की आपनि अपरिहार्य बन जायेगी।
ब, इनि । यदि यहाँ ऐसा कहा जाय कि -> 'अभी जिस कार्य-कारणभाव का निरूपण किया गया है उसमें
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* नरोपप्रकाशनम | भावस्य लीलेतरसामानाधिकसण्याऽविशिष्टविशेषणतया तथात्वेऽप्यतिप्रसङ्गात् महागौरवाच्च । या नीलादीनामपि नीलेतररूपादिप्रतिबन्धकतायां विरह इति, RI, नीलत्वादिना प्रतिबध्य
-* जयलता हैविशेपणतया तथात्वे = अवच्छेदकतया नीलादी तत्वेङ्गीक्रियमाण अपि अतिप्रमड़गात = नालमात्रकपाटेम्वन्दकनया कपालसमवेतनीलोत्पादापनः । अयं भाव: नीलमात्र-पीनमात्रकपादितथास्थघटम्पले व्याप्यनिनीलरूपवत्कपालं नीलरूपस्य समवायनैव वृत्तित्वं न त्वबच्छेदकतया, अन्यध न्यायनित्वानुपपत्र: । अतः नत्राध्यदकनासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताको नीलायभाव: स्वरूपेण वर्तते य: नीलेतरव्यधिकरणी भनि । नलिनसामानाधिकरण्या विशिष्टस्यावच्छेदकतावच्छिन्ननालायभायम्य विशेषणतयाऽभिमतोश्चच्छेदकतासम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताको नीलतराभावाःपि स्वरूपेण तय नीलमात्रकपालं वर्नन । अनः सामानाधिकरण्येनाश्वच्छन्दकतावन्छिननीलेतराभावरिशिष्टस्य नीलतरत्याधिकरणीभूतनिरुक्तालयभावस्य स्वरूपेण नीलमानकपालं रामन तबादरकारमा घटसमोसनलरूपमिव नीलमाकपासमवेतनालरूपमपि जायत. सामन्या: स्वकायार्जन न्यानपेक्षणात 11 प्रकवातिप्रसङगकलङ्कितत्वादेव न सादृशकार्यकारणभावः श्रद्धयः । दीपान्तरमाइ -> महागौरवाचति । अवच्छंटकनया नीलादी नालेतरादः प्रतिबन्धकत्वकल्पनापक्षया निरुक्ताकार्यकारणभाचे कारण- कारणतापच्छेदकधर्म - कारणताव ठटकनाघटकसम्बन्धशरीर. गौरवाचेत्यर्थः । उपलक्षणाद् विनिगम्नाबिरहापि दृष्टन्य निरुकनीलतराभादविशिष्टनीलायभावस्य नलिनग्यधिकरणविशेषणत्वेन कारणत्वं यदुत अवच्छेदकतासम्बन्धावच्छिन्ननलाद्यभावविशिष्टनीलतराद्यभावस्य नालेतरयधिकरणविष्यत्वेन ? इत्पत्रा: चिनिगमादिनि दिकू ।
यत्त्विति तत्रत्यनेनावति । अवच्छेदकतया नीलादा समवायन नीलेतरादीनामिव समवायन नीलादीनामपि चन्दकलया नीलंतररूपादिप्रतिवन्धकतायां विनिगमनाया रिह इति द्विविधप्रतिवय-प्रतिबन्धकभावकल्पनागौरखमापद्यत इति नावच्छेदकया | नीलादी सगवापन नीलेतरादीनां प्रतिबन्धकत्वकल्पनमहंतीनि तन्न चार दूपणाविर्भावनम, नीलेनसत्वापक्षया नालस्वादिना
| विशेषणविधया जिम नीलेनराभाव का ग्रहण किया है वह समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिनाक नहीं, किन्तु अवटकतासम्बन्धावचिनप्रतियोगिताक ही ग्राह्य है और वह भी नीलतरमामानाधिकाण्या विशिए + नील नरयधिकरण नीलाद्यभार का। कार्यकारणभाव इस तरह होगा कि अवदकनासम्बन्ध से नीलादि के प्रति नीलतम्यधिकरणविशेषणत्वन = नीलेतरसामानाधिकरपशड. विशिएविशेषणत्वेन अवच्छंदकतासम्बन्धावच्छिमप्रतियोगिताकनीनंतरभावविशिष्टनीलामभार स्वरूपसम्बन्ध में कारण है। इस तरह जन्य-जनकभाव को मान्य करने पर जहाँ नीनमात्र . पीतमात्रकालिकाद्वयारब्ध नीलपानकपाल से घट की उत्पत्ति होती है वहाँ नीलपीतकपालावच्छेदेन यानी नीलपीतकपाल में अबस्छरकता सम्बन्ध से नीलादि रूप की उत्पत्ति होने की आपत्ति नहीं आयेगी, क्योंकि नीलपीतकपाल में अपञ्छेदकतासम्मन्यअवभिटन नीलेतराभाव = नीलकपालिकाबच्छेदन नीलेनराभाव पचं अवगंदकतासम्बन्धावच्छित्र नीलायभाव - पीतकपालिकावणेदन नीलादिरूपाभाव दोनों होने में सामानाभिकरण्यसम्बन्ध में नीलेतराभावविशिष्टनीलादिरूपाभाव होने पर भी नादृशनीलाद्यभाव नीलपीनकपाल में रहने की बजह नीरेतग्यधिकरण नहीं होने से गीलंतरसामानाधिकरण्याऽनिनिविशेषणत्व निरुक्त, नीलतगभावरिमिष्टनीलरूपादिअभाव में नहीं है। कारणताबन्दक धर्म में शून्य की उपस्थिति होने पर कार्य की उत्पनि का आपादन नहीं किया जा सकता <- तो यह वक्तव्य भी अमंगन है, पोंकि तादृश जन्य-जनकभाव को मान्य करने पर भी नीलमात्रकपाल में अवछदकतासम्बन्ध में कपालनीलरूप की उत्पनि की आपत्ति आयगी, क्योंकि उसमें रहनेवाला अवच्छेदकतासम्बन्धाचछिन्न नीलनराभावविशिष्टनीलादिरूपाभाव नीलेतरयधिकरणविशेषणत्वचाला है। व्याप्यवृति नील रूप चाले कपाल में अवच्छंदकनासम्बन्ध से न तो नीलवर संप रहता है और न तो अवच्छेदकता सम्बन्ध से नीलादि रूप रहता है इसलिए निम्न कारणतावदकधर्मविशिष्ट की नीलमात्रकपाल में उपस्थिति होने की वजह अवच्छेदकतासम्बन्ध से कपालनीलरूप की उत्पत्ति की आपनि बज्रलेप होगी जिमका प्रदर्शन प्रकरणकार ने 'अतिप्रमझान' पमा पदप्रयोग कर के किया है । दूसरी रात यह है कि अबदकतासम्बन्ध में नीलादि के प्रनि नीलेनटि को प्रतिवन्धक मानने से ही उपर्युक्त अतिप्रसा का वारण हो जाने से उपदर्शित गति में गमरर कार्यकारणभाव का स्वीकार करने पर गौरव दाप भी मुंह फार खड़ा रह जायेगा । अतः प्रदर्शित कार्यकारणभाव मान्य नहीं हो सकता . ग्रह निष्कर्ष है ।
जीलेता प्रतिपक्षिा में गौर आज ... यन. इनि । यहाँ अमुक विद्वानों का यह मन्तव्य है कि -> 'अवच्छेदकतासम्बन्ध र नीलादि के प्रति समवायसम्बन्ध
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६ गध्यमम्पादारतम्य गरः ३ का..
निनन्धकलागौरवम्या:विधित्वम् *
तायां लापवाद नीलेतस्त्वादिला प्रतिबन्धकत्वे तु तदवच्छिन्नाभावस्याऽखाण्डस्थ कारणतायां गौरवाऽप्रतिसन्धा(ना)त् । प्रतिबन्धकतागौरवस्य पुनरततत्तरोपस्थितिकत्वेनाऽविरोधित्वात्।।
-जरालता - प्रतिवन्यतायां कलबमानायां लाघवान = प्रतिबन्धकामावनिप्रकारणतानिरूपित-कारतावन्दकधर्म शरीरलाघवान । न व नालल्यादिना प्रतिवध्यनाय नीलरत्यांद: प्रनिबन्धकनारकल् नालंतरवादिना प्रतिबध्यतायां च नीलवादः प्रतिबन्धकतावच्छेदकत्वमिति तुल्यमंब नालवादिना प्रतिवध्यताकल्प प्रतिर धकतावच्छेदक गौरमिति वाच्यम्, अवच्छेदकतया नीलादी समवायन नीलेतरत्वादिना प्रतिबन्धकत्व नीलल्यावच्छिन्नप्रतियोगिताकप्रतिबन्धकाभावापेक्षया नीलतरत्वाद्ययच्छिन्नपनियांगिनाकप्रतिबन्धकाभावकारीरस्य गुरुतरत्य:पि तदवच्छिन्नाभावस्य = नालेतरत्वाद्यवच्छिन्नाभावस्य, अखण्डस्य कारणतायां - अवच्छेदकनासम्बन्धावच्छिन्ननालादिनिष्ठकार्यतानिरूपितकारणताकुक्षी गौरवाऽप्रतिसन्धानात् = गौरवानुपस्थित : अखण्डस्य नस्य तव्यनित्वेनव कारणत्वसम्झपान प्रतिबन्ने लकम्य एफने न कार्या-व्यवहितपूर्वक्षगावच्छेदन प्रतिवध्यतावच्छेदकस्वरूपकार्यनावचंद्रदकावन्छिनाधिकरणस्यत्पन्नाभादप्रतियागिन्याभावस्वरूपायां कारणतायां गुरुतरपतिबध्यतावच्छेदकनिवशे कार
तादारीरंगीरवमिति प्रतिसन्धानात मति लघी गुगं: प्रतिबध्यानारदकत्वानम्या पगमान । प्रतिबन्धकताव-छंदकस्य निरुककारणताकुक्षाचप्रवेशन तस्य गुरुत्वपि कारणताशरीर न गुरुत्वापात इति अवचंदकतय। नीलादी समवायेन नालेतरादः प्रतिबन्धकत्वसिद्धिः । न च प्रतिबन्धकतावच्छेदकस्य गुरुन्चे नदवच्छिन्नाधिकरणबृत्त्यत्यन्ताभावप्रतियोगित्वरूपायां प्रतिबध्यत्तायां गौरवमिति प्रतिसन्धानात् मति लघौ गुगः प्रतिबन्धकताबन्दकत्वस्या न्याय्यत्वादिति वाच्यम, अन्वयन्यतिकाभ्यां कार्यका. रणभावनिश्चयानन्तरमेव कारणीभूना:नावप्रतियोगित्वम् पायाः प्रतिबन्धकताया निर्णयसम्भवन कार्यतावच्छेदकस्वरूपप्रतिबध्यतावच्छन्दकस्य निश्चयः प्रथममेव, प्रतिबन्धकतावच्छेदकस्य तु तदनन्तरमदनि न प्रतिबन्धकतावच्छेदकगौरवस्य पूर्वसिद्धकार्यकारणभावविघटकल्वं, अनन्तरोपस्थितिकवन दलिन्चादित्यायनाःह - प्रतिवन्धकतागीरवस्य = प्रतिबन्धकलावन्दकगौरवस्य पुनर्विापद्योतन अनन्तरोपस्थिनिकत्वेन = प्रतिबध्यतावच्छतकनिर्णयानन्तर देवापस्थिनत्वेन अविरोधित्वात् = पूर्वसिद्धकार्यकारणभावविघटकल्या भावात अबच्छेदकनया नीलादी समवायन नालतरादः प्रतिबन्धकत्व सिविध्याहनव । एतेन नीलमात्रपीनमात्रकपालिकाद्वयारब्धनालापातकपालम्वन्छेदकतया तदापतिः प्रत्युक्ता, समधायन नालंतरस्य पातरूपस्य तत्र सत्त्वादिनि तात्पर्यम् ।
से जीलेतर रूपादि में प्रतिबन्धकता मानने पर विनिगमनाचिरह से अवच्छेदकतासम्बन्ध से नीलता रूपादि के प्रति समवाय से नीलादि में भी प्रतिबन्धकता सिद्ध होगा। इसलिए इन मन में दो प्रतिवन्य-प्रतिवन्धकभाव की कल्पना का गौरव है। अत: अपरछंदकतया नीलादि के प्रति नीलेनर संपादि को प्रतिबन्धक नहीं माना जा मकता' <-- मगर यह भी असंगत है। इसका कारण यह है कि नीलत्वादि ही नीलसर रूपति का प्रतिवध्यताअवन्दक हागा, न कि नीरेतररूपत्वादि नीलादिरूप का प्रतिवध्यतावणेदक, क्योंकि नीलेतरवादि को नीलादि रूप या प्रतिबध्यनारच्छेदक मानने में लाघव है। यदि यहाँ यह शंका हा चि -> नीरवादि को प्रतिबध्यनारच्छंदक मानने पर नीले तत्वानि को पनिवन्धकनाअवचंद्रनक मानना होगा और नीलनग्रवादि को प्रतिवभ्यता अवच्छेदक मानन पर नीललादि को प्रतिबन्नकना अवच्छंदक मानना होगा । अतः नीलत्यादि को प्रतिबध्यतावच्छेदक मानने की ऑक्षा मालेतत्वादि को प्रतिबन्धकताअवन्दक. मानने में गौरव होगा' <- तो यह भी इसलिए निराधार हो जाती है कि प्रनिवन्धकना अपच्छदकापच्छिमानियोगिताक अभाव गमतर शरीम्बाला होने पर भी उसे अखण्डरूप से = तदन्यनियरूप मे कारण मानने में कारणताशरीर में गौरख दाप का भान नहीं होता है, किन्तु प्रनिबध्यताअनन्दक के गुगना होने पर कार्यकारणभाव में गौग्य होगा, त्र्योंकि तब प्रतिबन्धकाभाच का कार्यतावच्छेदक धर्म, जो प्रतिवध्यता अवच्छेदक | धर्म होता है, गुमनर होगा। दूसरी बान यह है कि अवजडेदकतया नीलादि के प्रति नीलेनराटि की प्रतियन्धकता अन्वययनिंग्क मे निभित होने के बाद ही प्रतिबन्भकताअनदकधर्मशरीर में गौरव की उपस्थिति होने से वह गौग्य दोपप्रनिरभ्य - प्रतिबन्धकमाव का विरोधी नहीं हो सकता 1 पूर्व उपस्थिन गौग्य ही दोपान्मक होता है । अन्यथा सापय नर्क मे अनबाद की गिद्ध हो जायंगी . यह तो अनेक बार पहले बताया गया ही है । अतः नीलादि के प्रति नांदतगदि की ही निवन्धक मानना न्याय है। अब नीलपीतपाल में अवचंदकनासम्बन्ध में नीत्यादि की उत्पत्ति का कांड प्रमग नहीं होगा, क्योंकि वहाँ समवाय मम्बन्ध में नीलेता पीत रूप रहता है।
आहे. इति । यहाँ अन्य मनीषियों का यह वक्तव्य है कि. -> 'अबच्चेदकतासम्बन्ध में नीलादि रूप के प्रति समवाय
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* सामानाधिकरपल्या राज्यनिना * अवच्छेदकतया नीलादिकं प्रति समवायेन नीलादिकं हेतुः अवच्छिमनीलादिकं प्रति च स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धन लीलाधभावो हेतुरित्यागाहुः ।
सामानाधिकरण्यसम्बन्धावछिनप्रतियोगिताकनीलेतराधभावस्याऽवच्छेदकतया जीलादिकं प्रति कारणतेति च । त्यो सामानाधिकरण्यस्याऽव्याप्यवृत्तितरा तत्सम्बन्धावच्छेिमप्र
-* जराला *अवनरपामभिप्रायमाह -> अवच्छेदकतया नीलादिकं प्रति समवायेन नीलाटिक हेतः । अत एव नीलमत्रक फालवच्छेदकतया घटगननीलमुत्पद्यते. समजाये- नत्र नीलस्य सन्चान । न च व्याप्यवृनिनीलकणवत्करालंध्वम्छेदकतया घटीपनीला परावयवलंदकतया कपालीपनालापापनिबरा, समवान नीलम पस्य नत्र सन्चादिति वाच्यम्, अबछि. मनीलादिक = अबच्छेदकतासम्बन्धेन अवयवीगनीलादिकं प्रति च स्वाश्रयसमचनत्वसम्बन्धन नीलाद्यभावा हेतुत्यसपगमात न्यायनिनीलबकपालसमवायिकपालिकायां नीलाभावस्था मन्त्रन नालनाकपाले स्वाश्रयसमवनावसम्बन्धेन नालयमाग्य बिरहान नत्राध्यच्छेदकतया कपालीपनीमरूपागनिः । न च नालमात्र पीतमायकमालिकाद्वयारब्धकपाले बदकनया कपाळसमवेतनालापनिर्दाग, नीलाभावाश्रयीतकपालिकासमवन गोलपातकपाटे स्वाश्रयसभरेतत्रसम्बन्धन नीलाम वम्य सन्चादिनि बाच्यम्, नीलकपालिकाबन्मित्रनीलपातकपालेश्वरकतासम्बन्धन घटीयनरलस्वर कपालीयनालस्वाभिमतत्वादित्यप्याहुः ।
नालापीतकपालजयारधघंटे पीतकगालावनोदन नालोनिवारणाय समानावच्छेदकल्चप्रत्यासन्या सामानाधिकरण्यम - बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकालंतराद्यभावस्य अपचंदकतया, नीलादिकं प्रति कारणता स्वीकार्या । नालम्पसमानाधिकरण नगलतराभायः नीलकमले एक वर्तन, न न पातकपाल पि । अत: सामानाधिकरण्यसम्बन्धावलिप्रतियोगिताक - मरतगभावस्याम्वच्छटकना नीलकपाले पत्र, न तु पातकपाल । इत्यश्व समानावळेदकत्वप्नत्यासन्या गामानःधिकरणदगम्बन्धाबच्छिन्त्रप्रदिशेगिताकनीलेदराभावस्य पीतकाले विरहान्न तत्राध्यच्छेदकनया नालापत्तिरिति कश्चित ।
तन्नत्यन्ये, चन्यसगानाधिकरणयां मनायां गुणे न द्रव्यत्वसामानाधिकरयमिति प्रतात्मा सत्तायां यन्वयाःमानाधिकरण्य-तदभाव सिध्यत इति मामानाधिकरण्यस्य अन्यायवृतितया - स्वाभावसमानाधिकरणतग तत्सम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्य सामानाधिकरण्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्य असम्भवात । न हि 'तुणे सत्तायां न दन्यत्वसामानाधिकरण्याम ति तीत्या गणे सामानाधिकरण्यसम्बन्धावच्छिन्ननिरोगिताको द्रव्यत्वाभाव; सिध्यनि । तद्वंदव 'नीलपीतकपालारब्धे घटे नालकपाले न नीलतरसामानाधिकरणमि निप्रतात्या नारकरगलं सामानाधिकरज्यसम्बन्धाचच्छिन्नप्रति - योगिताको नीलेनराभादोऽपि नव सिध्येत् ततः सामानाधिकरण्यावच्छिन्नप्रतियोगिताकनीलंतराभावस्या बन्दकनया नीलादा मम्बन्ध से नीलादि रूप हेतु है, फिर भी कवर नीलरूपवाले कपाल में अवजडेदकता सम्बन्ध में कपालसमचत नीर रूप की उत्पत्ति का कोई प्रसङ्ग नहीं है, क्योंकि सावचित्र नानादि कप के प्रति स्वाश्रयसमवेतन्य सम्बन्ध में नीलावभाव भी हुनु होता है । च्याप्यवृत्ति नीलरूपवाले कपाल में समय से नाल रूप होने पर भी उसकी कपालिका में नीलाभाव नहीं होने से स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध स नीलादिरूपाभाव उस कपाल में नहीं रहता है । अब वहाँ अवन्दकतया नील रूप की उत्पत्ति को अवकाश कहाँ ? कारण न रहने पर कार्य का आपादन नहीं हो सकता' <-- ।
# सामानाधिकारासारिता सोलोतरामायहेतुतात # मामाना, इति । कोई विद्वान यह कहना है कि –> 'नालपीतकपालारब्ध घट में उत्पन्न होनेवाले नील रूप की पीन कपाल, में अबदकता सम्बन्ध से उत्पनि का परिहार करने के लिए अवच्छेदकतामन्बन्ध में नीलादि कर के प्रति सामानाधिकरण्यसम्बन्धावच्छिन्न निशेगिताक नीलनगटिअभाव का अवच्छदकतासम्बन्ध मे कारण मानना चाहिए । नीलपीनकपाल से उत्पन्न होनबाले घट के नील रूप में नीलेतररूपाभाव का सामानाधिकरणय नीलकपालाबटन होता है, न कि पातकपालावचंन । अतएव उक घटगत गेलेतर झप का सामानाधिकरणयसम्बन्भापदिनप्रतियोगिताक अभार अवच्छेदकनासम्बन्ध से पीन कपाल में न हो कर नील कपाल में ही होता है । अतएव उक्त घट में नीलकपालायच्चंदन अवच्छंदकतासम्बन्ध से नील कपाल में ही नील की उत्पनि होती है, पीतकालापन - अवच्छेदकतासंसर्ग में पीन कपाल में नील झप की उत्पत्ति होती नहीं है' <-- ।
नत्रयन्यं । मगर अन्य विद्वानों यह कह कर उपर्युक्त मन का निराकरण करते हैं कि -> 'सामानाधिकरण्य नो
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५०८ मध्यमस्वाद्वादरहस्ये खण्डः ३ . का. * व्याप्यनेछेदकत्वे मानाभावः तियोगिताकाभावस्याऽसम्भवादिति । तदसत गुणे सतायां न द्रव्यत्वसामानाधिकरण्यमिति प्रतीते: 'गुणे पृथिवीत्वे न द्रव्यत्वसामानाधिकरण्यमि'तिवद गुणे द्रव्यत्वसामानाधिकरण्यावच्छेदकत्वाभावाऽवगाहित्वेनैवोपपती तदव्याप्यवृत्तित्वस्याऽन्यत्र दूषितत्वात् । सामानाधिकरण्येन नीलेतखदेदो यदवच्छेदेन तदवच्छेदेन नीलोत्पत्तिरित्यासाहुः ।
-* जयलता - हेतुत्वमपि असम्भवकलङ्कपशिलमित्यन्येषामाकूरम् ।
तदसत्, 'गुणे सत्तायां न द्रव्यत्वसामानाधिकरण्यं' इति प्रतीते: न सामानाधिकरण्य-तदभाश्योरका निवदापरनया सामानाधिकरण्यस्यादन्याप्य वृनित्वावगाहित्बेनोपपत्ति: कार्या 'गुणे पृथिवीत्वे न द्रव्यत्वसामानाधिकरण्यमि'तिप्रतीतिवद् गुणे द्रव्यत्वसामानाधिकरण्याचच्छेदकत्वाभावावगाहित्त्वेनैवोपपत्तो नदव्याप्यवृतित्वस्य = सामानाधिकरण्या व्याप्यवृत्तित्त्वरय, अन्य। दूपितत्वादिति । यथा गुण पृथिवावे न द्रव्यल्सामानाधिकरण्यं' इति प्रतीति: गुणे पृथिवीत्यनिद्रव्यत्वसामानाधिकरण्यावच्छेदकत्वाभावविषयिणी, न तु गुणे पृथिवीत्वदृनिद्रश्यत्वसामानाधिकरण्याभावावगाहिना अनुभवबाधात. त्वन्मत विशिष्टए शुद्धानतिरेकात; तदेव 'गुणं सत्तायां न द्रव्यत्वसामानाधिकरप्यं' इति प्रतीतः गुण सत्तावृनिद्रव्यत्वसामानाधिकरण्याउमेरकत्वालालगाहिनी नात्तिकस्मतामानाधिकरण्याभारविषयिणी । इत्यमेव गुणपदोत्तन्मवच्छेदकत्वार्थिका सप्तमी विभनिरपि घटामश्चति । न चैवं सति समानाबछेदकत्वात्यासत्त्या सामानाधिकरण्यसम्बन्धावच्छिन्ननलितराभावादरवच्छेदकतया नीलादिकं प्रति कारणता सिद्धेति चक्तव्यम, सामानाधिकरण्यस्य व्याप्यनित्वेन तत्सम्बन्धावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकनीलेतराभावस्याऽपि व्याप्यवृत्तित्वसिद्धी नीलकपालवच्छेदकतया तवनिवासम्भवात, व्याप्यवृत्तेररच्छेदकले मानाभावात्। न च समवायस्य न्यायनिवेऽपि तत्सम्बन्धावच्छिन्नकापिसंयोगाचावस्य दृशेऽव्याप्यवृतित्वमुद्भावनीयम्, तत्र मूलापन्छिनसमवायस्यैव कपिसंयोगागावप्रतियोगितावच्छेदकल्वात, तस्य च सावन्छिन्नत्वेनाऽन्यायनिवादित्यादिकं सूक्ष्म झिकया निभाल. नीयम् ।
अवच्छेदकतासम्बन्धन नीलत्वावच्छिन्नं प्रति समानावच्छेदकल्यप्रत्यासच्या नीलतरबद्दस्य कारणत्वमित्यभिप्रायवता मतमाइ -> सामानाधिकरण्येन नीलेतरव दो यदवच्छेदन वर्तते तदवच्छेदनैव नीलोत्पतिः यथा नीलपातकालारश्च
अन्यायवृति यानी स्वाभावसमानाधिकरण है । अतएव सामानाधिकरण्पसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव भी असम्भवित है। जर कि तादृश अभाव ही नामुमकिन है तब अवच्छेदकतासम्बन्ध से नीलादि के प्रनि सामानाधिकरप्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियागिताक नीलतरादिअभाव को कैसे कारण माना जा सकता है। अत: उपर्युक्त मत नितान्न अश्रद्धेय है' <-।
ATHIधिकरणय अत्याप्टारित नहीं है तदसत, इति । मगर सामानाधिकरण्य को अन्याप्यवृनि कहना भी असङ्गत है, क्योंकि करनुस्थिति यह है कि सामानाधिकरण्य व्याप्यवृत्ति ही होता है । आशय यह है कि 'गुणं सनायां न इयत्वसामानाधिकरण्यं । यह प्रतीति सना में, जहाँ द्रव्यन्वसामानाधिकरण्य प्रसिद्ध है, द्रव्यत्वसामानाधिकरण्याभान का अवगाहन करती नहीं है, किन्तु गुण में मनावृनि दव्यन्वसामानाधिकरण्य की अवच्छंदकता के अभाव का अवगाहन करती है। यह ठीक उसी तरह संगत हो सकता है, जैसे 'गुणे पृधिरीचे न व्यवसामानाधिकरण्यं । यह प्रतीनि गुण में पृथिवीत्वनिष्ठ द्रव्यत्वसामानाधिकरपय की अवच्छंदकता के अभाव का अवगाहन करती है, न कि पृथिवीत्वनिष्ठ द्रष्यत्वसामानाधिकरण्य के अभाव का 1 इस तरह एक ही थमी में सामानाधिकरण्य एवं उसके अभाव के समावेश की प्रदर्शक प्रतीति की अन्यधा उपपत्ति हो जाने से सामानाधिकरण्य में अज्याप्यवृनित्य का अन्यत्र खण्डन किया गया है। अतः -> 'मामानाधिकरण्य अव्याप्यवृनि होने से नत्सम्बन्धावच्छिन्नातियोगिताक नीलेनगभाव का नील कपाल में होना नामुमकिन है' <- ऐसा जो कहा गया था वह अमत् = अनुचित है । हाँ, यह कहा जा सकता है कि सामानाधिकरण्प च्याप्यक्ति होने से जत्सम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक नीलंतराभाव भी व्याप्यवृनि होगा और व्याप्यवृति का अवच्छन्दक होने में कोई प्रमाण नहीं होने से सामानाधिकरण्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक नीलेतराभाव को समानावच्छंदकत्वसम्बन्ध से कारण मानना असंगत है। इस तरह कश्रितमत का निराकरण किया जा सकता है। इस विषय में अधिक जिज्ञासु जयलता पर द्रष्टिपात करें . यह विज्ञप्ति ।
गामा, इति । यहाँ अन्य विद्वानों का यह वक्तव्य है कि -> 'सामानाधिकरणयसम्बन्ध में नीलंतररूपान् का भेट
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* अनन्भनतप्रतिक्षेपः ** अव्याप्यवृत्तिसपस्वीकार एव च 'मुखे पुच्छे च पाण्डुरः' इत्यादाववच्छेदकत्वार्थिका सप्तमी सङ्गच्छते । न चैवं नीलकपालावच्छेदेन सन्निकर्षे पीतादिग्रहापत्तिः अव्याप्यवृत्तिचाक्षुषं
-* यता घंटे नालेतरपीतरूपवत्पीतकपालप्रतियोगिकान्योन्याभाव: अबच्छेदकतासम्बन्धन नीलकणाले वर्तत इनि नीलकपालावच्छेदेनेव नीलोत्पत्तिः न तु पीतकपालाबछेदन न च भेदस्य व्याप्यवृनित्वान्नेदं समांचानमिति वाच्यम्, 'नीलपीतकापालारधा घट: पीतकपालावच्छेदेन बीरे रवदिता
: स्वरूपसम्बन्धेनेवास्वच्छंदतासम्बन्धेन तवृत्तित्वाऽव्याहतेरिनि भावनीयम् । . अत्र्याप्यवृत्तिरूपस्वीकार एव च, न तु व्यायवृत्तिरूपस्वीकारपक्षे, 'मुख पुच्छे च पाण्डुर' इत्यादी अवच्छेदक| त्वार्यिका सप्तमी सङ्गच्छते । अत्र सन्दर्भस्त्वेनं गष्टच्या बरः पुत्रा ययकोऽपि गयो ब्रजेत् । पजेत वा:अमेधेन नालं. वा
धमृत्सृजत् ।। इत्यत्र वृषविशेषगीभूनं पारिभाषिकं नीळत्यं श्रेतः खुरविषाणाभ्यां मुरंज पुच्छे च पाण्डुरः । रोहिनो यस्तु वर्णेन स नीला वृप उच्यते' ॥५६। इत्येवं इतिहासोपनिषदि प्रतिपादितम् । अत्र सतम्या अवच्छिन्नत्वार्थ एव मानिः न तु वृत्तित्वार्थे , एकस्मिन् परस्परविरोधेन व्याप्यनिश्वेतपाण्डुरादेरसम्भवात् । एतेन सविषयावृत्ति-व्याप्यवृनिवृत्तिजातरव्याप्यवृनिवृतित्वविरोधनियमोऽपि प्रत्युक्तः, अप्रामाणिकत्वाच 1 एतेन रूपस्य न्याष्यवृतित्वनियमादिति अन्नम्भवचनमपि प्रत्याख्यातम्, श्वेतादीनां दैशिकच्याप्यवृनित्वस्य नीलवृप एव बाधात शुक्लादीनां अव्याप्यवृत्तित्वं विना तत्समुदायस्कवृत्तित्वाउस - म्भवात् । न च एवं = शुक्लादीनामच्याप्यवृत्तित्वे नील-पीन-श्रेतकपालारब्धघटे नीलकपालाबछेदेन = अबच्छेदकतासम्बन्धन नीलकपाले. सन्निकर्षे = चक्षःमयांगे मति, पीतादिग्रहापत्तिः = पीतादिरूपचाक्षुषप्रसङ्गः. पीनाद: नीलपानशुक्लकपालार| धपटे सत्तादिति वाच्यम्, लौ ककविषयतासम्बन्धेन अव्याप्यवृनिचाक्षुषं = अन्याप्यनिगोचरचाक्षुषसाक्षात्कारचा ध्वच्छिक पदवच्छेदेन रहता है तदवच्छेदेन नील रूप की उत्पत्ति होती है। मतलब कि अवच्छे टकतामम्बन्ध से नीलादि के प्रति अरच्छेदकतासम्बन्ध से नीलेतररूपवान् का भेद कारण होता है। जैसे कि नीलमीतकपालारब्ध घट में नीलकपालारच्छेदेन नीलेतर पीतरूपवान कपाल का भेद रहने से घट में नीलकपालारच्छेदेन = अवदकतासम्बन्ध से नीलकपाल में नील रूप उत्पन्न होता है' <-- ।
अन्या, इति । इस तरह उपर्युक्त रीति से अनेक विद्वानों का यह कपन है कि नानारूपयाले अवयवों में आरब्ध अवयवी में अध्याप्यवृत्ति अनेक विजातीय रूप ही अवच्छंदकतासम्बन्ध से उत्पन होते है, न कि एक अनिरिक चित्ररूप वहाँ समवापसम्बन्ध से उत्पन्न होता है। यह मानना मुनासिब भी है, क्योंकि नील, पीत आदि अनेक अध्याप्यवृनि रूप का एक धर्मी में स्वीकार करनेवालों के मत में ही 'मुखे पुछे च पाण्डुरः' इत्यादि आर्पश्चन में अवोदकल अर्थवाली सप्तमी विभक्ति भी संगत होती है। यहाँ सन्दर्भ इस प्रकार का है कि , 'अनेक पुत्र की इच्छा कानी उचित है, क्योंकि अनेक पुत्र होने पर यदि उनमें से कोई भी एक पुत्र गया तीर्य में जाय, या अश्वमेध से यज्ञ को या नील वृप का उत्सर्ग करे तो पिता को सद्गति मिलती है। यहाँ जो नीलप पर है उसका पारिभापिक अर्थ यह है कि वह बृपभ, जो रूप से लोहित = रक्तरूपवाला हो, मुख और पुच्छ में यानी मुखाचच्छेदेन और पुच्छाबाछेदन पांडुर - पीत वर्णवाला है तथा पाँच की खुर और शृंग की अपेक्षा वेतवर्णवाला होता है। यहाँ मुख और पुच्छ पद के उत्तर जो सममी विभक्ति का प्रयोग हुआ है उसका अर्थ वृत्तिता नहीं, बल्कि अवच्छेदकता ही अर्थ है । मुख और पुच्छ तो नैयायिक मत में वृषभ से सर्वथा भित्र होने से चूपभवृत्ति पाण्डुर वर्ण मुख और पुच्छ में कैसे रह सकते । अतः यही मानना होगा कि उस वृपभ में मुखावच्छेदेन और पुछारच्छंदैन पाण्डुर वर्ण रहता है। इसका अर्थ यही होता है कि वृषभ के मुख और पुच्छ में अबोदकतासम्बन्ध से पाण्डुर वर्ण रहता है। इस तरह नानारूपवटक्यवारब्ध अवयवी में अवच्छेदकता सम्बन्ध से अनेक अन्याप्यति रूप का स्वीकार करना ही मुनासिर है . यह महसूस होता है।
न चर्व. इति । यहाँ यह शंका हो सकती है कि -> 'एक ही धर्मी में अवच्छेदकतासम्बन्ध में अनेक रूप मानने पर तो नीलपीतवनकपालारध घट में नीलकपालाबच्छेदेन चक्षुमनिक होने पर पीनादि रूप के ग्रहण = चाक्षुप साक्षात्कार की आपनि आयेगी, क्योंकि घट में नील रूप की भांति पीतादि रूप भी रहते हैं। <- मगर यह शंका इसलिए निराकृत हो जाती है कि 'अन्यायपत्ति पदार्थ के विषयतासम्बन्ध से चार प्रत्यक्ष के प्रति चक्षुसंयोगअबदकावच्छिन्न अव्याप्यवृत्ति
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● मध्यमस्वारस्ये : ३ का. * अव्याप्यवृत्तिवानुपकारणताविचार
प्रति चक्षुः संयोगावच्छेदकावच्छिन्नसमवायसम्बन्धावच्छिनाधारताया: सन्निकर्षत्वस्य संयोगादिस्थले क्लृप्तत्वादित्याहुः ।
अत्र यद्यपि चित्ररूपवादिनां नीलादिकं प्रति नीलेतरादीनां प्रतिबन्धकत्वं नीलाभावादीनां
* जयलता
GYO
अन्याय
प्रति चक्षुः संयोगावच्छेदकावच्छिन्नसमवायसम्बन्धावच्छिन्नाधारतायाः = चक्षुःसंयोगस्याऽवच्छेदको यो विषयदेशः तदवच्छिन समवायरसम्बन्धेनाऽबच्छिन्ना याव्यायवृत्तिनिरूपिता अधिकता तत्रिरूपिताया अभियतायाः सत्रिकर्षत्वस्य वृनिविषयकचाक्षुषकारणतावच्छेदकप्रत्यासतित्वस्य संयोगादिस्यले संयोगादिवापरले. आदिशब्देन विभागादिग्रहणं, क्लृप्तत्वात् = प्रमाणसिद्धत्वात् । यथा शाखायां कपिसंयोगवति वृक्ष मूलावच्छेदेन चक्षुः संयोगात्रां कपिसंयोग स्वयं यांगाचच्छेदकेंद्रशावच्छिन्नसमवायसम्बन्धावच्छिन्नकपिसंयोगाधिकरणतानिरूपिताधयता सम्बन्धेन चक्षुषोऽसत्त्वान्न कपिसंयांचा लौकिकविषयतासम्बन्धेन तत्र जायते तद्वदेव नीलपीतार नीलकपालावच्छेदेन चक्षुः सन्निकर्षदशायां प्रातरूपं स्वयंयोगावच्छेदकदेशावच्छिन्नममवायावच्छिन्नपीताधिकरणतानिरूपिताधवदासम्बन्धेन चक्षुषोऽसत्यान्न लोकिकविषयतया पतिचाक्षुषप्रसङ्गः। निरूक्तसंसर्गस्य संयोगादिस्थल प्रमाणमिद्धत्वान्नाऽव्यायवृत्तिनीलपीतादिरूपकल्प संसर्गगोरवमपीति नानारूपवदययवारयदेव्यायवृत्तीनि नानारूपान्यवारायन्तं न त्वतिरिक्तं चित्र गौरवात । न च नीलकपालिकावच्छेदेन चक्षुः सन्निकर तत्सम नीलपीताविच्छिन्नत्वनियमात् तदवच्छेदन चक्षुः सन्निकर्षे पीतचाक्षुषप्रसङ्ग इत्याशङ्कनीयम्, संयोगव्यक्तिर्यदेशव्यापिनी तत्र परम्परया तद्देश एवाऽवच्छेदको न तु सम्पूर्णोऽवयव इत्यभ्युपगमात् चित्ररूप चचिचाक्षु उक्तकार्यकारणभावकल्प नागौरवमिति भव्याप्यवृत्तिरूपवादिन आहुः । आहुरित्यनेनाऽस्वरसः प्रदर्शितः, चित्ररूपस्य प्रमाणसिद्ध तादृशगौरवस्य फलाभिमुखत्वेनाऽदीपलादिति विभावनीयम् ।
=
=
=
=
अत्र = चित्ररूपस्थले यवपीत्यस्यान्योऽग्रे तुल्यमित्यनेन चित्ररूपवादिना अतिरिक्तचित्ररूपवादिना समवायेन नीलादिकं प्रति स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन नीलेतरादीनां प्रतिबन्धकत्वं कल्पनीय, अन्यथा प्रागुक्तदिशा तब नीलादिपदार्थप्रतियोगिकसमवायसम्बन्ध मे अबच्छिन ऐसी आधारता ही सन्निकर्ष चाक्षुपकारणतावच्छेदक सम्बन्ध है' यह संयोगादि स्थल में क्लुम = आवश्यक होने से उसीसे इस आपनि का निराकरण हो जाता है । आशय यह है कि वृक्ष में शाखावच्छेदेन कपिसंयोग होने पर भी मूलावच्छेदेन वृक्ष में मनिकर्म होने पर कपिसंयोग का चाक्षुप प्रत्यक्ष होता नहीं है। इसके अनुरोध से ऐसा कार्यकारणभाव माना जाता है कि विपयतासम्बन्ध से अन्याप्यवृत्तिविषयक चाक्षुष साक्षात्कार के प्रति चसंयोगावच्छेदकावि ऐसे अव्याप्यवृत्तिपदार्थप्रतियोगिक समवायसम्बन्ध से अवच्छिन्न ऐसी आधारता से निरूपित आधेयता स्वरूप सम्बन्ध से क्षु कारण है । कपिसंयांगप्रतियोगिकसमवायसम्बन्ध से अवच्चि आधारता गुलाबनि वृक्ष में नहीं है, बल्कि शाखावच्छिन्न वृक्ष में है। अतः वृक्ष में शाखावच्छेदेन चक्षुसंयोग होने पर ही चसंयोगावच्छेदकशाखावच्छिन्न ऐसे समत्राय सम्बन्ध से अवच्छिन आधारता वृक्ष में संभावित होगी । अतः स्वसंयोगावच्छेदकावश्रिसमवायसम्बन्धावचित्राधारता निरूपितायता सम्बन्ध से कपिसंयोग में चक्षु तो शास्वावच्छेदेन वृक्ष में चक्षुनंयोग होने पर ही रहेगी । इस तरह नीलपीत शेतकपालत्रितयाभ घट में नीलकपालावच्छेदेन चसंयोग होने पर चक्षु स्वसंयोगावच्छेदकीभूतनीलकपालावच्छिन्न नीलरूपप्रतियोगिक समवाय सम्बन्ध से अबच्छिन्न आधारता निरूपित आधेयता सम्बन्ध से नीट में रहने की बजह नील रूप का ही चाखूष होता है, न कि पीत रूप का । तादृशघवृनि पीत रूप के चाक्षुप साक्षात्कार के प्रति वक्षु स्वसंयोगावच्छेदकतकपालावच्छिन्न ऐसे पीतरूपप्रतियोगिक समवाय सम्बन्ध से अवच्छिन्न आधान्तानिरूपित आयता सम्बन्ध से कारण है, जो पीतकपालावच्छेदेन घट में चसंयोग होने पर ही मुमकिन है । इस तरह संयोगादि अव्याप्यवृत्निपदार्थ के चाक्षुष साक्षात्कार में अवश्यकतृप्त कारणतावच्छेदक सम्बन्ध से ही उपर्युक्त अतिप्रसन का वारण हो जाने से अव्याप्यवृत्ति अनेक रूप पक्ष में अतिरिक्त कारणता की कल्पना का गौरव निरवकाश है। अतः नानाजातीयरूपवाले अवयवों से आरत्र्य अवयवी में अवच्छेदकतासम्बन्ध से अनेक रूप की कल्पना ही प्रामाणिक है यह नव्य नैयायिकों का, जो अतिरिक्त चित्ररूप को मान्य करते नहीं हैं, अभिप्राय है ।
- अव्याप्यवृत्तिरूपपदा और चित्ररूपपक्ष में तुल्य कार्यकारणभाव २
अत्र यद्यपि । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि अतिरिक्तचित्ररूपवादी के मत में समवाय सम्बन्ध में नीलादि रूप के प्रति स्वसंभवादिसमवेतत्वसम्बन्ध से नीलेतर रूपादि को प्रतिबन्धक मानना होगा, अन्यथा चित्रघट में नीलादि रूप की समवाय
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* जाया चित्ररूपपरिकार
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चित्रं प्रति हेतुता च कल्प्या, अव्याप्यवृत्तिरूपवादिनाऽपि अवच्छेदकतया लीलादिकं प्रति समवायेन नीलेतरादीनां प्रतिबन्धकत्वं, केवलनीलावयवेऽवच्छेदकतया नीलोत्पतिवारणाय प्रागुक्तद्रव्यघटितसम्बन्धेन नीलाभातादीनामवच्छेदकतया नीलादिकं प्रति हेतुत्वं च कल्पजीयमिति तुल्यम् ।
यदि पुनरवच्छेदकतासम्बन्धेन नीलादिकमनियम्यमेव तदा तु चित्रं प्रत्येव नानाकारण
* जयलता है
| सामग्रीसत्त्वान्नीलादिकमप्युत्पद्येत । स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन नीलाभावादीनां समवायंग चित्रं प्रति हेतुना च कल्प्या । वस्तुत एवं सति वावदापि समवायेन चित्रास तब स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन नीलाभावादिषट्कस्य सत्त्वात् । अतः | समवायेन चित्रं प्रति स्वसमवायिसमवेतवसम्बन्धेन नलेन दिपकरच हेतुना कल्पनीयति ध्येय तथा अव्याप्यवृतिरूपवादिनाऽपि अवच्छेदकतया नीलादिकं प्रति समवायेननां प्रति या पतकपालारव्यघंटे पीनकपालावच्छेदेन नीलोत्यनिप्रसङ्गात् । केवलनीलावयवे व्याप्यवृत्तिनालचदयंत्रे अवच्छेदकतया नीलोत्पत्तिवारणाय |= अवयवनीलोत्पादनिराकरणाय प्रागुक्तद्रव्यघटितसम्बन्धेन स्वाश्रयसमवेतव्यसमवायित्वसम्बन्धेन नीलाभावादीनां वस्तुतः | स्वगमवार्थिसमवेत द्रव्यसमवायित्वसम्बन्धेन नीलेनरख्यादीनां अवच्छेदकतया नीलादिकं प्रति हेतुत्वं च कल्पनीयमिति उभयत्र द्वादश कार्यकारणभावा इति तुल्यम् । न च चित्ररूपवादिनां समवायेन नीलादी स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन नीलादिकस्य हेतुत्वकल्पनाधिक्यात्तन्मतेऽष्टादश कार्यकारणभावा इति गौरवगिति वाच्यम्, नीलादी नीलतरादिप्रतिबन्धकत्व शुक्लामाबा नीलायनुत्यनिनिर्वाहात चित्ररूपवादिना नीलादी नीलादिहेतुत्वस्याः कल्पनात् कार्यकारणभावसङ्ख्यासाम्यात् । न चाडव्यायवृत्तिरूपादिमने समवायेन नीलादी स्वसमवायसमवेतत्वसम्बन्धेन नीलादिपदकहेतुत्वस्यावश्यकल्पनीयता तन्मतं वाष्टादश 'कार्यकारणभावा: प्रसज्यन्त इति वक्तव्यम्, अवच्छेदकतया नीलादी समवायेन नीलतराटे प्रतिबन्धकत्वं स्वइव्यसमवायित्वसम्बन्धेन नीलंतराने हेतुत्ववेत्यनादृत्य वस्तुतावच्छेदकतया नीन्द्रादी हेतुत्वाऽभ्युपगमात् । न च नीलंतरन्द्यन्नं प्रति नीलविशिष्टनीलेतरत्वादिना हेतुले विनिगमनाविरह इति वाच्यम्, नीलत्वापेक्षा नीतिस्त्वादः कार्यवच्छे गौरवादिति उभयमते ऽतिनिष्क एवं कार्यकारणभाव इति तुल्यम् ।
नन
यदि समवायसम्बन्धनेत्र नीलादिकं नियम्यं, अवच्छेदकतासम्बन्धेन पुनः नीलादिकमनियम्यमेव इत्यभ्युपगम्यतं तदा अव्याप्यवृत्तिरूपवादिमते अवच्छेदकतासम्बन्धेन नीलादिकं प्रति समवायेन नीलतरादीनां प्रतिबन्धकत्व न कल्पनीयन नीलपीतघटे पनि कपालावच्छेदन नीलोत्पादप्रसङ्ग इति वाच्यम्, आपादकविरहात् नीलस्य स्वाश्रयावच्छेदन नीलजनकत्वस्याभाव्यासम्बन्ध से उत्पत्ति की पूर्वोक्त रीति से आपनि आयेगी । अतः समवाय में नीलादि के प्रति स्वसमवायसमवेतत्वसम्बन्धावछिन्नप्रतियोगिताक नीलंतरादिअभावपक स्वरूप सम्बन्ध से कारण बनने से ये कार्य कारणभावकल्पनीय बनेंगे । एवं समवाय सम्बन्ध से चित्र रूप के प्रति नीलाभावादिषट्क की स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से कारण मानना होगा, अन्यथा कंवल नीलरूपवाले दो कपालों से जन्य पद में भी चित्ररूप की आपत्ति आयेगी। इस तरह १२ कार्यकारणभाव की कल्पना अतिरिक्त चित्र रूप वादी के मत में आवश्यक है । तथा नानाजातीयरूपवदवयवारच्य अवयवी में अन्यायवृत्ति अनेक रूप माननेवाले बाढी के मत में भी १२ कार्यकारणभाव का अंगीकार आवश्यक होगा। देखिये, नीलपीतरूपवाले घट में पीतकपालान नील रूप की उत्पत्ति के निवारणार्थ अवच्छेदकतासम्बन्ध से नीलादि के प्रति समवाय सम्बन्ध में नीलेतरादिपदक में प्रतिबन्धकता की कल्पना एवं व्याप्यवृत्तिनीयरूपवाले कपालादि अवयव में अवच्छेदकता सम्बन्ध से नीलादि रूप = कपालीय नीलादिरूप की उत्पत्ति के निवारणार्थं अवच्छेदकतासम्बन्ध से नीलादि के प्रति स्वाश्रयसमवेतद्रव्यसमवायित्वसम्बन्ध में नीलाभाव आदि पटक की हेतुता की कल्पना आवश्यक होने से लाश हेतुहेतुमजाव की कल्पना करनी होगी । अतः दोनों मत में कार्यकारणभाव की संख्या तुल्य ही है, हीनाधिक नहीं ।
यदि हाँ, यदि ऐसा माना जाय किसमवाय सम्बन्ध से ही नीलाईट रूप की उत्पत्ति कारणनियम्य है, भकता सम्बन्ध से तो नीलादि रूप अनियम्य = कारण से अनियन्त्रित ही है । अतएव वच्छेदकता सम्बन्ध में नीलादि के प्रति समय सम्बन्ध से नीलेतरादि रूप को प्रतिवन्धक मानने की आवश्यकता अव्याप्यवृत्तिरूपवादी के मत में न रहेगी। नीलपीतपटस्थल में नील रूप का आपादन नामुमकिन ही रहेगा । अतः अन्यायवृत्तिपक्ष में केवल पथि कार्यकारणभाव का ही स्वीकार आवश्यक बनेगा, जब कि चित्ररूपवादी के मत में बारह कार्यकारणभाव को मान्य करना होगा बादी मत में ही गौरव होगा' - ऐसा भी कुछ विद्वानों का मन्तव्य है ।
तब तो अतिरिक्त चित्ररूप
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६.२ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः ३ . का... * नीलकपटमलावदनम् कल्पने गौरवमिति ।
अव्याप्यवृत्तिरूपस्वीकारे नीलपीतवति अस्जिसंयोगाझीलताशात्तदवच्छेदेन रक्तं न स्यात्, रूपं प्रति रूपस्य प्रतिबन्धकत्वादित्याहुः । परे तु तत्र व्याप्यवृत्तीत्येव नील-पीतादीन्युत्पद्यन्ते, नीलादिकं प्रति नीलेतरादिप्रति
* जयलता - देव न पीनकपालाबन्छेदन तदापनिः । एतेन बिनतादृशानियध्य-प्रतिबन्धकभावं तवास्वाभायाः नयांहादिनि प्रत्युकम्, अवच्छेदकतायाः कारणा नियम्यत्वाऽभ्युपगमादिनि विभाव्यत तदा तु चित्रं प्रत्यव प्रतत्प्रकरणप्रदर्शितरीत्या नानाकारणकल्पने चित्ररूपवादिमतं गौरवमिनि ।
अत्र अतिरिक्तचित्ररूपादिनस्त अव्याप्यवृत्तिरूपस्वीकार = नानाम्पवदययवारब्धघंटच्याप्यनिनीलपांनादिनानारूपस्वीकारे नीलपीतवति घंटे नीलकपालावच्छेदन सारूपजनकात् अनिसंयोगात् नीलनाशात् = कपालनालरूपनशानन्तरं तदवच्छंदेन = पाकनाशितनीलकपालावच्छेदन घटे समवापन रतं मां न स्यात् = जायेत, समवायन रूपं = रूपत्वावच्छिन्नं प्रति समवायन रूपस्य प्रतिवन्धकत्वात् । बटे पीतकपालायच्छेदेन सभवाचन पातरूपस्य सत्चात् समवायन रक्तरूपं नोलानमहनीति भावः । न च तदवच्छिन्नरूपे तदवच्छिन्नरूपस्य प्रतिबन्धकत्वान्नायं दोष इति वाज्यम, प्रतिवध्यप्रतिबन्धकभावावशेदककक्षावच्छंदकविशेषतो तद्दे प्रतिनध्यप्रतिबन्धकभावनदान्महागौरवात् इत्याहः ।
अधावच्छिन्ननालादी नीलानारादिषट्कमवयवगतमययविगतश्च हेतु : रत्तनीलारब्ध घट रक्तनादाकपांकन व्याप्यवृनिनी. लोत्पत्तिदशायां चावयविनि न नीलाभाव इति न तनावच्छिन्ननीलोत्पनिः, नीलमाधारब्ध पाकन क्वचिद्रकांपना च प्राकनालनाशादेवावच्छिन्ननालोपनिरिति चेत् ? न, नील-पील-श्वेताद्यारब्धं वेताद्यवच्छेदन नीलजनकपाक सनि प्रजननालनाशन तत्तदन्छिननानानीलकल्पनापक्षया एकचित्रकल्पनाया पद लघुत्वात् । नीलकण्ठोऽपि गाककचित्रास्थलेल्नकम्पाणामकैकतत्यागभावादिस्यले चाऽनेकपागभावादीनां कल्पनेन, अनेकम्प 'चित्र' इल्याकारकप्रतीनिविषयत्वकल्पनन गवमिति' (तर्कसंग्रहनीलकण्ठीयवृत्ति - T. २०८) बदन चित्ररूपं प्रस्थापयति ।
अपरे इति । तु: पूर्वोकपक्षया विषयोधनाधम् । नाहि । तत्र = नीलपीनादिलपालारधन्वंटे, समवायन ज्याप्यवृत्तीनि = स्वाभावा:समानाधिकरणानि पय, न लल्याप्यवृतीनि, नीलपीतादीनि कपाणि उत्पद्यन्ने, समवायन नालादा स्वसमवापिसगवतत्यसम्बन्धन नीलादे: हेतुत्वकलानयत्र दनुपपनी नीलादिकं प्रति नीलतरादिप्रतिबन्धकत्व-नीलाभावादिकार
अत्याप्यतृत्तिपमत में दोषोद्भातन * न्या. इनि । मगर यहाँ अतिरिक चित्ररूप वादी का भव्याप्यवृत्तिरूपबादी के खिलाफ. यह आप है कि --> 'नीलपीतकपाल से आरब्ध घट में यदि अतिरिक्त चित्ररूप का स्वीकार न कर के अन्यायपनि नील और पीत रूप का स्वीकार करने पर उम घट में रकरूपजनक विजातीय अग्रिसंयोग से नील रूप का नाश होने पर तत्कपालाबञ्जेदन घट में समवाय से एक रूप की उत्पनि न हो सकेगी, क्योंकि ममवाय मे रूप के प्रति समवाय मम्बन्ध से रूप प्रतिवन्धक होता है। उक्त घट में समवाय से पीतकपालाबच्छेदेन पीन रूप रहने से उस घट में ममत्राय से रक रूप की उत्पनि नामुमकिन हो जायेगी । अतः अवयवी में अध्याप्यवृत्ति अनेक रूप का स्वीकार करना असंगत है।
प्यारातिी जी पीतादिरूपवादी-अपरात अपरे. इति । यहाँ अपर विद्वानों का इस सम्बन्ध में कुछ अलग ही मत है, वह या कि नीलपीतानि कपालो र उत्पन्न घट में व्याप्यवृत्ति ही नील, पीत आदि रूप समवाय सम्बन्ध में उत्पन्न होते है। इसका कारण यह है कि चित्ररूपादिवाटी के मतानुसार नीलपीनकपालादिआरय यद में नील आदि रूप की उत्पत्ति के परिहारार्थ नीलादि के प्रति नीलेनरादि को प्रतिबन्धक मानना होगा और नीलपीतकपालाग्न्ध घट में अव्याप्यवृत्ति नीलादि की उत्पनि माननेवाले विद्वानों के मतानुसार अवच्छेदकतासम्बन्ध से नीलादि के प्रति नीलाभावादि को कारण मानना होगा । इमकी अपेक्षा नीलपीतादिकपालारब्ध घट में व्याप्यवृनि नील, पीत आदि की उत्पत्ति की कल्पना करना ही लाघव से उचित है । यहाँ यह गाना हो कि -> 'नील. पीतादिकपालारब्ध घट में न्यायवृत्ति नील-पीतादि रूप की उत्पत्ति मानने पर ना नीलादिकपालावच्छेदन घट में चक्षुसनिकर्प
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* अपरमता स्वरसबीजद्योतनम्
बन्धकत्वनीलाभावादिकारणात्वाऽकल्पनया लाघवात् । न च नीलकपालावच्छेदेन चक्षुः सन्निकर्षे पीतादेरुपलम्भापतिः, पीतावयवाद्यवच्छे अचक्षुः सभिकर्षस्य पीतादिग्राहकत्वकल्पनात् यत्र एतत्कपालावच्छिन्नसंयोगादिप्रत्यक्षानुरोधेनैतत्कपालानवच्छिन्नवृतिकत्वे सति यत् तत्पीतान्यं तद्भिनं यद् एतद्द्घटसमवेतं तस्यैतत्कपालविषयकसाक्षात्कारं प्रति एत
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* जयलता
| णत्वाऽकल्पनया लाघवात् । चित्ररूपमते समवायेन नीलादी स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धन नालेतरादेः प्रतिबन्धकत्वं प्रकल्प्य स्वरूपेण स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकनीलेतराद्यभावस्य कारणत्वकल्पनमावश्यकम्, अन्यथा तत्र नीलादिसामग्री| बलानीलाद्यापत्तेः । अन्यायवृत्तिरूपले च वच्छेदकतय नीलादी पूर्वोक्तसम्बन्धन नीलाभावादीनां कारणत्वकल्पनं पूर्वी रीत्या आवश्यकमिति गौरवम् । व्याप्यवृत्निनीलपीतादिकरूपने च तदनावश्यकत्वेन लाघवात्र तत्राऽतिरिक्तचित्रं न वा अव्याप्यवृत्तिरूपवृन्दं कल्पयितुमर्हति । इत्थमेव च रूपस्य व्याप्यवृत्तित्वनियमांऽपि सङ्गच्छते । न चाप्रयोजकोऽयं नियम इति वक्तव्यम्, लाघवतर्कस्यैव प्रयोजकत्वात् । न च व्याप्यवृत्तिनीलपीतादिरूपवति घंटे नीलकपालावच्छेदेन चक्षुः सन्निकर्षे सति पीताद : रूपस्य उपलम्भापत्तिः = चाक्षुषसाक्षात्कारापत्तिः केवलनीलावयवारयं व्याप्यवृत्तिनीलवत्यवयविनि यत्किञ्चिदवयवविच्छेदन चक्षुः सत्रिकर्षे सर्वेषामेव नीलपीतादिरूपाणां चाक्षुषत्वस्य न्याय्यत्वादिति वक्तव्यम्, पीतात्रयवायवच्छिन्नचक्षुः सन्निकर्षस्य घंटे पतिकपालाद्यवच्छेदेन चक्षुः सत्रिकर्मस्य पीतादिग्राहकत्वकल्पनात् पीतादिरूपविषयकलीकिकचाक्षुष प्रतीति जनकत्वाभ्यु
पगमात्
=
=
नीलति यत्किञ्चिदवच्छंदन चक्षुः सन्निकर्षस्य नीलग्राहकत्वेऽपि व्याप्यवृत्तिनीलपीताद्यनेकरूपवति निरुक्तप्रत्यासनव चाक्षुषकारणतावच्छेदकसम्बन्धत्वान्न नीलकपालावच्छेदेन चक्षुः संयोग पीतादिचाक्षुषप्रसङ्गः सामग्रीविरहे कार्यानुत्पादात् । गौरवपरिजिहीर्षया व्याप्यवृत्तिनानाम्नील-गीतादिरूपस्वीकारेऽपि प्रदर्शितनवीनकार्यकारणभावाच्या नीयत्वा पातेन गतेऽपि लङ्कां न दारिद्र्यनाश' इतिन्यायागमादःस्वरसप्रदर्शनमपर इत्यनेन प्रथममेव कृतमिति तु ध्येयम् ।
पीतावयवावच्छेदेन चक्षुः सन्निकर्षस्य विषयतया पीतादिचाक्षुषं प्रति कारणत्वकल्पने गौरवात्तत्परित्यज्य अन्यश्व नीलादिकपालावच्छेदेन नयनसन्निकर्षदशायां पीतादिचपवारणाय व्यायवृत्तिनानारूपवादितविशेषमुपक्षिपति यत्त्विति । अस्य चाग्रे तन्नेत्यनेनान्वयः । एतत्कपालावच्छिन्नसंयोगादिचाक्षुषानुरोधेनेति । एतेन प्रकृतकार्यकारणभावस्यावश्यकत्वभावेदितम् । एतत्कपालानवच्छिन्नवृत्तिकत्वे सति यत् तत्पीतान्यं तद्भिनं यद् एतद्घटसमवेतं तस्य = एतत्कपालानवच्छिन्नवृत्तिकत्ववि शिष्टतत्सीतान्यप्रतियोगिक भेदवंदेत दूधसमवेतस्य एतत्कपालविषयकसाक्षात्कारं प्रति एतत्कपालावच्छेदेन एतद्घटचक्षुः संयोगस्य होने पर भी पीतादि रूप के चाक्षुष साक्षात्कार की आपत्ति आयेंगी, क्योंकि पीतादि रूप व्याप्यवृत्ति होने से संपूर्ण घट में रहता है तो यह इसलिए निराधार हो जाती है कि पीतादिअवयत्रावच्छेदेन चक्षुसत्रिकर्ष ही पीतादि रूप का ग्राहक = चाक्षुपसाक्षात्कारजनक होता है, न कि नीलादिअवयवावच्छेदेन भी चक्षुसन्निकर्ष पीतादि का ग्राहक होता है । इस कार्यकारणभाव के स्वीकार से ही पीतावयवावच्छेदेन पट में नेत्रसम्बन्ध होने पर घटगत व्याप्यवृत्ति नीलादि के चाक्षुष होने की आपत्ति को अवकाश नहीं है । कारण नहीं होने पर कार्य का जन्म कैसे हो सकता है ? अतः नानारूपवदत्रयों से आरब्ध अवयवी में व्याप्यवृत्ति अनेक नील, पीत आदि रूप का स्वीकार निर्दोष है ।
ड बोलावयव में पीतचाक्षुष आपत्ति का निरास
तु इति । कुछ मनीपियों का यह मन्तव्य है कि नीलपीताला
घट में व्याप्यवृत्ति नीलादि रूप की उत्पत्ति मानने पर नीला यावच्छेदेन चक्षुमलिक से पीतादि रूप के चाक्षुप साक्षात्कार के बस के परिहारार्थ किसी नूतन कार्य - कारणभाव की कल्पना करनी आवश्यक नहीं है किन्तु एतत्कपालावच्छिन्न संयोग भादि का प्रत्यक्ष एतत्कपालावच्छेदन नेत्रप्रत्यासत्ति से ही होने से एतत्कपालावच्छिन्न संयोग आदि के प्रत्यक्ष के प्रति जो एतत्कपालावच्छेदेन एतद् घट के साथ नयनसन्निकर्ष की कारणता होती है उस कारणता से निरूपित कार्यता के वन में किमित परिवर्तन करने से ही उत आपत्ति का परिहार हो सकता है । जैसे यह कहा जा सकता है कि एतत्कपालानवच्छिन्नवृत्तिक जो तन्पीतान्य, उससे भिन्न जो एतद्घटसमवेत नविषयक जो एतत्कपालविपयक प्रत्यक्ष उसके प्रति एतत्कपालाचच्च्छेदन एतदूपवचक्षुसनिक कारण है । कार्यकारणभाव को इस रूप में परिवर्तित कर देने पर नीलपीतपाला पट में उत्पन्न होनेवाले व्याप्यवृति पीत रूप का
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मध्यमग्याद्वारहरये न्याण्डः ३ . का. *नारकपालाउछदन पानाश्चिाक्षपपरिहा: * | कपालावच्छेदेन एतद्घतचक्षुःसंयोगस्य हेतुत्वाम लीलाधवयवावच्छेदेन चक्षुःसनिकर्षे पी- ||
-* जयलता - हेतुत्वान् = कारणत्वोधगमात्, न नीलाद्यवयवावच्छंदन चक्षुःसनिक संत पीनादियाशुपं = ल्या यवृनिपातादिरूपचाक्षुषप्रसङ्गः, पीनादेः पतन्कापालानबछिन्ननिक यन तत्पीनान दिन्नत्यं सनि एनष्टममंचनत्वंन तद्विषयकचाक्षुपस्य पनकपाळान्लिनतन्कपालान किन्नघटनयनरंयांगजन्यनाव-दकाक्रान्नत्यानमूने नदुत्यन्यनुपपत्तेः । न च कार्य नावच्छेदककुग एतत्कपालानवच्छिन्नवृनित्वस्य तत्पीतान्यविशेषणत्वं मास्त गौरवादिति वाच्यम्, तथा सनि एतत्कयालावछिन्नपटादिसंबोगस्य नातान्यत्वेन नमानान्यस्त्रित्वविरहात नमिषयकनाशपस्यैतत्कपालावच्छिन्ननयटचक्ष:मन्निकर्षनिरूपितकार्यनारच्छेदकानाक्रान्न. त्वग्राप्ती नमृत-गि नयादप्रसङ्गान । न च तत्कालानच्छिन्नवृसिकभिन्नदकटममचेतनाक्षपत्वम्यव कार्यताबन्लेदकत्यमस्तु नन्पातान्या प्रबंशन लावादिति वक्तव्यम, गोलपातकपालारब्धघटायगातरूपस्यैतद्घाटसमवेतत्त्व.पि व्यायनिवनतत्कपालानवच्छिन्ननिकत्वात् नदिपयकचाचपस्यैतत्कालवच्छिकतयटनयनसंयोगनिष्ठकारणतानिमितकार्यत्वानाक्रान्तल्यापत्ता पानकामालाब. मलेंदन नम्नगंयोगबिरहदशायामपि नदुत्पादरप दुर्निपरत्वान न चनन्त्रपालानवन्छिम्भवृनिकपणेतान्याटियागिको यो टा नद्रदेतदघटसमरतचाशुषत्वस्यैव हत्कार्थनावच्छेदकत्वमस्तु पीनविशेषणविधया तत्पदा निवेदोन लाघवादिति वाच्यम् , त्यहिननीबनाकपालद्यपीतमात्रकालाचघरवृत्तिव्याप्यनिधीतद्वपस्य व्याप्यनित्वनतत्कपालानवचिन्नपीनान्यभिन्नघटसमवेतत्वेना न्यायालगतगीतमपनन्यघटायनीटपविषयकचाक्षुषस्य पदकपालावच्छिन्नघटनयनसंपोगकार्यनारच्छेदकाक्रान्तवना न्यकपाला इच्छितपटनगनसंयोगविरह, पि गतकपालावच्छिन्नतदधटगत्रसंयोगदशावामुत्पादापतः । न चैतत्कपालानयन्छिन्नवृनिकनानायनिनगोचरनाक्षुषत्वम्वतन्कपालाग्छिन्त्रत टसश्किर्षकार्यतावच्छेदकल्पमस्तु एतद्घटममवतत्वानिवन लायवादिति वाच्यम्, संयागेन दत्र्यस्याच्या प्यातिनन्य एतत्कपादावारकाम्बध्या: प पतत्कयालानच्छिवृरिकतपातान्यमित्रत्वन एतत्कपाले वस्त्रं' इत्याकरकम्य नदिपगनचाक्षुषस्य एतत्कपालावच्छिन्नेतद्धदनयनगंयोगजन्यत्वाकानवन ज्यतिकन्यभिचारगम गात् । | न हि बसे रवाश्रयसमंवतन्त्रसम्बन्धन पतत्कापालावचितघटनापनमयांगों वर्तते । अतो लौकिकविपयनासम्बन्धन एनत्कपाला. नयन्निवृचिकनत्तातान्यभिनघटसमवतस्यतत्कपालयिकचाक्षुष स्वमन्वापिस गन्तसम्बन्धन पनाकपालापछिअनःनशुःसयोगम्य कारणत्वमभ्युपगन्यगिति न घटन्निीलपीनादायतित्वपि नालकपालवच्छेदन वक्ष:मन्त्रिको पानादेचाक्षुषामङ्ग इनि भावः ।
नीलकपालावच्छेदेन घट के साथ नयन का सम्बन्ध होने पर चाक्षुग प्रत्यक्ष प्रसन नहीं हो सकता, क्योंकि उस घट में विद्यमान पीत रूप एतत्कपालानवच्छिन्न जो नपातान्प, उसस भित्र पनपटसमवेत हो जाता है । अतएन एतत्कपाल के साथ उमका चाक्षुप साक्षात्कार ना हो सकता है जर एतनकपालावच्छेदेन एतद्घटक माथ नयनमयोग हो । अतः नीलारपवावच्छंदन पट में नयनसत्रिकर्ष रहने पर पीन मप के प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं होगी । उक. कार्यतारजेडेदक के शरीर में एनकपालावचित्र मंयोग नपानान्यभिन्न नहीं होगा । अनः इसका प्रत्यक्ष गनझपाटावच्छंदन पनघट के साथ नयनसन्निकर्ष के कार्यनाजयदक से आक्रान्न नहीं होने की वजह उपर्युक मनिका के चिना भी उसके प्रत्यक्ष की आपनि आयगी । इसी तरह इन कार्यतावदक म तापीतान्यत्व का निवेश न कान र तत्कपालानजिमाधुनिकभिन्न पनघटसमनत का ही प्रदा होगा। फलतः नीलपीन. कपालारध घट में उत्पन्न पान रूप व्याप्यनि होने की वजह पातकपालानवित्तिव होगा, क्योंकि व्याप्यान का अवच्छंटक, होने में कोई प्रमाण नहीं होने में नह सवंदा निवछिन ही होता है। अनः तदभिन्न एनघटममत में इसका समावेश नहीं होने के सबब उसका चाक्षप माक्षात्कार भी उक्त मात्राप के कार्यतावच्छेदक में आक्रान्त न हो सकेगा । अतः उन गानिकर्ष के बिना भी नीलावयवावच्छतेन नबनसन्निकर्ष वान पर उसके चाक्षुष साक्षात्कार की आपनि दर्बार हो जायगी। एवं यदि उक्त कार्यनावरकोटि में सीतान्य ब. स्थान में कार पीनान्यमात्र का प्रवेश किया जायंगा नो परम्पर यहित दो पीन और नील कपानों में उत्पन्न घर में जो दी पीत रूप उत्पन्न होंगे, दोनों ही पतत्क्रपा नवछिन्ननिक पीनान्यभिन्न एलट्याटसमरन डाग । अनः अन्यम्सालगत पान का में उत्पन्न घटगात पान रूप का चाक्षुष भी पनकपालापन्निनयनमत्रिकर्ष के कार्यतावन्दक में आक्रान्त हो जायेगा । अनः अन्यकपालावच्छिन्न नयनानिकर्ष के विरह में भी पनकपालारच्छेदन नयनर्माचक्रप होने पर भी इगक वाक्षप की आपनि आयेगी । इसी प्रकार उन कार्यतावच्छदककोटि में यदि 'गनदयदममवनत्व का प्रवेश न किया जाय दब पतपालानबन्छिन्नतिक नपीतान्य म भित्र एतत्कमाल का आधारक वस्त्र भी मंयोग सम्बन्ध में
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*न्यापन्याधानावनाकाकार: * तादिचानुमति, ताधि सीलदावच्छेदेन चक्षुःसनिक घटत्वादेरिव पीतादेरपे || पीतादिकपालाऽविषयकसाक्षात्कारापतेर्दुर्वास्त्वात् ।। व्याप्यवृत्याधारत्वस्याप्यवच्छेदकाण्युपगमेन द्रव्यसमवेतचाक्षुषत्वावछिन्नं प्रत्येव चक्षुः
- जयलता *यद्यपि तकपालावच्छिन्नप्रत्यक्ष व सकपालावच्छिन्नमत्रिकर्षस्य हतन्य हित तापक्ष कार्यतावच्छेदक निगौग्यं तथापि स्फुटत्वानमुपेक्ष्य प्रादिवादन दोषान्तरमुपदर्शयितुमाह - तन्नेति । तथापि = निरुक्त कार्यकारणभावन्यापनम:पि, नोलावयचाबच्छेदन चक्षुःसनिक सति घटत्वादेः पातकपाला विषयकवाक्षुषं इव नीलकपालावरदेन न्यनसंयोग सति व्याप्यवृनः पीतादेरपि पीनादिकपालाऽविषयकसाक्षात्कारापने: रत्वात् । यया घटत्वस्य च्याप्यनिल्न पीतकपालानवनिनिमयदत्वान्यनिदयटसमवेतल्यात् तस्य पीतकालविषयकवानपं पीतकपालावच्छिन्नतद्घाटचन:संयोगकार्यतावच्छेदक क्रान्तत्वन नाव-देन घटे वासनिक मति न भवितुमर्हति किन्तु घटत्वस्य पातकाला विषयकं नीलकपालविषयकंतु चाचणं नदानी भवत्यत्र. रम्य पीतकपालावच्छिन्द्रत टचक्षुःसन्निकर्यकार्यतावच्छेदकानाक्रान्तत्वातु । तवैव गीतकपाल नवच्छिवृत्ति कपातान्यभिन्नतद्घटसमचतत्वन नालापीतश्चेतकपालारब्धघटन्तिपीतादेः पतकपाविषयकचाचपं पानकपालावटिबतघटचक्षु:सयांगकार्यतावच्छेदकाक्रान्तन नीलकपालाय छदन चक्षुःसंयोगदमायां न भवितुमर्हति तस्य पीतकमालावचिन्तघटचन :सन्निक'कायनावलेटकाक्रान्तवन नीलकपालगोचरं न चाशु नदानी भवितुमर्हति. नस्य पीनकपालावतिघटवक्ष:सत्रिकर्षकार्यतावच्छेकानाक्रान्तत्वान । न च ननदा भवतीत्पन्नयन्यभिचारास्तत्वान्नार्य कार्यकारणभावः अज्ञेय इति न्यायनिनानारूपवादिनामपरपां भावः ।
ननु अनुपदोक्त कार्यकारणभावानभ्युपगमे अन्यकपालावच्छेदन शुमत्रिक अति पतत्कपालावच्छिन्नघटसंपांगमय चाभुपं सज्येत इत्याशड़कायागाह - व्याप्यवृत्त्याधारत्वस्य = व्यायनिवृत्त्या श्रेयनानिमपिन्नाधारताया अपि अवच्छेदकाभ्युपगमेन
द्रव्य के अन्याप्यवृतित्वपक्ष में एतत्क्रपालानपचित्रवृत्तिक, नापीतान्य से भिन्न होगा । अनः नद्विपयक चाक्षुप प्रनीति भी पतत्कपालावच्छेदेन नपनसत्रिकप के कार्यतारच्छेदक से आक्रान्न हो जायगी । तथा उसका 'एतत्कपाले वस्त्रं' इस प्रकार का चाक्षुप साक्षात्कार भी एतत्कपालाबच्छेदन पतघरमयनसंयोग के कार्यतावच्छनक से आक्रान्त हो जायगा, किन्तु उक्त संयोग स्वाश्रयसमवेतन सम्बन्ध में वस्त्र में नहीं है । अतः वस्त्र के उक्त चाक्षुप प्रत्यक्ष की अनुपपनि होगी' ८
८ व्याप्यवृतिनानारूपमत में पीतकपालातिषयफ पीतमाक्षात्कार की आपत्ति
तन्न नथापि । मगर अपर विद्वान इस मत का यह कह कर प्रतिक्षेप करते हैं कि यदि अभ्युपगमवाद से उपर्युक्त कार्यकारणभाव को मान्य किया जाय नो भी नीलकपासरावच्छेदेन नीलपीतरक घट में नयनमनिकर्ष होने पर घटत्यादि को भॉति पीतादि रूप का पीतादिकपालाविषयक चाप उत्पन्न होने की आपनि दार होगी। आशय यह है कि म घटल्य जाति व्याप्यवृत्ति होने से पीतकपालानयन्निवृनिक पदाचान्य से भिन्न एवं एतद्घटसमवेत है। अतः पीतकपालविपयन दित्वचाप गीतकपालाबग्टिन एतद्घटनयनसंयोग के कार्यतावच्छनक से आक्रान होने से नीलकपालावच्छेदेन चक्षुसंयोग होने पर पान कपालत्रिपयक घटत्वचाक्षुष की उत्पत्ति नहीं हो सकती मगर पीतकपालाविषयक यानी नीलकपालविषयक घटत्वचाक्षुप की तो तब उत्पत्ति होती ही है, क्योंकि वह पीतकपालावच्छिन्न एतद्घटनयनसयोग के कार्यनाबसलेटक से अनाक्रान्न होता है । ठीक इसी तरह नीलकपालादञ्छेदन चक्षुसभिकर्ष होने पर पीतादिकपालविषयक पीतादिरूपचाक्षुप की उत्पत्ति न होना संगत है, क्योंकि वह पीतकपालानवच्छिन्नवृत्तिक पीतान्य से भिन्न पनघटसमवेत को अपना विषय बनाने की वजह पीतकपालावच्छिन्न गत टचक्षुसत्रिकर्प के कार्यतावच्छंदक से भाक्रान्त है । मगर नब पीतादिकपालाविषयक पीनादिरूपचाप माक्षात्कार की आपनि तो अपरिहार्य ही होगी, क्योंकि बह पीतादिकपालविपयक न होने की वजह पीनादिकपालावधित पनघटनयनसंयोग के कार्यनारच्दक से अनानान्न है। मगर वस्तुस्थिति यह है कि नीलकपालावच्छेदेन घट में नयनर्गयांग होन पर पीनादिकपानाविषयक पीनादिचाक्षप साक्षात्कार होता नहीं है । इस दोष की वजह उपर्युन. वक्तव्य भी अनादरणीय है।
यायायापारखा परिक्षा होती है-त्याप्यतृतिजाबारूपतादीन ग्याप्य इति । यहाँ ब्याप्यनिरूपवादी का यह बनान्य है कि व्याप्यवृत्ति की आधारता सानि होती है न कि निरबच्छित्रः क्योंकि व्याप्यवृनि की आधारता के अनछेदक की हमारे मन में स्वीकृति है। फिर भी एतत्क्रपालाचनिन्न घटसंयोग के
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६ मध्यमन्यादानरहरन्ये गण्टः 2 . का...* 'मुख पुछ व पाण्डर इत्पत्र सप्तम्यर्थ चार * संयोगावच्छेदकावच्छिन्नसमवायसम्बन्धावच्छिमाधारतायाः सत्रिकर्षत्वेनैतत्कपालावच्छिन्नघटसंयोगस्याऽन्यकपालावच्छेदेन चतु:संयोग - तच्चाक्षुषातृदयनिर्वाहात् अनुपदोक्तकारणत्वस्य नियुक्तिकत्वाच्च । 'मुखे पुच्छे च पाण्डुर' इत्यादौ तु मुखादिवृत्तिपाण्डुरत्वादिकमेवाऽवयविनि प्रतीयत
-* जयलता - द्रव्यस मोरचाक्षुपत्वावच्छिन = द्रव्यसमरतगोचरचाक्षुषमात्र प्रत्येव चक्षुःसंयोगावच्छंदकावच्छिन्नसमवायसम्बन्धावच्छिन्नाधारतायाः = चक्षु:संगोगावच्छेदकतिपयदशावच्छिन्त्रां प: समवायसम्बन्धः तदवच्छिन्नाधारतानिरूपिताया आधेयतायाः सन्निकपंत्वन = चक्षुः कारणतावदकप्रत्यानिचोपगमन रतत्कपालापच्चिन्नघटसंयोगस्य = एनन्कपालायलंदन घटसमवेता या घटनयनपदादिसंयोगः तस्य अन्यकपालावच्छेदेन चक्षुःसंयोगतचाक्षुपानुदयनिर्वाहात = कारणतावच्छदारसम्बन्धघटकीभूतचक्षुःसंयोगानुदयस्य तदानी मतत्कापालायचित्रपटसमवेतपटपटादिसंयोगगोचरचाक्षुषानुत्पन भोपपने:, अनुपदोक्नकारणत्वस्य नियुक्तिकत्वाचेति । लौकिकविषयतया द्रव्यसमदतचाक्षपसामान्य प्रति संयोगावच्छेदकान्त्रिसमवायसम्बन्धावच्छिन्नाधारतानिरूपिताधेयतासम्बन्धन चक्षणः काग्णन्चम्यावश्यक्लप्तत्त्वान् एतत्कपालावछिन्नघटादिसंयोग्गोचरचाक्ष प्रति स्वसंयोगावच्छेदकतत्कपाळावचिन्नममनायाच किनाधारतानिरूपिताधेयतया चक्षुपः कारणत्वात अन्यकपालावच्छेदन पशु:संयोगे सनि निरुतसम्बन्धन चक्षुषम्नत्रा वर्तमानत्वान संयोगावच्छेदकान्यकपालावच्छिन्नसमवायसम्बन्धावन्भिन्नाधारतानिरूपिताधेयतायाश्च तत्कारणतानव-न्दै दकसंसर्गत्वान्न तदानामिनतकपालावच्छिन्नबटादिस्यग विषयटया चाक्षुषो तानिः । न चैनं नीलपीतकापालाम्बयंट व्याप्यनिनीलपीतादिम्बाकागत्पनिर्गिन वाच्यम् , कंपग्यदकामावपि कपिसंयोगस्यागच्छेदकाभ्युपगमन न्यायवृजेबछन्दकबिगह:पि शायनानपनापास्तायाः मावन्लिन्नन्याभ्युपगमात । अतं नालगानादिपवघटसमचतानादिवानुपलावच्छिन्नं प्रति मायछेदकगीतादिकपालावन्निसम्बारसम्बन्धावच्छिन्नाधास्तानिरूपिताधेयतसम्बन्धन वरूपः कारणत्वा. श्रीलकपदावछंदेन चक्षुःसन्निकर्षददायां निरुक्तसम्बन्धेन चक्षुषः गातादाबस्वान्न तदानीं पीतादिचाक्षुषपमङ्ग इति नानाजातीयरूपवदवयवारन्धावयचिनि व्याप्यवृत्तानि नीलतादीनि ग्वाकुर्वतामपरेषामाशयः।
ननु व्याप्यवृत्तिनानागाभ्युपगम नलवृषपरिभाषा कधं सहान, श्वेतपाण्डुरदीनां व्याप्यवृनित्वेन सप्तम्या अवछिन्नत्वर्थे सङ्गत्यनुपपने रित्याशङ्कायामाह - 'मुखे पुन्छे च पाण्डुर' इत्यादी तु सान्या वृत्तित्वार्थ एव मङ्गने: मुखा. दिवृत्तिपाण्डुरत्वादिकमेव - मुखादिनिष्ठाधारतानिरूपिना धयनाबिप्राष्टपाण्डत्वादिकनंब अश्वविनि नीलवप ग्यममवापिसमनत्वसम्बन्धन प्रतीयते, नन मुखाद्यवछिन्नपाण्डत्यादिकमयचिनि समवायन प्रतीयते । एतेनान्वर्यापन प्रत्य
चाक्षुप की अन्य कपालावच्छेदेन चक्षुसंयांग होने पर आपत्ति नहीं आयेगी। इसका कारण यह है कि लांकिक विषयता सम्बन्ध से व्यसमवेतचाक्षुपमामान्य के प्रति स्वसंयोगावच्छेदक विपयंदेश से अवच्छिन्न समशयसम्बन्य से अवच्छिन्न विषयाभाग्ना में निरूपित आधेयतासम्बन्ध में चक्ष कारण है- ऐसा स्वीकृत है । अन्य कपाल में चागंयोग होने पर एनकपाल चक्षुसंपांग का अवच्छेदक नहीं होने से ग्यप्रयोगावच्छेदकारविरसमवायअवचिंबाधारतानिरूपित आधेमतासम्बन्ध में चक्षु नव पनल्कापालावच्छिन्न. घटसंयोग में नहीं रहने की वजह वहां लोकिकविवपनासम्बन्ध मे चाक्षुप की अनुत्पनि का निर्वाह हो जाता है । अगाव अभी यनुमत्त में जिस गुरुतर कारणता की कल्पना की गई है वह युक्तिशून्य है । नीलपीतनादिकपालाग्न्ध घट में व्याप्यनि नील, पीत, शुक्ल आदि वर्ण होने पर भी नीलकपालावस्येदन चक्षुसंयोग होने पर घटगत पीनादि रूप के चाक्षुप की उत्पनि का प्रसङ्ग नहीं होगा, क्योंकि व्याप्यक्ति की आधारता का अवच्छेटक हमार मत में मान्य होने से नब म्बसंयोगावठदकान्छिन समवायअवधिमाधाग्नानिपिनायनासम्बन्ध में चभ घदसमबन मील रूप में रहती है, न कि घटसमवेत पीनादि रूप में । अतएव लाकिफाविषयता गम्बन्ध से पीनादि रूप में इन्चसमवनचाक्षुप की उत्पनि का कार्ड प्रमंग नहीं होगा। कार्यतार सब सम्बन्ध में कार्याधिकरणविषया अभिमत में कारणनारमदयमम्पन्ध से कारण न रहने पर कार्य की उत्पनि का पालन नहीं किया जा सकता । इस नन्द दोनों दांप का परिहार प्रदर्शित एक कार्य-कारणभाव में हो जाने में या तो अन्यकपालायच्दन नेत्रसंयांग होने पर पताकपालगनघटगयांग के चाक्षुप के परिहाग अवश्यम्लन कार्यकारणभाव मे ही नीलकपालावच्छंटन नगयांग होने पर व्याप्यवृत्ति पानादि रूप के चाय की आपनि का पारण हो जाने में यनुमतप्रदर्शित निगम कार्यतावच्छंटकवाला कार्यकारणभाव मान्य नहीं किया जा सकता । इस तरह नील-पीत-श्रेतादिकपालारच घाट में ज्याप्यनि नील, पीत, शुक्ल आदि अनेक रूप का स्वीकार ही उचित है। यहाँ यह शंका हो कि --> "यदि नानारूपपदवयों में आरम अवयत्री
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* रागाभट्टमताकामानम * इत्याः। इति न केषामप्येषामेकरूपानकनाशयसमादेश: रातः ।
reशापि ये नील-पीत-रक्ताधारब्धघटादी नील-पीत-रक्तेभ्य एव नील-पीतोभयज-रक्तपीतोभयज-त्रितयचित्राणामुत्पति: सर्वेषां सामनीसत्वात, अनुभवसिन्दत्वाच्च । ता त्रित
- जयलता - अत्यप्रसङ्गो:पि प्रत्युक्तः, अवचिनी नीरूपन्नानभ्युपगमात् । इत्यञ्च ब्याज्यवृत्तिनानारूपापक्षस्यैव निर्दोषत्वमित्याहुः । आहुरित्यनेना स्वग्मोमानं कृतम | नबीजश्चदम याश्यवृन्याधारत्वस्य परम्परासम्बन्धन नदुपपादन गौरवाच !
रामन्द्रभट्टस्तु भाल-पातकपालारब्धे घंटे पीतकपालावन्दन नीलरूपोतानिवारणाय ननदरयावदन नालादिम प्रति ननदवयवगनीलान्यरूपत्वेन प्रतिबन्धकत्वं वायर । रुगस्य न्यायनितामते प्रतिबध्यप्रतिबन्धकमानो न कम्प्यत एव । | किन्तु आयानि तत्तदवयवावच्छेदन तत्तद्रा प्रति तनदयवनततनपाणामब हतत्वं कलप्यत इति न गवमिनि वान्न्यम् | न्यायनिशकलादिरूपस्थले दाम्लरूपादी तनदवयवावच्छिन्नत्त्वस्य विरहणोक्तरूपेण कार्यकारणभावकल्पनाप्रवक्तगौरवाभावान न चैवपि अतिरिक्तचित्ररूपं प्रति अवयवगतनानारूपाणां कारणत्वकल्पनमधिकनिति वाच्यम्, 'चित्रपट इत्यादिप्रतीत: नानारूपसमुदायविषयकत्वकल्पनामपक्ष्य एकत्रिरूपविषयकत्वकल्पने लाघवस्यातिस्फुटत्वादिति' ।त.सं.ग.पृ. २२५) इनि चन्दन अतिरिक्तचित्र पपक्षे पनि ।
समाधत्तं . तथापीनि । एतच्छलोकविवरणागनायन 'यद्यपि' इतिपदेन सहास्यान्नया: कार्यः । ये नव्यनयायिकादय: नीलपीतरकाद्यारब्धघटादी = नीलपातकादिरूपवदवयवाग्धेश्वविनि स्वावमयसमयनेम्यां नील-पीत-क्तिभ्य पर स्वसमचापि - समवंतत्यसम्बन्धेग नीलपीतोभयज-रक्तपीतोभयज-त्रितयजचित्राणां = नालपानरूपोभयजन्यतावच्छेदकारिलक्षणचित्रत्वावच्छिन्नम्य. रक्तपाताभयजन्यतावच्छेदकविलक्षणचित्रच विशिष्टस्य, नीलरक्ताभयरूपजन्यतावच्छेदकचित्रत्वान्तर शालिनी नीलपानरकरूपविनयकार्यनावच्छेदकचित्रत्वविशेषविभूषितस्य च उत्पत्तिः, सर्वेषां निरुतरियाणां सामग्रीसत्त्वात् । न चैकमंत्र नदस्त्विनि वाच्यम्, सनदवयनद्वयमानाद्ययन्छंटनन्द्रियान्त्रिक सनि विलक्षणविलक्षणचित्ररूपागां अनुभवसिद्धत्वात । इनांस्तु विशेषः तत्र = घटादी
में न्याष्यवृत्ति अनेक रूप का स्वीकार करने पर 'मुखे पुनरेव पाण्डुरः' इत्यादि में मुखादिपदोनर सप्तमी विभत्ति की अवचित्रत्वार्थ में संगति नहीं हो सकेगी, क्योंकि व्याप्यवृनि रूप अवच्छेदकतासम्बन्ध से नहीं किन्तु समवाय सम्बन्ध से ही रहता है <-तो यह इसलिए निराधार हो जाती है कि मुखादिपदोत्तर सप्तमी विभक्ति का अवचिन्नत्व अर्थ न मान कर वृत्नित्व अर्थ ही मानने से सप्तमी विभक्ति की उपपत्ति हो सकती है। अत: मुखादिनिरूपिनवृत्तिताविशिष्ट पाण्डुर १ = पीताभ शुक्ल रूप) आदि रूप की स्वसमन्यायिसमवेतवसम्बन्ध से अवयची वृप में प्रतीति होती है - ऐसा माना जाता है । अतः व्याप्यवृनि अनेक रूप के स्वीकारमन में कोई दोष नहीं है , ऐसा अपर मनीषियों का वक्तव्य है। इस उपर्युन दीर्य विचार्गवमर्श से यह फलित होता है कि कोई भी नैयायिक विद्वान् या दार्शनिक को एक धर्मी में एक रूप और अनेक रूप उभय का समावेश मान्य करते नहीं हैं। कोई अवधी में कंबल अतिरिक्त चित्र रूप को सम्मति देता है तो काई ज्याप्यवृनि अनेक रूप का एकत्र समावेश करता है तो अन्य अत्र्याध्ययुनि अनेक रूप का एकत्र भवटकता सम्बन्ध में अहीकार करता है। मगर किसीको भी एक धर्मी में एक रूप और अनेक रूप दोनों का समावेश मान्य ही नहीं है नव मूलकार श्रीमद हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की यह उक्ति कि 'एक धर्मी में एक और अनेक चित्र रूपों को प्रामाणिक कहनेवाला नैयायिक या वैगेषिक अनेकान्तवाद का प्रतिक्षेप नहीं कर सकता' कैमे समीचीन होगी ?
तथापि.1 यह वाणी आपकी कुपमंदुनिता की द्योतक है। इसका कारण यह है कि मूलकारश्री की यह उनि उन नव्य नैयायिकों के प्रति है जो 'नील, पीत, रक्त आदि कपालों से आरब्ध घट में नीलपीतोभयजन्य, पीतरतीभषजन्य रक्तनीलोभयजन्य एवं नीलपीतरकत्रितयजन्य-इन सभी चित्र रूपों की उत्पत्ति होती है. ऐसा मानते हैं । उन नव्य नैयायिकों का यह अभिप्राय है कि --> उक्त घट में इन सब चित्र रूपों की सामग्री बिगमान है 1 अनः उक्त घट में किसी एक चित्र रूप की उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती, क्योंकि भिन्न भिन्न अवयवद्वयमात्रावच्छेदेन इन्द्रियसन्निकर्ष होने पर विलक्षण विलक्षण चित्र रूप का अनुभव भी सब लोगों को निर्विवादरूप से होता है । अतः अनुभव के विफज केवल दापवमात्र से वहाँ सिर्फ एक चित्ररूप का स्वीकार नहीं किया जा सकता। हाँ, इतनी विशपता इस मन में अवश्य है कि उभयजन्य चित्र रूप अवयवी घट में अन्याप्यवृत्ति यानी किञ्चिदवच्छेदन वृत्ति होता है और त्रितयरूपजन्य चित्र रूप घट में व्याप्यवृनि
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६-८ मध्यमस्थाद्वादरहस्ये खण्डः ३ . का. *स्य कल्पलनासंबादः
यजचित्रं व्याप्यवृत्यन्यतु अव्याप्यवृत्ति, एकमेव वा तपमस्तु, जातेख्याप्यवृतित्वोपगमेन तु किसिदवच्छेदेन नीलत्व-पीतत्वादिकं विलक्षणचिमत्वादिकच व्यवहियत इति येऽनुमन्यन्ते । तभिप्रायेणेदम् । स्वयं हि ये एका घटे व्याप्यवृत्त्येकं चित्रमव्याप्यवृति चित्रात्तरं चाना पगच्छन्ति तेषामनेकान्तवादानादरो न ज्यायामिति सर्वमवदातम् ।
* जयतता - त्रितयजचित्रं = नीलपीनगतरूपत्रितयजन्यतावच्छेदकचित्रत्वविशेषविशिष्टं रूपं व्याप्यवृत्ति = निरवचिन्नवृत्तिनाकं स्वसमानाधिकरणात्पन्ताभावाप्रतियोगीति यायत, अन्यत्तु उक्तादन्यन उभ्यचित्ररूपंत अव्याप्यवृत्ति = सावच्छिन्ननिताक स्वाभावसमानाधिकरणमिति यावत् । नीलपीनकादायम्देन नालापानाभयस्य सत्त्वात् तदतिरिक्तरूपम्य चासत्त्वाद नालपातकपालाबच्छंदन घट नालापानी भयजं चित्रमुपजायत पोतरमावयवावनाछेदेन पीतरको भयम्ग सत्त्वात तयतिरिक्तस्य च विहान पतरक्तकालावन्दन पीतरकाभयमात्रजन्य चित्रपमुत्पद्यन, रक्तनीलकपालावच्छेदन रक्तनलोनयस्य वृत्तः तदन्यरूपस्य नाजूलनीलरक्त कपालावन्छेदन नीलरतमात्रज चित्ररूपं जायते स्वसम्बायिसमवेतत्वसम्बन्धन बट नीलपातरक्तरूपाणां विद्यमानत्वात तदपररूपस्य वादिद्यमानत्वात् न्यायवृनिः नित्रविशेषः मञ्जायतेनुभूयन चेत्यभिप्रायः । न चैवं नीलपीतादिविदिष्टचित्रेणावान्तरचित्ररूपप्रतीतिसम्भान्न नानाचित्राभ्युपगमः अंपानिति माम्प्रतम, अखण्ड सामान्यन्त्रित्वेना-खण्डाबान्तरचित्रवानां सामानाधिकरण्यप्रत्ययात् । न वेदवं नदा नलाधविशपिता ये नीलादिभेदास्तनदाश्रयरूपसमदायनानगचित्रातीतेभित्रत्वं नालादिभेदसमुदायेन नालाधनगतप्रतीतिसम्भवान्नीलत्वादिकमपि च दिलायत ।
नानाचित्ररूप-तत्त्रागमनादिकलानायां गाग्वत्कल्पान्तरमाविभावयन्ति - एकमेव वा जपं = चित्ररूपं समवायन घंटे अस्तु । न चैवं किञ्चिदवच्छंदा विलक्षण-चिलक्षणचित्ररूपनमवचाध इति शकनीयम्, जानेः अव्याप्यवृत्तित्वोपगमेन = सार्या छत्रवृत्तिताकत्वस्वीकारेण अवच्छंदकभेदेनकंजय चित्ररूपे तत्समावेशसम्भवात् । न च जाताष्यनित्यनियम एवं भज्येतत्यारेकणीयम्, अन्यायवृनिगुणविशेषाणामिब मातिविशेषाणामप्यन्याप्यवृत्तिच विरोधाभारत, परस्परयभिचारिजाता: सामानाधिकरपयस्य बाधकबिरहसनप्रमागसिद्भस्पानभ्युपगममात्रण निराकरणाऽसम्भवात, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । अत एवं तु किभिदवच्छेदेन नीलत्व-पीतत्वादिक विलक्षणचित्रत्वादिकं च व्यवहिपते । नीलकपालाबनछेदेन चित्ररूपे नीलत्यस्य पीतकागलावच्छेदेन पीतत्वस्य रक्तकपालानच्छेदन रक्तत्वस्य. नीलपीनकपालाबच्छेदन विलक्षणचित्रत्वस्य रक्तपीनकपालायच्छेदन चित्रत्वविशेषस्य रक्तनलिकपालापछेदन चित्रगन्तरस्य स्वरसबाह्यनमवचलेन व्यवहारात समवायनकमंच चित्ररूपं घटानाविति येऽनुमन्यन्ते तदभिप्रायेण = तन्नतानुरोधेन इदं = 'चित्रममित्यादिश्यांकनानंकान्तवादसमर्थनं विज्ञानम् । कुत एवं ! इति मुग्धाशङ्कायामाह - स्वयं हि ये एकत्र घटे व्याष्यवृत्ति = निरवच्छिन्ननिदाकं एकं चित्रं, अव्याप्यवृनि = सावछिन्ननिताकं चित्रान्तरं चाभ्युपगच्छन्ति तेषां नयनयापिकानां, अनेकान्तवादानादरो न ज्यायान् = ध्यान, अनकान्तवादस्य स्वमनोपजीच्यत्वात, उपजीयकरयोपाजाव्येन साकं विराधा सम्भवात, हीनस्लत्वात. तद्न्मूलन हि स्वमतान्मूलनापने: इनि सर्व मूलगन्धाकप्रतिपादितं अवदानं = सुसङ्गतम् । योपि किल स्त्र स्वममवायिसमवेतल्यसम्बन्धेनाऽवयवरूपमेव प्रतीयत इति मन्यते सो:पि नानेकान्त प्रतिक्षिपेत्, अन्यत्रालयमायगतरूपस्खचकत्वारिगामाख्यसम्बन्धना:पविगततया
नानावनकान्तमतप्रवेशात । न चान्यबाययवगतेभ्याउनेकरूपेभ्य एकस्यावयविगतस्य विलमणस्यैव रूपस्यानुभवादयमदीन इति वनव्यम्, अत्रन तत्रापि घटवरिताबछेदनकत्वस्य तदवयववृत्तित्वावच्छेदन च नानात्वस्याविरुद्धत्वादिन्यादिकं स्याद्वा. दकल्पलतादितो वनयम ।
= निरवच्छिन्नवृत्तिताक होता है । मगर जाति को यदि अन्यायवृत्ति मानी जाय तो इन सभी जातिओं से यानी नीलव पीतल, रक्तत्व आदि अन्याप्यनि जाति से युक्त एक चित्र रूप की उत्पनि मानी जा सकती है, क्योंकि एक ही रूप में अवच्छे देकमेट से उन सभी जातिओं का समावेश हो सकता है। जैसे नीलपीतकपालारच्छेदेन विलक्षण चित्रत्व का व्यवहार एवं नीलकपालावच्छेदेन नीलत्व का, पीतकपालावच्छेदेन पीतत्व का व्यवहार होता है' - इन नव्य नैयायिकों के प्रति मलकार श्रीमद की उपर्युक्त उक्ति न्यायसंगत है, क्योंकि जो स्वयं एक ही घट में व्याप्यवृति एक चित्र रुप पवं अच्याप्यवृनि अनेक विलक्षण चित्ररूपों को मान्य करते हैं, उनके लिए अनेकान्तवाद का अनादर नामुनासिब ही है । एकानेक रूपों का एक ही धमी में समावेश करना ही तो अनेकान्नबाद की स्वीकृति का प्रतिविम्ब है। अतः वे कर अपन उपजीव्य अनेकान्तवाद
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६:५
ननु तथापि भिन्नोपाधिकं विरुद्धधर्मदयमेकत्र समाविशतु तथापि येनाकारेण भेदः तेन भेद एव, येन चाऽभेदस्तेनाऽभेद एवेत्येकान्तो ऽनेकान्तवादिनामपि दुवर इति चेत् ? न भेदाभेदयोरन्योन्यव्याप्तिभावेन 'तेन भेद एव' इत्यादेरर्थशून्यत्वात् एकाकारेणाभेदस्यैवाऽपराकारेण भेदरूपत्वात् । भेदावच्छेदकं यतन्नाभेदावच्छेदकमिति तु सम्मतमेवेति न दोषावहम्, अन्यथा तयोर्भिन्नोपाधिकत्वाऽसम्भवादित्यामे डितमेव ।
जयलता औ
तां नौमि शारदां नित्यं, काश्मीरपुरवासिनीम् । चित्ररूपविवेको व्याख्यातो यत्कृपयैव हि ॥१॥
ननु इति । चेदित्यनेनाऽस्यान्चयः । ' तथापि इत्यस्य स्थाने एवं' इति पाठ: समीचीनः । भिन्नोपाधिकं विरुद्धधर्मद्रयं एकानेकत्व - नित्यानित्यत्व वाच्यावाच्यत्वादिलचणपरस्परविरुद्ध युगलं एकत्र धर्मिणि समाविशतु । इदमपि अभ्युपगमवादेन मनुवादिनोच्यते । तथापि = एकत्र यथाकथञ्चित् विरुद्धधर्मद्वयसमविशसननेऽपि येन आकारेण धर्मग्य धर्मितां भेदस्तेन आकारण भेद एव, न त्वभेदोऽपि येन आकारण चाभेद: तेन आकारण अभेद पत्र, न तु भेदोऽपि इत्वप एकान्तः तु स्याद्वादिनामपि दुर्वार एव । ततश्चापसिद्धान्त प्रतिज्ञाहान्यादयो दोषाः दरितिकान्तानुपगमे च सङ्करभ्यतिकरादिदोषा इत्युभयमुखीराक्षरी प्रादुर्भवतीति नन्वाशयः ।
प्रकरणकारस्तमाशकरोति नेति । भेदाभेदयोरन्योन्यव्याप्तिभावेन स्वीकारात । न हि आफले रक्तल - इयामत्वयोरिव भेदाभेदावेकत्र धर्मिणि पार्श्वयेनावस्थिती किन्तु परस्परमनुविद्धत्वेनैव गुलिकार्या गुडनागख्योरिव । ततश्व 'तेन भेद एव' इत्यादेः दुपदावनस्य अर्थशून्यत्वात् = निरर्थकत्वात् । अन्योन्यव्याप्तिमेव समर्थयति एकाकारेण जातस्य अभेदस्य एव अमराकारेण ज्ञातस्य भेदरूपत्वात् दण्डाकारेण सर्वस्व कुण्डलाकारंग कुण्डलिरूपत्ववतु श्रद्राऽवयवाकारेणाऽनेकस्वाञ्च्याकारकत्ववदिति चिमनीयम् ।
भेदावच्छेदकं
भेदनियामक भेदप्रतीतिनियामकं भेदव्यवहारनियामकं वा यत् रूपं तत् रूपमेव नाभेदावच्छेदकं = नाभेदनियामकं तत्प्रतीतिनियामकं तदुद्व्यवहारनियामक वा इति तु स्याद्वादिनामस्माकं सम्भतमेव अनेकान्नस्य सम्पगेकान्ताविनाभावित्वात्, अन्यथा प्रतीतिव्यवहारादीनां निरत् । इति हेता: छेद
मेदा
| भेदप्रवेशनं न दीपावहं = नापसिद्धान्तादिदूषणापादकम्। विपक्षबाधमाह. अन्यथा = अवच्छेदकभेदसून विकल भेदाभेदसमावेश, तयोः भेदाभेद: भिनोपाधिकत्वासम्भवादिति ।
=
तत्वम
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का तिरस्कार कर सकते हैं ? स्याद्वाद के उन्मूलन में अपने मन्तब्य का ही उन्मूलन हो जायेगा । इस तरह इन नव्य विद्वानों के प्रति मूलकारश्री की उपर्युक्त उक्ति नितान्त समीचीन है । इस तरह सब वक्तव्य संगत ही है यह फलित होता है।
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# मेदाभेद अन्योन्यव्याप्त है क
ननु इति । यहाँ यह वक्तव्य कि
एक ही धर्मी में भिन्न उपाधिवाले दो धर्म का उपाधिभेद की अपेक्षा समांत्रेश
भले ही हो जाय फिर भी धर्म और धर्म का जिस रूप से भेद होगा उस रूप से केवल भेद ही रहेगा और जिस रूप
से होगा रूप से केवल ही रहेगा। यह स्वीकार तो अनेकान्तवादी के लिए भी आवश्यक है। मगर ऐसा स्वीकार करने पर अनेकान्तवादी का एकान्तवाद में प्रवेश हो जायेगा, जिसकी बदौलत अपसिद्धान्त निग्रहस्थान की प्राप्ति स्वाज्ञादी के मत में आयेगी भी इसलिए निराकृत हो जाता है कि भेद और अभेद परस्वव्याप्त हैं । अतः 'जिस रूप से भेद होगा उस रूप से केवल भेद ही होगा' इत्यादि वक्तव्य निर्धक है। एकाकार से प्रतीत होता हुआ अभेद ही अपराकार से मेदस्वरूप है। दूसरा यह भी ज्ञातव्य है कि भेद और अभेद का अवच्छेदकभेन तो हमें मान्य ही है। भेद का जो अंक tate का छेद नहीं है और अभेद जो अवच्छेदक है वह भेद का नहीं है यह तो सम्यगेकान्तस्वरूप होने की वजह यथार्थ अनेकान्तवाद में स्वीकृत होने से हम स्वावादियों के पक्ष में दोपपादक नहीं बन सकता । यदि भेट और ria के Faitre में aa Hraा जाय तब तो 'भि उपाधिया दो धर्म का उपाधिभेद की अपेक्षा एक प में समावेश भले ही हो जाय.. ऐसा जो कहा गया है वह भी नामुमकिन हो जायगा, चूँकि भिन्नपाधिकत्व का अर्थ ही | भिन्नावच्छेदकल्प है । केवल शब्दान्तर है, अधांन्तर नहीं । अतः एक के अस्वीकार में दूसरा भी अस्वीकृत ही हो जायगा ।
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६१: मध्यमम्बादाटरहस्य मार: . का."
*गशमनिगमः अवच्छेदकभेदं विनैव भेदाभेदः स्यान्दादिनामभिमतो नान्यथा, परमतप्रवेशात् । तदुक्तं pittotreti) मरगतता 'न चैवं भेदाभेदः अवच्छेकभेदेन तत्सत्वाभ्युपगमादिति, वर अज्ञानविलसितम उपाधिभेदोपहित विरुदं जार्थेष्वसत्वं सदवाच्यते च' इत्यादिता
गयलाता त्यत्त्विति । तदज्ञानविटमिनमित्वननास्या उन्चयः । अवच्छेदकभेदं विनैव एकत्र भेदाभेदः = भंदामंदसमावेश: स्याद्वादिनामभिमतः, न अन्यथा = अवदकमेंटेन, परमतप्रवेशात = एकान्तवादिदगंगणवेशागतात । किमत्र बीजं ? इत्याराहकायामाह - नदक्तमिति । अनमानरखण्ड मणिकता = नन चिन्तामणिकारेन, 'न च एवं भेदाभेटः = दादबानिम्तन, अवच्छेदकमेंटेन नन्सत्त्वाभ्युपगमादिति । श्यामापत्रस्यपदस्य मदनच समापरिंटचे, तदन्योन्यागाचच श्यामाचन्छन्दा इत्यवमयदक भेटगुरस्कांग्ण तदभ्युपगमान्न भेदाभेदमनप्रबंश इत्यानपायकं गङ्गशवचनं तदयापपयन यांद ग्यादादिमन व दकट निरस्कृन्यैकत्र भेदाभेदस्वीकार : स्यान, अन्यथा गणिकारस्थापि स्याहादिमनप्रदाः न्यादिति तन्निगकरणा. मिठायनयुक्तमझेशवचना-व्यथानुपपन्या म्याद्वाद यच्छंदकभेदमपहायकत्र भदानंदसमावशः सम्मन इति यत्तुमाकूतम् ।
तदज्ञानविलसित्तम् । उपाधिभेदोपहितं विरुद्धं नाधेप्वमत्त्वं सदवाव्यते चत्यादिनेति । अत्रीत्तरार्द्धश्चैवं - ‘इत्य प्रबुध्यैर । विरोधी पस्तदेगी, ता. । योग्य.२४) ग्रन्यकृता कलिकालसर्वज्ञविरुदवना श्रीडमचन्द्रसूरीश्वरेण, अपि उपाधिभेदेनैव, न तपाधिमं विहायकत्र सत्त्चासत्त्वसमावेशाभिधानात अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकायामिति गम्यते । ननूपाधिभेटनर सन्गसच्चादीनामका समावशा प्रति गदितः न त्ववच्छेदकभंदनदि मुग्धा शड़कायामाह, - अत्र - पतत्कारिकायां हि 'उपाधयांवच्छेदका अंशप्रकागः' (भा.म.गा. २४ ए.) इति व्याख्यातं स्याद्वादमन्ना श्रीमल्लिपेणमुरिवरेण ति गम्यते । अत्र मोपयोगित्यात् तद या पायाख्या प्रदर्शन --> ५ = दार्थप चंतनाचनना अमञ्च = नास्तित्वं न विरुद्धं = न विरोधावरुदम् = अस्तित्वेन सह विरोध नानभवतात्यर्थ: । नकवलमनत्वं न विरुद्ध किन्न मदनाच्याने च । मन्त्रावाच॑ च सदवाय, नया नावी मटनच्यते अस्तित्वावक्तव्यले इत्यर्थः । तपि न चिमड़े । तथाहि - अस्तित्त्वं नास्तित्वेन सह न विरुध्यते । अबक्तव्यत्वमपि विधिनिषेधरूपमन्यान्यं न विमध्यनं । अथवा अबक्तव्यत्वं उतन्यत्वेन सार्क न निराधमवति । अनेन च नास्तित्त्वास्तित्वावक्तव्यत्वळ क्षणभङ्गत्रवेग सकलसप्तमग्या निर्विरोधता उपलक्षिता । अमीयामंच स्याणां मुख्यत्वान्लेषभङ्गानां च मयांगजवनामाण्यवान्तर्भावादिनि ।
नन्तं धाः पम्प बिन्द्रा नल्कचमकत्र यस्टन्दंषां समावेगः सम्भवनाति विशेपणवण हनमाह. . उपाधिमंदी. पहिमिति । उपाधयोऽवच्छेदका अंशप्रकारास्नेग मंदा नानात्वं नेनापहितमर्पितम् । असन्यस्य विशेषगमेतत् : उपाधि दोपहित
उपाणिभेद को सत्ता सत्त, का समावेश गनु। यहाँ एकान्तबादी की ओर मे यदि ऐसा कहा जाय कि --> "स्वात्राटी को अच्छेदकमेट के बिना ही एक धमी में भेदाभेद का समावेश अभिमत है, न कि अवच्छेदकमंड से । यदि अबदकभेद से ही स्याद्वादी एकत्र भेदाभेद का समावेश करे नब तो एकान्तबाद में उसका प्रवेश हो जायगा । इसन्दिप ता तच्चचिन्तामणिग्रन्थकार गंगेशजी ने अनुमानरचण्ड में कहा है कि 'श्याम का रक्त घर में भेद और अभंर मानने पर भी भेदाभेट, जो भंदाभेदबादी ग्यादादी को अभिमन है, प्रसक्त नहीं है, क्योंकि अवच्छेदकभेद से ही एक धर्मी में भेद और अभेद का समावेश हम अभिमत है । यदि अवच्छेदकभेद में ही स्याद्वादी को भेद और अभेद का एक धर्मी में समावेश अभिमत होता नर गंगेशजी ने सा नहीं कहा होता । अतः गंगेवा उपाध्याय के वचन की अन्यथा अनुपपत्ति से यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि स्याद्वार में अवच्छंढकभेद के बिना ही एकत्र भेदाभेद का ममावेश अभिमत है" <- नो यह एकान्तबादी के अज्ञान का ही विलास है, क्योंकि स्वयं ग्रंथकार श्रीकलिकालसर्वज्ञ भगवंत ने ही अन्ययोगच्यचच्छेदद्वात्रिंशिका में कहा है चि. 'पदार्थों में उपाधिभेन में उपहित - अर्पित मन्त्र, असच और अवाच्यता परस्पर विरुद्ध नहीं है' । खुद मूलकार ने भी एकत्र उपाधिभेद से ही सत्त्व और असत्त्व आदि धर्मों के ममावेश का प्रतिपादन किया है तव -> 'स्याबाद में बिना अपरेटकभेद के ही भंदामेंट का एकत्र समावेश मान्य है' <- ऐसा उद्भावन करना अपनी भूखता का ही केवल प्रदर्शन है । यहाँ यह शंका भी कि -> 'ग्रन्धकारश्री ने तो उपाधिभेद से सत्त्व, असच आदि का एक धर्मी में समाचश मान्य किया है, न कि अवच्छटकभंद में - इसलिए निरस्त हो जाती है कि अन्ययोगन्यवच्छेदवात्रिंशिका की स्याद्वादमंजरी नामक व्याख्या में श्रीमडिपणजी उपर्युस कारिका की
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* स्वावाद संवाद
सम्यकृताऽप्युपाधिभेदेव राचसा चादिसमावेशाभिधानात् । अत्र हि 'उपाधयोऽवच्छेदका अंशप्रकारा' (स्या. मं. का. २४. पु. ३५१ ) इति व्याख्यातम् । न चैवं ऋजुमतं कथमनुमतमिति वाच्यम्, परमतमनभ्युपगम्य समाधानमात्रेणैव ऋजुत्वमित्यभिप्रायात् ।
कार्यद्वारा उभयरूपवस्त्वप्रतीतेस्तदसिद्धिः, एकस्य करणाकरणविरोधादित्यपि गम्, * यता
सदर्थेष्वसत्त्वं न विरुद्धम् । वाच्यतयोश्च वचनभेदं कृत्वा योजनीयम् । उपाधिपहिले त साच्य अपि न रुि । अवमत्राभिप्रायः परस्परपरिहारेण से वर्तते तयो: शीतोष्णव सहानवस्थानलक्षणां विरोध: न वार्यत्रम्, सत्तासञ्चयोरितरेतरमविष्वरभावन वर्तनात् । न हि घटादीन् परित्य वर्तन पररुपेणापि सन्त नथा व तद्व्यतिरिक्तार्थान्तराणां नैरर्थक्यम तेनैव त्रिभुवनार्थसाध्यार्थक्रियाणां सिद्धेः न चासवं सत्वं परित्य वर्तते, स्वरूपेणाऽप्यसत्ताप्राप्तः । तथा व निरुपाख्यत्वात्सर्वन्नति । नदा हि विरोधः स्वात् पयेोपाधिकं सत्तमन्वयात् । न चैवम् यतो न हि नैवांशेन सत्वं तेनैवाऽसच्वनपि किन्त्वन्योपाधिकं सत्त्वम्, अन्योपथिक पुनरसत्वम् स्वरूप हि सत्त्वं पररूपेण चासत्त्वम् । दृष्टं कस्मिन्नेव चित्रपटावयविनि अन्योपाधिकं तु गीलत्वं अन्योपाधिकातर वर्णाः । नीलवं | हि नीलरागाद्युपाधिकं चान्तिराणि च तनद्रञ्जनद्रव्योगाधिकानि । एवं करले तत्तदवगोपाधिकं वैचिव्यवसेयम् । 'न चैभि: द्रष्टान्तेः सत्त्वासत्त्वयोर्मिनदेशत्वप्रामि चित्रपटाद्यवयविन एकत्वात् नवाऽपि भिन्नदेशत्वासिद्धेः । कथञ्चित्यक्षस्तु दृष्टान्तं दार्शन्ति न स्याद्धादिनां न दुर्लभः । एवमयपरिषदासनः तर्हि एकस्यैव पुंसस्तदुपाधिभेदात् पितृत्व-पुत्रव मातुलत्व भागिनेयत्व पितृव्यत्य भ्रातृव्यत्वादिधर्माणां परस्परविरुद्धानामपि प्रसिद्धदर्शनात कायम एवमवकल्पन्वादयोऽपि बान्या इति (स्या. मं. २४.३.१) इति ।
न चेति । वाच्यमित्यनेनान्यवः । एवं = अवक मेटेने विरुद्ध धर्मगलरवीकारे जवस्तु सार्वजनीन प्रतीतिस्वारस्यादेव भेदाभेदयोदकभेदे विनापि न विरोधः (त प्रथमः खण्डः पू. १६४) इति पूर्वक ऋजुमतं कथं अनुमतं १ इति वाच्यम् परमतं = एकान्नवादं अनभ्युपगम्य, समाधानमात्रेणैव न तु स्वसिद्धान्ताविष्करणेनापि तेषां ऋजुत्वमित्यभिप्रायात् ।
कार्यद्वारा उभयरूपवरत्वप्रतीतेः करणकरणां भवस्वरूपवस्त्वननुभवात् तदसिद्धिः भेदाभेदो भयात्मकवस्त्वसिद्धिः एकस्य एवं वस्तुन एकदा करणाकरणविरोधादिति कस्यचिद दृपणभावनं अपि मन्दम् । ननु कारणं पर्यायतया कार्य करोति न तु द्रव्यत्वेन इति करणाकरणविपरिहारः सुकर एवेति चेन ? न अत्रापि रुप्याचतागत्
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व्याख्या करते हुए कहा है कि > उपाधियाँ यानी अवच्छेदक अथवा अंदा प्रकार <- । यहाँ यह शङ्का नहीं करनी चाहिए कि यदि स्याद्वाद में अच्छे से ही एकत्र भेट, अव भादि का समावेश संमत है तब पूर्व में (देखि प्रथम खण्ड पृष्ठ- १०४) प्रदर्शित जुमत कैसे स्याद्वादी को अभिमत होगा ? क्योंकि वहाँ तो बिना अवच्छेदकभेद के सार्वजनीन प्रतीति के स्वरस के बल पर ही भेद और अमेज का समावेश प्रतिपादित है" - यह शंका इसलिए असंगत है कि वहाँ जो कहा गया था वह स्वाद के सिद्धान्त का प्रदर्शन नहीं है, केवल एकान्तवाद का स्वीकार किये बिना समाधान मात्र को बताने का प्रयास है कि प्रतीति के बाद से ही भेदाभेद एकत्र समाविष्ट हो सकते हैं । इसलिए तो उस मत के प्रदर्शकों का 'ऋजु ऐसा कह कर उल्लेख किया गया था ।
इति । यहाँ कुछ विद्वानों का स्यावाद के खिलाफ यह तय है कि
=
कार्य के द्वारा वस्तु के करण
चकरण उभयस्वभाव की प्रतीति नहीं होती है, केवल करणस्वभाव की ही प्रतीत होती है। बिना अनुभव के करण- अकरण स्वभाव की सिद्धि कैसे हो सकती है क्योंकि एक ही नर्मी में कारण और करण का एक काल में समावेश करने में विरोध भी जागृत है । अतः करणाकरण- उभयस्व की एक में सिद्ध करने का मनोरथ केवल मनोरथ ही रहेगा <- मगर यह कथन आगे बताये जानेवाली युक्ति से निग्रत हो जाने से भन्द तत्यहीन है । अन्य विद्वानों की इसके समाधान में यह उक्ति है कि कारण पर्यायात्मनः कार्य को उत्पन्न करता है और उत्यात्मना कार्य को उत्पन्न करना
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का..
एकत्र करणाऽकरणांनयमावेदाः
पर्यायतया करोति न तु द्रव्यत्वेनेत्यत्रापि व्देरुप्यावतारात् । 'पर्यायत्वेन दर्तृत्वमेव, द्रव्यत्वेनाऽकर्तृत्वमिति असारम् स्वभावसाङ्कर्याऽऽपातात् विनिगमनाविरहाच्च । किस स्वकार्यकर्तृत्व-परकार्याऽकर्तृत्वाभ्यामप्येकस्य करणाकरणदेरूप्यम् ।
करोति न करोति वा जगति कारणं कार्यमप्यकारणहितार्थिनो भगवतः श्रुते युज्यते । करोति यदि सर्वथा जनु कपालमालाऽपि तत्पदं जनयितुं प्रभुर्भवतु तन्तुसौभाग्यभूः ॥भा * मयलता जै
६१२ मध्यमस्याद्भाण्ड
वक्ष्यमाणविकल्पतितात् । अत एव कारणस्य पर्यायत्वेन कर्तृत्वमेव द्रव्यत्वेन पुनः अकर्तृत्वमिति न करणाकरणयोरेकन विरोध: अवच्छेदकारेदेकत्री भयकुसमावेशसम्भवादिति अपि समाधानं असारम्, स्वभावसाङ्कर्यापातात् = एकदैव कार्यद्वारा उभयस्वरूपवस्तुप्रतीती कार्यजननाजननी भयस्वभावसायप्रसङ्गादित्यर्थः । एतेन कार्यद्वारीभरूपवस्त्वप्रतीनेस्तदसिद्धिरिनि प्रत्युक्तम्, विनिगमनाविरहात् = द्रव्यत्वेन करोति पर्याचा तु न इत्यविनिगमान 'अयं कारणं" इति वचनात् । एतेन पर्यायतया करोति न तु इव्यत्वनेति करणाकरणविरोधपरिहार इत्यपि प्रत्याख्यातम् । यद्वा द्रव्यार्थिकयमतेन द्रव्यत्वेन कर्तृत्वमेव पर्यायतया कर्तृत्वमित्यविनिगमादित्यर्थः । अनेन पर्यायत्वेन कर्तृत्वनेत्र द्रव्यत्वना कर्तृत्वमित्यपि निरस्तम् । तर्हि स्याद्वादे कथं करणाकरणायमंकन सिध्येत् ? इत्याशङ्कायामाह किभेति स्वकार्यकर्तृत्व परकार्याकर्तृत्वाभ्यां = स्वनिष्ठकारगतानिरूपित कार्यतावच्छेदकावच्छिन्नजनका स्वेतरनिष्टकारणतानिपितकार्यतावच्छेदकावन्निजनकत्वाभावाभ्या अपि एकस्य वस्तुन: करणा करणरूप्यं सिध्यति ।
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यचीक्तं यतयः करोति स तु द्रव्यत्वेन' नत्र विकल्प रूप्यमेवमवतरति किं पर्यायतया सर्वथा करोति न या द्रव्यत्वेनाऽपि सर्वधाऽकरणं न वा इतिवता सर्वथा करणे कपालमा मृदुद्रव्यस्य घटवत् पदादिकरणप्रसङ्गात् पर्यागतया सर्वशःकरणं पदादिवत घटाकरणसद्गात् । द्रव्यत्वेन सर्वथा करणस्वभाव द्रव्यस्य गुणाकरणप्रसङ्गात् न सर्वभाकरणस्वभावानभ्युपगंगे नजद्वपस्य प्रकृतार्थगमकत्वात्परनये द्रव्यलेन सर्वथा|करणस्वभावापत्ती से एक प्रसङ्गः । इत्थञ्चकान्तवादाद् व्यावर्तमानः करणाकरणाय स्वभावी नेकान्तवाद एवं विश्राम्यतीत्याशयेन पद्मद्वयमारचयति करोतीति । संक्षयस्त्वेवर जगति कारणं कार्य करोति न वा ? इति मीमांसाऽनि अकारणहितार्थिनः
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नहीं है । अतः एक धर्मी (= कारण) में करणाकरण उभयस्वरूप की सिद्धि हो सकती है' - मगर यह उक्ति भी आगे दिखाये जानेवाले दो विकल्पों से ग्रस्त होने से अनादरणीय है। अन्य किसीका यह कथन भी कि कारण में रथयात्मना कर्तृत्व ही है और इन्यात्मना अकर्तृ । मतलब कि कपाल, तन्तु आदि पर्यायों की अपेक्षा कारण में कर्तृत्व = कार्यजनकत्व ही है। सिर्फ द्रव्य होने के नाते उसमें कर्तृत्व नहीं रह सकता, अन्यथा सब द्रव्यों में ऋयत्व समान होने की वजह सर्वकार्यकर्तृत्व की आपनि आयेगी । अतः पर्याय की अपेक्षा कर्तृत्व और यत्व की अपेक्षा कर्तृत्व एक धर्मी में सिद्ध होने से करण अकरण उभयस्वभाव की सिद्धि हो सकती है' - असार है। इसका कारण यह है कि इस पक्ष में विनिगमनाविरह दीप प्रसक्त होता है। मतलब कि 'कारण में प्रत्यात्मना ही कर्तुत्व है, पर्यायात्मना अकर्तृत्य ही है' ऐसा भी माना जा सकता है। अतः पर्यायत्वेन कर्तृत्व ही है और अन्यत्वेन अकर्तुत्व' यह एकान्त स्वीकार्य नहीं हो सकता । इस तरह 'कारण पर्यायविधया कार्य को उत्पन्न करता है, न कि उत्यविधया- यहाँ भी यह कहा जा सकता है कि कारण द्रव्यविधया कार्य को उत्पन्न करता है, न कि पर्यार्याविधया । अतः उपर्युक्त द्वितीय मत भी अनादरणीय ही है तथा जो पूर्व में कहा गया था कि 'एकदा कार्य के द्वारा करणाकरण उभयस्वभाव की प्रतीति नहीं होती है - वह भी असंगत ही है, क्योंकि वैसा होने पर जननाजनन स्वभाव में मांकर्य का प्रसंग होता है। यहाँ यह शंका हो कि तब तो कारण में करण अकरणोभयस्वभाव की सिद्धि ही न हो सकेगी तो यह इसलिए निराधार हो जाती है कि कारणमात्र में स्वकार्य का कर्तृत्व और परकीय कार्य का कर्तृत्व होता है । कपाल में घटकर्तृत्व ही होता है, न कि पदादिकर्तुत्व । अतः स्वकार्यकर्तृत्व और परकार्याकर्तृत्व इन दो धर्मो की अपेक्षा भी एक ही कारणात्मक धर्मी में करणाकरणरूप्य की सिद्धि हो सकती है ।
बाद में करमाकरणस्वभाव की अनुपपत्ति
करोति । कारण इस जगत में कार्य को उत्पन्न करता है या नहीं ? यह विचारविमर्श भी अकारण परहितरसिक
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** धर्मधर्मभावविचारः * न कुरुते करणं यदि सर्वथा, स्मरणमेव तदस्य न युज्यते । अजनयत्परकामिह स्वयं न जनयेदपि किसन तद्यत: ॥२॥
अनास्वादितस्वभावभेदयोः कथं धर्मधर्मिभाव इति चेत् ? न, धर्मधर्मिणोमिधोभेदात, प्रतिनियतधायतित्वेनैव केवलमभेदात् ।
-* गयलता म = तीर्थकरनामादयात् तधास्वाभाव्याञ्च निरुपधिपरकल्याणपरस्य भगवन एव श्रुतं = प्रवचन युज्यते, न तु मायाचितीर्थे, पतः यदि कारणं सर्वथा कार्य करोनि इत्येवं कक्षीक्रियते, ननु कपालमालाऽपि तत् = तस्मात् प्रकृताभ्युपगमबलादिति यावत्, घमिच पटं जनयितुं प्रभुः = अलं भवतु तन्तुसौभाग्यभूः = तन्तुनिष्ठपटजननस्वभावलक्षणसौभाग्यभूमिः कागलमालेति घण्टालोलान्यायेनाऽत्राप्यन्यते ॥१|| यदि करणं = कारणं सर्वथा = सर्वप्रकारैः कार्यं न कुरुते इत्येवमङगीक्रियते, तत् = ततः अस्य = कारणत्वेनाभिमतन्य स्मरणमंच = स्मृतिरपि न युज्यते, यतः = यस्मात्कारणात् तत् = करणे इह = जगति परकार्यमजनयत् तद्रदेव स्वयं न किश्चनापि कार्यं जनयेत् ॥२॥ तस्मात् करणाकरणद्वैरूप्यमपि स्याद्वादाभिधानं कथञ्चित्पक्षमेव समाश्रयति । एतेन कारणस्य कर्तृत्वस्वभाव एव, न तु स्वकार्यकर्तृत्वस्वभावो गौरवादिया पराकृतमिति दिक् ।
ननु अनास्वादितस्वभावभेदयोः = अभिनस्वभावयोः तयोः कथं धर्मर्मिभावः सम्भवेत् । न हि स्वमेव स्वम्य धर्मो भवितुमर्हतीति चेत् ? न, धर्म-धर्मिणोः मिथो भेदात् = परस्परं भेदाभ्युपगमात् तयोर्धर्मधर्मिभावोऽनपाय एव । 'कयं तर्हि तयोरभेदोक्तिः सङ्गच्छेत ?' इत्याशङ्कायामह · प्रनिनियनधाश्रितत्त्वनैव केवलमभेदात्, न तु सर्वधा । यदि धर्मधर्मिगो: सर्वधा भेद एवं स्यात, तर्हि पृशियादेरिवाकाशदेरपि गन्धो धर्म: स्यात. मित्रत्याविशेषात् । न चैवमस्ति, पृधिव्यादिप्रतिनियतधर्मिण्येव गन्धादेगश्रितचोपलम्भान् । अतः प्रतिनियतधर्मिसमाश्रितत्वापक्षयव तया: केवलमभेद त्यभ्युपगम्यते । न वैतावतैव प्रत्यक्षादिप्रमाणसिद्धः तयामेंदः पलायितो भवति किन्वरच्छदक मंदन तत्रैव प्रगयितमहतीनि न नयाधमधर्मिभावानुपपत्तिरित्यभिप्रायः ।
जिनेश्वर भगवंत के शासन = अनेकान्तबाद में ही संगत होता है, न कि एकान्तबादी परतीर्थिक के दर्शन में । इसका कारण | यह है कि यदि एकान्तवाद के अनुरोध से विचार किया जाप तर दो विकल्प उपस्थित होते हैं कि - 'करण क्या कार्य को सर्वया उत्पन्न करता है ? पा सर्वथा उत्पन्न करता नहीं है ?' इन दो विकल्पों में से प्रथम विकल्प को मान्य करने पर कमालाचली घट की भाँति पट को भी उत्पन्न करेगी और नन्तु का पटजननस्वभावात्मक जो स्वभाव है उसका आश्रय भी वही बन जायेगी, क्योंकि उनका सर्व प्रकार से कार्यजननस्वभार है। इस पक्ष का यहाँ आश्रय किया गया है । पदि इस आपनि को हटाने के लिए दूसरे विकल्प का स्वीकार किया जाय तर तो कारणत्वेन अभिमत कपालादि का स्मरण करना भी असंगत हो जायेगा, क्योंकि कपालावली का सर्वथा अजननस्वभाव मानने पर ना जैसे उससे पट की उत्पनि नहीं होती है ठीक वैसे ही घर की भी उत्पनि नहीं होगी । कुछ भी कार्य न करने पर तो उसको कौन पाद भी करेगा ? निकम्मे नर के नामस्मरण को तो दूर से ही सलाम ! इस तरह विचारविमर्श करने पर एकान्तवाद में अनुपपन्न करणाकरणस्वभाव स्वरूप कन्या अंत में जा कर अनेकान्तवाद के पक्ष में बैठ कर बाद में अनेकान्तबादी के गले में ही विजयमारा हालेगी। मतलब कि कारणमात्र करणाकरण उभपस्वभाव से युक्त है . यह सिद्ध होता है।
धर्मि भाववित्तार अना । यहाँ यह शंका करना कि -> धर्म और धर्मी में केवल अभेद मानने पर तो उनके बीच धर्म धर्मिभाव ॥ ही न बन सकेगा, क्योंकि धर्मधर्मिभाव स्वभावभेदनियन = स्वभावभेट का न्याय है' ठीक नहीं है. क्योंकि धर्म और धर्मी में परस्पर भेद है ही, जिसका अपलाप हम करते नहीं हैं। फिर भी धर्म और धर्मी में अभेद मानने का कारण यह है कि प्रतिनियत धर्मी में धर्म आश्रित है । मतलब यह है कि गन्ध पृथ्वी से भिन्न हो, तब तो पृथ्वी की भाँति जल, तेज आदि में भी उसकी उपलब्धि होनी चाहिए, म्योंकि गन्ध और जलादि के बीच भिन्नत्व है ही। मगर गन्ध की उपलब्धि पृथ्वी में ही होती है, न कि जलादि में । इस दृष्टि से गन्ध और पृथ्वी में केवल अभेद माना गया है।
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६५५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्टः ३ . का.. * नागार्जुनमतनिराकरणम् *
'धर्मर्मिभावः काल्पनिक एव न त वास्तव' इति चेत १ न, कल्पनाया अपि विकल्पवासात, असत्रूयातिनिरासाच्च । न हीन्द्रियवृत्त्यादिकं विनाऽसतो ज्ञानं सम्भवति। न व वासनयवाऽसतो भानं, ताशवासनायां मानाभावात, भावे वा तस्या: शाश्वतिकत्वे
-* जयलता *H माध्यमिकः शकते . धर्मधर्मिभाव: काल्पनिकः = सांवृतिक एव न तु वास्तवः, वाह्यार्थस्यवाभावान्, तदुत्पत्त्याद्यसङ्गतः। तदुक्तं नागार्जुनेन माध्यमिककारिकायां 'न स्वती नापि परनो न दाभ्यां नायहेतुतः । उत्पन्ना जानु विद्यन्ते, भाषा: कंचन कंचन ।। (मा.का.प्रत्ययपरीक्षा. .१) इति । तदा बाह्यमाध्यात्मिकं वा रूपं न तत्त्वं किन्तु सांवृतमेव । संवृतिश्च त्रिधा १ आलोकसंवृतिः दाश्त्यादी रजतान्तिरूपा, २ तत्त्वसंवृतिः सत्पनीलादिप्रतीतिस्वरूपा, ३ अभिसम्यसंवृतिः योगिननिपनिलक्षणा, नस्या अपि ग्राह्य-ग्राहलाकारतया प्रवृत्तरिति चेत् ? न, कल्पनायाः = संवृते: अपि विकल्पग्रासात् = विमलविकल्प युगलकवलितत्वात् । तथाहि कल्पना किं पारमार्थिकी तुच्छा बा ? तस्याः परमार्थिकत्वे किमपराद्धमपरेण ? तत्तुन्छत्वे कथं धर्मर्मिभावस्य काल्पनिकल्लसिद्धिः ? न ह्यसता केनचित किञ्चित्साध्यते । हत्वन्तरमाइ - अमख्यातिनिरासाच्च । तथाहि . न हि इन्द्रियवृत्त्यादिक = इन्द्रियसन्निकर्षादिकं विना असतः = ज्ञाननिरूपितप्रकारतावच्छेदकरूपेण अविद्यमानस्यार्थम्य ज्ञानं प्रत्यक्षादिकं सम्भवति, तथाऽननुभवात् । न हि निमिलितनयनस्य पुंसः रजतत्वादिरूपेगासन: शुक्त्यादेः चाक्षुषं दृष्टचरं कदापि केनाऽपि क्वचित् । न च नेत्रोन्मिलनेऽपि वासनयेच असतो भानं भवति न विन्द्रियसनिकषां दिनति वाच्यम्, अनन्यधासिद्धान्वयव्यतिरेकातियोगिनि कारणत्वप्रतिक्षेपस्यान्याय्यत्वात् । न च स्वप्नावस्यायो वासनाविशेषसामध्यवशादसत्कार। तरगाद्याकारप्रनिनिनियमवत जाग्रदशायामपि तत एव प्रतिनियतप्रतीत्यपानिरति वाच्यम, जाग्रहशायामनभूतस्यैव करितुर. गांदस्नदा सत्रिहितत्वेन दोघमहिम्न भानान्, तादृशवासनायां च मानाभावात्, भावे = वास्नामाधकप्रमाणसत्त्वे वा तस्याः = वासनाया: शाश्वतिकत्वे = प्रवाहापेक्षया सार्वदिकत्व, सर्वदा अखण्डश शशृङ्गायलीकभानापत्तेः । न च सद्भानसामग्र्याः - इंटेन्द्रियसत्रिकर्षादिकारणकलापस्य असद्भाने = शशशुड़गाद्यसविषयकज्ञानत्वावचिन्न प्रनि प्रतिबन्धकत्वं इनि तत्सत्त्वदशायां न तदानापत्तिरिति वाच्यम. ताशप्रतिबध्य-प्रतिबन्धकमावल्पने गौरवात । एतेन यासना घटापटाद्याकारमबोपलम् आधातुमलमित्यपि प्रत्याख्यातम्, असत्त्वाऽविशेष शविषाणायाकाराणां प्रत्याख्यानुमशक्यत्वात् । न हार न पर्यनुयोग इति राज्ञामाज्ञाऽस्ति । 'प्रतिनियनशक्निविशेषश्च नत्रैव न तु शशविषाणादा' इत्यस्य शपथमा श्रद्धेयत्वात् । न च वासनाया: क्रमिकत्वेन सदा नाऽखण्डशशविषाणादिभानं इनि वाच्यम्, बासनाहतो: वास्तवत्वं जगनो :पि तद्वदेव पारमार्थिकवापन: अलीकस्यैव बासनाहतुत्वस्याऽभ्युपगन्तव्यनया खरविणणदरिव तस्याऽगे शाश्वतिकत्व बासनाया अपि शाश्वनिकत्वस्य न्यायप्राप्तत्वादित्याशयनाह - अलीकस्यैव स्वबामनाहेतोः = शशविषाणादिगोचर- ज्ञानजनकवासनाती:, शाश्वतिकत्वेन तस्याः = वासनायाः क्रमिकत्वाशका पुनरनुन्धानोपडतेवेति ।
धर्म. । इस दृष्टि से यहाँ बौद्ध की यह शहा कि -> 'गन्ध और पृथ्वी आदि के बीच धर्मधर्मिभाव काल्पनिक ही | है, न कि वास्तविक; क्योंकि वास्तविकता यह है कि जगत में कोई भी चीज वास्तविक = मन् = पारमार्थिक नहीं है। (-भी इसलिए निराधार हो जाती है कि . बौद्ध की यह कल्पना, जो कि 'धर्मधर्मिभाव वास्तविक नहीं है' इत्याकारक है, भी काल्पनिक है या वास्तविक ? ये दो विकल्प उपस्थित होते हैं। यदि वह कल्पना भी काल्पनिक है, तर तो जगत में काल्पनिकता की सिद्धि या धर्मर्मिभाव में काल्पनिकता की सिद्धि हो सकती नहीं है, क्योंकि काल्पनिक चीज से किसीकी मिद्धि हो नहीं सकती । क्या काल्पनिक गाय कभी दुध दे सकती है ? यदि वह कल्पना वास्तविक यानी पारमार्थिक है - ऐसा मान जाय तब तो कल्पना की भाँनि सकल विष भी पारमार्थिक सिद्ध हो जायेगा । फलतः विश्वान्तर्गन धर्मधर्मिभाव भी पारमार्थिक सिद्ध होगा । दूसरी बात यह है कि हम अमख्याति यानी जगत में अविद्यमान पदार्थ की ख्याति = ज्ञान मानते नहीं हैं । इस विषय का विस्तार से निरसन स्याद्वादरलाकर, सम्मतितर्क, स्यादवकल्पलता आदि में किया गया है। अनएन यहाँ प्रकरणकार ने असल्यानि का निगम किया नहीं है। फिर भी संक्षेप में यह कहा जा मकना है कि इन्द्रिय की वृनि आदि के बिना असत् = मिथ्या पदार्थ की ख्याति = बुद्धि हो सकती नहीं है । कल्पना = वासना से भी केवल असन यानी सर्वथा मिथ्या पदार्थ का भान हो सकता नहीं है, क्योंकि नादृश वासना में ही कोई प्रमाण नहीं है 1 सर्वथा असत् का भान करानेवाली वासना में कोई प्रमाण हो तर भी वह वासना शातिक होगी तो सर्वदा और सर्वत्र अखंड शशश आदि मिथ्या पदार्थ के भान की आपत्ति आयेगी, क्योंकि सपियक ज्ञान की सामग्री असविषयक
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* शमशृङ्गभानमीमांसा * सर्वदाऽवण्डशशशृगाधलीकभानापत्तेः । न च सद्भानसामग्या असद्भाने प्रतिबन्धकत्वं, गौरवात । अलीकस्यैव स्ववासनाहेतोः शाश्वतिकत्वेन तस्याः कमिकत्वाशी पुनरनत्थाजोपहतैव । असदलीकं न वासनाहेतुरिति चेत् ? तदा सदा भावाऽभावान्यतसपत्तिः, 'नित्यं सत्वमसत्वं वाऽहेतोरन्यानवेक्षणात्' (प्र.वा.३/३४) इति वचनात् ।
कि सेयं वासना प्रमाणमप्रमाणं वा ? उभयथाऽप्यसतः सत्त्वापतिः । न हि प्रामाणिकमसत्, न वाऽसतः सत्त्वं विमा तदग्राहकस्याऽप्रमाणत्वम् । च प्रमाउजनकत्वमेवाऽप्रमाणत्वमिति न वासनाया श्रमजनकत्वेनाऽसत: सत्वापत्तिरिति वान्ट, प्रमाउजनकत्वे
- जयलवा - ननु असदलीकं इति न वासनाहेतः सम्भवति किन्तु संदब बासनाकारणन् । तस्य कदाचित्यत्वेन वासनाया; क्रमिकल्लमिति न सर्वदा शदाविषाणादिभानप्रसङ्ग इति चेत् । न तद्वदेव जगनापि सत्त्वप्रसङ्गाद धर्मधार्मभावस्प वास्तवत्वमनिराकार्य स्यात् । न चात एव वासनाया निर्हेतुकन्चमभ्युपगम्यत इति वाच्यम्, तदा - वासनाया अहेतुकत्वाभ्युपगमे, वासनाया: सदा भावाऽभावान्यतरापत्तिः, निरपेक्षत्वात् । यनिरपेक्षं नत सर्वदा सदसद न्पतरत भवति यथा गगनं खरविषाणं वा ।। अत्रच धर्मकीर्तिरचितप्रमाणवार्तिकवचनसम्बादमाह- “नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वाहतारन्यानपेक्षणात्' । इति । 'अपेक्षातो हि भावानां कादाचित्कत्वसम्भवः' इत्युनराधः । बासनाया; नित्यं सच्च तद्वदेव जगनोऽपि नित्यत्वप्रसङ्गात्, मदा अखण्डशशविषाणादिभानप्रसङ्गगाच्च । तस्या नित्यमसत्त्वं च स एव दोष आपद्यत इत्यलं विवादन ।
प्रकारान्तरेण बासनामपाकर्तमपक्रमने . किवेति । मा सुगनमुताभिमता इयं वासना प्रमाणं = प्रमाकरणं, अप्रमाणं - अप्रमाकरणं वा ? इति विमलविकल्पयामलननिवारितप्रसरम । उभयधा = उभयप्रकारण, अपि असतः सत्त्वापनि । तथाहि वासनायाः प्रमाणत्वे असत्या वासनायाः सकाशात सत्ता प्रमा उपयत इति प्रातम् । तथा च स्पष्टमेव सतः सत्यप्रसञ्जनम् । तंदेवाह - न हि प्रामाणिक = प्रमाणन सिद्धं असद भवनि । यदि च वासनाया अप्रमाणत्वं काक्रियने तदाःपि असत्या वासनया अप्रमाया जननना:सतः सदत्पत्तिः समायातब । न ह्यप्रमाया अभावात्मकत्वं, भावत्वनानभूयमानत्वात् । तदेवाह - न वाऽसतः सकाशात् सत्त्वं = रुत्वान्यादं विना, तद्ग्राहकस्य = असदाकारज्ञानजनकस अप्रमाणत्वं = अप्रमाकरणलं सम्भवति ।
न चेति वाच्यमित्यनेनान्वेति । प्रमाऽजनकत्वमेव = प्रमाकरणत्वमेव अप्रमाणत्वं. न तु अप्रमाकरणत्वं इति हेतोः न वासनाया भ्रमजनकत्वेन अग्रमाणत्वाच्या असतः सत्त्वापत्तिरिति वाच्यम्, प्रमाऽजनकत्वे सति झानजनकत्वेन तस्याः ज्ञान में प्रतिबन्धक होती नहीं है। सविषयक ज्ञान की सामग्री को असविषयक भान के प्रति प्रतिबन्धक मानने में गौवं ॥ है। यहाँ यह शंका कि -> 'वासना क्रमिक हान से असद का भान भी क्रमशः होना है, न कि सर्वदा' <-- नो उत्पन्न ही नहीं हो सकती, क्योंकि वासना की भाँति वासना का हेतु भी काल्पनिक होने से शातिक = नित्य होने मे वासना क्रमिक नहीं हो सकती । यहाँ यह कहना कि -> 'असत पदार्य तो अलीक यानी सर्वधा मिथ्या होने की वजह वासना का हेतु ही होता नहीं है । अतः वासना निर्हेनुक ही है, जो कभी होती है और कभी नहीं' <- भी इसलिए निराधार हो जाता है कि वासना का कोई हेतु न होने पर या तो गगनादि की भाँति वासना सदा विगमान रहगी या तो खरगृङ्ग | आदि की भाँति सर्वदा अषियमान रहेगी, न कि कभी विद्यमान और कभी अविद्यमान । कादाचिन्क स्थिति तो उसकी होती है, जिसको अपनी उत्पत्ति में किसीकी अपेक्षा हो । निरपेक्ष की कादाचित्क और काचित्क स्थिति हो सकती नहीं है । धर्मकीर्ति ने, जो नौद्ध दर्शन के महनीय विद्वान धे, भी प्रमाणवार्तिक गन्ध में कहा है कि > 'अहेतुक पदार्य या नो नित्य मन = विद्यमान होगा या ना नित्य असत् = अविद्यमान होगा, क्योंकि उसकी किसीकी अपेक्षा नहीं है -। अतः वह निरपेक्ष नहीं मानी जा सकती।
६ वा.[] की अनुपपid : किच संयं । इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि आपकी यह वासना प्रमाण = प्रमाजनक है या अप्रमाण = अप्रमाजनक ? दोनों तरद असत् से सन् को आपत्ति आयेगी । वह इस तरह पति वामना का प्रमाण मानी जाय तब तो उसके द्वारा सिद्ध वस्तु असत् पानी काल्पनिक अर्थात् तुच्छ नहीं होगी । प्रामाणिक = प्रमाण के द्वारा सिद्ध चीज
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६१६ मध्यमस्याडादरहस्ये खण्डः ३ . का.९. * आवश्यकनियुक्तिवचनविचारः * | सति ज्ञानजनकत्वेन तस्या धमजनकत्वसिन्दः । 'धमो नान्यथाख्याति: किन्तु असत्ख्यातिरिति चेत् ? न, असनिकृष्टस्यासाक्षात्कारादित्यन्यत्र विस्तरः ।
एतेन अत्यन्तासत्ययि ज्ञानमः शब्दः करोति हि। अबाधातु प्रमामात्र स्वत:प्रामाण्यनिश्वलाम् । (खं.खं.खा. 9/9) इत्यपि निरस्ता, योग्यताज्ञानं विना ता शाब्दबोधानुदयात् ।
- शैयलता है= वासनाया; भ्रमजनकत्वसिद्धेः निरुक्तप्रमाणत्वापातन असतः सच्चापत्तिबारव । न च कवलं प्रमाऽजनकत्वमेवास्त्वप्रमाणत्वं लाघवादिति वाच्यम्, उदासीनस्यायप्रमाणत्वापतेः। अस्तु वा तथा तथापि त्वया वासनाया भ्रमजनकत्वाभिधानासिद्धमेवासत: सत्त्वमित्युभयतः पासारतः ।
ननु भ्रमो नान्यथाख्यात्तिः = नान्यधास्थितस्यार्थस्याऽन्यथाभानं, किन्तु असत्यातिः = सर्वथाऽसतो भानमिति न जगतः पारमार्थिकत्वसिद्धिर्न वा धर्मधर्मिभावस्याऽपि वास्तस्त्वसिद्धिरिति चेत् ? न, असनिकृष्टस्य = इन्द्रियाऽसम्बद्धस्य, असाक्षात्कारान् = प्रत्यक्षविषयत्वविरहात. अन्यथा सर्वदा सर्वेषां सर्वत्र सर्वसाक्षात्कारप्रसङ्गात. असनिकृष्टत्वाऽविशेषात । न चैवं 'रूवं पुण पासद अपुटुं' (आ.नि.लो...) इत्यस्य भङ्गप्रसङ्ग इति वक्तव्यम्, चक्षुषः संयोगसम्बन्धन स्वविषयासम्बद्भत्वेऽपि आभिमुख्यसम्बन्धन तत्सम्बद्रत्वात् । अत एव 'रूवं पुण पास अणभिमुहं तु' इति नोक्तम् । न हि शुक्त्यनभिमुखस्य पंसः 'इदं रजतमि'ति चाक्षष कदापि जायते, इन्द्रिपसन्निकटस्यैव व्यावहारिकसाक्षात्कारविषयत्वात् भ्रमस्थलऽपि येन कचिदिन्द्रियसन्निकर्पस्या :वश्यमभ्युपगन्तव्यतया नदाश्रयविधया बाह्यार्थसिद्धेः असतव्यातिस्थान न्यधाख्यातिरेवात्मलाभ लभन इति सिद्धम् । अन्यत्र = सम्मतितर्क -स्याहादरत्नाकर-स्याद्वादकल्पलतादौ बिस्तरः।
एतेन = असतण्यातिनिरासेन, अस्य च निरस्तमित्यनेनान्वयः । खण्डनखण्डखाद्यकारिकामाबेदयति दुषयितुं - अत्यन्तति । संक्षेपार्थश्वास्या एवम् - शब्दः श्रूयमाणः अत्यन्तासति = सर्वथासति अपि अर्थे वाशशङ्गादिलक्षणे ज्ञानं - शाब्दबोध, करोति = विषयतासम्बन्धेन जनयति हि = पत्र विषयस्य अपराधात् नु अत्र स्वतः प्रामाण्यनिश्चलां प्रमां करोति । तन्निरासे हेतुमाह . योग्यताज्ञानं = चावाभावज्ञानं, विना तत्र = शशशृङ्गादी विषये, शाब्दबोधानुदयात, तदुकभी भी मिथ्या होनी नहीं है। अनः मिथ्या - असत् वासनात्मक हेतु से सत् = प्रमा की उत्पत्ति को मान्य करनी होगी । यदि वासना को अप्रामाणिक - प्रमाण मे असिद्ध मानी जाप तो भी असत् से सत् बनने की आपत्ति आयेगी, क्योंकि असत् से सत का जन्म न मानने पर असदाकार ग्राहक को अप्रमाण नहीं कहा जा सकता । रजतात्मना असत् शक्ति का सदात्मना ३ रजतात्मना ज्ञान करानेवाला ही तो अप्रमाण कहा जाता है। यहाँ यह कथन कि -> "वासना को अप्रमाण कहने का मतलब यह है कि यह प्रमा = सत्य ज्ञान का उत्पन्न नहीं करती है। मगर इसका अर्थ यह नहीं है कि वह भ्रम = मिथ्या बुद्धि को उत्पन्न करती है । इसलिण 'वासना भ्रमजनक होने की बजह असत् का सर बनने की आपत्ति आयेगी' इस आपत्ति को अवकाश नहीं है" <- भी असंगत है, क्योंकि जो प्रमा का जनक नहीं होते हुए ज्ञान का जनक हो वह भ्रम का ही जनक होता है - यह तो अन्यथा अनुपपति से सिद्ध होता है । अतः भ्रमात्मक सत् का सर्वधा तुच्छ वासना से जन्म होगा-यह मान्य करना होगा।
असात्स्यातिनिराकरण यहीं यह कहना कि -> 'भ्रमपद का अर्थ है असल्यानि, न कि अन्यधारख्याति । अतः वासना से भ्रम का जन्म होने पर भी सारा जगत् मिथ्या सिद्ध हो जाने से आखिर में तो हमारे गीद्धमत की ही सिद्धि हुई न ?'- भी निराधार है, क्योंकि इन्द्रिय से असनिकृष्ट का कभी भी प्रत्यक्ष होता नहीं है । 'इदं रजतं' इत्याकारक भ्रम भी शुक्ति के साथ इन्द्रियसनिकर्प होने पर ही उत्पन्न हो सकता है। हाँ, शुक्ति के साथ इन्द्रिपसभिकर्ष होने से वह आम कहा जाता है और रजन के साथ इन्द्रिय समिकर्ष होने पर वह प्रमाशद से व्यवहार्य बनता है -यह एक अलग बात है । मगर इन्द्रिय का किसी न किसी पदार्थ के साथ सम्बन्ध तो जरूर होना चाहिए । अत: प्रत्यक्षकारणीभूत सत्रिकर्ष का आश्रय होने की वजह भी बाह्य पदार्थ में पारमार्थिकना अराधिन ही है। विषयभूत नाह्य पदार्प काल्पनिक = असत् होने पर उसके साथ इन्द्रियसत्रिकर्ष भी काल्पनिक हो जायेगा । इस परिस्थिति में भ्रमात्मक बास्तविक. = विद्यमान प्रत्यक्ष की उत्पत्ति कैसे हो सकेगी ! अत: अन्ययाख्यानि यानी अन्यस्वरूप से रही हुई चीज का अन्यरूप से भान होना ही भ्रम है यह मानना होगा। इस विषय
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* विदपावश्यकभाष्यमवादः तदिदमुक्तं 'तत्र सचेतसां मूकतैवोचितेति । अत एवालीकस्य विधिनिषेधव्यवहाराऽभाजनत्वम्। 'शश न सत्' इत्यादिबुद्धिस्तु शृहे शशीयत्वादेरेवाऽसत्वमवगाहते । एवधाऽसत्कल्पनावादिना 'असत्यात्यनभ्युपगमो न श्रेयान्' इति प्रलापमात्रमेव, असकल्पनायामपि प्रसिदानामेव खण्डानां मिथोऽन्यथासंसृष्टानां भानाभ्युपगमात् ।
-* नायलता - पलम्भकातिरिक्तसामग्रीकल्पने गौरदान । अत एव = योग्यताज्ञानस्य शाब्दबोधत्वावच्छिन्नं प्रति कारणत्वादेव, अलीकस्य - सर्वधासतः, विधिनिषेधज्यवहाराऽभाजनत्वं = विधि-प्रतिषेधप्रकारकन्यवहाराविषयत्वं सङ्गच्छते । एतेन सर्वथाऽसतः काममस्तु विधिन्यवहारबहिर्भूतत्यं, निषेधव्यवहारानन्तर्भूतत्वं तु कधे ? इत्यपि निरस्तम् 'असओ नत्थि निमहो' (वि.आ.भा. १५७४) इति महाभाष्यवचनाच्च । 'तर्हि 'शशशुहं सदसद् वा ?' इनि पर्यनुयोग कः प्रत्युत्तरः ?' इति चेत् : मॉनमंत्र तत्राश्रयणीयम् । पार्षदिकानां मध्ये मोठ्यप्रसङ्ग' इति चेत ? नहि शशशुङ्ग - सत्' इत्यत्र प्रत्युत्नरः । तर्हि अत्यन्तासत्यप्यर्थे शब्दाज्ज्ञानमभ्युपगतं भवद्भिारति चेत् ?, न, 'शशशृङ्ग न सत्' इत्यादिबुद्धिस्तु शृङ्गे शशीयत्वादरेबाऽसन्चमवगाहने, नं तु शाशशृङ्गे सद्भेदम, अन्योन्याभावप्रतीतो अनुयागिज्ञानस्य हेतुल्यात । अनेन 'शवाङ्ग न सदित्या वाक्यात 'शृङ्गवृति: शशसम्बद्धत्वाभाब' इत्येवमाकारकः दाब्दगंधो न भवितुमर्हति, अत्यन्ताभावचधिनयोगिनि सप्तम्या ननमभिन्याहताया अपक्षणादिति 'शशशृङ्गं सफ़ेदबदत्यव प्रतीतिर्भवतीति प्रत्याख्यातम्, शङ्गविशेष्यक दाशीयत्वाभावप्रकारकशान्दविकला एव तत्तदानुाः सामर्थ्य कल्पनात् । एतेन विधिव्यवहारविषयत्वानाचप्रतिपादनेनार्थतो निषेधन्यवहारविषयत्वमेव स्वीकृतमकान्तासत्यपाति पराकृतम्, अखण्डस्यैव नस्य निषेधव्यवहारागांचरत्नाभिधानात्, खण्डगः प्रसिद्ध्या तु निषेधशाब्दव्यवहारप्रनीतिवि. षयत्वस्यष्टत्वात् । अन एवं शशशङ्गादरेकान्ततो निषेधव्यवहारभीविषयत्वाभावनेकान्तवादत्र्याहतिरित्यपि प्रत्यारत्र्यातम्, शगशृङ्गादः सखण्डत्वन निषेधाचरत्नम्, अखण्डत्वन तदनावः, क्रमंग सखण्डारखण्डत्वाभ्यां तदभयं, युगपनदुःभयार्पणायामवक्तव्यत्वमित्येवं सप्तभडग्या अन्याहतप्रसरात् । अनन 'शशशृङ्गं नास्ती त्पत्र 'शशशृङ्गाभावोस्ती त्येबंधीव्यवहाराविन्यसख्यातिसिद्धिरित्यपि निराकृतम्, अनुभवव्यवहारप्रतिकूल्येन कल्पनाया अन्याय्यत्वात् । निगमयति - एवञ्चेति । प्रलाप - त्वमेव समर्धयति - असत्कल्पनायां = एकान्ततोउसाचनाभिनतविषयिण्यां ख्याती, अपि प्रसिद्धानामेव खण्डानां - खण्डशः प्रसिद्भानामेव, न त्वप्रसिद्धानां, मिधाऽन्यथासंसृष्टानां = परस्परमन्पप्रकारेणावस्थितानां मतानन्यप्रकार: सम्बद्वत्वेन, भानाभ्युपगमात् । शशशृङ्गादि-राजपुरुषादिस्थले इयांस्तु विदोषः, एकत्राऽरखण्डत्वेना प्रसिद्धानां खण्डशः प्रसिद्धपैव निषेधधीच्यवहारविषयत्वम, अन्यत्र चारखण्डत्वन प्रसिद्धिमुपागतानामवाऽखण्डत्वेन विधिप्नतिषेधधीव्यवहारविषयवमिति ।
का विस्तार अन्यत्र प्राप्य है । इसीलिए कवि हर्ष की खंडनखंडखाय ग्रंप में यह पंक्ति कि > 'अर्थ = विषय अत्यंत | = सर्वथा असत् + तु होने पर भी शब्द तो ज्ञान को उत्पन्न करता ही है। हाँ, यहाँ कोई बाध न हो तो स्वत: प्रामाण्य से पुष्ट प्रमा को ही गन्द उत्पन्न करता है' -भी निरस्त हो जाती है, क्योंकि योग्यताज्ञान शान्दबोध का कारण है और योग्यता का अर्थ है राधाभाव । अतः नाधाभावज्ञान होने पर ही शन्द से शान्दवांध का जन्म हो सकता है। विषय को सर्वथा तुच्छ मानने पर तो वाघज्ञान हो जाने से शाब्दबोध का ही उदय न हो सकेगा। इसलिए इस विपय में तो मीन का ही आलम्बन करना चाहिए। कहा भी गया है कि 'उस विषय में बुद्धिवारली को मूकता ही मुनासिब है। इसीलिए तो सर्वथा असत् का न तो विधान हो सकता है और न तो निषेध । यहाँ यह शंका हो कि → "सर्वधा नुच्छ वस्तु विधिज्यवहार का भाजन = चिपय नहीं बनती है . यह तो ठीक है, क्योंकि 'शशशृङ्ग है ऐसा शाब्दिव विधानात्मक पत्रहार नहीं होता है । मगर 'निधन्यवहार का भाजन = विषय सर्वधा तुच्छ नहीं बनना है' यह नहीं मान्य हो सकता, क्योंकि 'शशशृङ्ग नास्ति' ऐसा प्रत्युत्तर, 'शवाराममस्नि र ?' यह प्रश्न उपस्थित होने पर. देना ही पड़ता है। अत: सर्वथा तु विषय में भी निपथन्यवहार की भाजनता = विषयता माननी चाहिए" - तो यह इसलिए निराधार हो जाती है कि • 'शशशृङ्गं नास्ति', 'शशश न सत्' इत्यादि निषेधव्यवहारजन्य बुद्धि अखण्ड शशशृङ्ग को निपध का विषय नहीं करती है किन्तु शृङ्ग में शशीयत्व = शशममचाय के निषेध = अभाव को अपना विषय बनाती है । इसलिए -> 'असतख्याति का अनङ्गीकार श्रेयस्कर नहीं है' - ऐसा असख्यातिवादियों (बौद्धों) का कपन प्रलापमात्र है, क्योंकि असन्कल्पना = असद्विषयक बुद्धि में भी खण्डश: प्रसिद्ध विषयों का ही अन्यथा भान माना गया है । 'इदं ग्जत' उद्धि भी हट्टस्थ रजत
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६.१८ मध्यमस्वादादरहस्य स्वण्टः ३ - का... * गांगतसिद्धान्तममीक्षा *
'धम्र्येव सन् धर्मास्तु परिकल्पिता' इति चेत् ? ताई 'धर्मा एव सन्तो, धर्मी तु परिकल्पित' इति विपरीतमेव किं न रोचये: ? किवं क्षणस्थितिधर्मकत्वेऽपि निमज्जति वस्तुनो नीरूपाख्यत्वापत्या क्षणिकत्वसिन्दान्तहानेः किं न बिभेषि ?
स्थादेवत् - 'धर्मधर्मिणावेव धर्मधर्मिभावो न त कश्चिदतिरिक्त इति 'घदो नीलो', 'नीलघटौ' इति प्रतीतेरविशेषापातात् तदविशिष्टबुब्दावतिरिक्तसमवायभानमावश्यकमिति स
*नयता - तनश्वासत्ख्यातिरपि वस्तगत्या न सर्वधाऽसख्यातिरपि त कश्चिदसत्रच्याति: स्याद्वाभिमतान्न्यथाख्यातिपर्यवसितन सिध्यनीति नात्पर्याधः सूक्ष्मक्षिकया भावनीयः ।।
पुनः बौद्धः शकते --> धर्येच सन धर्मास्त परिकल्पिना इति धर्मधर्म भावस्य काल्पनिकत्वमेव, कल्पिनघटितस्याकल्पिनत्त्वाच्योगात इति चेन् । तर्हि धर्मधर्म भावस्य सां निकत्वसराधना) 'धर्मा एव सन्तो, धर्मी तु परिकल्पित' इति विपरीनमेव किं न रोचयेः १ एकान्तद्रव्यार्थिकपर्याप्याथिकनयानुसारिणावुभावपि पक्षी मिथ्यनि तु ध्येयम् । किञ्च, एवं क्षणिकत्वव्यतिरिक्तधर्मा कल्पिता आहोस्वित् सर्व एवं ? इति पक्षाभ्यी परिपीडपिन परम्फरनि । नत्र माद्यान्नवद्य:, क्षणिकत्ववत् तदतिरिक्तधर्माणामपि वास्तवत्वास हात, धर्मत्वा विशेषात् । अन: कोशापानप्रत्यायनीयोऽयमानः पक्ष: । द्वितीयपने आह - क्षणस्थितिधर्मकत्येक निमज्जति = विज्ञायाग सति निकमवत् सर्वेषु तदितरेण धर्मप निवर्तमानेषु सन्सु वस्तुनी निमपात्यत्वापत्या = नि:स्वभावत्वापल्या क्षणिकत्व सिद्धान्तहाने: सांगतसत । किं न विभेपि ?
साम्प्रतं नैयापिकः प्रत्यवतिष्ठतं - स्यादेतदिति । धर्म-धर्मिणी एव धर्मधर्मभावः लाघवान, न तु कश्चित् अतिरिक्तः - धर्मधर्मव्यतिरिक्त इत्यभ्युपगमे 'घटो नीलः' भीलपटी' इति प्रतीतेः, जानिविवक्षयरकवचनमन्यथा द्विवचनमबान माधु. अविशेपापातात् धर्मधर्मिणोरेव तत्र भानात. तदन्यस्य कस्यचिदमानात । उभयत्र द्रयान्वगाहन:पि प्रश्नमध वैशिष्टयाचगाहिनी, न त्वपग । तत् = तस्मात् दर्शनप्रतीत्योः साम्यग्रमणात, तन्निराकरणाय विशिएयुद्धी अतिरिक्तसमचायभानं - धर्मधर्मिन्यतिरिक्तसमवायसम्बन्धाबगाहनं, आवश्यकं इति अवश्यवलुप्तत्वान् सः = समवाय एव धर्मधर्मिभावः यः 'घटा नील' इति विशिष्टबुद्धी प्रतीयत इति स्त्र धर्मधर्मिभावावगाहन माल-घटी' इत्याविशिएप्रतीती च न ज्ञायत इति नत्र न
में रहे हुए रजतत्व का पुरोवी शुक्तिपदार्थ में संमृष्टत्व = सम्बद्धवरूप से अवगाहन करती है, न कि सर्वथा तुच्छ पदार्थ का । अतः असत्स्याति के स्थान में अन्यधाख्याति अभिपिचत होनी है . यह सिद्ध हुआ ।
धर्मधामभावविवार में बौहरमतUSGL... धर्ये । यहाँ यह कहना भी योग्य नहीं है कि -> 'धी ही सत् है, धर्म तो परिकल्पित ही है', <- क्योंकि चिनिगमक न होने की वजह 'धर्म ही वास्तविक है, धी तो कल्पित है। यह भी कहा जा सकता है । अतः यही आपको क्यों पसंद नहीं आया ? इस प्रभ का आपके पास कोई प्रत्युनर नहीं होगा। इसके अतिरिक्त यह भी ध्यातव्य है कि - यदि सर धर्मों को सर्वथा काल्पनिक माने जाय और धर्मी को ही वास्तविक माना जाय तब तो आप क्षणिकबादी के सिद्धान्तानुसार सब धर्मी में रहनेवाला क्षणस्थितिधर्मकत्व = क्षणिकत्व भी काल्पनिक हो जायेगा। अतः 'सर्च क्षणिक' यह सिद्धान्त भी भान हो जायेगा । तथा क्षणिकत्व की भाँति कोई भी धर्म आपके इस सिद्धान्तानुसार धर्मी में न रह सकंगा, तर तो धर्मी निरुपारण्य - अनिर्वचनीय बन जायेगा तब 'क्षणिक सव' ऐसा निर्वचन भी कैसे हो सकेगा ? आपकी इस नवीन कल्पना के अनुसार नो क्षपिकत्वसिद्धान्त भी पलायन हो जाता है । क्या आपको इसका कोई खीफ नहीं है ?
धर्म धर्मि भावमीमांतर्गत यायिका नजिकरणEH __ स्यादतन. । धर्मधर्मिभाव को अतिरिक्त मानने पर गौरव दोप प्रसक्त होने की वजह धर्मी और धर्म ही धर्मधर्मिभाव है, न कि उनसे अतिरिक्त . ऐसा माना जाय न तो 'घटो नीलः' और 'नीलपटी पे नोनों ही प्रतीति ममान बनने की आपत्ति आयेगी, क्योंकि धर्म और धर्मी से अतिरिक्त अन्य किसीका वहाँ भान नहीं होता है। मगर उक्त दो प्रतीति ममान नहीं मानी जाती हैं। प्रधम प्रतीति में धर्मिविधया केवल एक का ही भान होता है, जर कि दूसरी प्रतीति में थर्मिविधया दो व्यक्तियों का भान होता है । इसलिए उक्त प्रनीति में भेट की उपपत्ति के लिए धर्म और धर्मी से अतिरिक्त
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* गमवायनिगसे तन्वार्थस्त्रसंवाद: ** एव धर्मधर्मिभावः। तथा च धर्मर्मिणोभेद एव युज्यते इति ।' मैवम्, 'नीलघदसमवाया' इतिबुन्देस्तथाऽस्यविशेषस्योक्तत्वात, विवक्षाभेदेनैव तद्भेदात् ।
स्थादेतत् - 'सामान्यविशेषयोरपि मिथः कश्चित्तादात्म्यामोदकाऽभिन्नसामान्यामिनविशेषात्मकं विषमपि मोदक एव स्यात् मोदको वा विषाऽभिमसामान्याऽभिविशेषात्मा
* जयलता है धर्मधर्मिभावाबगाहनम् । समवायश्चाऽयुतसिद्धभाववेत्र । तथा च म धर्मिणो: मंद एष = कवलं भदो युज्यत इति नैयायिकाशयः । ।
ननिराकुरुते - मैवम् । 'नील-घट-समवाया' इति बुद्धेः नथापि = समवायावगाहनेपि, अविशेषस्य = धर्मधमिभावानवगाहनस्प, उक्तत्वात् । 'केवल भेटे उभेद या धर्म-धर्मिभावस्य वैशिष्ट्यनियामकस्य चानङ्गीकार कथं विशिष्टाविष्टबुद्धयोर्विशेष: ? इत्याशड़कायामाह - विवक्षाभेदनेन तद्भेदात् = रिशिष्टाविशिष्टबद्धयो: विशेषात, प्रयोगस्य विवक्षाधीनत्वात ।। ज्याच च वाचकमुख्यः 'अर्पिनानर्पितसिद्भः (त.स. ५/३१) इति । समवायानवगाहन,पि तथाविधविरक्षायां सत्यां । धर्मधर्मिभावभानं, यथा 'घटबद् भूतलनि' त्यादी । समवायावगाहनेऽपि तथाविधविवक्षायानसत्यां न धर्मधर्मि भाइभानं यथा 'घटघटत्व-समवाया' इत्यादी । ततश्चान्वयन्यतिरकाभ्यां विवाविशेषस्यैव धर्मधर्म भावनियामकन्वं, न तु समवायस्य, प्रोक्तान्वयव्यतिरेकन्यभिचाराभ्याम् । एतेन धर्मधर्मिणो: केवलं भेद इति प्रत्युक्तम, समवायस्यासिद्धेश्व । तादृशविवक्षा च समीचीना ग्राह्या, न तु मिथ्या । ततो नातिग्रसङ्गः इति भावनीयम् ।
अभिनिविष्टी मत्सरी घर: शतं , स्यादतदिति । सामान्यविशेपपोरपि स्याद्वादे मिधःकश्चित्तादात्म्यात् + स्यादभेदात, मोदकाभिन्नसामान्याऽभिन्नविशेपात्मकं = मादकादभिन्नं यत्मामान्यं तद्यथा मोदके वर्तते नथैव विषदपि वर्नते तदभित्रो यो विशेषः तत्स्वरूपं, विषमपि मोदक एवं स्यात् । प्रयोगस्त्वे विषं मोदकात्मकं तदभिन्नाभिन्त्रात्मकत्वात, मोदकस्वरूपवत । तल्पयत्या व्यत्यासेन मोदको वा विषाभित्रसामान्याभिनविशेषात्मा = विषाभिन्न यत्सामान्य नद्यधा
।
धर्मधर्मिभाव का स्वीकार आवश्यक है, जो विशिष्टबुद्धिस्थल में कतृप्त ममदापात्मक ही होगा । समवाय सम्बन्ध मर्वया भिन्न अयुनसिद्ध पदार्थ में ही होता है। अतः धर्म और धर्मी में केवल भेद ही होगा, न कि अभेद या भेदाभेद ८-- ऐसा नैयायिक मनीपियों का वक्तव्य है।
मैवं. । मगर यह कथन भी अमंगत है, क्योंकि 'नीलघटसमवायाः' यह प्रतीनि विशिष्टविषयक न होने पर भी समवाय का अवगाहन करती है। अतः समवाय को विशिरप्रतीति का नियामक नहीं माना जा सकता • यह नो पहले ही देखिये प्रथम खंड पृष्ठ ४५) कहा गया है । समचाय का अवगाहन करती हुई बुद्धि भी वैशिष्ट्य अवगाही नहीं होने से समय को विशिष्टविषयक गुजि नियामक न मान कर विवक्षाविटोप को ही उसका नियामक मानना उचित महसूस होता है । जहाँ वेसी विवक्षा होगी वहाँ विशिष्टविषयकत्व रहेगा, चाहे उस प्रनीति के विषय में समयाय का भान हो या न हो, जैसे 'घदवत भूतलम्' यह विशिष्ट बुद्धि । जहाँ वैसी विवक्षा न होगी वहाँ विशिष्ट विषयकाव न रहेगा, भले ही वह प्रतीनि समवाय का अपना विषय बनाती हो, जैसे 'घट-घटत्व-समवाया:' ऐसी परस्पर विशेषणविशेप्यभावानापन अविशिष्ट विषयक बुद्धि । अनः विशिष्प्रतीति के नियामकविधया समनाप का स्वीकार श्रेयस्कर नहीं है। अतपय धर्म और धर्मी में सर्वथा भेद मानना भी असंगत ही है, यह ध्वनित होता है।
अत्यनाभिन्न पदार्थों में अनुगत एक सामान्य नहीं है म्याद. । यहाँ यह शंका हो सकती है कि -> स्पाद्वादियों के मन में तो सामान्य और विद्याप कथंचित् अभिन्न होते हैं। अत: मोदक भी विप बन जायेगा और विष भी ला रन जायेगा । बह इस तरह - सामान्य जैसे मोदक में रहता है ठीक वैसे ही विप में भी रहता है, इसलिए मोदकाभित्र जैस मोदकवृत्ति सामान्य है ठीक वैसे ही विषवृत्ति सामान्य भी बन जायगा । उससे अभिन्न विपत्ति विशेप, जो विपात्मक है, बन जापगा। अत: मादक में विधात्मकता प्रसक्त होगी। इसी तरह विप भी मोदकात्मक चन जायगा । देखिये, मामान्य जैसे पि में रहना है ठीक वैसे ही मोदक में भी रहता | है । इसलिये विषाभिन जैसे विपनि सामान्य है ठीक वैसे ही मादयत्ति सामान्य भी बन जायगा । उसमे अभिन्न मोदकनि
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६२० मध्यमस्याद्वादरहस्ये पण्डः ३ . का... * अत्पन्तभिन्न समानपरिणामाभायाऽऽवेदनम * विषमेव स्यात् । तथा च प्रतिनियतप्रवृतनियमोच्छेदप्रसाद इति,' मैवम्, मोदकविषसाधारणकसामान्यानभ्युपगमात् । एव मोदकविशेषा एव मोदकसामान्याभिमा इति न विषं विषतां जह्याम वा मोदकतामनुभवेत् । विषविशेषा एव च विषसामान्याऽभिमा इति न मोदका मोदकता जर्षाः विषात्मकता वाऽनुभवेयुः । वस्तुनः समानः परिणामो हि सामान्यमसमानश्च विशेषः । न च विषादकयोः समान: परिणामः, अत्यन्तभिने तदभावात् । असमानस्तु भवत्येव, तद्रिामानिरूप्यत्वात्तस्येति ।
* जयलता विषे वर्तते तथैव मोदकेपि वर्तते तदभिन्नो यो विदोषः तदात्मकः. विषमेव स्यात् । प्रयोगस्त्वे मादको विषात्मक तदभिन्नाभिन्त्रात्मकत्वान. विषस्वरूपवत । ततः किं ? इत्याशडकायामाह . तया च = विषस्य मोदकात्मकल्ले मोदकस्य 'च विषात्मकत्वे, प्रतिनियतप्रवृचिनियमोच्छेदप्रसङ्गः = विषार्थिनो मोदके मोदकार्धिनश्च विषे प्रवृत्त्यापानेन --> मोदकार्थिना मोदक एवं प्रवृत्तिः न त विष, विपार्थिनो विष व प्रवृत्तिः न तु मोदके - इति प्रतिनियतप्रवृनिनियमनं न स्यादिति न सामान्यविशेषयोः कश्चिदभेदों युक्त इति पराभिप्रायः ।।
तन्निरस्यति - मैदमिति । मोदकविषसाधारणकसामान्याऽनभ्युपगमादिति । इदमात्राकूतम् स्यावाद सर्वे पदार्थाः ।
शेषोभयात्मकाः परं एकपदप्रवृत्तिनिर्मिनं यावत्स तावत्स यदेकं सामान्यं तत नान्यपदप्रवृत्तिनिमित्तवत्स्वपरेवपि वर्तते किन्तु तदन्यदेव । ततश्च मादकपदप्रयोगप्रवृत्तिनिम्निवत्सु यावत्सु यंदकं सामान्यं वर्तते तन्न मोदकपदप्रवृत्तिनिमित्तविकलंषु विषादिपप्रवृत्तिनिमित्तवत्सु वर्तते किन्त्वन्यदेव । यच्च नत्र बृत्ति तन मोदकवृत्ति । घटकुम्भादिपदप्रनिनिमित्त त्वभित्रमेवेति न कोऽपि दोषः । एवञ्च व्यवस्थिते मोदकविशेषा एव मोदकसामान्याभिका न तु विषदिशेषा अपि. इति हेताः न विषं विषतां जह्यात् न वा मोदकतामनुभवेत्, मेदकसामान्याभिन्नविदोषानात्मकत्वात् । तथा विषविशेषा पच च विषसामान्याभिन्ना न तु मोदकविशेषा अपि, इति हेतोः न मोदका मोदकतां जयुः, विषात्मकता वाऽनुभवेयुः, विषसामान्याभिन्न विशेषानात्मकत्वात । 'कथं मादकविषसाधारगेकसामान्यानभ्युपगमः स्याद्वादिनां ?' इत्याशङ्कामपाकतु स्वपमेवोपक्रमने • वस्तुनः समानो हि परिणामः सामान्यमसमानश्च विशेष इति । न च विषमोदकयोः समानः परिणामः सम्भवति, व्यवहारता पक्षाविशेषाद् | वा अत्यन्तभिन्ने तदभावात् = समानपरिणामबिरहात । नहि कश्चिद्भिन्ने विशेषोपि न स्यादित्याशङ्कायामाह - असमानस्तु परिणाम: तत्र भवत्येव तद्भिनमात्रनिरूप्यत्वात् = तद्भित्रत्वादच्छिन्ननिरूप्यत्वात् तस्य = असमानत्वस्य, न तु अत्यन्तभिन्ननिरूयत्वं तस्य, सङ्कोने मानाभावात, निरूपकतावच्छेदकगौरवाच । ततश्च मांदलयोरपि परस्परमसमानपरिणानरूपविशेषोऽनयाय
| विशेष, जो मोदकात्मक (= मोदकाभित्र) है, बन जायगा । अत: त्रिप में मोदकात्मकता की आपत्ति आएगी ।
इस तरह मोदक में विपात्मकता एवं विष में मांदकात्मकता आन पर मोदक की मोदकता चली जायेगी और विष की विषात्मकता पलायन हो जायेगी । नब तो विषार्थी की मोदक में प्रवृत्ति होगी और मांदकार्थी की विष में । अतः मोदकार्थी की मोदक में ही प्रवृत्ति और विपार्थी की विष में ही प्रवृत्ति होने का जो नियम है वही लुप्त हो जायेगा। इस तरह प्रतिनियत प्रवृनि के नियमन के उचंद की आपनि स्पागद में बाधक होती है' <--
मयं । मगर यह शंका इसलिए निरस्त हो जाती है कि स्याद्वादी ने षि और मोदक में अनुगत एक सामान्य का स्वीकार किया नहीं है। मोदक में जो सामान्य है वह विप में नहीं है और विप में जो सामान्य है वह मोदक में नहीं है । अतः मोदकविशेप ही मोदकसामान्य से अभिन्न होगा, न कि विषविशेष भी । अतः मोदक में विपात्मकता की प्राप्ति और मोटकात्मकता का परित्याग नामुमकिन है। इस तरह विपविशेप ही विपसामान्य से अभिन्न होगा, न कि मोदकविशेष भी । अतः विप में मांदकात्मकता की आपत्ति को और विधात्मकता के त्याग को अवकाश नहीं है। मतलब यह है कि वस्तु का समान परिणाम ही सामान्य है और असमान परिणाम ही विशेप है । मोदक और चिप में तो कोई समान परिणाम है ही नहीं, क्योंकि अत्यन्त भिन्न पदार्थों में समान परिणाम होता नहीं है । मोदक जीवनटाना है और विप है प्राणनाशक। अतः वे परस्पर अन्यन्त भिन्न ही हैं । इस विषय में नो कोई विवाद ही नहीं है । अतः मोदक और विप में साधारण एक सामान्य नहीं होता है । यहाँ यह शंका हो कि -> 'यदि अत्यन्त भिन्न पदार्थ में सामान्य अनुगन नहीं होता है तब तो विशेष अत्यन्न भित्र पदार्थ में ही रह सकेगा, न कि कथंचित भित्र में । अत: एक मोदक की अपेक्षा
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* इष्टसाधनताज्ञान प्रवृन्याः कार्यकारणभाव: * व्यासाटिकास्तु - इष्टसाधनताज्ञानप्रवत्योः समानप्रकारकत्वमेव कार्यकारणभावान प्रागुक्त: प्रवृत्त्यनियमः । तेन द्रव्यत्वादिसामान्यस्य विषमोदकोभयसाधारण्येऽपि न क्षतिरित्साहः । सावत् - अमृत्स्वभावेभ्यो व्यावृत्तिरेव मुत्सामान्य, न तु समान: परिणामः इति ।
-* नसलता गर्वनि । मामान्यविशेषगोचरविचारविशेष: सक्षग्ण प्राक् प्रदर्शित एवेन्ट नेह तन्यते । एतद्विस्तास्नु स्याद्वादरत्नाकराांदनी बसेयः ।
___ नव्यानुयायिन इति आहुरित्यनेनान्चति । तुः पूर्वोक्तापक्षया विशेषयोधनार्थः । तमंचावेदयति - इष्टसाधनताज्ञानप्रवृत्त्योः समानप्रकारकत्वेनैव कार्यकारणभावादिनि । यद्धावचिन्ने पदार्थप्रवृनिः सवच्छिन्ने नाकारकत्वेन ज्ञानम्प हनुवादित्यर्थ: । मोदकत्वप्रकारका चि प्रत्येव विषत्यप्रकारकष्टसाधननाज्ञानस्य हतुवं न तु विषत्वप्रकारकाप्रवृत्ति प्रयाग । एवं विधत्वप्रकारकप्रनिं प्रत्यव विषत्वप्रकारकाधनताज्ञानस्य हतुवमिति न प्रागस्तः प्रवृत्त्यनियमः । नेन = समानप्रकार कन्चन तयोर्जन्यजनकभावस्वीकारण, अतिरित्यनेनास्यान्वयः । द्रव्यत्वादिसामान्यस्य विषमोदकांभयसाधारण्यऽपि विधमादकयो: तत्प्रयुक्तेतरतरात्मकन्या भाग्न पिन क्षतिः; वर्ष मोदकत्वप्रकारकटसाधनताज्ञानविरहान, मोटक च विपत्वप्रकारकटमाधनताजानबिरहान्न मोदकार्धिनी विष न पा विधार्थिनी मोटके प्रनिप्रमन इत्यत्र नत्पर्यम् ।
बौद्धः शकते - स्यादेतदिति - अमृत्स्वभावभ्यः पटादिभ्यः व्यावृत्तिरेव मृत्सामान्यं = मृत्तिसामान्यं, न तु तदन्यः अन्य मोदक में असमानपरिणामात्मक विशेष न रह मकंगा' <- तो यह भी अनुचित है, क्योंकि अन्यन्त भिन्न पदार्थों से ही असमानता निरूपित होती है-मा नहीं है किन्तु भिन्न = अपने में भिन्न पदार्थ में निमपिन होती है। मतलब कि भंदसामान्य की अपेक्षा ही वस्तु में विशेष = असमान परिणाम होता है, न कि भेदविशंप की अपेक्षा । एक मादक का अन्य मोडक में अवयत्र आदि की अपेक्षा भेद नो है ही। अनाव अन्यमोदकनिरूपित अगमानता विक्षित माटक में रहेगी 1 इसलिए एक मोदक में मोदकान्लर की अपेक्षा भी असमानपरिणामात्मक विशेष टीक वैसे रहता है जैसे कि विप की अपेक्षा । इस तरह कोई दोष सावकाश नहीं होने से सामान्य और विशेप में कधिन नादात्म्य माना जा सकता है • यह स्याहादियों का आशय है।
*प्रतिनिसप्रतिनियाज के iro का परिवार - नत्यमत को * नन्या. । प्रतिनियन प्रवृत्ति के नियम के उदद के परिहारार्थ नव्यों के अनुयायिओं का यह कपन है कि. -> 'इष्टसाधनता का ज्ञान और प्रवृति के बीच समानप्रकारकत्वरूप से कार्यकारणभाव होता है। यधर्मप्रकारक इष्टमाधनताज्ञान होता है उससे नद्धर्मप्रकारर ही प्रवृत्ति होती है, न कि अन्यधर्मप्रचारक | जैसे दण्डत्वेन दर में इष्टघटसाधनताज्ञान होने पर दण्डवरूप से ही दण्ड में प्रवृत्ति होती है, न कि द्रव्यवादिरूप से । इस नगर मोटक में मोदकत्वरूप में इएसाधननाज्ञान होने की वजह मोदकत्व के आश्रय में ही मोटकन्वप्रकारक प्रवृत्ति होगी, न कि विप में, क्योंकि विष कथंचित मादकाभिन्न होने पर भी मोटकत्व धर्म से शून्य है । एवं विपवरूप में इप्रसाधननाजान होने पर विपन्च के आश्रय में ही रिपत्रकारक प्रवृत्ति होगी; न कि मोदक में, क्योंकि मादक कथंचिन् विपाभिन्न होने पर भी विपत्व में रहित है । इस तरह मादकाधी की विप में और विपार्थी के मोदक में प्रवृत्ति का कोई प्रसंग न होने की वजह मांदकार्थी की मादक. में और विपायों की विप में ही प्रवृनि होगी । अत: प्रतिनियत प्रवृत्ति के अनियम का कोई अवकाश नहीं है । अनापत्र यहाँ यह कहा जाय | कि -> "विष और मादक परस्पर अत्यन्त भिन्न होते हा भी द्रव्यत्व आदि धर्म तो उनम अनुगत ही है । मनः मोटकाभित्र दन्यत्वमामान्य जमे मोदकवृत्ति है से विपवृत्ति भी बन जापगा । उसस अभिन्न विपनि विशेप, जो विषाभिन्न है, बन जायगा। जियम मोदय विपान्भक हो जायेगा । एवं विध भी मोदकात्मक हो जायेगा' <- तो भी प्रवृत्ति के नियमन के उच्छेद को कोई अवकाश नहीं होगा, क्योंकि मोदकः विपात्मक बनने पर भी मोदकाची का इएनाधननाज्ञान माग्वत्त्वप्रकारक हान से मादकत्वप्रकारक ही प्रवृत्ति होगी न कि विपत्त्वप्रकारक भी, क्योंकि विपत्वाकारकप्रनि मोटकत्वाकारक-दष्टसाधनताज्ञान की कायेना के अवच्छंदक धर्म से रहित है । एवं विपत्तप्रकारक इष्टसाधनताज्ञान में मांटक में प्रनि की भी आपान नहीं आयेगी, क्योंकि मोदक-पप्रकारक प्रवृत्ति उसकी कार्यता के स्वच्छंदक सं शून्य है' <-।
अतदत्यातृत्ति सामान्य नहीं है स्यादः । यहाँ चौद्ध मनीपियों का यह वक्तव्य है कि => 'सामान्य समान परिणामान्मक नहीं है, क्योंकि मवं
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६५२ मध्यमस्याडादरहस्पे खारः ३ का... * वस्तुनः सामान्यािपोभयात्मकता* मैतम् मृदोऽमृत्स्वभावेभ्य इव मृत्स्वभावेभ्योऽपि व्यावतत्वात् सहाभियसामान्यस्वभावतापत्तेः।। तथा च मृद मुदिवाऽमृदपि स्यात, अमृदिव वा मृदय स्थात् ।
अथ मुदि अमृत्स्वभावकूटव्यावृतिरिव मृत्स्वभावकूटव्यावृत्तेरभावानोक्तदोष इति चेन? तथापि मृत्समानपरिणाम एवाऽमृत्स्वभावकूटव्यावृत्तिरित्येव किं न रोचये: ? तथा चाऽत्यन्ताऽ
* जयलसमानः परिणामः सर्वेषामेव स्वलक्षणत्वात, 'मर्व स्वलक्षणं स्वलक्षणं' इति वचनादिति चेत् ? मैवम् . बौद्धनय मृदः = | विवक्षित मुदद्रव्यस्य. अमुत्स्वभाचभ्यः परादिभ्यः इव मत्स्वभारभ्यः - विवक्षित दन्यमत्वभावभ्यः । व्यावृत्तत्वात् सङ्कीर्णोभयसामान्य-स्वभावतापत्तेः = साणमृत्पदाधुभयसामान्यालकन्दप्रसङ्गात् । यथा अमृत्स्वभावच्यानि मृत्सामान्यं तथा मृत्स्वभावच्यावृत्तिरव पटादिसामान्यं, मत्स्वभावनामन्यद्रव्यायामपटात्मकत्वान् । तथा च मदि अमृस्वभावव्यावृत्तिस्वरूपमृत्सामान्यस्य मृत्वभावव्यावृत्तिलक्षणपदादिमामान्यस्य च सत्त्वात, मृदु मृदियाऽमृदपि = वटाद्यानिकऽपि स्यात, अमृदिव = पटादिवन वा मृदपि न स्यात् । अमृत्स्वभावव्यानिलक्षणमत्सामान्यस्य सचात् तत् मद्यं भवति तथापनादि स्वरूपमृत्त्वभावव्यावृत्तिलक्षणपदादिसामान्यस्य सन्चात नत पटादिस्वरूपमगि स्यात, यद्वा आपटादिस्वरूपमृतकमावच्यावृत्तिलक्षणम्य पटादिसामान्यस्य सत्वेपि नन्न पटादिस्वरूपममदद्रव्यं भवति तद्वंदव अमृत्स्वभावच्यावन्यात्मकस्य मृत्मामान्यस्य सन्नःप तत मृदयात्मकमपि न स्यात, अन्पधा पक्षपानमात्रादिति तात्पर्यम् ।
बौद्धः स्वाशयं प्रकटयति- अति चदित्यनंना म्यान्चयः । मृदि = विवक्षितमृदय, अमत्स्वभावकटच्यानिग्वि मुत्वभावकूटच्यावृत्तिर्न वर्तते. तत्र स्वतरमकलमृत्स्यभारद्रव्यच्यावृनेः सत्यपि स्वात्मकगृत्स्यभावाद व्यावत: विरहात । न हि स्वमेव स्वस्मादिनं भवति । तत्रा:मृत्स्वभावकूटव्य वृनरसच्चानमः मृदात्मकत्वमेय, न नु 'एटाद्यात्मकत्वं: पटाशात्मक मूल्यभावकूटल्यावृत्तरसत्वात् । इल्पश्च विवक्षितमृदय मृत्स्वभावकूटब्यावृत्तरभावात् न उक्तटोपः = मागभिपसामान्यस्वभावतापत्तिलक्षणो दाप इति सांगतसुताशयः ।
अभ्युपगमवादिन प्रकरणकार: समाधन - तथापि = अमृत्स्वभावकूटव्यावृत्ते: मृत्सामान्यत्वा भ्युपगम:पि, मृत्समान्परिणामः = सकलमत्साधारणपरिणामः एव अमृत्स्वभावकूटल्याउत्तिः न न नछ कस्वरूपा इत्यंव किं न रोचयः ? घट व कम्बुनावाद्याकारवचन प्रतीतिविषयीभवन सन् अन्यानपि नदाकारभूतः पदार्थान घटम्पन्या घटझन्दबान्यतया प्रत्यायधनीत्येव स्वरस - वाहिलोकानुभवा न तु अघटकूटव्य वृनिमल्वेन स प्रातिविषयाभन्न मन अन्यानपि अयटकुटनिमन्तः पदार्यान घटात्मकना घटशब्दवाच्यतया प्रत्याययतीत्येवरूपः । विवक्षिताग्यवजन्यत्वादिलक्षना:समानपरिणामेनर घटः स्वतरभ्यः गजाताधिजातीय पदार्थ विलक्षण ही होते हैं । अतः अतव्यावृनि ही सामान्य है। जैसे अमृत्स्वभाववाले पदार्थों की न्यावृत्ति ही मृन्मामान्य है, न कि सकल मिट्टी में अनुगत ऐसा समान परिणाम' <- मगर यह बौद्धकथन भी अमंगत है । इसका कारण यह । है कि जैसे मिट्टी अमृत्स्वभाववाले पट, मठ आदि पदाथों से ज्यान होती है ठीक वैन ही अन्य मुत्स्वभाववाली मिडिओं में भी व्यावृत्त होती है । अनः विवक्षित मिट्टी में अमृस्वभावाले पदाधों की च्यावृत्ति की भाँति अन्यमृत्स्वभाचत्राले पदार्थों की व्यावृत्ति भी रह जाने से मिट्टी में मृत्मामान्य की बरह अमृतसामान्य भी रहने लगेगा। अमृत्स्वभावारे पदार्थों की व्यावृत्ति ही मृत्सामान्य है और अपटादिस्वरूप मृत्वभाववाले पदार्थों की न्यानि ही तो अमृतामान्य = पटादिमामान्य है, । अतः एक ही विवक्षिन मिट्टीद्रव्य में मृत्सामान्य और अमृत्मामान्य उभयस्वभाव की प्राप्ति होगी। तब तो मिट्टी जैसे मृत्मामान्य का आश्रय होने से मिट्टीस्वरूप है ठीक वैसे ही अमृत्मामान्य का आथय होने की वजह मिट्टीभिन्नद्रव्यात्मक भी बन जायगी अथरा यह आपादन भी किया जा मकना है कि अमृन्मामान्य का आश्रय होने पर भी वह मिट्टाभिन्नद्रव्यात्मक नहीं है श्रीक बंग ही मृत्मामान्य का आश्रय होने पर भी वह मिट्टाद्रव्यानरूप नहीं हो सकेगी । अनः अमृस्वभाववाले द्रव्यां की ज्यावृत्ति को मृत्मामान्य नहीं माना जा सकता किन्तु नकल मिट्टी में अनुगत गमान परिणाम को ही मृत्मामान्य कहना संगत है। * अमावस्या
परिणागगाही * अथ. । यहाँ बौद्ध की और में बचाव के लिए यह कहा जा सकता है कि -> 'मिट्टी में अमृत्स्वभाववाले मब द्रव्यों की व्यावृत्ति रहती है। अतः मिट्टी में मृत्मामान्य माना जा सकता है । मगर अमृत्सामान्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि विवक्षित मिट्टीद्रव्य में अन्य मूलवभावनाल मिट्टा द्रन्या की त्यावृत्ति होने पर भी अपनी व्यावृति नहीं होने की वजह
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* अन्यमांगन्यवच्छददाशिकानबाद: * सहीर्णस्वभावसामान्यावशेषोभयात्मकं वस्तु स्वसंवेद्यसंवेदनसिहमपि क: कधीरपहवीत ? संवेद्यते हि स्थास-कोश-कुशूलादिषु सर्वभाऽभतो मृदन्वयः प्रतिविशेषं च पर्यायव्यावृतिरिति ।
यौ सर्वाचितमतः सकाशादर्वतारदोऽप्यत्यन्तभिन्नत्वाऽभावात्तस्या अप्यन्वयापतिः। तथा च स्थासादिमुत्स्वपि पदादिव्यवहारापत्तिरिति चेत् ? ', येन रूपेण समानता तेन रूपेणाऽन्वयस्वीकारात् । 'मृत्सामान्यमेव मृदो विशेष' इत्याय न वाच्यम्, तावताऽमृदो
* जयलता *मात्गानं न्यावर्नयतीत्यपि प्रतीनिसिद्धमन्व । स चाइसमानपरिणामोऽपि न ममानपरिणामा भारम्बाप: तुच्छ: किन्तु भावान्तरात्मक एव । तथा चात्यन्तासङ्कीर्णस्वभावसामान्यविशेषोभयात्मक वस्तु प्रदर्शितमत्था स्वसंवेद्यसंवेदनसिद्धमपि कः कुधीः = मत्सरी अपडवीत ? स्वानभूतावविश्वासे तरस्यायनवस्थितः कां दिशमाश्रयनु कांदिदिका शुद्धोदनितनयः : संवेद्यते हि || स्थासकोशकशूलादिप मर्मत्रान्गतः मृदन्वयः = मृदननि: प्रतिविशंपं च पाटलिपुत्ररत्व कायक जवाघालिङ्गिना घटेप पर्यायव्यावृत्तिः अपि इति । नथा चाक्तं व्रन्थकदिनव अन्ययोगव्यवच्छन्द्वात्रिंशिकायां 'स्वनो नवनियतिवृनिभाजी मात्रा न भावान्तरनयम पाः । परात्मतत्तदतथात्मतवाद् द्वगं बदन्ता कुशलाः स्वलान्ते ||४|| इति ।।
अथ एवं = समानपरिणामस्थव भाभान्यत्वापगम. सर्वत्र = पालापत्रीय-कायकम्जाय-वामन्निक-शिर-श्यामरनादियटषु अन्चितमृदः = तिर्यग्मदव्यक्तः सकाशात स्थास - कोश-कालानुगताया ऊध्यतामदः अपि अत्यन्तभिन्नत्वाभावात् = सर्वथा भेदविरहान, नस्या - तिर्यमदः अपि स्वास - कांश-कालादिप अन्वयापतिः, पूर्व अत्यन्तभिन्न तदभावादिन्यमांस्तत्वात न त भन्ने सदभाशदिति, अन्यथा वासन्ति काशिरादियोयपि तदभावनगजात । स्थसादिष नियम्भूदोन्चयापादन झिमन्यदापादनीयं ? इत्याशङ्कायामाह - तथा च स्थासादिमत्स्वपि घटादिव्यवहागपतिः, रन्तदधामघटादिद्रव्यात्मकमत्म घटादिव्यवहारबदित्याशयः ।।
नन्दिराकर - नेति । येन मृचादिना रूपण समानता - सादृश्यतेन गुच्चादिनच अन्वयस्वीकारात् । ततश्च दयाम - मुक्तादिपट स्थास-कोश-कुशूलादिषु मृचनैव सादृश्याननवान्वयान मर्वत्र पु 'इयं मृदियं मृति'न्य व्यवहारस्तु स्पादेव । यामग्यनादिष्टानां स्थास-कोशादिषु घटत्वेन समाननाया विरहान्न स्थासादिषु घटव्यवहारप्रसङ्गः । ट्यामरयनादिघटषु घटत्वेन समानताया; रसवात् तच घटलबहर इति समाधानारायः ।
मृत्सामान्यमय स्वाश्रमिनरेभ्यो व्यावतंयन लापवान मदो विशेपः न तु तदतिरिक्त इत्यपि न वाच्यम्, तावना
मृत्स्वभाववाले सब मिट्टी द्रव्यों की न्यावृनि रहनी नहीं है। मृत्स्वभाववाले सब द्रव्यों की च्यावृनि विवक्षित मिट्टीद्रव्य में न होने पर अमृत्सामान्य वहाँ कैसे माना जा सकता ! अतः संकीर्ण उभय स्वभाष की आपत्ति को अवकाश नहीं ह'
- मगर यह भी इसलिए निराधार हो जाता है कि . अमृस्वभावकूटच्यावृति को अत्यन्त नुन्छ मानने की अपेक्षा उसे सकल मिट्टी में अनुगत समान परिणामात्मक मानना ही मुनासिर है। इस तरह विशंप भी असमान परिणामात्मक ही है। अतः अत्यन्न अपकीर्ण स्वभावनाले सामान्य और विशेष उभयात्मक ही बल्तु का, जो अपने से संवेय अनुभव से ही सिद्ध है, कौन दुवुद्धिवाला अपलाप कर सकता है ? सब लोगों को स्थास, कोश, कुशूल आदि अवस्थावाले सब द्रव्य में अनुगन मिट्टी द्रव्य का अनुभव गर्व प्रत्येक विशेष घट यानी रक्त घट, श्याम घट आदि में पर्याय की व्यावृति का भी अनुभव होता ही है। क्या रक्त घट और श्याम घट में कुछ भी भेन (न्यात्ति) का अनुभव नहीं होता है? अतः प्रत्येक वस्तु को सामान्य-विशेपाभयात्मक मानना ही ममुचित है।
स्थाd, uple . HIदि में घटत्यवहारप]ि p] निरास. [] अयं । यहाँ यह आपादन किया जाय कि --> 'रक्त, श्याम आदि सर घट में मिट्टी या अन्य आप स्याद्वादी मानते हैं । एवं स्थास, कोश आदि पूर्वापरकालीन अवस्थाबाले एक ही द्रव्य में उर्वतासामान्यात्मक मिट्टी अनुगत होती है . ऐसा भी आप मानते हैं । तब तो उचंतासामान्यात्मक मिट्टीद्रव्य में रक्त, श्याम आदि घट में अनुगत निर्यक्रमामान्यात्मक मिट्टी का अन्वय होने की आपनि आयगी, क्योंकि उनमें परस्पर अत्यन्तभिन्नत्व नहीं है । इसक. पाल में जैसे रक्त, ज्याम
आदि घट में घटल्यवहार होता है ठीक वैसे ही स्थान, कोश आदि में भी पटव्यवहार होने लगेगा, क्योंकि अनुगत मिट्टीद्रव्य तो उभयत्र ममान ही है - ना यह भी अमंगल है, क्योंकि अनेक पदार्थों में जिस रूप से समानता होती है उसी रूप
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६.४ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः ३ का..
*बादादम अगर्मवादः * व्यावृत्तात मिधा मळ्यावत्यसि ।
स्यादेतत् - वस्तुन: सामान्यविशेषोभयात्मकत्वे दर्शन सामान्यमिव विशेषमपि गृहाणीयात, ज्ञानं वा विशेषमिव सामान्यमपि गृहणीयात, सामग्रीसत्वादिति चेत् ? गृलत: किं महणापादनम् ? जीवस्वाभाव्यातु दर्शन विशेषान् ज्ञानच सामान्यमुपसर्जनीकृत्य गृह्णातीति विशेषः ।
-* यता लाधवसहकृताभ्युपगमेन अमृदः सकाशान मृदो व्यावृनी सम्भाव्यमानायां अपि मिधी मृळ्यावृत्त्यसिद्धेः = मृदः मकाशात मुद्रा व्यावन्नाऽसम्भवगत, तत्र मृदि मृत्सामान्यस्यच मनात. नदतिरिक्तस्य च मुर्विशेषस्य भवता अनभ्युपगमात् । तनश्च विवक्षितमृदः सकाशाद मृदन्तरव्यावृत्त्यन्यधानगपनः मृत्सामान्यव्यतिरिक्तो भावान्मक पत्र मृदा विशेष इति दीकर्तव्यम ।।
ज्ञानदानयारभेदं दपयित्तमुपक्षिपति - स्यादेतदिति । प्रदर्शितरीत्या वस्तुनः सामान्य-विशेपोभयात्मकत्वे स्थानिमतं | दर्शनावरणचिलयजन्यं दर्शनं सामान्यमिव विशेषमपि गृहणीपात, वस्त्वंशत्वा विशेषात् दर्शनं यथा सामन्यं गृहणानि नथव शिषभपि विषयाकुर्यात् । कल्पान्तरमाह - ज्ञानं या ज्ञानावरणविनगजन्यं विशेषमिव सामान्यमपि गृहणीयात्, सामग्रीसत्वान झानं यथा विशेषांझं गोचरीकरुन तथैव सामान्यांशमग्यवगाइन । नतश्च ज्ञानमय दर्शनं दर्शनमंत्र वा ज्ञानं म्यान्न त्वतिरिवनमित्य - जापादनतात्पर्यम ।
नदपहस्नयति , गृहणन एव = उभयं विषयाकर्वत पर ज्ञानस्य दर्शनम्पबा किं ग्रहणापादनं = उभयग्रहगरिषयक आपादनं क्रियते ? अभ्युपगतस्थापादनाल्योगात, आपादन पाटत्वात : ननु गृहणनः प्राधान्यंन सामान्यविषयकस्य दर्शनस्य प्राधान्येन विशेषविषयकान्तमापायने प्राधान्यन विशेपविषयकाय च ज्ञानस्य प्राधान्येन सामान्य विषयकत्वगागायत इत्याराडकायामाद, जीवस्वाभाब्यान प्राधान्येन सामान्यगांना दर्शनं विशेषान उपसर्जनीकृत्य गहणाति प्राधान्येन विशेपनिष ज्ञानश्च सामान्यदुपसर्जनीकृत्य गृहणाति इति विशेषः । न च स्वभाचे गर्वनुयोग युज्यने 'अग्निदहन किं नाका ?' इत्यत्रापि ननिवृत्तः। गतेन दर्शन मामान्यगोचरं ज्ञानश्न विशेष विपणमिनि प्रगदापि व्याख्यातः । नदक्नं स्याद्वादमंजयां 'यय ह्यभ्यन्तरीकृत . समतास्थ्यधमा विषमताविशिष्टा ज्ञानन गम्यन्ते : न एक हि अभ्यन्तरीकृतविष नाधम समनाधर्मबिशिष्टा: दहनन गम्यन्तं, गं वस्वाभाल्यान । सामान्यप्रधानमुपसर्जनाकुनविंशेरमधंग्रहणं दर्शनमुव्यते. तथा विशेषप्रधानम् गमर्जनीकृतं च ज्ञानानि (म्या. १.श्री-१ पृ. १.)।
से अन्वय होता है, न कि अन्य रूप से भी ऐसा हम स्यावादी मानते हैं । रक्त, शयाम आदि घट में घटत्व धर्म की अपेक्षा समानता होने की बजह उसमें घटव्यवहान हो सकता है, मगर स्थाम, कांश आदि में घटत्व की अपेक्षा समानता नहीं होने की वजह घटव्यवहार नहीं हो सकता है। हाँ, मिट्टीव्यवहार यानी मिट्टीशन्द का प्रयोग उनमें जरूर हो सकता है, क्योंकि उनमें मुन्वरूप में समानता होती है । यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि मृत्सामान्य को ही मृदय का विशेष नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वैसा मानने पर मिट्टी द्रव्य मे भिन्न पट आदि में मृत्सामान्य नहीं होने की वजह अमृद्न्य में मिट्टीदल्य की व्यावृत्ति मुमकिन होने पर भी अन्य सजातीय मिट्टीद्रव्य स विवक्षित मिट्टीवन्य की व्यावृति सिद्ध नहीं हो सकेगी, म्याकि अन्य सजातीय मिट्टीद्रव्य में भी नृत्मामान्य रहता ही है । अतः मृविशेप को मृत्मामान्य से अतिरिक्त मानना ही मुनागिन है ।
पाज और में गोमात से विषयप्राधान्य नियमन पादः । यहाँ यह शंका हो सकती है कि --> 'यदि वस्तुमात्र सामान्य-विशेषउभयात्मव है नर ना दर्शन मामान्य की भाँति विशंप का भी ग्रहण करेगा और ज्ञान विशेष की भाँति सामान्य का भी ग्रहण करेगा, क्योंकि लग्राहक सामग्री तो नहीं रहती है' <-- मगर यह निराधार होने का कारण यह है कि सामान्य के ग्राहक दर्शन और विशेष के ग्राहक जान में भी उभयग्राहकना तो हम मानते ही हैं। अतः जो हमें अभिमन है, उसका आपादन नो इए आपादन ही होगा. न कि अनिष्ट भापादन । अत: उपर्युक्त आगठन नग्यहीन है। हाँ, इतनी विशेषता उभयग्राहक ज्ञान और दर्शन में जरूर है कि तथाविध जीवस्वभाव में दर्शन विशेष को गण कर के ग्रहण करता है = अपमा विपय बनाता है, जब कि ज्ञान मामान्य को गीण कर के ग्रहण करता है। सामान्य को प्राधान्यन और विशेष को उपमनवन = गौण रूप से ग्रहण करने की बजह 'दर्शन सामान्यग्राहक हैसा प्रवाद प्रसिद्ध है । गचं 'ज्ञान विशेषग्राहक है' ऐसी प्रसिद्धि होने का कारण
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२६ मामग्यालादरम्य गण्डः ३ का..
मध्यभन दयानरक्षणप्रन्दानम * कावत - उत्मेिलितस्वग्राहकलयविषयत्वं मुख्यत्वं, तदविपरीतत्वमुपसर्जनत्वम् । ता | व विशेषग्राहकनयोन्मिललेनाऽपि कुतो न दर्शनोदय इति ताराम, जीवस्वाभाव्यादेव व्यवस्थोपपत्तेः। स मोअ सुगमनमोमिलनेन प्रवृत्ते दर्शनलक्षणगम, मुख्यत: सामान्यमात्रगाहकत्वस्यैव तल्लक्षणत्वादित्याः ।
- जयलता * अवग्रहम्याम्पष्टत्वेन नधानिशधानधग हंगन दाद्यस्य कालकिल्लापतिः । एनञ्च स्वविषय सदा वाद्य लक्षणोपमनत्वन स्वविषयावगाहनान्शानदर्शनयोग्णामाण्यापति: अवग्रहम्या प्रमाणल्यापत्ती तनवस्थाविद्रापाणामाहादानानण्यप्रामाण्यप्रसङ्गस्य न्यायप्राप्तत्यान । अना विपयनासम्बन्धन विषयनिष्ठं वैमा नापसनलं भक्तिमहनात्ययाशयः ।
अंच कपाश्चिन्मनं दृषयितनपन्यस्यनि - कचित्विनि, आहरित्यनेनान्वति । उन्मिलितस्वग्राहकनयविषयत्वं मुग्न्य त्वं तद्विपरीतत्वं = अनुम्मिलितस्वग्राहकनविषयत्वं उपसर्जनत्वम् । ननिटं उमिलिनत्वञ्च स्वविषय हणावगत्वर पं. ग्रहणप्रवृत्तविरक्षणं. प्रीभूनत्वका व ग्राह्यम । ज्ञानाविषय विशप दर्शनविषयाभूत च सामान्य एव उमिलिता य: स्वग्राहको नमः अभिप्रायविशेषग्यरूण: तद्विषयत्वलक्षणं मुख्यत्वं वर्नत एव । एवं नानगोचराभूत सामान्य दर्शनगोचरे विशेष चानुन्मिलिना यः स्वग्राहको नयः नडिपयललक्षणभूषजनत्यं वनंत। माता नाव्याप्त्यतिच्याप्त्यसम्भवसम्भवः । न च यथा सामान्यग्राहकनयोमिलनन दर्शनांदया भवति नथव विदोपग्राहकनयोमिलनेनापि = विशेषांशगोचरज्ञानजनकनन्यप्रकटनपि. कृती हेतो; न दर्शनोदयः भवनि : तत्यामग्रीमत्वादिनि वायम, जीवस्वाभाव्यांदव व्यवस्थोपपत्तेः । जाग्रस्य तथागत पर स्वभार. विशेषों गत सामान्यग्नाहकनपप्रादांव एव दर्शनमापजायन विज्ञपग्राहकनयस्फुरण न झानगय प्रादुर्भवति । एतेन सामान्य - ग्राहकनयोम्मिलनेनापि कुतो न आनात्मद इति समाहितम्, सामान्यबोधसच्च: पि विडोपचाधानुदयस्याउन्नुभविकत्वेन तस्य तदापक्षपकन्या योगाच । न च एवं = निलिम्चनाहक नविषयत्वस्य मृग्य, प्रमाणज्ञानेऽपि हनुगर्भ विशेषणमाह - युगपद्भयनयांन्मिलनेन प्रयने = पुरुषत्सा मान्यनिगाहकनयाविर्भावप्रवनत्वेन दर्शनलक्षणगमनं = दयनलक्षणा नव्याप्रि: ग्यात. यधामलितविशेषग्राहकनयपियत्वाश्रयविषयकन्न प्रमाणप ज्ञानत्वं नामिलितसानान्यग्राहकनयविषयत्वगालिम्पियकान्वन नरम दर्शनत्यमपि स्यादवनि वाच्यम्, मुख्यतः . उन्मिरितस्वग्राहकनविषमता सामान्यमात्रग्राहकत्वस्यैव = केवलं, मागन्य बागानन्यस्य , नलक्षणत्वात् = दर्शनमात्यात, मादन ज्यतन सामान्यग्राहकन्नं न दर्शनलक्षणमिति उपसर्जनत्व नहीं हो सकता, क्योंकि अवग्रहविषयीभूत मामान्य में नथाविध लक्षण्य का दर्शन = उपलब्धि नहीं होने से वह उपसर्जनत्ववाला नहीं हो सकेगा। वहीं ना कल्पनामात्र क हि वैश्य विषय बनगा 1 मतलब कि नादृश याद्य वहाँ कल्पित ही होगा, न कि वास्तविक । काल्पनिक वैशग में अचगृहविषयीभुत सामान्य में वास्तविक उपसर्ननत्व की सिद्धि नहीं हो सकेगी। फटन: उग मामान्य में अविद्यमान उपसर्जनत्वरूप से उसका अवगाहन करने में अवग्रह ज्ञाम भ्रमात्मक हो जायेगा । अतः वैशर को भी उपमर्जनत्व नहीं कहा जा सकता।
मिलिस्तानराविषय मुस्यात् हीं हो स # कचिन. । अन्य कुछ विद्वानों का यह वक्तव्य है कि सामान्य और विशेष में रहनेवाला मुख्यत्व मिलिन - प्रकट में स्वग्राहक नय की विषयताम्वरूप है और उपसजनल अनन्मिलित गर्म स्वनाहक नय की विपयतात्मक है । दर्शन के विषयभून मामान्य में प्रकट एम सामान्याहक नयविशए की त्रिपयत्तारूप मग्यत्व होता है और विशेष में अप्रकट एम शिंपग्राहक नयविशेष की विपयनारूप उपसनंनत्व रहता है। इसी तरह ज्ञान के विषयभूत विशेष अंश में जो उन्मिलित एसे विद्यपग्राहक नयविशेष की विपथना रहती है वही ननिय मुख्यत्व है और ज्ञान के विषयभुत सामान्य अंश में जो अनुन्मिलित ऐसे सामान्यग्राहक नयविशेष की विषयता रहती है वहीं तनिष्ट उपसर्जनत्व है। यहाँ प्रेमा प्रश्न हो कि => 'विशेषग्राहक = विशेषगंगाविषयक ज्ञान के जनक नविशेष का प्राकट्य होने पर ज्ञान की भाँति दर्शन का उदय क्या नहीं होता है?' <- नो इसका ममाधान यह है कि जीन का स्वभाव ही ऐमा है कि उन्मिदिनविशंपग्राहक नय के समय ज्ञान का ही उदय और उन्मिरिनसामान्यग्राहक नय के समय दर्शन का ही उदय हो । जीव का यह स्वभाव ही ज्ञान, दर्शन के उदय र अनुदय का व्यवस्थापक है । यहाँ एमी गड़ा हो कि –> 'एव माथ में सामान्य ग्राहक एवं विशेपग्राहक नय का प्राकट्य होने पर प्रमाणात्मक ज्ञान प्रवृन होता है, तब उसमें दर्शन के लक्षण की अतिव्याप्ति होगी, क्योंकि यह उन्मिालन सामान्यग्राहक है ही' <-- ना
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६२,
* कवरत्वेन ना पा सम्भवः * तरिता एवं सति केवलज्ञानदर्शनयो: सामान्यविशेषयोरुपसर्जनाउनुपसर्जनत्वानुपपत्या ताज्ञानदर्शनलक्षणाऽव्याः । न हि केवलिया संकासानिलिया सोम्मिलनानुमिलने सम्भवतः, अभिप्रायविशेषरूपस्य जयस्य छद्मस्थज्ञान एवोपयुक्तत्वात् ।।
-* Alrll *लम्यते । गुमाशाने तु मुख्यत्वन निशेषग्राहकल्पस्या:पि सन्चत्र मुरून्यत्वन सामान्यमा त्रग्राहकल्यम्वरूप दर्गनलक्षणं बर्तन इति न दर्शनलक्षगातिन्याप्तिः । या विशेषग्राहकनयान मिलनाबृनवीधत्वं दर्शनलनगं विशेपनाहकनयोन्मिलना वृनयोधन्न ज्ञानलक्षणं, नन न मात्रपदनिवेशगौरवम ।
समालोचयनि तचिन्न्यमिति । छायन्थिकागदपक्षमा प्रकृतलक्षणयों: समाचानचंग्यच्यापकत्वाचिन्ताबी जमाबंदयान - पवं सति = उन्मिरितस्यनारमनविषयत्वस्य मग्न्यत्वं विपरीतन्यग्य वापसजनवागन्यवगन्दगगां गांन, कंवलज्ञानदर्शनयां: सामान्यविशेषयाः = करस्नानदर्शनविपर्यानसामान्यचिगवांझायाः, उपमर्जनानुपमर्जनत्वानुपपन्या नत्र - कंवलकानदारांनाः. ज्ञानदर्शनलक्षणाव्याते: । कवलज्ञानविपर्याभृताच उन्मिदितम्यग्रहकनारपयत्वरक्षणमुख्यत्वम्य कंग्लज्ञानविषय भृतसामान्य चानुन्मिलितम्भग्राहकनायविषयत्ता पोपस जनावरपा प्रपत्चात विशयग्राहकनयामिलनाप्रपला पत्तागस्य सामान्यग्राहकनपानुन्मिलन - प्रवृत्तयो धत्वस्वरूपरय वा जानलक्षणस्य केवलन्नान व्याप्तिः । एवं कंबलदर्शनीवरीत मामान्य जन्मिालिनम्वग्राहकलाजपय - त्वात्मकमन्यत्वस्य विदात्र चानुन्मिलितम्यग्राहकनविषयत्वस्वरूपांगरा जगत्वस्य विरहात विरग्राहकनानुनिगलनग्रवनबंधनात्याकरण ग:मान्य ग्राहकनया मिलनाचनबाधत्वरवरूपस्य वा दानलक्षणस्य केवाइटदानाच्या मः । तामेत्र स्पष्टयत्ति न हि केवलिना मंवेदने क्रमकतग्प्रवृनिनियामक नयांन्मिलनानुन्मिलने सम्भवतः, अभिप्रायविटापरूपस्य नयस्य छद्मस्थज्ञान पापयुक्तत्या| दिनि । नयान्मितनं तदनुम्मिलन क्रमग ज्ञानदर्शनान्यनग्रनि व्ययम्धागयत: : परन्न नयम्याभिनायबिंदापम् पवना मनवाय
यह असंगन है, क्योंकि दर्शन का लक्षण केवल इतना ही नहीं है कि मुग्यत: सामान्यग्राहकांधत्व किन्नु मुख्यतः सामान्यमात्र का ग्राहक बांधन्य ही दर्शन का लक्षण है। प्रमाण ता सामान्य और विज्ञप दोनों का प्राधान्यन ग़ाहक है, न कि प्राधान्यन मामान्पमात्र का । अतः प्रमाण में दर्शन के लक्षण की अतिच्याति का अवकाश नहीं है <-।
तचिन्त्यम । मगर यह वक्तव्य भी ऑस्व मैंद कर बिना सोच ममता के उपादय नहीं है, किन्नु विचारणीय है । | इसका कारण यह है कि उमको मान्य करने पर केवलज्ञान में ज्ञान के लक्षण की एवं कवलदर्शन में दर्शन के लक्षण की अन्याप्ति आयेगी। यह इस तरह-केवलज्ञान विशेष का अनुपसर्जनत्व में और सामान्य का उपसर्जनत्वन ग्रहण करना है । फिर भी केवलज्ञानविषयीभूत विशेप में मिलितविशेपनाहयानविपयना नहीं होने में तत्त्वम्प मुग्न्यान्य नहीं है। एवं केवलज्ञानविपयीभून सामान्य में अनुमिलिनसामान्यग्राहक नय की विपयता नहीं होने में तस्वरूप उपमननन्य नहीं है। जबकि केवलज्ञानविषयीभूत सामान्य और विशेष में क्रमशः उपमनन्त्र और अनुपमनत्य ही नहीं है व उपमनान सामान्यग्राहकस्य एवं अनुपम नन्न विशेपनाहकत्वग्वरूप ज्ञान का लक्षण ही फंसे रहेगा ! अतः कंचनजान में ज्ञानन्नमण की अन्याप्ति आयगी 1 इस तरह केवलदर्शन के विषयभूत मामान्य में उम्मिलितगामान्यग़ाहक नय की रिपयनारवरूप मुख्यत्व एवं केवलदान के विप्पभूत विमाप में अनुन्मिलित विशेषगाहक नय की विपयनात्मक समजनत्व नहीं होने की वजह प्राधान्यन सामान्यमात्रग्राहकत्वस्यरूप दर्शनलक्षण ही नहीं रहेगा । अतः केवलान में भी दर्शन के लक्षण की अध्यामि प्रायगी । यहाँ यह शंका नहीं करनी चाहिए कि -> 'केवलज्ञाननिषयीभुन विशेप और कंबलदानविषयीभून सामान्य में उमिलिन खशाहकनय विषयता एवं केवलज्ञानविपर्याभून मामान्य और केवनदर्शन विषयीभूत विशप में अनन्मिदिनम्वग्राहकनयविषयता क्या रहता नहीं है ? <- इसका कारण यह है कि ऋमिक ज्ञान और दर्शन की प्रवृत्ति के नियामक नय के उन्मिलन आर अनुमिलन कलिगचंदन में नहीं होते हैं। नप नो अभिप्रायविडोपान्मक है। अनच छद्मस्या के ज्ञान में ही दृष्टिकोणविशेगात्मक नय का उपयोग होना है. कवली के ज्ञान में नहीं । अनः नय के जन्मिन्न और अनमिसन ग टिन अनुपसर्जनत्व आर उपमजनत्व: कचरतानदर्शन के विषयभूत भामान्यविशेष में नागमकिन हान म नदघाटन ज्ञानदर्शन के लक्षण भी कंबल ज्ञान और कवल दर्शन में नंगत नहीं हो सकने । अनः उपसर्जनत्व और अनुपमजनत्य की जादा व्याया ममाचीन नहीं है . यह फालन होता है। अन्य गति में भी उपभर्जनन्द और अनुपगर्जनल की निक्ति नहीं हो सकती है - यह हम अभी विवचन कर आये है । अत: उपसर्जनत्वेन मामान्यग्राहक को ज्ञान कहना और नाम नायन विटोप के ग्राहक का दर्शन कहना भी अमंगत है ।
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६२ मध्यमस्माद्वादरम् खण्ड ३
** ददसू
चाहु: - आभिमुख्येन ग्रहणं मुख्यत्वं तद्विपरीतत्त्वमुपसर्जनत्वम् । विषयप्रतिनियमस्तु स्वभावादेव, सामान्योपयुक्तो हि जीवः पश्यति विशेषोपयुक्तस्तु संविते इति । यद्यप्युपलिप्सोराभोगकरणमुपयोगः इति केवलितां तदसम्भवः तथापि चिन्तानिरोधाभावेऽपि कर्मदहनसामान्याद्यथा तेषां निश्चलता ध्यानमित्युच्यते तथा तेषाभाभोगकरणमुपलिप्सां विनाऽपि ॐ जयतता है
प्रत्यवोपयोगित्वं न तु केवलिबोध प्रत्यपि । अत एव नोमिलनानुमिलनघट ज्ञानदर्शन केवलज्ञानदर्शनयोः क्रमेण सम्भवतः जोन दुचे इति पूर्वपक्षादायः । अनभि
उत्तरपक्षत अत्राहुरिति । आभिमुख्येन = अभिमुखत्वेन ग्रहणं वो मुख्यत्वं तद्विपरीतं मुख बोधविषयत्वं उपसर्जनत्वम् । नागि दर्शनीय मुख्यत्वेन विशेषणं कुतो न ? इत्यादाइकायामाह विषयप्रतिनियमस्तु स्वभावादेव = जीवस्वभावविशेषादेन, प्राधान्येत सामान्योपयुक्तो हि जीवः पश्यति दर्शनवानित्यभिधीयते प्राधान्येन विशेषपयुक्तस्तु संवित्तं ज्ञानवानित्यभिधीयते । इपस्तु विशेषः केवली प्रथमं वित्तं ततः पश्यति जीवश्च
तिनो नाति तथास्वायादेव । उपसर्जनानु सर्जनत्ययाः प्रकृतलक्षणं नोमिलनाज्नुमिनापदितत्वेन केवलस्थ भयज्ञानदशनविषयनिष्ठ इति न वाऽपि ज्ञानदर्शन क्षणाच्या मुख्यत्वेन विशेषग्राहकत्वस्य ज्ञानलक्षणत्वात् उपसर्जनचेन विशेषग्राहकत्वस्यैव दर्शनलक्षणत्वात् । एतेन युगपन्मुच्यत्वेन सामान्यविशेषग्राहक प्रमाणज्ञाने दवनिलक्षणा: तिच्यामिगरी प्रत्युक्ता, उपसर्जनत्वन विशेषग्राहकत्वति । त्रपदानिवेदन लावलपि । अत एव मुख्यत: सामान्यनात्र ग्राहकत्वमेव दर्शनलक्षणमित्यपि प्रत्युक्तम्, मुख्यत्वेन सामान्यग्राहकत्वं सति तदिताहरूसितस्य तस्य गुरुत्वात् ॥ यद्यपि उपलिप्सोः = भु: अभीगकरणनुपयोग इति वादिदेवसूविचनात केवलिनां उपलिप्यारहितत्वेन तदसम्भव: - उपलिप्साप्रयुक्ताभोगकरणलक्षणोपयोग सम्भवः तथापि चिन्तानिरोधाभावेऽपि कर्मदहनसामान्यात् उपलक्षगात पूर्वप्रयोगादितः यथा नेपा भवस्वनि निश्चलता = कायसुनिश्चलत्वं ध्यानमित्युच्यतं । तदुक्तं श्रीजिनभद्रगणिभिः शतक 'जह उत्थस्य भागों झाणं भण्ण्ड सुनिचली गंतां । तह केवलियां काओ, सुनिचली भण्णा झाणं ।। पृच्चपगओ चित्र कम्मरिणि करता याव । सत्यहुन्नाओ तह निणचंदागमाओं य ।। चित्ताभावेवि गया सुहुम वरयकिरिया भांति 1 जीवांवओगसमावओ भवत्वस्य झागाई ८४-८५-८६ ।। सीपयोगित्वात् श्रीमाणिक्यशेखरसूरिकृतव्याख्या प्रदर्शते । तदुक्तमावश्यकदीपिकायां यथा सुनिश्चलं ननः स्वस्थ ध्यानं तथा केवलिनः सुनिलकायो ध्यानं भण्यत. तु तु ध्यानं रुद्रत्वात्काययोगोऽपि नास्ति ॥ ८४ ॥ तत्र तु ध्यानमेव काययोगरोधियोगिनी योगिनी या चिताभावेऽपि सनि
-
=
=
=
उपसर्जनत्व का राग्यम् निवर्तन
उत्तरपक्ष :- अत्राहुः । वस्तुतः मुख्यत्व का लक्षण है अभिमुखतया बांध की विपयता और उपसर्जनत्व का लक्षण हैं अनभिमुखतया बोध की विषयता आभिमुख्येन ज्ञान की विपयता विशेष में रहने से ज्ञान की अपेक्षा विशेष में अनुपसर्जनत्व रहेगा और सामान्य में अनभिमुखत्वेन ज्ञान की विपयता रहने की वजह ज्ञान की अपेक्षा सामान्य में उपसर्जनत्व रहेगा। एवं अभिमुखन दर्शन की विपयता सामान्य में रहने से दर्शन की अपेक्षा सामान्य में अनुपसर्जनत्व रहेगा और विशेष में अनभिमुखत्वेन दर्शनात्मक बांध की विपयता रहने से दर्शन की अपेक्षा विशेष में उपसर्जनत्व रहेगा । यहाँ यह शा नहीं करनी चाहिए कि 'ज्ञान का उदय होने पर सामान्य में क्यों प्राधान्येन ज्ञानात्मक बोध की विपयता होती नहीं है : एवं दर्शन का उदय होने पर विशेष मे प्राधान्य से दर्शनात्मक क्षेत्र की विपयता क्यों नहीं होनी है ? इसका कारण यह है कि जीव का स्वभावविशेष ही प्रतिनियत विषय के नियम का नियामक है । प्रधानतया सामान्य में उपयुक्त जीव दर्शनवाला कहा जाता है एवं मुख्यत्वेन विशेष में उपयुक्त जीव ज्ञानवाला कहा जाता है। अलबत उपयोग का लक्षण है उपदिनु
=
जिज्ञासु का आभोगकरण । अतएव केवली के ज्ञान एवं दर्शन में उपयोग का लक्षण ही नहीं घटेगा, क्योंकि केवली उपलिप्सा = जिज्ञासा से रहित होने से जिज्ञानाप्रयुक्त आभोगक्रियात्मक केवलज्ञान या केवलदर्शन होना नहीं है। फिर भी केवली में उपलिला जिज्ञासा के बिना हि आभोगक्रिया उपयोगविया अभिमत है, क्योंकि वह बोध सामान्यात्मक है । यह टीक उसी तरह राहत होता है जैसे केवली में चिन्तानिरोधस्वरूप ध्यान नहीं होने पर भी केवलिकाया की निचलता ही ध्यानविधया शास्त्रकारी की अभिमत है, क्योंकि ध्यान का कर्मनिर्जस्वरूप कार्य तो तादृशारीस्थिरता में भी होता ही है। अतः उपलिप्सा
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आवश्यकदापिकासंघानः * संवितिसामान्यादुपयोग इत्युच्यत इति न कोऽपि दोषः । अत एव ग्रहणपरिणामस्योपयोगप्रति- | पाद्यताऽविशेषतः तत्र तत्र सहगच्छते ।
नन तथापि वस्त्तनशिलाप्यमेवेत्येकान्त: कान्त:, शब्दात स्वलक्षणप्रतिपत्त्यभावात, शब्दार्थयोर्वास्तविकसम्बन्धाभावाद विकल्पजननेनैव शब्दस्य कृतार्थत्वात् । अत एव शशविषाणपदापि वैकल्पिकार्थप्रतिपत्तिनिराबाधा । न हि शशविषाणादिपदमबोधकमेव,
Pos जयललता सूक्ष्मापरतक्रिय ध्यानभेदी भण्यते, पूर्वप्रयागादिति हेत:. चक्रभ्रमवदिनि दृष्टान्नोऽन्यूहाः, गधा चक्रं. भ्रमहतुदण्डादिक्रिया भाषेपि पूर्वप्रयोगाद भ्रमति तथा:स्य द्रव्यमनोयोगांगरंभ:प्यात्मोपयोगसनावात भयमनोभावाद्भवधिभ्याने इति । अपि निर्णय हेत्वन्नगण्याह. 'कम्मवि' पधा क्षपकग्रेणी कर्मनिर्जराभावान ध्या तथा वापि । 'सहत्व ध्यानशब्दस्याउबहत्त्वात, यथा हरिदान्दानकार्थः तथा ध्यानशब्दोऽपि, ‘ध्ये चिन्तायां', 'ध्ये कार्यानरोध अयागिन्,' इत्यपि । तथा जनचन्द्रामाजिनांक्तवादित्यर्थः । जीप. योगसद्भावतः सदहजीवज्ञानभावद्भवस्थस्य ध्याने स्तः ||८-८६|| (आ.दी. पृ.६ तथा तेषां - केवलिन आभोगकरणं उपलिप्सा विनाऽपि संवितिसामान्यात = बोधसागान्यत्वान, उपवांग इत्युच्यते इनि न कोऽपि दोप: उपलिप्साया: छद्मस्थापांगलक्षण एवं प्रवेशात् यद्वा अपलिप्साया: नत्र उपलक्षगत्वं न तु विशेषणमित्यतापिनदीप:च्यावर्तका लक्षण प्रवेशसम्भवादित्यादिकमहनीयम् । तदव समर्थयति । अत एव = संविनिसामान्यत्वस्मयोपयोगलक्षणत्वात्, ग्रहणपरिणामस्य = बोधररिणामस्य, उपयोगपदप्रतिपाद्यता अविशेषतः = सामान्यत:. विपणविनिर्मुक्तत्वनति यावत्, तत्र तत्र बलविशेष सङ्गच्छत इति । उपलिप्साया उपयोगसामान्यलक्षणप्रवेशे तु एकन्द्रियादिज्ञानादावपि नाटक्षणाव्याप्तिः सुरगुरुणाऽपि पराकत न शश्यति ध्येयम् ।
बौद्धमपक्षिपति - नन्विति । चदित्यनेनास्यान्चयः । तथापि = निरुक्तगत्या वस्ततः सामन्यनिशेषोभयात्मकत्वपि, वस्तु = वस्तुमात्रं, अनभिलायमेव = शन्दानानगर, इमोजातः कालः त्वभिलाग्यानभिलाग्यांभयात्मकमित्यनेकान्तः. शब्दात् = शब्दमबलम्ब्य, स्वलक्षणप्रतिपत्त्यभावान वस्तुत्वावनिन्नम्य स्वलक्षणवान तन शब्दमझतामाभवान. पत्र हान्दसनः क्रियते तस्य स्वीपादानन्तरमेव विनष्टत्वान, शन्दप्रयोगकालं सर्वधा नद्भन्नस्यत्र सन्चात् इदमेवाह . शब्दार्थयों: वास्तविकसम्बन्धाभारात् । अर्थमृतेऽपि धावत बाला: : नद्यास्तीन फलानि सन्नी'त्यादिरूपस्य शब्दप्रयोगस्य दनादप म तयोः मत्यः सम्बन्धः ! तहि कथं ततो बांधः तदचोंधे या कथं न शब्दस्य बफन्पमित्ताशङ्कयामाह - विकल्पजननेन = हान्दानुपातिवस्तृशून्यकल्पनोत्पादनन, एव शब्दस्य कृतार्थत्वान् = चरितार्थत्वात् । दाब्दविकल्पयोरेच वस्तुनः कार्यकारणभार:. तदुक्तं 'विकल्पयानयः शन्दा: विकल्पा: शब्दयोन्यः । कार्यकारणना तेषां नाथं शन्दाः स्पृशन्त्यपि || ( ) इति ।
अत एव = शब्दस्य काल्पनिकार्थबोधनत्यादव, शशविपाणपदादपि वैकल्पिकार्थप्रतीतिः = कल्पितार्धगोचरमतिः, निगवाधा । शब्दार्थया: वास्तविकसम्बन्धस्य मन न शशनिपाणदजन्यप्रतानि वामपन. नद्वान्यस्य वास्तविकरमार्थस्य विरहान । न च दाशविषाणपदस्यायसम्नद्भवादनाधकल्यमंति वाच्यम, यता न हि शवविपाणादिपदमबोधकीच, व्युत्पन्ना
के विरह से केवलज्ञान और कंबलवान गं उपयोगलक्षण को अच्याप्ति का उद्भावन नामुनासिव है, क्योंकि आभोक्रिया ही उपयोग है । इसलिए ना शाखों में अनेकशः ग्रहणपरिणाम का ही उपशंगशन्द में प्रतिपायविधया सामान्यतः चलख किया गया है, वह मङ्गत हो सकता है। यदि उपलिसा का निवेश उपयोगसामान्यलक्षण में प्रवंश आवश्यक हो तर ता तथाविध शास्त्रवचन भी अनुपपन्न ही रह जाते । अतः आभोगपरिणाम ही उपयोग का लक्षण है - यह फलित होता है ।
INDIन्यता: दाऽवाच्य है. कदा बौद्ध: । ननु त । भले ही वस्तु आपक सिद्धान्न में सामान्य-विशेषांभ्यान्मक हो, मगर -> 'बस्तु अभिलाय. अनभित्लाप्य उभयात्मक है - गा अनेकान्त डाक नहीं है । उचित तो यहा है कि वस्तु अनभिसाप्य ही है - पंगा एकान्नवाट माना जाय । इसका कारण यह है कि सर्व वस्तु स्खलक्षणात्मक यानी स्वेतरमकल से विलक्षण है 1 कोई भी चीज अन्य किमी पीज के सदृश नहीं ही होनी है । अतः शब्द में स्वलश्रण में कैसे मंकनज्ञान हो सकता है ? वस्तु मात्र क्षणिक होने से जिसमें संकन किया गया है. यह नष्ट हो गई है एवं अन्य चीज तो उसके सदृश ही नहीं है। अतः सन्द में स्वलनपा का बोध हो सकता नहीं है । वस्तुस्थिति ना यह है कि शब्द और अर्थ के बीच कोई सत्य सम्बन्ध ही नहीं है। शन्द ना केवल विकल्प = अर्थाशरकल्पना की उत्पन्न करने से ही चरितार्थ हो जाता है। शब्द से अर्थाकार
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६३ : मध्यमस्याद्वाद्वरहस्ये खण्डः ३ का ५
* अपदार्थबाधभिः
व्युत्पन्नाऽव्युत्पन्नौ प्रति ततो बोधवैचित्र्यदर्शनात् । 'विषाणे शशीयत्वं नास्ति' 'शशविषाणं नास्ति' इति प्रतीत्योर्वैलक्षण्याच्चेति चेत् ? को, शब्दादविकल्पप्रतिपत्तावपि प्रवृत्तिप्रतिनियमाऽसम्भवात् ।
अथ शब्दाद् विकल्पं प्रतिपद्य ततो दृश्यविकल्पा (त्या) र्थावेकीकृत्य नियमत: प्रवर्तत इति चेत् ? कोऽयमेकीकारः ? अभेदो वा ( 9 ) सादृश्यं वा (२) मिथः संसर्गो वा (३) १ न त्रितयमपीदं विकल्पादुपजायते, भिन्नानामसदृशानां मिथोऽसंसृष्टानां चाऽभेदसादृश्यमिश्र:
% जयलता
अपने क
=
शादिपदात् बोधचित्र्यदर्शनात् बोधे नानात्वस्योपलब्धेः । शशविषाणादिपदं श्रुत्वा sव्युत्पन्नी प्रति ततः = व्युत्पन्नस्य सखण्डकाय प्रतीतिजपितेऽन्युत्पन्नस्य चाखण्याकरिति विशेषः । एवन्ध्यासु यानि खपुष्पकृतशेखरः । शशशृङ्गधनुर्धारी, ब्रह्मचारिवितासुतः । - इत्यादिवाक्याद्युत्पन्नान्युत्पन्नधर्बोधवचित्र्यं प्रसिद्धमेव । तथाहि शाविपाणं | नास्ति' इति वाक्यात व्युत्पन्नान्युत्पन्नयो: 'विपाणे शशीयत्वं नास्ति' 'शशविषाणं नास्ति 'ति प्रतीत्योः वैलक्षण्याच लक्षण्यस्य सिद्धत्वाचेति वाशयः ।
=
काल्पनिकार्यप्रतिवदेन प्रकरणकारः तभिराकुरुते नेति शब्दात् = शब्दं श्रुत्वा विकल्पप्रतिपत्तावपि प्रतीतिस्वाकारेऽपि प्रवृत्तिप्रनिनियमाऽसम्भवात् = वृत्ती नयत्यस्याःसम्भवात् । हृदयस्य पारमार्थिकस्यार्थस्य स्वलक्षणात्मकस्य शब्देनाऽप्रतिभासनात् प्रतीत वैकल्पिकेऽर्थे च प्रवृत्यसम्भवान्न प्रतिनियतेऽर्थे प्रवृत्तिः सम्भवतीति तात्पर्यम् । शब्द सांगत: स्वाभिप्रायमाविष्करोति अथेति । शब्दात् विकल्प वैकल्पिकार्थं प्रतिपय तदनन्तरं ततः विकल्पात् श्रोता दृश्यविकल्पार्थी =यार्थीवकल्यगोचरार्थी नियमत: व्यामितः एकीकृत्य प्रवर्तते । वैकल्पिकार्थप्रतिभासस्य दृष्यार्थं विनाऽनुपपते: चैकल्पिकार्थं दृयार्थेन साकं विकल्प एकीकरोति । ततो येन दृइयान सम विकल्पितार्थी विकल्पनैकीकृतस्तत्रैव दृश्यार्थे प्रवृत्तिरिति शब्दात्कल्पितार्थप्रतिमान प्रवृत्ती नियत्सङ्गनिर्मित शुद्धोदनितनयाभिप्रायः ।
= ज्ञाता,
श्रुत्या,
-
=
-
=
=
सुगनकदाग्रहज्वरं मन्त्र-यन्त्र-तन्त्रत्रिकरसभागोचविकत्रितयेना पाकर्तुमुपक्रमते कोऽयमंकीकारः । दृदयविकल्पितार्थीरेकीकरणं किं अभेदो वा सादृश्यं वा मिथःसर्वो वा ? न वितयमपीदं तयो: विकल्पादुपजायते । भिन्नानामिति । विकल्प होने से बाहर अर्थ की सिद्धि होनी नहीं है । शब्द और अर्थ के बीच व्याप्यव्यापकभाव नहीं होने से ही तो शशविषाण आदि पद से भी वैकल्पिक काल्पनिक अर्थ की प्रतीति निराबाध हो सकती है । जगत में शशशृह नहीं होने पर भी शशु पत्र से कल्पितार्थ की प्रतीति होती ही है । अतएव शशविषाणादि पत्र को अवोध तो नहीं माना जा सकता । व्युत्पन्न व्यक्ति एवं अव्युत्पन्न व्यक्ति को शशविषाणादि पद से चित्र अनुभवसिद्ध ही है। 'विषाण में शीयत्व = शशसम्बन्धित्य नहीं है? ऐसे व्युत्पन्न पुरुष की होने वाले 'शशविपाणं नास्ति' वाक्यजन्य बोध एवं अच्युत्पन्न पुरुष को होनेवाले 'विपाण नहीं है' ऐसे बांध में भी वैचित्र्य प्रसिद्ध ही है। अतः 'वस्तु एकान्ततः शब्द से अनभिलाप्य ऐसा एकान्तवाद ही रम्य है ।
= अवाच्य है
=
=
-
は
इस बौमत में शब्द मे प्रतिनियत प्रवृत्ति की अनुपपत्ति
स्याद्वादी :- न श । जनाब ! आपका यह वक्तव्य समीचीन नहीं है, क्योंकि शब्द और अर्थ के बीच सम्बन्ध वास्तविक है। फिर भी आपके मतानुसार शब्द से विकल्प वस्तुशुन्य अधकार कल्पना का स्वीकार किया जाय तो भी प्रवृत्ति के नैयत्य की अनुपपत्ति होगी, क्योंकि बाहर दृश्य पदार्थ अलग है और काल्पनिक अर्थ अलग है । कल्पित ज का भान होने पर दृश्य = वास्तविक अर्थ में प्रवृत्ति हो सकती नहीं है । यदि बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि --> शब्द से तो कल्पितार्थाकारवाला विकल्प ही उत्पन्न होता है । बाद में विकल्प से व्यामि के सवव दृश्यार्थ और विकल्पार्य तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि बीद्धसम्मत दृश्य ए कल्पित अर्थ का एकीकरण क्या है ? उसका ही सम्यम् निर्वाचन हो सकता नहीं है । एकीकरण को (१) अभेदात्मक या (२) सादृश्यस्वरूप या (३) परस्पर संसरूप नहीं माना जा सकता, क्योंकि ये तीन विकल्प से उत्पन्न हो मकते नहीं है। दृश्य अर्थ और कल्पित अर्थ सर्वथा भिन्न होने से विकल्प से उनके बीच अभेद करना नामुमकिन है । वे परस्पर सर्वा असदृश विलक्षण होने से विकल्प उनके बीच सादृश्य का आपादन करने में असमर्थ है। एवं वे परस्पर सर्वथा असम्बद्ध
कल्पितार्थं को एक कर के श्रोता प्रवृत्त हो सकता है
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सुगतसम्मतविकल्पिताकतयः
संसर्गाणामुपायसहस्रेणाऽपि कर्तुमशक्यत्वात्, अन्यथा जगद्व्यवस्थाविप्लवात् । दृश्यविकल्पार्थयो: तत्प्रतीतिरर्रापे न विकल्पाधीना, दृश्यस्य विकल्पाऽस्पर्शित्वात्, संहृतसकलविकल्पावस्थायामेव तत्प्रतिभासात् ।
किय, उत्पत्त्यनन्तरापवर्गिणो वस्तुनः कथमेकीकरणं युज्यते ? 'विकल्पितयोरेवैकीकार' * जयलता *
यथाक्रममग्रेऽन्वयः । तथाहि हृदयार्थानां पारमार्थिकत्वात् कल्पितार्शनाचा पारमार्थिक भिन्नानां तेषां न विकल्पादभेदः कर्तुं शक्यते न वाऽसदृशानां तेषां सादृश्यमपि विकल्पः कर्तुं क्षमः । दृश्यार्थानां वरिवस्थितत्वात् विकल्पितार्थानां चान्तःप्रतिभासमाधत्वात्परस्परमसंसृष्टानां तपां न मिश्रधातुं विकल्पः प्रत्यः । विश्रवाधमाह अन्यदेति । भिन्नान् सदृशाःसंसृष्टानामभेदसादृश्यमिश्रः सम्बन्धकरणं जगद्व्यवस्थाविष्टत्वात् घटपाटन स्वलक्षणानां विन्ध्यहिमाचलादीनामपि क्रमेण नप्रसङ्गेन प्रसिद्ध दुव्यवरोच्छेदापन्नः प्रकरणाकरः प्रकारान्तरेण तदेकीकरणासम्भवमुद्भावयति दृश्यविकल्पार्थयोः तत्प्रतीतिः = अमेदादिप्रतीतिः अपि न विकल्पाधीनादाब्दजन्यकल्पनी पजीविका, दृश्यस्य = पारमार्थिकस्यार्थस्य विकल्पाऽस्पर्शित्वात् विकल्पा गोचरत्वात् । अनापि हेतुमाह संहतसकलविकल्पाऽवस्थायां = विकल्पमात्ररहितदशायां एवं तत्प्रतिभासात् • दृश्यार्थप्रत्ययात् इति । बौद्धसिद्धान्तं यावद्विल्य एवं प्रतीतिः प्रतिपादित ननी यस्यार्थस्य विकल्पाविपयत्वमंत्र । तथा च कथं तदग्राहिणा विकलन हृदयविकल्पितार्थानामभेदादिप्रतिभासः सम्भवेत् ? न हि घटाग्राहकना:ववमेन घटकुम्भाभेदस्य घटशरावसाहृदयस्य भटारण्यसंसर्गस्य वा प्रतिभास: सम्भवति । अती विकल्पेन तदमेदाद्यसम्भवान | तदेकीकरणसम्भव इति शब्दाद विकल्पितार्थमानं प्रतिनियतप्रवृत्त्यसम्भवदीपादवस्थ्यमेवेति प्रकरणकृदाकूतम् ।
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प्रकारान्तरेण दृश्यविकल्पितार्थयोरकीकरण मरहस्यति किञ्चेति । गंमत सदस्य अणिकत्वव्यापीन उत्पत्त्यनन्तरापवर्गिणः उत्पतिक्षणाऽनन्तरांतम्भणे ध्वंसशीलस्य वस्तुनः कथं विकल्पेन एकीकरणं युज्यते ? तावन्तं काले वस्तुन श्वासत्त्वात् । न चोत्पनिक्षण एवं तदेकीकरणमिति वक्तव्यम्, नदानी स्वत्तावेव व्यग्रत्वेनास्यादनार्थयाऽतिशयत्वात् । | मायावाद्याह - विकल्पितयोः अर्थयोः एव विकलीन एकीकारः, न तु दूयरिकल्पितार्थयोरिति नानुपपत्तिरिनि बोधिसत्त्वानुयायिन
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૬૬
होने की वजह विकल्प उनका सम्बन्ध कराने में भी शक्तिमान नहीं है। यदि सर्वश्रा भिन्न में विकल्प से अनंद हो जाय या असदृश में मादृश्य हो जाय या असम्बद्ध का सम्बन्ध बन जाय तब तो जगत की व्यवस्था का ही विदोष हो जायेगा। अतः विकल्प से दृश्य और विकल्पविषयीभूत काल्पनिक अर्थ का एकीकरण असम्भवित है । दूसरी बात यह है कि इश्यार्थ और विकल्पविपयीभूत अर्थ के अभेदादि की प्रतीति भी विकल्प के आधीन नहीं है, क्योंकि पारमार्थिक दृश्य अर्थ तो विकल्प को छूता भी नहीं है । जब सकल विकल्पों का उच्छेद हो जाता है उसी अवस्था तात्त्विक अर्थ का भान होता दृश्य है, न कि विकल्पावस्था में । अतः एक काल में दृश्य अर्थ और विकल्पगोचर अर्थ की एक विकल्प से प्रतीति ही नहीं हो सकती, तब उन दोनों का एकीकरण विकल्प से कैसे हो सकेगा ? अपने अविषय में तो कोई भी कुछ भी नहीं कर सकता । इस तरह दृश्य और निकल्पित अर्ध का एकीकरण विकल्प से नानुमकिन होने की वजह शब्द से प्रतिनियत प्रवृति की उपपत्ति नहीं हो सकती है ।
में
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★ अर्थ में एकीकरण नामुमकिन
किख । इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि बीद्धमत में सभी पदार्थ क्षणिक होने से उत्पत्ति के अनन्तर उत्तर क्षण में ही सर्वधा विनम्र हो जाते हैं तब तो दृश्य और विकल्पित अर्थ में एकीकरण कैसे शक्य होगा ? यदि यहाँ बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि दृश्य और विकल्पित अर्थ में विकल्प से भले ही एकीकरण न हो सके । किन्तु विकल्पित अर्थ और विकल्पित अर्थ में तो विकल्प से एकीकरण हो सकता है और वैसे भी शब्द से प्रतिनियत प्रवृत्ति की उपपत्ति हो मकती है तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि विकल्पित अर्थ भी चिरस्थायी कैसे हो सकेंगे? वक्ता शब्द का प्रयोग करता है, बाद में श्रोता सुनते हैं, बाद में विकल्पित अर्थ का बोध होता है और बाद में तत्रियक उच्छा और प्रयत्न होते हैं, बाद में प्रवृत्ति होती है। तब तक विकल्पित अर्थ स्थिर ही नहीं रहते हैं। तब उनमें प्रवृनि डी कैसे हो सकेगी ? अतः बौद्धमत में शब्द से प्रतिनियत प्रवृत्ति अनुपपन्न ही रहेगी ।
शब्द और अर्थ के बीच वास्तविक सम्बन्ध मुमकिन
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६३२ मध्यमस्याज्ञादन्ह खण्ड ३ का. ५.
* बृहत्कल्पभाष्यसंवादः
इति चेत् ? तयोरपि कथं चिरस्थायिता ? शब्दार्थयोर्वास्तिविकसम्बन्धं विना च कथं शब्दश्रवणादर्थस्मरणम् ? अत्र हि एकसम्बन्धिज्ञानादपर सम्बन्धिस्मरणमिति स्थितिः, हस्तिपकज्ञानाधस्तिस्मरणवत् । तादात्म्य- तदुत्पत्तिभ्यामन्यः सम्बन्धो न वास्तविक इति तु स्वाभिमानविजृम्भितम् । सम्बदव्यवहारजनकतया संयोगादीनामपि पारमार्थिक सम्बन्धत्वात्, अन्यथा ॐ गयलता है
आशयः । प्रकरणकारः तन्निरस्पति तयोः विकल्पितार्थयोः अपि कथं चिरस्थायिता ? प्रथमं जानाति, नत इच्छति, ततो यतनं, तदनन्तरं प्रवर्तत इति न्यायात् विकल्पितार्थयोरपि प्रवृत्त्यर्थं जघन्यतः चतुः सभयावस्थायित्वमपेक्षितम् । विकल्पेन स्वगोचरविकल्पितार्श्वयोरकीकरणंऽपि क्षणिकलेन प्रवृत्तिपर्यन्तमस्थायित्वान्न तत्र श्रनुप्रवृत्त्युगतिः । न च विकल्पितार्थस्याऽपारमार्थिकत्वेन न क्षणिकत्वमिति वाच्यम्, तथापि शब्दात् शशविषाणादिवत तत्र प्रवृत्यनुपपत्तेस्तादवस्थ्थ्यात् ।
यचोक्तं क्षणिक्रवादिना ‘शब्दार्थयोर्वास्तविकसम्बन्धानावादिति तन्मनसिकृत्याह शब्दार्थयोः वास्तविकसम्बन्धं | विना च कथं शब्दश्रवणात् शब्दश्रवणमवलम्ब्य अर्थस्मरणम् ? यथा धूमं दृष्ट्वा न कस्यचित्समुद्रादेः तदसम्बन्धिनः न जायते किन्तु धूमध्वजस्यैव तत्सम्बन्धित्वात् । असम्बद्धस्याऽपि स्मरणं त्रैलाकुपान्तर्गतसकलार्थजानगोचरस्मरणापतेः । एवमेव शब्दश्रवणादपि प्रतिनियतार्थस्मरणान्यधानुपपत्तेः शब्दार्थयोवस्तिविकः कश्चित्सम्बन्धोऽवश्यम सुपथः, अन्यथाऽश्रुतदृष्टानुभूनार्थगोचरस्मरणापतेः असम्बद्धत्वाऽपि नाधिकसरित्याशयेनाह अत्र - शब्दश्रुतेस्मरणस्थळे, हि निश्चितं एकसम्वन्धिज्ञानात् अर्थसम्बन्धित्वेन शब्दज्ञानान अपरसम्वन्धिस्मरणं अर्धस्मरणं उति स्थितिः, हस्तिकज्ञानाद्धस्तिग्मरणवदिति । ततः शब्दार्थयोः पारमार्थिकः सम्बन्धः सिध्यति ।
ननु शब्दार्थयोः किं तादात्म्यं तदुत्य संसवनाऽभिमन्यते । इति पद्मद्धनिर्गतरङ्गासिन्धुवत् सुगतसंज्ञानसरीचिनिगतनिर्मल विकल्पना युगली समुपतिष्ठते । नात्राऽन्याऽनवद्या क्षुद्रादिशब्दों वारमुखच्छेदादिप्रसङ्गान् । तदुक्तं सङ्घदासगणिअमाश्रमणैः बृहत्कल्पभाष्ये 'खुरअग्निमीय चारणमिम्बरणसराणं । नवि ओ नविदाही पण पुरणं तेण भिन्न तु ॥ (इ.क.भा. ५८) । नाऽपि द्वितीया श्रदक्षमा शब्दस्यार्थजनकले विश्वदारिद्र्यापतात. अर्धस्य शब्दजनक दादा कोलाहलासङ्गात् करभसरमाद्यर्थजातस्य सर्वदा जगति सच्चात् । न च ताभ्यामन्यः कचित्सम्बन्धः कयोश्चिदपि वर्तत इति विशेषकूदासम्भवेन सामान्याभावसिद्धे नर्थिशब्दयोररित कश्चित सम्बन्धी वास्तविक इत्याशङ्कां चेतसिकृत्या प्रकरणकारः - तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्यां अन्यः सम्बन्धी न वास्तविक इति तु स्वाभिमानविजृम्भितम् = सौगनमिध्याहङ्कारमात्रविलसितम् । अपन हेतुमाह- सम्बद्धव्यवहारजनकतया = सम्बद्धत्वप्रकारकधव्यवहारयोः संसर्गविधवा जनकलेन संयोगादीनामपि पारमार्थिकसम्बन्धत्वात् । यथोत्तरक्षणं पूर्वक्षणोत्पाद्यनधीव्यवहारजनकतया पूर्वोत्तरक्षणयोः तदुत्पत्तिसम्बन्धः पारमार्थिकः
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या इति । इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि शब्द और अर्थ के वीच वास्तविक सम्बन्ध ही न हो तो शब्द को सुन कर लोगों को अर्थ का ज्ञान कैसे हो सकता ? जैसे पीलवान का ज्ञान होने पर तत्सम्बन्धी होने की वजह हस्ती का स्मरण होता है ठीक वैसे ही शब्द का श्रवण होने पर तत्सम्बन्धी होने की वजह अर्थ का स्मरण होना है । एक सम्बन्धी का ज्ञान अपरसम्बन्धी का स्मारक होता है। शब्द से अर्थ का स्मरण होने की वजह अवश्य उनके बरीच वास्तविक सम्बन्ध को स्वीकार करना चाहिए । यहाँ बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि 'शब्द और अर्थ के बीच नादात्म्य सम्बन्ध मानने पर तो मोदकशब्द के उच्चारण से ही मुँह लड़ से भर जायेगा और अभिपद को बोलने पर मुख में दाह होने लगेगा । यदि उनके बीच तदुत्पत्ति सम्बन्ध माना जाय तो शब्द को अर्थजनक मानने पर लक्ष्मीपत्र को बोलने से लक्ष्मी पेदा हो जायेगी, बाजार में जाने की जरूरत नहीं होगी । एवं अर्थ को शब्दजनक मानने पर सदा कोलाहल ही होता रहेगा, क्योंकि इस जगत में अर्थ तो विद्यमान रहते ही हैं। इस तरह उनके बीच न तो तादात्म्य सम्बन्ध माना जाता है और न तो तदुत्पत्ति सम्बन्ध माना जा सकता है । इन दो सम्बन्धों से अतिरिक्त तो अन्य कोई सम्बन्ध है ही नहीं । अतः शब्द और अर्थ के बीच कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं है तो यह वी मनीषियों के अभिमानमात्र का ही विलास है, क्योंकि संयोग आदि भी सम्बद्ध व्यवहार के जनक होने की वजह पारमार्थिक है । यदि सम्बद्धत्वप्रकारक व्यवहार का जनक होने पर भी संयोग आदि को पारमार्थिक सम्बन्ध न माना जाय तब तो हम यह भी कह सकते हैं कि तदुत्पत्तिनामक कोई सम्बन्ध ही पूर्वोतर क्षणों के बीच नहीं है, भले ही उनके बीच जन्यत्वादिप्रकारक व्यवहार हो, तब बौद्ध महाशय क्या
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* त्रिगणनमंचाद: * विपर्ययस्यापि सुवचत्वात् ।
स्यादेतत् - एवं सति सङ्केत एव शब्दार्थयोः सम्बन्ध: स्यान्न त शक्तिः, गृहीतसकेतादेव पदार्थस्मरणादिति चेत् ? का प्रकरणाभिव्यक्तक्षयोपशमानों केषाचित् सहतमहं विनाऽपि पदादप्रत्ययात् । सङ्घतो हि तपश्चरण-दान-प्रतिपक्षमाबजावज्ज्ञानावरणक्षयोपशमाणिव्यव
गरालय त्ययेष्यते तद्य संयक्तघटावादी मबद्धत्वप्रकारकाव्यवहारजनकतया तयाः संयोगः पारमार्थिकः । स्वीकर्तव्यमिति भावः । विपक्षबाधमाह- अन्यथा = तथाविधीब्यवहारजनकत्वेऽपि संबोगस्यापारमार्थिकचापगम, रिपर्ययस्याऽपि = 'तादात्म्यसंयोगाभ्यामन्यः सम्बन्धन पारगार्थक' इत्यस्यापि, सवचत्वात, समाधान नभयत्र नुल्यम, 'यचीनीः समां दोषः परिहारस्तयोः समः' इनि बचनात् । तरमानदात्म्यन्दत्पत्तिभिन्नानामपि संयोगादीनां पारमार्थिकसम्बन्धमानमेव । न च तथापि शब्दार्धयोः संयोगस्य वाधः 'व्ययाः संगांगः' इति वचनादिनि वाच्यम्, शक्तिनाम्नः शब्दाधसम्बन्धस्य नत्र लब्धावकाशत्वात् । ततः शक्त्यैवाय शन्दः प्रत्याययतःनि सिगिनि प्रकरणकनादायः ।।
लवाचकादशः परः शङ्कतं- स्यादेतदिति । एवं सति = तादात्म्य-तदानन्यतिरिक्तसम्बन्ध असम्बद्धन्यावापान पारमार्थिकत्व सति. सद्देन एव शब्दार्थयाः सम्बन्धः स्यान्न त् शक्तिः , इतमाह गृहीतमंदतादंब पदात अर्धस्मरणात = अर्थस्मरणापलब्धेः, न तु दाक्तिमत्पदात् यथा चौरायः तस्कर प्रसिझोऽपि दाक्षिणात्यानां मङ्गनयशादांदनं प्रत्यापति, कुमारवान्दश्च सङ्कतबलन पूर्वदेवा भाविनमा बोधयति । इत्थं सताना पुरुपच्छाधीनतया:गिपनत्वनंब । लोकव्यवहागोभयंव शास्त्रापेक्षयाऽपि सङ्कतबशेनेवार्थज्ञानं यथा त्रिपुरार्णवे अलिशब्दः मदिराभिषिक्ता ने मधुनगन्दश्च ममनिषोः गनिनः । ननः संकेत गब शब्दार्थसम्बन्धो न तु शनिरिति पूर्वपश्चादयः ।
फरणकार: नन्त्रिराकुम्न - नेति । व्यनिरकभिवारनायका ति - प्रकरणाद्यभिव्यक्तक्षयोपशमानां कंपानिन पुग्न तधाविशन्द सङ्केनग्रहं विनाऽपि प्रकरणादिवलेन पदात् - तथाविधशब्दान, अर्धप्रत्ययात = अर्थबोधस्यानुभवसिद्धचात् । यदि सकतादयार्थबोधस्तहि कथनमंतितात्पदान करणसामाण्यव्यवधान नब्यक्तक्षयामानां पुरुषाणामपंचायः ? ततः स्वाभाधिकसामर्थ्य भाचिन्यादेव पदाच्छाब्दबोधः स्वीकर्तव्यः, सर्वशन्टागं सर्वार्थप्रत्यायनशक्तियुक्तत्वान । नाहे, किं सङ्कनस्य सर्वधा शाब्दबोधेनुपयोगित्वं । इनि मुग्धाशङ्कायामाद - संहतो हि नपग्णदानप्रतिपक्षभावनाबत् = नपोजानदानकपादानिप्रतिपक्षभावनादिकभिव, ज्ञानावरणक्षयोपशमाभिव्यञ्जकतया = शाब्दबोधानालश्रुतज्ञानावरणीयक्षयोपशमाधायकवन, झान्दबाये
| समाधान देंगे १ जो समाधान उनके लिए होगा वही हमारे लिए भी समान रहेगा। अनः गन से प्रतिनियन अर्थनीति की अनुपपत्ति की वजह शन और अर्थ के बीच नादात्म्य-तदत्पनिभिन्न शस्तिनामक सम्बन्ध का मानना आवश्यक है।
क्षेत काय जाहीं हो सका स्माद । यहाँ यह वाडा हो फि -> दान और अर्थ के बीच संकन ही सम्बन्ध हो मकना है, न कि शक्ति 1 इसका कारण यह है कि शब्द और अयं के बीच शक्तिनामक सम्बन्ध मानन पर भी जिस परुप की शब्द के मंकन का ज्ञान नहीं है, उसे नत्पदश्रवण से भी अर्थबोध होना नहीं है । और जिसे मंकतझान है उस पाण्यश्रवण से तुरन्त ही अबोध हो जाता है। अतः अन्वय-व्यतिरेक में गन्द्र और अर्भ के बीच पूर्व पुस्पादि से किया गया संदत ही सम्बन्ध है, न कि अनादिसिद्ध अक्ति । सहन ना पुरुष के अधीन है <-तो यह भी असंगत है, क्योंकि संकेतज्ञान के बिना ही पुरुषविशेष को प्रकरण आदि से अभिव्यक्त प्रयोपशम की वजह शब्द में अर्थ का बोध होना है। पद में यदि अप्रत्यायन शक्ति न मानी जाय तब संकेतज्ञान के बिना भी स्थलचिशेष में पद से उत्पन्न होने वाला अर्थबांध असान हो जायेगा। शक्ति तां अनादि काल से सिद्ध ही है, न कि आधुनिक पुम्पों से कल्पित । अनः शक्ति का स्वीकार आवश्यक ही है। कंबल शक्ति अर्थचोधजनक नहीं है किन्तु शक्ति का ज्ञान अथवरोध में सहकारी है । अतः प्रदर्शित व्यतिरेक व्यभिचार का कोई अवकाश नहीं है। महंत का उपयोग शान्दयोध में शब्दार्थमम्बन्धविधया नहीं है किन्तु ज्ञानावरणक्षयोपशम के अभिन्य अस्थिया है । जैसे नपत्र, दान, क्रोधादि की प्रतिपक्ष भावना आदि ज्ञानावरणक्षयोपशम में हेत है ठीक वैसे ही संकेत भी ज्ञानावग्णभयोपशम का हेतु है । लोकव्यवहार भी पा होता है कि . 'शट अर्थवाचक है एवं अर्थ शब्दवाच्य है । इस प्रमिंड व्यवहार से भी शब्द और अर्थ के बीच वाच्य-वाचकभाव नाम का ही सम्बन्ध सिद्ध होता है, न कि मंकनसम्बन्ध । इस
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६२५ गत्यमा ३ मा. ९. *पनि भाषास्त्रस्
अकतयोपयुज्यते, न तु शब्दार्थ सम्बन्धतथा । व्यवहारादपि वाच्यवाचकभावः एव शब्दार्थयोः सम्बन्धः । तदेवं शबलवस्त्वभ्युपगम एव स्यादवादिनां श्रेयानिति प्राचां पद्धतिः ||९|| अथाने कान्ततादप्रामाणिकतां कापिलमतेवाऽपि संवादद्यति 'इशिति ।
इत्छन् प्रधानं सत्वाचेविरुदैर्गुम्फितं गुणैः ।
साख्यः सङ्ख्यावतां मुख्यो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ||१०||
सत्ताधैः = सत्वरजस्तमोभिः तिपीत्यप्रीतिविषादात्मकतया लाघवोपष्टम्भ-गौरवधर्मतया च विलक्षणस्वभावैः, गुणैः सुम्पिं तत्साम्यावस्थात्वमापन्नं, पधानं (इचम् ) अङ्गीकुर्वन् ॐ जयलता
उपयुज्यते न तु शब्दार्थसम्बन्धया न सकेतस्य शब्दार्थसम्बन्धत्वम् । तदुक्तं प्रमाणनयतत्वालीकालङ्कारे' स्वाभाविक सामर्थ्य समयास्यागर्धबोधनिबन्धनं श(प्र.न.न. परि ४ / सु. ११) इति । ननु शक्ति संकेतयोः की विशेष उच्यते विशेष एव शक्तिः न तु शक्तिमात्रम् । न भापारहस्यस्वोपज्ञविवरणं शक्ति न सकेमात्रं किन्त्वनादिः शास्त्रीयोऽवाधित संत इति । अत्रत्यं तवञ्चत्कृत मोक्षरत्नाऽवग
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प्रकारान्तरेण शब्दार्थसम्बन्धं दद्यायति व्यवहारादपि,
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'इदं पदस्यार्थस्य वाचकं वा एतच्छब्दवाच्य इत्याद्याकारकलोकव्यवहारादपि वाच्यवाचकभाव एवं शब्दार्थयोः सम्बन्धः न लोहादिः । उपसंहरति तदेवं = शब्दार्थयोः तान्त्रिकसम्बन्धसिद्धेः विवक्षितवाचकापेक्षा पदार्थ मायलं तदन्याभिधानापेक्षया चानभिलाप्यत्वमिनि शवलवस्त्वभ्युपगमः = एकत्वानेकत्वाऽभिलावानभिलायन्नादिनानाधर्मक तिपदार्थ कारः एव स्याद्रादिनां श्रेयानिति प्राचां = पूर्वाचार्याांगा. पद्धतिः । एतद्विस्तरस्तु स्याद्वादरत्नाकर - कल्पलतादितोऽवसेयः ||५||
प्रकरणकृतंव (भा.र.गा.२४ टीका. १.५११
ai engi létezi, onlangig comentari विधारथने नथाज्ये जमे वृतिरियं महारती
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दामकारिकाप्रस्तावार्थमुपक्रमते अथेति । अयानयति सत्त्वार्थः = सत्त्वरजस्तमोभिरिति । विरुद्धैः = प्रीत्यप्रीतिविषादात्मकतया लाघवीपम्भवतया व विलक्षणस्वभावैरिति । सत्वं प्रीत्यात्मक कार्यहेतुद्गमनहेतुलाचचसमंतच रजीतरह शब्द और अर्थ के बीच पारमार्थिक सम्बन्ध सिद्ध हो गया तब तो घटादि अर्थ में प्रतिनियत घटादिपद की अपेक्षा अभिलाप एवं पटादिपद की अपेक्षा अनभिलास्यत्व धर्म रहेगा ही । अतः वस्तु में एकान्त से अनभिदाय का बोद्धसिद्धान्त अप्रामाणिक सिद्ध होता है । एवं अभिलाप्य अनभिलाप्य उभयात्मक होने से वस्तुमात्र शवन्द = चित्र यानी अनेक परस्पर तिया भासमान धर्मो से यम है यही स्वाहादियों का सिद्धान्त प्रामाणिक है। कर्पूर वस्तु सिद्ध करने की यह प्राचीन जैनाचार्यों की एक अनोखी निजी पद्धति है || ||
इस तरह ९ ची कारिका का विवेचन पूर्ण हुआ, जिसमें मुख्यतया नैयायिक और वैशेषिक की चित्ररूपानुरोध से स्याद्वाद में सम्मति का प्रदर्शन किया गया है। यह अभी हम देख चुके हैं। अब मूलकार श्रीमद् हेमचन्द्रसूरिजी महाराजा कापिलमत यानी सांख्यदर्शन के पुरस्कार से भी अनेकान्तवाद की प्रामाणिकता को सुसंवादित करते हैं। देखिये दसवीं कारिका का सामान्य अर्थ:
अनेकान्त में सांख्यसम्मति
१० वीं कालिका
गन आदि विरूद्ध गुणों से व्याम ऐसे प्रशन तत्त्व का अभिलाप करनेवाला बुद्धिशालिओं में मुख्य सांख्य मनीषी भी अनेकान्तवाद का प्रतिषेध कर सकना नहीं है ॥१०॥
प्रकरणकार महोपाध्यायजी महाराज १० व कारिका की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि सांख्य विद्वान् प्रधाननामक एक तन्त्र का स्वीकार करता है जो सत्त्वगुण, रजोगुण एवं तमोगुण की साम्य अवस्था स्वरूप है। सत्वगुण प्रीत्यात्मक एवं लघु है। रजोगुण अप्रीतिस्वरूप एवं उपलम्भक= निष्क्रिय ऐसे सत्व और तमोगुण को अपने कार्य में उत्साह
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* मानायक कागंगदः * साहल्यो यघनेकान्तं प्रतिक्षिपेत, तदा न सहस्त्याला = परीक्षाणां मुख्यः, तत्प्रतिक्षधे स्वाभिमतप्रधानस्यैव विलयन स्वाधिरूढशाखाचो दनकौशलशालित्वातस्य । 'सङ्ख्यावता' इति निर्धारण षष्ठी । यदि तु याव च Tansitisri it प्रतिक्षिपेदेव ।।१०।।
अध लोकार्यातकानां व्यवहार यावलम्बेिनां सकलतालिकबाद्यानां किं सम्मत्याऽसम्मत्या वा ? इति तेषामतग(ग)लामेवाऽऽविष्कुक्ति -> crit'रिति ।
विमति: सम्मतितापि चाकश्यामन्यो । परलोकात्ममोशेषु वरय मुलति शेमुखी ॥११||
- ali - प्रातिम्पापं सच्चतमागणकार्यान्सहकारकच । सन्चनममा स्वयमकिये गजमा म्यन = बकाये उत्गहं = प्रयन्नं कार्यने । | तम्गगस्त विपादम्प घोगमनहत-गायकलितश्च । तदनं सात्यकारिकाया "सन्ध प्रकाशकानरमपएम्भक चल रजः। गुम्बग्गमय नमः प्रदीपबचायती निः' ।।१३। इति । परीक्षाणामितान काणागति 'पाठः श्रेयान कडा पर्गअन्त इति | परीक्षा: = पराक्षका इनि यादिन्यं आध्ययः । निर्धारण = अवधारणाधे । 'इटना धारगति न्यावना-वधारणं योजनि | - यदि तु सड़ग्यावतां मध्य राज्यों मन्य : तदानकान्तं न प्रतिक्षिपदनि । स्वाभिमतप्रकृतितन्वय ग्याद्रादीपजीवकाचात. उपनावकम्योपजाच्या प्रेक्षया हानबलत्याच तततिक्षपा न्याय्य डांत गवः। शेषमनिगडितामति न लन्यने । सोपयोगिचाद वीतरागस्तोत्रविवरणगपरदन - तथा कापिलो-पि न स्याद्वादापदापचापलापमानमादित्य तदेव स्तुतिकृत्यधयन्नार --> 'इन्टिात । ह वीनगन ! बड़ाच्यावनां मगच्या मुव्याभिभवनामधेयः सादग्य : प्रधानं - प्रकृति, महतायुत्पादभूलन मन्च जम्नमामि: न्यान्यचिगवदधैरपि धिनमाउरुद्धतया भिदधान; म्यान्मन्गे नानिकान्तमनगख्यगाख्यान । न-मत है प्रकृति का महदायाभिक मागम्यते । न्न: सांग्ल्यान्नकान्ननादमख पर <-इन |१०|
होनाnindi15short समय वहाल.Foruोया 1911
एकादमाकानको पातमार . अति । लोकार्यातकानामिति । कोक आयनं = बिस्ताणं ग्रिमिति यावत यत्प्रत्यक्ष प्रमाण
नागदन्तीति टाकायत्तिका: नास्तिकानि याचत तपास । न्यबहारदर्नयावलम्बिना = मिनिविल्यवहारमयाभागा. भ्युपगन्जगणाम । तथाहि - लोकग्राहम्बा त बस्त. किमनवा अनुयायधिमा वस्तारिकरूपनकटापकिया । पटवलोकव्यवहार. पधमन्तर्गत तम्यबाटनग्राहक प्रमाणभुपरभ्यने, मतमय अप्रत्या प्रमाणावर गावात् । प्रगागमन्तरा च विचास्य कमशक्यत्यात । प्रत्यक्षागाचरम्य लोकव्यवहाग्गुनचादय कल्पिनत्व मान्यचमभ्युपगन्द्र गोमत्यभिरायः । न बैषां व्यवहारदुनयावलम्चित्वं स्वभनादेनेवाला है । जब कि तमांगुण विपादात्मक एवं गुरुभूत है, जिसकी वजह जदता उत्पन्न होती है। परस्पर विरुद्ध एम गुणों की साम्य अबाया की भननवाली प्रकृति का स्वर्णकार करनेवाला मान्य यदि अनकान्नबाद का उन्मूलन कग्गा तब ना नह बुद्धिशालिनी में गम्य न होगा, क्योंकि अनेकानबाट का उच्छंद करने पर स्वाभिमन प्रधानमन्त ( प्रकृति) का विलग हो जायेगा । पकानयाद में विरुद्ध सत्त्वगुण-रजोगुण-नांगण का एक भी में समावेश ही कैसे हो सकता है ? विगड धों का एक धर्मी में समावेश करना ही तो अनेकान्नबान का प्रतिविम्ब है । अतः अनकान्नबान का उच्छद करने पर प्रधान नन्त्र का ही उच्छंन हो जान से जिम गामा पा वर हैं. ताका कारने की कुशलता मांगन्य का TH हो जायगी ! मुलकारिका में मान्यवनां' पर जो पए। विनि है उसका अर्थ है निर्धारण । अधांत वृद्धिशालिओं की मध्य में गांव यदि मुख्य हांगा, तब अनकान्नवाद का निरंग नहीं ही कंग्गा ।१।।
इस तरह १: जी कारिका के द्वारा अनकानाबाद में मांस्य की मम्मति बना कर मुलकार श्रीमदजी 'यहाग्नयाभास के अनुसारी पत्रं सबल आस्तिक दर्शनधादिओं ग गाहा लोकायनिक - नास्तिकों का अनकान्नवाद में संगति या अनमनि में क्या ?' इग गागा गे उनका अवगणना का ५ वीं काग्किा ग आविष्कार करते हैं। कारिका का अर्थ निम्गंक्त है।
* If | ehalkitleft पलक, आत्मा. मात्र के विषय में ही जिमकी वद्धि मूह बनी हुई है से चायांक . नास्तिक की सम्मान या विप्रतिपति को टूटने की आवश्यकता है। नई ॥११॥
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११ मध्यभस्वादादराहार-य खण्डः ३ का.
नन्नाश्च राकानिकातिवाः * येषां परलोकात्ममोक्षेष्वेव मोहः तै: सह विचारान्तरविमतिसंमती अपर्यालोचितमूलारोपाग- ॥ कप्रासादकल्पनसङ्कल्पकल्प इति भावः ।
ते हीत्थं सहिते -> न स्वल निस्विलेऽपि भुवनगोले भूतचतुष्टयातिरिक्तं किमप्यात्मादि वस्तु विद्यते, अलपलब्धेः । किन्तु कायाकारपरिणतं भूतचतुष्टयमेव चैतन्यमाबिभर्ति ।
- जयला* पिकाकल्पितम् । तदनं प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार - य: पुनरपागार्थिकद्रव्यपर्यायविभागभिप्रेति म व्यवहागभायः यथा दाकदर्शनम् । (प्र.न.न.परि. - सू -२०/२६) इति । शिष्टं स्पष्टम् ।
मुलग्रन्थ -> चाकरयति । चारी = आपातम्या विपाकदाम्पा चाक पस्द म चाकः, तस्य !
मायांकान। पूर्वपक्षनि --->हीत्थं सहिरन्त इति । न खल = नव निग्विालेऽपि भवनगोले इति । अधनातनान नास्तिकानां मने भग्नस्य = प्रधिच्या गालकात्मकत्वान भवनमाले इत्युक्तं, न तु नृपनकलय इति ध्येयम् । भूगलमतखण्डन न तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकाट्यगंयम । भूतचतुष्टयातिरिक्त = पृधिव्याने जात्रायुलक्षणभूतचतुष्कव्यतिरिक, यद्यगि गैगनम्यापि | भूतत्वमेव तथापि नम्गातीन्द्रियत्न चाकिरन गुपगमाद् भूतपञ्चकातिरिक्तमित्यनुकत्वा भूनचतुष्टयातिरिनामित्युनम । किमपि
आत्मादि वस्तु विद्यते अनुपलव्यः = प्रमाणात उपलब्धिविरहात् । नचाहि न तावत प्रत्यक्षंण तसिद्धिः, इन्द्रियनाचतिक्रान्तत्वात् । न च 'अहं सुखी' इत्यादिमानससाक्षात्कारविषयत्वन नसिद्धिति वाच्यम्, तस्य अहं गौर श्यामा वा' इत्यादिनानिपत शगविण्यतयाप्युपपनेः । किञ्चा-हवागत्ययः गरमाथन आतागोचरः स्यात तदा न जादाचित्क: स्यात् आत्मनः सदा सविहितत्वात् । कादाचित्कं हि ज्ञानं कादाचित्ककामापूर्वकं दुष्टं यथा सौदामिनाज्ञानमिनि व्यापकाभावाद् न्यायाभावमिद्धिः। नाप्यनुमानन त्मिद्धिः अव्यभिचारीलड़गारहणात । नापि आगमत: तय परम्परागरुनाथांनां नास्त्येव प्रामाग्यम् । किन योगिना व्यवस्थापितार्थम्या:भियुक्ततररन्यन्यथैव व्यवस्थापनान । स्वयमन्यास्थितप्रामाण्यानाथ तेषां करमन्यव्यवस्थापन सामथ्यंम ? नायुपमानेन. नत्सदृदाम्या न्यग्य विरहान । नायर्धापच्या, तदभावःयकरया अयनुपपने विग्हात् । तस्मादभावप्रगाणकगम्यता तस्य । तदुक्तं लोकवार्तिक कुमारिलेन 'एमागपञ्चकं यत्र, यस्तृको न जायते, भावसनावबोधार्थ, नयाभाव
यां. । अब प्रकरणकार महोपाध्यायजी महाराजा वीतरागस्नोत्र के अश्म प्रकाश की ११ ची कारिका की व्याख्या का श्रीगणेश करते हैं कि जिनको परलोक, आत्मा एवं मोक्ष के बारे में ही मुदता है उनके साथ अन्य विचार = अनेकान्नवाद के बारे में विप्रतिपत्ति या सम्मति की खोज करना बिना मलविचार के महल को बनाने के संकल्प के तुल्य होने में चाक के साथ चर्चा करना अर्थशून्य है . यह कारिका का भावार्य है। अब उपाध्यायजी महाराजा नास्तिकों की पुक्तियों को खरनार्थ विस्तार में बता रहे हैं। यह रहा दीर्घ पूर्वपक्ष ।
* तरातुर से अन्य प्रारमा नहीं है - जाति 'पूर्नपक्ष :- सकल भूवलय में पृथ्वी, जल, नेज, वाय-इन चार भूतों को छोड कर उससे भिन्न काई आत्मा नाम की चीज ही नहीं है, क्योंकि वह प्रमाण में उपलब्ध नहीं होती है । ची, जल, तेज और वायु से बनी हुई काया से अतिरिक्त आत्मा चाक्षुप, स्पार्शन आदि प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञात नहीं होने से कायाकार में परिणत पृथ्वी आदि भूनचतुक चैतन्य को धारण करना है। अतः तादृश धागर ही आत्मा है, जिसका जन्म एवं मरण यहाँ ही होते हैं । इमशान में शरीर को जलाने के बाद कोई परलोक जैसी यज नहीं है, जहाँ यह कायान्मक आत्मा जा सके। क्योंकि कापारूपी आत्मा का यहाँ ही विनाश हो जाता है । यहाँ यह प्रश्न हो कि. --> 'पृथ्वी आदि प्रत्येक भूत अचंतन होने से उनक समुदाय में भी चैतन्य की उत्पन्न हो सकता है - तो इसका यह समाधान है कि प्रत्यक क्रमुक फल, पत्र, पूर्ण आदि माटकता सहित होने पर भी सम्मिलित होने पर उन्मे जैसे मादकताशक्ति उत्पन्न होती है ठीक वैसे ही प्रत्येक पुच्ची आदि चतन्यशून्य होने पर भी उसके समुदाय में चैतन्य उत्पन्न हो सकता है, 1 यह कोई बड़ी समस्या नहीं है। यहाँ यह शंका हो कि -> 'प्रत्येक क्रमकफल. आदि में भी मादकता होती है। हो, वह अल्पमात्रा में होनी है, यह एक अन्दग बात है। पटि उनमें से प्रत्यक को सर्वथा मादकत्ताशक्तिविफल माना जाय तर तो वे कितने भी इकई हो मगर उनमें मादकतामक्ति उत्पत्र नहीं हो सकती । जो सर्वथा अशक व परस्पर मालिल भी कार्य को इत्पत्र नहीं कर मकन । वान के प्रत्येक कण
अपका उम्पक्ष ६८ पृष्ट पर है।
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* मीमांसान्द्रोकचातिकसंवादः * ता च प्रत्येकमचेतनानां समुदायेऽपि कथं चैतन्यमिति वाच्यम्, प्रत्येकममादकानामपि मीलितानां क्रमुकफल- पत्रचूर्णादीनां मादकत्ववदुपपत्तेः ।
अथ प्रत्येकर्माये तेषां मादकताशक्तिस्स्त्येव, अशक्तानां मीलितानामपि कार्याऽजनकत्वात् । न हि वालुका सहयाद् यन्त्रनिष्पीडितादपि तैलोद्भव इति चेत् ? तन, स्वभावेनैव व्यवस्थोपपत्ती शक्ती मानाभावात् ।
*नयलता *
प्रमाणतर' (श्री. चा ) इति । तर्हि प्रतिप्राणिसंसिद्धं चैतन्यं कथं सङ्गच्छते ?' इत्याशङ्कायामाह किन्तु कायाकारपरिणतं भूतचतुष्टयमेव चैतन्यं ज्ञानादिकं आविभर्ति । तस्माच्छरीराकारपरिणतो भूतच्चतुष्क एवात्मप्रतियः । एतेन शुद्धपदातिरिकात्मसिद्धिरित्यपि प्रत्याख्यातम् शरीरानिरिकस्य तस्योपर में गौरवाच । अत एव चैतन्यमेवात्मन: शरीरातिरेके कुमायां: योगे गर्भवत् मानमित्यपि निराकृतम् । न च अयादिनां समुदायेऽपि कथं चैतन्यं सम्भवेत् ? इति वाच्यम्, प्रत्येकं असावकानां = मादकताविकलानां अपि नीलितानां सतां क्रमुकफलपत्रचूर्णादीनां | | मादकत्ववदुपपत्तेः । यथा तेपां प्रत्येकं मादकता नास्ति तथापि तत्समुदाय सा जायते तदेव प्रकृतेऽपि बोध्यमिति चाकाशयः आस्तिकः शङ्कते अथेति चेदित्यनेनाऽन्येति । प्रत्येकमपि किमुन मीलितानामित्यपिशब्दार्थः तेषां = क्रमुकफलपत्रादीनां मादकताशक्तिरस्त्येव, विपक्षचाधमाह अशक्तानां मीलितानामपि कार्याऽजनकत्वात् = कार्यजननाऽसम्भवान् । दृष्टान्तमाह न हीनि प्रयोगस्त्वेवं विवादापन्नानि प्रत्येकं विवक्षितशक्तिसमेतानि सम्भूय तत्कार्यकारित्वात् तिलादिवत् । यचं नवं यथा वालुकाशि: । न चैनानि तथेति तत्र प्रत्येकमंशती नादकताशक्तिसिद्धिः । पृथिव्यादिषु च प्रत्येकं चैतन्यानुपलब्ध न तत्समुदाय चैतन्यं भवितुमर्हति । प्रयोगस्त्वंवं पृथिव्यादीनि न चैतन्योपादानानि प्रत्येकं चिच्छक्तिशून्यत्वात वालुकाशियत् । ततश्च कायातिरिक्ततयाऽत्मन एवं चैतन्योपादानत्वमित्यथादार :
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६.३५
चार्वाकमतन्निराकुर्वन्ति नेति । स्वभावेनैव व्यवस्थोपपत्ती शक्ती मानाभावादिति । क्रमुकफलपत्रचूर्णादीनामेव स्वनावविशेषोऽयं यदुत तथ्यो मीलितेभ्यो गादकनोपलम्भ: न तु शाकापूपादिम्यो मीलिनेभ्य इत्येवमयुपपत्ती प्रत्येकं नेषु मादकनाशन्तिकल्पना न युक्ता, गौरवात् । अत एव प्रत्येकमचेतनानामपि पृथिव्यादीनां स्वभावविशेषवलेन चैतन्यपादानत्वमनपायम् । दृश्यते हि प्रत्येक मृतिकाकरीषु असतोऽपि घटसंस्थानस्य मीलितेषु तत्सम्भव इति । अतो न त शक्तिकल्पना सङ्गतिमन्तीति प्राचीनलांकापतिकाशय: :
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वात्मवाद घायवच्छेदन ज्ञानाद्यनुत्यनिनिवाय अवच्छेदकतासम्बन्धेन ज्ञानादी तादात्म्येन शरीरस्य कारणत्वमवश्यमेवाऽभ्युपगन्तव्यम् । तथात्मनां ज्ञानादिग्रमवायिकारणत्वमपि स्वातंव्यम् । इत्थे कार्यकारणभावकल्पनापेक्षया लाघवात् भमवायेन ज्ञानादी तादात्म्येन शरीरस्यैव कारयत्वमभ्युपगन्तव्यम् । अत एव शरीरातिरितात्मकल्पनाया अपना
में अंशत: भी तेल नहीं होने की वजह हजारों और लाखों की संख्या में रेत को इकट्ठी करने पर भी उनके यन्त्रपीदन से तेल का एक बूंद भी नहीं निकलता है । अतः पृथ्वी आदि प्रत्येक भूत के अचेतन होने की वजह उनके समुदाय में भी चैतन्य उत्पन्न हो नहीं सकता तो यह भी निराधार है, क्योंकि बालू का स्वभाव ही ऐसा है कि उनमें कभी भी तेल नहीं निकलता | तिल का ऐसा स्वभाव है जिसकी वजह उनसे तेल निकलता है। एवं क्रमुकफल आदि का भी ऐसा भाव है कि वे सम्मीलित होने पर उनमें मादकता उत्पन्न होती है । रोटी, दाल, भात आदि का स्वभाव ही ऐसा * कि वे परस्पर मीलित होने पर भी उनमें नाकता उत्पन्न नहीं होती । इस तरह स्वभावविशेष की कल्पना करने से ही उपपत्ति हो जाने में प्रत्येक में माकनाशक्ति की कल्पना करने में यानी शक्तिरूप से प्रत्येक में कल्पित मादकता में कोई प्रमाण नहीं है। अतः प्रत्येक पृथ्वी आदि में चैतन्य न होने पर भी तत्समुदाय में स्वभावविशेष की वजह चैतन्य की उत्त्पनि होती है | अतः प्रत्येक में शक्तिरूप से चैतन्य नहीं होने की बदौलत कायाकारपरिणत पृथ्वी आदि भुतचतुष्क में चैतन्य की उत्पत्ति की अनुपपत्ति की कोई सम्भावना नहीं है। अनः कायाकारपरिणत भूत्तचतुष्क के व्यतिरिक्त आत्मा की कल्पना करना अप्रामाणिक होने से अन्याय्य है, पक्षपातमात्र है, शास्त्र के प्रति अन्धश्रद्धामात्र हैं, विशेष कुछ नहीं ।
नप्यनातिक
★ समवाय से ज्ञान का कारण शरीर नव्य 1 नवीन नास्तिकों का इस सम्बन्ध में यह कहना है कि
शरीरावच्छेदेन आत्मा में ज्ञान की उत्पत्ति हो
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६३८८ मध्यमस्वाद्वादरहस्ये खण्ड ३
का. ११
** शरीरकारणत संवाद*
व्यचार्वाकास्तु 1> अवच्छेदकतया ज्ञानादिकं प्रति तादात्म्येन क्लृप्तकारणताकस्य शरीरस्यैव समवायेन ज्ञानादिकं प्रति हेतुत्वकल्पनमुचितम् । तचैवं शरीरात्मपदयोः पर्यायतापत्तिः, इष्टत्वात् । अत एव 'पृथिवीमय' इत्यादिश्रुतिः सङ्गच्छते । न चैवं परात्मन इव तत्समवेतज्ञानादीनामपि चाक्षुष-स्पार्शने स्यातामिति वाच्यम्, रूपादिषु जातिविशेषमभ्युपगम्य रूपान्यतद्वत्त्वेन चाक्षुषं प्रति स्पर्शान्यतद्वत्वेन च स्पार्शनं प्रति प्रतिबन्धकत्वकल्पनात् । * जयलता
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Referenadi नव्यचावकाणां मतमाह नव्यचार्वाकाः = नैयायिककदेशीयाः तु अवच्छेदकतया ज्ञानादिकमिति । भावितार्धमेव । न च एवं शरीरातिरिक्तात्मा अस्वीकार शरीरात्मपदयोः पर्यायतापत्तिः, एकस्मिन्नवार्थ प्रवृत्तत्वादिति रामपदप्रतिपाद्यत्यात्. 'पृथिवीमय आत्मा' इत्यादिश्रुतिः वाच्यम्, इत्वात् एव = अपि सङ्गच्छते । आदिपदेन 'अन्नमय आत्मा, प्राणमय आत्मा' इत्यादिश्रुतिग्रहणम् । तदुक्तं शरीरकारणतावा शरीगअतिरिक्तस्य ज्ञानाद्यवच्छेदकते तिप्रसङ्गरन्तवारणायाः चच्छेदकतासम्बन्धेन जन्यज्ञानत्वाच बलिप्रति आत्मसमवेतजन्दगुिणत्वावच्छिन्नं प्रति वा शरीरत्वेन शरीरस्य तादात्म्यत्यासत्या हेतुत्वं कल्प्यते । अत्राप्यनुमित्यादी प्रामादीनां विशिष्टवृद्धी विशेषधिय: सामानाधिकरण्यप्रत्यासत्या 54 समानावच्छेदकत्वप्रत्यागस्यापि हेतुत्वं व्यवस्थापनीयम् । निर्विकल्पस्थान्छेक नियमार्थमंत्र तादृशकल्पनम् । शरीरत्यादिकन्तु न जातिविशेषः पृथिवीत्यादिना सह । नापि ज्ञानावच्छेदकत्वं तस्यंव नियामकत्वं आत्माश्रयप्रसङ्गात् अपि तु चेष्टावदाऽवयवित्यम् । चेष्टात् प्रयत्नाधीनक्रियानिष्टजातिविशेषः । गंगवस्य ज्ञानगपच्छेदकत्वापगमे तु ज्ञानजनकतावच्छेदको अन्त्यायनि निवेशनीयम् । अतएव खण्डात्पनिकाले महा शरीरावयवावच्छेदेन ज्ञानात्पवनं । चैन्यमुपलक्षणतया जनकतावच्छेदकती ज्ञानाव्यवहित्प्राक्काले नियमतः शरीर चेष्टाया असत्येऽपि न क्षतिः ।
केचित्तु नव्या उपाधिसाङ्कर्यदेव जातिसाङ्कर्यस्यापि निर्दोषत्वात् शरीरत्वादेरपि जानित्वमेव । एतेन पृथिवीत्वाता सादात्तत्वं जातिर्न त्यात शरीरात्मवादिमते इत्यपि प्रत्युक्तमिति वदन्ति ।
न च एवं = ज्ञानादेः शरीरमसंवतत्वभ्युपगम्यमाने, परात्मन इव परात्मसमवेतरूपस्पशादीनामित्र तत्रमवेतज्ञानादीनामपि परात्मत्वेनाऽभिमते परकीयवशरीर समवेतानां ज्ञानेच्छाकृत्यादीनामपि चाक्षुपस्पार्शन चक्षुः स्पर्शनिन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष = रूपरूपरसगन्धज्ञानः दिपु स्थानां, स्वमंयुक्तसमवेतत्वप्रत्यासन्या चक्षुःस्पर्शनिन्द्रियया तब मन्वादिति वक्तव्यम्, रूपादिषु जातिविशेषं = वैजात्यं अभ्युपगम्य रूपान्यत्तद्रत्वेन = रूपान्यत्वे सति प्रदर्शितवत्यमत्त्वेन विषयतासम्बन्धेन चाक्षुषं प्रति प्रतिबन्धकत्वकल्पनादित्यत्राऽप्यन्वीयते । स्पर्शान्यतद्रत्वेन स्पर्शान्पित्वविशिष्टवान्यमन्येन रूपेण व विषयतया स्पार्शनं प्रति
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और घटादिवच्छेदेन न हो इसकी उपपत्ति के लिए समवाय सम्बन्ध से ज्ञान के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध में आत्मा को कारण मान कर भी अच्छेदकता सम्बन्ध से ज्ञानादि के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध से शरीर को कारण मानना जब आवश्यक है। है तब समजाय सम्बन्ध से ही ज्ञानादि के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध से शरीर को कारण मानना उचित है। इसमें भित्र आत्मा की कल्पना करना अनावश्यक है । इस पक्ष में उपर्युक्त दो कार्य कारणभाव के स्वीकार का गौरव भी अप्रमत है। यहाँ इस शंका का किसमवाय से ज्ञानादि के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध से शरीर को कारण मानने पर तो आत्मा पदार्थ और शरीपदार्थ एक ही हो जायेगा, क्योंकि समवायअवच्छिन्न ज्ञानादिनिष्ठ कार्यता से निरूपित तादात्म्यसम्बन्धापच्छिन्न कारणता के आश्रय को आस्तिक आत्मा कहते हैं और नास्तिक शरीर कहते हैं। एक ही अर्थ में प्रवृत होने की वजह पट और कुम्भ पद की भाँति आत्माशय और शरीरपद भी पर्यायशब्द बन जायेंगे - समाधान यह है कि यह तो हमें इष्ट ही है । शरीर ही आत्मा है, न कि शरीरातिरिक्त यह तो हमारे लिए इष्टापति है। इसकी सिद्धि के लिए तो हम यह प्रयास करते हैं। शरीर और आत्मा एक ही होने की वजह तो उपनिषदों में भी कहा है कि आत्मा पृथिवीमय है..' इत्यादि । यदि पृथ्वी आदि भूतसमुदायात्मक शरीर से आत्मा भित्र होती तब तो उसके बारे मे पृथिवीमय, अश्रम इत्यादि कहना कैसे संगत होगा ?
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न । शरीर को ही आत्मा मानने पर एवं ज्ञान आदि की शरीरगत धर्म मानने पर यह समस्या मुँह कांडे खड़ी रहती है कि जैसे एक व्यक्ति को अन्य व्यक्ति के शरीर का एवं परकीय शरीर में रहनेवाले रूप स्पर्श आदि का चाक्षुप एवं स्पार्शन प्रत्यक्ष होता है ठीक उसी प्रकार उसमें रहनेवाले ज्ञान, इच्छा आदि का भी चाप एवं स्पार्शन
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* ज्ञानाचा महत
६३५
इत्थमेव रसादीनामचाक्षुषाऽस्पार्शनत्वनिर्वाहात् । अस्तु वा ज्ञानादीनां चक्षुराद्ययोग्यत्वमेव । न चैवं स्वज्ञानादीनामपि प्रत्यक्षं न स्यादिति वाच्यम्, तेषामचाक्षुषत्वेऽपि मनसा प्रत्यक्षसम्भवात् ।
* नगला बै
प्रतिबन्धकत्वकल्पनादिति । अयं भावः विषयतासम्बन्धेन चाक्षुरं प्रति तादात्म्येन रूपान्यत्रैजात्यमतः प्रतिबन्धकलं विनास स्पर्शनं प्रति च तादात्म्येन स्पन्पवत्त्यमतः प्रतिबन्धकत्वमिति प्रतिवध्य- प्रतिबन्धकभावोऽयुपगम्यते नवीन चार्वाकगतं । ज्ञानादिषु शरीरसमवेतेषु निर्वजात्यस्येव रूपान्यत्वस्य सतेन चाक्षुषप्रतिबन्धकतं शान्त्यस्य सत्त्वेन च पार्शनप्रतवन्ध कत्वमिति तत्र स्वसंयुक्तसमवेतत्वसम्बन्धेन चक्षुः रपइनिन्द्रियसच्वंपिनविषयतया चाक्षुपस्पार्शनात्पत्तिः सम्भवति, प्रतिबन्धक सच्चदशायां कार्यादाऽगात् । वैजात्यस्य स रूपान्यत्वस्याद्विपयतया चाक्षुषं निगवाधम, विशेषणाभावप्रयुक्तविशिष्टप्रतिबन्धका भावसत्त्वात् । एवं रूपर्शे शरीरसमवेत बैजात्यस्य सवंऽपि स्पर्शवित्वस्य विरहेण विशेषणाभावप्रयुक्तविशिष्टप्रतिबन्धकाभावसन्यात् स्वसंयुक्तसमवेतत्वसम्बन्धेन स्पन्द्रियवदशायां वियतया स्पार्शनमपि अनपायम् इत्थमेव प्रदर्शिनप्रतिबध्य प्रतिबन्धक भावस्वीकारे एवं रसादीनामचाक्षुपारपार्शनन्वनिर्वाहात् । रसादिषु वैजात्यस्येव रूपान्यत्वस्यान्विस्व नायक विषयतया चाक्षुस्पाइनि सम्भवतः । प्रकृत प्रतिबध्य प्रतिबन्धकमात्रानङ्गीकारे तु तत्र स्वमंयुक्तसमवेतत्वसंसर्गेण चक्षुरूपदर्शनयोः सचन विषयतया वापराने यशदावि स्यातामच । रसायचाक्षुषा स्पर्शनत्वानुरोधेनाऽवश्य कुलुप्तप्रतिबन्धकतचैव ज्ञानायचक्षुप्त्या स्पायनित्ये उपपद्यत इति न ज्ञानादः करीसम किञ्चिदाधकमस्तीति नूतननास्तिकाकूनम् ।
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ननु रूपरसादिषु वैजात्यमुपकल्प रूपान्यतद्वत्त्वादिना प्रतिबन्धकत्वकल्पनापेक्षया रसगन्धज्ञानादेव तादात्म्येन चाक्षुषादिप्रतिबन्धकत्वं कल्पनीयं यद्वा गुरुत्वादिवत् ज्ञानादेरेव चक्षुराद्ययोग्यत्वमभ्युपगन्तव्यं लाघवादित्यत आह अस्तु वा ज्ञानादीनां चक्षुराद्ययोग्यत्वमेवेति । चक्षुः स्पर्शनाद्ययोग्यत्वादेव न तेषां चाक्षुपस्पर्शनादिग्रम इत्याशयः ।
न च एवं = ज्ञानादीनां चक्षुराद्ययोग्यत्वं स्वज्ञानादीनां स्वशरीरसमवेत ज्ञानेच्छाकृत्यादीनां अपि प्रत्यक्षं 'अहं जानामि इच्छामीत्याद्याकारी मानससाक्षात्कारां न स्यादिति वाच्यम्, तेपां ज्ञानादीनां अचाक्षुपत्वेऽपि चक्षुराद्ययोग्यत्वेऽपि मनसा प्रत्यक्षसम्भवात् = मानससाक्षात्कारविषयत्वसम्भव बाभकविरहात् तन्मानसमन्पायमेव । न हि
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स्पर्श आदि के समान ज्ञान इच्छा आदि किन्तु इसमें कोई खौफ रखने की जरूरत जो रूप आदि की भाँति शरीर का धर्म है
प्रत्यक्ष होना चाहिए, क्योंकि ज्ञान, इच्छा आदि शरीर का धर्म होने पर रूप के साथ भी चक्षु एवं स्पर्शन इन्द्रिय का स्वसंयुक्तसमवेतत्व सम्बन्ध रहता है नहीं है, क्योंकि इसका सीधा ही समाधान यह दिया जा सकता है कि रस, ही, उसके बाप एवं स्पार्शन लीकिक साक्षात्कार को रोकने के लिए जो उपाय किया जायेगा उसीसे ज्ञानादि के चाक्षुष एवं स्पार्शन प्रत्यक्ष का परिहार हो जायेगा और यह उपाय यही है कि रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द, ज्ञान, इच्छा आदि विशेष गुणों में एक जाति का स्वीकार कर के विपयता सम्बन्ध से चाक्षुप के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध से रूपान्यतज्ज्ञातिमान् को प्रतिबन्धक मान लिया जाय। इसी प्रकार विषयतासम्बन्ध से स्पार्शनप्रत्यक्ष के प्रति भी स्पर्शान्यतजातिमान् को तादात्म्य सम्बन्ध से प्रतिबन्धक मान लिया जाय । ऐसा प्रतिबध्य प्रतिबन्धकभाव मान लेने पर ज्ञान, इच्छा आदि के बाप या स्पार्शन प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं आयेगी, क्योंकि ज्ञानादि में उक्त जातिविशेष रहने से ज्ञानादि भी रूपान्यतज्जानिमान् एवं स्पर्शान्यजातिमान् हो जायेगा। तादात्म्यसम्बन्ध से इस तरह ज्ञानादि ही रसादि की भाँति चाप एवं स्पार्शन साक्षात्कार का प्रतिबन्धक हो जाने से उनमें विपयतासम्बन्ध से चाक्षुष या स्पार्शन की उत्पत्ति की आपत्ति नहीं आयेगी । मतलब कि ज्ञानादि को शरीरधर्म मानने पर भी उक्त प्रतिवध्य-प्रतिबन्धकभाव को स्वीकार कर के उनके बाप एवं स्पार्शन प्रत्यक्ष का निवारण हो सकता है । काज्ञानादि चक्षुआदि के अयोग्य हैं- जत्यनास्तिक क
अस्तु । अथवा यह भी कहा जा सकता है कि ज्ञानादि शरीरधर्म होने पर भी रस, गन्ध, आदि की भाँति चक्षु, स्पर्शन आदि इन्द्रिय के ग्रहणयोग्य हैं । अतएव रसादि की भाँति ज्ञानादि का चाक्षुष या स्पार्शन प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है । अपने अविषय में इन्द्रिय की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? यहाँ यह शङ्का नहीं करनी चाहिए कि ज्ञान, इच्छा, आदि को वक्षु आदि इन्द्रिय के अयोग्य मानने पर तो गुरुत्व आदि की भाँति उनका भी प्रत्यक्ष ही नहीं होगा तब तो परकीय ज्ञानादि की भाँति स्वकीय ज्ञान आदि का भी प्रत्यक्ष नहीं होगा। इस परिस्थिति में लोकव्यवहार प्रवृत्ति आदि
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११ मध्यमरयाद्वादर बदः ३ . अवययनहाकगतिनातिकमते *
मन:सिन्दादेव किं मानं ? इति चेत् ? अनुमानमेव । न चानुमानोपगमेऽपसिन्दान्तः, ॥ अनुमितित्वस्य मानसत्वव्याप्यत्वाऽभ्युपगमात, प्रत्यक्षातिरिक्तप्रमाणाभ्युपगम एवाऽपसिन्दान्त
- जरालता *व तेषां चक्षुराप्रपोग्गत्वमिच मनोयोग्यत्त्वं स्वाकुर्मः । न च स्यात्मन इन परात्मनोऽपि मानसप्रत्यक्षप्रगङ्गा दुर्वार;, न चष्टापनिः कर्तुं युज्यते, परान्मएतलाक्षे तद्गतनानादेगि मानसत्त्वा रातात, ज्ञानादिकमने नन्मानसस्या:सम्भवादिनि वाच्यम्, तत्तदात्मभानसे तत्तदात्मत्वेन तुल्यो पगमात् । परेप तु अरच्छेदकनया ल्नदात्ममानसत्वावच्छिन्नं प्रति तादात्म्येन ननन्छरीरस्य कारण आहोस्विन समायेन तत्तदात्ममानसत्यापच्छिक प्रति समवायन विजातीयतनन्ननःसंयोगस्य कारणत्वं ? इत्यत्र निगमनाविरहान । न चैवं बालशरीरानुभूतस्य युबा स्मरणप्रयङ्गः, बालशरीरस्य विनष्टत्वादिति शमनीयम्, पूर्वयटनाशानन्न खण्ड्यटे कारणगुणप्रक्रमेण तद्गुण्समचत पूर्वशरिनाशोनरभुना दारीर पूर्दागरगुणसक्रमात् । न चैवमवयविज्ञानादावश्यबजानादिनुताकल्पने गौरवमिति वाच्यम्, 'कलमुखत्येन तस्या दांपत्तवान् । नास्तु बा बयी विजानायसंगागर्नब तदन्यथामिछः। तथा ५ शरीगन्नगंतरादपि शारीरत्वपटकाविजातीयसंयोगाधिशष्टाणुवृत्तिसंस्कारात मनसा नादृशम्मरणोपनिः।
ननु मनःसिद्धावेव किं मानं १ प्रत्यक्षेण तस्यात्मवत अनुपलब्धरिति चेत् ? नहि त अनुमानमेव मान कि न म्यान ? युगगन्नानाझामनी लादव नम नमान्मने पसिद्धान्नापि लब्धावकाशः स्यादेवन्या. अदायां नयनास्तिका आहः न च अनुमानोपगमेऽपसिद्धान्नः मावकाश:, मिनित्वस्य मानसत्वव्याप्यत्वाभ्युपगमान । मानसप्रत्यक्षविशेष एवानमितिज्ञानं, न तु परश्नः । प्रत्यक्षातिरिक्तप्रमाणाभ्युपगम एवापसिद्धान्तशङ्काबकाशान । शब्दनाजाविप्रनाणयोरवायांकाराःम्मन्मते. तन्मूलभूताप्ताना श्वासान् । अनुभवसिद्धस्त्वर्थी नाऽपहानुं शक्यः । आचालगोपालम धारणा- |
नादिनिनिरूपानमित्यनगीकार व्यवहारा:विहात । न हि धुमपरामगांद 'धूमवन पर्वतो हिमान' इत्याकारं 'पर्यनी नलिमान' इत्याकारं वा जानं जायमानं संशय निरूपं या, 'फन्दाम', स्मरामि' इत्याद्यननव्यवसायान । परामर्शस्य निभवमामव्रात्वन न संशयहतुत्वं, पर्वतों बहिमान' इत्यननुभवाय मनाशी म्मृति: किन्तु मानगसाक्षात्कारात्मका अनुमितियोपजायने । न चवं वह्नि न साक्षात्करोमि' इत्यादिप्रनीत्यनुपपनिरिति वाच्यम्, गुरुल्यादाचिव नत्र लौकिकविषयवाभावादव नदुपपनः । कवित अनुमिनित्याचच्छिन्नं प्रनि नाप दिसाम्नीनिष्टतया प्रतिबन्धकत्या कल्पने लाघनात् । अनेन अनुमिनियम्य मानस। उपपत्ति कैसे हो सकेगी?' - इनका कारण यह है कि ज्ञानादि चनु आदि बहिरिन्द्रिय के ग्रहणायोग्य होने पर भी मर के ग्रहण योग्य होते हैं । अनः स्वकीय ज्ञान आदि का भले ही चाक्षुप, स्पार्शन आदि प्रत्यक्ष नामुमकिन हो, मानस राक्षात्कार मुमकिन हो सकता है । यहाँ इस प्रभ का कि -> 'आप नास्तिक के मन में मन की सिद्धि में प्रमाण क्या है ? क्योंकि यह चक्षु आदि इन्द्रिय से तो उपलब्ध होता नहीं है - उत्तर यही है कि अनुमान ही मन की सिद्धि में प्रमाण है। अनेक ज्ञान की युगपन् = एक काल में उत्पत्ति न होने की वजह मन की अनुमिति की जाती है। अतः अनुमिनिजनक अनुमान ही मन की उपलब्धि में प्रमाण है। यहाँ यह शंका हो कि -- "यदि अनुमिति एक अतिरिक्त प्रमा । नर तो उसके अनुरोध से अनुमान नामक अतिरिक्त प्रमाण को भी ग्वीकार करना पड़ेगा और उसे यदि मान्यता दी जायेगी तो उस अवस्था में पाकमात्र प्रत्यक्ष ही प्रमाण है, अन्य कोई प्रमाण नहीं है' . इस चार्वाकसिद्धान्त का भङ्ग हो जान से अपसिद्धान्न नामक निग्रहस्थान की प्रामि होगी" - तो उसके समाधान में नव्य नास्तिकों की ओर से यह कहा जा सकता है कि →
अजुतितिाव मानसत्वव्याप्य है - नूतन चार्वाक 5 अनुमिनिवस्य,। अनुमिति कोई अतिरिक्त प्रमा नहीं है किन्तु वह एक प्रकार का मानस प्रत्यक्ष है। इस प्रकार अनुमितित्व मानसत्त्व का व्याप्य धर्म है, न कि मानमन्त्र का विरोधी धर्म । यदि अनुमिति को अतिरिक्त प्रमा मानी जाय तर अतिरिकामाजनकत्वेन अनुमाननामक अतिरिक्त प्रमाण की सिद्धि की आपनि हांगी । मगर उक्त गति में अनुमान का मानस प्रत्यक्ष में अन्तभाव हो जाने में अपसिद्धान्त दोप की शङ्का को भी अवकाश नहीं है । यहाँ पह शंका हो कि -- शरीर को ही आत्मा मानने पर नो मृत देह में भी ज्ञान की उत्पति होगी. जैम जीवन्त शरीर में होती है ठीक उसी तरह'| - तो इसके समाधानार्थ यह कहा जा सकता है कि ज्ञान का समवाथिकारण शरीर होता है नो ज्ञान का असमायिकारण विजातीयमन:संयोग होता है, जो जीवन्त देह में होने से उसमें ज्ञान की उत्पत्ति होती है और नृत देह में ज्ञानजनक विजातीय
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नमन मागरम न पपान पर * शहकावकाशात् । त शरीरस्याऽऽत्मत्वे मृतकलेवरेऽपि ज्ञानोत्पत्ति: स्यादिति वाच्यम् ज्ञानजनकविजातीयमन:संयोगापगमात । आत्मनः शरीरानतिरेके संयोगस्य पृथकप्रत्यासत्तित्वाऽकल्पनलाघवमपि ।
A दवाणुकपरमाणुसपाधप्रत्यक्षाय चतुःसंयुक्तमहत्वरूपवत्समवायत्वादिना प्रत्या
त्वचिंगेविलपि पगकनम् । न च शरीरस्य आत्म पगाणप. शामा सामान. मृतकलंपि. किमन निद्रापन्देहे इत्यपिशब्दार्थः, ज्ञानोत्पनिः स्यात, नत्यामग्रीसच्चादिति वाच्यम्, नदान जानजनकविजातीयमन:संयोगापग-॥ मान् = ज्ञानारामवापिकारणस्य विजातीयमन:पयोगस्य इगर बिनाशात् नबनातानि:, कलतमा मग्यापन कार्यजनकलान .
आत्मशरोग्यादी स्वप्नं दृष्टयन आत्मनः शरीगननिरके = देहाभिन्नत म्याक्रियमाणे, संयोगस्य पृथकप्रत्यामनिवाकल्पनलाघवमपि। इदमत्राकृतम् - साताशगरव दिनते रम्मानमसाक्षात्कार मन्म: स्वसंरकरामतत्वसम्बन्धन काम्पत्वं सम्भवति, देहस्वरूपस्यात्मनः मन: मंयुकावयवरामशेतन्यान् । पर दागति निन्मदिमते आत्मना निरन्याचेन तन मनस: स्वसंयुक्नसमवेतवसम्बन्धो न सम्भवतःति स्वसंगांगगम्बन्धस्य तदनन्यायकारणतायटक प्रत्यास निमिया कमनीयत्वम् । शरारत्ताचादिमन्तु लौकिक विषयतया इन्यदलाचनप्रत्यक्षात्यावाच्छन्न प्रतिरक्तसमय सम्बन्धनचन्द्रियापक पदम भ्यागम्यते । तथाहि घरस्य चन:संयुकिवालसमवेतवन घरम्पादश्च नक्ष:संयुकयामतन्वन नक्षपः ला स्वसंयुक्तरगतमम्बन्धन सवान तत्र लौकिकविषयनया दाक्षपापपत्ति: सुकम। अना नात्यशरीरमादिना योगम्य स्वातन्त्र्येण लाफिकविषयनामिनदा. प्रत्यक्षनिष्ठकार्यतानिरूपित कारणतावच्छेदकतानित्वं कल्पगमति गायबम । कश्चित्तु आधुनिक गतिरीकात्मनागमन झाररात्मना; संगोमाकम्पनलाय गत्याचष्टे. नन्न. अनमग्रन्थानमनापन: ।
अनिग्निात्मवादी गइकन अनि चदित्यनेनान्चति । द्रुयणकपरमाणुरूपाद्यप्रत्यक्षाय = इयष्क . परमाविमा मार्दनामप्रत्यक्षमा पपनये वक्षःसंयुक्तमहदभूतरूपवत्समवायत्वादिना प्रत्यासनिन्ने - चक्षणः स्वतंयुकला मंचनत्यम्य संसक्त
मन:संयोग नहीं होने की वजह उसमें ज्ञान की उत्पत्ति होती नहीं है । अतः अगर को ज्ञान = चतन्य का उपादान कारण मानने में कोई दांप नहीं है।
मालीसामवादी को प्रत्याशिलाशा आन्मनः। शरीर को ही आत्मा मानने में एक लाभ यह है कि संयोग को प्रत्यक्ष जनकप्रत्यासनि मानने की कोई आवश्यकता नहीं रहने मे माश्चात्कारजनकतावच्छंटक सम्बन्ध के शरीर में भी राघब होता है। देखिये, आत्मशरीरबादी के मन में आत्मा के मानस प्रत्यक्ष की कारणतावच्छेदक पनयामनि होगी स्त्रसंयुक्रममवतन्य । स्व = मन, उसमें संयुक्त शरीगवपर, उममें समवेत है शरीर । शरीर में स्वमंयुक्तसमवेतत्वसम्बन्ध में मन रहन से वहाँ विषयतासम्बन्ध मे मार्गस्वरूपात्मगोचर मानम साक्षात्कार उत्पन्न होगा। मरीतिरिक्तात्मवादी नयायिकादि के मत में आत्मा निन्चयब होने से मन का आत्मा के माध स्वसंयुक्तसमवनत्व सम्बन्ध नहीं हो सकता । अन: आत्मभानसात्या के अनुगंध में स्वर्मयोगसम्बन्ध को ही भान्ममानमप्रत्यक्ष की कारणतावच्छेदकान्यासत्ति माननी होगी। स्व = मन, उसका संपांग आत्मा में होने से मन स्वर्मयोगगम्बन्ध में आत्मा में रह कर वहाँ विषयता सम्बन्ध से मान्ममानमसाक्षात्कार को उत्पन्न करेगा । इस तरह शरीरातिरिक्तात्मवादी के मत में आत्ममानस के अनुरोध से गंयोग की स्वातन्त्र्येण प्रत्यक्षकारणताषचंद्रदक सम्बन्ध मानना आवश्यक होता है जब कि शरीरात्मवादी के मत में किसी भी प्रत्यक्ष की कारणतावच्छनकनन्यायत्तिविधया योग का स्वतन्त्र स्वीकार करना आवश्यक नहीं है । सभी द्रव्यों का स्वसंयुक्तसमवायमम्बन्ध से ही प्रत्यक्ष हो सकता है । जैस चक्षुसंयुक्त काल में समवेत बट में स्वसंयुक्तसमतत्व सम्बन्ध में बन रहने में वहाँ विषयता सम्बन्ध में घटगोचर चाक्षुप माक्षात्कार होता है। एवं अन्यत्र भी स्वसंयुक्तसमवेतत्व सम्बन्ध में ही द्रव्य और द्रव्यममयन के प्रत्यक्ष की उपपनि हो जाने में संयोग को पृथक् प्रत्यक्षकारणतावच्छेदक सम्बन्ध मानने की गरागत्मघाटी के मन में आवश्यकना न होने में लापन है ।
थ.। यदि यह कहा जाय कि -> 'द्वयणक, परमाण एवं चक्ष आदि के रूप के चाक्षुप के परिहागर्थ चक्षुःसंयुक्तममवाय को वक्षःसंयुक्तमहर तरूपचन्ममवायत्वरूप से हो चाक्षुप प्रत्यक्ष का काराणनावच्दक सम्बन्ध मानना परंगा जिमक फररूप में द्वपणुक और परमाणु में महत्व एवं वन आदि में उदभुत रूप नहीं होने में इयणुक एवं घर - परमाणु भाटि के रूप
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६५२ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड ३ का. १९ * त्रुटिचाधुपकारकरणात
सतित्वे त्रुटिग्रहार्थ प्रत्यासतित्वमावश्यकमेवेति तेत् ? व द्रव्यतत्समवेतप्रत्यक्षे महत्त्वस्य समवाय-सामानाधिकरण्याभ्यां पृथक् कारणत्वात् । च परमाणौ पृथिवीत्वादिप्रत्यक्षापत्ति
ॐ जयत्राता
महदुद्भूतरूपतत्समवेतत्वत्वादिना प्रत्यासनित्वस्वीकारावश्यकत्व इति । अयमथाशयः स्वसंयुक्तसमंतत्वस्य स्वसंयुक्तसमवेतत्वत्यादिना प्रत्यक्षकारणतावच्छेदकप्रत्यासत्तित्वस्वीकारे यशुकपरमाणुरूपयो: चाक्षुपं स्यात् चक्षुषः स्वसंयुक्तसमवेतत्वसंसर्गेण तत्र सत्यात् । न च तत्प्रत्यक्षं भवति । अतः चाक्षुषकारणतावच्छेदकप्रत्यासत्तिनध्यं महत्त्वस्य प्रदेश: शरीरात्यवादिनाऽवश्यं कर्तव्यः । तथापि इन्द्रियरूपाद: चाक्षुपं दुर्निवारं तत्र स्वसंयुक्तमहत्त्ववत्समवेतत्वसंसर्गेण चक्षुषः सन्यात | अतः तदप्रत्यक्षत्वानुरोधेनोद्धृतरूपस्याऽपि तन्न निवेशः कार्यः । ततश्च विषयतासम्बन्धेन तत्समवेत प्रत्यक्षत्वावच्छिन्नं प्रति स्वसंयुक्तमहदुद्धृतरूपवत्समवत्त्वसंसर्गेण | मन: चक्षुः सार्शनेन्द्रियान्यतमस्य कारणत्वं शरीरात्मादिना स्वीकर्तव्यम् । तथा च वसंरेप्रत्यक्षानुपपत्तिः, तत्समवायिनों द्वयस्य महस्वहीनत्वेन तत्र स्वमंयुक्त महदुद्भूतरूपवत्समवेतत्वसन्निकर्षेण चक्षुषीऽन्वात् । अतः त्रुटिग्रहार्थं = बसरेगुचाक्षुषोपपत्तये संयोगस्य स्वातन्त्र्येण प्रत्यासत्तित्वं प्रत्यक्ष कारणतावच्छेदकसत्रिकर्षत्वं आवश्यमेव । इत्यञ्च चापानुरोधेन चक्षुः स्वसंयोगसम्बन्धेन प्रत्यक्ष कारणत्वाभ्युपगमे शरीरात्मवादिनः 'संयोगस्य पृथकप्रत्यमनित्या: कल्पनलाघवमिति वचनं लक्त इति तुल्यगौरवमुभयते इति शरीरातिरिकात्मवादिनस्तात्पर्यम् ।
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नञ्पनास्तिकास्तदराकुर्वन्ति नेति । लौकिकविषयतासम्बन्धेन द्रव्यतत्समवेत प्रत्यक्षं महत्त्वस्य उपलक्षणात तपस्य च समवायसामानाधिकरण्याभ्यां पृथक् कारणत्वादिति । अयं शरीरात्मवाद्यभिप्रायां लौकिकविषयतया द्रव्यप्रत्यक्षं प्रति महत्त्वोद्भूतरूपयोः समवायन द्रव्यसमवतसाक्षात्कारं प्रति च तयो: सामानाधिकरण्येन कारणत्वम् । ततश्च द्रव्यतत्समवेत प्रत्यक्षं प्रति स्वसंयुक्तसमवेतत्वत्वेन प्रत्यासत्तित्वमनपायम् । स्वसंयुक्तसमवेतत्वमत्रिकर्षण नेत्रवति यशुक्रे समवायेन परमाणुरूपं च सामानाधिकरण्येन महत्त्वस्य इन्द्रियपिशाचादौ समवायेन तदीयपदी च सामानाधिकरण्येतस्य विरहान्न तत्साक्षात्कारापतिः । | एवं प्रत्यक्षप्रत्यासत्तिमध्ये महत्वोद्भूतरूपवीरप्रवेशेन न त्रुटियाक्षुषाधिन संयोगस्य पृथकप्रत्यासनित्वं कल्पनीयग, चक्षुः संयुक्तशुकसने संगी स्वरांयुक्तसमवेतत्वसम्बन्धेन चक्षुषः सत्यात् ।
अतिरिक्तात्मवादिदाङ्गकामपाकर्तुमुपक्रमन्तं • न वेति वाच्यमित्यनेनान्वेति । परमाणी पृथिवीत्वादिप्रत्यक्षापत्ति
के साथ चक्षु का स्वसंयुक्तमहद्भूतरूपवत्समवाय सम्बन्ध नामुमकिन बनने से आपादित चाक्षुष का परिहार हो सकेगा। मगर इस परिस्थिति में एक नयी समस्या खड़ी होगी कि त्रसरेणु का चाक्षुप न हो सकेगा, क्योंकि त्रसरेणु के अवयव द्र्यगुक में महत्त्व नहीं होने से स्वसंयुक्तमहदुद्भूतरूपवत्समंतत्वसम्बन्ध से चक्षु की सरेणु में उपस्थिति नहीं है । अतः त्ररेणु | के चाक्षुप की उपपत्ति के लिए दो संयोग को स्वतन्त्र प्रत्यक्षकारणतावच्छेदक सम्बन्ध मानना ही होगा तभी स्वसंयोग सम्बन्ध से में चक्षु के होने की वजह उसमे विषयता सम्बन्ध से चाक्षुप उत्पन्न हो सकेगा। इस तरह त्रुटिया के अनुरोध से संयोग में पृथक प्रत्यक्षकारणतावच्छेदकप्रत्यासतित्व की कल्पना आवश्यक ही है तब शरीरात्मवादी के मत में प्रत्यासतिलाघव कैसे मुमकिन होगा ! ←←
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* महत्व और उद्भूतरूप में स्वतन्त्रकारणता
न.द्र. तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि लौकिकविषयता सम्बन्ध से वन्यप्रत्यक्ष के प्रति समवाय सम्बन्ध से महत्त्व एवं उदभूत रूप में स्वतन्त्र कारणता मान लेने पर एवं लौकिकविपयता सम्बन्ध से द्रव्यसमवेतविषयक प्रत्यक्ष में सामानाधिकरण्य सम्बन्ध से महत्त्व एवं उद्भूत रूप को स्वतन्त्रतया कारण मान लेने से चक्षुः संयुक्तसमवाय को स्वसंयुक्तररमतत्वरूप से भी कारण मानने में परमाणुरूप, द्व्यणुक, चक्षु आदि के रूप के प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं हो सकती है। द्वयणुक में समवायसम्बन्ध से महत्त्व ही नहीं रहता है एवं परमाणु, चक्षु आदि के रूप में सामानाधिकरण्यसम्बन्ध से क्रमश: महत्त्व एवं उद्भूत रूप ही नहीं रहते हैं । कारणान्तरविरह की वजह उनके प्रत्यक्ष की आपत्ति को अवकाश कहाँ ? त्रसरेणु में तो समवाय सम्बन्ध से महत्त्व रहता है । अतः द्वयक के महत्त्वहीन होने पर भी स्वसंयुक्तसमवेतत्वसम्बन्ध से त्रुटि में चक्षु रहने की वजह रेणु का चाक्षुप निराबाध है । इस तरह संरेणु का चचसंयुक्तसमवेतत्वसम्बन्ध से ही प्रत्यक्ष सम्भव होने से संयोग की पृथक प्रत्यक्षकारणतावच्छेदक प्रत्यासत्ति मानने की शरीरात्मवादी के मन में आवश्यकता नहीं है ।
अयोग्यवृत्तिधर्मायोज्यमपिभावकूट प्रत्यक्षमात्र का कारण
न च । यहाँ यह भी कहना कि 'स्वसंयुक्तसमवेतत्वसम्बन्ध को प्रत्यक्षकारणतावच्छेदकप्रत्यासत्ति मानने पर तो
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प्रत्यसामान्यविचारः
वारणायोद्भूतरूप - महत्वयो: प्रत्यासत्तिमध्ये निवेशनमेवोचितमिति वाच्यम्, परमाणौ पृथिवीत्वप्रत्यक्षस्याऽनापाद्यत्वात् घटादौ तस्य तु जायमानत्वादेव । न च परमाणुघटितसन्निकर्षात् पृथिवीत्वादिप्रत्यक्षापतिः, अयोग्यवृत्तिधर्माऽयोग्यसन्निकर्षाद्यभावकूटस्य सामान्यत एव प्रत्यक्षहेतुत्वात् ।
अस्तु वा स्वविशिष्टस्वविषयसमवायित्वसम्बन्धेन जातिचाक्षुषं प्रति विषयतासम्बन्धेनाश्रयचाक्षुषस्य हेतुत्वम्, तेन नाऽयं दोषः । एतेन स्वविषयसमवेतत्वसम्बन्धेनाऽऽश्रयचाक्षुषस्य गयलता
-
= प्रत्यक्षकारणताव
वारणाय = पृथिवीत्व द्रव्यत्वादिजातिगोचरसाक्षात्कारापाकरणकृतं उद्भूतरूपमहत्त्वयोः प्रत्यासत्तिमध्ये छेदकसन्निकर्मकुक्षौ निवेशनमेोचितं तथा च पुनः त्रुटिसाक्षात्कारी पत्तये संभोगस्य पृथकप्रत्यासतित्वमावश्यकभवेति प्रत्यक्षस्यानापाद्यत्वात् । द्रव्यसनवतसात्कारं प्रति सामानाधिकरण्येन महत्त्वस्य कारणत्वात् । तत्तश्चाऽयोग्यवृत्तिधर्मत्वात् न परमाणुवृत्तिद्वृधियीत्वादिजातिप्रत्यक्षम् । घटादी तस्य = पृथिवात्यादिप्रत्यक्षस्य त जायमानत्वादेव अनापाद्यत्वम् । महत्वाद्भुतरूपसमवायसम्वत्पृथिवीत्वादी स्वसंयुक्तसमवेतत्वसम्बन्धेन चक्षुषः सन्चात् । न च परमाणुघटितसन्निकर्षात् पृथिवीत्वादिप्रत्यक्षापत्तिरिति वक्तव्यम्, अयोम्पवृत्तिधर्मायोग्यसन्निकर्षाद्यभावकूटस्य सामान्यत एव प्रत्यक्षहेतुत्वात् प्रत्यक्षत्वावच्चिन्नकारणत्वात् परमाणुदितसन्निकर्षस्या योग्यत्वादेव तेन तस्यानापाद्यमानत्यागति नननास्तिकाभिप्रायः ।
=
६४३
=
निरुकूटस्य प्रत्यक्षत्वावचिह्नकारणले गौरवात्कल्पन्तरनाह - अस्तु वेति । स्वविशिष्टस्वविषयसमवायित्वसम्बन्धनति अनेन कार्यतावच्छेदकसम्बन्धप्रदर्शनं कृतम् । स्वपदन जातिचाक्षुषग्रहणम् | वैशिष्टय विपयतासम्बन्धेन बोध्यम् । श्व विषयतासम्बन्धेन स्वविशिष्टां यः स्वविषयसमवायी तस्मिन् स्वविशिष्टस्वविषयसमवायित्वं तेन सम्बन्धन जातिचाक्षुषं = जातिचाक्षुत्वावच्छिन्नं प्रति विपयतासम्बन्धेन = स्वनिष्ठीकिकविपचिता निरूपितविषयतासन्निकर्षेण आश्रवचाक्षुपस्य जातिसमचायिगोचरचाक्षुषस्य हेतुत्वम् । मुद्गरप्रहारादिविरहदशायां घायलोकिकवितासम्बन्धेन बटे सत्त्वात् स्वविशिष्टस्वविषयसमययित्वसम्बन्धेन च घटत्व पृथिवीत्वादिपदत्वापविश्वासिनां घटस्य विशेष्यताभिधानविषयतासम्बन्धन 'घटीयमित्याकारकघटत्वचाक्षुषविशिष्टत्वात । तेन निरुक्तकार्यकारणभावस्वीकारेण न अयं परमाणुसमंत - पृथिवीत्वचा इगलक्षणोऽनुपदी डीपः परमाणो लोकिकविषयतासम्बन्धेन पृथिवीत्वाश्रयगोचरत्वानुषस्य स्वविशिष्टस्वविषय| समत्रयित्वसम्बन्धावच्छिन्नपृथिवीत्वचाशुपनिष्टकार्यतानिन्छ पितकारणता वयस्य विरहात् ।
=
एतेन = निरुतकार्यकारण भावाभ्युपगमेन, अास्तमित्यनेनास्यान्वयः । स्वविषयसमवेतत्वसम्बन्धेन आश्रयचानुपस्य परमाणु में रहनेवाले पृथिवीवाद का भी प्रत्यक्ष होने लगेगा, क्योंकि संयुक्तपरमाणुसमवेत पृथिवीत्वादि में स्वसंयुक्तसमवेतत्व सम्बन्ध से चक्षु उपस्थित है । अतः तनिवारणार्थ प्रत्यक्षकारणतावच्छेदकप्रत्यासत्ति में उद्भूत रूप एवं महत्व का निवेश करना उचित है । स्वसंयुक्तमहदुद्भूतरूपवत्समवेतत्व सम्बन्ध को प्रत्यक्षकारणतावच्छेदक प्रत्यासत्ति मानने पर ही परमाणुवृत्ति पृथिवीत्य आदि के अापकी उपपति हो सकती है, क्योंकि परमाणु में महत्त्व न होने से महत्त्वप्रति उक्त सम्बन्ध से परमाणुगत पृथिवीत्वादि में इन्द्रिय रहती नहीं है। तब को पुनः पूर्वोपदर्शितरीति से त्रुटिप्रत्यक्ष के अनुरोध से संयोग को पृथक प्रत्यवकारणतावच्छेदकप्रत्यासनिविषया मानना आवश्यक होगा' भी ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्यसमवेतप्रत्यक्ष में सामानाधिकरण्य सम्बन्ध से महत्त्व कारण है, जो परमाणुसमं पृथिवीत्वादि में नहीं रहने से परमाणु में पृथिवीत्वादि के प्रत्यक्ष की आपनि नहीं श्री जा सकती । पदादि में रहनेवाले पृथिवीवाद का तो बाप होने से ही उसका अपादान नहीं हो सकता। भी परमाणुपदिन सन्निकर्ष में पृथिवीत्वादि के प्रत्यक्ष की आपति होगी' - इस शंका के समाधानार्थ यह कहा जा सकता है कि कविता सम्बन्ध से प्रत्यक्षसामान्य के प्रति अयोग्यवृत्तिधर्म, अयोग्यशिक आदि के अभाव का समुदाय स्वरूपसम्बन्ध से कारण होता है | परमाणुघटित प्रत्यासति अयोग्य होने से उसके द्वारा पुगिचीत्यादि का साक्षात्कार नहीं हो सकता । अत: त्रुटिप्रत्यक्ष के लिए संयोग में पृथक प्रत्यासत्तित्व की कल्पना अनावश्यक है - यह नवीन चावकों का वक्तव्य है ।
फिर
=
हर अथवा यह भी कहा जा सकता है कि विशिष्टत्वविषयसमवायित्व सम्बन्ध से जातिचाक्षुप के प्रति विपयता सम्बन्ध से आश्रयचाक्षुप कारण है। घटत्वादि के आश्रय घटादि का चाक्षुष होने पर ही घटत्वादि का वाप प्रत्यक्ष होना है, न कि उसके बिना भी । कार्यतावच्छेदक प्रत्यासति के पदक स्वपद से जातित्राक्षुष का ग्रहण अभिमत है । उससे विशिष्ट
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२४१ चमयादादरहस्ये घण्टुः 2 . का. *गम पागगनप्रतानिपरीक्षणम
जातिचाक्षर्ष प्रति हेतुत्वेऽपि विनश्यवस्थसन्निकर्षण घटादिवानुषोत्तरं परमाणों पृथिवीत्वादिप्रत्यक्षापत्तिरित्यपासतम ।
लनु 'मम शरीरमि'त्यादिपतीत्याऽऽत्मनोऽतिरेक: सेत्स्यतीति चेत् ? न, उक्तलाघवबलेनेटशप्रतीत मत्वकल्पनात्, 'श्यामोऽहं गौरोऽहमि'त्यादिसामानाधिकरण्यानुभवाच्च ।
-* जराला= जातिसमवायनाक्षपस्य लौकिकविषयतका जातिचाक्षुपं प्रति हेतुल्वे ग्वीक्रियमाणे घटत्वममवापिघटगोचरचक्षुषम्य स्वविश्यसमवेतत्वसम्बन्धन घटले सन्चन तत्र लौतिकविषयनया घटत्वचाक्षुषोत्पादस्योपपादने अपि विनश्यदवस्थसन्निकर्पण = चिनश्यदयम्धो या घटादिः नदिपर कयाःसन्निकण, घटादिचाक्षुपोत्तरं = घटादिगंदरच क्षुपान्यादान्यचहितात्तरक्षगावच्चंदन, परमाणी पृथिवीवादिप्रत्यक्षापत्ति: वांग, घटस्य परमाणक महात्मकत्वन घटनाक्षपम्प स्यविषयसमश्नत्वमानधन परमागगनप्रथिचीत्वादापि सन्चान इत्यपास्तम, स्यविशिष्टस्वविषयसमायित्वसम्बन्धनब जातिचाक्षपं प्रति विषयतया जात्याश्रयचाक्षपस्य हेनुत्वम् कारण प्रकृनापनरयोगात, तदधन कार्यतावशंदकप्रत्यासनी 'स्यचिशिष्ट त्युक्तम् ।।
ननु मम शरीर' इत्यादिप्रतीत्या आन्मनः शरीरात अतिरकः सेत्स्यति देहात्मनारभेद तु 'अहं शरीरमित्या प्रततिः म्यान्न त ममेदं झार्गम'ति । यथा मम पस्नक' इत मृतात्या शात्मनः पुस्तकादतिरकः तथैव 'ममदं शरीर मित्याकारकवनात्या शरीरादतिरकः। यद्यपि पाट्या; सम्बन्धमात्रमर्थः नापि तस्य भेनियनत्वेन शारिहन्त्ववदर्भदस्य शाब्दयोधंत्तरमाक्षेपलभ्यत्व- ॥ मन्याहमिति न-बाशयः ।
नव्यनाम्निकारतन्निगन्ति - नति । उक्तलापरवलेन = मंगांनस्य पुथकप्रत्यक्षकारणातावळेदकात्यायनिवारकल्पनलाघरानगंधन, इदशनीतः = 'मगारमि'न्यादिपनीत : भ्रमत्वकल्पनात वस्तुतस्तु प्रष्टया न भेदनियतत्वं, महो: शिर' इत्यादावभेदपि तहानात्। एनेन भवशिष्टः सम्बन्ध एव पट्यर्थ' इत्यपि प्रत्युतम् । कि तस्या भेटनयन्ये 'ममाध्यमात्मा' इत्याद: का गतिः ? तत्रादीपगम प्रकृतं ममदं शरीरनित्य कि बदिछन्नं ? 'श्यामोऽहं' 'गोरोऽहं' इत्यादिसामानाधिकरण्यानुभवाच । यथा नीलो घट' इत्यादी समान-विभजिकचलक्षणम्य भिन्नप्रतिनिमित्नशब्दानामकार्थबोधकत्वस्वरूपस्य या मामानाधिकरण्यम्य वामान मात्र पावभन्न घटः' इत्यङगीक्रियते तददेव 'व्यामोह' इत्यादी 'श्याम.
है उसके विषय का समवायी पदादि धर्मी । विषयता सम्बन्ध से आश्रयचाक्षुप घटादि में रहने से स्वविशिशस्त्रविपयसमायित्व सम्बन्ध से घटत्वादिचाक्षुप भी वहीं उत्पत्र होता है। परमाणु का तो चानुप ही नहीं होने से विपयना सम्बन्ध से आश्रयचाक्षुष परमाणु में नहीं रहने से परमाणुसमवेत पृथ्वीवादि का चाक्षुप यहाँ स्वविशिष्टस्वविषयममवायित्वमन्वन्ध में उत्पन्न हो सकता नहीं है। अतएव यहाँ यह वाका भी कि --> विषयता सम्बन्ध से जातिचाप के प्रति स्वविपयसमचतत्व सम्बन्ध में आश्रयचाभुप को कारण माननं पर चाशुपविपयभूत घद में ममबन घटत्वादि में स्वविपयसमवतत्व सम्बन्ध से आश्रयचाक्षुप को कारण मानने पर चाक्षुपविषयीभून घट में ममयट घटत्वादि में स्वविषयसमवेतत्व सम्बन्ध से आश्रयचाक्षुप के रहने से विपयता सम्बन्ध से घटत्वादिचाक्षुष की उत्पत्ति नो हो सकती है मगर बिनम्यवस्थावाले घट के चक्षुमत्रिवर्ष से पटचाक्षुप होने के बाद परमाणु में पृथिवीनादि के चाक्षुप की आपत्ति आयगी, क्योंकि परमाणसमूहात्मक घट प्रत्यक परमाणु से अतिरिक्त न होन में घटचाक्षुपविपयीभून परमाणु में ममत्रत पृथिवीत्वादि में स्वविषयसमवेतत्व सम्बन्ध से आश्रयवाक्षुप रहना है' «- निरस्त हो जाती है, क्योंकि नव घट ही विनष्ट होने से परमाणनिधियादिप्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं है । अतएव नर स्वविशिष्ट स्वरिपयसमवायित्व का आश्रय न रहने की वजह उस सम्बन्ध में परमाणुसमवेत पृधिनीत्वाटि के चाक्षुप की उत्पनि की कोई संभावना नहीं है। यह आपत्ति तब आती यदि विपथना सम्बन्ध मे जातिचाक्षम के प्रति स्वविषयसमवतन्य सम्बन्ध से आश्रयचाक्षुग का कारण माना नाय । मगर हम तो पूर्वोक विशिष्टस्वविषयसमवायिय सम्बन्ध गे जानिचाक्षुप के प्रति स्वविषयता सम्बन्ध में आश्रयचाक्षुष को कारण मानते हैं जिससे अनुपदक पद्धति से परमाणुसमयन पृधिनीत्यादि के चाक्षुप का परिहार हो सकता है।
नन् मम.। यहाँ यह शंका हो कि > "आत्मा को शरीर में अनिरिक न मानने पर 'मम शगर' = 'या, मंग शरीर है, इत्यादि प्रतीनि कसं हा गगी ? शरीर पचं भान्मा परस्पर अभिन्न होने पर ता - मैं शरीर है । गमी प्रतीनि होनी चाहिए। जमे पुस्तक. अपन से भिन्न होने की वजह 'मैं पुस्तक है रोगी प्रतीति न होकर 'यह मंग पुस्तक है' इत्याकारक प्रतीति होती है ठीक वैसे ही मैं वार्गर है, मी प्रतीति न होकर 'यह मंग झर्गर है' मी प्रनीति होने में शरीर से अतिरिन आत्मा की सिद्धि होती है - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि वह प्रतीनि भ्रमात्मक होनी है। इसका कारण
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* पार्थिवदह कलंदना दरोणाधिकता * ताना तथापि भूतचतुष्कप्रकृतित्वेन शरीरस्य पृथिव्यादिभिनत्वात्पृथिव्यादिचतुष्टयमेव तत्त्वमिति प्रतिज्ञासन्न्यास इति चेत् ? ता, स्याश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन गन्धाभावस्य गन्धं प्रति प्रतिबन्धकत्वेन तस्य भूतचतुष्कप्रकृतित्वाऽयोगात, पार्थिवशरीरे जलादिधर्मस्यौपाधिकत्वात् । दिक्कालयोश्च मानाभाव; दिक्कृत-कालिकविशेषणताभ्यां जन्यमूर्ताभ्यामेव तत्कार्यसम्भवात् । -* गयाता
- रुपयदभिन्नो हाम' त्यवमनुभवचलानुपगन्तव्यम, स्वरसचाहिस्वानुभवबलायानस्या नभ्युपगममात्रेण प्रतिक्षपाड्योगात् । आत्मनश्वास्तिकमते नीरूपत्वन नवानानुभवोपपत्तिः गम्या । आदिपदेन 'अहं गुरु:' इत्यादिसमानाधिकरणप्रतातहणम् । किञ्च शरीरात्मवादिगते उद्धृतरूपकार्यतावच्छेदकं अन्य प्रत्यक्षत्वमेव न वात्मतरत्वनपि तत्र निविदात इति लघवाग ।
ननु नथापि = आत्मनः गरी रातिरिक्तचे :पि, भूनचतुष्कप्रकृतिरन पृधिन्यप्त जादायुलक्षणभूतचतुष्कापादयत्न. शरीरस्य पृथिव्यादिभिन्नत्वान, प्रत्येकमधिनिगनात, विभिन्नभूनचतुष्काभिन्नत्स्य च युक्तिविरुद्धत्यात शरीरस्य भूतचतुष्टयाति - रिक्तत्वमंगपयं, तथा च 'पृधिच्यादिचतुष्टयमेव तत्त्वं' इतिप्रतिज्ञासंन्यासः भूतन्चतुष्टयानिरिक्तदागरतचापगादिति चेन् : न, स्वाश्रयममवंतत्वसम्बन्धन गन्धाभावस्य समचायेन गन्धं प्रति प्रतिवन्धकत्वन नरादिवारीरस्य भुतचनुप्कममचायिकारणले गन्धाभावज्जलादिसमवेतत्वन स्वाशयममवतत्वसम्बन्धन गन्धाभावबच्वान्मनुष्यादिव र समयान्येन गन्धोत्पाद: न स्यात् । नन निर्गन्धत्वापातेन तस्य = शरीरस्य भूतचतुष्कप्रकृनिवाऽयोगात् = पृथिव्यादिचतुष्टयसमचाविकारगफत्वा सम्भवान, धिन्यादिनतुष्कान्यतमसमनायिकारणकत्वमंत्र । न च विनिगमनाविरह बद्भावनीयः, यस्य प्राधान्यं तस्यैत्र दारीरोपादानकाराणत्वापगमात यथा मनुष्यशरीर पधिर्वातत्त्वाय राधान्यान पार्थिवत्दम । न चैवं मनष्यशरीर म्लंदनाद्यनपत्तिः , नस्य जलादिधमत्वादिति वान्यम्, पार्थिवशरीरे जलादिधर्मस्य औपाधिकत्वादिति । 'पार्धिवारीरांगष्टम्भकस्य जलानलादिसंयोगस्य सन्चात सर्वदा मनुष्यदेह लंदनीयाद्युपलिब्धिरिति न भूतचत कमात्र तत्त्वमि ति प्रनिजात्यागदपङ्ग इनि तात्पर्यन ।
ननु मास्तु शात्मनः शरीरातिरिक्ततं दारीरस्य वा भूतचतुष्टयन्यतिरिक्तत्वं नाघि दिन काट्योग्नु भूनचतुष्टयातिक यह है कि शरीर को ही आत्मा मानने में उपर्युक्त प्रत्यासत्तिलाघप होता है जब कि शरीरातिरिक्त आत्मा का स्वीकार करने में प्रत्यक्षकारणतावच्दक प्रत्यासत्ति में गौरव होता है। दूसरी बात पह है कि मैं दयाम हैं। मैं गौर है। इत्यादि शरीर के समानाधिकरण भी प्रीति होती है जिससे शरीर और आत्मा में अभेद सिद्ध होता है, क्योंकि आस्तिक की अभिमत आन्मा तो अरूपी होने से श्याम, अंत आदि रूप से शून्य होती है।
ननु त.। -> "शरीर को आत्मा मानने पर भी यह समस्या तो अपरिहार्य रहगी । वह यह कि पृथ्वी आदि चार भूत शरीर के उपादान कारण हैं। उनमें से किसी एक में शरीर का अन्तर्भाव मानने में कोई विनिगमना नहीं है और एक ही शरीर का परस्पर भिन्न चार भूतों से अभंद युति आदि से विरुद्ध होने से चारों में शरीर का अन्तर्भाव ही नहीं सकता । अतः शरीर भी पृथ्वी आदि चार भूना की भाँति एक स्वतन्त्र तत्त्व हो जायगा । तब तो 'पृथ्वी आदि चार भून ही तत्व हैं, उनसं अतिरिक्त इस जगत में कुछ भी नहीं है'. इस चार्वाकसिद्धान्त का भङ्ग हो जायेगा" <- इस शका का सीधा समाधान यही है कि स्वाश्रयसमवनत्वसम्बन्ध ब गन्धादि का अभाव समवाय सम्बन्ध से गन्ध की उत्पत्ति का प्रनिवन्धक होने से यदि पृथ्वी आदि चारों भूतों से अतिरिक्त पारीर की उत्पनि मानी जायगी तो जलादि में, जो अतिरिक दार्गर का अवयव बनता है, रहने वाला गन्धाभाव स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से शरीर में रहने से शरीर में समवाय सम्बन्ध से गन्ध की उत्पत्ति का प्रतिवन्ध कर देगा । फलनः नारीर निर्गन्ध हो जायेगा । इसलिए पृथ्वी आदि चारों भूतों को शरीर का उपादान कारण नहीं माना जा सकना । -→ 'मनुष्य आदि के शरीर को जलाप्रिवृतिक न मानने पर उममें जलादि के भीनापन आदि धर्म की प्रनीति नहीं हो सकेगी' - इम शंका का समाधान यह है कि मनुष्यादि के पार्थिव शरीर में जलादि का उपटम्भक = धारक मंयोग मदेव रहने से जलादिस्वरूप उपाधि के कारण उममें जलादि धर्म की आफाधिक प्रतीति होने में कोई बाधा हो गकती नहीं है।
दिशा एतं काल में कोई प्रमाण नहीं है .. दिकः। भूनचतुष्क से अतिरिक्त कोई तत्व नहीं है उसके खिलाफ यह भी वक्तव्य कि -> "दिशा एवं काल भुतचनुष्य
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१४६ मध्यमस्याहादरतम्य स्खपन: ३ . का.
निकाय नियम * सनिकृष्ट-विप्रकृष्टत्वाभ्यामेव पराऽपरव्यवहारोत्पत्तौ परत्वाऽपरत्वयोपुणत्वे मानाभावात् । आकाशोऽपि नातिरित्यते, लिमितपवतस्यैव शब्दसमवायिकारणत्वात् । अत एव कर्ण
- नायता - स्यादेव, भूतानां मूत्यत तयाश्च नूतन्यात् । वमन पृथिव्यादिचतुष्टयमंय नयमिनिप्रतिज्ञासंन्यायस्य दुनिंबारत्वमित्यादाकायामाहुः - दिककालयोच मानाभाव इति । न च देशिककालिकपरत्वापरत्वा-साधारणकाग्मत्वाश्रयविधया नया: सिद्धारति वनव्यम्, दिक्कतकालिकविशेषणताभ्यां = दैनिककालकत विशेषणना-यां जन्यमुर्ताभ्यामव = मर्नेष जन्येन च नकार्यसम्भवात - क्रमेण दैशिककारिकपरवापरतासम्भवत् । नयायिकाद्यभिमतदाशिककालिकापणतयाः जन्यमूर्नम्परूपत्वाभ्युपगमी दिवकालकाय पदोपपत तिरिदिककालकल्पनाया न्याय्यत्वम्, देगिककालिकपरल्यापरवयोगर्न चान्पन्नत्वेन ना देशकालमासवारणकारणत्वे मानाभावात. अन्यथा मूर्दिी उत्पन्न कार्यान्तर :पि तम्या असाधारण कारणत्वा पत्नः । एतेन ज्येष्ठ पत्यप्रत्ययः कनिष्ठपरत्वप्रत्ययः स च एरल्यापरत्वगविशेषाधीन; परवापरत्वं च सा समयकारण भावकार्यन्यात अमगायिका तपी: कालगणसंयोग पति परवापरत्वयारगमवायिकारणसंयोगाश्रयतया कामिनि । मु.जा...दि. ३७) मुकावलीदिनकरीयवचनं प्रतिपिद्धम, परत्वात्ययो गल्लाभावान । नदेशपिकुन्नि - सनिकृष्टविप्रकृष्टत्वाभ्यामंव युक्रमेण परापरव्यवहारोत्पत्तो = परवापरत्वप्रकारचीच्यवहारत्पादमम्भव परवापरत्वयो: नवाधिकाभिमनयां: गणत्व मानाभावादिति । अल्पसंयोगान्तस्तित्वलक्षणसनिकृष्टत्वविषयकापेक्षादिविंशविण्यत्तस्यैवा-परवपदार्थत्वं बहतरस्यांगान्तरितत्वलक्षणचित्रकृष्टत्वविषयकापेक्षाधुद्धिविगेपबिगदत्वस्य व परत्वाधान्यत्वमिति ने नयांतिरिक्तगुणत्वकल्पनाया न्याम्यत्वम । ढ़ा नहुनरतपनगंयोगान्तरिती पनत्वं कालिकारत्वं नदल्पतरम योगान्तरितात्पन्नत्यमंय कालिकापनत्वं, बहनदासंयोगान्न रतलमेर दैशिकपरत्वाल्पतरस्थोगान्तरितत्यमेव तदपरत्वमस्तु लाधवन न त तमानजन्यातिरिकगणरूपं. नागापेक्षाबुजिन्यक्ति भटनाऽनन्तपरत्वादिकल्पन नन्सामग्रंकल्पन नत्रागकलाने चातिगखादित्यायः प्रतिभानि ।।
__नथापि शन्दसमचाविकारान्वनाकादाम्य भृतचनुकानि काद भूतचनुष्टयमं च तचनिनि प्रतिज्ञासन्न्या इत्याझ कायामाह आकाशोऽपि भूतचतुष्कान नातिरिच्यते निमित्तपवनस्पैर = शब्दनिमिनकारणत्वेन कलमस्य पवनयंत्र, शब्दसमवायिका. रणत्वादिनि । न चैवं कर्णशकानिचरावयित्राकाइस्य श्रोत्रत्वं न स्यादिति वाच्यम्, इष्टापत्त: । अन एव = पवनयंत्र
से अतिरिक्त हैं <- इसलिये निरस्त हो जाता है कि अतिरिक्त दिशा एवं काल में कोई प्रमाण ही नहीं है। यहाँ यह दांका हो कि ---> "दिशा एवं काल को न मानने पर दैशिकशिंपणता एवं कालिकविशंपणना से जो परत्व, अपानव आदि व्यवहार होता है वह नहीं हो सकंगा' <-- तो यह इसलिए निराधार हो जाती है कि दिककृत = दैशिक विपणना एवं कालकृत = कारिक दिशंपणता दिशा एवं कालस्वरूप न हो कर क्रमशः मुर्तपदाधस्वरूप एवं जन्यपदार्थरूप ही है। जग मीनांगकमत में अभाव अधिकरणस्वरूप होता है ठीक वैसे ही दैशिकविदोषणता एवं कालिकविशेषणता को भी मूतंपदार्थस्वरूप पर जन्यस्वरूप मानी जा सकती है 1 पवमपि दिया और काल का परत्व - अपरत्व आदि कार्य उत्पन्न हो सकता है। अतः उसके अनुगंध से दिशा और काल को अतिग्नि मानने की आत्रयकता नहीं है । वास्तविक विचार किया जाय तो परत्व और अपरत्व भी गुणस्वरूप नहीं है किन्तु ननन पदार्थस्वरूप ही है । जिस पदार्थ की अपेक्षा जे सत्रिकृष्ट होता है उसमें अपरत्व का च्यवहार एवं जिस पदार्थ की अपेक्षा जो ग्रिए = दर होता है उसमें पात्ल का व्यवहार हो सकता है। अत: पगपरत्यव्यवहार के अनुरोध से परत्व गर्व अपरत्व को अतिरिक्त गुणस्वरूप नहीं माना जा सकता। अतः परत्व एवं अपगत्व के ज्ञान एवं व्यवहार के उपपादनार्थ अतिरित दिशा एवं कान का स्वीकार अनावश्यक है । अत: 'भूनचतुष्क से भिन्न कोई नत्व नहीं है'- यह गिद्धान्न सुरक्षित रहता है।
SEPTER hti यही है - जा. नासिThe आका.। यदि कहा जाय कि → 'भूनचनक से अनिरिक पञ्चम आकाश नामक भुन का स्वीकार तो चार्गक का करना ही पडेगा, क्योंकि आकाश के अस्वीकार में शब्द गण की उत्पनि ही नहीं हो संकगी। अतः शन्दरामयापिकरणविधया आकाश का स्वीकार करना पडंगा' <-ता यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि निमित्तभुन पवन ही शब्द का समायिकरण हो सकता है। मतलय कि नायिकादि आकाश को शन्ट का समचायिकारण मान कर भी पवन को शन्द्र का निमिन कारण मानते हैं तब उचित तो यही है कि कला पवन को ही शब्द का समयायिकारण माना जाय । इस कल्पना में दमा लाभ
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* मुवतारीमानगकरणम * संयुक्तसमवायात्तग्रह इति न समवायादेः पत्यासत्तित्वम् । ___मनोऽपि चाऽसमवेतं भूतम् । न च पृथिवीत्वाही विलिामकाभावादतिरेको युक्तः, पार्थिवादित्वेऽपि तत्तदात्माकृष्टत्वेन विशेषसम्भवादिति निम् ।
इत्थच शरीराद्यतिरिक्तस्यात्मनः एवाऽसिन्दौ कस्य नाम परलोक: ? कस्य वा मोक्ष: ? इत्याहुः ।
- जयलता शब्दसमवायिकारणत्वात् कर्णसंयुक्तममवायात् एव तद्ग्रहः = इन्दगाक्षात्कार इति हेगः न समवायादेः = ग्चममवायस्वरूपचनसमवायादेः प्रत्यानित्वं = छान्द-शब्दत्वादि-प्रत्यक्षकारणतावदकसन्निकर्षवन । रूपा - रूपयादिमाभात्कारानरोधन क्लप्तसंगुनसमवायसंयुक्तसमवेतसमयाय भ्यमेव शब्द-मन्दत्यादिसाक्षत्कारांदरसम्भवन स्वसमवायम्वरमयतसमवायाः पृथक प्रत्यासनित्वा कल्पनलायबमार शब्दस्य गयुसमवतत्वपक्षे । एतेन शब्दा न स्पर्शद्विशरगुण: अग्निसंयोगासमवाधिकारणकत्याभात्र सत्यक रणनणपूर्वकप्रत्यक्षत्वात सुखयत् । राकज पादा व्यभिचारवारणाय सत्यन्तम्। पटरूपादी व्यभिचारबारणायाकारणग 'गपूर्वकेनि | जलपरमाणुमपादौ व्यभिचारवरणाप प्रत्यक्षति (क.४४.मु.पृ.३६७) मुक्तावलीकारदचन प्रत्यक्ता वाययत्र मुनिशन्दक्रमेण वाया कारणगुणपूर्वकट ब्दोत्पन्न : सम्भवाच । बामुविदायगुणस्य याबद्रव्यभाविनियमात या तर्कबिरहादनुपादेय पर । अता न भूतचतुष्कमावतन्त्रत निजाच्यातिरिति नूतननास्तिकादायः ।
नधागि मनसा भूतवतम्कातिरिकपन तदयस्थ प्रतिज्ञामान्यास इत्याशयामामाह: मनोऽपि चाऽसमयत भूतं । नत तदतिरिक्तन । भौतिका एक परमावो मनांसि अनन्नधर्मिणामतिरिक्तायाश्च जातः कल्पनामपेक्ष्य कलप्तानामेव धगिंगा क्लुमनः सपण ज्ञानादिहेतुनाया न्याय्यत्वात् । न च पृथिवीत्वादी विनिगमकाभावात् = मनसी भौनिकत्वं पृथिवयं जलवाटिक वा ? इत्यत्राधिनिगमात. उभयकल्पन व नानिसाइ कर्यात तस्य अतिरेक एक युक्त इति वाच्यम्, पार्थिवादित्वेऽपि तत्तदास्माकृष्टत्वेन = तनन्द रचरूपात्मसम्बद्भवेन तत्र विशेषसम्भवात् । वस्तुतस्तु पृथिर्य - जल-तजो-वाञ्चन्यतमल्न मनम्त्वनिर्णयानुनविनिगमकांचन्तानाचित्यमित्यादिसूचनार्य दिगित्युक्तम् । शिष्टं स्पष्टम । यह है कि शब्दआदिप्रत्यक्षकारणतावच्छेदक प्रत्यासत्तिवेधा स्वसमवाय-स्वसमवेतसमशय नामक अतिरिक्त सम्बन्ध की कल्पना भी अनावश्यक बन जाती है, क्योंकि स्वसंयुक्तममवाय सम्बन्ध में ही शब्द का थावण साक्षात्कार हो सकता है। स्व * कर्ण से मंयुक एवन में शन्न का समवाय होने में कर्णेन्द्रिय स्वसंयुक्तसमत्राय = स्वसंयुक्तसमवेनत्तमम्बन्ध से बाद में रह का दिपयता मम्बन्ध से यहां शब्द का श्रावण प्रत्यक्ष उत्पन्न कर सकती है । एवं वाग्दत्व का प्रत्यक्ष स्वमंयुक्तसमवेतममवाय सम्बन्ध से हो सकता है। स्वसंयुक्तममाय एवं स्वसंयुकममवेतसमवाय सम्बन्ध का तो रूप एवं रूपत्व आदि के प्रत्यक्षकारणतावनंदक सनिकपविधया स्वीकार उभयमन में अवश्य क्लुप्त ही है। अतः वाद को परनसमवेत मानन में प्रत्यारानि का लापर है, जब कि आकाशसमत्रत मानने में प्रत्यासनि का गौरव है। अतः आकाशनामक पचम भून का स्वीकार नहीं किया जा सकता । अन; भूतचतुष्कसिद्धान्न की सुरक्षा मुकर है।
। मान मागता भूत है - जतीन जास्तिक भनी । इस तरह मन भी अतिरिक्त नहीं है, क्योंकि मन अणुस्वरूप होने में पार्थिबादि परमाणु की भाँनि वह असमवेत भतस्वरूप माना जा सकता है । यहाँ यह शशा हो कि -> 'मन को असमवन भूतात्मक मानने पर भी उस पार्थिव मानना या जदीय या तेजसीय या वायवीय ! इसमें कोई चिनिगमक नहीं होने से उसको पृथ्वी आदि चार भूतों से अतिरिक्त पत्रम भुत मानना ही युक्त है - तो इसके ममाधानार्थ यह कहा जा सकता है कि मन पार्थिव आदि स्वरूप होने पर भी नन् नन् शरीरस्वरूप आत्मा से आकृष्ट = सम्बन होने की वजह मन में विशेपना सम्भविन है। अत: मन को अतिरिक भुन मानने की जरूरत नहीं है । पृधिरी आदि चार्ग में ही उसका यथासम्भव ममावेश हो सकता है । इस नरह कायाकारपग्णिन भूतरामूदाय में अतिरिक्त आत्मा की ही जब सिजि नहीं होती है तब किमका परलोक होगा ? पर्च किमका मोक्ष होगा? काया तो यहाँ ही जल कर खाक हो जाती है। फिर कायस्वरूप आत्मा का परलोक गमन नामुमकिन है । एवं काया का नाश ही भात्मा की मुक्ति है, न कि उसम भिन्न अनन्त मुखस्वरूप । इसलिए यहाँ खाओ, पिओ और मौज करी । परलोकादि में मुम्बी उनने के पत्रं मोक्षप्राप्ति के उदेश में दीक्षा, नप आदि कष्टानुष्ठान की कोई आवश्यकता नहीं है। - यह नीन नास्तिकों का मत है ।
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६४८ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः ३ - का.५५ प्रमागनयनवालाकालकारमंवादः
तेऽतिपापीयांस, सर्वापलापित्वात् । तत्र यत्तावदुक्तं 'भूतचतुष्टयातिरिक्तमात्मादि वस्तु ॥ नास्त्येव, अनुपलब्धेरिति - तत्र केयमनुपलब्धिः ? (9) स्वभावानुपलब्धिा , (२) व्यापकानुपलब्धिा , (३) कार्यानुपलब्धिा , (४) कारणानुपलब्धिर्वा, (१) पूर्वचरानुपलब्धिर्वा, (६) उत्तरचरानुपलब्धिा , (७) सहचरापलब्धिर्वा ? तत्र न तावदाधा, यतः स्वभावानुपलब्धिर्हि उपलब्धिलक्षागप्राप्तस्य तत्स्वभावस्याऽजपलम्भः । भवति चैताहशो मण्डतले घटादेरजपलम्भ न तु विशाचादेः, तस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वाऽभावात् । न च सिन्दयसिन्दिभ्यां व्याघात:, आरोग्ये तदूपनिषेधात् । न चाहश्यस्याऽपि दृश्यतयाऽऽरोप्य प्रतिषेधो युक्तः,
-* गयलता *उनरपवति ते = द्रविधा नास्तिकाः, अतिपापीयांसः, सर्वांपलापित्वात् = सर्वमूलभूतात्मतत्त्वप्रतिषेध र्धनः मर्यापलापित्वं स्पष्टभव । प्राचीननास्तिकमतमपाकर्तुम पक्रानते- तत्र यन् तावत् = प्रथम उक्तम् । अनुपलब्धि सप्तधा विकल्पनि स्वभावेनि । अन सोपयोगित्वात प्रमाणनयतत्त्वालाकालकारसूत्राणि प्रदर्श्यन्ते । तवाहि-तत्रा:विरुद्धानुपलब्धिः प्रतिषधाइवचाधे | सप्तप्रकारेति । प्रतिषेध्यनाविरुद्धानां स्वभाव-व्यापक-कार्य-कारण-पूर्वरोत्तरचर-सहचरागामनुपलब्धिरिनि । स्वभावानुपलब्धिर्यथा । नास्त्पत्र भूतले कामः, उपलथिलक्षण प्राप्तस्य नत्स्वभवस्यानरलम्भादिति । व्यापकानपलब्धिर्यधा नास्त्यत्र प्रदेश पनम: पादपानुपलब्धरिति । कार्यानुपलब्धिर्यधा नास्त्पत्रा प्रतिहतशन्तिक पीजं, अङ्करानवलोकनादिति । कारणानुपलब्धियथा न सन्त्यस्य प्रशमप्रभृतयों भाग., तस्वार्थानाभग्नादिति। पर्नचरापलश्चिर्यधा नांदगमिष्यनि महान्तं स्वातिनक्षत्रं चित्रोदया दानादिनि । उत्तरचरानुपलब्धिर्यथा नांदगमन्यूर्वभद्रपटा मुहूनांत पूर्वमउत्तरभद्रपदोगमानवगमादिति । सहचरानुपलब्धिर्मधा नास्त्यस्य सम्यग्ज्ञानं सम्यग्दर्शनानुपलब्धेरिनि । (प्र.न.न, परि.३ । मू. ५०.५८)
तत्र = दर्शितविकल्पराप्तकं. न तावत् = प्रथम भाद्या स्वभावानुपलब्धिः सम्भवति, यतः = यस्मात्कारणान ग्वभावानुपलब्धिर्हि उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्येति । उपलब्धिः = ज्ञानं तस्य लक्षनानि = कारणानि चक्षुरादीनि, नै: ापलब्धिलक्ष्यने = जन्यन इति याचनानि प्राप्तः जनकत्वनोपलब्धिकारणान्तर्भावादुपलब्धिलक्षण प्राप्तो दृश्य इत्यर्थः । नधाविधस्य परन्य तत्स्वभावस्प = तत्स्वरूपस्य अनुपलम्भः = ज्ञानाभावः । भवति चैतादृशः = उपलब्धिलक्षण्यप्रामप्रतियोगिनः, उभूतले = शुद्धभूतले, घटादः अनुपलम्भः, न तु पिशाचादेः तादृशानुगलम्भः, तस्य = पिशाचादेः अदृश्यत्वेन | उपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वाभावात् । पिशाचात्मादः स्वभावो नोपलभ्यते तस्स चक्षुरादिभिः नास्तित्वेनाऽवगन्तं न दाक्यने । न च सिद्धयसिद्धिभ्यां व्याघात:, यदि घटादिकपलब्धिलक्षणग्रामः कथं तहि ननिषेधस्ता. तत्र तत्प्रतिषेध न कध गुम्योपलब्धिलक्षणप्रातत्वमित्युपलब्धिलक्षण प्राप्रत्यस्य सिद्ध्यमिद्धिभ्यां व्याघात इति वाच्यम्, आरोग्य एवं घटादौ तदूपनिषेधादिति मुण्डभूतलनिरूपितवृत्चित्वादिकं निषिध्यन इत्यर्थः, सर्वचारोपितरूपविषयत्वात्रिषेधस्य । यथा नायं गौर इति । न यंतच्छत्यं वक्तं 'सति गौरत्वं न निषधी निषधे व न गौरमि नि । न चादृश्ययाऽपि पिशाचात्मादः दृश्यतया आरोग्य = समारोपविषयाकृत्य प्रनिधी युक्तः, अदृट्यमपि पिशाचादिकं दृश्यरूपतयारीप्य प्रतिषिध्यनामित्याक्षेपग्रन्धाशयः । ननिराकुरले
* भात अनुपलब्धि से. IICमा की प्रसिद्धि जामुमफिल - उत्तरपदा. * उत्तरपक्ष :- तेति। ये नास्तिक लोग अत्यन्त पापी है, क्योंकि वे आत्मा का ही रहिष्कार कर के फलत: परलोक, पुष्प, पाप आदि मर चीज का अपलाप कर रहे हैं । उनकी रामकहानी नितान्त अमत्य है । वह इस तरह, पडले हम प्राचीन नास्तिकों के मत की समालोचना करते हैं, बाद में नन्य नास्तिकों के मन की । देख्येि, प्राचीन नैयापिक मन की समालोचना की कमाल! प्राचीन नास्तिकों ने जो कहा था कि --> 'भूतचतुष्क में अतिरिक्त आत्मादि वस्तु नहीं हैं, क्योंकि उनकी अनुपलब्धि है' <-- यहाँ समर्षि की भाँनि ये सात विकल्प उपस्थित होने हैं कि - यह अनुपाय क्या ११) स्वभावानुपलब्धिस्वरूप है, या १२) च्यापयानुपलब्धिरूप है, या (२) कायर्यानुपलब्धिलक्षण है, या (४) कारणानुपलथ्यात्मक है, या (५) पूर्वचगनुपनधिरूपी है, या ।) उत्तरचरानुपलब्धिस्वरूपी है, या (1) सहचरानुपलब्धिआत्मिका है ? इन मार विकल्पों में से एक भी विकल्प मान्य नहीं किया जा सकता एवं इन सात विकल्पों से अतिरिक्त अन्य अनुपलब्धि का उद्भावन नामुमकिन है। अतः अनुपलब्धि प्रमाण से आत्मा आदि की असिद्धि असंगत है . यह तात्पर्य है। यहाँ प्रधम अनुपलब्धि |
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* स्याहादाकम गनः * आरोपयोग्यस्यैवाऽऽरोपसम्भवात् । उपलम्भकारसमसाकल्ये सति हि य उपलभ्यते स एव दोषवशात् क्वचित् कदाचिदारोप्यते, तादृशश्च घटादिरेव न तु पिशाचादिः, एकज्ञानसंसर्गीिण प्रदेशाही पदादेः प्रागनुभूयमानत्वात्पिशाचादेः पुनरतथात्वादिति स्पष्ट स्पासासलातरे ।
-* जराला - - आरोपयोग्यस्यैवारोपसम्भवादिति। आरोपयोग्यत्वं यस्याःस्ति तस्यैवानेपः सम्भवनि, गन्यस्य । पश्चार्धा चमगाना नियमनोपलभ्येत स एवारोपपोयो. न तु पिशाचादिः। एतंदब भावति - उपलम्भकारणसाकल्यं सति = ज्ञानपामयंग | हि = नियमेन यः पीतत्वादिगण उपलभ्यतं = नाब स एव दोपवशात पिच दिदो पमहाना कचित शहरवादी कदाचिटारोप्यने । नादृशश्र घटादिरेव नदपलम्भकरसामासने तत्पत्त्वेश्वयं तदपलम्भाल, न तु पिशाचादिः चश्वरसन्निकागदपत्र | तत्सत्यपि तदनपलम्भात् । प्रागनभूतस्यैव कांचन पश्चादानापो भवति, न स्वनन भूतम्य । तदेवाह एकज्ञानसंसर्गिपि । प्रदेशादी घटादेः प्राक् = पूर्वकालायछंदन, अनुभूयमानत्वात, पिशाचादेः पनरनथात्वात् = प्रागकज्ञानसं मन प्रदशादावननुभृयमानलात, इति स्पष्टं स्याद्वादरलाकरे । न्दनमाणबात्रास्माभिविभाक्तिमधिकच तनयं निरूपित्तन् - 'घटस्योपलम्भकारणसाकल्यं चकनानसंसगिंणि प्रदेशादावरलभ्यमान निनीयत घटप्रदेशयामालम्भकारणान्यरिशिष्टानीति कृत्वा । यश्च तद्देशाधेयतया कल्पिता घटः स एव ते कक्षानसंसर्गी. न देशान्तरस्थः । एकेन्द्रियग्राहां हि लोचनादिप्रणिधानाभिमुखवस्तु द्वयमन्योन्यापक्षमकज्ञानसंसर्गि कथ्यते । तयोहिं सनी कनियताभावप्रतिपनिः, योग्यताया दूयोरप्यविशिष्टत्वात् । नतश्वकज्ञानसंसर्गिणि प्रदेशादादुपलभ्यमाने प्यनुपलम्भात् । तदयुक्तम्, यनः प्रदेशादिना एकज्ञान संसर्गिण एवं घटम्य गाय: साध्यते स्वभावानपलम्भानान्यस्य' (न.त. परि ३. मू. ५५, स्या,र.पृ.६१) इति । नव्यन्यायपरिभाषया चवमुच्यन - - स्वभावानुपलब्धि का स्वीकार असंगत है, क्योंकि स्वभाव अनुपलब्धि का मतलब है, उपलब्धिलक्षणप्राम आत्मस्वभाव की अनुपलब्धि = ज्ञप्ति का अभाव । मुण्डभूतल = शुद्धभूतल = पटशून्य भूतल में घटादि की अनुपलब्धि ठीक ऐसी ही अनुपलब्धि होती है, क्योंकि वहाँ घट होने पर नो उसकी झप्ति ही हो जाती । चारों ओर निगाह फलाने पर भी मुण्ड भूतन म घट की अनुपलब्धि उपलब्धिलक्षण प्राप्त घट की अनुपलब्धि रूप होने से स्वभाव अनुपलधि कही जानी है । मगर मुण्टभुनन्द में पिशाच आदि की अनुपलब्धि स्वभाव अनुपलब्धि नहीं कही जा सकती, क्योंकि पिशाब उपलब्धिलक्षणमाप्त नहीं है । भूतनाटि में पिशाच आदि होने पर भी उसकी उपलब्धि = ज्ञाप्ति होनी नहीं है, भले ही हम चारों ओर गौर से अपनी निगाह फेलाच । इन्द्रियसन्निकर्षादि होने पर जिसका ज्ञान अवश्य हो वही उपलविलक्षणप्राप्त कहा जा सकता है । आत्मा भी अमूर्न होने की वजह उपलब्धिलक्षणप्राप्त नहीं है । अतएव आत्मा की अनुपलब्धि खभावानुपलब्धि नहीं कही जा सकती । यहाँ इस समस्या का कि → 'घट आदि की सना प्रत्यक्ष से सिद्ध हो नप इसका निषेध नहीं किया जा सकता और जब वही असिद्ध हो तब भी उसमें निबंध की सिद्धि नहीं होगी। अत: घट आदि का सिद्धि-अमिनि में उभयमुग्बी ज्यान होता है'- समाधान यह है कि आरोप्य में ही तदप = उपलब्धिलक्षणप्राप्तत्व या अधिकरणनिरूपितवृत्तिना का इम निषेध करते हैं । वह इस तरह कि यदि भूतल में घट आदि होने नो जरूर चक्षुसन्निकर्प आदि होने की वजह उपलब्ध = प्रत्यक्ष होतं । मगर वावृपादिसामग्री होने पर भी उनकी उपलब्धि हानी नहीं है। अतएव ने ही उपलब्धिलक्षणमाल है, पिशाच आदि नहीं। इस तरह आगेष्य घटादि में ही मुंहभूतलवृनिता का नेपध किया जा सकता है । पिशाच, मान्मा, परमाणु आदि में नहीं - पह स्याद्वादी का तात्पर्य है ।
आरोपर्याज्य ही माटोप. मुमगि * न चाद. । यहाँ इस आक्षेप का कि --> 'यदि प्रत्यक्ष में अमित का आरोप कर के उसमें उपलब्धिलक्षणातच का निषेध किया जा सकता है तब तो अदृश्य में भी दृट्यत्व का आगेप कर के अदृष्ट्य का प्रतिपंध हो जायेगा । इस || परिस्थिति में पिझाच, आत्मा आदि की सिद्धि नहीं हो सकेगी' - समाधान यह है कि आरोपर्य
सकता है, न कि आरोप के अयोग्य में भी। अत: अदृश्य का दृश्यविश्रया आरोप नहीं किया जा सकता। जिसकी ज्ञानमामग्री विद्यमान होने पर जो अवश्य ज्ञात होता है उसीका कदाचित दोपवश अन्यत्र आरोप हो सकता है । नाश नो घटादि ही है, क्योंकि चक्षुसन्निकर्ष आदि साक्षात्कारसामग्री होने पर एक ही ज्ञान में प्रदेश-पर्यनाटि में पूर्व में पटादि का नाक्षप साक्षात्कार हुआ ही है । अलपत्र मुण्डभूननादि में कदाचित बद का भागेए किया जा सकता है । मगर पिशाच, आत्मा आदि का पकज्ञानसंसगी प्रदश, पर्वतादि में पहले कभी भान नहीं हुआ है। अतएव मुण्ट भूतल आदि में पिशाच, आत्मा
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६... मम्बाजानहाये न्यान् ?
काम दादगाना::* शैवं स्तम्भे पिशाचस्वभावानुपलबिश: कथं ? तपैकज्ञानसंसर्गितया पिशाचस्य पूर्वमननुभूतत्वेनाऽलाशेप्यत्वादिति चेत् ?, , कथमपि तस्याः, सहचाराधनुपलब्ध्यैव प्रतिषेधव्यवहारात् । इत्थक्षात्मनि चक्षुरादिना स्वभावानुपलधिनस्त्येिव, आत्मनश्चराययोग्यत्वात् । गतसा तूपलब्धि ढगस्येव, अहं सुखी' इत्यायनुभवस्य सार्वजनीनत्वात् ।
-S ACTIपनियागिन्दमानग्यायन्यनियोग्युपमा मनमगवधाना गाया: तमितपतियागियत्व मानमञ्जिनप्रतियोगिसत्यापाया ना योग्यताया अभायात् योम्यानपर यमपन्या न शाबाद: म्यमाबानुपाब्धिः, तत्सहकनायर नस्य नदभात्र ग्राहकवनियमादिनि सङ्कपः ।
अथएवं = आरोपयोग्यम्यवासाभवयागने मति, स्तम्भ पिशाचम्नभावानुपरन्धिः = पिशाचतादात्म्यानपलम्भः कथं ? नत्र = प्रदशादी एकजनम्यर्णितया पिशाचस्य पूर्व अननुभूनन अनारोष्यवान = आगंगनईत्वात् । न एकज्ञानमंसगिणि प्रदेशादावन म्यमान पिशानादिः प्रजनम्तः । अननभनल्य च कथमागसम्भवः । तदसम्भवं च कर्य तन्नादात्म्यनिषेधः सम्भवादन्ययातः । यद्यपि प्रकृतं लघुस्याद्वादरहस्य माग्यमहकारिसम्पन्नत्तान्तम्य विक्षगादत्रा-धिकरणयोग्यताया एब नियामकत्यादिति 'दाग' (ल.स्या र '...८)ति समाहिना । स्याद्वादरत्नाकरन यस्तु पिझा चादिना प्रतिबन्धचालतो न्यमापादितः कुम्भ: म ने निषिध्यते । इह, चक्रज्ञानगंगा भासमानार्थस्त ज्ञानञ्च पहुंदामच्या घटस्यासनानुपलब्धिश्चान्यत' (स्या. र.:/
/पृ.६२५) इत्युक्तं तथापि प्रकारान्तरेण प्रकरणकात्र समाधने - न कथमपि तस्याः इति । स्वभावानुपलब्धित: स्तम्भ पिशाग्नुपरब्धिर्नव म्याक्रियत इत्यर्थः । नहि कथं स्नम्म पिशाचार्टन्धव्यवहार: ? इत्याराकायामाह - सहचराद्यनुपलब्ध्यैव नत्र निशानादः प्रतिपंचव्यवहादिति । यथा नारयस्मिन सन्मानानं सम्पन्न निनानुपलभ्यर्गित सह चगनुपलब्धियत नव नास्ति स्तम्भ पिशाचादितदारयं तन्महावरांपशाचाय-सपा अनपलब्धर्गित महचानलगन निषेधधान्यवहागणपतिः । माह चानुयाधिकादशधा नौ प्रकृत असिन गडवाच्यापकानुपलनिसहचरन्यापककारणानुपलब्ध्यादिग्रहणमवगन्तव्यम् । उपमंहनि - इत्यन = स्वभावानगर या उपलब्धिलक्षणाप्तिटितन्ये च, आत्मनि चक्षुरादिना वहिरिन्द्रियेण स्वभावानुपलब्धिः नास्त्येव, आत्मनश्वक्षगद्ययांग्यवान् । यो यदिन्द्रियाहयान्य: तदिन्द्रियापेक्षगव नवभावानुपलब्धिस्तुमर्हति. अन्यथा प्राणादितोपि रूपादीनां ग्वभावान पत्र धिप्रसङगान् । आत्मनि रूपचिरहण न माग्यवं म्पादिहण च न स्पर्शनन्द्रिय . ग्रहणयोग्यत्लम । बहिगिन्द्रियादग्नाहान्वान्न नग्य तदापेक्षया मभावानपलब्धिः सम्भवति । चाम्न ताहि मनसेचानानः स्वभावानुपलथि:. "यमपि नः समीहिनसिझेरित्यागकामामाह, . मनमा तुपलब्धिः आत्मनः बाइमस्त्येव, 'अहं सुरखी' इत्यायनुभवस्य सार्वजनीनत्वात् । न न सुखादः नागमाश्रिनत्वमाकनीयम्, जात्यन्धादीनामपि तथानुभगत् । न च शरीरस्यैव सुन्वा - श्रयत्वमारकणीयम्, अरशस्वादिनदहानामपियोगि सेनापनिप्रभुतीनां मुखसंवेदनस्य सिद्धत्वान । अन इन्द्रियदारी निरिक्तम्ब आत्मन एच मुग्वादिसमाश्रत युनं वक्तुमिन्यात्मसिद्भिग्नाविला । आदि का आरोप किया नहीं जा सकना । यह बात स्याद्रादरत्नाकर ग्रन्धरत्न में स्पष्ट ही बताई गई है।
अध. | -> 'यदि एक ज्ञान में नंमर्गी भासमान प्रदेश, स्थल, पर्चतादि में पूर्व में अनुभूत की ही अन्यत्र सभाव अनुपलब्धि मान्य हो नब स्नम्भ में पिशाचस्वभाव की अनुपलब्धि यानी पिशाचस्वरूप = पिशावनातारम्य का निषेध कम हो मकेगा ? क्योंकि किसी स्थल में पक ज्ञान के संसगिनिधया पिशाच का पहले तो अनुभव ही नहीं हुआ है' <- इस प्रश्न का सीधा प्रन्युनर यह दिया जा मकता है कि 'स्तम्भा न पिशाप:' मा पिशाचतादाम्यनिपंधव्यवहार स्वभाव अनुपलन्नि में नहीं होता है किन्तु सहबर अनुपरन्धि से ही होता है । भात; वहाँ दंप का मावन करना ठीक नहीं है। इस तरह आत्मा में चक्षु आदि इन्द्रियों से स्वभाव अनुपलब्धि नहीं ही है . यह सिद्ध होता है, क्योंकि आमा चक्षु आदि इन्द्रिय के अयोग्य है । मगर इससं ही आत्मा का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि मन के द्वारा तो भान्मा का ज्ञान होता ही है । 'अहं मुम्बी, अहं दामी, अह. जाने' इत्यादि ज्ञान नो म जन को होने से मन के द्वारा आत्मा की मिद्धि होनी है 1 मतलब कि मन के दाग आन्मा ग्राहा होने से मनग्नरूप अभ्यन्तर इन्द्रिय से आत्म की स्वभाव अनुपलब्धि कही जा सकता है । मगर मन के द्वारा एक बार भी आत्मा की मिडि होने से 'आमा अनुपलब्ध है गमा नहीं कहा जा सकता। अतः प्रथम विकल्प आत्मप्रतिपेध में असमर्थ है ।
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* आगलाधमजानगकरणम * न दितीय-तृतीये, व्यापककार्यज्ञानाधुपलाभादेव । कारण पलम्भस्तु कार्यपूर्वोत्तरनिषेधकत्वात् आत्मनस्वातीहशत्वा बाधकः । सहचरानुपलनियरधनास्तेि, आत्मसहचराणां
ष्टादीनां बाढमपलम्मादव। ___कि परापरसाह कर्यस्याऽन्योतयाभावानभ्युपगमे दायहरवार भूतचतुष्टयमपि लोकायतिकानां कधकारगुपचादनीयम् ? मिथोव्यावृत्यसिन्दः ।।
- मया II * ---- अस्तु नहि व्यापक रम्या कानुल या वा नादनपरित्याशद कापामार . न द्वितीय-तृतीये, व्यापककार्यज्ञानाद्युपलम्भादेव तादात्म्यसम्बन्धन्निात्मनानन्ययता निम्तायाः समयावारिय। आधाभावगम्बन्धावन्निछन्नामा वा यापकतया आश्रयस्य ज्ञानच्चा-नि-गुम्बादम्पारन माकडानन्या आत्मानना क्या । नादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नातःत्वावच्छिन्नमरनानिमागितकार्यत श्रयागतम्य नानादरखापानम्मान कायांमुपलश्या नदम्पकच्या माधनाहां । कारणायनुपरम्भः = कारण नुपलश्चिाबच निगल युत्तरगनुपलब्धिनिकः तु कार्यपूर्वानरनिपंधकल्लान = प्रतियोगिविषयकार्यानग्यपूर्वचरणतिपयकत्यात आत्मनश्च अन दृशत्वान् = कार्योत्तर चत्वात न बाधकः । आत्मना-कायंत्यानत्कारणम्य विम्हात्र कारणानपलब्ध्या तदनुपलब्धिः रियति । तम्ब कराचदयपक्षवानग्यरत्याभावन न कस्यापि तत्वचरमिति न पूर्वदरानुपलन्ध्या नदनुपलयिः सम्भवति । एवं तम्प कस्यचिनप्पलया पूर्ववरत्वविरहण न करयापिनदानग्धरामनि गनिम्नानुगलभ्या नदनुपलब्धि: माधयितुं शश्या । मनमाविका T-fप नात्मप्रतिपय इत्यावदापनि - महचगनुपरधिपि नास्तीनि । र. स्थञ्च सप्तपिंगदनिमलविकल्पमस्यामानवकविनात 'भूत-पतितं यात्मादि नम्नि, अनुपलर नि चार्वाकवचनं 'लयन एव । नतश्च विन्यानेजवायागत नानि ति मध्याधानः ।
प्रकरणाकार: काग-क्तिमत्रच्याघातापादनाधम पक्रनत किनि मनानां परम्परमादयस्य = 'रगन्मान्वय, अन्योन्याभावानभ्युपगमे = भूत-नानानिमितपदानपगमे, दापग्हिग्यात्त । अभियान मत भूतमात्र यस्तितः स्वभाग नंब भिगने, विशेपाभावान । नाकमा नयानयार तत्वानि भूतचन प्रथमापि लोकायतिकानां कथझार उपपादनीयम् ? भदकान्झिोपगाभाचन मिधी ज्यावृत्त्यसिद्धेः । नत भूतमय भूतान्तरभेदो न बास्तवः किन्तु विभिन्नधमंप्रकारकबुद्धिविषयत्वरक्षणां गाक्त ग्य. विकपणामिछाप्य भेदात्मका बा । न च चिगिन्नधर्म विना नाटतद्भटसम्भव इति भुताद्वतवादप्रसङ्गः चायांकम्पा सिद्धान्नामा दुवार नि नाताबम
नदि । इस तरह द्वितीय विकल्प 'ज्यापकानपलब्धि' भी असंगत है, क्योंकि ममवाय सम्बन्ध में आत्मा के व्यापक ज्ञान, इच्छा आदि का उपगम्भ = ज्ञान होना ही है । नादात्म्य में जहाँ आन्म द्रव्य होता है वहाँ ममवार में ज्ञानादि होने है । व्यापक की अनुलब्धि नहीं होने में व्याप्य आन्मा का निपध नहीं किया ना मकना । पचं कार्यानपलबियप नृतीय विकल्प में भी आत्मा का प्रनिषध नहीं हो सकना, बाकि आमकार्य ज्ञान, इच्छा आदि की उपलब्धि ही होती है। कार्य की उपलब्धि होने पर ना उसक. कारण आत्मा का निपध कम किया जा मरना है ? अन; तृतीय विकल्प ये आत्मप्रनिषेध असहन है । पय चनु विकल्प 'कारणनुपरधि में भी आत्मा का प्रतिपंध नहीं किया जा सकता, क्योंकि भान्मा अकार्य है। कारणानपनाभ सं कायांभाव की मिद्धि हो सकती है, न नि. अकागांभाच की । पर पाम विकल्प पूर्वचर अनुपलब्धि' में भी भात्मा का निपंध नहीं किया जा सकना, मांचि. आत्मा किगीकी जनरचार नहीं है । पर्वगनुपलथि मे इनग्बर काही निषेध हो सकता है, गमे 'आज मंगरयार नहीं है. याचि. कल सोमबार नहीं था । एवं पष्ठ विकल्प 'नग्चर अनुपलभि' में भी आत्मा का इन्कार नहीं किया जा सकता, क्योंकि आत्मा किमामा पुर्वचर नहीं है । उन्नावर अनुपलचि से कंवल परचर का ही निषेध किया जा सकता है, जब 'आज मंगलवार नहीं है, क्योंकि कल अभयार नहीं है। एवं मतग चिकल्प ‘गहवर नगाधि' भी भामनिया में किभित्र .. म्यां कि आत्मा के गहचा चंगा आदि का स्पष्ट रूप से परम्भ होता ही है । सहचर उपलब्धि होने पर की आत्मा का निध हो सकता है ?
ranitli bhojpuri किश्च । । इसके अतिरिक्त यह भी जानव्य है कि भूतचनाक के अनिग्नि मंद-नानक परम पदार्थ का स्वीकार
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":मयमयादादरहस्ये खदः . का, * भूतदतुष्यमात्रतन्यन्यापहः * वैधय॑मथ भेदो नो नाभाव इति धी:पुनः । भेदाभेदविकल्पाभ्यां गस्तेयं धर्मधर्मिणोः ॥9॥ भेदे ह्यान्तरापतिरभेदे त्वेकशीघेता । पक्षान्तरस्पृहा कक्षाप्रवेशे लो न चान्यथा ॥२॥ स्वतो व्यावृत्तिरेषां चेदनुवृत्तिन किं स्वतः । एवं चेज्जैनसिन्दान्तस्पर्शिने भवते नमः ॥३॥
न शक्ति विज्ञा स्वभावत: कार्यप्रतिनियमोऽपि पसरतः, प्रातिस्विकरूपण कारणत्वस्थाऽप्ययोगात, तृणारणिमणिन्यायेन कारणतास्थले व्यभिचाराद वैजात्यत्रयकल्पनात एक
- जालनाurarisarain मुद्रा पद्यत्रितयेन तन्मतमपाकमुपक्रमते - वैधय॑मिति । मधेपनस्तदर्थ एवं योज्य: अध नः = अस्माकं चार्वाकाणां मंद बंधयं = भृत्तान्तरनिष्ठकार्यजनकातिशयान्पातिदा शालित्वम्प भेदः = अन्योन्याभावः न तु भूनचतुष्कानिरिक्तः अभाव इनीयं धीः = नास्तिकमति: पुन: धर्मधर्मिणीः भेदाभेदविकल्पाभ्यां ग्रस्ता || तथाहि तादावधम्यलक्षणधर्मस्य ॥ भूतादिमिनः भेद स्वाक्रियमाणे अर्थान्तरापत्तिः = तत्त्वान्तरप्रसङ्गः हि = एख, नत्य ततः अभेद = अनतिरि एकशे पिता = मूतमानत्वमंग, ननश्च न स्वभानभदा पने: । पक्षान्तरस्पृहा = चार्वाकर भेदाभेदपक्षाभिलषः नः = अस्मान म्यादादिनां कक्षाप्रवेशे = मने प्रथा एवं पूर्णत न व अन्यथा = ज्याद्वादापलाप ॥२।। एषां = भूतानां स्वत पब मिधी व्यावृत्तिः चारकिणप्यते ताई सां = भूतानां अनुवृत्तिः अपि किं न स्वत विष्यते भवता । एवं = अभ्युपगम्यत विषां म्बन निरिति चेन ? नहि. स्वतान्नवृत्तिन्याउत्तिशालिभाचाङ्गीकारण जैनसिद्धान्तस्पर्शिने = अनेकान्तराष्ट्रान्तप्रविणाय भवत नागंकाय नमः अस्तु, सधर्मिकलान ||३||
पनेन = मृतवतप्कनचरामान्दको पेन, शक्ति = मादकतादिजनकदाक्नेि विना स्वभावत एवं कार्यप्रतिनियमः = नित-कारणोत्पनिककार्यव्यवस्थापनप्रकार: अपि परास्तः प्रातिस्विकरूपण = प्रत्येकमाऋत्तियण, कारणत्वस्यापि चावांकमन अयोगात = असम्भवन, पधिन्यादानां क्रमकपल-पत्र- बालकादीनां च भूतमानत्वं न्त्र प्रातिस्विकरूपस्यैव विग्रहात, तथा च क्रमुकाफलपत्रादिषु डब वालुकाशकलङ्कमादिबपि मादतीतायेत, न बा तत्रायविशेषात् । ततश्च व्यवहारबाधः । अतिरिफ्नानातिरिकरूपान्युपगने म तच्चान्तरणसजन प्रतिज्ञासन्न्यासः । वस्तुतःप्रत्येकमपि कामुकादिषु मदशक्तिरस्त्यरेत्यस्माभिः स्वात्रि पतंत्वया पुनरनुमानापलापिना प्रत्येकं भूतेषु ज्ञानशक्त: स्वाकर्तुमशक्यत्वमेव, स्वीकार पि वा शक्त: तत्त्वान्तरत्वप्रसङ्गस्य दवांग्यम् । शक्तिपक्ष प्रसङ्गत: म्यापति - नणारणिमाणिन्यायेन कारणतास्थल व्यभिचारात वजात्यत्रयकल्पनात इति ।
न किया जाय तब नो पृथ्वी, जर आदि में भेद मिद्ध नहीं होने की वजह पृथ्शी, जल आदि परस्पर संकीर्ण हो जायेंगे, क्योंकि परस्पर भिन्नता उनमें अगिद्ध है तब तो चार भूत न होकर केवल एक ही भूत रहेगा । यदि भेद का स्वातन्त्र्याण ग्वीकार किया जाय तर 'भूतबतष्क ही पारमार्थिक है' इस चार्याकमिद्धान्त का भार हो जायगा। अत: चाकमन में केवल चार भूत की सिद्धि ही नामुमकिन है । यदि चार्वाक की ओर से यह कहा जाय कि → हमारा अभिमत भेट वैधय॑स्वरूप है, न कि अतिरिना अभावस्वरूप <-ना यह कल्पना(धी) भी धर्म-धर्मी के भेदाभेदविकल्प में ग्रस्त हो जायेगी ॥१॥ वह इरा तरह-यदि भूतस्वरूप धर्मी में वैधम्यस्तरूप धर्म भिन्न होगा तब पुनः पक्षम नन्च की कल्पना की आपत्ति चार्वाक के पक्ष में आयेगी और अभिन्न मानने पर तो कही गप रहेगा यानी या तो कंबल भन - धर्मी रहेगा या कंचल वैयऱ्या, पांकि दोनों पर अभिन्न है । भूत एवं वैधयं दोनों को प्रथक सत्ता न रहेगी। पधान्नर यानी भेदाभेद पक्ष की हा करने पर तो चाक का हमार गत में ही प्रवेश हो गया, अन्यथा आपकी उपदरित कल्पना की उपपनि नहीं हो सकती ॥२॥ भूतों में स्वतो व्यानि = भेट मानेंगे भात भेदक धर्मान्नर के यिना ही एक भूत स्वयं दुसरे भूत मे व्यावृन हो जायगा - ज्यावृत्तिवृद्धि गर्न च्यावृनिव्यवहार को करेगा. ऐसा वाक मानेंगे तब ना चागें भूत अनुवनिद्धि एवं अनुवृत्तिन्यवहार भी स्वतः ही करंग - यह भी क्यों न माना जाय ! यदि एवं मानने के लिए चायांक तैयार हो जायेगा कि. भून स्वतः अनुनि पर्व न्याति करते है. तब तो चार्वाक जैनसिद्धान्त का स्पर्श = ग्वीकार करने की बजह हमारा मार्मिक यन जायेगा । मार्मिक चार्वाक भैया ! आपको नमस्कार ।
तितमान काल में लाधव - प्यादानी * ता. । यदि यहाँ यह शझ हो कि -> 'अतिरिक्त शक्ति के स्वीकार के बिना ही स्वभावचिशंप से प्रधिची आदि | भूतां के कार्य गन्ध आदि का प्रतिनियन = नियम्न होगा' तो यह भी इसलिए निराधार हो जाती है कि चारों भूनों
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* एकाक्तिमन्चन हेतुताप्रकाशनम
शक्तिमत्वेन कारणताकालाय लघुत्वात् साङ्कर्यस्याऽदोषत्वे वैजात्येन हेतुत्वेऽप्यभावकार
=
ॐ जयलता
tva
तावद्धिं प्रति तृणस्य आरणेयवह्निं प्रति अरणे, मागयत्रिं प्रति चमाण: कारणत्वं न तु बहित्वावच्छिन्नं प्रति तृणादेः कारणत्वं परम्परयभिचारात् । इत्यञ्च तात्वारगेयत्वमाणयत्वलक्षणजातित्रयकल्पनामपेक्ष्य, एकाक्तिमत्वेन वह्निजनक कशक्ति पेन, ह्नित्वावच्छिन्नं प्रति कारणताकल्पनाया एवं लघुत्वान् ।
= कारण त्या
नवस्माभिर्न वह्निनिष्ठतया जातिविकं कल्प्यते किन्तु नृणारणिमणिध्वेवैका जातिः कल्प्यते । ह्नित्वावच्छिन्नं प्रति कृष्णारणिमणीनामेकवै जान्पमन्येन कारणत्वमद्गीक्रियते इति नैकशक्तिमत्वेन कारणताकल्पनाया युक्तत्वम न च रजनादिषु तादृशयजायविरहिषु तेजस्त्वस्य तेजस्वन्येषु च तृणादिषु निजात्यस्य सत्त्वमिति परस्परव्यधिकरणयीस्तयोः सूर्यकान्तमणी सत्त्वेन साङ्कर्यमिति वाच्यम् ज्याधिसास्येव जातिसाङ्कर्यस्यापदोपत्वादित्याशङ्कायां प्रकरणकारः प्राह सादर्यस्य = जातिसाङ्कर्यस्य अदपत्वे स्वीक्रियमाणे पुनः तृणारणिमणिवृत्तिना बेजात्येन जातिविशेषण हेतुत्वे वह्नित्वावच्छिन्नहेतुत्वसम्भवे अपि अभावकारणस्थले = नानाविधाः भावनिष्ठ कारणतास्थले नदयोगात् वैजात्यकल्पनाया असम्भवात जाते: द्रव्यगुणकर्मभात्रवृत्तित्वात् अभावस्य च समवायाननुयोगित्वात् । न च प्रतिबन्धका भावेनैवानुगतरूपेण कारणतति न तत्र शक्तिकल्पनावतारी न वा तत्र वैजात्यासम्भवेऽपि क्षतिरिति वाच्यम्, कार्यजननाक्तिविधटकत्वरूपस्थ प्रतिबन्धकत्वस्यैव शक्तिसाधल्यात प्रतिबन्धकतायाः कारणीभूताभावप्रतियोगित्वेऽपि कारणीभूतभाव भेदेन मैदान कारणीभूताभावप्रतियोगितात्वेनानुगमे तु महासीरम कारणीभूताभावप्रतियोगिवृत्तित्वे सति तदितरावृतित्वस्वरूपत्वानस्य । न चावडत्वेनैव नानाभावानां कारणत्वमिति वक्तव्यम्, उदासीनप्रवेशाप्रवेशाभ्यामविनिगमन तथात्वासम्भवादिति दिकू |
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अत्र सोपयोगित्वात् प्रभानन्दसूरिव्याख्या प्रदर्श > ननु भोः । क एष गतमताडित्यविशेषम दुर्गत सांगतायगीकृत चित्रज्ञानादिदृष्टान्तावष्टम्भन स्वाद्वादवादं स्पष्टपन्नाचष्टे । प्रथमं तावज्जीय एव नास्ति, का तदाश्रित श्रेयी श्रेयोऽनेकान्तमतस्वर्गापवर्गसर्गसङ्कश्वा । तथाहि सकलेऽप्यस्मिन्नविकले जीवलोके न खलु भूतचतुष्टयव्यतिरिक्तं किमपि अस्त्वन्तरमस्ति प्रत्यक्षप्रमाणगोचरातिक्रान्तत्वात् । यद्यदेवं तत्तन्नास्ति यथा तुरङ्गमात्तमाङ्गशृङ्गम् । नच वाच्यम् प्रतिप्राणिप्रसिद्धस्य चैतन्योपलम्भस्याऽन्यथानुपपत्ता बेतुः कश्विवदयं परिकल्पनीयः, भूतचतुष्टयस्यैव तद्धेतुत्वेना विमानात् । अर्थत्थमाचक्षीथाः कथं जडात्मकानि भूतानि सद्विलक्षणं बोधरूपं चैतन्यं जनयेयुरिति तर्दानि न न खल्वेकान्ततः कारणानुरूपमंत्र कार्यमुत्पद्यते, अननुरूपस्यापि दर्शनात् यथा मद्याभ्यां मदशक्तिः । एवञ्च वरूपपरिगतानि महद्भूतान्येव स्वस्वरूपजडस्वभावव्यतिरिक्तं चैतन्यमुद्बोधयन्ति तब कायाकारविवत्तेष्ववतिष्ठत तदभावे पुनर्भूतेष्वेव लीपने इति न कश्चिहृतोद्धृतचैतन्यव्यतिरिक्तः चैतन्यतुतथा परिकल्यमानः परलोकयायी जीवोऽस्ति दृष्टहान्यदृष्टपरिकल्पनाप्रसङ्गात् । एवं च सति परलोकोऽपि प्रत्युक्त एवावगन्तव्यः परलोक्यासिनोभाव परलोकस्यानुपपन्नत्वात् सति हि धर्मिणि धर्माश्रिन्त्यमानाः समीचीनतामुपचिन्वन्ति ।
=
किञ्च परलोकयापिजीवसुख-दुःखनिबन्धन धर्माधर्मायाकाशकुदीय विकासकाशी तथा तत्फलभोग भूमिप्रतिमस्वर्गनरकामें प्रातिश्विक रूप से मात्रप्रत्येक में रहनेवाले धर्म की अपेक्षा कारणता भी असंगत है, क्योंकि प्रातिविक धर्म को प्रत्येक से अतिरिक्त मानने पर भूतचतुश्यमात्र तत्व का उच्छेद हो जायेगा। इसी तरह तृणारणिमणिस्थल में वैजात्य = जातिविशेष की कल्पना करने में भी अतिरिक्त जाति कल्पना का गांव होगा एवं भूतचतुष्टय से अतिरिक्त तत्व के स्वीकार से अपविद्धान् भी प्रसक्त होगा । इसकी अपेक्षा उचित यह है कि वहाँ एकाक्तिमत्वेन ही कारणता की कल्पना की जाय, क्योंकि हम पक्ष में अतिरिक्त अनेक जातिविशेष की कल्पना नहीं होने से लाभ है। यदि चार्वाक की ओर से यह कहा जाय कि → जातियांकर्य दोषात्मक नहीं होने से तृणाणिमणिस्थल में एक ही जातिविशेष की कल्पना न करने पर भी गाय दीप का परिहार हो सकता है तो भी तृणारणिमणिस्थल की भाँति अनेक अभाव में कारणता माननी आवश्यक बनने पर तादृश वैजात्थ की कल्पना नहीं की जा सकती, क्योंकि अभाव में नाति नहीं रहती है । अतः यहाँ शक्तिविशेष 11 ही कल्पना करनी होगी । इस तरह जय अभावकारणता स्थल में वैजात्य के स्थान में शक्तिविशेष की कल्पना आवश्यक है
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६५. मध्यमस्याद्धाटरहस्य खष्टः ३ . का.१२
* मृतचतन्यमनिरासः
|| णस्थले तदयोगादित्यन्यत्र विस्तरः ।
* जयाता - दिकल्पनमायलीकसकल्पविलसिनम् । विना हि प्रमधिौं कुतः तकलभोगभूमिसम्भवः । यवमप्यकान्तिपुण्यपापक्षयोत्यमोक्षपक्षपातिता सा विगलितदृशः चित्रशालोपवर्णनमिय कस्य नाम न हास्यावहति पत्किश्चिदतत् ।
अत्र प्रतिविधीयते - यो यमनिप्रमाणप्रवीणन भवनात्मनिरासाय प्रत्यक्षत्रमाणगांचरातिक्रान्तत्वादिति हेनुरूपन्यन्न: सत्र तावदसिद्धः, जीवस्य स्वसंवेदनप्रत्यक्षविषयत्वात् । तथा हे 'सुख्यह,दस्यह' इत्यादिरवसम्बदस्वसंवेदनप्रत्यक्षगावगम्यते जीयः । सर्वकालं निथित्वेन च नायं प्रत्ययो भ्रान्तः । “चैतन्यान्वितदहलक्षणपुरुषगौचरन पि 'गोगन ग्धूलो हमित्यादिप्रत्ययः मान्छते । अतः कृतं कायातिरिक्तात्मऋल्पनाक्लेशनति चन् ? न, भूतानां संवदनगोचरत्य बहिर्मचव वसंचिचिर्भवद. यथा ‘पटाध्यमिति बहिर्मुखः प्रत्पयः। तथा 'मुल्यहं इत्यादिप यदि शरीरंगांचा भवेत् तनः 'अयं सुखी' इत्यचं बहिर्मुखः स्यात, अन्तर्मुखश्चानुभूयने । न हि कोऽपि 'अहं सुखी' इत्यादिप्रत्ययं देहे विधत्तं किन्तु दहातिरिक्त कस्मिंश्चित, इत्यत; ।। प्रतापने 'सुख्यहं' इत्याद्यन्तर्मुखप्रत्ययो जीवगांचर एन, न भूतगोचर:, बहिर्मुखत्वनानयभासनात् यचोक्तं ‘वपूरूपरिणतानि महद्भूतान्येत्र चैतन्यमुबोधयन्ती त्यादि, तदयविकलविकलताबिलजितम् । यतः यदि हि महद्भुतेभ्य एव चैन्न्यनुन्मीलनात्याअसङ्गतिसङ्गतमपि स्वेच्छाचलनाद्यन्यधाम्नुपपत्तिप्रतिहतन भवत कल्पनीयम्, तदा चैतन्यमेव जन्मान्तरादुत्पनिस्थानमागनं चतुर्भूतभ्रमाधायिदेहमुरादयत्, भूयो भवान्तरमामुक सत्त्यजेत, तेन चाधिष्ठितं स्वच्छाविहारादिक्रिया कुर्यात. ननिकन भूयो दारूबदासीत इत्यात्मजन्यमेव वपुः न पुनरत्मा भूतसमुदयसंयांगजन्यदेहजन्य इत्यकाल्पनिकम वादरितुमुदारतरं विभावयामः।। सचेतनस्यात्मनः कमावष्टब्धतया न्यान्यभवभ्रमान्यान्यदहसम्पादनामंटनायटितत्यात् । अर्थत्यमभिदधाः 'जन्मान्तगदानप्रदशमागच्छन्नात्मा न प्रत्यक्षेण लक्ष्यते । नन्वेवं वपूरूपधारणद्वारण भूतान्यपि चैतन्यमुन्मालयन्ति न साक्षालश्यन्ने इनि भवत्यक्षेऽपि पक्षपातं विना सामान्यम् । भूतषु वपूरूपपरिणतांबच चैतन्यमुपलभामहे नान्यदत्यन्यधानुपपन्या भूतजन्यमंव चैतन्यं कल्पनाम इति चेत् ! तर्हि कधं मृतावस्थायां भूतंषु नदवस्यवंब चतन्यं नोपलभ्यते । यपूरूपवियन्नश्च कादाचित्कन्यान्यथानुपपन्या-रग्य कारणान्तरापेक्षीत्यनस्तत्सम्पादनसमर्थ जन्मान्तगयातानलक्षणं चैतन्यमेव मन्मह अन्यच, आत्मा नावपूर्णशभाशुभदैनन्ययोगाददेहसम्पादनायोत्तिष्ठते इति सौष्ठवप्रथमेव । महद्भूतानि पुन: कॅरूपाग चैतन्यं कर्तुमारभेग्न. चनन्यन्ति तद्विनाकृतानि वा ? यदि प्रथमः पक्षस्तदा विकल्पद्यमुदयते, नेभ्यस्त चैतन्यं व्यनिरिक्तमयनिरिक्तं ? व्यतिरिक्त दत ? नता न झगर प्या महद्भतेवग्यवस्थितं भूतबिसयामेव स्वहतमवस्थापयति इति स्ववचर्सवात्मनमनमन्यमानः किमिति कविकल्पकल्पनेन स्ट क्लेशयति ? अधान्यतिरिक्तम्, एवं सति मत्रम्हभूतान्यकतां धारयन्ति, एकचनन्याभिनत्यान्निजस्वरूपचत् । अध पृधकरवरचचैतन्याभिन्नानां तेषां नायं प्रेरणाकार इति मन्येथाः, तदपि न, पतस्तजन्यनग्शरीरमपि भूतात्यावश्चनन्यचनुष्टय सङ्गः । अथ चत्वार्ययकीभूय बहबस्तन्त्व इव पटं महत्तरनतन्यमः पादयपरिनि प. तट तचतन्यं किं भूतसंयोग उन नजन्यमन्यदर किञ्चिदिति वाच्यम् । भूतसंयोगश्चेत ? नदयुक्तम, चैतन्यानामन्यान्यसंयोगा-सिद्धेः, अन्यथा प्रचुरतरचतन्यान्यकीभूप महनम चैतन्यं जनयुः, न चैतद् दृष्टमिष्टं वा । अथ भूतोत्पादामन्यदेव किञ्चिदित्येतस्मिन्नपि किं तेषामन्वया स्ति न वा १ अस्ति । चेन ? तदा पूर्ववत् भूतज-यचैतन्यचतुष्टयतापनः । अथ नास्ति, नदप्यसनम, निन्ययात्तन युक्तिरिकतत्वात् । न मान्न । सचेतन्यानि चैतन्यमत्पादयय तानि । न वनविनाकतानि नामत्पन्न विसदशयन चैतन्यान्यनिविमद्धत्वात. अन्यथा सिकनाम्योप तैलमुत्पद्येत । अन्यच्च भूतनिचममात्रजन्यं चैतन्यं नारिणति विशेषजन्यं वा स्यान ? न तावताथमः पक्षः आंदक्षमः, अवनिजीवनपवनदहनयोजनेऽपि चनन्यानुपलम्भात् । दूतायिकपक्ष पुनः कः परिणामविशेष इति पृच्छामः । वपुरूषपरिणतिर्गत चेत ? तत: सा सर्वकालं करमात्र स्यात् ? किमपि कारणान्तरमाथित्योत्पद्यत चेत : तदा तत्कारणान्न जन्मान्नगगतान्मर्चतन्यमिति वितर्कयामः, तस्यैव बपूरूपारिणति जन्यचैतन्यानुरूपोपादानकारणत्वात. नदभाव बसपरिणती सत्यापि मनदशायर्या भूतपादन तब तृणारणिमणिस्थल में भावकारणता के अवच्छेदकधर्मनिधया शक्तिविशेप की कल्पना ही न्याय्य है, न कि चात्य की, क्योंकि नब गौरख दोप प्रसक्त होना है। इस तरह अतिरिक्त शक्ति की कल्पना आवश्यक ही है तब तो 'भूतचतुपय में अतिरिक्त काई तत्त्व नहीं है। - इस चार्वाकसिद्धान्न का भा ही हो जायगा। अनः भूतचतुष्टयवादी प्राचीन चार्वाक का मत अश्रद्धय है।
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*कोरी*
यदपि तव्यतावकमतानुयायिभिः न्यगादि 'अवच्छेदकतयेत्यादिना तदपि न्यायवादा
* जयलता
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चलनादिक्रियानुपलम्भात् । नत्र वरूपपरिगतिजन्यं चैतन्यं किन्तु सेव तज्जन्येति श्रोदक्षमं लक्षयामः ।
अथ न प्रत्यक्षादन्यत् प्रमाणम् । न च तेनागमनगमनादिकं भवान्तराचैतन्यस्योपलभामहे । तेन तल्लक्ष्याण्येव भूतानि तद्धेतुतया निर्हिशाम इति, तदप्यसत्, यतः केवलप्रत्यक्षाश्रयेग देशकालस्वभावविप्रकृष्टानां मेरुभवत्पितामहपरमाण्वादीनामप्यभावप्रसङ्गः तेन च भवदादीनामप्यनुत्पत्तिः, उत्पती बलात्कारणैवानुमानादीनि प्रमाणानि प्रतिपत्तव्यानि । सन्ति चानुमा नान्यनेकशः तथाहि अस्ति कश्रितदतिरिक्तश्चंतन: 'सुख्य दु:ख्यई' इत्याद्यनुभवस्यान्यथानुपपत्तेः । यदि च स न स्यात्, तदा सुखाद्यनुभवोऽपि न भवेत् यथा मृतशरीर तथा हिताहितप्राप्तिपरिहारचेष्टा प्रयत्नपूर्विका विशिष्टक्रियात्वात् रथक्रियावत् । यश्वास्यप्रयत्नस्य कर्ता सोऽयमस्मसम्मतश्चेतनः । न च निरुक्तियुक्तिप्रतिहनेन भव भव एवं देहातिरिक्तः कश्चिदस्ति न त्वमुभिन्निति विप्रतिपत्तव्यम्, जन्मान्तरागामुकस्यैवास्य प्रमाणप्रतिष्टितत्वात् । तद्यथा तदहजनवालकस्याग्रस्तन्याभिलाष: पूर्वाभिलाष पूर्वक: अभिलाषत्वात् द्वितीयदिवमादिस्तन्याभिलापवत् । तदिदमनुमानमाचस्तन्याभिलाषस्याभिलाषान्तपूर्वकत्वमनु॒मापयदर्थापत्त्या परलोकागामिजीवमाक्षिपति, तलन्मन्यभिलाषान्तराभावात् ।
किञ्च यदुक्तम एलावता धर्माधर्मावपि नम:म्भीजनिभी मन्तव्याविति तदप्यपाकृतम्, तदभावे सुखदु:खयो - निर्हेतुकत्वादनुत्पाद एवं स्यात् । स च प्रत्यक्षविरुः । तथाहि मनुजत्वं समानेऽपि दृश्यन्ते केचन स्वामित्वमनुभवन्ती पर पुनस्त ं प्यभावमाविभ्राणाः । एकं च लक्षम्भरयोऽन्यं तु स्वोदरदरीपूरणेऽप्यनिपुणाः, एक देवा इव निरन्तरसरसविलाससुरालिन इतर नारका इन्द्रि विद्राणचित्तवृत्यः इत्यतोऽनुभूयमानसुखदुःखनिबन्धनी धर्माधम स्वीकी नदीकरणे च विशिष्टयोः तत्फलयोगभूमी स्वर्गनरकावपि प्रतिपत्तव्य, अन्यथाऽर्द्धजरतीयन्यायप्रसङ्गः स्यात् । एवञ्च पुण्यपापकर्नक्षवोत्थमोक्षपक्षोक्तद्रूपणमण्यननुगुणं गणनीयम् । न च वाच्यम् यदुत 'बन्धः कर्म- जीवसंयोगलक्षण:' स आदिमान् आदिरहितो वाळ ? तत्र यदि प्रथमो विकल्प:, तती विकल्पनयप्रसङ्गः किं पूर्वमात्मन: प्रसूतिः पश्चात्कर्मणः ? यदि वा पूर्व कर्मणः पश्चादात्मनः ? आहांस्वित् युगपदुभयस्यति । किचातः ? सर्वत्रापि दोषः । तथाहि न तावदात्मनः पूर्वं प्रसूतिः, निर्हेतुकत्वात् व्योमकुसुमवत् नापि कर्मणः प्राक् प्रसूतिः कतुरभावात् । न चाकृतं कर्म भवति । युगपत्प्रसूतिरप्ययुक्ता कारणाभावस्तु । न चानादिमत्यात्मनि बन्धो घटमटाते बन्धकारणाभावात, गगनस्येव । इत्थञ्चैतदीकर्तव्यमन्यथा मुक्तस्यापि बन्सो विशेषाभावात् । तथाच सति नित्यमुक्तत्वात् माक्षानुष्ठानवैयर्थ्यामिति । अथ द्वितीयः पक्षः नहि नात्मकर्मवियोगी भवेदनादित्वादात्माकाशसंयोगवदिति मोक्षानुपपत्तिरिति यतो जीवोऽनादिनिधनः सत्वे सत्यहेतुकत्वात् कर्माऽपि प्रवाहतो नादिमत ततो जीवकर्मणोरनादिमानव संयोगो धर्मास्तिकायाकाशसंयोगवदिति प्रथमपक्षोक्तद्रूपयानवकाशः । योऽपि द्वितीयपक्षी मिहिती:नादित्वात्संयोगस्य विभागाभाव इति सोऽप्यसमीचीनः तथा दर्शनान् । यथा च काञ्चनोपलयोः संयोगोऽनादिसन्ततिगतोऽपि क्षारमृत्पुटपाकादिद्रव्यसंयोगोपायतो विघटमानां दुष्टस्तथा जीवकर्मणोरपि (संयोगस्य ) ज्ञानदर्शनचारित्रोपायती वियोग इति न कश्चिद्रथः । अथ यद्यनादि सर्व कर्म ततस्तरम्प जीवकृतत्वानुपपत्तिः, जीवकृतत्वेऽनादित्वविरोधात् । तदसम्यकू, वस्तुगत्यनवचधात् । तथाहि जीवन तथा तथा मिथ्यादर्शनादिराच्यपेक्षेण तदा तदुपादीयते कर्म यथा तेन जीवन कृतमित्युच्यते । तच्च तथाप्रवाहापेक्षा चिन्त्यमानमादिविकलमित्यनादि । निदर्शनञ्चात्र कालः । यथाहि यावान् अतीतकालः तेना:शेषेण वर्तमानत्वमनुभूतम् अथ वासी प्रवाहतोऽनादिः एवं कमपीति ।
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पदयुक्तम् मुक्तस्यापि चन्थप्रसङ्गी विशेषाभावादिति तदप्ययुक्तम्, विशेषाभावसिद्धः । नथाहि संसारी जीवः कषायादिपरिणामविकलः, शुलभ्यानमाहात्म्यतस्तेष समूलमुन्मूलितत्वात् । ततः मुक्त्यवस्थायां कर्मचन्धाप्रसङ्गः । न च वाच्यमे सति तर्हि निरन्तरमुक्तिगमनतो भन्यानामुदप्रसङ्गाऽनन्तानन्तरायपतत्वात् । इह यद्यदनन्तसङ्घयोपेतं नतप्रतिसमयनैकद्वित्र्यादिसङ्ख्या: गच्छदपि न कदाचन निर्लेपी भवति, यथाऽनागतकालः । तथा चानन्तानन्तसङ्करज्योता भल्या इत्यनुच्छेदः । एवञ्च सत्प्रमाणप्रतिष्ठितवत्मतत्त्वतदाश्रितश्रेश्रेश्रनेकान्तमत-स्वर्गापवर्गादिषु कुग्रहग्र हिलतयैवान्प्रतिपद्यमानं चार्वाकमवज्ञोपहतमेव कुर्वाणः स्तुतिकृदाह विमतिरिति । तस्य सवपिलापलोलुपस्य कस्य विप्रतिपत्तिः सम्प्रतिपत्तिर्वा न विलोक्यते यस्य परभवभवदपुनर्भवषु सर्वमतसम्मतेष्वपि मतिर्मुह्यति । मीमांसाांसलम निर्भीमांसकोऽपि सर्वज्ञापलापं प्रपन् संशयज्ञानमेकमनेकाकारं प्रतिजानानी नानकान्तं प्रतिक्षिपति नान्निकस्तु महापापी, तत्कश्यायलं कलाकौशलशालिनाम्॥ (वी. स्तो.वि.प्र. ८/११ प्र. वि.
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६५६ मध्यमस्पावादरहस्य खण्डः ३ का. ५०
** न्यायभाष्यसंगदा
र्थेष्वेव पराकृतमस्माभिः । तथाहि शरीरं न ज्ञानाश्रयः, स्तनन्धयानां स्तनपानादिप्रवृतिजनकेष्टसाधनताज्ञानस्य स्मृतिरूपतया पर्यवस्यतो हेतुभूतस्याऽऽमुष्मिकानुभवस्यैहिक शरीरेसम्भवात् । तदिदमाह 'वीतरागजन्मादर्शनात्' (मौ. न्या. सु. ३/१ / २४ ) इति । तथा चैको तित्योऽनुभविता स्मर्ता च यः स एव भगवानात्मेति ।
जयलता
प्रकृतं प्रस्तुमः । महोपाध्यावोऽत्र उत्तरागक्षयितुमुपक्रमने यदपीति । न्यायवादार्येष्विति । न्यापवादार्थ दर्शनमपि प्रमारहस्यादिदर्शन दुर्लभमधुना । सक्षण नैयायिकरीत्या प्रकृतं दूषयितुमन्ह तथाहीति । शरीरं = पक्षनिर्देशः । माध्यमाह न ज्ञानाश्रय इति । ज्ञानसमवायिकारणत्वाभावः साध्यः । हेतुस्तु स्तनपानादिवृचेऽपि तत्कारणीभूतेष्टसाधनताधीशून्यत्वात् दिनि स्वयं चोभ्यमित्याशयेन स्वरूपासिद्धिवारणासह स्तनन्धयानामिति । अयं भावः भायकस्य स्तन्यपानप्रवृनिरिष्टसाधननाभी- सध्या भाचानुमितिरूपा च व्यापादया भाग्यादिस्मृति प्राग्भवीयानुभूतिसाध्या । ततः शरीरस्य चैनन्थे वालकस्य स्तन्यपानं प्रवृत्तिर्न स्यात् इष्टसाधनताज्ञानत्य इच्छाद्वारा तद्धेतुत्वात् स्तन्यपानप्रवृन्यव्यवहितपूर्वक्षणे इष्टसा नानुभावकविरहात् । अतिरिक्तान्यवादिमते तु जन्मान्तरानुभूतेष्टसाधनत्वस्य तदा स्मरणादेव प्रवृत्तिः सम्भवति । नत्र जन्मान्तरानुभूतमन्यदपि स्मयंतमिति वाच्यम्, उद्बोधकाभावात् अत्र तु जीवनादृष्टस्वीकृत एवं अक्षपादसम्मतिमाह तव्दमाह - वीतरागजन्मादर्शनादिति । वात्स्यायनेन न्यायभाष्यं प्रकृते "सरागी जायते इत्यर्थादपद्यते । अयं जायमानो रागानुद्धी जायते, रागस्य पूर्वानुभूतविण्यानुचिन्तनं योनिः । पूर्वानुभव विषयाणामन्यस्मिन् जन्मनि शरीरमन्तरेण नोपपद्यन् । सोऽयमात्मा पूर्वशरीरानुभूतान विषयान् अनुस्मरन तेषु तेषु रज्यते । तथा चायं द्वयोर्जन्मनः प्रतिसन्धिः । एवं पूर्वारस्य पूर्वतरण, पूर्वतरस्य पूर्वतमनत्यादिनाऽनादिनस्य शरीरयोग:, अनादिव रागानुबन्ध इति सिद्धं नित्यत्वमिति" (न्या.भा. /१/२४) इत्येवं आख्यानम् । सूत्रफलितार्थमाविकरोति तथा चेति । विभावितानि न पुनः प्रतन्ते ।
T
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* नव्यनास्तिकमण्डन
सदपि । प्राचीन नास्तिक के सिद्धान्त का स्वण्डन कर के अब प्रकरणकार पूर्वोक्त (देखिये मं पृष्ठ पृष्ठ ) नव्यनास्तिकमत का निराकरण कर रहे हैं। नवीननास्तिकों ने जो कहा था कि 'अवच्छेदकतासम्बन्ध में ज्ञानादि के प्रति तादात्म्य से... उसका अपकरण तो हमने 1 प्रकरणकार महोपाध्यायजी ने। न्यायवादार्थ में ही कर दिया है। वह इस तरह ज्ञातव्य है - शरीर तो ज्ञान का आश्रय नहीं हो सकता है, क्योंकि जन्मे हुए बालक जन्म के बाद स्तनपान आदि प्रवृति करते हैं वह इष्टसाधनता के ज्ञान के बिना, जो स्मृतिस्वरूप होता है, नहीं हो सकती और तादृश प्रवृत्ति के हेतुभूत स्मरणात्मक इष्टसाधनताज्ञान का आधार वालक का इस जन्म का शरीर तो नहीं हो सकता है । इसका कारण यह है कि स्मृति का कारण अनुभव है। अनुभव के बिना स्मरण नहीं होता । बालक जब पहली बार स्तनपान की प्रवृत्ति करता है उसके पहले तो उसने कवी भी स्तनपान का अनुभव ही नहीं किया है। बिना अनुभव के बाल शरीर में कैसे तादृश स्मृतिरूप इष्टसाधनताज्ञान हो सकेगा ? मगर स्तनपानप्रवृति बिना इष्टसाधनताज्ञान के, जो 'स्तनपानं मदीयमिष्टसाधनं इत्याकारक स्मरणात्मक है, नहीं हो सकता है और तादृश स्मरण भी बिना रतनपानविक अनुभव के नहीं हो सकता । यह तो सर्वविदित है कि इस दनिया में जन्म लेकर प्रथम बार स्तनपान करने वाले बालक ने पहले कभी स्तनपान नहीं किया था । अतः मानना पड़ेगा कि अगले जन्म के स्तनपानविषयक अनुभव से बालकों की इस जन्म में तादृश स्मरण होता है जिससे वे स्तनपानप्रकृति करते हैं। मौत के बाद तो शरीर जल्दाया जाता है या दफनाया जाता है। अतः पूर्व जन्म का शरीर लेकर यहाँ कोई जन्म नहीं पाता है । इसलिए मानना होगा कि पूर्वभव के शरीर में रहनेवाली और शरीर से भिन्न कोई चीज इस जन्म के शरीर में आती है, जो अनुभव एवं स्मरण को करती है। वहीं आत्मा है, अन्य कोई नहीं । गीतमीय न्यायसूत्र में भी आत्मसिद्धि के उद्देश से कहा गया है कि कोई जन्मा हुआ वीतरागी नहीं दिखता है । इस सूत्र का तात्पर्य यह है कि गग रागान्तरपूर्वक होता है। राग का मतलब है इच्छा कोई भी नयी इच्छा उत्पन्न होती है वह अन्यइच्छापूर्वक डा होती है। जन्म लेने पर स्तनपान की इच्छा बालक को होती है । अतः वह भी अन्यइच्छापूर्वक होनी चाहिए। मगर
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* नास्तिकनये मनमागसम्भ
६-७
ज्ञानमानसमपि दुरभ्युपगमं, मनसोऽनुमानापलापेऽभ्युपगन्तुमशक्यत्वात, अन्यथा 'प्रत्यक्षमेव प्रमाणमिति प्रतिज्ञासन्यासात् । 'परामर्शजन्यज्ञानाभ्युपगमेऽपि तत्रानुमितित्वे
नायलता किच मैत्रीयचक्ष संयोगादितो यदा मैनात्मनि चास्यानिक समनयनात्यने नद चत्रागर कथमवच्छेदकनया नमान्य द्यते ? न बावच्छेदकतासम्बन्धेन तदात्मसमवेतनानं प्रतिन-मन:मंयोगस्यापि तत्पन्न तदनिः मंत्रीगमन संयोगम्य चत्रझारीरेऽसत्त्वादिति वाच्यम, यता झनत्वावन्छिन्नोत्पना चैत्रायमनंगयांगरूपविशपसामग्राम नगगंगयात्मकसामान्यसामगृया अपि नियामकत्वात्. नस्याश्च तदनी चैत्रशरीर सत्त्वादकतापनिढुंचाँरच । तस्मात नन्नुरुषायचा पयायोगदजन्यनारच्छंद कोटी चक्षुपायो तनदात्मसमनत्ववत तच्चरीराबन्लिन्नाचमपि निदवं. नथा च झगरहेनुतं यस्तिकम् ।
अथ चक्ष:संयोगजन्यतावच्छेदककोटी तनदात्मनमवंतत्ववनच्छगनवाभिमनिया गन्मभंटेन सदन न तदेततावाहल्यमिति अशिषितनच:मयंगत्वादिना तुता काप्यते, था च विषयनिष्ट उपनामनवायया कार्यकारणासत्तित्व तथाःत्मनिष्ठसमवायरवजनकादृष्टसम्बाययोः शरीरनिष्ठावन्छदकत्वस्य जनकादृष्टावकत्वयापि नधान्य घयत । अना माऽतिप्रसङ्ग इति चेत् ? तथापि शरारंडतुत्वकिश्चित्तर मेय, शरीराने स्वजनका दृष्ट पदकत्वसम्बन्धन नाशकारविर - हादेवातिप्रसङ्गनिरासात् ।
यदि स्वजनकादृष्टावच्छेदकन्तस्य जनकतापटिलत्वना तिनुशरतया नपक्ष्य रघरमाणिसंगकतमन:संयोगसन्बन्धनंग चक्षुःसंयोगादह नुनः स्वीक्रियते नदापि नागरस्य स्पन्चंहतुनाकल्पामपन्य शरीरमनायगंगनिजातिविशेषं स्वीकृत्य ने मार तस्य सम्बन्धता याकरणीया, तादासंयोगन्य दारी वसननतिनसगः । न च नादापयोगम्य शर्गर डब मनस्याप सत्त्वात्तत्रा:यच्छद कनया ज्ञानापत्रिचारंनि दाराम्हंतुनाकापनमाश्यकमबनि बान्यम्, वात्मकापाधिारस्कारण नागरहननाकल्पनमपश्य नादशापनिवारणाम संयोगसम्बन्धन मनस्चनादपवच्छिन्नस्पधाऽवच्छंदकत्यसम्बन्धन ज्ञान प्रति हेतुनाया: कल्पाय. तुमुचितन्यादिन्यपि बदन्ति ।
यस्ततस्तु मन आदिकल्पननेय नन्मने न मान्छने । नयाहि ज्ञानाः प्रत्यक्षं तारन म मान्मंब । नम न चानुपादिकं, चहरायव्यापापि जायमानत्वात् । नच मानसमंव तत. त्या ननय एवाभ्यपग-नमशक्यन्यादित्याश्यनाह . ज्ञानमानस = ज्ञानादिगोचरगानसप्रत्यक्षं अपि चार्वाकमने दुग्भ्युपगमम, मनमाऽनुमानारलापऽभ्युपगन्तुमत्राक्यत्वात्, अन्यथा = अनुमानस्य मागान्तरवस्वीकारे, 'प्रत्यक्षमेव प्रमाणमिति प्रतिज्ञासन्न्यासान् ।
ननु परामर्शस्य प्रमाणान्तरत्वमा न मन्यागह, नजमन्यामनुमिती मानसन्वर व याकारदिन्ति सुखवाक्षात्कार: सकरणकल्याविनाभाविजन्यसाक्षात्कारलबानि नि राम्दाग्मिनस: मिद्धिनिर पायत्याशयन लार्चाकः शङ्कत - परामर्श| जन्यज्ञानाभ्युपगमेऽपि तत्र = परामर्गजन्यज्ञानं, अनुमितित्व = प्रत्यक्षविलक्षणानुम्मित्त्वग प्रत्यक्षल्यानानामनिवसन्त बालक तो अभी ही पैदा हुआ है । अत: मानना चाहिए कि बालक में वर्तमान इच्छा पूर्वभीयाच्छापूर्वक है । पर्व भव की प्रथम पन्छा भी उसके अगले भव की इनाहापूर्वक सिद्ध होती है। इस तरह अगले. अनन्न भव सिद्ध होने से आत्मा | नित्य सिद्ध होती है, जो अनंत शरीर में क्रमदाः रहनेवाली एक ही है। इस तरह एक, नित्य, अनुभव करनेवाली एवं स्मृति करनेवादी जो चीज है वही भगदान आत्मा है।
माना प्रत्यक्ष जयनासोकमत गुगनिता ना-मा. । नयनास्तिकों ने पूर्व में जो कहा था कि --> अपने ज्ञान आदि का बाचुप नहीं होने पर भी मानम प्रत्यक्ष = मन के द्वाग तत्साक्षात्कार मुमकिन है' (पृम ) <- यह भी उनक मतानुमार नामुमकिन है, क्योंकि प्रत्यक्षानिग्विन अनुमान प्रमाण का अपलाप करन पर ना मन की दी मिडि नहीं हो मकंग । अनुमिनि का मानम प्रत्यक्ष में अन्नभांव तब हो सकता है यदि पहले मन की सिद्धि हो जाय । मगर मन की सिद्धि ही अमिति र अवलम्बिन है। अत: अमिनि को मानम प्रत्यक्ष मानने पर अन्योन्याश्रय दाप प्रसस्त होगा । यदि अनमिति को प्रत्यक्षविलमण प्रमा मान कर अतिरिक्त प्रमा के अनुगंध में अनिरिक्त अनुमान प्रमण का स्वीकार किया जाय नर नो 'प्रत्यक्ष प्रमाण है' इस बार्गकप्रतिना का त्याग हो जायेगा । अत: ज्ञानादि का मानम प्रत्यक्ष नन्य नारितकों के मतानुसार भी नामुमकिन है। पदि इसके बचाव
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६.०८. मध्यमम्याचादहस्य खण्डः ३ . का... * अनुमिनिवस्य गगनदीकार्यनारदलता * | माताभावात्, सर्वप्रमाया: प्रत्यक्षरूपत्वान प्रमाभेदाधीत: प्रमाणभेद इति न प्रतिज्ञासन्यास' इति त् ? न, 'वहिन्याप्यधूमवान् पर्वत' एतादृशनिश्चयस्यैतदुत्तरानुमितित्वस्य जन्यतावच्छेदकत्वेन प्रमाविशेषसिन्दी प्रमाणविशेषसिन्देः । न चैतदुत्तरज्ञानत्वमेव तज्जत्यतावच्छेदकं एतदव्यवहितोत्तरोत्पतिकत्वमेव वा संस्कारख्यावृतं तथा; गृहीतापामाण्यवाहार्य- जरा ता
- वा गौरवण मानाभावात् । 'परामर्दा जन्पज्ञाने प्रत्यक्षत्वानिरिक्तप्रमात्वकल्यनपूर्वमेव गौग्वज्ञानोपस्थितेनं परामर्शस्यानुमानत्वमित्याशयः। अन एयन प्रनितारन्याग इति दहति - सर्वप्रमायाः - प्रभात्यावच्छित्रया: प्रत्यक्षरूपत्वात् = साक्षात्कारवाभ्युपगमान न प्रमाभेदाधीनः प्रमाणभेदः मिध्यनीति न प्रतिज्ञासन्यासः मा भेद सिद्धं मति प्रमाणान्न मिष्यति नान्पधा, तस्य तदाजीवकत्वान । लायनसहकारण प्रभावावच्छिन्न प्रत्यायनिर्णयान्न परानजन्यनमायाः प्रत्यक्षमाभिन्नत्वसम्भवः । जातो न प्रमाणान्तरप्रयजन प्रतिज्ञागंन्यास इनि चार्वाकाशयः ।
प्रकरणकारस्तममहस्तमति - नति । 'पहिव्याप्यधूमान् पर्वन' एतादृशनिश्चयस्य = प्रदर्शितप्रमापशमशेर एनदत्तरानुमितित्वस्य = एतदनदहनामिनित्यग्य जन्यतावच्छेदकल्वन प्रमाविशेषसिद्धी प्रमाणविशेषसिद्धिरिति । निरुक्तपरामर्शजन्मज्ञानविषयकानुन्य वसायम्य पर्वत दहन ने साक्षात्करोमि किन्त्वनुमिना मी त्येवारूपवान शिपया भूतव्यवसाय. ज्ञानस्य प्रदर्शितपरामर्शजन्यरूप न प्रत्यक्ष लिल्यमिनिलयः चिमणातातिरदाया विलक्षणा माया: कालाम्य न प्रत्यक्ष किन्त्वनमानल्यमवत्पचं धर्मविद गिद्धया मिचिदा पमिद्धिः । अन ख 'प्रत्यक्षमेव प्रमाणमिति प्रतिनासन्न्यासो-पि परम्य दमदरः । न च एतदोषापाकरणार नावोगगुरु: पहनासो वा नत्याहाट्यं कर्तुं समर्थः, तेन परदे कम्यवान युगमान ।
ननु निक्तनिश्चयकायंतावच्छेदक विधया एनदत्तरजानवरया युपगन्तव्यत्यम, सङ्काचे गान भागात । ततश्च न प्रदिशामन्न्यामप्रसङ्गा न वा मनसो निश्चिरिति नव्यचार्गकदाकामपाकतुंमपदानि . न चेति । एतदुत्तरज्ञानत्वमेव न तु पटनगनुमिनित्वं, नज्जन्यनावच्छेदकं = प्रामापदग्रहशन्नाशनिश्चयनिटकारनानिम्पितकायतावच्छेदकम भापेक्षाबुद्धयात्मकपरामर्शद्वितीय क्षणात्पन्ननदनात्मकानगिनिनग्रहाय कल्पान्जरमाह तदन्यवाहितोनगेत्पनिकल्लमय वा संस्कारच्यावृत्तं तथा = ताददानिश्चयकार्यतावच्छेदकम । अप्रामाण्यग्रहशन्यादानश्यं विनापि तथाविधसंस्कार त्पादन व्यतिकामिनवारणाय संस्कारव्यानमित्युक्तम् । ततश्च प्रमाणान्त गानापनेन न निझामन्यास इति नूतननास्तिकवन ईकुर्वतां जयाम्किदशीयानामा शयः ।
नबंधमपि यदानागाण्यग्रहश्न्यनादानिश्रवा नास्ति तदापि गृहीताप्रामाण्यकएसमशीतकदा व्यवहितोनरक्षणावच्छेदन तादशाहार्यपरामर्शात्रायव्ययहिनाक्षगावन्दन तवन्निदहारमृतिगंशविपर्ययात्पादन अनिरकन्यभिचारतादवस्यवेत्यागायन प्रकरणकारस्ननिराकुरुते गृहीताप्रामाण्यकाहार्यपरामर्श विशिष्टस्मृतिसंशयादिषु = मानानाधिकरणयसम्बन्धेन गृहाताप्रामाण्या
में नव्य नारिनकों की ओर से यह कहा जाय कि → 'हम पगमर्शजन्यज्ञान का तो स्वीकार करने ही हैं, मगर उसमें प्रत्यक्षभिन्न अनुमिनिन्च नहीं मानते हैं, न्याकि उममें कोई प्रमाण नही है । सब प्रमा प्रत्यक्षस्वरूप ही होती है, न कि अप्रत्यक्ष । अन्य प्रमाण की सिद्धि नब होती यदि प्रत्यक्ष प्रमा सेभेन प्रमा की सिद्धि हो, क्योंकि प्रमाणभेद = अतिरिक्तप्रमासिद्धि प्रमाभेद की सिद्धि के अधीन है। अनः परामर्शजन्य ज्ञान से मन की सिद्धि भी होगी गर्ने 'प्रत्यक्ष ही प्रमाण है' इस प्रतिज्ञा की भी सुरक्षा होगी' --
___E LAIMकार्याक अनुगिविस्त हो । - स्यावादी 4 न.व. । तो यह करन भी ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि 'वहिव्याप्यमवान पर्वनः' इत्याकारक परामर्श निश्चय का कार्यनाभपदक पतदुत्तर दहनानुमितिन्व है, क्योंकि 'पर्चत बहिं अनुमिनोमि' ऐमा अनुमितिविपयक अनुल्यमाप होता है। अतः प्रत्यक्ष सं विलक्षण प्रमा का स्वीकार आवश्यक ही है, जिसके फलस्वरूप प्रत्यक्ष प्रमाण से भिन्न अनुमान प्रमाण की सिद्धि अनिवार्य होगा, क्योकि प्रभाट प्रमाणभेद का माधक है। यहां बचाव के लिए यह बक्तव्य भी कि -> 'नादृश पगमर्शनिश्रय का कार्यता अवशंदक पलदत्तग्नहनानुमितित्व नहीं किन्नु गतदनरज्ञानत्व ही है अथवा संस्कारज्यावृत्त एतदन्यहिनोनगत्पत्तिकत्व को ही उसका कार्यतावच्दक माना जा सकता है। संस्कार की प्रस्तुत पगमर्श के बिना भी उत्पनि हो मकती है। अत: 'मंकार में न रहनेवाला' मा एतदन्यहितांत्तरोत्पत्तिकन्च का विशेषण लगाया गया है। ऐसा
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अनुमितिकारणताविचारविमर्शः *
परामर्शविशिष्ट स्मृति - संशयादिषु व्यभिचारवारणाय ततदप्रामाण्यग्रहाभाव- ततदाहार्यभेदादीनां जन्यतावच्छेदके निवेशे गौरवात् । ता वाप्रामाण्यप्रकारतानिरूपित सामानाधिकरण्यविशिष्टविशेष्यतासम्बन्धेन ज्ञानाभावत्वेनाऽप्रामाण्यग्रहाभावानामाहार्य भेदस्य चानुगतस्यैव निवेॐ जयलता
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रामर्शविशिष्टस्मरणसंशयविपर्ययेषु आहार्यपरामर्शविशिष्टस्मरण संशय-विपर्ययेषु च निम्क्तकार्यतावच्छेदकावच्छिन्नेषु अप्रामाण्यग्रहशून्यतादृशनिश्रयमृत उत्पन्नेषु व्यतिरेकव्यभिचारस्य परिग । तत्र व्यभिचारवारणाय व्यतिरेकव्यभिचारा राकरणकृते ततदप्रामाण्यग्रहाभावतनदाहार्यभेदादीनां जन्यतावच्छेदके अप्रामाण्यग्रह-शून्यतादृशानि सकार्यतावच्छेदककोटी निवेशे गौरवात् : महागीवात् । तदानिवेशेऽयमादन्यालोकपरामर्शादपि गृहांना प्रामाण्यक धूमरामसत्वं दहनानुमित्यनापत्तिः । अतः तत्तत्पदनिवंशस्यावश्यकत्वम् । तदपेक्षयैतदव्यवहितो नरदनानुमितित्वस्यैव तत्कार्यतावच्छेदकत्वे लावयमिति प्रकरणकृदाशयः ।
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नव्यनास्तिकशङ्कामपाकर्तुं दर्शयति न चेति वाच्यमित्यनेनान्त्रयोऽस्य । अप्रग्नापग्रहा भावानानाहार्य सदस्य चानुगतत्वमुपपादयन्ति नन्यनास्तिका: अप्रामाण्यप्रकारतानिरूपितसामानाधिकरण्यविशिष्ट विशेष्यतासम्बन्धेनेति । 'अयं परामर्शोप्रामाण्यवानिति ज्ञाने परामर्श विशेष्योऽप्रामाण्यञ्च प्रकारः । अतोऽप्रामाण्यनिष्टकारता निरूपितविशेष्यतासम्बन्धेनाप्रामाण्यविज्ञानविशिष्ट: परामर्शनिश्वयः । एवं बाधकालीनच्छा मन्यज्ञानलक्षणाहार्थं परामर्शोऽपि स्वनिरूपितानाम्यनिष्ठ कारतानिरूपितविशेष्यतासम्बन्धेनाप्रामाण्यज्ञानवान् । यस्मिन्त्रात्मानं समायेन तादृशपरामर्जी विद्यते तस्मिन्नेव सजवायनाः प्रामाण्यग्रहोऽपि वर्तत इत्यतः स्वप्रकारीभूता गाण्यनिष्ठप्रकारता निरूपितमानानाधिकरण्यविशिष्टविशेष्यतासम्बन्धेनामाण्यग्रही गृहीता प्रामाण्यकपरामर्श आहार्यपरामर्श वा वर्तन । स्वनिरूपितानानाम्यनिष्ठ प्रकारतानिरूपित सामानाधिकरण्यविशिष्टविशेष्यतासम्बन्धेन परस्मदर्शनिष्ठानां तदप्रामाण्यग्रहाभावानां तत्तवाहार्यमेदानां च तत्कार्यतावच्छेदककोटयनिवेशनीयत्वं तेषां ज्ञानाभावत्वेनैव स्वीकार करने पर अतिरिक्त प्रमा की सिद्धि नहीं होगी। अतएव अतिरिक्त अनुमान प्रमाण की भी सिद्धि अप्रसक्त रहेगी' ← असंगत है। इसका कारण यह है कि जिसमें अप्रामाण्य का ज्ञान हो गया है ऐसे परामर्श या आहार्य वाकालीनेच्छाजन्य) परामर्श की उत्पत्ति के अव्यवहितोत्तर क्षण में दहन की स्मृति, संशय आदि हो सकते हैं, जो गृहीताप्रामाण्यक परामर्श या आहार्यपरामर्श से विशिष्ट होते हैं। विवक्षित परामर्शात्मक कारण के बिना भी प्रकृत कार्यतावच्छेदक से विशिष्ट की उत्पत्ति होने से व्यतिरेक व्यभिचार प्राप्त होता है। यदि इस व्यभिचार को हटाने के लिए नय नास्तिकों की ओर से यह कहा नाय कि "हमें जो 'पर्वता वह्निव्याप्यधूमवान्' इस परामर्श का कार्यतावच्छेदक अभिमत है यह केवल एतदुत्तरज्ञानत्व नहीं है किन्तु उसमें तत् तत् अप्रामाण्यज्ञानाभाव एवं तत् तत् आहार्य भेंद्र भी निचिष्ट दी है। गृहीनाऽप्रामाण्यकपरामर्शविशिष्टस्मरणसंशयादि या आहार्यपरामर्शविशिष्टस्मरण-संशयादि कार्य में तत्तदप्रामाण्यज्ञान का अभाव या आहार्यभेद नहीं रहता है। अतः विवक्षित कार्यतावच्छेदकावच्छिन्न की उत्पति नहीं होने से व्यतिरेक व्यभिचार का अवकाश नहीं है" तो यह भी असंगत है, क्योंकि नच कार्यतावच्छेदककोटि में गौरव दोप प्रसक्त होता है । नत्तत अप्रामाण्यग्रहाभाव एवं तत् तत् आहार्यभट का | कार्यतावच्छेदककुक्षि में प्रवेश करने की अपेक्षा एतदव्यवहितांनगनुमितित्व को ही तादृश परामर्श का कार्यतावच्छेदक मानना समत है, जिसके फलरूप में अतिरिक्त प्रमा की सिद्धि होने से प्रमाणान्तर की सिद्धि अनायाग हो जायेगी।
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न चाप्रा । यदि गौरव दीप के परिहासर्व नृत्य नास्तिकों की और से बचाव रूप में यह कहा जाय कि विवक्षित परामर्श के कार्यतावच्छे शरीर में तत् तत् प्रामाण्यज्ञानाभाव का तरामाण्यज्ञानाभाव एवं तन त आहार्यों का आहार्यभेदत्वेन निवेश नहीं किया जायेगा किन्तु ज्ञानाभावत्वेन ही प्रवेश किया जायेगा, जो कि उनमें अनुगत धर्म है । यद्यपि ज्ञानाभावत्य तो अप्रमाण परामर्श की भांति प्रमाण परामर्श में भी रहता है। अतः उसकी व्यावृत्ति के लिए ऐसा कहा जा सकता है कि स्वनिरूपिताप्रामाण्यनिष्प्रकारताविरूपितसामानाधिकरण्यविशिष्टविशेष्यताराम्बन्ध से ज्ञानाभावत्वं एतत्कार्यताव
कर्म कोटि में निविष्ट है। इसको सष्टता इस तरह है अयं परामर्शः अप्रामाण्यवान् इस ज्ञान में प्रकार है अप्रमाण्य और विदोष्य है परामर्श । एवं जिस आत्मा में समयाय सम्बन्ध से परामर्श ज्ञान रहता है उसीमें समवाय से उपर्युक्त अप्रामाण्यज्ञान भी समवाय सम्बन्ध में रहता है। मतलब कि दोनों समानाधिकरण है। अतः अप्रामाण्यज्ञान स्वनिरूपित अप्रामाण्यनिष्टप्रकारतानिरूपित सामानाधिकरण्यविशिष्ट विशेष्यतासम्बन्ध में परामर्श में रहेगा । जब परामर्श गृहीताप्रामाण्यक या आहार्य न होगा तब उस राम में स्वनिरूपिताऽप्रामाण्यनिष्ठाकारतानिरूपितमामा नाधिकरण्यविशिविशेयता सम्बन्ध से ज्ञानाभाव रहेगा। अतः निरुक्त सम्बन्ध में ज्ञानाभावत्य का विमर्शकार्यतावच्छेदक कोटि में समावेश हो सकता है । अतः गांव दोष का अवकाश
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गा144:1
६६: मध्यमम्पादादरहस्य खण्डः ३ . का ११ अनुर्गितकापाताया भिचारापानम *
शामायं दोष इति चलिम्, न ह्यप्रामाण्यवाहाभावविशिष्टधूमपरामव्यवहितोत्तरोत्यत्तिकत्वं अव्यवहितोत्तरत्वसम्बन्धेनाऽग्रामाण्यगृहविशिष्टान्यधूमपरामर्शाव्यवहितोत्तरोत्पत्तिकत्वं वा तथा, यत्र धूमपरामर्शब्दितीयक्षणे धूमज्ञानाप्रामाण्यावमाही आलोकपरामर्श: तदुत्तरानुमितो व्यभिचारात्, यत्र च पूर्व धूमपरामर्शनिष्लेदत्वर्मितावच्छेदकळाप्रामाण्यग्रहस्ततश्च धूमपरा
-* जयलता हैमापणा नुगमः कर्तुं शक्यने । अनी नायं गौरवलक्षणों दोषः । सामानाधिकरणयविशिष्टत्यनुक्ती चैत्रन्या ग्रामाण्यग्नहसच्चे मैत्ररपाऽपि 'बहिन्याप्यधूमवान् पर्वत उतिपणाशंदनानुमितिनं स्यात् । अतस्नत्रिदशः कृतः । ततो नंतदभ्यहितोनर - दहनामतित्वस्य कार्यनाचन्दकानि नधाननास्तिकाभिप्राय:।
प्रकरणकारों व्यभिचारोगानन नमपहस्तयति . न ही नि तथत्यनेनान्यनि । प्रामाण्यगृहाभावविशिएधूमपरामऽिव्यवहितात्तर्गत्पनिकत्वं - अच्या हितांत्तरत्वसंगण अप्रामाण्यगृहाभाविशिष्टो यो धूमपरामर्शः तदव्यवहितानरकालान्छेदन जायमानल्यम् । अत्यन्ताभावापेक्षयान्यांन्याभावस्य लपशरकत्वाकल्यान्तरमाह - अव्यवहितं.त्तरत्वसम्बन्धेन अप्रामाण्यग्रहविशिशन्यधूमपरामर्शाच्यवाहितालगत्पनिकलं = निरुक्तसम्बन्धनाप्रामाण्यज्ञानविशिष्टी य: तदन्यस्य धूमलिङ्गकपरामशंग्याव्ययहितीनरकालाबच्छंदन जायमानत्वं वा तथा = एतत्कार्यतावच्छेदकं सम्भवति । नदसम्भवमेव भावनि . पत्र म्धलं प्रथम. आगे धूमपरामर्शी जातः धूमपरामर्श द्वितीयक्षणे = भमपरामर्शम्य द्वितीयक्षणावच्छंदन धूमज्ञानाप्रामाण्याचगा कपगमर्शनिष्ठा प्रामाण्यगोचर: आलोकपरामर्शः = "पर्वती दहनन्यायालोकवान न न दहनन्यायधूमवानि त्याकारकः सञ्जात: | तदनगनुमिती = नदव्यवहिनीनरक्षगावच्छेदन = तृतीयक्षणाबच्छदन अनुमिता = दहनामिनी जायमानायां व्यभिचारात् = त्यतिर कन्यभिचारान् । धूमपगम्झनिठानामाश्यगोचरज्ञानस्य अमाग़मनिन्नरजातल्यन धृनपरामर्दास्य ग्यान्यहितानगन्वसम्बन्धना प्रामाण्यग्रहविशिष्टत्या नावः । नबालीकपरामर्श एव ग्वात्यहितीसग्त्यसम्बन्धना ग्रामाण्यग्रहविशिष्टी धूमपरामर्शग्नु स्वाज्यबहिनोत्तरत्वसम्बन्धेनाध्यामान्यगृहाभाववान । ततश्चालं कलिङ्गकपरामर्शजन्यानुमिता म्वाव्यवहितोनरत्वसम्बन्धनाघ्रामाण्यग्रहाभावविशिष्टी यो धूमपरामर्शदन्यरहितांत्तरक्षणावच्छंदन जायमानत्वस्व यदा स्वाज्यवहितंचरत्वसम्बन्धेना प्रामाण्यग्रहविशिष्टी व आलोकपरामर्शस्नदन्यधूमपरानज्ञांच्यवहितांनरकलावन्दन जायमानत्वस्य सत्त्वात् व्यतिरकन्यभिचारस्य टुरित्वम् । न हि, तस्या धूमलिङ्गकापरामर्शजन्यत्वं फिन्त्वालोकलिङ्गकपरामर्शजन्यत्वम् । कार्यताब छंदकं नु नत्रालोकलिङ्गका परामस्य नास्ति किन्तु, धूमगरामस्पिवाऽस्तान्पना ब्यभिचारः ।
ननु लिङ्गकानमितिः न शकपरामर्शनिष्ठत्या ग्रामायग्रहाभायस्य निवविवक्षणान्न दोष इत्यादाकायां पान्नरमाह यत्र स्थल च पूर्व = पूर्वक्षागायलंदन धूमपरामर्शनिदिन्वधर्मितावच्छेदककाप्रामाण्यग्रहः = 'रयं धूमलिजकापरामशों; प्रामाण्यवानि निस्वरूपरा:ग्रामात्यप्रकारकनिश्चयः ततः - तदन-तरक्षणाचच्छेदनाऽन्यः प्रमाणीभूदा धूमपरामर्शः = धूमपरामर्शान्तरं,
नहीं है - तो यह भी अधिक है। इसका काग्ग यह है कि अप्रामाण्यग्रहाभापविशिष्टधूमपगमाव्यवहितानगत्पत्तिकत्व अर्थात जिसमें अप्रामाण्य का भान नहीं हुआ है ऐसे धूमपगमर्ग के अव्यवहितानरक्षण में जायमानत्य धर्म या तो अव्यवहितोत्तरत्व. सम्बन्ध में. जो अप्रामाण्यगृहविशिघ्र है, उससे भिन्न से धूमपरामर्श के अव्यवहितानरक्षण में नायमानत धर्म भी भापमे प्रदर्शित गति के अनुगार स्वनिम् पिताप्रामाण्यनिष्ठप्रवाग्नानिमपिनमामानाधिकरण्याचशिष्टविशेप्यतासम्बन्ध में ज्ञानाभाव में विशिष्ट या घटित बनने पर भी पगमकायंतावनेदक नहीं बन सकता है। इसका कारण यह है कि जब प्रथम क्षण में धमपगमा उत्पन्न होना है। उसकी द्वितीय क्षण में सो ग्रामाण्य का अवगाहन करता हुआ आनकलेगय पगमग होता है और तृतीय क्षण में पति की अनमिन होती है। यह सर्वमान्य है या उभयपक्षमान्य है । मगर उसमें अप्रामाण्यानहाभार-विशिष्ट धूमपगभाग्यव-हितोत्तरजायमानत्व या अन्यबहिनीलगत्वसम्बन्ध म अपामाण्यगृहविशिष्भिन्न भूमपगनांव्यहिनानगेनिकल धर्म भी रहता है, क्योंकि वह अव्याहतानात्व सम्बन्ल से अपामाण्यज्ञानाभाव के आश्रय से धुमपरामर्श के अन्याहनांना काल में भायमान है। मतलब कि उममें नयनाम्निक प्रदर्शिन कार्यताअचछेदक धर्म रहना है । अत: व्यभिचार का प्रमद उपस्थित होता है। पत्रं जय पहले धूमपगमय में इदन्नधर्मिनाभवनोदकक गंगा अप्रामाण्यज्ञान यानी 'अयं धूमपगमशेऽपामाण्यवान' गमा ज्ञान होने के बाद उमझी दृमरी भण में पुनः 'हिन्यायधूमपान पर्वत' इत्याकारक धूमनिषक प्रम. पगमर्श हुआ ही वहाँ नृतीय क्षण में दहनानमिति होनी है। मगर इस अनुमिनि में मन्यनास्तिकप्रदर्शित कार्यनाभवदक धर्म रहना नहीं है, कयोकि प्रथम क्षण में अप्रामाण्य का मपरामर्श में अवगाहन हो जान से द्वितीय क्षण में अव्यवहितानात्य सम्बन्ध से
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* अपानावस्थाननुगमः*
मन्तिरं तदुत्तरानुमितेश्चाऽसहमहात् । किन्तु अव्यवहितोत्तरत्वसम्बन्धेनाऽग्रामाण्यग्रहाभावविशिष्टपरामर्शाधिकरणक्षणविशिष्टत्वं, तत्र च शुन्दाधिकरणतानामतिग्रसमकत्वेन विशिष्ट्राधिकरणतात्वेन निवेशे प्रागुक्तस्मृतिसंशयादिस्थलीयपरामर्शविशिष्टाधिकरणतानां निवेशे तदोषानुब्दारात् । अप्रामाण्यस्याऽननुगमेनैकाभावनिवेशाऽसम्भवाच्च ।
-* गयलता * तदुत्तरानुमितेः = द्वितीयधूमपरामर्शात्पादानन्नरांचरक्षगानच्छेदन जायमानाया दहन नुमितेः च असङ्ग्रहात् = तत्कार्यता. वच्छेदकानाक्रान्तत्वेनाऽनुपग्रहप्रसङ्गात् । तत्रानुमितिस्तु भवत्येव द्वितीयपरामर्शबलार किन्तु तादादहनानुमिनी अत्यवाहतोचरत्व सम्बन्धेनाप्रामाण्यगृहाभावविशिष्टधूम पग़मान्यवहिनीनरोत्पनिकल्यं अप्रामाण्यग्रहविदिशष्टान्यभूमपरामर्शात्यवहितंत्तरजायमानत्वं वा नास्ति. तदव्यरहित पूर्वक्षणवर्तिधूमपरामर्शस्य स्वायरहितानरवर्तित्वसम्बन्धेनाऽप्रामाण्यग्रहविशिष्टत्वात् । नतश्चान्वययभिचारण्य दुरित्वम, द्वितीय धूमपरामर्शलक्षगकारणसत्त्वे पि सदुत्तरं तत्कार्यतावच्छेदकविशिष्टस्यानुत्पत्तरित्येकं मन्यनोऽपरगन्युनिः । ___ तर्हि व्यभिचानिवारणकृतं किं कर्तव्यं : इति किर्तव्यतामूढाशङ्कायामाह - किन्तु अत्र्यवाहितांजरत्वसम्बन्धन = स्वाव्यवहितानरक्षणनिपिनसामानाधिकरग्यविशिष्टनित्वसम्बन्धन, अप्रामाण्यग्रहाभावविशिष्टपगमाधिकरणक्षणविशिएवं - निरुक्तसम्बन्धनाध्यामाग्यप्रकारकनिश्चयप्रतियागिकाभादविशिष्टो य: परामर्शः तदधिकरणीभूतक्षणविशिष्टत्वं यद्वा स्वा व्यवहितोत्तर. क्षणत्वसम्बन्धेनाध्यामाण्यप्रकारकज्ञानामानिशिष्यो ग परामविक गाणः तनिशिरत्वमेतत्कार्यतावच्छेदकमिति वाम्यम् । ततश्च यत्र धूमपरामर्शद्वितीयक्षणे धूनज्ञानाप्रामाण्याचगाही अग्लोम्परामदस्तिदव्यवहितोनरक्षणजायमानानुमिती न व्यतिरेकञ्यभिचार:. तस्याः स्वाव्यचहितोत्सरक्षगत्वसम्बन्धना:प्रामाण्यप्रकारकज्ञानाभावविशिष्टो यो धूमपरामर्शधिकरणक्षण: तद्विशिष्टलविरहात । नाऽपि यत्र पूर्व धूमलिङ्गकपरामर्शनिष्ठदन्त्वधर्मिताबच्छेदककानामाग्यग्रहस्ततो धूमपराम शान्तरं तदव्यबहिनोत्तरानुमितरसग्रहः, नस्यां द्वितीयधूमपरामर्शकार्यतावच्छेदकस्य स्वाध्यहितात्तरत्वसम्बन्धनाध्यामाण्यग्रहाभावविशिष्मा या द्वितीयपरामर्शात्पादवितीय क्षणः तद्विशिष्टत्वस्य सत्त्वात् । इत्यञ्च व्यभिचारावकाशी यद्यपि नास्ति तथापि तत्र शुद्धाधिकरणतानां = स्वाव्यवहितानरत्यसम्बन्धेनाप्रामाण्यग्रहाभावविशिष्टो यः क्षण: तनिष्ठाधिकरणनानां. अतिप्रसञ्जकत्वेन = स्वाःल्यवहितानरक्षणल्वमम्बन्धन 'वहिव्याघ्यालोकवान पर्वत' इत्याकारालोकलिङ्गकारामर्शर्मिका प्रामाण्यग्रहानावविदिशन गृहीताप्रामाण्यकाहार्यधूमलिङ्गक. परामर्शनिरूपिताधिकरणताश्रयीभूतक्षणे विशिष्टायामनलानमिती व्यभिचारापादकत्वेन, तदपाकरणाय विशिष्टाधिकरणतात्लेन रूपेण, परामर्शाधिकरतायाः तत्कार्यतावच्छेदकधर्मशरीरकक्षी निवेशे = अवश्यनिशनीयले प्राप्ते, प्रागुक्तस्मृतिसंशयादिस्थलीयपरामर्शविशिष्टाधिकरणतानां = गृहीताप्रामाण्यकाहार्य परामर्शरिशिष्टदहनस्मरणसन्देहादिस्थलीयगृहीताप्रामाण्यकाहार्यपरामर्शविशिष्टाधिकरणतानां, निवेशे = कार्यतावनछेदकबाटकनिवा, तहोपानद्धागत् = व्यभिचारदीपताटवस्थ्यात, तदनिवेश च महागौरवात् । न च गृहीना-ग्रामाण्यकभेदविशिष्टपरामर्शनिरूपिताधिकरणताल्वेनानुगताधिकरणनानिवन व्यभिचागं न वा गौरवमिति वाव्यम, तदभाववनि तत्प्रकारकत्वरूपस्या प्रामाण्यस्य नद्रदेन भेटान अप्रामाण्यस्याऽननुगमेन एकाभाननिरेशाऽसम्भवात् गृहीताप्रामाण्यकपरामर्शप्रतियोगिकस्पकस्य भदस्य तत्र प्रवेशा:सम्भवात् । ततश्चनदुनरदहनानुमिनिल्यस्यव
तो अप्रामाण्यग्रहविशिष्ट ऐसे धूमपरामर्श की अव्ययहितीनर क्षण में वह अनुमिति जायमान है। इस तरह नव्यनास्तिकभीष्ट कार्यनापछेदक नहीं होने की वजह इस अनुमिति का उनक मतानुसार संग्रह नहीं हो सकेगा । मतलब कि उसमें द्वितीय धूमलिङ्गक परामर्श का जन्यताअवच्छेदक नहीं रहेगा किन्तु प्रधम धूमलिङ्गक परामर्श का कार्यताअवञ्छदक धर्म रहेगा । द्वितीय धूमपरामर्शात्मक कारण उपस्थित होने पर भी उरके कार्यताअपच्छदक धर्म से विशिष्ट अनुमिति का उदग्र न होने से अन्चय व्यभिचार दाप स्पष्ट ही है।
किन्त । अतः उपर्युक्त दोपों के निरासार्थ नन्य नास्तिकों को यही कहना पड़ेगा कि → धूमपरामर्श का कार्यतारजंतक है स्वाऽन्यवाहनोत्तरत्व सम्बन्ध से अप्रामाण्यग्रहाभावविशिए गर्म पगमाधिकरणक्षण का वैशिष्ट्य । अब उपर्युक दोपों को अवकाश नहीं है, क्योंकि धूमपरामर्शयार्मिकायामाण्याऽवगाही आलोकपरामर्श से जन्य दहनानमिति में स्वाऽव्यवहितोजस्व सम्बन्ध से अप्रामाण्यगृहाभाविशिष्ट धूमलिङ्गकनगमर्माधिकरणीभून क्षण का वैशिष्ट्य नहीं रहगा । इसी तरह प्रथम धूमपरामर्ग में अप्रामाण्य का अवगाहन करने के बाद द्वितीय मलिङ्गक परामर्श की अव्यवहितांतर क्षण में उत्पच होनेवाली दहनामिति में भी स्वाऽव्यवहिताजगत्वसम्बन्ध में अप्रामाण्यग्रहाभावविशिष्ट द्वितीय धुमागमधिकर्णाभूत क्षण, जो द्वितीय श्रमपरामर्श की उत्पत्ति की द्वितीयक्षणस्वरूप
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६६ मध्यमस्वाहादरहस्ये खण्डः - का.११* अप्रामाश्यग्रहामाधानामन मितिहेतवानहाकार:*
यत -> अपामाण्यज्ञानाभावस्य पृथकारणत्वादेतदुत्तरज्ञानत्वस्य जन्यतावच्छेदकत्वे नोक्तो दोष इति «- तला, तत्तव्यक्तित्वेनाऽग्रामाण्यग्रहाभावानां तत्तदपामाण्यग्रहाभावविशिष्टधूमादिलिङ्गकानुमिति प्रति हेतृत्वकल्पनापेक्षया सामानाधिकरण्यविशिष्टविशेष्यता
-* जयला - कार्यतावच्छेदकत्वमभ्युपेयम् । ततश्चानिरिक्तप्रमाजनकत्वेन परामर्शस्य प्रमाणान्तरत्वापानात प्रतिज्ञामन्यामी दुर्वार. "ब नव्यनास्तिकानामित्वत्र प्रकरणकृत नात्पर्यम् ।
मतान्तरं दुपितमपन्यस्पति - यत्तु इति नन्नेत्यनेनान्यति । समवायसम्बन्धावचिन्नप्रतियोगिताकस्य अप्रामाण्यज्ञानाभावस्य = परामर्शधर्मिकाप्रामाण्यप्रकारकज्ञानाभावस्य, परामर्शजन्यबुद्धिं पनि पृथकारणत्वान् = म्यानपेण हेतुन्या पुषगमान. एतद्नरज्ञानत्वस्य = एतदन्यवहितांतरज्ञानत्वस्य, जन्यतावच्छेदकत्वे = तत्परामर्शकार्यतावच्छेदकत्वस्वीकारपि, न उक्न: व्यभिचारादिलक्षणो दोषः, गृहीताप्रामाण्यकधूमपरमविशिष्टदहनस्मत्यादी आहार्वपरामविशिष्टदहनसंशयादी चा प्रामाण्यज्ञानाभावजन्यत्वविरहात् ।
प्रकरणकारस्तषति - तमेति । 'दहनन्यायालोकवन पर्वत' इत्याकारकपरामर्शनिकासामाग्यप्रकारकज्ञानाभाचमादाय अगृहाता-प्रामाण्यकधूमलिङ्गकापरामर्शजन्यदहनजाने व्यभिचारवारणाय तत्तव्यक्तित्वेन = यद्यदप्रामाण्यग्रहसत्तं न धूमादिलिङ्गकानमिति: तत्तदप्रामाण्यज्ञानाभाववन अप्रामाण्यग्रहाभावानां = समवापावच्छिन्नप्रतियोगिताकानामाग्यप्रकारकग्रहाभाधानां, तत्तदप्रामाण्यग्रहाभावविशिष्टधूमादिलिङ्गकानुमिति = धूमादिलिगकपरामर्शविदोप्यकानामाग्यप्रकारकज नाभाववादिष्टक्ष्मादि. लिङ्गकदहनज्ञानं. प्रति हेतुस्वकल्पनापेक्षया = स्वरूपण कारणत्वाभ्युपगमापेक्षया. सामानाधिकरण्यविशिष्टविशेष्यता. है, का वैशिष्ट्य रहता है। अतः अव्याप्ति का या अन्वय न्यभिचार का अवकाश नहीं रहेगा -मगर फिर भी कार्यतावचंद्रदकीभूत वैशिष्ट्य की प्रतियोगी क्षण में सही हुई शुद्ध अधिकरपाता का निवेश करने पर आलोकलिङ्गकपगमर्शधार्मिक अप्रामाश्यग्रहाभाव से विशिष्ट ऐसी आहार्यधूमपरामदााधिकरण क्षण के शियवाली अनिसाध्यक अनुमिति में अतिप्रसङ्ग आयगा । अनः विशिष्टाधिकरणतात्व रूप से अधिकरणता का निवेश करना होगा । उसमें यदि पडले. बताई हुई गृहीताप्रामाण्यक या आहार्यपरामर्श से विशिष्ट अग्निस्मृति या अग्रिसंशय आदि स्थल के गृहीताप्रामाण्यक परामर्श या आहार्य परामर्श से रिशिष्ट अधिकरणना का निवेश करेंगे तब तो व्यतिरेक व्यभिचार दोष तदवस्थ रहेगा और तादृशाधिकरणता से भिनाधिकरणता का निवेश करेंगे तो महा गीग्य दोष प्रमक होगा । दूसरी बात यह है कि अप्रामाण्य तो तदभाववति तत्प्रकारकत्वस्वरूप है। तन का वाच्यार्य बदलने पर उससे घटित अप्रामाण्य भी भित्र होगा । भ्रमात्मक रजतज्ञान में 'ग्जनत्वाभाववति शक्तिपदाधे रजतत्वप्रकारकत्वस्वरूप' अप्रामाण्य है । अप्रमाण सर्पज्ञान में सर्पवाभाववद्रज्जुषिशेप्यक - सर्पत्यप्रकारकन्वरूप अप्रामाण्य है। मतलब सब अप्रमाण ज्ञान में रहने वाला अपामाण्य एक - अनुगत . साधारण नहीं है, किन्तु अननुगत है । अतएव गृहीताप्रामाण्यकपरामप्रतियोगिक एक अभाव (=भेद) का निवेश भी कार्यताअवच्छेदकधर्मशारीरकुक्षि में नाम्मकिन है । अतः तादा अव्यरहितांनरज्ञानन्य या अव्यरहितोत्तरोन्पनिकन्च, जो संस्कार में न रहता हो, का कार्यताअवच्छेदक न मान का पतदुनगनुमित्तिन्त्र को ही पतत्परामर्श का कार्यताअवच्छेदक मानना संगत है, जिसके फलस्वरूप परामर्श प्रत्यक्ष से अतिरिक अनुमान नामक प्रमाण सिद्ध हो जाने मे नन्य नास्तिक के मर पर प्रतिज्ञासन्यास नामक दोष का प्रसत तदवस्थ ही रहगा - यह तात्पर्यार्थ है।
प्रामाण्याsarg की स्वतन्त्रकार[ता नामुमकिन ___ यच्च । उपर्युक्त दोष के निवारणार्थ अन्य अभिनव नास्तिक का यह चकन्य है कि -- 'धूमपरामर्श की अव्यवहितोता । में होने वाली अनिविषयक बुद्धि के प्रति अप्रामाण्यग्रहाभाव को भी स्वतन्त्र कारण माननं पर तो गनदनरन्नानन्च को परामर्शकायंताबदक माना जा सकता है, क्योंकि तब पूर्वोत व्यभिचार आदि दोष का अवकाश नहीं है। गृहीताप्रामाण्यक या आहार्य धूमपरामर्श में विशिए अग्रिम्मरण . संशय आदि की अव्यवहित पूर्व क्षण में अप्रामाण्यज्ञानाभाव ही नहीं रहता है। अतएव अप्रामाण्यवोधाभाव, धूमपरामर्श आदि से बह जन्य ही नहीं है, तब व्यभिचार का अवकाश कैस?' - मगर यह भी ठीक नहीं है, क्या कि तब भी अन्यलिङ्गकपरामर्शधार्मिक अप्रामाण्यज्ञानाभाव को लेकर गृहीताप्रामाण्यकभूमगमीय अग्निबुद्धि की उत्पनि की आपत्ति तो दुरि नंगी, क्योंकि नब अप्रामाण्यग्रहाभाव, धूमपरामर्श आदि उपस्थित हैं। अतः इसके निवारणार्य नवीन नास्तिकों का यही मान्य करना होगा कि → 'तन नत् धूमादिपरामर्शविशयक अप्रामाण्यप्रकारक ज्ञान के अभाव में विशिष्ट भूमादिलिङ्गकानुमिति के प्रति नत् नत् व्यक्तित्वेन यानी धूमादिरिषकपसमाविष्प्यक अप्रामाण्यज्ञानप्रतियोगिकत्वन
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* रत्नकोशकारमतान - मुपगमः सम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकाऽप्रामाण्यग्रहाभावानामवच्छेदकत्वकल्पनोचित्यात् । ॐ गयलता -
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सम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकाऽप्रामाण्यग्रहाभावानां = स्वनिधप्रकारता निरूपितसामानाधिकरण्यविशिष्टविशेशेष्यतासंसर्गावच्छिन्ना या अप्रामाण्यप्रकारकज्ञाननिष्ठप्रतियोगितास्तनिरूपकानामभावानां एवं अबच्छेदकत्वकल्पनौचित्यात् = परामर्शनिष्ठकारणतावच्छेदकत्वकल्पनाया वीचित्यात् । अयमभिप्रायः समवायावन्न्निप्रतियोगिताकधूमपरामर्शधर्मिका प्रामाण्पज्ञानानावानां धूमपरामर्शविशेष्टकाप्रामाण्यप्रकार कग्रहा भावविशिष्ट धूमलिङ्गकानुमिति प्रति स्वातन्त्र्येण हेतुत्वकल्पनं तदभाववति तत्प्रकारकत्वरूपस्याऽप्रामाण्यस्याननुगमन तत्प्रतियोगितया मिश्रो भिन्नानां नानाविधाप्रामाण्यग्रहाभावानां तदूव्यक्तित्वेन कारणत्वकल्पनागौरवम् । | तदपेक्षया प्रामाण्यग्रहाभावानामनुमितिकारणतावच्छेदकत्वकल्पनमेव युक्तम् । तत्र धूमलिकानुमितिं प्रति स्वनिष्ठप्रकारतान रूपितविशेष्यतासम्बन्धेनाऽप्रामाण्यग्रहा भावविशिष्ट धूमपरामर्शस्य कारणत्वम् । यदा च 'अयं धूमपरामर्शोप्रामाण्यवानि निज्ञानमुपजायते तदा धूग परामर्शस्य स्वनिष्ठप्रकारतानिरूपिनविशेष्यतासम्बन्धेनाऽप्रामाण्यग्रहविशिष्टत्वेन दहनानुमितिकार्यतावच्छेदकशून्यदहनानुमितिरुपजायते । तादृशज्ञानविरहविशिष्ट परामर्शदशायां तु तस्य कारणतावच्छेदकविशिष्टत्वादनलानुमितियत एव । न चैवं सति मंत्रीयधूमपरामर्शनिष्ठाप्रामाण्यग्रहा भावमद्राय चैत्रस्य गृहीताप्रामाण्यकधूमपरामर्शाद धूमध्वानुमितिः स्यात् इति चक्तव्यम्, सामानाधिकरण्यविशिष्टाया एवं विशेष्यतायाः कारणतावच्छेदकताघटकसम्बन्धकुक्षी प्रवेशात् । चैत्रीयधूमपरामर्शस्न स्वनिष्ठप्रकारतानिरूपितसामानाधिकरण्यविशिष्टविदोष्यतासम्बन्वेनाप्रामाण्यग्रहाभावविशिष्टत्वविरह चैत्रस्य तदानीमनलानुमिते योगात् । एतेन चैत्रीयधूमपरामर्शस्यप्रामाण्यग्रहमादाय मैत्रस्याऽपि धूमपरामर्शादिनानुमितिनं स्यात् इदन्त्यधर्मितावच्छेदकानवाहिनी 'धूमपरामर्शोऽप्रामाण्यवान्' इत्ययकारकचैत्रीयग्रहस्य विशेष्यतासम्बन्धेन मंत्रीयप्रामाणिकधूमपरामर्श सन्चादित्यपि प्रत्युक्तम्, त्रीयथार्थधूमपरामर्शत्निविशेष्यताया अप्रामाण्यग्रहनिरूपित - समवायगर्भित-सम्मानाधिकरण्याऽविशिष्टत्वात् । नाऽपि गृहीताप्रामाण्यक धूम्रपरागशीविशिष्टदहनस्मृती व्यभिचारः दहनानुमितित्वस्यैवैनत्कार्यतावच्छेदकत्वात् । एतेन गृहीताप्रामाण्यकधूमपरामर्शविशिष्टदहनसंशये व्यभिचारोऽपि प्रत्याख्यातः, रत्नकोशकारसम्भतसांशयिकानुनितेरनभ्युपगमाच । नापि यत्र धूमपरामर्शद्वितीयक्षणे धूमज्ञानाप्रामाण्यावगाही आलोकपरामर्शस्तदुत्तरदहनानुमिती व्यभिचारः अप्रामाण्यज्ञानीयविशेष्यतया आलोकपरामर्श सत्त्वेन
शदनानुमितः स्वष्टिप्रकारतानिरूपितसामानाधिकरण्यविशिष्टविशेष्यतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताका प्रामाण्यग्रहाभावविशिष्टालोकपरामर्शजन्यतावच्छेदकाक्रान्तत्वेऽपि धूमपरामर्शकार्यतावच्छेदकानाक्रान्तल्यात, धूनपरामर्शस्य स्वनिरूपितसामानाधिकरण्यविशिष्टविशेष्यतासम्बन्धेनाऽप्रामाण्यग्रहविशिष्टतया तत्कारणतावच्छेदकशून्यत्वात् । एतेन यन्त्र प्रथगधूमपरानर्शनिष्ठेद्रत्त्वधर्मितावच्छेदककाप्रामाण्यग्रहानन्तरं यथार्थधूमलिङ्गकपरामर्शोत्पादस्तदव्यवहितोत्तरानुमिते रसग्रहण निराकृतः, द्वितीयधूमपरामर्शस्याप्रामाण्यग्रहनिष्ठप्रकारतानिरूपित्तविशेष्यताविकळतया नादृशानलानुमितः स्वसामानाधिकरण्यविशिष्टविशेष्यतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताका प्रामाण्यग्रहा भावविशिष्टधूमपरामर्शान्तरजन्यतावच्छेदकविशिष्टत्वेऽपि प्रथमधूमपरामर्शकार्थतावच्छेदकानालिङ्गितत्वात् तस्य निरुक्तसंसर्गेणाप्रामाण्यग्रहविशिष्टतया दहनानुमितिकार्यतावच्छेदकरहितत्वात् । अत एव यथार्था लोकलिङ्गकपरामर्शसत्त्वदशायां गृहीनाप्रामाण्यधूम परामर्शीयदहनानुमित्युत्पादप्रसङ्गाऽपि पराकृतः, धूमपरामर्शस्य तत्कारणतावच्छेदका नेतत्वात् । इत्यचैतदत्तग नुमितित्वस्यैवतत्कार्यतावच्छेदकत्वेऽतिरिक्तप्रमासिद्धयः परामर्शस्य प्रमाणान्तरत्वमनपायमेव । ततश्च दुर्बार प्रतिज्ञासन्न्यासी
नवीननास्तिकानामिति गम्भीरादायः प्रकरणकृतः ।
६६३
अप्रामाण्यग्रहाभाव कारण है' - ऐसा मानने से यद्यपि उपर्युक्त व्यभिचार दोष का निगस तो हो जायेगा, क्योंकि उपर्युक्त अभाव का प्रतियोगी अप्रामाण्यग्रह धूमादिलिङ्गकपरामर्शविशेष्यक नहीं है, किन्तु अन्यलिङ्गकपरामर्शविशेष्यक है तथापि तादृशाप्रामाण्यग्रह अननुगत होने से उसके भेद से तन्प्रतियोगिक अभाव = अप्रामाण्यग्रदाभाव भी मित्र बन जाने से अलग अलग अप्रामाण्यज्ञानाभाव का सत्तलिंगकपरामर्शजन्य लिहिज्ञान के प्रति कारण मानने पर अनेकविध कार्य कारणभाव की कल्पना करनी होगी, जो गौरवग्रस्त होने के सच त्याज्य है। इसकी अपेक्षा यही कल्पना लाघव सहकार से उचित है कि अप्रामाण्यज्ञानाभाव स्वतन्त्र कारण न बन कर परामर्शनिष्ट हो कर उसे तत्कारणतावच्छेदक ही माना जाय । तर कारणतावच्छेदकता अवच्छेदक सम्बन्ध होगा स्वनिरूपितसामानाधिकरण्यविशिष्टविशेप्यता । जब 'धूमपरामर्शोऽप्रामाण्यवान्' इत्याकारक अप्रामाण्यग्रह होता : तब धूमलिङ्गक दहनानुमिति नहीं हो सकती, क्योंकि तब धूमपरामर्श अप्रामाण्यप्रकारक ज्ञान का विशेष्य एवं अप्रामाण्यज्ञान के अधिकरण आत्मा में ही समवेत होने से अप्रामाण्यज्ञान का समानाधिकरण भी होने की वजह स्वनिरूपितसामानाधिकरण्य विशिष्टविशेप्यतासम्बन्ध से अप्रामाण्यग्रहवाला है, न कि तादृशसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक अप्रामाण्यप्रकारकग्रहाभावत्राला । मगर
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६६४ मध्यमस्याद्वाद रहस्ये खण्डः ३ का. ११ * मुक्तावलीमीयवृत्तिरखण्डनम
यतु - 'वह्निमनुमिनोमि' इत्यनुव्यवसायेनानुमितित्वसिदिरिति, तहा, तत्र विधेयताविशेषस्यैव विषयत्वात्, अन्यथा 'पर्वतमनुमिनोमि' इत्यपि स्यात् ।
जयलता * -
नैयायिकमतमपाकर्तुमुपक्रमते यत्तु इति नन्नेत्यनेनाऽन्वेति । धूमादिलिङ्गकपरामदजन्यदहनज्ञानानन्तरं 'बह्निमनुमिनामि' इत्यनुव्यवसायेन परामर्शजन्यदहनबुद्धी अनुमितित्वसिद्धिः = प्रत्यक्षत्वविलक्षणानुमितित्वस्य सिद्धिः । व्यवसायस्वरूपविवादेऽनुयवसाय एवं शरणं तत्स्वरूपनिर्णयकृतं तस्य व्यवसायज्ञानविषयकत्वात् । यथाऽनलस्पर्शविप्रतिपत्त तत्स्याइनिमेव शरणं तत्स्वरूपविनिश्ववाय, तस्याऽनलस्पर्शविषयकत्वात् तथैव प्रकृतेऽपि । इन्द्रियसन्निकर्णदिविरहदशायामपि 'अनलमनुमिनांमि न साक्षात्करोमीति विलक्षणप्रतीतिसिद्धाया विलक्षणव्यवसायप्रतीतेनं साक्षात्कार किन्नुमिनित्यमिति तत्करणस्य परामर्शग्यानुमानत्वमेव न त्विन्द्रियत्वमिति अतिरिक्तानुमानप्रामाण्यवादिनां नैयायिकानामभिप्रायः ।
प्रकरणकारोऽनुमानस्य प्रमाणान्तरत्वमङ्गीकुर्वभरि प्रोक्तरीत्याऽनुमितेः प्रनान्तरत्वमसहमानो नैयायिकमतं प्रत्याचष्टे तनेति । तत्र = 'दहनमनुमिनीमीत्यनुच्यवसाये, दहननिष्ठस्य विधेयताविशेषस्यैव विपयत्वात्, न तु धूमपरामर्शजन्यानलज्ञाननिष्ठतया प्रमात्वविशेषस्य विपक्षश्राधमाह अन्यथा दर्शितानुव्यवसाय व्यवसायनिष्ठतया प्रमात्वविशेषस्यैव गोचरत्वस्वीकार 'पर्वतमनुमिनीमीत्यपि अनुयवसायज्ञानं स्यात् तस्यानुव्यवसायस्य परेण व्यवसायनिष्ठविलक्षणमात्यगोचरत्वाभ्युपगमात्. तस्य चवाधितत्वाद् व्यवसायें । न च त्वन्मते कधं न नादृशानुव्यवसायापनिरिति वाच्यम्, पर्वतस्यानुमितादयतया विधेयतापस्य तत्र बाधात् न 'पर्वतमनुमिनी मी 'नुव्यवसायापत्ति, अनुव्यवसायत्वावच्छिन्नस्य प्रमात्यनियमात् । न चानुव्यवसायस्य व्यवसायविषयकत्वात् व्यवसायनिष्ठप्रमात्वविशेषस्यैव साधकत्वं न विषयनिष्ठविधेयताविशेषस्य पादकत्वमित्युद्भावनीयम, सायग्राह्यस्याऽयनुव्यवसायग्राह्यत्वात् स्वग्राहरूग्राहकत्वस्य स्वग्राहकत्वव्याप्यत्वात् । न च तथापि साक्षात्सम्बन्धसम्भव परम्परया तत्कल्पनानीचित्यादिति वाच्यम्, आश्रयतया विधेयताविशेषस्य दहननिष्ठत्वेऽपि निरूपकतया व्यवसायनिष्टत्वात् ।
=
वस्तुतस्तु प्राधान्येन व्यवसायविषयकत्वमेवाऽनुव्यवसायस्य न तु व्यवसायविषयविषयकलमित्यत्र मानाभावः यथायथमुभयोरनुव्यवसाये विशेष्यतयोलेखात्, 'दहनमनुमिनामी 'तिवत् 'दहनोऽनुमितो मयेत्यस्यापि स्वारसिकत्वात् । विश्वताविशेपश्चात्र प्रक्षादिनिरूपितविधेयताऽपेक्षया बोध्यम् । एतेन उपनिनोमीति प्रतीतेरपि प्रमित्यन्तरमंत्रीपमितिरिति (का.८० मु.रा.पु. (४) रामरुद्र भट्टचनमपि निरस्तम् । तत्राऽपि विधेयताविशेषस्यैव विपयत्वात्, अन्यथा 'गवय सुपमिनीमी' तितु 'गामुपमिनामी' - न्परयाऽपि प्रसङ्गात् । न चेष्टापतिरिति वक्तव्यम्, तथा सति मीमांसकमत प्रवेशप्रसङ्गेन सव्यनैवाधिकत्वं तव विलीयेत । जब 'बह्निव्याप्यधूमवान् पर्वत:' इस परामर्श में अप्रामाण्य का अवगाहन नहीं होगा तब अव्यवहिनोत्तर क्षण में अभि की अनुमिति हो सकती है, क्योंकि तब धूमपरामर्श स्वसामानाधिकरण्यविशिष्ट विशेष्यतासम्वन्धावच्छिन्न अप्रामाण्यग्रद्दाभाव से, जो दहनानुमिति का कार्यतावच्छेदक है, विशिष्ट होता है। इस तरह लाघव सहकार से अप्रामाण्यग्रहाभाव को कारणता अवच्छेदक मानना ही युक्तिसंगत है। मगर तब कार्यता अवच्छेदकता अवच्छेदक एतदुत्तरानुमितित्व होगा जिसके फलस्वरूप अतिरिक्त अनुमितिस्वरूप प्रमा सिद्ध होने से अनुमाननामक स्वतन्त्र प्रमाण की सिद्धि अनिवार्य होगी । अतः 'प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण '४' ऐसी नास्तिक प्रतिज्ञा का संन्याम = त्याग हो जायेगा ।
* 'अनुमिनोमि' का विषय विधेयताविशेष ही है
यतु। अन्य विद्वान प्रत्यक्ष से अतिरिक्त अनुमिति नामक प्रमा की सिद्धि करने के लिए यह प्रतिपादन करते हैं कि --> "परामर्श के उत्तर होने वाली अनिबुद्धि का अनुव्यवसाय 'वहिं अनुमिनोमि ऐसा होता है, न कि 'हिंसाक्षात्करोमि । अतः यह अनुव्यवसाय ही दहनगोचर व्यवसाय ज्ञान में अनुमितित्व की सिद्धि करता है। अतः सभी प्रमा केवल प्रत्यक्षात्मक है' यह नहीं कहा जा सकता" मगर यह निरूपण भी अयुक्त है, क्योंकि 'बद्धिं अनुमिनोम' इत्याकारक अनुव्यवसाय का विषय व्यवसायज्ञाननिष्ठ प्रमात्वान्तर नहीं है किन्तु दहननिष्ठ विधेयताविशेष ही है। अतः उक्त अनुव्यवसाय के बल पर विपयनिष्ठतया विधेयताविशेष की सिद्धि हो सकती है, न कि व्यवसायनिष्ठतया प्रमात्वविशेष की। यदि ऐसा न माना जाय अर्थात् विषयनिष्ठ धर्मविशेष को उसका विषय न मान कर व्यवसायज्ञानवृति प्रमात्वविशेष (= प्रत्यक्ष प्रसा में न रहनेवाले प्रमात्व) को ही उसका विषय माना जाय तब तो 'दहनमनुमिनीम' इत्याकारक अनुव्यवसाय की भाँति पर्वतमनुमिनामि' इत्याकारक अनुव्यवसाय की आपत्ति आयेगी, क्योंकि उसका विपय पर्वतनिष्ठतया विधेयताविशेष न होकर व्यवसायनिष्ठ प्रमात्वविशेष ही
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* अनुमानग्य प्रमाणान्नसचिना* 'परामर्शजन्यतायामपि स एव प्रवेश्यतामिति चेत् ? न, तहीयसम्बन्धापेक्षयाऽनुमितित्वीयसम्बन्धस्य समवायरूपस्य कार्यतावच्छेदकत्व जाधवात, अव्यवहितोत्तरत्वेवानतिप्रसझे वहिविधेयकत्वादेर्निवेशानावश्यकत्वादिति ।
- नाय - ननु परामर्शजन्यतायां = परामर्शनिष्टकारणानिपिनकार्यतावच्छेदककोटी अपि मः = निरुक्नानुत्र्यवमायगंचर: साध्यनिष्ठो विधयतानिशेप एव प्रचश्यतां ततश्च निझपकतासम्बन्धन दहननिष्टविधेयनाशिंपायनिष्टज्ञानमेव धूमपरमर्शजन्यं न तु सदुनरदहनानुमिति: । कार्यतावच्छेदकमानन्धः समवाय, कार्यताबलेटकतान-हेटकमबन्धी निम्पकत्वं. कायंताबच्छेदकश्च विधेयनाविशपः । ततश्चानुमितिसिद्धिमनारथः स्याद्रादिनां पलायिन इति चेत् ! न, नीयसम्बन्धापेक्षया = साध्यनिष्टविधेयनाविशेषप्रतियोगिकस्य निरूपकत्वसम्बन्धस्वावल्या, अनमितित्वीयसम्बन्धस्य - नमितित्वप्रतियोगिकल्प समवायरू पश्य सम्बन्धस्य कार्यतावच्छंदकत्वे = परामर्शजन्यतावच्छेदकता बदलत्वं लाघवान = कायंताबादकतावछटकरम्बन्ध. शारीरकल्पनलाघवान् । शुद्धाया निरूपकटाया अतिग्रसङ्गकन्वन नष्टनिरूपितता-निमपित-निरूपकनाथा एच पग़मनिर्भाग्त. कार्यतावच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्धलमपगन्तव्यमिति सम्बन्धमा सरकत गौरवम | विधयत विटोपाममापि विधयभेदन मित्रत्वाकार्यतावच्छेदकधर्माननुगमः । विधेयताविशेषग्या यन्तता मितिचापजीवक्तयाझ्यक्लृप्तलघुना नुनितित्वस्यैव परामर्शकायनाबछेदक युक्तम् । तस्य जातिरूपतया लघीः समवायस्यैव परामर्शकार्यनावदकतावच्छेदकरसम्बन्धत्यम । अत एव न कायंतावदकननुगमोऽपि सावकाशः। ततश्च लाघवसहकारेणानुमतिसिद्धिन दुर्लभा स्यावादिनाम ।
नन्चनुमितित्वमेव 'पर्वती वहिव्यायधूमयानि निपरामर्शकार्यतावच्छेदकत्वे तादृशारामांन्जलादिरमध्यकानुमित : प्रसङ्गः। न च वह्निविधयकानुमितित्वस्यैतत्कार्यतावदकत्वान्नायं दोप इनि दक्तन्यम, नधाप जर दादिपक्षकानुमित दवारल्यान । न ॥ च पर्यतपक्षकह्निमाध्यकानुमितित्वस्यैतत्कार्यतावच्छेदकत्यमिति कायम्, तथापि नदानामले रिङ्गकान्यामिपुत्पादासनग्या:परिहार्यत्वात् । न च धूमलिङ्गकत्वस्यापि तत्र निवशेनेवा ननिप्रसङ्ग इति वक्तव्यम, नापि गमवायसमकानलानुमित्यापदंशरिहार्यत्यान् । न च संयोगसंसगंकत्वमपि तत्र निवेदयता गिनि भास्तिव्यम्, गर्बतपक्षक-प्रयोगसंसर्गक-बहिविधेयक- धूमलिङ्गकानुमितित्वस्यैतत्कार्यतावच्छेदकत्वं महागौरवादित्याश्यां मनसिकत्या: ह - अव्यवहितं त्तरत्वेन्च = एतदन्यहिनीनगनुमितित्व स्यैवैतत्कार्यतावच्छंदकत्वाऽभ्युपगमन, अनतिप्रसङ्ग = दर्शिनातिप्रसङ्गविरह, बहिविधेयकवाडे आदिपटन एवंतपक्षकलांद: एतत्कार्यतावच्छेदककोटी निवेशानावश्यकत्वात् । जलदादिपक्षक- समवा संसर्गक जलादिसाध्यकालकादिलिगकानुमिनिषु 'बहिन्यायधूमवान पर्वत' इत्याकारकपरामर्शाव्यरहितोत्तरत्वस्य विरहेण तदागदनाच्योगात । होगा, जो कि अनुमानप्रमाणादी के मतानुसार बाधित नहीं हो सकता । मगर एसा अनुन्यनमाय नहीं होता है । अतएव उस अनुव्यवसाय के बल से अनुमिनिनामक प्रमाविशेष की सिद्धि नहीं हो सकती ।।
एतदुपराजुंमि.तित्वही
ए कार्यतापOAD परा.। यदि नूतन नास्तिकों की ओर में यह कहा जाय कि → "आप स्याद्वादी 'हनमनुमिनामि' इम अनुन्यवमाय के विषयविधया अग्निनिष्ठ विधेयताविशेष का ही स्वीकार करते हैं वह ठीक है। मगर 'पत्रंना बहिन्यायधूमयान' इस परामर्ग के कार्यताबन्दकधर्म विधया अनुमिनिल का स्वीकार करते हैं, वह ठीक नहीं है, क्योंकि पगमर्शकार्यतावच्छेदकधर्म शरीर में विधेयताविशेप का ही प्रवेश हो सकता है । इस परिस्थिति में अनुमिति की सिद्धि ही दुर्घट हो जायेगी । तब प्रतिज्ञामन्याय को अरकाश कहाँ ?" - नो यह अमंगत है। इसका कारण यह है कि विधेयताविशेष का 'पर्चना बहिमान' इन्याकारक हान में रहनवाली परामर्शकार्यता के अवच्छेदक शारीर में प्रा माना जय नर धूमपगम का कार्यतावच्छेदकतावडेन्टय सम्बन्ध होगा विधपताविशेषप्रतियोगिकनिरूपकत्व, क्योंकि कार्यभूत दहनानुमिति में वह स्त्रप्रतियागिकनिरूपचनासम्बन्ध से रहता है। जब कि जानिरूप अनुमितिन को कार्यतावदक धर्म मानने पर परामर्शकार्यनावटकतावदक सम्बन्ध समवाय हांगा नो एक और अखण्ड होने से कार्यतापटकसम्बन्ध का शगंर लघु बनगा। विधयताविशेष की अपेक्षा अनुमितित्य का कार्यतावच्छंदक में प्रवेश मानने पर परामर्शकार्यतावदकतावच्छेदक सम्बन्ध में साधन होता है। अत: लाघचमहकार में अनुभितिस्वम्म प्रमाविप की सिद्धि हो जायेगी । यहाँ इस समस्या का कि --- 'पदि अनुमितित्य को ही धुमपगम कार्यताबदक धर्म माना जाय तर तो जलाटिसाध्यक अनुमिति के निवारणार्थ बहिविधयकत्वादि का कार्यताअवच्छेदकधर्मक्षि में निवेश करना होगा। मतलब
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६६६ मध्यमस्या दादरहरये खर: : का.
*मानमानुमिनिमीमांसा तालु तथाप्यनुमितित्वस्य मानसत्वव्याप्यत्वमेवेति प्राक् प्रत्यपीपदाम । । चानुमितेः । साक्षात्कारवे 'वहिं न साक्षात्करोमीति प्रतीतिः कथमिति वाच्यम्, तत्र लौकिकविषयतया साक्षात्काराशावादेव गुरुत्वादाविव तदपपत्तेः । अत एव लौकिकविषयतावत्येव 'साक्षात्करोमि'
रब्धावकाशा नूतननास्तिकाः पुनःयाकन्न - ननु इति चतुर्थचपदनान्नेनि (पृष्ठ ६७५) । तथापि = पनदव्यबहिनोनानु. मितित्वस्पतत्परामर्दाकार्यनावछंदकत्वस्वीकारेऽपि, अनुमिनित्वस्य मानसत्वच्याप्यत्वमेव न तु मानसत्वविरोधियमिते प्राक - (पट ) समवाचावछिन्नलानादिनिनकार्यतानिमपिततादाम्यसम्बन्धावन्निन्नवारीनिष्टकारणताप्रतिपादनावर प्रत्यपीपदाम । नननदनम्ञानत्वयनकार्यतावच्छेदकत्वायम्:पि - प्रनाणान्तगपनि:, प्रमित्यन्तगमिदः । न च अनुमितः = | अनुमितित्यन्त्रिम्य माक्षात्कार - प्रत्यक्षवापगग. 'पर्वती दहनव्यायधमवानि निपरामर्शजन्यदहन-उपवसायविर्षायणी 'वहिं न साक्षात्करोमि' इति प्रतीनिः = अनुबमारवृद्धिः कथं ! दहाव्यवसायस्य वन्मते प्रत्यक्षत्यानदभावावगाहिनी-- नुव्यवसायस् या सम्भवात् अनुव्यवसायस्य प्रभावनियमादिति म्यादादिना यात्र्यम्, तत्र = अनुमिनिविषयी भून दहने. लौकिकविषयतया = स्वनिष्ठविपपिनानिमापितलांकिकत्वात्यविषयत्तासम्बन्धन, साक्षात्काराभावादेव गुन्यादाविव तदपपत्तेः 'न माक्षात्कगमि' इत्यनुशवमायसहतेः । यद्यपि लौकिकाविषयता पत्र साक्षात्कारत्वञ्जिका नापि तम्या: स्वातन्त्र्यण कारणले गौरवान विषयतया स्वगोचरञ्यवसायविषयकानुव्यवमापबुद्धिं प्रति स्वनिरूपिनविषयतया कलुप्तकारणनाकग्य व्यवसायात्मकस्य प्रतासागर स्वनिरूपितली किकविषयनासम्बन्धन हेत्त्वकल्पचितम । घंटे स्वनिरूपितलाकिकविषयतामन्त्रिमण प्रत्यक्षात्मकस्य घटव्यायायस्य सत्वात नत्र विषयतया 'घटं पदयागि' इति धीमत्पद्यने । मनसस्तु बहिविषय लौकिकन्निकभावन न्यौकिकविषयत्वाभाधादमितमानसप्रत्यक्षत्वपि तदनरं 'दह न साक्षात्कगंभी'त्यनन्यसाय सञ्जायतेन न सहन प्रत्यक्षीकरोमि' इत्याकारकः, नत्कारणाभाघात, अन्यथा गुरुत्वादिगोचरालाकिकमानसोनमणि गरुत्तमहं साक्षात्करामी ति प्रतीत्यापनः । इत्यामिनामीनिंप्रतीतेपदहनादिगोचरमानमप्रत्यक्षनच विषयोस्त, न त विजातीयप्रमिनिरिति । अत एव = लाकिविषयत्तासम्बन्धन प्रत्यक्षस्य तत्कारणत्वादय, लौकिकविषयतावति विषय पर 'साक्षात्करोमी'निप्रतीत्युत्पनेः उपलक्षगात 'पददामी',
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कि बहिविधेयकानुमिनित्व को धूमपरामर्श का कार्यताअवच्छेदक मानना होगा नब नं. कार्यताअवच्छेदक धर्म ही गौरवग्रस्त हो जायगा । यह तो बकरे को निकालने पर आँगन में ट घुस गया' - समाधान यह है कि धुमपगमर्श का कार्यनावञ्चक धर्म राजदम्यवाहितोत्तगनमिनित्व है। जलादिमाध्यकानुमिति में धुमपगमान्यवहितानरत्व ही नहीं होने म उमका आपादन नामुमकिन है। इस तरह पर्वतपक्षकत्व आदि का निवेश भी अनावश्यक है, क्योंकि एतदन्यवाहितोत्नरत्व के निवेश में ही अनिप्रसह का निवारण हो जाना है। इस सम्बन्ध में काफी अधिक विचारविमर्श किया जा सकता है - इस बात की सूचना दिग गन्न मे ज्ञात होती है।
अनुमिति गतसप्रक्षविशेष है - जर) जसका ] पूर्वपक्ष :- ननु.। आर स्यावाटी के कशनानुसार हम परामर्श का कार्यतावच्छेदक अव्यवहितात्तगनुमितिय का स्वीकार | करते हैं फिर भी हमने पहले ही साफ. माफ बना दिया है कि अनुमिनिन्न मानसत्वव्याप्य धर्म है यानी अनुमिति भी मानसविनयात्मक ही है, न कि मानसप्रत्यक्षविलक्षण । तर अतिरिक्त प्रमा का अवकाश नहीं होने से प्रमाणान्तगपत्ति को अबक्कादा कहाँ ? इसलिए प्रतिज्ञासल्यास दीप भी नामुमकिन है । ऐसा मान्ने पर यदि यह इका की जाय कि -> 'यदि अनुमिति मानस प्रत्यक्ष स्वरूप है तो धूमपरामर्श से चह्नि का मानम प्रत्यक्ष होने पर 'अग्निं साक्षात्करोमि = 'में अग्नि का प्रत्यक्ष कर रहा हूँ' इस रूप में उस मानस प्रत्यक्ष का मंदन होना चाहिए । मगर वस्तुस्थिति यह है कि वैसी अनुव्यवमाय बुद्धि न हो कर उसके विपरीत यह मंवेदन होता है कि 'बहिं न साक्षात्करामि' - 'मैं अग्नि का प्रत्यक्ष नहीं कर रहा है। यह नहीं होना बाहिग' - नो इसका समाधान केबर इतना ही है कि 'पश्यामि'. साक्षात्करामि' इत्याटिरूप में उसी उस्तु के प्रत्यक्ष का मंबदन = अनुव्यवसाय होता है जिसमें उस प्रत्यक्ष की लौकिक विषयता होती है, क्योंकि ग्वनिरूपिपलौकिकविषयतासम्बन्ध में प्रत्यक्ष उसका कारण होता है, जैसे 'घटं साक्षात्कगेमि', 'घट पश्यामि' इत्यादि बुद्धि । मगर जिम वस्तु में प्रत्यक्ष की लौकिक विषयना नहीं होती है उस यस्त में स्वलीकिकविषयतासम्बन्ध से प्रत्यक्ष व्यवसाय द्धि) नहीं रहने की वजह उस
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* पियनाविध्यम * | इति प्रतीत्युत्पतेः 'पीतं शहवं साक्षात्कारमी'त्यादिप्रतीतिबलाददोषविशेषनियम्यामपि लौकिकविषयतां कल्पयत्ति धकाः ।
युक्तच्चतत, चावषादिसामग्रीसत्वे मानसत्वरूपव्यापकधर्मावच्छिन्नसामग्याभावादेवानमित्यनदयोपपत्ती अनुमितित्वादेः तत्प्रतिबध्यतावच्छेदकत्वाऽकल्पने लाघवात् ।
-* जरा *त्याद्यनुव्यवसायोत्पादस्य ग्रहणं. 'पीतं शतं साक्षात्करोमी'त्यादिप्रतीतिवलात् = एतदनुव्यवसायांत्पादान्यथानुपपत्तिवशात, दोपविशंपनियम्यां नेत्रपतिमादिदोषविशेषनियम्यत्चन अपि लोकिकविषयतां कल्पयन्ति = चीकवन्ति ग्रान्थिका: - प्राचीन यायिका : ! अयमभिप्राय: शशस्थ शुक्लन झन सह चक्षुःसन्निकर्पदशायां पीनरूप इन्दिपलौकिकरन्त्रिकर्षाभाय - नेन्द्रियकलांकिकविषयत्वाभायात् 'पानं शङ्ख साक्षात्करामी निधीन सम्भवत् । जायते च सा । अतः तदुत्पादानुरोधेन इन्द्रियनियम्यलांकिकविषयत्वाभावनि पातरूपं दोपचिपनियम्पां लोकिकविंश्यतां प्राञ्च कल्पयन्ति मन लोकिकविपयनया नत्र व्यवसायाप्रत्यक्षरान "श्यामि साक्षात्करमी त्याअनुन्यवरायोत्पनिनिरर्गला।
किचानुमितेः प्रमित्यन्तम्चनुमितिचापा भदसामाग्रीसचदशायामनुमित्सुत्यादवारणायानुमिति प्रति चाक्षुषमामययाः प्रतिबन्धकत्वमहाकर्तव्यं ग्यादिति गौरबम् । अनुमितमानसत्त्व नु गतत्काल्पनावश्यकी, मानसंतरपल्याक्षसामग्यापेक्षया मानगसानग्रया दचलल्यान्मानसं प्रति चाचपादिसामग्रीनिवन्धकत्वस्य सर्वसम्मतत्वादिति लावामित्यायन नयनास्तिका वन-यूक्तच पतन - अनुमित मानसत्वकल्पनं. चाक्षुपादिसामग्रीसत्वे मानसत्वान्नितिबध्यतानिसापित प्रतिबन्धकलाग्ानियागिकाभावविरहण मानसत्वरूपच्यापकधर्मावच्छिन्नसामग्रयभावादच अनुमित्यनुदयोपपत्नी अनुमितित्वादः तत्प्रतिवध्यत्वाचकंदकत्या कल्पन = चाक्षपादिसामग्रीनिष्ठप्रतिबन्धकतानिरूपिनप्रनिबन्यतायच्छन्दकत्वकल्पनानावश्यकल्ले, लाघवात् । विभाजिताधमेबंदम वस्तु के प्रत्यक्ष का प्रत्यक्षात्मक संवेदन नहीं होता, जैसे न्यायादि दर्शनों में गुमत्व आदि का मानम प्रत्यक्ष होने पर भी गुरुत्व अलौकिक विषय होने के नबर स्वलीकिकविपयता सम्बन्ध में उसका व्यवसायात्मक साक्षात्कार न होने से 'गुरुत्वं माक्षात्करोमि' ऐसा न होकर 'गुमन्वं न माक्षात्कामि' ऐसा ही संवेदन = अनुष्यवसाय होता है । दीक ऐसे ही धूमपनमा से अग्नि का मानसप्रत्यक्षात्मक अनुमिति ज्ञान होने पर भी अग्नि के साथ मन का लौकिक सम्भिकर्ष न होने से लीकिकविपयनासम्बन्ध स व्यवसाय प्रत्यक्ष नहीं रहने की वजह 'बहिं साक्षात्करोमि ऐसा न होकर 'दहनं न साक्षात्करोमि' इसी प्रकार का संबंटन होता है। जिस विषय में लौकिक विषयता होती है उसी वान के प्रत्यक्ष की 'साक्षात्करोमि' इस रूप में अनुव्यवसाय वृद्धि उत्पन्न होती है - इस नियम की प्रामाणिकता होने की वजह ही नो प्राचीन नैयायिक भी 'पीतं बाई साक्षात्करामि' इन प्रतीति (= अनुव्यवमाय बुद्धि की अन्यथा अनुपनि से दांपविशंपनियन्त्रित लौकिक विषयता का स्वीकार करने हैं । आशय यह है कि शह तो अन होना है, न कि पीन 1 अतः वहाँ पीन रूप में चक्षुसत्रिकर्ष से नियम्य लौकिकविपयता नहीं हो सकती है । मगर तब शरतिपयक प्रत्यक्ष के अनुव्यवसाय में उसका अवगाहन नामुमकिन बनन की आपनि आती है, क्योंकि तब लांकिक दिपयता सम्बन्ध से उस पीन रूप में प्रत्यक्ष ही नहीं रहता है। अतः यहाँ पित्त आदि दोपविशेप में नियम्य लौकिक विषयता की कल्पना की जाती है, जिसके फलरूप में लौकिक पिता सम्बन्ध स पीन रूप में व्यवसायान्मक प्रत्यक्ष रह जाने में पीनं माझं साक्षात्कगेमि' इत्याकारक नीति की उत्पत्ति महत हो जाती है ।
अनुमिति तो स प्रायता गाजे में ! - unselling युकः। विचार करने पर उन कल्पना नियुक्त प्रतीत होती है, क्योंकि अनुमिनि था यटि मानस प्रत्यक्ष न मान कर अनिरिक प्रमा मानी नाय तब जिम विषय की अनुमितिसामग्री के साथ उन्ना विषय के चाशुपाटि प्रत्यक्ष की भी मामग्री होती है तर उस विषय की अनुमिति के प्रति उम विषय के चाक्षुपादिप्रत्यक्ष की सामग्री को प्रनियन्धक मानना होगा, अन्यथा उस समय उस विषय की अनुमति भी उत्पन्न होने की आपत्ति आयी । किन्तु अनुमिति का अतिरिक प्रमा न मान कर मानसप्रत्यक्षरूप मानी जाय तो उक्त गति से प्रतिवन्धक की कल्पना आवश्यक न होगी, क्योंकि अन्य प्रत्यक्ष की मामग्री की अपेक्षा मामस प्रत्यक्ष की मामग्री के चल होने से मानस प्रत्यक्ष के प्रति चाक्षुपादि प्रत्यक्ष की सामग्री की प्रतिबन्धकता सर्वसम्मन है। अत: चाक्षुपसामग्री सनिहित होने पर अनुमिनित्व की अपेक्षा व्यापक मानसत्व धर्म में अवच्छिन्न (=विशिष्ट) की सामग्री ही नहीं रहने से अनुमान की अनुत्पनि को मङ्गति हो सकती है । इसके लिये अतिरिक्त प्रतिवन्य - प्रतिबन्धकभाव की कल्पना आवश्यक नहीं है। इस प्रकार प्रतिरन्धक की कल्पना में लाघव के अनुरोध से भ पगमर्ग
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६६८ मध्यमाद्वादरहस्य खण्ट: ३ . का. * भित्रविषयकामिनः चक्षुमनायोगविग्मात्तरन्यम
समानविषयत्वाऽत्तर्भावनानुमितित्वावच्छिनं प्रति पृथक्प्रतिबन्धकत्वकल्पलमेवावश्यकमिति चेत् ? ता, भिनविषयकानुमितेरपि चक्षुर्मनोयोगादिवेिगमोतरमभ्युपगमात् ।।
-* जायता . *ननु अनुमिननिसत्वा गपगम पटं पश्यतो बनर्जितन मेघानुमितिर्न भत्, मानससामग्र्याः सर्वतो दुर्बलत्वात् पर नत्र 'परि दशा मेघवान अरच्छेदकनासम्बन्धन विजातीयदादचन्ता न नमानादनुमितिः सञ्जायत एव । अतः समानविषयकान मिनिं प्रति समानविषयकचाक्षुषादिमामनया एवं स्वातन्त्र्यण कल्पनमावश्यकंगवल्याशयन अतिरिक्तानुमानप्रमाणवादी शकते अधेति । दहनगोचरचाक्षुषसामग्रीसत्चे दहनविषयिण्या एवानुम्तेिरनुदयात् समानविषयत्वान्तविनानुमितित्वावच्छिन्नं प्रति समानविषयकचाक्षुषादिसामग्रयाः पृथक्प्रतिवन्धकत्वकल्पनमेवावश्यकं, न तु समाना:समाना-ग्यानुमिति प्रनि, नधा मति विभिन्न विषयकानुमित्य - नुदयप्रसङ्गात् । अनुमितमनिसचे नु न सम्भवति । न हि सगानविषयकमानसं प्रति समानविषयकचाक्षुषादिसामग्रमा प्रतिबन्धकत्वं पुज्यने, घट्यक्षुःसन्निकर्षे सति कृत्यादिमानसापनः । ततश्रातिरिक्तप्रमात्वना नुमितेः स्वीकारो न्याय्य इत्यथाशयः ।
नर्वाननास्तिकास्तमपाकुर्वन्ति - नेति । निन्नविषयकानुमितिचाक्षुषादिसामग्रीसत्त्वदशायां प्रथमं भिन्नगोचरचाक्षुषादिस्वीकारे कि भिन्नविपयकानुमितरपि चक्षुर्मनायांगादिविगमोत्तरं = चक्षुमन:निकर्षादिनाशानन्तरक्षण, अभ्युपगमान् घटं पदयत: घट्या:मन्त्रिकर्षसऽपि मेघवनिश्रवणे मेघसाध्यकपगमसिन्दशायां चक्षुमनायोगन्य नाशान तदुनरं मानुमिनेनिरगायत्वात्र समानविषयकानुमिनिं प्रति चाक्षुषादिसामना: पृथतिबन्धकत्वकल्पनमावश्यकमिति नानुमिनेः प्रमित्यन्तरत्वप्रसङ्गो येन | प्रतिज्ञासन्न्यामः सावकाशः स्यादिति नन्यचार्याकाकूनम ।
पुनर्लब्धायकाशी नयायिकः शङ्कतं . तथापि = मानसचावच्छिन्नं नि मानसेतरसामग्रोप्रतिबन्धकत्वाव्यपोहेन निरुक्तरीत्या भिन्नविषयकामितरुपपादनः, अनमित्सायनेजक दन = अनमिन्सो पमित्साशाब्दबांधेिच्छालक्षाणाजकदिभेदन विभिन्नरूपेण प्रतिबश्यप्रतिबन्धकभाव आवश्यकः । अनुमित्युएमित्यादीनां मानमत्वपक्ष मानसत्वावच्छिन्न प्रति चाक्षुषादिसामग्री| प्रतिबन्धकत्वकल्पने दहनानुमिन्सासन धूनपरामर्शात् चाशुषसामग्रीसत्वददाण्यामनलानुमितिनं स्यात् । अनी मानमत्वादच्चित्रं
प्रनि अनुमित्साचिरहविशिष्टमानसेनम्मामग्रयाः प्रतिबन्धकचम्पयन । परन्त्वेवं सति अनुमित्साविरहविशिष्टघटचक्षुः सन्त्रिकर्षसच्चे | उपमित्सासमधाने सादृश्यज्ञानादपि मानसोपमितिर्न स्यात् । ततश्चानुमिनि प्रति अनुमित्साबिरहविशिष्टचाक्षुधादिसामग्रयाः, उपमिति प्रत्युपमित्सान्यचाक्षुपादिसाम्ग्रया: शाब्दबाथं प्रनि च शान्दवधिम्याबिरहविशिष्ट-चाक्षुषादिसामग्रयाः प्रतिबन्धकत्वमङ्गीकतंत्रमंत्र । नतश्च विलक्षागनमासिद्धिप्रयुक्तप्रमाणान्तपातेन प्रतिज्ञामन्न्यासस्य दुरित्यमिति नयायिकापोऽभिनवनास्तिकान्प्रति । के अनन्नर होनेवाली साध्यबुद्धिस्वरूप अनुमिति को मानस प्रत्यक्षात्मक मानना ही उचित है।
अथ स.। अनुमिति का विजातीय प्रमा माननेवाले नैयायिक आदि की ओर से यह आक्षेप किया जाय कि > 'अनुमिति को मानस प्रत्यक्ष मानने पर तो मानस मात्र की मामग्री चाशुपादिसामग्री से दुर्बल होने की वजह से अमि के साथ चासनिकर्ष होने पर अग्नि की अनुमिति धूमपगमर्श होने पर भी नहीं होती है ठीक वैसे ही घरचक्षसनिक होने पर भी धूमलिङ्गक पगमा से अग्रि की अनुमति भी नहीं हो सकेगी। मगर वस्तुस्थिनि यह है कि नब अग्नि की अनुमिति होती है, न कि घटवाक्षुप । इमक अनुरोध से नव्य नारिनकों को समानविपयक अनुमिनि के प्रति चाक्षुपाटिमामग्री को प्रतिबन्धक भानना होगा, जिसकी वजह घटवासनिक होने पर भी धूमपरामर्श मे अग्नि की उत्पनि निरावाध हो सके । मगर पमा मानने पर आपनि यह आयगी कि अनुमिति नय मानसप्रत्यक्षरून न हो कर प्रत्यक्षविनातीय प्रमास्वरूप हो जायेगी जिसके फलस्वरूप प्रमाणान्तर की सिद्धि हो जाने से प्रतिज्ञासंन्याम निग्रहस्थान की पुनः प्राप्ति होगी' -
न.भि.। तो इसके परिहारार्थ नव्य नास्तिक की ओर से सिर्फ इतना कहना उचित हो जायेगा कि विभिन्नविषयक अनुमिति एवं चाप आदि की सामग्री उपस्थिति होने पर चक्षु और नन का सन्निकर्ष ही नष्ट हो जायेगा जो चाक्षुर की सामग्री का घटक है। अतएव उसके अनन्तर घटचाक्षुप आदि की उत्पत्ति न हो कर अग्निगांवर अनुमिति की ही उत्पत्ति होगः । अतः ममानविषयक अनुमिति के प्रति चानुपादिमामग्री को प्रतिश्यक मानन, आवश्यक बनने से चिजातीय प्रमा की मिद्धि को अवकादा नहीं होने स तद 'प्रत्यक्षमेच प्रमाणं' इस प्रतिज्ञा के मन्यास = त्याग का अवकाश कैसे ? यदि यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि → 'समान . अममान उभयविषयक अमिनि स्वरूप मानसबुद्धि के प्रति चाक्षुपमामग्री की | उपर्युक गति में प्रतिबन्धक मानने पर भी अनुमिन्सा = अनुर्माितविषयक इच्छा, उपमितिविषयक इच्छा, शाब्दबोचविषयक इच्छा
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*मागमान्यसामरी प्रतिवध्यतात्रिचार तथाप्यनुमित्साधुतेजकभेदेन विभिमर्पण प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभाव आवश्यक इति | चेत् ? त, तत्तदिच्छानन्तरोपजायमानमिनमानसे जातिविशेषं स्वीकृत्य तदवच्छिनं प्रति मानसान्यसामग्रया: प्रतिबन्धकरवकल्पनादन्नमितित्वादेर्मानसवृत्तित्वकल्पनौचित्यात् । न च ततदिच्छातान्तरोपजायमानमानसापत्तिः, ताटशमानसं प्रति तत्तदिच्छानां हेतुत्वात् । न चैवं गौरवं, फलमुखत्वात् ।
यत्तता* अर्वाचीननास्तिकास्तमपनांदयन्ति - नेति । तत्तदिध्यानन्तरोपजायमानभिन्नमानसे - तत्तदभुत्सानन्तरक्षणे जायमाना ये मानमसाक्षात्कारा: तदिन मानग, जातिविशेषं स्वीकृत्य तदवच्छिन्नं = जिज्ञासा व्यवहितोत्तरकालिकमानसभित्रमानस - मात्रवृत्तिबजात्यान्टिन प्रति मानसान्यसामग्याः प्रतिबन्धकत्वकल्पनादिति । इत्थञ्च चाक्षुषादिसामग्रीसत्त्वेऽपि दहनबुभुत्सावलाद् धूमपरामदीन दहनमानसानुमितरूपमित्सामहिम्नः सादृश्वज्ञानन मानसोपमितः शाब्दबाधिन्छावशात्यदज्ञानेन मानसगाब्दप्रतीतश्चातयत्तिः मङ्गछन, तासां नानसेतरसामनानिष्ठतिबन्धकतानिमपित प्रतिबध्यतावच्छेदकशून्यत्वात् । वमनुमित्यादीनां मानसत्वपक्षे एकनव प्रतिवध्यप्रतिबन्धकभान सर्वसामञ्जस्य प्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावत्रितयकल्पनागारबमनवकागम । प्रतिबन्धकता:धिक्यज्ञानादवानमित्यादीनां प्रमित्यन्तरत्वं न कल्पयितुम्हीत । ततश्च न प्ररिज्ञायन्न्यास इति नबीननास्तिकतापर्यम् ।
नयायिकशङ्कामपाकतमभिनवनास्तिकाः प्रक्रमन्ते . न चति । तत्तदिनाचिरहकाले = अनमित्सादिविरहकाले अणि तत्तदिच्छानन्तरजायमानमानसापत्तिः, नस्य चाक्षुषादिसामग्रोप्रतिबध्यतावच्छेदकानाक्रान्तत्वात् । अयं नैयायिकाशयः चाक्षुषादिसामग्रीसमवधान अनुमित्याविरहे 'परामात् तनदिन्छानन्तरजायमानमानसभिन्नमानसप्रत्यक्षमा भवतु, तस्य चाक्षुपादिसामग्रा. प्रतिबध्यतावच्छेदकाक्रान्तत्वात किन्तु तादृशंबजात्यानाक्रान्तमानसोत्पादो दर एच. तस्य नदिच्छाविरहविशिष्टचक्षुषादिनगमग्रीप्रतिबध्यताकोटिविनिर्मक्तत्वादिति । तननास्तिकास्तदपाकरण हतमाहः तादृशमानसं - तनदिच्छाशून्यचारंपादिसामग्रीनिरूपितप्रतिबध्यतावच्छेदक-जात्यविकलमानसं प्रति नत्तदिच्छानां स्गतन्त्र्यण हेतुत्वात् = करण्वकल्पनात् । ततश्च नदिनाविरहविशिष्टमानसंतरसामग्रीसमवधानदशावां परामशदिसत्यापि तनदिवास्वरूपकारणान्तरबैकल्लान्न निम्बतम्गनसापत्तिः । न च एवं = तनदिच्छानन्तरजायमानमानसे प्रति तनदिच्छानां पृथकारणत्वकल्पने गौरवं इनि वाच्यम्, तादृशगारवज्ञानस्य फलमुखत्वात्, फलं = कार्यकारणभावज्ञानं तन्मुखे = तदधीनं, कार्यकारणभावनान धीनत्वत्तस्या-दोपमित्यर्ध: । न चैतादृशस्वरूप उत्तेजक के भेद से विभिनरूप से प्रतिबध्य - प्रतिबन्धकमाव तो मानना ही होगा, क्योंकि उनंजकाभावविशिष्ट प्रतिबन्धक का अभाव कार्यजनक होता है । घट की चाक्षुपसामग्री होने पर भी अनि की अनुमित्सा होने पर अनुमिति ही उत्पत्र होती है, क्योंकि तर उत्तेजकाभावविशिष्ट प्रतिबन्धक नहीं है। इस तरह अनुमिति के प्रति अनुमित्साविरहविशिष्ट चाक्षुपादिसामग्री को प्रतिबन्धक माननी होगी एवं उपमिति के प्रति उपमित्साविरहविशिष्ट बाभुपादिसामग्री वो प्रनिबन्धक माननी होगी और शान्दबोध के प्रति शाळेच्छाविरहविशिष्ट चानुपादिसामग्री को प्रतिबन्धक माननी होगी। तब तो 'प्रत्यक्ष ही प्रमाण है इस | प्रतिज्ञा का सन्न्यास हो जायेगा' । -
न त. । तो इसके समाधानार्थ हम नन्य नास्तिकों का ग्रह, वकय है कि हम अनुमिनि आदि बुद्धि का विजातीय प्रमाणरूप में स्वीकार न कर के तत् तत् बोधविषयक इच्छा के अनन्तर होने वाले मानस प्रत्यक्ष से भिन्न मानस प्रत्यक्ष में एक जातिविशेप का स्वीकार करते हैं और तादृन्न जानि से विशिष्ट मानस प्रत्यक्ष के प्रति मानमतरसामग्री को प्रतिबन्धक मानने हैं । अत: धूमपगमर्श एवं अग्रिअनुमिन्मा होने पर चासनिकपदशा में भी अग्नि की अनुमिति ही होती है तथा सादृश्यज्ञान एवं गवयउपमित्या होने पर चक्षुसत्रिकर्पदशा में भी गवय की उपमिनि ही होती है और पटपदज्ञान एवं पटशादयोधेच्छा होने पर चक्षुमत्रिकर्प अवस्था में पट का शानदाथ ही होता है, क्योंकि वे सभी चाक्षुपादिसामग्री की प्रनिपतावच्छेदक जानि से शून्य है। इस तरह सिर्फ एक जाति की कल्पना कर लेने पर नयायिकप्रदर्शित तीन प्रतिवध्य - प्रतिवन्धकभाव की कल्पना का गौरव भी परिहत हो सकता है । केवल एक प्रतिवध्य-प्रतिबन्धकभाव को मान्य करने से ही सब सहन हो सकता है तो फिर क्यों अनुमिनि आदि को अतिरिक्त प्रमा मानी जाय १ अतः अनुमितिय वो मानमनि मारना यानी अनुमिति को मानसप्रत्यक्षरूप मानना ही समीचीन है । अतः प्रतिज्ञासन्न्यास की आपत्ति निरवकाश है । इसके खिलाफ इस समस्या का कि -> 'मानसेतरज्ञानसामग्री याद तादृशवजात्यावश्टिन की प्रतिबन्धक मानी जायगी ना भी ननदिच्छा के अभाव की उपस्थिति में मानसेतरसामग्री होने पर भी धुमपरामर्श आदि से पहि की अननिति के, जो तनादिकानन्तर
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६७० मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड: ३ का. १४ * अपेक्षितशुद्ध पाठवनम
अथ सुरमूर्षाद्यनन्तरोपजायमानभिन्नज्ञाने जातिविशेषं स्वीकृत्य तदवच्छेदेन चाक्षुषादिसामय्या: प्रतिबन्धकत्वेऽनुमित्यादेः (? तित्वादेः) परोक्षवृत्तित्वमेवास्त्विति चेत् ? का, तद्उच्छेदेज स्मृत्यपज्ञासाया एवं प्रतिबन्धकत्वात् जातिविशेषस्य स्मृतित्वव्याप्यस्यैव युक्तत्वात् ।
ॐ जयलता
पृथककार्यकारणभावकल्पनायाः पूर्वमेवापस्थित फलमुखगीरवावकाश इति वाच्यम् प्रतिचध्यप्रतिवन्धकभावभितयाऽकल्पनलाघवसहकारेण तादृशवैजात्यावच्छिन्नं प्रति मानसे तरसामग्नाः प्रतिबन्धकत्वस्य पूर्वमेव निर्गतत्वात् तदनन्तरं ततदिच्छानां पृथक्कारणत्वकल्पनोपस्थितेः फलमुखत्वमेवेति दृढतरमवधेयम् ।
अतिरिक्तानुमानप्रामाण्यवादी शङ्कते अथेति । चाक्षुषादिसामग्रीसमधानेऽपि सुस्नूपनन्तरं स्मृत्युदपदर्शनात् सुस्मयनन्तरोपजायमानभिन्नज्ञाने जातिविशेषं = बुभुत्साविरहकालीन नुमित्युपमितिशब्दची अस्मृतिसाधारणजात्यं स्वीकृत्य तदवच्छेदेन तादृशवेजात्यावच्छिन्नं प्रति चाक्षुषादिसामस्याः प्रतिबन्धकत्वे = प्रतिबन्धकत्वकल्पनावश्यकत्वं अनुमित्यादेरिति पाठ: प्रामादिक: अनुमितित्वादेरित्येव सम्यक्पाठ: न्यायालोकेऽपि इत्थमेव पाठदर्शनात परीक्षवृत्तित्वं = प्रत्यक्षभिन्नज्ञानवृत्तित्वं एवास्तु । यदि चानुमित्यादेः साक्षात्कारत्वमुपेयते तर्हि सुस्मूषांविरहकालीनस्मृतिवृतिवैजात्यं तद्वृत्ति न स्यात् स्मृतेः परीक्षत्वात् ज्ञानत्वव्याप्यजाने विजातीयप्रमानिरूपितवृत्तित्वशून्यत्वनियमात । तत्श्च नानुमित्यादेः प्रत्यक्षत्वकल्पनमर्हति !
नव्यनास्तिकास्तदपहस्तचन्ति नेति । तदवच्छेदेन स्मृत्यन्यज्ञानसामग्र्या एवं प्रतिवन्धकत्वादिति । बुभुत्साचिरहकालीनानुमित्युपमितिशान्दबोधस्मृतिचतुष्टयसाधारणं वैजात्यं नोपेयते किन्तु जिज्ञासाविरहकालीनमानस प्रत्यक्षात्मकानमित्युपमितिशाब्दबोधानुगतमेकं वैजात्यं स्वीकृत्य तदवच्छिन्नं प्रति मानसेतरज्ञानसामग्र्याः प्रतिबन्धकत्वम् । चाक्षुषादिसामग्रीसत्त्वेऽपि सुस्मृर्षांसमवधानदशायां स्मृत्युत्पत्तिर्निराबाधा, तस्याः स्मृत्यन्यज्ञानसामग्रीप्रतिबध्यतावच्छेदकजातिशून्यत्वात् । इत्थञ्च स्मृतीतरज्ञानसामग्रीप्रतिबध्यतावच्छेदकस्य जातिविशेषस्य स्मृतित्वव्याप्यस्यैव स्वीकर्तुं युक्तत्वात् । ततश्च नानुमिनित्यादेः परोक्षधीवृत्तित्वा
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उत्पन्न होनेवाली होने से मानसेतरसामग्रीप्रतिबध्यतावच्छेदक से शून्य है, उदय की आपत्ति का परिहार न हो सकेगा । अतः अनुमिति को मानस प्रत्यक्षस्वरूप न मान कर अतिरिक्त प्रमात्मक मानना ही मुनासिब है' - समाधान केवल यही ६ कि तत्तदिच्छा के अनन्तर उत्पन्न होनेवाले मानस प्रत्यक्ष के, जो मानसेतरसामग्री प्रतिबध्यतावचंद्रकशून्य है, प्रति ततदिच्छा भी स्वतन्त्र हेतु है । अतः मानसेतर सामग्री की प्रतिबध्यता से विनिर्मुक्त होने पर भी तत् तत् इच्छा = दहनबुभुत्सा आदि के न होने से धूमपरामर्श से मानस प्रत्यक्षात्मक दहनानुमिति की उत्पत्ति को अवकाश नहीं है । काय की उत्पत्ति किसी | एक कारण से नहीं होती है, सब कारणों की उपस्थिति होने पर ही होती है। तत् तत् इच्छा के अनन्तर होनेवाले नानम
- कारणभाव
के प्रति तत् तत् इच्छा को पृथक् कारण मानने पर गौरव दोप का उद्घान करना असल है, क्योंकि ताइश कार्य के निश्रय के अनन्तर वह उपस्थित = ज्ञात हुआ है। दर्शितवैजात्यावच्छिन्न के प्रति मानवेतरसामग्री अभाव में लाघव सहकार से कारणता का निश्रय हो जाने के बाद उसके निर्वाहार्थं तत् तत् इच्छा में कारणता की कल्पना की जाती है। अतएव वह निर्दोष है यह नवीन नास्तिकों का अभिप्राय है ।
अथ सु.। यहाँ अतिरिक्तप्रमाणवादी की यह शङ्का किवाक्षुपादिसामग्री को तादृशान्यावच्छिन्न मानस प्रत्यक्ष के प्रति प्रतिवन्धक मानने पर सुस्पां = स्मरणंा होने पर चानुपादिसामग्रीसमधानदशा में स्मृति का उदय न हो सकेगा. | क्योंकि स्मृति प्रत्यक्ष नहीं किन्तु परोक्ष है। अतः अनुमिति, उपमिति, शाब्दबोध एवं स्मृति से नित्र ज्ञान में एक जातिविशेष की चाक्षुषादिसामग्रीप्रतिवध्यतावच्छेदकविधया कल्पना करनी होगी और तदवच्छेदेन यानी तादृशवैजात्यावच्छिन्न के प्रति चाक्षुपादिसामग्री को प्रतिबन्धक माननी होगी । तब तो अनुमितित्व आदि धर्म को परोक्षज्ञानवृत्ति ही मानना पडेगा । अनुमिति को मानस प्रत्यक्ष मानने पर तत् तत् जिज्ञासा के बिना होनेवाली अनुमिति, स्मृति आदि में चाक्षुपादिसामग्रीप्रतिवन्यता अवच्छेदक अनुगत वैजात्य नहीं रह सकेगा, क्योंकि ज्ञानत्वव्याप्य जाति के आश्रय विजातीय नहीं होते हैं। स्मृति को निर्विवाद रूप से परीक्ष ही है । अतः तत ज्ञानत्वव्याप्य जाति का आश्रय होने से अनुमिति भी परोक्ष ज्ञानात्मक बन सकेगी -
न तद। इसलिए निराधार हो जाती है कि हम नव्य नास्तिक तत् तत् जिज्ञासा के अनन्तर होनेवाली स्मृति से भिन्न ज्ञान में जिस वैजात्य का स्वीकार करते हैं उससे अवच्छिन विशिष्ट ज्ञान के प्रति स्मृतिभिन्नज्ञान की सामग्री को ही
१. दृश्यतां दिव्यदर्शनस्टप्रकाशित न्यायालीके व्याख्याद्वयीनं प्रथमप्रकाश १४२ तमे पृष्टे ।
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* अनुमिटरपर्गक्षतापादनम * तजातिवदन्यज्ञानसामग्रीत्वादिना प्रतिबन्धकत्वेऽपि विशेषणतावच्छेदकप्रकारकज्ञानजन्यतावच्छेदकतया सिदस्य प्रत्यक्षत्वस्यवानुमितो युक्तत्वात् । विशेषणतावच्छेदकाभावाप्रकारकरचे सति विशेषणतावच्छेदकप्रकारकत्वेन विशिष्टवैशिष्ट्यविषयित्वावच्छिनं प्रत्येव
-* गयलता *पतिः । न चैवं प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभावद्वितयकलानगीरचमतिरिच्यन इति वाच्यम्, तथापि त्वन्मतापेक्षया तन्त्र लाघवात् । नतीन प्रतिज्ञासन्न्यासापनिरिनि नवीननास्तिकाकूतम् ।।
ननु जिल्लासाः कारीगानुभिणमितिगान्दबोधवृनिवजात्यायच्छिन्नं पनि मानरेनरसामग्र्याः मुस्मूपांचिरहकालिकस्मृनिमात्रविजात्ययन्छिन प्रनि च मानसान्यज्ञानमामग्रया: निबन्धकत्वमित्येवं कल्पनापक्षया बुभुत्सा विरहकालीन्ननुमित्यादिचतुष्टय - माशरणमेकमेव वैजात्यं कल्पयित्वा तवच्छिन्न प्रति तज्जातिमदन्यज्ञानसामग्रया एवं प्रतिबन्धकवं कल्पनीयं लापवान् । ततश्च म्मृतिनिज्ञानवव्याप्यजानिमत्त्वेनानुमिन्यादानामपि परोक्षतमवति नयायिकाशङ्कामपाचिकीर्षवो नूतननास्तिका बदन्ति - तज्जातिवदन्यज्ञानसामग्रीलादिना प्रतिवन्धकले - प्रतिबन्धकल्वस्वीकार अपि विशेपणतावच्छेदकप्रकारकज्ञानजन्यतावच्छेदकतया = विशेषगतावच्छेदको यग्य प्रलारस्तज्ञाननिष्ठा या जनकता तत्रिरूपिताया जन्यताया अवच्छंदकत्वन सिद्धस्य प्रत्यक्षत्वस्यैव अनुमिती = अनुमित्युगमत्यादी स्वीकर्तुं युक्तत्वात् । विशेषतावच्छेदकप्रकारकज्ञानजन्यज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वनियमो 'दण्डी पुरुष' इत्यादिप्रत्यक्ष प्रसिद्ध एव, पुरुषनिष्ठविशेष्यतानिरूपितदण्डनिष्ठविशेषणतानिरूपितावच्छेदकताश्रयदाइत्वाइसाक्षात्कार सति 'दाण्डी कप' इति साक्षात्कारानुदयात् । 'पर्वतो रहिमान' इत्यायनमितरपि स्वनिरूपितपर्वतनिष्ठविशेध्यतानिरूपितदहननिष्ठविशेषणनावन्दकहित्यप्रकारकण 'बहिच्याप्यधूमवान पर्वत' इत्याकारकपरामर्शज्ञानेन जन्नत्वात प्रत्यक्षतर्मय । अनुमिते: परोक्षत्वे तादृशनियमभङ्गप्रसङ्ग एवं बाधक इति न प्रमाणान्तरसिद्धिरिति नूतननास्तिकाशयः ।।
न विशेषणतावच्छेदकप्रकारकज्ञानस्य विशिष्टवैशिष्टयादगाहिमानत्वावच्छिन्नं प्रत्येव कारणचं न तु विशिष्टवैशिष्ट्यप्रत्यक्षल्यावच्छिन्न प्रति । ततश्चानुमितविशेषणतारच्छेदकप्रकारकज्ञानजन्यत्वपिन साक्षात्कारत्यापतिः, कार्यतावच्छेदकावचित्रस्यानापाद्यत्वादिति नैयाबिकाशङ्कामपाकमभिनववर्षाका व्याचक्षते - विशेपणतावच्छेदकाभाराप्रकारकत्वे सति विशेपणताबजेटकप्रकारकत्वेन रुगण विशेषणनावदकरकारकस्य विशिश्वैशिष्टयविपयित्वावच्छिन्नं = विशिष्टवैशिष्टय वगाहि
प्रतिवन्धक मानने हैं। मतलब यह है कि स्मृति द्विविध होती हैं, इच्छा के बिना होनेवाली पर्च इच्छा के अनन्तर होनेवाली। जो स्मृनि इच्छा के बिना होती है उसमें हम एक जातिविशप का स्वीकार करते हैं, जो स्मृतित्व की व्याप्य = न्यूनवृत्ति है और तदवच्छेदन = उनवजात्यावच्छिन के प्रति स्मृतिभिन्मज्ञानसामग्री को प्रतिवन्धक मानते हैं । अतः जब स्मरणाभिलाप
और चाक्षुपादिसामग्री दोनों की उपस्थिति होती है तब उक्तवजात्यशून्य इच्छा के अनन्तर होने वाली स्मृति का उदय हो मकता है । इस तरह मानस अनुमिनि, उपमिति, शब्दांध में एक जातिविशेप का स्वीकार कर के नदवच्छिन्न के प्रति मानसेना. ज्ञानसामग्री को प्रतिबन्धक मानने से एवं इच्छा के चिना होनेवाली स्मृति में अन्य जातिविशेप का महीकार कर के नदवभिन्न के प्रति स्मृतिभिन्नज्ञानरामग्री की प्रतिबन्धकता मान्य करने से ही सब कुछ महत हो सकता है तर क्यों अनुमिति को अतिरिक्त प्रमा मानी जाय ? अतिरिक्त अनमिनि प्रमा के स्वीकार पक्ष में नीन प्रतिवध्य-प्रतिबन्धकभार की कल्पना का गौरव है जब कि मानस अनुमिति पक्ष में केवल दो प्रतिवध्य-प्रतिबन्धकभाव की कल्पना करने से लापच है । अतएव अनुमिनि आदि को मानस प्रत्यक्षात्मक मानना ही मुनासिब है।
नजा। यदि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि » जिज्ञासाचिरहकालीन अनुमिति आदि तीन और तादृश स्मृति में भिन्न भिन्न वैजान्य का स्वीकार करने पर दो प्रतिवध्य-प्रतिबन्धकभाव की कल्पना पड़ती है । इसकी अपेक्षा उचित यही है कि इन चारों में एक ही बजात्य की कल्पना की जाय भी. नदवच्छिन्न के प्रति तजातिमान् ज्ञान से भित्र ज्ञान की सामग्री को प्रतिबन्धक माना जाप । एक ही प्रतिवध्य-प्रतिबन्धकभाव की कल्पना करने से सब सङ्गानि हो सकती है। ना फिर क्यों द्विविध प्रतिबध्य-प्रतिवन्धकभार की गौरवग्रस्त कल्पना की जाय ? मगर नव नास्तिक के सर पर अनुमिति को भिन्न प्रमा मानन की आपनि आयेगी, क्योंकि परोक्ष स्मृति में रहनेगली ही ज्ञानत्वयाप्य जाति अनुमिति में रहती है। अनः अनुमिति को प्रत्यक्ष नहीं मानी जा सकती' -तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि जिज्ञामाविरहकालिक अनुमिनिउपमिति-शादरोध-स्मृति में एक जाति मान कर नदवच्छिन्न के प्रति नज्जातिमदन्य ज्ञान की सामग्री में प्रतिबन्धकता की
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६.७२ मध्यमस्यादादरहस्य खण्डः ३ . का.११ * विशिष्टय दाप्ठयारगाडिज्ञाननिरूपणम * | तथात्वे तत्संशयेऽप्यनुदबुन्दसंस्काराद् विशिष्टवैशिष्ट्यप्रत्यक्षापतेरिति चेत् ?
अत्र केचित, अनुमितेर्मानसत्वव्याप्यत्वे चाक्षुषादिसामग्यां सत्यां भिन्नविषयकानुमितिर्न स्यात, भोगान्यमानसं प्रति चाक्षुषादिसामग्याः प्रतिबन्धकत्वात् । न च चक्षुर्मनोयोगादिविगमो
-* जयलता *विषयितापसिंछन्नं प्रत्येव तथात्व - कारणचाभ्युपगमे । अननापादकग्रन्धः प्रदर्शितः कार्यनावन्दकपटकीभूतं विशिमचविष्ट्रय (10 विदाय विशेषगं तत्रापि विशेषणानमिति रीत्या (एकत्र द्वयमितिरूपेण (3) विशिष्टस्य चरिदमित्य प्रकारंग (2) एकविशिर परवशिष्टयमिति ग्यापन चाचगन्तव्यम् । आपादकमुकवाद पाद्यमाहः - तत्संशये = दहनादिसन्देह, मनि अधि अनुयुद्धसंस्कारात् परामशादिविरहदवायां विशिष्वैशिष्ट्यप्रत्यक्षापतेः। संस्कारोबोधरिरहेण विशिष्टरशिष्ट्याचगाहिस्मृनेस्तदानीमसम्भवः परामर्श-सादृश्यज्ञान-पदज्ञानाभावेन च तादृशानुमित्युपमितिशान्दचा चानुत्पाद इति पारिशेषन्यायन विशिष्टबेसिश्यप्रत्यक्षगपत्तिः । एतेन कार्यत नवच्छेदकावच्छिन्नत्यागार प्रत्यापिति नरतम लक्षात नराचमेवाभ्यायमनि गम्यतास्तिकमनोपसंहारः ।
नूतनचार्वाकमतनिराकरणाय त्रुवत अब केचित् - तादात्म्यन अनुमिनः यदा समवायन अनुमिनित्याद: मानसत्तच्याप्यत्वं |जानससाक्षात्कारवृत्तिल्वे स्वीक्रियमाणे तु चाक्षुषादिसामग्रयां सत्यां तन्ननिचध्यताबछेदकालिङ्गिततेन सगानविषयकानुमितिरित्र हिनविषयकानुमितिः अपि न स्यान् = जायेत. भोगान्यमानसं = सुखदः ग्वान्यनरसाक्षात्कारान्यमानसत्वानि प्रति चाक्षुपादिसामग्र्याः = मानसेतरज्ञानसामग्र्याः प्रतिबन्धकत्वात् । नासुधादिसामग्रीसमवधान:पि सुखादिमानमसाक्षात्कारी. ट्यदर्शनात् 'भोगान्ये त्युक्तम् । भवन व घटचक्षुःसन्निकर्पदशायामपिं यूमादिपरामशदिनलानुमित्याधुनिः । ततश्चनुमिनित्वस्य पराशसमबत्तत्वमेवा हंति । न च चक्षुर्मनोयोगादिविगमात्तरं = चक्षुर्मनःसन्निकांदिवसाव्यरहितानग्कालायच्छंदन, एव
कल्पना करने पर भी अनुमिति को प्रमित्यन्तर मानने की आपत्ति नहीं आयेगी। वह इस तरह . 'दण्डवान् पुरुषः' इत्याकारक प्रत्यक्ष में विज्ञप्य है पुरुष और विगेपण है दण्ड तथा विशेपणनावच्छेदक है दण्डत्व । जिसको दण्डत्यप्रकारक ज्ञान होता नहीं
को कभी भी 'दण्डी पुरुए' ऐसा साक्षात्कार नहीं हो सकता, क्योंकि विशिष्ट वैशिष्ट्य अवगाही प्रत्यक्ष के प्रति विशेषणतावांटकप्रकारक ज्ञान कारण होता है । विदोषणतावदकीभूनदण्डलाकारक ज्ञान में जन्य होने में जैसे 'दपट्टी पुरुषः' यह ज्ञान
यात्मक है ठीक वैसे ही 'पर्वतो वहिमान' यह अनमित्ति भी स्थनिरूपितविशेषणतावच्छेदकीभूतवाहित्यप्रकारक 'वहिव्यायधूमवान पर्चतः' इम पगमर्श ज्ञान में जन्य होने की वजह प्रत्यक्ष ही है, न कि प्रत्यक्षभिन्न प्रमा। अत: अनुमिनि में विशेपणनावच्छेदकप्रकारकज्ञानन्यतावच्छेदकविधया सिद्ध प्रत्यक्षत्व का ही स्वीकार गहन्त है । अनः अतिरिक्त प्रमा की मिद्धि को अवकाश नहीं है। विश. । यदि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि → '
विपणनावदकप्रकारक ज्ञान का कार्यताचछेदक प्रत्यक्षत नहीं है किन्तु विशिष्टवैशिष्टयविसयित्व (ज्ञानत्य) ही है। कारणतारच्छेदक धर्म कंवल विशेषागतावोदकप्रकारकाम नहीं है किन्तु विशेषणतावच्छेदकाभावानकारकत्वविशिष्ट विशेषणतावचंद्रकप्रकारकत्व है। अतः संदाय की उत्पत्ति की # आपत्ति न आयेगी
और विशेपणतावच्छंदकप्रकारक ज्ञान में अन्य होने पर भी अनुमिनि में प्रत्यक्षत्व की आरनि नहीं होगी' - तो यह भी असंगत है, क्योंकि वैसा मानने पर तो परामादिचिन्हकाल में अग्नि का सन्देह होने पर भी अनुदुचुद्ध संस्कार में चिशिमवैशिएयाबगाही प्रत्यक्ष की आपत्ति आयगी, क्योंकि परामशांदिन होने से अनुमिति आदि की एवं संस्कार उदयुद्ध न होने में स्मृति की उत्पति की तब सम्भावना न होने में पारिशेप न्याय में ताशा प्रत्यक्ष की ही आपत्ति आयेगी । अत: प्रत्यक्षत्व का ही विशेपणताअवच्छेदकप्रकारक ज्ञान का कार्यनाअवरोदक मानना सगर है। तब तो अनुमिति को मानस प्रत्यक्ष मानना ही सगत होता है। अतः प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। इस प्रतिका का त्याग नहीं होगा ।
का अनुमति परीक्षा ही है - समाधाज ] एकदेशीय उत्तरपक्ष :- अत्र केचि । यहाँ अन्मानपरोश्नवादी कुछ विद्वानों का पह कथन है कि अनुमितित्व को मानसत्पन्याप्य मानने पर यानी अनुमिति को मानस प्रत्यक्षस्वरूप मानने पर तो चाक्षुपाटिसामग्री होने पर भिऋविषयक अनुमित्ति ही उत्पन्न न हो सकेगी, क्योंकि भोगान्य मानस प्रत्यक्ष के प्रति चाक्षुपादिसामग्री प्रतिवन्धक होती है। आशय यह है कि घटचक्षुसभिकर्ष होने पर भी धूमपरामर्श से अग्नि की अनुमिनि होती है, क्योंकि ममानविषयकानुमिति के प्रति ही चाक्षपादिसामग्री प्रतिबन्धक होती है। मगर अनुमिति को मानस प्रत्यक्षात्मक मानन पा तो उस अवस्था में अग्नि की अनुमिति नहीं हो सकेगी, क्योंकि भोगान्य मानम माक्षात्कार के प्रति चाक्षुपादिभामग्री प्रतिबन्धक होती है। वहाँ यह कथन कि → भिरिपयक
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* अनागयित्वोपपादनम्
तरमेवाऽनुमित्यभ्युपगमः, त्वमनोयोगादिविगमस्य कल्पयितुमशक्यत्वात् । तच्चिन्त्यमित्यपरे, अनुमितित्वस्य भोगत्वव्याप्यत्वाभ्युपगमेन तद्दोषाननुवृत्तेः । न च वहन्यादेः कथं भोगविषयत्वं, चन्दनादिवदुपपत्तेः ।
अन्ये तु
तदानीं वहिमानसस्वीकारे लिङ्गादीनामपि मानसापति: । न व आचार्यमत ॠ गयलता
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परामर्शात् अनुमित्यभ्युपगमः भिन्नविषयकानुमितिवीकारः प्राख्याचणिती ( पृष्ठ ६६८ ) युक्तः, मनसः चक्षुर्माणि श्रोत्ररसनेन्द्रियैः साकं संयोगनाशसम्भवेऽपि मनसां जाग्रदशायां भवेदा त्वक्संयुक्तलेन तदानीं त्वमनोयोगादिविगमस्य कल्पयितुमशक्यत्वात् । ततश्व घटनयनसन्निकर्षस्थले दहनानुमिदुपपादनेऽपि घटस्यर्शनेन्द्रियसंयोगस्थले धूमपादनलानुमितिर्नय भवेत् यदि मानसवृत्तित्वमनुमित्यादेः स्यात् । न च तदानीमनलानुमित्यनुदयो भवतीति तदनुरोधेनानुमितः प्रमित्यन्तरत्व| मैवाभ्युपेयमिति केषाञ्चिदाकृतम् ।
तचिन्त्यमित्यपरे नव्यनास्तिका बदन्ति । चिन्ताबीजमंत्रोपदर्शयन्ति अनुमितित्यस्य भोगत्वव्याप्यत्वाऽभ्युपगमेन 'अनुमितिः भोगविशेषरूपये त्यतीकारेण तदीपाननुवृतेः प्रट्चाक्षुषादिसामग्रीमत् धूमादिपरामशत् दहनाद्यनुमित्यनुसादलक्षणदीपस्य प्रत्यात्, दहनाद्यनुमित भगविदापात्मकत्वेन चाक्षुपादिसामग्रीप्रतिवध्यताको विर्भावात, चापादिसामग्रयाः भोगल्यमानसमात्रवृत्तित्रैजात्यावच्छिन्नं प्रति प्रतिबन्धकत्वात् । न च हन्यादेः कथं भोगविषयत्वं सम्भवति ? येनानुमित्यादर्भागित्वमुपाधेत इति शङ्कनीयम्, चन्दनादिवदुपपत्तेः । सुख-दुःखयोरेव भोगविषयत्वे चन्दनादिकण्टकादिनिर्मिनकसुख - दुःखमानससाक्षात्कारोल्पत्तेः चन्द्रनादेर्भागविषयत्वं व्यवह्नियतं तदेवानादिनिमित्तसुखादिमानससाक्षात्कारोदयादनलादी गोगविषयत्वमुपपयले अनुभवन्ति चानलाद्यर्धिनां धूमपरामर्शानन्तरं सुखम् ततश्चानुमितित्वस्य भोगवृत्तित्वेऽपि सर्वगामी परीक्षवृतित्वकल्पन मसङ्गतमित्यर्वाचननास्तिकाशयः ।
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अनुमिते मनिस
अन्ये तु सियागः तदानीं धूमादिलिङ्गकपरानशन्यवहितांचरकालं. वह्निमानसस्वीकारे लिङ्गादीनां धूमादित्वादीनां अपि मानसापनि: = मानसंगाक्षात्करगोवरत्वत्रराङ्गः 'बह्निव्या श्रधूमगन् पर्वत' इति ज्ञानलक्षणसन्निकर्षस्य बह्नाचित्र धूमादावपि सन्यात् । न च आचार्यमत = उदयनाचार्यमते इव तंत्र = धूमादि
अनुमिति की सामग्री उपस्थित होने पर वक्षु और मन आदि का संयोग नष्ट हो जायेगा तथा उसकी उत्तर क्षण में भित्रविषयक अनुमिति हो सकती है। अतः अनुमिति को मानस प्रत्यक्षात्मक मानी जा सकती है इसलिए निराधार हो जाता है कि त्वगिन्द्रिय के साथ मन का संयोग इत्यादि का नाश तो भिन्नविपयक अनुमिति की सामग्री होने पर भी नहीं माना जा सकता । अतः घट के साथ स्पर्शन इन्द्रिय का संयोग होने पर धूमपरामर्शसमवधानदशा में भी अभि की अनुमिति नहीं हो सकेगी । अतः अनुमिति को मानस प्रत्यक्षरूप नहीं मानी जा सकती ।
तचिन्न्य. | मगर अपर नास्तिक विद्वानों का इसके खिलाफ यह वक्तव्य है कि पापादिसामग्री की उपस्थिति में अग्नि की अनुमिति के उपपादनार्थ यह भी कहा जा सकता है कि हम अनुमितित्व को भोगत्वव्याप्य मानते हैं अर्थात् अनुमिति भी भोगविशेषात्मक ही है । चाक्षुपादिसामग्री तो भोगान्यमानस के प्रति ही प्रतिबन्धक होती है, न कि मानसमात्र के प्रति। अतः मानसेतर ज्ञान की सामग्री होने पर भी रहनानुमित्ति हो सकती है, क्योंकि यह प्रतिबध्यतावच्छेदक से अब नयी कल्पना के अनुसार, शून्य है । यहाँ इस शंकर के कि अनुमिति की भोगात्मक मानी जाए तब तो अनि में अनुमितिस्वरूप भांग की विपयता कैसे आयेगी ? क्योंकि भांग के विषय तो केवल सुख-दुःख ही होते हैं - समाधनार्थ यह कहा जा सकता है कि जैसे चन्दन, कण्टक आदि सुख-दुःखजनक होने से उनमें भोग्यता भोगवियता का व्यवहार होता है ठीक वैसे ही अनि आदि में भी भोगविपयता की संगति हो सकती है। अतः अनुमितित्य को प्रत्यक्षवृत्ति मानना ही सङ्गत है । तब तो अतिरिक्त प्रमाण की मिद्धि नहीं हो सकेगी, क्योंकि प्रमा ही असिद्ध है । यह नव्यचार्वाक एकदेशीय का मन्तव्य है ।
अनुमिति का मानस प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव नामुमकिन- नैयायिक
अन्य तु । मगर इसके प्रतिवाद में नैयायिक मनीषियों का यह वक्तव्य है कि धूमपरामर्श के बाद होनेवाले अभिज्ञान को यदि मानस प्रत्यक्षरूप माना जायेगा तो हेतु आदि के भी मानस प्रत्यक्ष की आपत्ति आयेगी। इसके बचाव में यह कहा जाय कि जैसे 'अनुमिति को प्रत्यक्षविलक्षण प्रमा माननेवाले उदयनाचार्य अनुमिति में लिङ्ग का भान मानते
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६७४ मध्यमस्यावाटरहस्य खण्डः ३ का. मानसानमिििनराकरणम *
इव तत्र तद्भातमात्रे इष्टापत्तिः, एवमप्युच्छ्रहवलोपस्थितानां घटादीनां तत्र भानापतेः । ता || च तन्दर्मिकतत्संसर्गक-ततब्दमावच्छिमव्याप्यवताज्ञानात्मकविशेषसामयीविरहा। तदापत्तिरिति वाच्यम्, सामान्यसामग्रीवशात्तदायत्तेः । न च घटमानसत्वस्य परामादिपतिबध्यतावच्छेदकतया न तदापत्ति:; पटमानसत्वादेशयुच्छ्रहवलोपस्थितपदादिमानवारणाय तत्प्रतिबध्यतावच्छेदकत्वेऽ
| यलता लिङ्गमा परमजग्गा मानसरे, लहानमात्रे - केवलं लिङ्गमानसाधिक्य इष्टापनिः, स्वीक्रियते चोदयनाचार्यमने ‘बहिव्याप्यधूमपान पर्वत' इत्याकारकपरामानन्तरं 'वहिल्याप्यधूमपान पर्वतो वह्निमान' इत्याकारानुमितिः । धूमस्य चाक्षुषगांचरत्वपि यथाचार्यमते परोक्षानुमितिविषयत्वमङ्गीक्रितं तद्वंदचास्मन्मते तरय मानसानुमितिविषयत्वमप्युपपत्तते. आक्षेपपरिहारयोस्तुल्य. योगक्षेमत्वात् । न चाचार्यमन इयानुमितः परोक्षत्वमप्यापद्यतेति बनन्यम. चाक्षपाणां धूमानामचाचपानमिनिविषयत्वांश एव दृष्टान्तस्याभिप्रेतत्वादिति नास्तिकः: शनीयम्, एबं = दहनमानमाननिता लिङ्गावगाहित्वय शानिनया स्वीकार अपि उच्छृङ्खलोपस्थितानां = स्वातन्त्र्येणांपन्धिानवियाभूतना उदासानानां घटादीनां तत्र = दहनामिता भानापनेः, अगादिवन तेषामपि दहनानुमित्यव्यवहितपूर्वक्षणावच्छेदेनोपस्थितत्वत । नतश्च वह्निन्यायधूभवान् पर्वतो वहिमानि निवत् पर्वता बतिमान घटश्च' त्येवमप्यनुमितिः स्यादिति चाकिं प्रति नेपायिकयक्तव्यम् ।।
चार्गकशङ्कामपाकतंभ पन्यस्यन्ति - न चेति चान्यमित्वननायनि । तर्मिक-नत्संसर्गक-तत्तद्धमावच्छिनच्याप्यवत्ताज्ञानात्मक-विशेषसामग्रीविग्हात् = पर्वतपक्षक-संयोगसंसर्गक-घटत्वावभिन्नप्रतियोगिकन्याप्तिमद्रगियावगारिज्ञानलक्षणापरामशा. त्मकविशेषसामग्रीवकल्यात, न तदापत्तिः = न दहन नुमिनी बटायगाहित्वप्नसङ्गः । 'पर्यतो दहनन्यायधूमवानिनि परामर्शस्य पर्वतर्मिक-संयोगसम्बन्धक-दहनत्वापच्छिकनिरूपिनच्यातिमशिष्ट्यावगाहिल्यपि पर्वतधर्मिक संयंगसंरक-पटत्वावच्छिन्ननिरूपिनव्याप्तिनशिश्यावगाहित्ाभावान नदत्तरजायमानदहनानामता घटादिभाना निः, पर्वत पक्षक-गयांगसंमर्गक-बटयकारकशिष्टमान्स प्रति पर्वतर्मिक-संयोगसंसर्गक-घटत्यावच्छिन्ननिरूपिनच्यापिनाश्रयत्वावगाहिज्ञानस्य कारणत्वाद । न चै दहनानुमिती धूमादाग भानं न स्यात. पचनपक्षक-संयोगसंसर्गक-चमत्त्वावछिन्ननिम्ापिन-च्याप्यत्वाश्रयवत्ताज्ञाननिरहात इति वाच्यम्, मानसदहनानुमितिजनपरामर्शघटकल्यात पक्ष-साध्यतावच्छेदकसम्बन्धादिवत सदानोपपत्तेः । न यमणि पर्वतो बहिव्यायधुमयान घटवे'तिपरामर्शय घटायगाहित्वेन तदुसरानुमिता घटभना" निस्नदयस्वति वाच्यम्, नस्यानलमानसानुमिनिजनकपगमर्शनिष्टकारणतानिन्:पिनावछंदकतानाश्रयत्वात. धुमत्वादस्तु परम्परया दहनागितिकारगतावच्छेदकत्वाद् धूमादब तत्र भानादिति चार्वाकस्य मृदादायः ।
नैयायिकास्तं प्रतिक्षिपन्ति . सामान्यसामग्रीवशान - बटगोचरज्ञानलक्षणसभिकर्षजापस्थितिवशन, दहनामिती तदापनेः = घटभानससामान्यापनः । घटानमित्यात्मकमानमाविशेषमामग्रीविलपि घटापस्थितम् पाया मानससामान्यसामग्रयाः सन्न घटगानससामान्यापत्तिान पर्वता वहिव्यायधमान घटत्याकारकपरामशानन्तरजायमानदहनमानसे दुर्वाग्वति चायाकं प्रति नयायिकयक्तव्यम् । न च घटमानसत्त्वस्य परामर्शप्रतिवन्यतावचंदकतथा न तदापनिगिनि वाज्यम, गवं सति घटत्वावच्छिन्ननिरूपितत्र्याप्तिप्रकारकज्ञानसत्चदपि घटमानसं न स्यात् । न च पटमानसत्वरय दहनादिसायकपरमर्शनिमपिनप्रतिवध्यतावच्छेदकतया न दोष इति शदनीयम, एवमणि सादग्यादिज्ञानसत्त्वे तदनपमित्यादी घटभानापनगपरिहार्यत्वात् । न च घटमानसत्वस्य परामर्शादिप्रतिबध्यतावच्छेदकतया - दहनादिररामर्ग-ग्गादृश्यज्ञान-पदज्ञाननिष्ठप्रतिबन्धकतानिरूपित प्रतिवध्यतया अवच्छेदकतया, न दहनायमित्यादी तनापत्तिः = घटनानसापनिरिति शनीयम्, तपाण्यदलोपस्थिनाना पटमदादनां नम्र भानापनंदरित्वात् । न च घटमानसत्ववत पटमादिमानसत्वस्यापि दहनादिपरामशांदिप्रतिबगनावछंदकनया न तहाप इति वाच्यम्, एवं सति पटमानसत्वादेरपि दहनानमित्यादी उछालापस्थितपटाविभानवारणाय तत्प्रतिवध्यतावदकत्वे हैं उसी प्रकार अनुमिति को मानस प्रत्यक्षरूप मानने पर भी उसमें हेतु का भान मानने में कोई दोष नहीं है' - ना यह भी निराधार है, क्योंकि अमिति के मानसत्यपक्ष में केवल हेतु के ही मानस की आपनि नहीं होगी किन्तु साध्य, हेतु, पक्ष आदि का पटक न हो कर स्वतन्त्ररूप से जो भी घटादिपदार्थ धूमपरामर्श के समय उपस्थित होंगे उन सभी के मानस प्रत्यक्ष की आपत्ति होग। यहाँ बचाव के लिए यह वक्तव्य फि -> 'तत्पक्षक नन्संसर्गक सद्धर्मावतिनन्याप्पबनाज्ञानरूप विशुपमामग्री मानसविशेष की जनक होती है । पर्वत में दिवगंधक परामर्श काल में पर्वतपक्षव - संयोगसमगंक-घटत्वादिधर्मावनिनव्याप्यवत्ता के ज्ञानरूप घटादिबोधक परामर्श का अभाव होने से जनक मानस बोध की आपत्ति नहीं हो मकनी' <- भी असहन है, म्योंकि परामर्श तो मानमविशेष का कारण है, न कि मानससामान्य का । मानससामान्य का कारण
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६७६ मध्यमस्थावादरहस्यं स्वण्डः ३ - का. १९
* निजकत्वनिरुक्तिः
कथं भवेदिति वाच्यम्, भोगान्यज्ञानप्रतिबन्धकतावच्छेदकतया समानीतजातिविशेषवतां सुखदुःखानामुत्तेजकत्वात् । न च तादृशसुख-दुःखकालेऽप्यनुमितिसामग्रीभूतपरामर्शादौ समवायेन तदभावादनुमित्यापत्तिः; सामानाधिकरण्य- कालिकोभयसम्बन्धावच्छिनतदभावस्य निवेशादिति ॐ जयलता है
मानसान्यसामग्रीप्रतिबभ्यत्यात्, तंत्र मतनुमितः परीत्यादिति वाच्यम्, सुख-दुःखांदयं तन्मानसमीपजायते न त्वन्यदिति | सर्वैरपि स्वीकारात् भोगान्यज्ञानप्रतिबन्धकतावच्छेदकतया सुख-दुःखसाधारणवैजात्यस्याऽवश्यंकल्पनीयत्वे तु समानीतजातिउत्तेजकत्वं कल्पयित्वा विशेषवतां = निरुक्तरीत्या वैजात्याश्रयाणां तादृशजानिविशेषरूपेणैव सुख-दुःखानां उतेजकत्वात् विजातीयसुख-दुःखाभावविशिष्टमानलेतरसामग्रयाः मानसत्वावच्छिन्नं प्रति प्रतिबन्धकत्वाभ्युपगमान्नानुमितिसामग्रीसचेऽपि सुखादिसमाने भोगानुपपत्तिः, उत्तेजकाभावविशिष्टप्रतिबन्धकस्याज्सन्वात् । उत्तेजकत्वञ्च प्रतिबन्धकस्य प्रतिबन्धकत्वमित्येके । प्रतिबन्धक- कोटिप्रविप्राभावप्रतियोगित्वं तदित्यपरे । प्रतिवन्धकसमवधानकालीनकार्यजनकत्वं तदित्यन्ये । कारणाभावातिरिक्तलायांभावप्रयोजका भावनिरूपितप्रतियोगित्वं तदिति केचित् । वाक्यनुकूलत्वमुतं त्वमितीतरं वदन्ति ।
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ननु सुखाद्यभावविशिष्टानुमित्यादिसामग्रया मानसत्वावच्छिन्नं प्रति प्रतिचन्धकत्वकल्पने तु सुखादिकालेऽपि परामर्शादितो:|सुमित्यापत्तिर्दुवारेच तदानी परामर्शादिः समवायेन सुखादिविशिष्टत्वाभावात् । न हि समासेन परामशादी सुखादिकमुपजायते किन्त्वात्मन्येवेति मुखनास्तिकाशक मपाकर्तुमुपक्षिपन्ति न चेति । तादृशसुख-दुःखकाले = भागान्यज्ञानप्रतिबन्धकतावच्छेदसमवायसम्बन्धावच्छि वैजान्यविशिष्टसुख-दुःखसमवधानं अपि अनुमितिसामग्रीभुतपरामर्शादी समवायेन तदभावात् = प्रतियोगितासुख-दुःखाभावसत्त्वान् उत्तेजकानावविशिष्टप्रतिबन्धकसत्येन अनुमित्यापत्तिः = अनुमित्युदयापत्तिः, उपलक्षणात सुखादुःखमानससाक्षात्कारानुपपत्तिश्च तत्र सुख - दुःखाभाव-विशिष्टानुमित्यादिसामग्री प्रतिवध्यतावच्छेदकीभूतस्य मानसत्त्वस्य सत्त्वादिति शङ्कनीयम् सामानाधिकरण्य- कालिको भयसम्बन्धावन्चिन्नतदभावस्य स्वसामानाधिकरण्य- कालिको भयसम्बन्धाबच्छिन्नप्रतियोगिताकस्य सुख-दुःखाभावस्य मानसत्वावच्छिन्नप्रतिबध्यतानिरूपितप्रतिबन्धकताविशिष्टानुमित्य दिसामग्रीविशेषणकुक्षी निवेशात्। सुखादिजन्मकाले परामर्शादिः समवायन सुय्यादिविशिष्टत्वनिरहेऽपि स्वसामानाधिकरण्य-स्वसमानकालिकन्याभ्यसम्बन्धेन सुखादिविशिष्टत्वेन सामानाधिकरण्य- कालिको नयसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकसुखाद्य भाव विशिष्टपरा मलिक्षणस्य मानसप्रतिबन्धकसत्त्वान्नानुमित्यापत्तिनं वा भांगानापतिः । न च सामानाधिकरण्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक - मुख्याद्यभावस्यैव प्रतिबन्धककुक्षावृतंज का भावविधयाऽस्तु किंकालिकसमावेशेनेति साम्प्रतम्, सामानाधिकरण्येन विनष्टसुखादिकमादाय सुखादिजन्मविरहकालेऽपि परामर्शादिसमवधानादनुमित्यनुदात्तेः । न च तर्हि कालिकावच्छिन्नतदभावस्याने जका भावत्वमस्त्वित्या कणीयम्,
सुखमादाय सुखादिशून्यर्भवेऽपि धूमादिपरामर्शदशायामनलानुमित्यनापत्तेः । इत्यच समवायेन मानसत्यावच्छिन्नं प्रति वैजात्यविशिष्टसुखाद्यभावविशिष्ट अनुमितिसामग्री को प्रतिबन्धक मानने से अनुमिनिसामग्री के समय सुख-दु:खोदय होने पर उनके भांग की अनुपपत्ति नहीं हो सकती है । यदि यहाँ वापस यह शङ्का हो कि 'भांगान्यज्ञानप्रतिबन्धकता अव जाति के आश्रय सुख या दुःख के उदयकाल में भी अनुमितिसामग्रीस्वरूप परानी आदि में तो समवाय सम्बन्ध से सुख या दु:ख नहीं ही रहते हैं । अतः परामर्श तो सुख-दुख के अभाव से विशिष्ट होने से तब अनुमिति के उदय की आपत्ति आयेगी और तब समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक सुखाद्यभावात्मक उत्तेजकाभाव से विशिष्ट परामर्शादिस्वरूप प्रतिबन्धक के होने में भांग की अनुपपति हो जायेगी तो इसका समाधान यह है कि प्रतिबन्धक की कोटि में जिस सुखाथभाव का उत्तेजकाभाववा निवेश किया गया है वह समवायसम्बन्धावच्चिन्नप्रतियोगिताक नहीं किन्तु सामानाधिकरण्यकालिकोभयसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभिमत है । जिस आत्मा में सुख-दु:ख रहते हैं, उसी आत्मा में परामर्शदि रहने पर यह सामानाधिकरण्य और कालिक उभय सम्बन्ध में उत्तेजकीभूत सुखादि से विशिष्ट हो जाने से सामानाधिकरण्य- कालिकोभयसम्बन्धावच्छिन्न सुखाग्रभाव में विशिष्ट परामशांतिस्वरूप प्रतिबन्धक न होने से तादृश गुरुख-दुःखकाल में परामगोष्टि होने पर भी भोग की अनुपपत्ति नहीं है । जब चैत्र में समवाय में सुख-दुःख नहीं रहेंगे नव चैत्रसमवेत अनुमितिसामग्री कालिकसम्बन्ध से सुखादिविशिष्ट बनने पर भी | सामानाधिकरण्य- कालिको भयसम्बन्धेन सुखादिविशिष्ट नहीं होने से तादृशोभयसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताका सुखाद्यभाव से विशिष्ट हो जाती है। इस तरह नय उत्तेजकाभावविशिष्ट प्रतिबन्धक की उपस्थिति होने से तब सुखादि के भांग की आपत्ति या अनुमिति के उदय की अनुपपत्ति नामुमकिन बन जायेगी। हमारी इस रामकहानी का सारांश यह है कि अनुमिति मानसप्रत्यक्षात्मक नहीं किन्तु प्रत्यक्षविलक्षण प्रमान्तरस्वरूप ही है ।
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* नायिकामतान्नममीक्षा * || सिन्दान्तयन्ति ।
तरेदं चिन्यं - अमितिसामय्या मानसं प्रति प्रतिबन्धकत्वस्य तत्तदिच्छारूपोत्तेजकोहेन विशिष्य विश्रान्त्याऽनुमितेर्मानसत्व एव वह्यादिमानसं प्रत्यप्रतिबन्धकत्वकल्पनया लाघवम् ।
-* नयता *स्वनिरूपितसामानाधिकरण्यकालिकोभवसम्बन्धावच्छिक प्रतियोगिताकसुख दुःखाभावविशिष्टानुमित्यादिसामग्रयाः प्रतिबन्धकसिद्धा - बनुमितनं मानसत्वमपि तु प्रमित्यन्तरत्वमेवाते दार एवं प्रतिज्ञासन्यासी नास्तिकानामिति तात्पर्येण सिद्धान्तयन्ति = नयाचिकराद्धान्तं स्थिगकुर्वन्ति । अन्ये विति प्रागनमतान्येतानि अनुसन्धेयम् ।
सम्बरसं दर्शयित प्रकरणकारः प्राह. तत्र - सम्यादिरिहविशिष्टामित्यादियामाया मानसप्रनिबन्धकत्वपक्ष, इदं निरूपमाणं चिन्यम् । चिन्ताचाजमवावेतनि - अनुमितिमामग्र्याः = मुग्वादिन्यानृमिनिमामग्रयाः, मानसं = मानसत्वावच्छिन्नं प्रति प्रतिवन्धकत्वस्य स्वीकार घटज्ञापत्यशेन्टागन्नपि सुख-द खबिरहशिष्टदहा मितिसायमाधानदशायां घटनानगोचरमानसं न स्वत । न च घटज्ञानमानसम्म घटज्ञः नमानसला- सुब-दु:खावाहविशिष्ट मि तयारमा बाध्यतावच्छेदकतया नायं दांप इति वाच्यम्, परज्ञानमानसत्वादन गटज्ञानमानगच्छादिशून्यामिनिनामप्रतिक यतावचंदकन्न. स्वीकारे तत्तदिच्छारूपोनंजकभेदेन तागप्रतिबन्धकता या नंदान् विशिप्य विश्रान्त्या - विशंपण प्रतिबन्धकन्यस्य पर्यवसानात् अनन्नानिध्य - प्रतिबन्धकभार कल्पनापतिः । न च तनदिच्छाविरहकटम्याडम्वण्डवन निझान्न गोग्यानि वक्तव्यम, उदासीनप्रवेशाप्रवंशाभ्यां चिनिगमनाविरहेगा ग्वण्रभवस्य नत्र निबंशा सम्भवात । तदपेश्या अनुमितः मानसत्वे एवं कल्प्यमाने बन्यादिमानम = 'गमदिजन्यानलादिमानगं प्रति दहनादिवानुपादिसामन्याः स्वातन्त्र्येण अप्रतिवन्धकल्लकल्पनया लापन - पृथकप्रतिवध्य प्रतिबन्धक नागकल्पनलायम । मानसमामग्रयाः सर्वती दर्बलचन चाक्षुपादिसाभग़याः मानसत्रावच्छिन्न प्रति प्रतिबन्धकत्वस्या गरामनेवश्यकलमन्न नव प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकमान चाक्षुषादियामग्राममवधानदशायां परामादप्यनुमित्यनुदयोपपना अनुमितित्वादस्तटिबध्यन यच्छेदकत्या कल्पनेन लाघवमनुमिनिवस्य मानसत्वन्याप्यत्यपक्ष ।
ननु मया नैयायिकेन नत्तन्मानसत्वावचिदन्न प्रति प्रतिबन्धकी भूतानुमितिसामग्री विज्ञापगनिधया न तनदिच्छा भावनिंदा: क्रियने येन तनदिन्छास्वरूपाजकभेदन प्रतिबन्धकत्वनंदात नादप्रतिवध्य-प्रतिबन्धकमावर विशिष्य विश्वान्त्या अनन्ततत्कल्पनापनिः स्यात् । किन्तु परामशादिसमबधान गि घटज्ञानगीचरमानसच्छादिमन्ये घटज्ञानमानसोदयोपपादनाय ननदिछीपायमानज्ञानभित्रमानस गरामादिग्रतिबध्यतावच्छेदकजानिः स्वीक्रियते नदवन्त्रि व पगमशादिप्रतिबन्धकत्वमिति न नानानिचट . प्रतिबन्धकमावकल्पनगौरवमिति नानुमितिल्यस्य परीक्षज्ञाननित्वं दोषः । अन्दा मतमान्सत्वे स धूमादिलिगकपरामर्शसमधाने उच्छवलोपस्थितघट-पटादिभानवारणाय घट- पटनानसत्वादः परामर्शप्रतिबध्यतावच्छेदकत्वकल्पनन्नन्तप्रतिवध्यप्रतिबन्धकभावकल्पनापत्तमानरस्त्वस्य परामर्यादिटितनामीप्रतिबध्यतावच्छेदकत्वकल्पनमभितमिति नैयायिकाशङ्कामपनोदयित परुगणकार आह
में मानसप्रत्यक्षा में अनुमितिअन्तगत का अर्थ न । उपदर्शिन नथायिकवक्तव्य के खिलाफ प्रकरणकार श्रीमदजी अपनी मीमांसा का प्रदर्शन करते हैं कि -- 'उक्त नैयायिकमन में यह विचारणीय है कि सुम्बादिविहानगिए अनुमिनिमामग्री का मानसमात्र के प्रति प्रतिबन्धक मानने पर तो पगमर्शकाल में घदज्ञान के मानस की इसा होने पर भी तदनन्तर काल में घटज्ञानगोचर मानम प्रत्यक्ष की उत्पनि न हो सकेगी । यदि उसकी उत्पत्ति की उपपत्ति के लिए ननन ज्ञान के मानस की इच्छा को मानरमात्र के प्रति अनुमितिसामग्री की प्रतिवन्धकता में उनेजा मान कर तत्तदिनानन्तर उपजायमान मानस से मित्र मानस के प्रति नदिच्छाविहविशिष्ट अनुमितिसामग्री को प्रतिबन्धक मानी जाय तब तो तत् नत मानगच्छास्वरूा उनंजक के भेद म अनुमिनिगामग्रीनिष्ठ प्रतिबन्धकता भिन्न बन जाने से ताइश प्रतिस्थ्य-प्रतिबन्धकमाव विशपसा में पर्पयसित = फलित हो जायेगा, जिसके फलस्वरूप अनन्न प्रतिवध्य प्रतिवन्धकभारकल्पना का गौरव नापिक के मा पा आयगा, जो अप्रामाणिक एवं असा है। इसकी अपेक्ष' अनुमति को मानम प्रत्यक्षस्वरूप मानना ही युक्तिसङगन है. क्योंकि तब अग्निचाक्षुपादिसामगीसमवधानकाल में अनिविषयक परामर्शजन्य मानस प्रत्यक्ष (अनुमितिस्वरूप) के प्रनि अम्चिाक्षुपदिसामसी का पृथक् प्रतिबन्धक मानने की आवश्यकना नहीं रहती है, क्योंकि सर्व अन्यज्ञानसामग्री सं मानससामग्री दर्बल होनी है । अतः अनुमिनि को मान्स साक्षात्काररूप मानने पर नैयायिक को अभिमत अग्निअनुमिनि के प्रति अग्निचाक्षुपादिसामग्री की प्रतिबन्धकता के गौरव को भी अवकाश नहीं रहेगा । यदि
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६.४४. न यमस्याद्वादरहस्य ग्वणः ३ - का.११ * कारमात्रवृत्ति बात: कार्यतावचं टकलांनयमानहाकारः * तत्तदिच्छोपजायमानभिने प्रतिबध्यतावच्छेदकजातिस्वीकारस्तु परामर्शजन्याभोऽपि भजमान इति ल वढ्याद्यनुमितिसामग्रीकाले उच हवलोपस्थितघटादिमानवारणाय मानसत्वस्य तत्प्रतिबायतावच्छेदकत्वकल्पनौचित्येनानुमितेरप्रत्यक्षत्वाभिधानं युक्तमिति । न च ताजात्यच्छेिनं प्रत्यनुगतकारणकल्पनापत्ति:, कार्यमाभवृत्तिजाते: कार्यतावच्छेदकत्वनियमे मानाभावात् ।
- जयतता - तनदिच्छापजायमानभिन्ने प्रतिवध्यतावच्छेदकजातिस्वीकारः = परमशांदिनिपिनतिबध्यतावच्छेदकरय बजान्यस्य नैयायिकन क्रियमाणोऽभ्युपगमः तु अनुमिनेमान्सत्वपक्षेपि परामर्शकाल -मृङ्खला म्धिन-घटादिमानसवारणाय परामर्शजन्यभिन्नज्ञाने = भांग-परामर्शजनानंतरज्ञान अपि मथा परामदादिप्रतिबध्यनारदकरजात्ययकार: भजमानः = क्रियमाणः तुल्ययांगक्षेम इति इना: न वठ्याद्यनुमित्तिसामग्रीकाले उसलोपस्थितघटादिभानवारणाय – ग्यत-त्रापस्थितानां घटापटादीमामालादिमानसामिती भाननिवारणकृते, मानसत्वस्य ततिवध्यतावच्छेदकत्वकल्पनीचित्यन - परामदांदिघटित्यामग्रगानिस्पिनप्रतिरभ्यतानिस पिनायनंदकत्वस्वीकारण्य युक्तत्वन, नयायिकन क्रियमाणं अनुमितेरप्रत्यक्षत्वाभिधानं यक्तिमिति । प मित्यत्रान्वेनि । उच्छलोपस्थितघटादिगोचरस्य मानसन्य भोग-पतमजिनाजानत्वन परामर्शप्रिनिन यतावच्छदक -बजात्याकान्तत्वान्न परामर्शोत्तरमानसानुभिनिकाले उदयः । तनशानुमितमानमपि न प्रानुक्तानन्तप्रतिवध्य-प्रतिबन्धकभाबकल्पनापतिः ।
मन परामर्शजन्यभिन्नज्ञाने नुमित्यादिसामीप्रतिवध्यनारच्छदकजानिम्वीकार नाशवनात्यायच्छिन्नं प्रनि अनुगनका राणताबन्छ कजानिम्वीकारे तादृशत्रै जान्यावच्छिन्नं प्रति अनुगत कारणतालेटकायचिवकल्पनाप्रमशा दुवा: । न च निबन्धकाभावविधया परामशादिसामनयभारकूटस्था खण्डत्वन करणत्यमिनि शनीयम उदार्मानप्रवेशाप्रशाभ्या विनिगमकामांनाःग्वा भावतेन कारणत्वाय गाद्विनि प्रागुक्तत्वात् । न च परमशांदिप्रतिबध्यतावच्छंदवनात्याशिष्टममितियामालाले उदहलोपस्थितघटादिमानसाना काणचनुगना जानिगरपाण्यापाधिर्वा सम्भवति, यन लदवच्छिन्नकारणता निम्पनकायनाचच्छेदकत्व गमशादिप्रतिबध्यतावच्छेदकजानः स्यादेति नायिकामामाकर्दनुपक्षिाति न चेति । तज्जात्यवच्छिन्नं = 'परामर्शादिशनिबध्यतावच्छेदकवजात्यायन्टिन प्रति अनगतकारणकल्पनापत्तिः = अनुगतानतिग्रसकनकारगत बदकावच्छिन्नकलपना पनि:, तत्कारणम्वनुगतकारणतावच्छेदकस्वीकारापनि रित्यत्रापादनतात्पर्यम् । नकिरा हेतुमाह - कार्यमात्रवृत्तिजातेः - नित्यायनिसकलकार्यवृनिजातित्वावन्दन, कार्यतावच्छेदकत्वनियम मानाभावात, विपक्षबाधकनकविरहान । नती न पसनदशादिजन्यभित्रज्ञान
नयायिक की और से पचाव के लिए पह कहा जाय कि -> 'हम नत तन् ज्ञान की मानमंत्रछा के अनन्तर जायमान ज्ञान से भिन्न ज्ञान में चाक्षपादिप्रतिबध्यताअवच्छरक जातिविशेप का स्वीकार करते है और नदवच्छिन्न के प्रति चाक्षुपादिसामग्री को प्रतिबन्धक मान कर ही अग्निचानुपादिसामग्रीकाल में अग्नि की अनुमिति की अनुत्पत्ति और घटज्ञानाचर मानम की उत्पत्ति की सहति कर सकते हैं 1 अतः अनन्न प्रतिवथ्यानिबन्धकभाव की कल्पना का गौरव निम्बकाश है' -सब ना अनुमिति को मानस प्रत्यक्षरूप माननेवाले भी परामर्शजन्य ज्ञान से भिन्न ज्ञान में चाक्षुषादिनामग्री की प्रतिवायनावदक जानिविशेप का स्वीकार करते हुए परामशोंत्तरकालीन दहनज्ञान में पग़मर्शकाल में स्वतन्त्रापस्थित पदादि के अनगाहन की उपपनि कर सकते हैं, क्योंकि तादृया घटमानस परामर्शजन्यज्ञान से भिन्न है। अतपन अनुमिति को मानस प्रत्यक्षात्मक माननेवाले विद्वानों के प्रति नैयायिक का यह वक्तव्य भी कि → 'पगमर्शजन्य ज्ञान को मानम साक्षात्कारुप मानने पर ता अग्रिआदि की अनुमिति की सामग्री उपस्थित होने पर स्वतन्त्र उपस्थित घटादि का परामर्शजन्यज्ञान में अवगाहन मानने की आपनि आयंगी, जिसके निवारणार्थ घटपटादिमानसत्य को परामर्शादिप्रतिवध्यतावच्छेदक मानने पर प्रागक्त अनन्त प्रतिवध्य-प्रतिवन्धकभार के स्वीकार का गौरव आयेगा, जो अप्रामाणिक एवं असह्य है। अत: लाघवसहकार से मानसत्व को ही परामशादिप्रनिवभ्यतावच्छंदव मानना युक्त है, जिसके फल में अनुमिति प्रत्यक्षभिन्न प्रमा हो जायेगी, अनुमित्तित्व परोक्षवृति बनेगा' - अगदत है, क्योंकि अनुमिति को मानम साक्षात्काररूप माननेवालों ने परामर्शजन्यभिन्न ज्ञान में परामर्शाप्रिनिबध्यतावच्चंदक जाति का स्वीकार किया है, जो नादमा घटादिमानस में भी रहने की वजह अग्रिपरामर्शोत्तरकालीन अग्रिअनुमिति के काल में नावापदातिमानस की अनुत्पत्ति की उपपनि हो सकती है, तब क्यों अनुमिति को परोक्ष रद्धि मानी नाय ? अतः अनुमिति को मानम प्रत्यक्षम्प मानने में कोई दोष नहीं है। यहाँ नैयायिक का यह बस्तन्य कि → 'परामर्शजन्यज्ञान में भिन्न मकल ज्ञान में पगमादिप्रतिवध्यनावच्छेदक जानि का स्वीकार करने पर तादृश जाति से अवछिन्न = विशिष्ट के प्रति अनुगन कारण की कल्पना की आपति आयेगी । प्रतिवन्धकाभावविधया धर्मालाकपगमादिअभार का नावावजात्यअवञ्छित्र के प्रति कारण नहीं माना जा सकता,
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* विजातीयसुखानंजकत्वम
किय विजातीयसुख-दुःखानां नोत्तेजकत्वं सुखत्वादिना साङ्कर्येण तवैजात्याऽसिद्धेः । प्राञ्चस्तु उपनीतभानस्थले विशेषणज्ञान - विशिष्टबुद्योः कार्य-कारणभावेनैवाऽस्माकं
ॐ जयलता ॐ
5:30
परामर्शादिप्रतिचभ्यतावच्छेदकविकल्पन किञ्चिद्वास्ति पेनानुमितेः परोक्षत्वमहाकार्य स्वात् ।
free, अनुमितित्वस्य परोक्षवृत्तित्वपक्षे मानसत्वस्यैव परामर्शपदितसामग्रीप्रतिवव्यतावच्छेदकत्वकल्पने ऽनुमितिसामग्रीसमवधाने उदितसुखादिमानससाक्षात्कारोऽपि स्यात् ? न च भोगान्यज्ञानप्रतिबन्धकतावच्छेदकतया समानीतजातिविशेषत | सुख-दु:खानामुत्तं जकत्वान्नाऽयं दोष इति शङ्कनीयम्, यतः हि विजातीयसुखदुःखानां भोगान्यज्ञानप्रतिबन्धकतावच्छेदकी भूलन नोत्तेजकत्वं सम्भवति सुखत्वादिना साङ्कर्येण तत्रैजात्यासिद्धेः = सुख-दुःखी भयमात्रवृत्तिजातिविशेषस्या:सिद्धेः । आनन्दं ब्रह्म' ( ) इत्यादिश्रुतिप्रामाण्येश्वर नित्यसुखाऽङ्गीकारान्न सकलसुख-दुःखेषु भोगान्यज्ञानप्रनिबंधकतावच्छेदकजानिकल्पन्न युक्ता किन्तु जन्यसुख-दुःखेष्व । तथा च मुखत्वेन साकं तत्सङ्करस्य दुग्त्वम् । तथाहि दुःखं सुखत्वं नास्ति वैजात्यमस्ति नित्यसुखं वैजात्यं नास्ति, सुखत्वमस्ति जन्यसुखे चाभ्यमिति सरोपपत्तिः । ततोऽनुमितेः परोक्षत्वेऽनुमितिसामग्रयां सत्य भोगां नैवोपजायेत मानसत्वस्य परानशादिप्रतिचभ्यतावच्छेदकत्वादित्यनुमितमनित्यमेव सततीति नन्नैयायिक प्रति नवीननास्तिकमत लाघवसमर्थनपरी नैयायिकदृषणोद्भावनगर्भितः प्रकरणकारस्य प्रौढिवादेनक्षेप:
नव्यनास्तिकगतमसहमानाः प्राञ्चः = प्राचीननास्तिका: इति आहुरित्यनेनाग्रेऽन्येति । तुर्विदशेषद्योतनाय । तथाहि उपनीतभानस्थले = उपनीतस्य अलौकिकसन्निकर्मापस्थापितस्य भानं यस्मिन् ज्ञानं तत्र स्थले, विशेषणज्ञान-विशिष्टबुद्धयः कार्यकारणभावेन = विशिष्टबुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति विशेषणज्ञानस्य कारणत्वेन सर्वसम्मत एव अस्माकं = प्राचीनचावकाणां. क्योंकि अखण्डाभाव में कारणता के स्वीकार का पहले बहिष्कार किया गया है और अन्य किसी कारण में कोई अनुग जाति नहीं हो सकती है' टीक नहीं है अवश्य कार्यतावच्छेदक हो' यह कोई ईश्वराज्ञा नहीं है, जिसकी वजह वह नियम प्रामाणिक हो जाय । अतः परामर्शजन्यज्ञानभित्र ज्ञान में रहनेवाली जाति का अनुगत कोई कारणता अवच्छेदक न हो तो भी कोई दोष नहीं है ।
लुम्प - दुःख में अनुगत जातिविशेष का स्वीकार असकृत
किञ्च सु. । इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि पूर्व में जो नैयायिक विद्वानों ने कहा था कि भोगान्य ज्ञान के प्रति सुख और दुःख को उभयानुगत जातिरूप से प्रतिबन्धक मानना आवश्यक है तो फिर उस उभयानुगत वैजात्यरूप मे सुख-दुःख को मानसमात्र के प्रति अनुमितिसामग्री की प्रतिबन्धकता में उत्तेजक मान कर (पृष्ठ ६.७६) वह भी कैसे सङ्गत हो सकता है ? क्योंकि सुख और दुःख में उभयमात्रानुगत एक अतिरिक्त वैजात्य ही नैयायिकमतानुसार सिद्ध नहीं हो सकता है। इसका कारण यह है कि तब सुखत्वादि जाति के साथ उसका साझ प्रसक्त होना है। सांकर्य जातिवाचक होने से सुख-दु:ख उभयानुगत बैजात्य का स्वीकार नहीं किया जा सकता, जिसके फलरूप में अवश्यकतृप्त वैजात्यरूप से सुख-दु:ख को मानस ज्ञान में उत्तेजक माना जा सके । अतः मानसत्व को अनुमितिसामग्रीप्रतिबध्यतावच्छेदक मानने पर तो अनुमितिसामग्रीउपस्थितिकाल में उदित सुख या दुःख को मानस साक्षात्कार = भोग की उत्पत्ति की उपपत्ति नैयायिकमतानुसार कथमपि नहीं हो सकती है। नैयायिकजी ! तब तो अनुमिति को मानस प्रत्यक्षरूप मानना ही सहत हो जायेगा । साङ्कर्यभावना इस तरह - दुःख में नाश जन्य है, सुम्वत्व नहीं । ईश्वरीय नित्यसुख में गुखत्व है, तादृश वैजात्य नहीं : जब कि. जन्यसुख में सुखत्व और अभिमत बैजात्य भी रहता है । परापरव्यधिकरण धर्मों का एक धर्मी में समावेश होने से माइयं उपपन्न हो सकता है ।
प्राच. 1 नव्य नास्तिक मन एवं मानस अनुमिति का स्वीकार करते हैं, जिसमें गांव है। इसकी अपेक्षा उचित तो यही है कि धूमदर्शन के पश्चात् होनेवाले 'पर्वनो बह्निमान' इस ज्ञान को मानस अनुमितिस्वरूप न मान कर चाक्षुप प्रत्यक्षात्मक माना जाय । तब यद्यपि अग्नि का चाक्षुप नहीं माना जा सकता मगर अग्रि का उपनीतभान माना जा सकता है, क्योंकि ज्ञानलक्षणसन्निकर्ष से वह पूर्व उपस्थित रहता है । उपनीतभानस्थल में विशेषण का भान कारण है और विशिष्टबुद्धि कार्य है । विशेषणज्ञान और विशिष्टज्ञान के बीच हेतुहेतुमद्भाव तो सर्वमान्य है । अतः उसी कार्य कारणभाव के नियम के अनुसार परामर्शकाल में उपस्थित अग्नि का उत्तर क्षण में पर्वतगोचर वाक्षुप में उपनीतभान माना जा सकता है। 'सुरभि चन्दनं' इत्यादि प्रतीति की भांति 'पर्वती वह्निमान' इस प्रनीति की उपपत्ति हो जाने से हम प्राचीन नास्तिकों के मल में नवीन
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६.८: मध्यसम्पाद्वाटरहम्पे खण्डः ३ का.५
पगमगान गमवादः * चरितार्थता, अनुमितेर्मानसत्वव्याप्टयतावादे तु पक्षादेख्यविशेष्यतयैव भानामाऽनेन गतार्थता इत्यतिरितिकार्यकारणभावकल्पने गौरवमित्याहः ।
वस्तुतस्तु- अनुमितेर्मानसत्वे एकवहन्यनुमितिकृतोऽपि व्दितीयतदापत्तिः, प्रत्यक्षस्य सिध्यप्रतिबध्यत्वात् । न । प्रत्यक्षान्तरस्याऽतथात्वेऽप्यानन्यगत्याऽनुमितिरूपप्रत्यक्षस्य
-* लया - चरिनार्धना = कृतकृत्यता. न पृथकार्यकारणभावकलपनगावदयामन्यार्धती व्यन्यत । 'पर्वत नलवानि नि ज्ञानं पर्यंतशे स्वभयोगलक्षणलांकिकसन्निकर्षजन्यं, अनलयायधूमवान पवंत' इत्याकारकपरामर्शज्ञानस्य चक्षःसंयुन्तमन: संयुक्तात्मसमवतम्या विगतामा अनले गल्चात् । ततश्च पदामिति कामानि निधि विशेषगांदोरलाकिकृयच, चिटिष्टादित्वा. घाउन्न प्रति विशेषणज्ञानग्य कारणल्यान । नतश्च परामर्शनकलनलानं प्रति न पृथकारणत्वकल्पनागारवम् । एतादालाघवान पता:ग्निमान' इति प्रत्यक्षधी: चाक्षुणी, न तु मानी । न च तस्या मानसल्वे किं बाधकमिन्यारेकणीयम, तादात्म्येन अनुमितेः समवायेन मानसत्वच्याप्यतावादे तु 'पार्वती निमानि' त्यानमिनी पक्षादेः मुख्यविशेष्यतया = विशेषणतानाकाविश
या एवं भानान् । भली किकसन्त्रिकोपस्थागितस्य विपणन्यत्र भानं भवनि न तु विशेषणतानाक्रान्तविशेष्यतया । तदक्तं पगमगादाधयाँ 'बहिरिन्द्रियजन्यनाने उपनीतस्य विशेषता भान्म । तन विशेषणजानवधयवोपमायकज्ञानस्य हनुत्तम । पनायकज्ञानस्य जन्यताबन्छेदकं मानसत्वमेव (प.ना.गृ.१६६) इति । ततश्च पर्वता निमानित्यनुमिते मानसप्रत्यक्षत्वस्वकार पास्य तत्र मुख्याविशयत्तया भानं न स्यात् । एतेन परामानन्तरं 'पर्वत:ग्निरि वा नुमिनि: ग्वीक्रियत इत्युक्तावपि न गितारः, गनेर्मुरत्र्यचिराध्यतवा गाना सम्भवान । नतश्चानुमित माग्नसाक्षात्कारत्वे न अनेन = 'विशिष्टबुद्धि प्रति विशषणबुढ़ें: कार गत्व नियमन गतार्थता = 'पर्वनोनलबानि त्यमित्युत्पन्नपनि: इनि हेतोः तदनुराधेन अनिरिक्त कार्यकारणभावकल्पने
गनास्तिकगनं सुतरां गोम्ब दुनिबारम् । ततश्च पर्वतादे: चाक्षुषे जायमानं परामर्शोपस्थितानलादिभानमभ्युपेयमिति । भारित्यनेना-स्वरसः प्रदर्शिनः । अनीकिकनानससामग्रयपेक्षा अनमितिसामग्रा चलीयस्त्यालारामानन्तरमनलस्य नालांकिकसनिकर्षजन्यज्ञानं भवितुमर्हतीत्यादिकं स्वधियाहनीयम् । बहिन्द्रियजन्यज्ञाने उपनीतस्य विशेषगत्वमेव मानसे तु विशेष्यत्वमपीति
याद (पृष्ठ ३६.) उक्तवान्मानसे नुमिनिज्ञान पक्षादमुग्यविदाप्यनया भानपि नातिरिक्तकार्यकारणभावकल्पनापतिरिनि पदि नन्यनास्तिका युः सदा प्रकारान्तरन प्रकरणकारी न्वागनास्तिकमनं दुपनि - वस्तुत इति । अनुमिने: मानमत्वं = मानस प्रत्यक्षत्व स्वीक्रियमाणे. धूमपरामानन्तरं एकवहन्यनुमितिकृतोऽपि = एकामन्लानुमिनि कुर्वता:पि पुम्लाम्य विनवानु भित्मां द्वितीयतदापनि: = द्वितीयाया अनलानुमितेः प्रसङ्गः. प्रत्यक्षस्य = प्रत्यक्षवावच्छित्रस्य, सिद्धपप्रतिवध्यत्वात = ग्बाम्पय-विषयकज्ञाननिष्ठप्रतिबन्धकतानिरूपितातिवध्यनाविकालन्गन । न हि घटं पश्यनो ज्ञानान्तरसामग्रीविग्हादशायां द्वितीयं पप्रत्यक्षं न भवतीति । न च प्रत्यक्षान्तरस्य = परामर्शमते जायमानस्य साक्षात्कारस्य, अतधात्वं - सिद्धिादिवध्यत्याभाडे अपि अनन्यगन्या = उपायान्तरविरहेण, अनुमितिरूपप्रत्यक्षस्य = नानसत्यव्यायानुमिनित्याग्ज्यजात्याटिनस्प, सिद्धिप्रतिवध्य
कार्यकारणभाव की कल्पना का गौरव नहीं है । जब कि नव्य नास्तिक ना 'पर्वती पहिमान्' इस बुद्धि को पर्चतांश में लौकिकर्मभिकर्षजन्य एवं वहि अंश में अलौकिकसत्रिकर्पजन्य न मान कर मानस अनुमितिरूप मानते हैं । अतएव उनके मन में विशिष्ट्वद्धि के प्रति विशेपणज्ञान कारण है इस नियम से 'परतो बडिमान' इत्याफारक परामशोनम्कालीन शान की उपपत्ति नहीं हो सकती । इसका कारण यह है कि जिसका अपनीतभान होता है उसका विमिटवृद्धि में विशेषणविश्रया ही भान होला है, न कि पिशेष्यरूप से भी । 'एर्वतो वहिमान' इस बुद्धि में पर्वत का मुख्य विशेष्य के रूप में भान होता है। अतएव अलौकिक्रमत्रिकर्पपस्थापित - उपनीन पर्वत का भान 'पर्वता वहिमान' इस द्धि में नहीं माना जा सकता । इसकी संगति के लिए अनुमिति को मानस प्रत्यक्ष मानने पर स्वतंत्र कार्यकारणभाव की कल्पना करनी होगी, जो गौरवग्रस्त हांग में उपादेय नहीं है . यह प्राचीन नास्तिकों का नन्य नास्तिकों के प्रनि वक्तव्य है।
स्त. । रास्तविकता तो यह है कि अनुमिति को मानम गाभात्कारस्वरूप मानने पर जब अग्नि की पत्र. अमिति ही नहीं है उसी काल में अग्नि की दूसरी अनुमिनि होने लगेगी, क्योंकि प्रत्यक्ष हा सिडि से प्रतिबध्य नहीं है। एक बार घट का प्रत्यक्ष होने पर भी दुसरी क्षण में उसका पुनः साक्षात्कार हो सकता है । पूर्वसिद्ध प्रत्यक्ष उसका प्रनिबन्धक नहीं है । अतः एक अग्निअनुमिति वं. अनन्तर द्वितीय अनिअनुमिनि की आपनि र्वार बनी। यहाँ नत्र्य नास्तिक की ओर से
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मान्यपणानविन नान्यसिद्धिः * सिन्दिप्रतिबध्यत्वासायं दोष इति वानराम्, 'सुस्वव्याध्यज्ञानवालि'त्यादिपरामर्शजन्यायां 'सुस्वचानात्मे'त्याधजुमितो विनातीयात्ममत:संयोगजन्यतावच्छेदिकया सार्यान्मानसत्वव्याम्याऽनुमितित्वजात्यसिन्देः ।
सतु - उपदर्शितामितौ सन्निकर्षनियम्यलौकिकविषयतायाः सम्भवेन 'साक्षात्करोमी'तिप्रतीत्यापत्तिरिति - लक्षा, सन्निकर्षजन्यसंशयसाधारण्येन लौकिकान्यविषयताया: 'साक्षात्क
*गयत त्वात = स्वरिषयविषयकज्ञानान्तरनिरूपित प्रतिबव्यत मन्तव्यपगमात्, न अयं = एकानलानुमितिकृतोपि द्वितीयतदापनिलक्षणा दोपः इति नयनास्तिकः वाच्यम्, सिद्धितिबध्यतावच्छंटकस्य मानसत्वयाप्यान्द्रमितित्वस्य खच्या यज्ञानवानित्यादिपरामशं. जन्यायां 'सखवानात्मा' इत्यायमिती विजातीयात्ममन:संयोगजन्यतावच्छेदिकया जात्या माइयांन मानसत्वच्याप्यानुमिनिवजात्यसिद्धेः = मानसत्वव्यायानुमितित्वस्य जानित्वा सम्भवात् । परान जन्य अहं सुखी त्यादिमानसाक्षात्कार विजातीयस्यात्ममन:संयोगम्य जन्यतावच्छदिका जाति स्ति परं भानसत्वच्याप्यामितित्वं न स्ति, परामर्शजयां 'पर्यताविभानि' त्यादिप्रतीनी मानसत्वन्यायान्नुमिनित्वमस्ति परं विजातीयात्ममनःसंयोगकार्यतावच्छेदिका जातिनास्ति, अग्नरान्मा समवेतन तत्यानीनर्विजानीयात्ममनः संयोगाजन्यत्वात् । परामर्शजन्यायां 'मुम्बवानात्मा' इत्यनुमिती दुमपमस्तेि. सुखम्यान्मममंचतवन तातांतर्विजानीयान्ममन:संयोगजन्यत्वात् । इत्यञ्च मानसत्वन्यायामिनित्वस्य विजानीयात्ममन:संयोगकार्यतावदकमात्या साकार जातिवं सम्भवनि | अन एव सिद्धिप्रनिबध्यतावच्छंद्रकलातिनं मानमत्तल्या यानुमिनियन सम्भवतीति कदहनानमितिकृतः-गि द्वितीयतदापनिवारंवानुभितमानसत्वपश्न इति प्रकरणकुटाशयः ।
यन . उपदर्शितानुमिती = परामोत्तरकालीनायां 'गुरुगनारमा' इत्यनुमिला, मनिकपंनियम्पल किकविषयताया = ननाभिधानेन्द्रियसंपत्तात्मयतत्वलक्षान्निकर्पनियन्त्रितलामिकाविषयतानिरूपितवियितायाः. सम्भवन तादशानितिरक्षण. व्यवसायनानोत्पादा व्यवहितानरकालावच्छेदेन 'साक्षात्करामी तिप्रतीत्यापतिः = आत्मनि मुखं, सबित्वना::न्मान. मुबविशिष्टमात्मानं वा साक्षात्कगमि' इत्याकारकानुन्यवयायबुद्ध: प्रसङ्गः । यथा 'अयं घट' इतिगनानी वचः संयोगलक्षणानकर्प - नियम्यलोकिकाविषयनानिरूपिनविषयितायाः सत्वेन तदनन्तरं अहं घट साक्षात्करामी नि प्रतानि प्रति लोकिक विषयनानिरूपित - विषयिताया नियामकत्वादिनि प्रकृतापादनतालायंम् ।।
प्रचणकारस्तदपहस्तयनि - नति । मनिकर्पजन्यसंशयसाधारण्येन = इन्द्रियनिकजन-सन्देह-मलौकिकान्यरिपयतायाः = अलौकिकविषयतानि पिचिपयितायाः. 'साक्षात्करीमी' निर्धाप्रतिबन्धकताकल्पनेन तहापानवकाशात् |
यह कहा जाय कि -> 'अन्य प्रत्यक्ष मिद्धि से अप्रनिबध्य होने पर भी अनुमिनिस्वरूप नानस प्रत्यक्ष नो सिद्धि से प्रतिवन्य ही है . ऐसी कल्पना की जाती है, क्योंकि दूसरा कोई उपाय नहीं है । अनुमितिभिन्नप्रत्यक्ष में सिद्धिप्रनियध्यत्वाभाव की कल्पना करने में पुनः अनुमिति के उदय की आपत्ति को अवकाश नहीं है, क्योंकि वह सिद्धिप्रतिवध्यताकोटिप्रविष्ट है - तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि तो भी अनुमितिन्त्र सांकर्य दोप की बजह जातिस्वरूप नहीं हो सकता है । आशय यह है कि नन्य नयायिक अनुमितित्व को मानसत्वव्याप्य जातिविशेषरूप मानते हैं । जय किसीको 'मुखच्याप्यज्ञानवानई' ऐसा पगमर्ग होता है तब उसके अनन्तर 'अहं सुखचान्' ऐसा मुख का अनुमितिरूप मानस प्रत्यक्ष होता है । 'अहं गरवी' इत्याकारक, पिना परामर्श के होनेवाले, मानस प्रत्यक्ष में विजातीय आत्ममनःसंयोग की जन्यतावच्छदक जाति रहती है मगर अनुमितिल्ल नहीं रहता है। 'अग्निमान् पर्वतः' इस पगमशोनर उत्रि में अनुमिनिन्य रहता है मगर विजातीय आत्मानःतयांग की कार्यनारच्छेदक जानि नहीं रहती है, क्योंकि तादृश आन्ममनःसंयोग में वह जन्य नहीं है। जब कि परामर्शवनरकालीन 'सुरबहान अहं' इस बुद्धि में अनुमितित्व भी रहता है और विजानीय आत्ममनःमयोग की जन्यनारच्छदक जाति भी रहती है । इस तरह संकर दोष की वजह अनुमिनित्व मानसत्वव्याप्यजातिविशेगात्मक नहीं है तब सिद्धि के प्रतिबध्यतावच टकविधया अनुमितित्व जानि का स्वीकार करना कैसं उचित होगा ? अत: अमितिप्रत्यक्ष को सिद्धि मे प्रतिक्थ्य मानना भी अमङ्गन है ।
'
मे' प्राति का आपादन] Ciबिल चन, । अन्य मनीषियों का यहाँ यह आक्षेप है कि → "आत्मा में 'मुम्बच्या यज्ञानवान अहं' इत्याकारक पगम के | बाद 'अहं, मुसी' इत्याकारक नो अनुमिति होनी है उगम मनावरूप इन्द्रिय के स्वसंयुक्तममवतत्वलक्षण मानकर्प सं नियम्य
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६८२ मध्यमस्याद्वादरह खण्ड ३ का. ९४ *अनुमितविययाजकाः *
रोमी' तिधीप्रतिबन्धकताकल्पनेन तद्दोषानवकाशात्, उपदर्शितानुमिती लौकिकाऽलौकिकोभयविषयतायाः स्वीकारात् ।
लौकिकविषयतावनिश्चयत्वेनैव 'साक्षात्करोमी 'तिधीहेतुत्वम् । निश्वयत्वञ्च तदभावप्रकारकत्वानुमितित्वो भयाभाववत्त्वे सति तत्प्रकारकज्ञानत्वम् । अतो नाऽयं दोष इत्यपि कश्चित् । * जयलता है
'परामदजन्यायाः 'सुखवानात्मा' इत्यनुमितरनन्तरं 'सुखितेनात्मानं साक्षात्करोमीतिप्रतीतिप्रसङ्गलक्षणदोषस्या नवकाशात, उपदर्शिनानुमिती = 'सुखानात्मं' लपनुमिती लौकिकाऽलौकिकोभयविपयतायाः = कारणसन्निकर्षनिपम्पलौकिकविधायतातदनियम्यालीकिकविषयतानिरूपितविषयतयो: स्वीकारात् । यदि च लौकिकविषयतानिरूपितविषयितायाः 'साक्षात्करोमीति प्रतीति प्रतिनियामकत्वमेव स्वीक्रियते न तु तां प्रति अलौकिकविपयतानिरूपितविषयितायाः प्रतिबन्धकत्वं तदा तु 'अयं पुरुषों न वा " इति संशयानन्तरमपि साक्षात्करोमीति पीप्रसङ्गस्य दूरत्वम् । अतः तदपाकरणकृतं सन्निकर्षजन्यसन्देह "साक्षात्करोगी' तिश्रीप्रतिबन्धकीभूता अलौकिकवितानिरूपितवति कल्पनीयैव विपयतया साक्षात्करीमी नबुद्धिं प्रति स्वरूपेण वलुप्त प्रतिबन्धकनाकस्यालीकिक विषयत्वस्य सुखवानात्मा' इत्यनुनिताचायजीकारान साक्षात्करोमी निधीप्रसङ्गः तादृशानुमित्यनन्तरमिति तात्पर्यम् ।
कस्यचिन्मत
'सुखवानात्मा' इत्यनुमित्यनन्तरं 'आत्मनि कुखं साक्षात्करोमि इत्यनुव्यवसायनिराकरणाय प्रकरणकार: सुपदर्शयति लौकिकविषयतावनिश्चयत्वेन = लौकिकविषक्ता निरूपितविपरिताविशिष्टनिश्चयत्वेन रूपेण एव 'साक्षात्करोमी'तिहेतुत्वं कल्यते । न चैवं पदस्थम् 'सुखानामेत्यनुमित मनः संयुक्तसमवेतत्वसत्रिकर्मनियम्पलीकिकविषयतानिरूविपथितायाः तदभावा प्रकारत्तविशिष्टप्रकारकज्ञानत्वलक्षणनिश्रयत्वस्य च सत्त्वादिति वाच्यम्, यती निश्रयत्वं च तदभावप्रकारकत्वाऽनुमितित्वो भयाभाववत्त्वे सति तत्प्रकारकज्ञानत्वमिति स्वीक्रियते । अतो न अयं = ‘सुखवानात्नं’त्यनुमित्यनन्तरं 'आत्मनि सुखं साक्षात्करोत्यनुव्यवसायक्ष दीपः परानजन्यां सुखवानात्मेति बुद्धी अनुमितित्वस्य सत्चन लौकिकप्रियता से निरूपित विपयिता मुमकिन है, क्योंकि सुख तो मनसंयुक्त आत्मा में समवेत होता है। तब तो 'अयं घट: ' इस चाक्षुप में लीकिकविपयतानिरूपित विपयिता होने की वजह तदनन्तर 'घटं साक्षात् करोमी' त्याकारक अनुव्यवसाय वृद्धि होती है ठीक वैसे ही 'सुखवानात्मा' इस अनुमिति के बाद आत्मनि सुखं सुखित्वेनाऽऽत्मानं वा साक्षात्करोमि इत्याकारक अनुव्यवसायात्मक बुद्धि भी होने लगेगी" - किन्तु यह आक्षेप इसलिए निराधार है कि 'साक्षात्करोमि ऐसी अनुव्यवसाय प्रतीति के प्रति लौकिकविपयता से भिन्न विपयता से निरूपित वियिता प्रतिबन्धक होती है। अगर यह प्रतिबध्य प्रतिबन्धकभाव मान्य न किया जाय तब तो 'अयं स्थाणुः वा पुरुषी का ?' इत्याकारक चाप सन्देह के अनन्तर भी 'साक्षात्करोमि इत्याकारक प्रतीति होने लगेगी, क्योंकि 'साक्षात्करोमि उस प्रतीति की नियामक लीकिकविषयतानिरूपित विपयिता उस सन्देह में रहती है। दरअसल बात यह है कि इन्द्रियसनिकजन्य संशय के उत्तर काल में किसीको 'साक्षात्करोमि ऐसी प्रतीति नहीं होती है। अतएव इन्द्रियसन्निकर्षजन्य शङ्का आदि में साधारण एक ऐसी अलोविकविषयतानिरूपित विपयिता का स्वीकार करने की आवश्यकता है जो 'साक्षात्करोमि ' इस प्रतीति का प्रतिबन्धक हो। तभी संशय के अनन्तर 'साक्षात्करोमि इस प्रतीति का परिहार हो सकता है। 'साक्षात्करोमि उस प्रतीति की प्रतिबन्धक अलौकिक विषयतानिरूपित विषयिता 'सुचवान् आत्मा' इस अनुमिति में भी रहती है, क्योंकि वह लौकिक एवं अलौकिक विपयता से निरूपित विपयिता का आश्रय है । इस तरह उक्त अनुमिति में प्रतिबन्धक होने की वजह 'साक्षात्करोमि इस प्रतीति का तदनन्तर अवकाश नहीं है । यह प्रासङ्गिक निरूपण है ।
उप । 'अहं सुखी' इस अनुमिति के अनन्तर 'आत्मनि सुखं साक्षात्करोमि इस अनुच्यवसाय प्रतीति के निराकरणाचे अन्य किसी विद्वान का यह वक्तव्य है कि "साक्षात्करोमि इत्याकारक अनुव्यवसाय बुद्धि के प्रति लीकिकविपषितावाला निश्रय ही हेतु है। जिस व्यवसाय में लीकिकविपयनानिरूपितत्रिपयिताविशिष्ट निश्चयत्व रहता है उसके अनन्तर 'साक्षात्करोमि ऐसी बुद्धि होती है। यहाँ कारणतावच्छेदकीभूत निश्वयत्व का शरीर केवल तदभावात्प्रकारकत्वे सति तत्प्रकारकत्वस्वरूप नहीं है किन्तु विशेषणकुक्षि में अनुमितित्त्वाभाव का भी निवेश करना अभिमत है। तब निश्रयत्व का अर्थ होगा तदभावप्रकारकत्व एवं अनुमितित्व उभय के अभाव से विशिष्ट ऐसा तत्प्रकारकज्ञानत्य । 'अहं सुखी' इस अनुमिति में यद्यपि तदभावप्रकारकत्वाऽभावविशिष्ट तत्प्रकारकज्ञानत्व है मगर अनुमितित्व का अभाव नहीं होने से उपर्युक्त नियत्व उसमें नहीं है । अत: उस अनुमिति में
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* अस्वलाका बना* आत्मनः शरीरानतिरेके संयोगस्य पृथक्प्रत्यासतित्वाकल्पनलाघवमपि वार्तम्, अखण्डाभावहेतुताया दूषितत्वात्, अन्याशहेतुताकल्पने गौरवात, महत्त्वोद्भूतमपयोः प्रत्यासत्तिमध्ये निवेशेन सुटिंग्रहार्थ तत्स्वीकारावश्यकत्वादित्यत्या विस्तरः ।
-* जगलता - सामानाधिकरण्यसम्बन्धेन तदभावप्रकारकलानगितित्वोभवाभाविशिष्टताकारकज्ञानत्वलक्षण यनिश्चयत्वं तस्य विरहन् । नत्र लोककविषगतानिरूपितविधयितायाः पचपि निरुक्तनिश्चयत्तग्य विरहग विशेष्याभावप्रयुक्तविशिष्टकारणताबचंदकाभावाश्रपत्यान्न 'मुखधानात्म'न्यनुमित्पनन्तरं 'आन्मनि सुखं साक्षात्कारमी'त्यनुव्यचमायमानः । न हि विशिष्ट कारणतावच्छदकविकलेन कार्यमुत्पादयितुं शक्यते । सन्निकर्षजगन्देहे सत्यपि 'साक्षात्कंगमी निप्रनानग्नुयादश्चियत्वांपादानम् ।
निश्चयत्वे मितित्वाभावघाटनत्वस्य चरत्वात, विशय-विशेषगभाव विनिंगमनाविरहणीभयधिकारणतास्वीकार कारण. तावदकशरीरगीरयात. लाघवेन लौकिकान्यविषयताया एव तत्प्रतिबन्धकत्वकल्पनाचित्याग नेट मनं समर्माचीमिनि प्रदर्शनाय कश्चिदिभिहितम् । ___पायनिकमुक्त्या प्रकरणकार: पुनर्नव्यानिकननव्यपंहकृतं आह - अात्मनः शारीरानतिरेके = कागकारपरिणतभूनपञ्चकात्मक वीक्रियमाणे द्रव्यप्रत्यक्षमात्रयुनिवजात्य वलिन पनि संयोगस्य पृथक्प्रत्यासत्तिन्नाऽकल्पनलाधवपि पाग नव्यनास्तिकप्रदर्शिनं बात = असारम, यतः परमाणघटितमभिकर्णत प्रथ्वालादिप्रत्यक्षनिवारणाय अयोग्यनिघाल्योग्यनिकांद्यभावकूटस्या खण्डाभावत्वन नहेतुता न यानि, उदासीनप्रवंशशास्यां चिनिगमनाविग्हादित्या दायेन प्रकाशकदाह - अखण्डाभावहत्तायाः - अखादा भावत्वन रूपेण कारणताया चित्ररूपवादले नकगंः दृपितन्यात् । अन्यादृशहलुताकल्पन = द्रव्य - तत्समयन प्रत्यक्ष महत्वोडताया : सम्बाय - माननाधिकरण्याभ्यां पृथककाग्गवम्ब कार कारणनायञ्छदकवर्गशर्गर गौरवात्, नदोक्षया परमाणी गृधिगत्यदिग्रहवागणार महत्त्वाद्भनरूपयोः प्रत्यासत्तिमध्यनिवेशन = तत्सतबापकारणताय कादकसन्निकर्षगध्ये प्रवेशेन त्रुटिग्रहार्थ = त्रसंगाचानुवा पत्नय, तत्स्वीकारावश्यकत्वात् = चन:संयोगसन्निकांभ्युपगमरय कप्तल्गन, दिगमचायिनी पण कम्य महन्महानन्धन जुटौ स्पसंयुममहद्य प्रयत्समबनन्यसम्बन्धेन चक्षुपासवान ।
लौकिकविषयतानिरूपित विपयिता होने पर भी तदनन्तर 'साक्षात्कगमि' इस बुद्धि की आपत्ति नहीं आपगी। विशिष्ट कारणनावच्छंदक धर्म का विशेप्याभावप्रयुन अभाव होने पर उस कारण से कार्योत्पनि का आपादान शक्य नहीं है। इसलिए 'सुखच्याप्यज्ञानवानान्मा' इस परामर्श के अनन्तर होनेवाली 'सुग्यवान आत्मा' इस अनुमिति के अनन्नर क्षण में 'मुखित्वेनात्मानं साक्षात्करोमि' इत्याकारक अनुयरमाय वृद्धि की आपत्ति निरवकाश है' -
मान्मनः । अन्य विद्वान का मत प्रदर्शित करन के राद प्रकरणकार श्रीमदजी पुनः नन्य नास्तिक के वक्तव्य की समालोचना कारने हुए यह कहते हैं कि - नन्य नास्तिक ने पूर्व में जो कहा था कि -> 'अनुमिति को मानग प्रत्यक्ष मानने पर स्वसंगोग नामक पृथक = स्वतंत्र प्रत्यक्षकारणनादक प्रत्यासत्ति की कल्पना आवश्यकः न होने से लाघब है - वह भी असंगन है. क्योंकि अग्रण्डाभाव की हेनना पूर्व (चित्ररूपवादस्पद में अनेकशः दृपित की गई है और अन्यविध हेनुता की कल्पना करने में महागौग्य दोष उपस्थित होने में वह मान्य नहीं की जा सकती । आशय यह है कि ज्वगंयुक्तसमनायसम्बन्ध में पक्ष आदि को द्रव्य - तत्समौत के माक्षात्कार का हेतु माना जाप नब तो परमाणुगत पृथ्वीत्वादि के साक्षात्कार की आपनि भाती है । इसलिंग पूर्वोक गनि में अयोग्यवृनियर्मभाव अयोग्यमन्निदिअभाव आदि का कारण मानना नन्य नास्तिक. मतानुसार आवश्यक बनता है । मगर नादृशाभावममुदाय को अम्ण्टाभाववरूप से उसका कारण नहीं माना जा सकता, क्योंकि तादा अखण्टाभाव की प्रतियोगिति में उदासीन का प्रवेश किया जाय या नहीं ? इस विषय में कोई चिनिगमक नहीं है । अनाब अखण्रभावन हेनता का पहले खण्डन किया गया था। यदि इस आपत्ति के निवारणार्थ महत्व और उद्धतरूप को दव्य नत्ममवतप्रत्यक्ष के प्रति स्वतन्त्र कारण माना जाय तब तो गोग्य दांप प्रसक्त होगा। इसकी अपेक्षा तो उचित पही है, कि. एग्माणनि गृथ्वीत्वआदि के बाप के परिहागथं महत्व और उदभुनरूप का प्रन्यामनिझार्ग में प्रवेश कर के ग्वसंयुकमहङ्गतरूपवन्यमवेतत्व सम्बन्ध में वक्ष को द्रव्य · तत्समवताविषयक चाक्षुप के प्रति कारण माना जाय तब परमाणुसमन धिचीत्व की चाभपात्यान की कोई आपनि नहीं आयगी । मगर तर प्रसारण का बानप प्रत्यक्ष न हो मकंगा, क्योंकि यणक में महन्च नहीं होने में असरण चक्षामंयकमहत्ममवन नहीं है । अनएन त्रसंगण के साथ चा का स्वर्गयुक्तमद्धतम्रवन्समवंतत्वसम्बन्ध सम्भव नहीं
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१.८४ मध्यमस्य दादरम्य खण्डः ३ . का. १५ *सचिन्तामणिद्वयनमण्टनम *
किछ, शरीरस्याऽऽत्मत्वे 'अहमात्मे तिवद 'अहं शरीरमि'तिप्रत्ययोऽपि प्रमा स्यात, न स्थाच्च 'अहमात्मवाति तिवद 'अहं शरीरवानिति अपि ।
दिककालयोरनतिरेके च न किचिनिष्टं नः, आकाशस्यैव दिकत्वात, उदयाचलादिसन्निहितेन तेनैव प्राच्यादिव्यपदेशात् ।। नाम:
-* राता - तदुक्तमाक्षेपपरिहारपूर्व तत्त्वचिन्तामणी 'ननु संयुक्तसमवायनाइवयचिग्रहास्तु न तु संयोगादिस्तत्र हनः, तस्य म्पादिनहे. तृप्तत्यान् । न च टायबाट स्थान पन तथा, तस्य कल्पनीयकारणत्वादिनि चेत् ? न, आत्मग्रहे इन्द्रियसंयोगस्य कारणत्वादन्यत्रापि द्रव्यसाक्षात्कारत्वन तथा कल्पनात् । नव (आत्ममानमत्यम्यव मन:संयोगकायंदावन्दकल्यान) बहिरिन्द्रियजद्रयग्रहवांचिग्रहे वा संयुकसमयाय : कारणं लावन संयोगऱ्याच कारणत्वन कल्पनात' (न.चिं.प्र.रवण्ई सन्निकर्षवादः - पृ...८८) इति । युक्त श्चतत स्याः वयवसंयोगापेक्ष्या स्वसंयोगस्य लघुत्वन हेतुत्वाचित्यात् । न चैवं परसमयप्रवेश इति वाच्यम्, नपान्तरणाभाविटनपान्तरखन्डनस्यापि शास्त्रार्थलान, 'दष्टांशमंदता नाही दपद विपकण्टक' इनिन्यायादित्यादि प्रिया विनावायं सुधीभिः ।
प्रकृत एव दोपान्तरमावदति - किति । शरीरस्म आत्मत्वं = आत्मपदयाच्या भिन्नत्व स्वीक्रियमाण 'अहमात्मा' इतिवत् 'अहं शरीरमित्यपि प्रमा स्यात्, आत्मदागरपदयारनान्तरतास्वीकारात । उपलक्षणात् 'अह शरीर वान' इनियत 'अई. आत्मवान्' इत्याए प्रमा म्यात । तधा न स्याच 'अहमात्मवानि'तिवन 'अहं शरीरवानि त्यपि । यथा 'अहमात्मनानि तिप्रतातिनं भवति नदेय 'अहं द्वाररवानिदि प्रतानिनं स्यात । भवति च 'अहं शर्गवानि निधा: । ततश्च नदन्यथा-- नुपपन्या झर्गत्मनाभेदः स्वातंत्र्य एव । 'गुर्वी में तनुः' इत्यादी भंदददांनादपि नयाभदायगन्तव्यः । अनन 'अहं. जाने' इत्यादेनं नान्नल्यं, आई गम:' उत्पाद भन्निन्वमित्यत्र किं विनिगमकं ? इत्यपि प्रत्याख्यातम्, 'गर्मी में तनः' इत्यादी भंदोलखाधुना तस्य भ्रान्तमा 'अझ जाने इत्यादौ तु बाधकानयतारादेवा:भ्रान्नन्यम् । यद्यप ‘ममात्मा' इत्यदापि पाठीप्रयोग. दमयने तथापि गरुत्वादावाहन्वयाधिकरणलं. अन्यत्र लगत्यात, इदन्त्वसंचलनवाच्च, न तु ज्ञानादाविन्यत्र तात्पर्यमिति व्यतमेव स्यावाटकल्पलतायाम् ।।
नूतननास्तिकमतनिराकरण वक्तव्यदारमाह . दिककालयो: अनतिक = द्रव्यान्तरत्वविरह, च न किञिानिएं नः = स्यावादिनाभस्माकम, आकाशस्पैच दिकत्वात् - दिकत्वाभ्युपगमात् । न चातिरिक्तदिग्दन्यस्याः मन्वं कथं प्रायदिव्यबहार नियहदिति वाच्यम, उदयाचलादिमनिहितेन ननैव = आकाशनंब, प्राच्यादिन्यपदेशात = वांदिव्यवहारांपपन:, नदनं है । अतः संग्णु के चाक्षुप की उपपत्ति के लिए संयोग को स्वतन्त्र सत्रिका मानना आवश्यक है । इसलिए आन्मशरीरबादी नल्पनास्तिक का यह वक्तव्य कि -> 'हमारे मन में मयांग को पृथक् द्रव्यप्रत्यक्षकारणतावच्छेदक सम्बन्ध मानने की आवश्यकता न होने में लाघन है' -नितान्न तथ्यहीन है . सा सिद्ध होता है। इस विषय का विस्तार अन्यत्र प्राप्य होने से प्रकरणकार ने यहाँ इस विषय का विस्तार में निरूपण नहीं किया है । (देग्विये, दिव्यदान ट्रस्ट प्रकाशित न्यायालोक सटीक मविवरण)
किश्च.। इसके अनिग्नि, नव्य नास्तिक के मत में दोप यह है कि 'अहं आत्मा यह प्रतीति नग प्रमा है ठीक वैस ही 'अहं शरीरं यह प्रनीति भी प्रमात्मक हो जायगी, क्योंकि आन्मा और दागेर उनके मतानमार अभिन्न है। अनः आत्मा कहो या शरीर कहां - अर्थ में तो कोई फर्क नहीं है । तथा जैसे मब गंगा का 'अहं. आत्मवान् मी प्रनीति नहीं होती है ठीक वैसे ही 'अहं शरीरवान्' : ' में शीरवाला है। यह प्रतीति भी नहीं हो सका, म्यांकि आत्मा शरीर में अतिग्निरूप से उन्हें अमान्य है। आत्मा को शरीगामक मानन पर जिस प्रनीति में आत्मा का भान होता है उस प्रनीति में आत्मा के स्थान में शरीर का उन्मुख होने पर उप प्रनानि को अमान्य नहीं किया जा सकता है । पत्रं जिम प्रतीति में आत्मा का अवगाहन नहीं होता है उस प्रतीति में आत्मा के स्थान में शरीर की उपस्थिति का इकरार नहीं किया जा सकता । उपर्युन दांपों के गबन आत्मा को गरोगन्मक = दारोगाऽभित्र नहीं मानी जा सकती। नव्यनानिकों ने पूर्व (पु.१५॥ में जा कहा था कि दिशा में काल नामक अतिरिक तत्त्व नहीं है' नह नो इमार मन में दीपावह नहीं है, क्योंकि हम | स्यावाटी भी दिशा को आकासात्मक ही मानते हैं, न कि अतिरिक्त व्यस्वरूप । यद्यपि आकाग एक ही है और दिशा नो पूर्व, पश्चिम भाति भंद से अनेकविध है अधापि 'यह पूर्व दिशा है'. 'वह पश्चिम दिशा है' इत्यादि व्यपदेश = व्यवहार की असहनि की आपनि नहीं है, क्योंकि उदयाचल के मविहित आकाश में पूर्वटिशा, अस्ताचलावन्दिन्न आकाश में पवित्र दिशा, मेमपनत्तममीप आकाश में उत्तर दिशा इत्यादि व्यवहार हो सकता है।
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*दिशा प्रतिक रगद्वादरम्नान गिरानीगन्नामित नन्वेवमुदयाचलादिसग्निहितधर्मास्तिकायादेरपि कुतो न दिकत्वम् ? 'मत्यादिहेतुकत्वेन क्लुप्तात्ततः परत्वाऽपरत्वातिव्यवहारहेतुतया कल्प्यमाना दितिरिच्यत' इति चेत् ? तर्हि अवगाहनाहेतुत्वेन क्लुपादाकाशादपि सा कुतो नातिरिच्यते ? इति चेत् ? अभ बूमः
- जयलता हैस्याद्वादरत्नाकरे --> 'आकाशगंटवाणिववादियोट्यादिवतात प्राच्यादिन्यवहारोपपन्नः । तथा चैषां = नितकत्वं स्यान । तथाभूतप्रान्यादिदिकसम्बन्धाच मूर्तद्रव्ययु पूवापरादिप्रत्ययविदोषस्यात्पनेनं परस्परापेक्षया मूर्तद्रव्याण्यच नद्धतव यनैकतरस्य पूर्वत्वासिद्धिः सदसिद्धी चकतरस्य पूर्णत्वा ? अपरत ) सिद्धिरित नतराश्रयत्वन पूर्वापरप्रत्ययाभावः रणन् । ननु मूनंद्रपु पूर्वादिप्रत्ययस्याकाशन देवाश्रेणितत्त्वे आफशप्रदेवश्रेणापि तात्ययस्य किं हेतुत्वं ग्यादिति चेत् ? स्वरूपहेनुत्वमेवेति बमः । सनादेशपङ्कने: स्वपररूपयां: पूरादिप्रत्ययहतम्बर त्यात प्रकादास्य स्वपरम्पया: प्रकाशहतम्बरूपवत' - (प्र.न.न, परि.:/सू. ८.म्या... पृ. ८५.८) इति ।
तत्त्वार्थसिद्धसनीयवृतावपि - 'आकाशप्रन्दना व विशिष्टरचनाभा जो दिग्न्य प्रदेशमवरुध्यन्ति, न च तद्न्यतिरकण नत्स्वरूपोपलब्धिर्दिश्शामरतीनि' (ने.सू.-/३.मि.उ.) इत्युक्तः । अकलदेवोऽपि तन्वार्धराजबार्तिक “दिशोग्याकाशेतमांव आदित्योदयायपेक्षया आकाहानदेशानिए 'इत इम"न व्यवहारांपपनेः' (त.रा.वा. -/३/८) इत्युक्तवान् । एतेन दान्तिकादिहतरेका नित्या दिगन्यते || इति कारिंशावलीकारयचनं प्रत्यास्यातम् । नदयनं उत्त्वार्थश्लोकवार्तिकेऽपि 'आकाशगंददाश्रेणिः दिक, न नईभ्यान्तरम् (न....७.२१) ।
तिचन्द्या पूर्वपक्षान . नन्विति । एवं = अवयम्नद्रव्यगय प्रान्यादिव्यपदेशापपादन भिमने सति, उदयाचलादिसत्रिहित-धर्मास्तिकायादेरपि कृती न विकत्वं ग्यात यगंदयाचलादिसत्रिहिनामासस्यव धर्माधर्माकाशास्तिकायादान चिनिगमनाविरहणानिरिनं दिग्दव्यमध्यपगन्तव्यमित्याक्षपाशवः । ननु गत त्वेन - गतिस्थित्यादिकारणत्वेन क्लमात् = प्रमाणसिहान ततः = तस्मान् धर्मास्तिकायादः परत्वापरत्वादिन्यवहारह या = देशिकपरत्वापरत्वादिप्रकारकधी- शब्दव्यबहारकरणतया, कलायमाना = अनुमीयमाना दिगतिरिच्यते इति । गत्यादिहतुत्वेन मिदान धर्माद: परवादिन्यवहारनिर्वाहा गम्भवात् दिक नतिरिक्रत्याशयः दाहाकनः । प्रतिबन्या समाधनं , तर्हि = गतिप्रभूनिहेतुत्वसिद्भधर्मादितो दिशोऽतिरिक्तन्यसाधने अवगाहनाहेनुत्वेन क्लुप्मात् = सिद्धान. आकाशापि परत्वापरत्वादिधर्धा - व्यवहारहेतुत्वेन कल्प्यमाना मा = दिक कुतः नातिरिच्यते, आक्षेप-परिहारयोः तुल्ययोगक्षमत्त्वात परत्वापरल्वादिधीव्यवहारहेतुत्वना नुमायमाना दिग यधा गत्यादिहतुपन सिद्धात धर्मादिना व्यतिरिच्यते नधा वगाहनानुत्वेन सिद्धादाकाशादाय - तिरिच्यते । इत्थञ्च कलमानां विनिगमनाविरहणातिरिक्तादाद्रव्यसिद्धिरिति नन्चाशयः ।
उनरपक्षयति - अत्र चूम इति । अतिरिक्ताकाशमाधनघटकीभूता अवगाहना हि न संयोगदानं + संयोगदानत्वं संयोग
पूर्वपक्ष:- नन्। उदयाचल आदि सन्निहित आकाश ही दिशा है, न कि उदयाचल आदि मन्त्रहिन श्म स्तिकाय आदि • इस विषय में कोई चिनिगमक नहीं होने से आकाश की भाँनि धर्मास्तिकाय आदि स्वरूप दिद्याद्रव्य का स्वीकार करना पडेगा। मतलब कि रयाद्वाटी ने जैस दिशा पदार्थ को आकाशस्वरूप माना है टीम बस ही धर्मास्तिकाय आतिस्वरूप भी भाना होगा । यहाँ इस कथन में कि -> 'धारितकाय आदि द्रव्य तो गत आदि में हैन होता है । जब कि. दिशा नो परत्व, अपरल आदि व्यवहार का हेतु है। इसलिए गनि. स्थिति के हनुविधया आवश्यक धर्मास्तिकाय, अथर्मास्निकाय मे परत्व, अपरत्व आदि व्यवहार की हेतुना सम्भावित नहीं हो सकती । इमलिए धर्मास्तिकाय या अधर्मास्तिकायस्वरूप दिशा नहीं है' -भी स्याद्रादी को बचाय न मिलेगा, क्योंकि तब नो तुल्य पक्ति से यह भी कहा जा सकता है कि भाकाशद्रव्य नां अवगाहना का हेतु होता है । अवगाहना के कारणविधया कल्यभान आकाश से परव, अपरत्व आदि व्यवहार की हेनुता सम्भविन हो सकती नहीं है। इसलिए परत्वाऽपरत्वादिन्यवहार के जनकरूप से दिक्षा भी आकागस्वरूप न हो कर अतिरिक्त द्रव्यविधया सिद्ध हो सकती है। अतः जैसे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाप, आकाग आदि बनत्र द्रव्यम्प से जैनदर्शन में स्वीकृत है, ठीक वैसे ही दिशा का भी स्वतन्त्रद्रव्यविधया स्वीकार करना न्यायपास है।
sion] विचार उनरपक्ष :- चमः। 'आकाश अवगाहनाताप ये सिद्ध होने की वजह दिशा आकाशम्वरूप नहीं बन सकती'
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६४६ मध्यमस्याद्वाटरहस्य एण्डः ३ . क.११
* कान्ट गया नननगम: *
अवगाहना हि न संयोगदानं उपग्रहो वा, अन्यसाधारणत्वात, किन्तु आधारत्वपर्याय: । तथा च 'इह विहग' इत्यादी सम्बन्धघटकतया सिध्यभाकाश: परमार्थतो दिवेति तत्त्वम् । कालच जीवाऽजीवयोर्वर्तनापर्याय एवेति न तस्याप्याधिक्यमभिमतम् ।
जयतता हेतुत्वं वा सम्भवति पटादावपि गतत्वेन अन्यसाधारणत्वात् । नापि सा उपग़हः सम्भवनि जीवादागि गत्वन अन्यसाधारणस्वात् । अन्यसाधारणकार्यहतत्वेनानिरिकद्रव्यसिद्धिर्न सम्भवनि. अतिप्रसङ्गात् । किन्तु अवगाहना हि आधारत्वपर्यायः । आकाशस्य स्वमते सर्वाधारत्वात् । यत्तु कान्ट-हंगलादिभिः स्वतन्त्रं गगनद्रव्यं नास्तीनि गदितं तत्तु रमेल-जेकोचिबलरप्रभतिभिरवातिरिक्ताकाशीकर्तभिनिरस्टमिति नो न नत्र यत्नः । इत्यञ्च आधारत्वपयां यहतलन सेवादाकामाद पनत्रात्यादिधान्यवहारोपपत्नी मानिरिक्तं दिग्द्रय कलापितमहनीत्याशयेनाह - नथा च '१६ विहग' इत्यादी सम्बन्धघटकतया सिद्धयन् आकाशः परमार्थतो दिगेव । ननश्च दगाकाशयोरभेन एव इति नत्यम् । न च ह इत्यालोकमण्डलमंत्र प्रतीयत इति वाच्यम्, तदालोकव्यक्तेरन्यत्र गतापि तदर्शनात् । न चालोकान्तरं तद्विषय इति वक्तव्यम्, 'तत्रैव' इति प्रा भज्ञानानुपपनः । न चालोकत्वनैव तदाधारत्वान्नानुपपनिरिति गच्यम्, आलोकविरह-पि तत्रैच' इतिप्रत्यभिज्ञानात् । न च भूनद्रव्याभावाधारयन तदुपपत्तिः सत्यालाक तदभावात् देशविदोपमवच्छेदकं प्रताप व 'इह बिहग' इतिप्रयागाच । ततश्च ‘इह बिहग' इत्यत्रत - दंदशावच्छिन्नाकाशनिष्ठाभारतानिरूपिताधेयतावान विग' यद्रा ‘स्वावच्छिन्नाकाशनिष्टाधारनानिरूपिताधयत वन्यसम्बन्ने दावान बिहगः' इत्यत्र स्वारमिक: बोधः । सम्बन्धघटकचाकाशी दिक्वन व्यवाहियनामिनि स्याद्वादिना माशयः।
तथापि कालो तिरियेतनि शङ्कायामाह . कालभ जीवाजीवयोः वर्तनापर्याय पवन न वर्तनापयांयाश्रयो वतनापयांधातिरिक्तः कश्चिदिति न तस्य = कालस्य अपि आधिक्यं ज्यादादिनामस्माकं अभिमत्तम् । वर्तना नाम प्रनिद्रव्य पर्यायमन्तीतकसमया म्वसत्तानुभूनि: 'अन्ततिकसभर बसनानुभवाभिधा । यः प्रतिद्रव्यपायं वर्तना संह कीय॑त ।।' इतिवचनान् । न च सातिरिका किन्तु जीवाजीवपर्यायात्मिक, पर्याय न पर्यायिणः सबंधा पृथक् । त्तश्च जीवानावारव कालमिनि तात्पर्यम् । इदमवाभिप्रेत्य जीवाभिगमादी ‘स किं भववं कालानि पुच्चड ? गोगमा ! जौरा चंच अजाया अब काला नि पच्चई' (जीवा.) इति परमेश्वरेण प्राकम् । युक्तञ्चतन् - तर्जनीनिष्ठस्य द्वस्वत्वस्य अनामिकापेक्षत्ववत् घटादिनिष्टस्य वर्तनापर्यायस्य वनमानसूर्यक्रियासापेक्षचात् । नत एव 'इदानी घटः' इति धान्यवहारोपपत्तः न स्वसंयुक्तसंयुकसमवायलक्षणपरम्परासम्बन्धघटकाविधया कालसिद्धिः । समयक्षेत्रमथसूक्रियापक्षयच नह्निः परत्यादिश्चवहारस्य तत्र तत्र प्रसिद्धत्वात् । भासर्वज्ञरघुनाथ-शिरोमणिप्रभृतीनां जर्मनजनपदीय-कान्टामुग्वानाच दिककालयाईच्यान्नम्त्वमनभिमतं किं पुनगरमा स्याद्वादिनाम:
-एमा जो कथन अभी किया गया है वह ठीक नहीं है, क्योंकि अवगाहना का अर्थ 'संयोग टेना' यह नहीं है, क्योंकि वह तो घट-पट आदि में भी रहने से घट, पट आदि को आकाश कहने की आपत्ति आयगी । अवगाहना का अर्थ यग्रह यानी दूसरों पर उपकार करना-यह भी नहीं है, क्योंकि जीव भी दूसरों का उपग्रह करने से वह कंबल आकागद्रव्य का गुण न हो कर आकाश, जीव आदि का साधारण गण हो जावेगा । अनक द्रव्य में साधारण गुण से अतिरिक्त द्रव्य की मिद्धि नहीं हो सकती। अतः आकाश में अतिरिकगन्यत्व का साधक हेतुभूत जो अवगाहनापदार्थ है यह आधारनापर्यायस्वरूप है। आधारनापर्यायस्वरूप अवगहना केवल आकाश का ही गुण है। इसीलिए तो इह विहगः' इत्यादि प्रतीनि में सम्बन्ध के घटकविधया सिद्ध होनपाला आकाराद्रव्य ही परमार्थ से दिशाद्रव्य है, क्योंकि आलोकमण्डल, आदि का पक्षी का आधार नहीं माना जा सकता । 'ह' गन से आकाश का ही स्वीकार करना उचित है। अतः जन्य मूर्त पदार्थ के आधाथिया दिगा को मान्य करनेवाले नैयायिक आदि मनीरिया का मन भी निगकृत हो जाता है । जैम दिशा जीचादि पांच अन्य में अतिरिक्त नहीं है ठीक वैसे ही काल भी पंचारितकाय से अतिरिक्त नहीं है, क्योंकि कान, तो जीव और अजीव द्रव्य के वर्तनापर्यायस्वरूप ही है। वर्ननापाय से अतिरिक्त एवं वर्तनापर्यार का आधारस्वरूप स्वतन्त्र पारद्रव्य हम स्याद्वादियों || को मान्य नहीं होने में अतिरिक्त काल द्रव्य का प्रतिक्षप करनेवाले नव्य नास्तियों ने हमें महायता ही की है । नदर्भ वे धन्यवाद के पात्र हैं।
* दिया और picन द्रा - सारिका *
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रिनारकानवनार*
___ या 'प्राच्यां घटः' इत्यादावुदयाचलसंयोगादिरूपणाच्यादेतादिना साक्षात्सम्बन्धबाधात् तत्संयुक्तसंयोगादिरूपपरम्परासाबन्धघटकतत्यका विश्वेव च दिक सिध्यति, आकाशात्मनोरतिप्रसङ्घन तत्सम्बन्धाऽघटकत्वात् । एवं कालोऽपि तपनपरिस्पन्दनियतसम्बन्धघटकत्वेन
- जयला * नैयायिकम्तं दूपयितुमपन्यन्यति - यत्तु प्राग त्यानापान । या य::' इत्यादी ज्ञाने व्यबहार च उदयाचलसंयोगादिरूपप्राच्यादः व्यबहिनत्वन घटादिना सह साक्षात्सम्बन्धवाधान परम्परासम्बन्ध एव कल्पनीय इति तत्संयुक्तसंयोगादिरूपपरम्परागम्बन्धघटकनया = स्वरभक्तसंयोगलक्षणसम्परागर्गघटकविधया एका निर्वच च दिक सिध्यति । स्वेन संयुक्त दिव्यं नत्रयुनश्च घटादिः । नतः पसंयुक्तसंयोगप्रत्यासन्या प्राच्यादिः घटादिना यम्यते । दिग्दन्यं चन्न नहि. विभिन्न. द्रव्यषु तदन्यवहारानुगंधादनंकद्रव्यकल्पनागौरचम, तम्या:सर्वगनव युगपत्सन्निकृष्ट - विप्रष्ट-नाना द्रव्येषु तादशधाव्यवहारानुपपनिगिनि दिश गकत्वं विभत्वञ्च धर्मिग्राहकमानसिद्धग । न च स्वसंयुक्तसंयोगप्रत्यासनिघटकविधया काशस्यात्मनो वा बाकार उचितः कप्तत्वादिति वक्तव्यम्, आकाशात्मनीः निरुन प्रत्यासजिघटकविधयाङ्गाकार अतिप्रसङ्गन = अनिप्रसङ्गापान तत्सम्बन्धाऽघटकत्वात् । एवं कालोऽपि इति । 'इदानीं घटः' = 'अस्यां सूर्यक्रियायः घटः' इत्यत्र सूर्यपरिस्पन्दक्रियया साकं घटस्थ साक्षात्सम्बन्धनाधान स्वगंयुक्तसंयुकामवायम्पपरस्पासम्बन्धघटकतया निरिनकाल: सिध्यनि, ज्वेन - बटन मंयुक्तां य: काल; नत्संयुक्त सूर्य परिस्पन्दक्रियाया: समवेतन स्वसंयुक्त संयुक्तसमवायसम्बन्धन घटस्य सूर्यपरिम्पन्द्रक्रियावृनिन्, सिध्यति । एवं परत्वादि-धीत्र्यवहारहेतृत्वनापि कालसिद्धिः ददया । यदि च स एको न स्यानहि नाना द्रश्यप नारधीव्यवहागनरोधनानन्तकालकल्पनापत्तिः । यदि । स सर्वव्यापी न स्याचाहि दरस्थ - समापरथनानाद्राणु युगपनागभीमबहागनुपानिमिति धर्मिग्राहकमाननव कालस्यकलं विभत्वच सिध्यतीति यत्ततापर्यम् ।।
बनु । दिशा और काल को स्वतन्त्र द्रव्य माननेवाले नैयायिकों का यह मन्नन्य है कि -> "लोगों को यह प्रतीनि होती है कि 'प्रान्यां घट:' यानी 'घट पूर्व दिशा में है' । जगे 'भूतले घटः' इस प्रतीति में घट के साथ भूतल का माक्षात (मंयोगनामक) सम्बन्ध होता है वैसे उपयुक्त प्रतीनि में प्राचीपदार्थ को उदयाचलमयोगस्वरूप मानने पर घट के नाच उदर्यागी के संयोग का साक्षात्सम्बन्ध नहीं हो सकता है, क्योंकि उदयगिरि यहाँ में अपरिमित योजन दूर है और घद यहाँ है । बिना सम्बन्ध के नो आधाराधयभावारगाही 'प्रायां घटा' ऐसी प्रतीति उपपत्र नहीं हो सकती है। अतः उदयाचलसंयुक्त यापक दिशा द्रव्य की कल्पना करन होगी जो उदयगिरि और घट के माध संयुक्त होने की वजह उदयपर्वत के साथ पट का स्वसंयुकर्मयोगमम्बन्ध सम्भषित बनने से 'प्राच्या घटः' इस प्रतीनि की उपपत्ति हो सकती है। इस तरह 'प्राच्या घट:' इम प्रतीति में स्वसंयुक्तसंयोगरूप परम्परासम्बन्ध के घटकविधया एक और विभु = सर्वव्यापी विवादल्य की सिद्धि होती है, क्योंकि आकाश या आत्मा को उक्त सम्बन्ध का घटक मानने पर अतिप्रसा दोष आने की वजह आवाश, आत्मा उस सम्बन्ध के घटक नहीं माने जा सकते हैं। जैसे दिवा स्वतन्त्र द्रव्य है दीक वैसे ही काल भी एक अतिरिक्त विभु द्रव्य है, जिमकी मिद्धि इस तरह की जा मकती है कि 'इदानी घटः = अस्या सूर्यक्रियायां घटा'. 'सूर्य की अमुक क्रिया में घट है। इस प्रकार की बुद्धि का होना सर्वमान्य है। यह बुद्धि सूर्य क्रिया के साथ मम्बन्ध को विपय करनी है । यह सुनिश्चित है कि सूर्यक्रिया के साथ दूरस्थ यद का कोई साक्षात सम्बन्ध न होने से काई परम्पगसम्बन्ध ही मान्य करना पंडगा और वह तभी हो सकता है यदि सूर्य और पद को जोड़नेवाला कोई पदाध हो, जिसके द्वाग सूर्यक्रिया के गाय घट का स्वसंयुक्तसंयुक्तसमवायरूप परम्पगसम्बन्ध बन मके 1 काल एक ऐसा व्यापक पदार्थ है जो एक ही समय सूर्य और घट दोनों के माध संयुक्त होता है । फलत: घट में संयुक्त होता है काल और काल में संयुक्त होना है सूर्य और सूर्य का समवायसम्बन्ध होता है सूर्यक्रिया के साथ । इस नग्ह सूर्यपरिस्पन्द्रक्रिया के घटकविधया एक और व्यापक = रिभ कालद्रव्य की सिद्धि होती है। यदि उसे एक न माना जाय तर विभिन्न देश में रहे हा विभित्र द्रव्यां में युगपत् 'इदानी' इत्याकारक प्रतीति की उपपनि करने के लिए. अनन्त द्रव्यों की गुरुनर कल्पना करनी होगी एवं यदि उसे विभु न माना जायगा तो ! विभिन्न देश में रहे हा. अनेक द्रव्यों के साथ उसका युगपत मंयोग न होने से उनमें एककालीन 'इदानीं मी प्रतीति न हो सकेगी । इस तरह पक, अतिरिक्त और विभ ऐसे दिशाद्रव्य एव कालद्रव्य का स्वीकार करना आवश्यक है" -
EMATLATतितिक दिशादत्य अनुपपल्ला - म्यादादी ।
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६८८ मध्यमस्याद्वादरहरये खण्ड २ का.११ मुक्तावली नियोनिराकरणम् **
चैको विभुरेव सिध्यतीति, तम, दिशः सर्वथैकत्वे 'प्राच्यां घट' इतिवत् 'प्रतीच्यां घर' इत्यस्याप्यापत्तेः, एकस्या दिशोऽविशेषेणोदयाचलास्ताचलसम्बन्धकत्वात् ।
अथ धर्मिग्राहकमानेन स्वभावतस्ततद् दिशि तत्तत्पदार्थानामेव सम्बन्ध इति नातिप्रसङ्ग इति चेत् ? वर्हि आकाशस्यैव प्रतिनियतसम्बन्धघटकत्वं कुतो न कल्प्यते ? 'धर्मिकल्पनात '
अब प्रकरणकारः प्राह तन सम्यक दिशः सर्वधैकत्वं स्वीक्रियमाणं 'प्राच्यां घटः' इतिवत् तदैव तत्रैव प्रतीच्या घट' इत्यस्याप्यापत्तेः एकस्या विशोऽविशेषेण समानरूपेण उदयाचलास्ताचलसम्बन्धकत्वात् = उदयगिरीस्तगिरिसम्बद्ध
=
स्वात । एतेन दिदा एकलं प्रत्युक्तम् । अथ धर्मग्राहकमानेन दिलक्षणधर्मिसाधकप्रमाणेन स्वभावतः प्रदर्शितप्रतीती तत्तद्विशि तत्तत्पदार्थानामंच सम्बन्धी भासने नाचलादिए तदुदिश: सम्बन्ध इति नातिप्रसङ्गः = तत्तत्रदार्थानामेकत्यविभुत्वयोरभावान्नाविशेषण सर्वासु दिक्षु सम्बद्धमिति 'प्राच्यां वट' इतिधाव न तदा प्रतीच्यां घर' इतिप्रतीतित्सङ्ग इति चेत् १ तर्हि भाकाशस्यैव 'धर्मिकल्पनाती धर्मकल्पना लघीयसी नि प्रतिनियत्तसम्बन्धघटकत्वं कुतो न कल्प्यते ? 'धर्मिकल्पनात' इत्यादित्यायात् न्यायात् । त्वयाऽतिरिक्त दिव्यं कल्पनीयं तत्र च दिवं तत्समवाय एकत्वं विभुत्वं द्रव्यादिभेद इत्यादिकञ्च स्वतंत्र्यं तदपेक्षया कम गगन एवं दिवत्वं कल्यतां लाघवान् । सर्वपामेव वर्षाणां मेरुरुतरत:' इत्यादिवचनात् गगनप्रदेशस्येव उदीच्यादिव्यवहारोपपत्तावतिरिक्तदिग्वकल्पनया सुतं गौरवान अन्यथा द्रव्यातिरिकल्य कल्पनापनेः 'अयमत पूर्वी देश' इत्यादिप्रत्ययस्याऽपि देशद्रव्यमन्तरेणानुपपन्नः । एतेन श्रनुरूपस्योदयगिरिसन्निहिता या दिक सा तत्पुरुषस्य प्राची एवमुदयगिरिव्यवहिता या दिक सा प्रतीची एवं गुरूपस्य गुरुसन्निहिता या दिक सांडीची तद्व्यवहिता त्याची' (का.८७. मु.पु. ३७८१ इति मुक्तावलीकारवचननपि परास्तम्, आकाशप्रदेशश्रेणिष्वपि तदुपपतेः ।
=
=
वस्तुत: 'ततः प्राच्याम' इत्यादी तदपेक्षया सन्निहितं दयावदसंभोगावच्छिनाकाशवृत्तिरयमित्येव स्वारसिकीऽर्थः । तन न दिशोऽतिरेकः । तदपेक्षत्वस्य सन्निहितत्वस्य च तथास्वभावविशेयत्वम् । एतेन तदपेक्षयोदयगिरिसन्निहितत्वञ्च ऋष्ठदयगिरिसंयुक्तसंयोगापेक्षयाऽल्पतरीदयगिरिसंयुक्त् । इत्यच मधुराया: प्राच्यः प्रयाग' इत्यत्र मथुरानिष्ठोदयगिरिसंयुक्तपोगपर्याप्त संख्याव्याप्यसङख्यापर्याप्त्यधिकरणादगिरिसंयुक्तसंयोगवन्मृतंवृत्तिः प्रयाग इत्यन्वयबाधः ' (मु. दि. पू. ३७० ) इत्ति | दिनकरीयकारवचनमप्यपास्तम्, तथाऽननुभवात् आगमानुभवान्यामाकाशस्यैव सर्वाधारन कुकुमतथा दिवन मूर्तस्यानाधारत्वाच्च ।
लन्न दि। मगर विचार करने पर नैयायिक अभिमत आकशातिरिक्त एक दिशाद्रव्य का स्वीकार नहीं किया जा सकता, दिशा को सर्वधा एक अखण्ड मानने पर जैसे पूर्व में घट है। ऐसी प्रतीत होती है ठीक वैसे ही 'पश्चिम में घट है' ऐसी बुद्धि भी होने लगेगी, क्योंकि दिशा तो एक ही होने की वजह उदयाचल की भाँति अस्ताचल से भी समानरूप से सम्बद्ध हैं। दिशा का उदयाचल और अस्ताचल के साथ समानरूप से सम्बन्ध होने पर पूर्व में ही पट है, न कि पश्चिम में इसकी अनुपपत्ति हो जायेगी। यदि इसके परिहारार्थ नैयाबिक की ओर से कहा जाय कि 'दिशा तो वस्तुतः एक ही है मगर पूर्व में घट है' इत्यादि प्रतीति एवं व्यवहार में जिस सम्बन्ध का भान होता है वह तथास्वभाव से उदयाचलादि के साथ दिशा का सम्बन्ध नहीं मगर तत् तत् दिशा में तन तन पदार्थ का सम्बन्ध है, जो दिशास्वरूप धर्मी के ग्राहक = साधक प्रमाण से ही सिद्ध है । घटादि पदार्थ तो एक एवं व्यापक न होने से सब दिशा के साथ सम्बद्ध नहीं हो सकते हैं। अतः 'प्राच्यां घट:' इस प्रतीति की भाँति 'प्रतीच्यां घट:' इस बुद्धि का प्रसन्न नहीं आयेगा तो यह भी ठीक नहीं है. क्योंकि इसकी अपेक्षा तो प्रमाणसिद्ध उभयसम्मत आकाश का ही प्रतिनियतसम्बन्ध के पटकविधया स्वीकार करना उचित है, न कि अतिरिक्त एवं उभयाऽसम्मत दिशाद्रव्य का । इसका कारण यह है कि दिशात्मक अतिरिक्त धर्मों की कल्पना करना और उसमें विकृत्व, एकत्व, विभुत्व आदि की कल्पना करना इसकी अपेक्षा 'धर्मिकल्पनातो धर्मकल्पना लघीयसी' यानी 'धर्मी की कल्पना की अपेक्षा धर्म की कल्पना अत्यन्त लघु है। इस न्याय से वादी प्रतिवादी उभयसम्मत आकाश में ही दिकृत्व धर्म की कल्पना करना मुनासिब है । अतः लाघव सहकार से दिशा आकाशात्मक ही सिद्ध होगी, न कि अतिरिक्त +देशिकसम्बन्धवादी जन्यमत का निराकरण के
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* दीधितिकरणम
इत्यादिन्यायात् । एवे 'घटादिना सममुदयाचलादेः दैशिकसम्बन्ध एवैकः कल्प्यते समवायवत्, न तु दिग्द्रव्यं, एकाकारप्रतीतौ तद्घटितानेकपरम्परासम्बन्धावगाहित्वानौचित्यादि ति नव्यमतमध्यपानम्, एवं सति मूर्तमात्रस्यैव दिक्त्वेन 'यस्यां दिशि घटः तस्यामेव पढ़' इतिप्रयोगानापति: । तस्मात् प्राच्यादिविभागेन कथविद विभिन्ना प्राच्यप्रतीच्योभयाधारत्वेन कथचिदेका चाकाशात्मिकैव दिमिति ।
* जयलता
एतेनेति अपास्तमित्यनेनान्येति । पदादिना समं उदयाचला: वैशिकसम्बन्धः = देशिकविशेषणताख्यः संसर्ग एवैकः कल्प्यत - अनुमीयतं समवायवत् । यथा 'इट कपालमोचंट इतिप्रतात्या घटकसालयोः समवायसम्बन्ध एवं सिध्यति ननु तदतिरिक्तं द्रव्यं तदेव प्राच्यां घः' इत्यादिप्रतीत्या बालाद्यादैशिकविशेषणताभिधानः सन्बन्ध एवं सिध्यति न तु अतिरिक्त दिग्वल्पम् । यदि चातिरिक्तं दिग्भ्यं कल्प्यत नहि 'प्राच्यां घट. प्राच्यां पटः प्राच्यां मद:' इत्याकारिकायां विशिष्टबुद्धी स्वतन्त्रदिग्द्रव्यवटित - नाना परंपरासम्बन्धविषयकत्वकल्पनापत्तेः । न चेष्टानि: विशिष्टबुद्धित्वस्य विशेषणविशेष्यसम्बन्धगोचरत्वव्याप्यत्वादिति वाच्यम्, एकाकारप्रतीती समानाकारकविशिष्टप्रतीती अनुगतकसम्बन्धविषयकत्वसम्भवे तदितानेकपरम्परासम्बन्धावगाहित्यानी त्रित्यादिति नव्यमतमप्यपास्तम् ।
$10
निरुक्तन्नव्यमनापास्तत्वं हेतुमाह एवं सति घटादिना साकमुदयाचलादे: देशिकसम्बन्धाऽखण्डस्यैव स्वीकार सनि मूर्तमात्रस्यैव = केवलं मूर्ध्नानामेव दिक्वेन = दिकत्वप्रा'त्या. 'यस्यां दिशि घटस्तस्यामेव पट इतिप्रयोगाऽनापत्तिः, घटपदी विभिन्नदेशावच्छेदेनाऽवस्थितत्वात् । समवाययैकत्वेऽपि समवायिकारणभेदात यंत्रच घटः समवेतस्तत्रैव पट इति प्रयोगां भवितुं नार्हति तद्वदेव देशिकसम्बन्धस्यैकत्वेऽपि स्ववृनिताच्छेदकदेशभेदात् 'यस्यां दिशि घटस्तस्यामेव पट इतिप्रयोगोऽप कर्तुं न युज्यत । न चैवमस्ति अनि बहुमतदुपलम्भात तर स्वतन्त्रदशकसम्बन्धकल्पनापेक्षया प्राच्यादिविभागन कथञ्चिद्विभिन्ना प्राच्यप्रतीच्योभयाधारत्वेन = प्राचीस्थ - प्रतीचीरथपदार्थद्रयाधिकरणत्वेन कथञ्चिदेका चाकाशात्मिकंव विगिति स्वीकर्तव्यम् । प्राच्यादिविभागत तदेदानुपगमे 'प्राच्यां घन्' इतिप्रतीतिवत् प्रतीच्यां घट' इत्यादिप्रसङ्गः । प्रतिप्रदेश सर्वथा दीपगमे तु यस्यां दिशि घटस्तस्यामेव पट इति श्रीव्यवहारानुपपत्तिः । आकाशव्यतिरिक्तत्वे तु महागौरवमुक्तमेव । एवं नित्यानित्यत्व सामान्यविशेषात्मकत्वाभिलाप्यत्वानभिलायन सत्त्वासत्त्वादियुगलवृन्दमपि दिशि समयानुसारेण परिभावनीयं सुधीभिः ।
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यत्तु दीधितिकृता 'दिक्काली नेश्वरादतिरिच्यते मानाभावस्तु तत्तत्कालीपाधि दिगुपाधिधिशिष्टादीश्वरादेव क्षण - दिन - प्राची प्रतीचीत्यादिव्यवहारोपपन्नरित्युक्तं तत्र मनोहारि ईश्वराय दिकालरूपत्वं तत्तज्जीवस्य वा ? इत्यन्त्राऽविन्गिमात. ईश्वरस्य प्राग (पृष्ठ ४१०-४० १) निरस्तत्वाचति दिक् ।
श्रेयसेऽस्तु महावीरो यत्कृपया समागतः । तर्कागमसुधोद्गारः कालदिशोर्निरूपणे ॥1॥
एतेन । इस विषय में नव्य विद्वानों का यह मन्तव्य है कि 'घटादि के साथ उदयाचल, अस्ताचल आदि के एक दैशिकसम्बन्ध की ही कल्पना की जाती है। जैसे गुण गुणी, क्रिया क्रियावान् आदि में एक अतिरिक्त समवाय नामक सम्बन्ध की कल्पना की जाती है ठीक वैसे ही यह भी सुज्ञेय है । अतः एक अतिरिक्त दिशाद्रव्य की कल्पना = अनुमिति करना ठीक नहीं है, क्योंकि तब 'पूर्व में पट है, पूर्व में पट है, पूर्व में मद है' इत्यादि एकाकारावगाडी प्रतीति में दिशाद्रव्य से घटित अनेक परम्परासम्बन्ध के अवगाहन की कल्पना करने का गौरव उपस्थित होगा, जो अनुचित है । इसलिए एक दैशिक सम्बन्ध की ही कल्पना करना ठीक है। इसलिए न तो दिशाद्रव्य आकाशात्मक है और न तो आकाशमिन्न स्वतन्त्र द्रव्य है, क्योंकि दोनों ही पक्ष में गौरव है मगर प्रकरणकार श्रीमदजी यह कह कर उपर्युक्त मन्तव्य का निराकरण करते हैं कि दिशा को आकाशात्मक न मानने पर तो दिशा मूर्तमात्रस्वरूप बनने से 'जिस दिशा में घट है उसी दिशा में पट है' इत्यादि प्रसिद्ध प्रतीति अनुपपत्र बन जायेगी. क्योंकि घट और पट का आधार मूर्तदेश एक नहीं है, विभिन्न है। इस प्रतीति की अनुपपत्ति से पूर्व पश्चिम आदि विभाग से कति भित्र एवं पूर्वस्थित एवं पत्रिमस्थित उभप पदार्थ की आधारता की अपेक्षा कथचित् एक दिशा का ही स्वीकार करना मुनासिव है; जो लाघव से आकाशात्मक ही सिद्ध डोगी, न कि अतिरिक्त द्रव्यात्मक ।
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६९: मध्यमस्याडादरहस्ये खण्ड ३ का. १९ * तत्रागादः
इत्थच शब्दगुणत्वेनाकाशासिद्धिरपि नास्माकं दोषाय, शब्दस्य द्रव्यत्वेनाभिमतत्वात् । तथा चार्ष - 'सदधयारऊजोआ पभा छाया तहेव य' ति (उत्त. २८ / १२ ) । किय, मूर्तत्वादपि शब्दस्य द्रव्यत्वमुपपत्तिगत् । न च मूर्तत्वमेव ध्वनेरसिद्धं प्रतिघातविधायित्वादिभ्यस्तत्सिद्धेः । तदुक्तं 'प्रतिघातविधायित्वात् लोष्टुकमूर्तताध्वनेः । व्दारवातानुपाताच्च धूमवच्च परिस्फुटम् ॥ ) इति । न च तस्य गुणत्वेऽपि प्रतिघातजनकत्वं निराबाधम्, तस्य द्रव्यत्व एव तज्जन्यनोदनादिजन्यक्रिययाऽवयवविभागसम्भवात् ।
दलता है
Ged
इत्थअ = सर्वाधारत्वेनाकाशसिद्धीच शब्दगुणत्वेन
गुणात्मकवादसम्बायिकारणत्वेन आकाशाऽसिद्धि: अतिरिक्तस्य गगनस्य अप्रसिद्धिः अपि न अस्माकं स्याद्भादिनां दोषाय । न च गुणात्मकशन्याश्रयत्वेन कुती नाकाशसिद्धिरभिमत ति वक्तव्यम्, शब्दस्य द्रव्यत्वेन अस्माकं स्याद्धादिन अभिमतत्त्वात् । उत्तराध्ययनसंवादमाह तथा चार्य 'संबंधयाज्जोआ' इति 1 वादे केवलमागमरण किचित्करत्वादुपायस्यां पायान्तरादुपकत्वाचानमानननत्यमपति किथेति । मूर्त्तत्वापीति । प्रयोगस्त्येवं शब्दां द्रव्यं मूर्तल्यात घटवदिति । न च मूर्त्तत्वमेव वनेर सिद्धमिति स्वरूपासिद्धिस्तत्वं हेतोरिति वाच्यम् प्रतिघातविधायित्वादिभ्यः तत्सिद्धेः = नूत्तत्वसिद्धेः, आदिपटेन द्वावातानुविधावित्याभिभवनीयत्वानिभावुकत्वादीनां ग्रहणम् । अत्रैव प्राचां संवादमाह - तदुक्तं प्रतिघातेति । प्रयोग एवन शब्द मूर्त प्रतिघातविधायित्वान् कुङमाइनलेटुवत्, ध्वनिः द्रव्यं द्वारबातानुयायित्वात् धूमवतु इति । तदुक्तं तत्त्वार्थसिद्धसेनीयवृत्तावपि शब्द: पुद्गलद्रव्यपरिणामः तत्परिणामता चाम्य मूर्त्तत्वात् मूर्तता च द्रव्यान्तरविक्रियापादनसामर्थ्याति । दृष्टं हि तश्रणवधिरीकरणसामर्थ्यम् । इतच तस्य मूर्त्तत्वं प्रतीपयावित्वात् पर्वतप्रतिहतारमवत् द्वारानुविधावित्वादात्पयत् सहाय्यार्थ्यादिगुरुधूत वायुना प्रमाणत्वानृणपर्णादिवत् सर्व दिग्ग्राह्यत्वात् प्रदीपवत्, अभिभवनीयत्वा नारासम्वत् अभिभावकत्वात्सवितृ मण्डलप्रकाशवन महता हि शब्देनाऽल्पो भिभूयते दान्द:' (त.सि.वृ./१८) इति ।
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ननु विपक्षवाचक तर्कविरहात 'शब्दी द्रव्यं प्रतिघातविधायित्वादित्यनुमानं न तस्य द्रव्यत्वसाधने प्रत्यलमित्यागकाम - पाकर्तुमुपक्रमते न च तस्य शब्दस्य गुणत्वे सति अपि प्रतिघातजनकत्वं निराबाधं स्यात् यत: तल्य = शब्दस्य द्रव्यत्वं स्वीक्रियमाण एवं तज्जन्यनोदनादिजन्यक्रियया = प्रतिवातजन्यनी दनाभिघातजन्यकगंगा, अवयवविभागसम्भवात् ।
शब्ददव्यत्वसिद्धि (ॐ)
भागम से ही नहीं, युक्ति से भी शब्द द्रव्यं मूर्तत्वात् घटवत् 'शब्द में मूर्तत्व ही असिद्ध है'
इथं । इस तरह सर्वाधारत्वेन आकाश द्रव्य की सिद्धि हो जाने से शब्दगुणत्वेन यानी शब्दात्मक गुण के हेतुत्वरूप से आकाश की सिद्धि न हो सके तो भी हम स्याद्वाद के मत में यह दोपात्मक नहीं है, क्योंकि शब्द को हम गुण ही नहीं मानते हैं । शब्द तो द्रव्यात्मक ही है। इस विषय में उत्तराध्यय आगम का लोक भी साक्षी है, जिसका अर्थ है 'शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया ये सब पुद्गलात्मक दें। केवल शब्द में द्रव्यात्मकता की सिद्धि होती है। अनुमानप्रयोग इस तरह किया जा सकता है कि मूर्त होने की वजह शब्द उल्यात्मक ही है। यहाँ यह शंका नहीं करनी चाहिए कि क्योंकि प्रतियात होने की वजह वह मूर्त ही है। जैसे फेंका हुआ पत्थर आदि दीवार आदि से टकराकर वापस आते हैं, आगे नहीं जाते हैं; ठीक वैसे ही शब्द भी दीवार आदि के साथ टकराकर प्रतिध्वनि के रूप में उपलब्ध होता है, आगे नहीं जाता है । अतः वह भी मूर्त ही है। इसलिए तो अन्यत्र भी दाद में भूर्तत्व की सिद्धि के लिए कहा गया है कि 'ध्वनि मूर्त हैं, क्योंकि लेट = शुष्क मृत्पिण्ड की भांति वह प्रतिघातविधयां है जैसे महानसादि का धूम महानसादि के द्वार के पवन के अनुसार गति करता है ठीक वैसे ही शब्द भी पवनानुसार गति करने की वजह धूम की भाँति मूर्त है। यहाँ इस प्रश्न का कि शब्द भले ही प्रतिघानजनक हो, मगर वह गुणात्मक हो और इत्यात्मक न हो तो क्या दीप है !" समाधान यह है कि शब्द में प्रतिपात उत्पन्न होने के बाद नोटन शब्दाजनक संयोग या अभिघात = शब्दजनकसंयोग की उत्पनि होती है, जो शब्द के अवयव में क्रिया को उत्पन्न करते है। उस क्रिया में शब्दावयव का विभाग होता है तब संगत हो सकता है यदि शब्द द्रव्यस्वरूप ही हो, क्योंकि गुण का अवयव ही नहीं होने से गुणात्मक शब्द के अवयव में विभाग संयोग, क्रिया का होना नामुमकिन है। इसलिए शब्द को गुणस्वरूप नहीं किन्तु द्रव्यात्मक ही मानना मुनासिब
- यह सब
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बभिधान जनकन्यस्थापनम* A 'वन्देतोरेवेत्यादिन्यायातीतशब्दजनकतीतपवमानस्यैवाऽभिधातजनकत्वमस्त्विति वेत् ? का, अत्ततो विनिगमनाविरहेणाऽपि हवनेरभिघातजताकरसिध्देः, पवमानस्यातीप्सितत्वाच्च । प्रतिस्खलनरप्यस्य नासिन्दम, प्रतिस्खलितस्यैव विश्रेण्यां यहणात, तथा
-* जयलाII *भिन्यादिभिः सह शब्दम्य प्रतियात पति कदाचिन तन: शब्दाजनकन्रलक्षणो नीदनारख्या संयोगा जायने कदचित्र शब्दजनकत्वलक्षणाभिघाताभिधानः संयोगः स खात्यने । लनः संयोगान्छन्दावनेष कम उत्परते ततश्च धान्दावयविभागा भवति ।। पदि व शब्दस्य द्रव्यत्वं न स्यानहीने सर्व ग्लूिनीगं स्यादिति तदन्यथानपत्या उदस्य रत्वं सिध्यतीति भावः । | अथ 'तद्धतारवेत्यादिन्यायान् = 'तद्धतारच कार्यसम्भव कितन ? इति न्यायतः, तीनशब्दजनकतीत्रपवमानस्य || = तावत दिशाब्दहेताः तात्रस्य मम्त एव अभियानजनकत्वं = शब्दोल्पादकमयांगकारणत्वं अस्तु । नीन्त्रस्य परमानम्य
तीब्रशब्दहत्तं तांत्रशब्दस्य चाभिवानकारणत्वमित्यवं कल्पनापक्षया लायवगाभंतात प्रानन्यायात तत्रपयमानस्यत्र शब्दाभिधानाभयजनकत्वन्युपगन्तुमहनि । ततश्च शब्द न प्रनिघारजनकत्वं किन्तु नरुत्यवेनि न शन्दस्य मात्वं मित्र्यनि, हताः स्वरूपासिद्धवादित्यथाशयः ।
प्रकरणकारस्तन्निराकरने . नेति । तात्रशन्द - पवनयाभिधातीत्पादाब्यबहिन बगावच्छंदन निमनित्वात दान्दम्य तत्कारणत्वमाहास्वित् 'पवनस्य : इल्यमा विनिगमात अन्ततो गत्या विनिगमनाविरहेणापि ध्वनेरभिधानजनकत्व सिद्भः, अन्यथा अवैशमन्यायापातात् । सर्वत्र तीवदादात्यावस्थलं तात्रय पवमानस्य = मरुतः नादाब्दजनकत्वेन अनीप्सितत्याच । ताजपवमानस्य तीब्रदान एवोपक्षीणशक्तिकतेनाभिवानं प्रत्ययवासिद्धत्वमेव । न हि नानपचनजन्या भिन्ना: दादा: सूक्ष्मबहुत्याभ्यामन्यद्रव्यगायकत्वादनन्तगुणवृद्धियुक्ताः मन्नः पदम दिक्ष लंकान्तं सानुबन्ती यत्र यत्राभिधानं जनपन्ति नत्र तत्र तीत्रपवमानां वयं वर्तते । अनः न शन्दानरकालोनाभिधानमात्रं पर जीत्रपवनरय कारणत्यसम्भवः किन्तु शन्दस्यबत्यनियान - जनक्रत्वानन्दस्य हव्यन्न। न तु गुणमणिनगदम्पर्याधः ।
यत्र पूर्व 'द्वारवातानुपाताच धूमवचे त्युक्तं (पृष्ठ ६५) तन्मनासकृत्याहू प्रतिस्खलनमपि = उप्परमणं तत्फलभूतं वक्रीभवनमगि अस्य = दाब्दस्य नासिद्धं = न बाधितम, यतः प्रतिस्खलितस्यैव = समवेगिंगमनं उपरतल्यैव, नदनन्तरं बक्री भूतस्य चक्रमार्ग प्राप्तस्येति यावत, सबकारण समश्रेण्यां गतिशीलशब्दम्य व्यवच्छेदः कृतः, विश्रेण्यां = भाषाविषमक्षेत्रप्रदेशापदकी, ग्रहणात् = श्रावगप्रत्यक्षविषयीकरणान् । यद्यपि कुड्यादिना स्थूलवादप्रतिरूवलने प्रतिध्वन्यादित: सिद्धमंव तथापि प्रकृतरकारान्यथानुपपन्या प्रतिस्वलनमत्र प्राधान्यन द्वितीयादिसमयावच्छन्न प्रथमसमयगतेश्रेण्यपक्षया बक्रगननात्मक
है - यह सिद्ध होता है।
DHE IMEITU.tv है - मयाजादी । अथ न.। यहाँ यह शंका हो कि →शन को अभियानजनक मानने की अपेक्षा ग्रन्ट के जनक को ही अभिघातजनक मानने में लापत्र है, क्योंकि 'तडेतारेवास्तु किं न :' यह न्याय उपर्युक कल्पना का समर्थन करता है । इस न्याय झा अर्थ यह है कि किमी वस्तु में अन्य की कारणता मान कर अन्य को विक्षित कार्य का कारण मानना हो तब प्रथम को ही विवक्षिन कार्य का कारण मानना मनामिव है । अतः प्रग्नुन में 'नीच बहता हुआ पचन नीत्र शन्न का उत्पन्न करता है और तीनशब्द अभियान को उत्पन्न करता है' इस कल्पना की गक्षा उपर्युक्त न्याय से नीव रहते हुए पवन को ही अभियान का जनक मानना उचित है । अतः शब्द में अभियातजनकल न होने से व्यय की मिद्धि नहीं हो सकती है' -नी यह इसलिए नागनागिन है कि बहना हुआ पयन और शन्द दोनो ही अभिपात की उत्पनि के अत्यहिन पूर्ववती होने से किसी एक में कारणता का स्वीकार कर के अन्य में कारणता का अपलाप नहीं किया जा सकता, क्योंकि उमम कार्ड विनिगमक नहीं है। अत: चिनिगमनाचिरह से भी शन्द्र में अभियान जनकन्द की सिद्धि अन्गिकार्य है। अभिपातजनकल की इन नाह शब्द में सिद्धि होने से उसके व्यापक द्रव्यत्व को भी दाद में मिडि निगवाध होगी। इगक अनिग्नि यह भी ध्यातव्य है कि गर्वत्र पहना हुआ पचन ही अभियान को उत्पन्न करता है . यह अभिमत भी नहीं है । यहाँ यह शंका करना कि -> 'शब्द का प्रतिस्बलन हो तर उमग प्रतिघातजनकन्ना की गिडि हो गस्ती है. मग मन की सचलना ही असिद्ध है।
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६.७२ मभ्यमस्याद्वादहस्य खण्डः 3 - का.११ * हाग्भिटावस्यकत्र नि नापारहायमंबादेन रिचार्गम: *
चार्य - 'वीसेढी पुण सदं, सुणेइ नियमा पशघाए' (आ.नि.गा. ६) ति । तत्र शब्दान्तरोत्पत्तिकल्पने च गौरवम् ।
-* रातव्याख्यानम् । इदमेव आवश्यकनियुक्तिसंवादन समर्थयति तथा चार्षमिति । विश्रेणिम्धिनः पुनः दादं शृणोति नियमात परायाते सतीत्यर्थः। तत्र = विश्रेण्या शब्दान्तरोत्पनिकल्पने - सर्वधा भिन्नस्य शब्दस्योत्पादकलपन च गौरवमिति । यथा- उनपानमनीवर्गगाप्रभृतिद्वन्याणि निसृष्टानि सन्ति प्रधनसमय पटग दिक्षु समश्रेणिं गच्छन्ति, द्वितीयसमय च तान्येव विश्रेणिमणि गान्ति प्रनर रचयन्ति न तु तदव्यतिरिक्तान्येव तथैव भागन्यागि निसष्टानि सन्ति प्रतिसमयं पदिग्गानीनि प्रथमे समय पट्स दिक्ष समणिं गच्छन्ति द्वितीयसमय च नान्यत्र विश्राणर्माण गच्छन्ति प्रनरं रचयन्ति न तु तव्यतिरिक्तानि भाषाइयाण्येन. आक्षेप-परिहास्याग्नुलपयोगक्षमत्वात् । ततो विश्रेण्यां विग्रहमापन्नानि एव झाब्दद्दाणि श्रूयन्त न तु विश्रेण्यापन्नानापन्नलक्षणानि मिश्राणि शन्द्रयाणि । तादृशमिश्रभाषाप्रयाणि न भाषासम्श्रेण्यामेव श्रूयन्ते. नत्रवोभयविधभाषाद्रव्यसम्भवान् । ततः प्रतिस्वलनाच्छब्दस्य द्रव्यल्बमनपायमच । इट न यधाश्रुतग्रन्थानुरोधेन तदुपपत्त्यर्थं व्याख्यानम 1 श्रीहरिभद्रसूरिभिस्तु भरमासमसंढीओ सई जं सुण मासवं सुगाई । 'संदी पण मदं सुगइ नियमा परामए' ।।६।। इत्यावश्यकनियुक्तिगाथाच्याख्याने → “भापास मश्रेणिव्यवस्चिन इति शब्द्यनेन्ननति झन्द = भाषान्वेन परिणत: पगलरागिस्तं दादं यं पुरुषाश्वादिसम्बन्धिन शृणोनि गृह्णाति उपलभत इति पर्यायाः यनदोनित्यसम्बन्धन नं मिश्रं शृणोति । एतदतं. भवनि - ब्युत्सृष्टानभाषिनाऽपान्तरालयशब्दद्रयमिनिति । चिणि पुनः इत इति वर्नत । तनश्वायमों भवति - विगिन्यबस्थिनः पुनः श्रोता 'शब्द' इनि पुन: गन्दग्रहण पराघालासितद्रव्याणापि तथा बधाब्दपरिणामल्यापनाथं शृणांत नेयमार = नित्यमेन पगघाने यति यानि शब्दद्रव्याणि उत्सृष्टाभिघातव सितानि नान्यंव न पुनरुत्सृष्टानीति भावः । कुन: ? तपामनुश्रेणि मनान, प्रति. घाताभावाचे ति - व्याख्यानम् । प्रकृतप्रकरणकृतापि च पगबानो नाम यामना भवति. स च विश्रेण्यामकः = निसृष्टद्रव्याकरम्बितो भवति. निमष्टानां भाषान्याण सूक्ष्मतयानश्रेयर गमनात 'जीव-सूक्ष्म गद्गलबारनुश्रेणि गनि:' इति धनात, समायां = भापदिगपेक्षया प्रध्वरायां श्रेण्या मिश्रः = निसृष्टद्रव्यकरम्बतां भवती' (भा.र.गा.१) ति भापारहस्ये निषितम् । तथापि प्रकृनप्रकरण प्राढिबाटेनोक्तमिति प्रतिभाति तथैव च यथाश्रुतं समर्थितमस्माभिरिति दृष्टव्यम् ।
यहा एवमपि व्याख्यान्तरण प्रकृतग्रन्धोपपादन सम्वनि । तथाहि - प्रतिस्खलितस्य - पराहतग्य एर चियेण्यां = भापक्रदिगाक्षया विषमक्षेत्रप्रदेदापड़ना, ग्रहणात = श्रावणप्रत्यक्षविषयाकरणात् । तथा चाप पासढी पुण म मरोड़ नियमा परावाण'त्ति । न च विश्रेण्यां सर्वधा भिन्न पत्र दान्द उत्पद्यत इति वाच्यम्, नत्र = विश्रेष्यां शब्दान्तरात्यनिकल्पने = मौलशदात्सर्वथा जिन्नाशब्दांयादागीकार गौरबम, परिणाममंट:पि रकतादमायां बटायब परिणामिनस्तस्य सर्वथाभदात् । मिश्राणां वासितानां च शब्दद्रव्याण मौलताब्दपरिणामविनषरूपन्यन मालगन्द्र दाभावात । अत गनु ज्या विश्रुग्यां या मिश्राणामेव परायानयामितानामेब च शब्द।श्रवणा-युधगमःपिं न शनिः । म प्रदायानुसारेगा न्याय ज्याल्यानं बहुश्रुत भ्याबसयं बुभुसुभिः ।
:-- इसलिए अमात है कि विश्रेणि = विदिशा में प्रनिस्पटिन शब्द का ही गृहण = श्रावण प्रत्यक्ष होता है । इस विषय में आगनियुक्ति का वचन साक्षी है, जिसका अर्थ है . 'अवश्य परापात होने पर ही विणि में शन सुनने में आना है' । यदि दान का सवलन न माना जाय तब उत्पनिस्थान की ममणि को छोड़ कर आग विषम थणि में शब्द का गमन हा कैसे होगा ? और वह नहीं होने पर उपयुन आई वचन की उपपनि कैम हो सकेगी? इसलिए डान में प्रतिस्खलन सिद्ध ही है। यहाँ यह नहीं कहा जा सकना कि → चिणि में नवीन वाद की ही उत्पनि होती है, न कि मूर ताब्द विदिशा में जाता है। अतः शब्द में प्रतिस्पलन = प्रतिघात अमिल है' - क्योंकि विश्रेणि में शब्दान्नर की उत्पनि की कल्पना में गौग्य है । इसकी अपेक्षा राघब से यही मानना उचित है कि ममणि में आगे बढ़ता हुआ शब्द ही विश्रेणि में जा कर अन्य भापायोग्यस्कन्ध का वासित करता है, जो विश्रणिस्थ श्रोता को सुनाई देते हैं । अतः शन्न में प्रनिघात पर्व उसकी कारणता की सिद्धि निराचाच होने में उसके घर पर पाल द्रव्यात्मक ही सिद्ध होगा, न कि गुणात्मक ।
सद को आकारागुण मानले गे गौरत क
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** नृसिंहशास्त्रिवचननिगसः * कि शब्दस्याकाशगुणत्वे सर्वस्य सर्वशब्दग्रहणापत्तिः श्रोत्रसमवायाऽविशेषात् । तत्पुरुषीयकर्णशष्कुल्यच्छिन्नसमवायसम्बन्धावच्छिाधारतायास्तत्पुरुषीयशब्दग्रहं प्रति नाना हेतुत्वकल्पने च गौरवात, श्रोत्रसंयोगस्यैव शब्दप्रत्यासत्तित्वमुचितम् । अत एव च प्रत्यवादि परमर्षिणा 'पुठं सुणेइ सहू' (आ.नि.१) इति।।
- -* नायलता *शब्दस्य द्रव्यत्वं समर्थ्य तस्य गुणत्वं बाधकमाह - किश्चेति । शब्दस्य आकाशगुणत्वे स्वीक्रियमाणे सर्वस्य जीवस्य सर्वशब्दग्रहणापत्तिः = पावच्छब्दगोचरश्रावणप्रत्यक्षत्रसङ्गः सर्वेषु श्रोत्रसमवायाऽविशेपात् गगनात्मकश्रोत्र - शब्दसमवाययोरकत्वात् । न च विषयतासम्बन्धेन चेत्रीय दाब्दगोचरश्रावणप्रत्यक्ष प्रति चैत्रीयकर्णशकुल्यवनिछत्रसमवायावच्छिनाधारता-निरूपिताधेयतासम्बन्धेन श्रोत्रस्य कारणत्वं पद्वा स्वसम्बायेन श्रोत्रस्य स्वरूपसंसर्गेण चैत्रीयकर्णशष्कुल्यवच्छिन्नसमवायसम्बन्धावच्छिन्नाधारतानिरूपिताधेयतायाश्च कारणत्वाभ्युपगमान्न मैत्रीयकर्णशष्कुल्यवच्छेदेन वर्तमानस्य शब्दस्य चत्रादिना ग्रहणप्रसङ्ग: तच्छन्दनिष्ठाधेयतानिरूपका धारतायाः चैत्रीयादिकर्णशष्कुल्यवच्छिन्नसमवायसम्बन्धानबच्छिन्नत्वादिति वाच्यम्, तत्पुरुपीयकर्णशकुल्यवच्छिन्नसमवायसम्बन्धावच्छिनाधारतायाः = तत्पुरुषसम्बन्धिकर्णशष्कुल्यवच्छिन समवायसंसर्गेणावच्छित्रया - नियन्त्रिनया आधारतया निरूपिनाया आधेयतायाः तत्पुरुपीयशब्दग्रहं = तत्पुरुषसमंवतं शब्दगोचरथावणप्रत्यक्ष प्रति नानाहेतुत्वकल्पने च गौरवात् । पतेन शब्दनिष्ठलौकिकविषयतासम्बन्धन तत्पुरुषयश्रावणं प्रति तत्पुरुषायकांवच्छेद्यसमवयस्यैव सत्रिकर्षविधया हेतुत्वस्वीकारेणोक्तदाघाभावात शब्दस्येव तत्समदायस्यापि कर्णावच्छेद्यत्वस्वीकारात अथवा केवलसमबाय एव सन्निकर्षः निरुक्तसम्बन्धन तत्पुरुषीयश्रावणं प्रति तत्पुरुषीयकर्गावच्छंद्यशब्दस्य तादात्म्यसम्बन्धेन हेतुत्वीकारणवानतिप्रसङगान' (त.सं.न.पृ.२८१) इति नृसिंहवचनं पराकृतम्, शब्दत्वापेक्षया तत्पुरुपीयकवच्छंद्यशब्दत्वस्य गुरुत्वात । तहि कथं नियतशब्दप्रत्यक्षी-गपत्तिः ? इत्याशड़कायामाह . श्रोत्रसंयोगस्यैव शब्दप्रत्यासतित्वमुचितं, न तु श्रीत्रसमवायस्य । अत एव = विषयतया शब्दप्रत्यक्ष प्रति स्वसंयोगसम्बन्धेन श्रीत्रस्य कारणत्वादेव च प्रत्यपादि परमर्पिणा श्रीभद्रवाहस्यामिना आवश्यकनियुक्ती 'पुढे सुणइ सई' इति । न्याख्यातश्चात्र 'स्पृष्टं इत्यालिङ्गितं तनी रेणुवत शृणोति गृहणाति उपलभत इति पर्यायाः, कं ? शव्यतमनेनेति शब्दस्नं शब्दप्रायोग्यं द्रव्यसङ्घातम । इदमत्र हृदयम् - तस्य सूक्ष्मत्वात् भावुकत्वात् प्रचुरद्रव्यरूपत्वात श्रीन्द्रियस्य चान्येन्द्रियगणात्प्रायः पदतरत्वात्स्पष्टमात्रमेव शब्दद्रव्यनिवई गृहणाति' इत्येवं श्रीयाकिनीमहत्तरासूनुभिः।
किा श. । इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि शब्द का आकाश का गुण माननेवाले नयापिक आदि विद्वानों के मत में तो सभी को सभी शब्दों के श्रावण प्रत्यक्ष की आपत्ति आयेगी, क्योंकि सभी पुरुपों के आकाशात्मक श्रोत्र का समवाप सम्बन्ध सत्र शन्दों के साथ समान ही है। आकाश एक है, शन का समवाय भी एक है तब तो प्रत्येक शब्द में श्रोत्रसमवाय अविशेष होने से सभी को सभी शब्दों के श्रावण प्रत्यक्ष की आपत्ति अपरिहार्य है। यदि इसके समाधानार्थ, नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि > 'हम तत् तत् पुरुप के शब्दप्रत्यक्ष के प्रति केवल समवाय को श्रावण कारणतावच्छेदक सम्बन्ध नहीं मानते हैं किन्तु तत् तत् पुरुपीय कर्णशप्कुली से अवछिन्न ऐसे ममवाय सम्बन्ध से अवच्छिन्न आधारना से निरूपित्त आधेयता को ही श्रावण प्रत्यक्ष का कारणतावच्छेदकसंसर्ग मानने हैं। अतः जर चैत्र की कर्णशप्कुली से अवच्छिन आकाश में शन्द होगा तब उस शब्द का मैत्रादि को श्रावण प्रत्यक्ष नहीं होगा किन्तु चैत्र को ही होगा, क्योंकि तब उस शन्न में रही हई आधेयता की निरूपक आधास्ता मैत्रीयकर्णशप्कुली से अवच्छिन्न समयाय से अवच्छित्र नहीं है किन्तु क्षेत्रीय कर्णशकुली से अवच्छिन्न = विशिष्ट समवायसम्बन्ध से अचच्छित्र : नियन्त्रित है। अतः शब्द को विभु आकापाद्रव्य का गुण मानने पर भी सभी पुरुपों को सभी शब्दों के श्रावण प्रत्यक्ष की आपनि का अवकाश नहीं है तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि तब अपरिमित पुरुषों के भित्र भित्र श्रावण प्रत्यक्ष के प्रति अनेक कारणताचच्छेदकसम्बन्ध की उपयुक्त रीति से कल्पना करने का गौरव टोप उपस्थित होता है । इसकी अपेक्षा उचित तो यही है कि वान्दप्रत्यक्ष में श्रोत्रमंयोग को ही कारणतावच्छेदक सम्बन्ध माना जाय । मतलब कि विषयतासम्बन्ध से गन्दप्रत्यक्ष के प्रति स्वमयोगसम्बन्ध में श्रीत्र कारण है . यही कार्यकारणभाव मानना मुनासिब है, जिसका शन्दद्रव्यवादी हम स्याद्वादी स्वीकार करते हैं । शन्द आंत्र से संयुक्त होने पर ही धावण प्रत्यक्ष का चिपय होता है - इसलिए तो परमपिं श्रीभद्रबाहस्वामीजी ने भी आरश्यक नियुक्ति में कहा है कि 'श्रोत्रेन्द्रिय स्पृष्ट शन्द्र को सुनती है' । स्पृष्ट का अर्थ है कर्णेन्द्रिय में संयुक्त । शन्द में श्रोत्र का संयोग रहने पर ही विपपतासम्बन्ध से उसमें श्रावण प्रत्यक्ष उत्पन्न होता है । यह आपनचन का तात्पर्य है। यह युक्तिम्ङ्गत भी है, क्योंकि द्रव्यप्रत्यक्ष में क्लम = सिद्ध संयोगसम्बन्ध
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६९.४ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड ३ का. १४ * तत्त्वचिन्तामणिकम्मतनिरासः
युक्तचैतत् समवाय- समवेतसमवाययोः प्रत्यासतित्वाऽकल्पनलाघवात् ।
विषयतया मूर्तग्रत्यक्षत्वावच्विं प्रति समवायेनोद्भूतरूपस्य हेतुत्वान्न संयोगेन शब्दग्रहः सम्भवतीति चेत् ? न, एतल्लाघवबले नाऽपि द्रव्यचाक्षुषत्वस्यैवोद्भूतरूपकार्यतावच्छेदकत्वात् ।
ॐ जयलता
युक्तचैतत् संयोगेन श्रोत्रस्य श्रावणप्रत्यक्षकारणत्वकल्पनम् शब्द- वाब्दत्वादिग्रहे समवाय समवेतसमवाययीः प्रत्यासत्तित्वाऽकल्पनलाघवादिति । स्याद्धादिनये शब्दस्य द्रव्यत्वेन द्रव्यप्रत्यक्षं प्रति क्लृप्तसंयोगप्रत्यासत्येव तद्ग्रहणोपपत्तिः द्रव्यसमवेतप्रत्यक्षं प्रति क्लृप्तसंयुक्तसमवायप्रत्यासत्त्यैव च शब्दत्वकत्वादिप्रत्यक्षसङ्गतिः, न तु शब्द शब्दत्वादिप्रत्यक्षानुरोधेन पृथकृप्रत्यासत्तित्वकल्पनमावश्यकम् । नैयायिकादिनये तु शब्दस्याम्वरगुणत्वेन विषयतया शब्दसाक्षात्कारं प्रति श्रोत्रस्य स्वसमवायेन शब्दत्वादिप्रत्यक्षं प्रति च स्वसमवेतसमवायेन कारणत्वमत्र कर्तव्यमिति गौरवम् ।
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ननु विपयतया = लौकिकविषयतासम्बन्धेन मूर्त्तप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नं = मूर्त्तविषयकप्रत्यक्षमात्र वृत्तिर्वजात्यावच्छिन्नं प्रति समवायेन उद्भूतरूपस्य हेतुत्वात् पृथक्कारणत्वात् शब्दे चद्भुतरूपविरहात् न संयोगेन = श्रीसंयोगप्रत्यासत्त्या शब्दग्रहः ध्वनिप्रत्यक्षं सम्भवति । एवं लौकिकविषयतासंसर्गेण मूर्त्तसमवेतविषयकप्रत्यक्षमात्रवृनिवैजात्यावच्छिन्नं प्रति स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेनोद्भूतरूपस्य कारणत्वान्न श्रोत्रसंयुक्तसमवायेन शब्दत्व कत्वादिप्रत्यक्षं सम्भवति । आत्मात्मत्वादिप्रत्यक्षे व्यभिचारवारणाय 'मूर्ते' त्युपादानम् । ततः शब्द शब्दत्वादिप्रत्यक्षानुरोधेन समवायसमवेतसमवाययोः पृथक्प्रत्यासनित्वकल्पनमावश्यकमेव । तथा च न शब्दस्य द्रव्यत्वसिद्धिरिति नैयायिकाकूतम् ।
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स्याद्वादी तन्निराकुरुते नेति । एतल्लाघवबलेन = समवाय समवेतसमवाययाः पृथकप्रत्यासत्तित्वाऽ कल्पनलाघवमहिम्ना. अपिशब्दात मूर्त्तप्रत्यक्षत्व भूतप्रत्यक्षत्वादिना विनिगमनाविरहपि बोध्यः । विषयतया द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रत्येव समवायनोभूतरूपस्य कारणत्वकल्पनेन द्रव्यचाक्षुषत्वस्यैव उद्धृतरूपकार्यतावच्छेदकत्वात् उद्भूतरूपत्वावच्छिन्नसमवायसम्बन्धवच्छिन्नोद्भूतरूपनिष्टकारणतानिरूपितलौकिकविषयतासम्बन्धावच्छिन्नकार्यतावच्छेदकत्वात् एवकारेण मूर्त्तप्रत्यक्षत्वादेः व्यवच्छेदः कृतः । युक्तञ्चतत्, अन्यथा वायुस्पार्शनप्रत्यक्षानुपपत्तेः, 'शीतं वायुं स्पृशामी' त्याद्यनुव्यवसायादेरेव बायो: प्रत्यक्षत्वसाधकत्वात् । न चासी भ्रमः बाधकाभावादिति पूर्वमुक्तमेव । एतेन वायुर्वेहिरिन्द्रियाऽप्रत्यक्षः नीरूपद्रव्यत्वादाकाशवदि' (न.चिं.प्र. ख. पू. ७५४) ति | तत्त्वचिन्तामणिकारोक्तं निराकृतम् । अत एव शब्दात्मकं द्रव्यं किमुद्भूतरूपवत उत तच्छून्यं | आये चक्षुर्ग्रहणयोग्यता स्यात् अन्त्ये बहिरिन्द्रियग्राह्यतानुपपत्तिः, बहिरिन्द्रियजन्यद्रव्यप्रत्यक्षं प्रति उद्भूतरूपस्य कारणत्वात् तत्र शब्दातिरिक्तत्यनिवेशे शब्दातिरिक्तत्व बहिर्द्रव्यत्वादीनां विशेषणविशेष्यभावे विनिगमनाविरहेण कार्यकारणभावातन्त्र्यप्रसङ्गाच्च शब्दप्रत्यक्षं कारणान्तरकल्पने
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से ही शब्द का एवं द्रव्यसमवेतविषयक प्रत्यक्ष में आवश्यक संयुक्तसमवायसम्बन्ध से ही शब्दत्व, कत्व आदि का श्रावण प्रत्यक्ष संभवित होने से शब्दप्रत्यक्ष के लिए श्रोत्रसमवाय एवं शब्दत्वादिप्रत्यक्ष के प्रति समवेतसमवायसम्बन्ध की कारणतावच्छेदकप्रत्यासत्तिविधया कल्पना करने की आवश्यकता न होने से शब्दद्रव्यपक्ष में लाघव भी है ।
उद्भारूप मूर्तप्रत्यक्ष का नहीं, द्रव्यचाक्षुष का कारण है - तयाद्धादी
विषय । यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि 'विपयतासम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाले मूर्तपदार्थविषयक प्रत्यक्ष के प्रति समवाय सम्बन्ध में उद्धृत रूप कारण होता है। मतलब कि उद्भुतरूपवाले मूर्त्त द्रव्य का ही प्रत्यक्ष हो सकता है। जिस मूर्त द्रव्य में उद्भूत रूप नहीं होता है उसका प्रत्यक्ष नहीं होता है जैसे कि इन्द्रिय, पिशाच आदि । शब्द में उद्भुत रूप स्याद्वादी को भी मान्य नहीं है । अतएव संयोग सम्बन्ध से शब्द का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । कारणान्तरविरह में कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती । अत: श्रोत्रसमवाय को ही शब्दप्रत्यक्षकारणता अवच्छेदक सम्बन्ध मानना जरूरी है, न कि श्रोत्रसंयोग को । फलत: शब्द भी गुणात्मक सिद्ध हो जायेगा' <- तो यह इसलिए निराधार हो जाता है कि उद्धृत रूप मूर्तप्रत्यक्ष का कारण नहीं है किन्तु द्रव्यविपयक चाप का ही कारण है, क्योंकि द्रव्यचानुपत्व ही उद्धृत रूप का कार्यताअवच्छेदक धर्म होता है, न कि मूर्त्तप्रत्यक्षत्व । इसका निर्णायक तो सन्दद्रव्यपक्ष में समदाय एवं समवेतसमवाय दो प्रत्यासति की कल्पना न करने का लाघव भी है। शब्द का जो प्रत्यक्ष होता है वह चाक्षुप नहीं अपितु श्रावण होता है । शब्दविषयक श्रावणप्रत्यक्ष तो उद्भूत रूप की कार्यताकोटि से बहिर्भूत है, क्योंकि उसमें उद्धृत रूप का कार्यता अवच्छेदक द्रव्यचाक्षुत्व ही नहीं रहता है । अत: श्रोत्रसंयोग सम्बन्ध से ही शब्द का साक्षात्कार होगा, न कि श्रोत्रसमवाय से इसलिए कारणतावच्छेदकीभूत
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* मञ्जूषा प्रदास्तपादभाष्यकृन्मतव्यपोहः **
तथा च संयोगेनाऽपि शब्दस्य द्रव्यत्वसिद्धिः ।
एतेन शब्दस्य द्रव्यत्वे ऽनन्तसंयोग- तत्प्रागभाव-प्रध्वंसादिकल्पनागौरवमित्यपि निरस्तं, तस्य फलमुखत्वेनाऽदोषत्वात् ।
'श्रोत्रेन्द्रियव्यवस्थापकत्वेन शब्दस्याऽम्बरगुणत्वसिद्धि 'रित्यपि कश्चित् सोऽपि न
* जयलता
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गौरवाचे' (मु.मं. पू. ३६० ) ति मुक्तावलीमञ्जूषाकारवचनमपि निरस्तम्, प्रत्युत तन्भत एवातिरिक्तप्रत्यासत्तिकल्पना गौरवाच । वस्तुतस्तु मूर्त प्रत्यक्षत्वरण का कार्य शर्यत पूर्वीकिकप्रत्यक्षत्वापेक्षया व द्रव्यनिष्ठलौकिक विषयतया चाक्षुपत्वस्यैवोद्भूतरूपकार्यतावच्छेदकत्वौचित्यात् । उपसंहरति तथा च द्रव्यन्चाक्षुषत्वस्यैवोद्भूतरूपकार्यतावच्छेदकत्वसम्भवेन विषयतासम्बन्धेन शब्दप्रत्यक्ष प्रति स्वसंयोगेन श्रीवस्य कारणत्वाच. संयोगेन = शब्दसाक्षात्कारनिरूपितकारणतावच्छेदकसंयोगसम्बन्धाश्रयत्वेन, अपि शब्दस्य द्रव्यत्वसिद्धिः निरातका वेदितव्या । एतेन शब्दोऽम्बरगुणः इति प्रशस्तपादभाष्यवचनमपि निराकृतम्, स्पर्शवत्त्वात्यत्व- महत्त्वसम्बन्ध वायुनिभिन्नकप्रतिनिवर्तन- परत्वापरत्व - संयोग-विभाग-चंग सङ्ख्या- क्रियादिमत्त्वस्यान्यथानुपपत्तेश्व | अधिकं तु मत्कृतमोक्षरत्नाती ऽवगन्तव्यम् ।
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विचारफलं
एतेन = शब्दस्य द्रव्यत्वं प्रमाणीपददर्शनेन अस्य च निरस्तमित्यनेनान्वयः । शब्दस्य द्रव्यत्त्वे स्वीक्रियमाणं अनन्तसंयोगतत्प्रागभावप्रध्वंसादिकल्पनागौरवं = शब्दनिष्ठानन्तेन्द्रियादिसंयोग-नादृशसंयोगप्रागभाव- तादृशप्रागभावध्वंस तादृशानन्नसंयोगध्वंस - समवायवृत्तिशब्दप्रतियोगिकत्व क्लुमपदार्थभिन्नत्यादिकल्पनागौरवं अपि निरस्तम्, तस्य तादृशानन्तसंयोगव्यक्तिप्रभुतिकल्पनरूपगौरवज्ञानस्य फलमुखत्वेनाऽदीपत्वादिति । फलं शब्दस्य द्रव्यत्वनिश्वयः, तन्मुखत्वेन तदुत्तरकालीनत्वेनेत्यर्थः फलं भुखं = पूर्वकालीनं यस्येति व्युत्पत्तेः । उत्तरकालीनगौरवज्ञानस्य स्वपूर्वकालिकनिश्वयाऽप्रतिबन्धकत्वेन अदोषत्वात = निर्दोषत्वादित्यर्थः, अन्यथाऽद्वैतवादापनेरित्युक्तत्वात् । एतेन शब्दस्य सावयवत्वेऽनन्तावयवतन्नाशादिकल्पनागौरवादि' (सु.मं.पू. ३६७) नि मुक्तावलीमञ्जूषाकारोक्तिः प्रत्युक्ता प्रमाणप्रवृत्तिसमयं सिद्धयसिद्धिभ्यां व्याघातेन तस्याऽदोषत्वात् । अत एव 'जन्यत्वे सत्यनेकद्रव्यसमवेतत्वाभावेन इत्यभिन्नत्वसाधनसम्भवाच्छब्दस्यानेकद्रव्यसमवेतत्वाभावश्व तदाश्रयानेकद्रव्यकल्पने गौरवप्रसादेव सिध्यति' (मु.मं.पू. ३६६ ) इत्यपि पट्टाभिरामवचनं प्रत्याख्यानम्, ततः कर्णबधिरीकरणशिथिलकुइयादिपातनाद्यन्यधानुपपत्तेस्तस्यानेकद्रव्यसमवेतत्वसिद्धया हेतो: स्वरूपाःसिद्धत्वात् ।
श्रोत्रेन्द्रियव्यवस्थापकत्वेन = श्रीवस्पेन्द्रियान्तरत्वसाधकेन शब्दस्य गुणत्वसिद्धी पारिशेषन्यायेन अम्बरगुणत्वसिद्धिः । यदि शब्दस्य गुणत्वं न स्यान् न स्यादेव तर्हि कर्णशष्कुल्पवच्छिनाकाशस्य श्रोत्रेन्द्रियत्वं, तंत्रन्द्रियान्तराऽग्राह्य-स्वग्राह्यगुणाभावात् इन्द्रियान्तराऽग्राह्मगुणग्राहकत्वस्यैव भिन्नन्द्रियत्वव्यवस्थापकत्वादित्यपि कश्चित् वदति सोऽपि न विपश्चित्, यद्यपि व्याप्याभावस्य | संयोग सम्बन्ध का आश्रय होने से शब्द द्रव्यात्मक ही सिद्ध होता है, न कि गुणात्मक । संयोग गुणस्वरूप है और गुण केवल द्रव्य में ही रहता है | अतः श्रोत्रसंयोग के आश्रय शब्द को गुण नहीं माना जा सकता किन्तु द्रव्यात्मक ही यह सिद्ध होता है । इस तरह प्रमाण से शब्द में द्रव्यत्व की सिद्धि होने से शब्द को द्रव्य मानने पर उसके अनन्त संयोग, तादृवासंयोग के अनंत प्रागभाव एवं ध्वंसाभाव आदि की कल्पना करने का गौरव होगा' - इत्यादि कथन भी निरस्त हो जाता है, क्योंकि प्रमाण से शब्द में द्रव्यत्व की सिद्धि हो जाने बाद उपर्युक्त गौरव की उपस्थिति होने से वह फलमुख होने से दोपरूप नहीं है। उत्तरकालीन गौरवज्ञान अपने पूर्वकालीन निrय का प्रतिबन्धक नहीं हो सकता है, अन्यथा दण्ड-चक्र-चीवर कुलाल- कपाल आदि में भी पटकारणता का निश्श्रय नहीं हो सकेगा । इन्द्रियान्तराऽग्राह्यग्राहकत्व इन्द्रियान्तरत्वव्यवस्थापक - स्याद्वादी
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श्रीचे । अन्य नैयायिक विद्वान् का यह कथन है कि 'शब्द को द्रव्य मानने पर क्षेत्र में इन्द्रियत्व की सिद्धिनहीं होगी, क्योंकि अन्य इन्द्रिय से अग्राह्य गुण का ग्राहकत्व = ग्रहजनकत्व = प्रत्यक्षकारणत्व ही क्लृप्त इन्द्रिय से भिन्न इन्द्रियत्व का व्याप्य एवं व्यवस्थापक है । शब्द को गुण न माना जाय तब तो श्रोत्र में इन्द्रियान्तर से अग्राह्य गुण का ग्राहकल्ब ही नहीं रहेगा । मगर क्षेत्र में इन्द्रियत्व तो उभयपक्षसंमत है। अतः श्रोत्र में इन्द्रियत्व के व्यवस्थापक भिनेन्द्रियाग्राह्यगुणग्राहकत्व से श्रोत्रग्राह्य शब्द में गुणत्र की सिद्धि होती है। पृथ्वी आदि का तो शब्द गुण नहीं हो सकता । इसलिये पारिशेषन्याय से श्रावण प्रत्यक्ष के विषवीभूत शब्द में आकाशगुणत्व की सिद्धि होती है मगर यह कथन इसलिए निराधार
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६०६ मध्यमस्पाद्वादरहस्ये खण्डः ३ का.९१ * गुणान्तविनेन्द्रियान्तरव्ययस्थान में कारः * विपश्चित्, इन्द्रियान्तराऽग्राहगाहकत्वमेव मिनेन्द्रियत्वव्याप्यं, न तु गुणान्तर्भावेन गौरवादित्युक्तत्वात, शब्दैकत्वादिग्रहस्याऽपि श्रोप्राधीनत्वाच्च । तेता श्रोग्रेन्द्रियं द्रव्याग्राहकं रूपस्पर्शाऽग्राहकबहिरिन्द्रियत्वाद्रसनवदि'त्यपि निरस्तम्,
-* जयलता * न व्यापकाभावसाधकत्वं तथापि स्फुटन्वानदुपेक्ष्य दोषान्तरमाह, इन्द्रियान्तराऽग्राह्यग्राहकत्वमेव = इन्द्रियान्तराग्राह्यगांचर - लौकिकप्रत्यक्षजनकतावच्छेदकमेव, भिन्नेन्द्रियत्वव्याप्यं = इन्द्रियान्तरत्वव्याप्यं, न तु गुणान्तर्भावेन इन्द्रियान्नराम्राह्मगुण. ग्राहकवं, गौरवादिति = शरीरकृतगौरवादिति उस्तत्वात = 'लावादिन्द्रियान्तराऽग्राह्यग्राहकल्वमात्रस्यैव मिलेन्द्रियत्वव्यवस्थापकत्वादिति (दृश्यतां ३५२ नम पृष्ठे) तमोद्रव्यत्ववाद तौतातिककदेशिमतनिरूपणाबसरे गदितल्यात्, इन्द्रियान्तराग्राह्यगुणाग्राहकत्वत्वस्य गुरुतया हेतुतानवच्छेदकत्वेन ब्याण्यत्वासिद्धिरिति भावः । न चैवं तामसेन्द्रियसिद्धिप्रसङ्ग इति वाच्यम्, आलोकनिरपेक्षचक्षुपच तमोग्रहसम्भवस्योक्तत्त्वात् । कर्णशकुल्यवच्छिन्नाकाशम्य नु श्रीन्द्रियत्वं नेवास्माकमिष्टमित्यनभ्युपगतोपालम्भ इत्यपि द्रष्टव्यम् ।
अस्तु वेन्द्रियान्नराग्राह्मगुणग्राहकत्वस्पेन्द्रियान्तरत्वच्याप्यत्वं तथापि श्रोत्रस्येन्द्रियान्तरत्वं सिध्यतीत्याहापनाह . शब्दकत्वादिग्रहस्याऽपि ओराधीनत्वाच । न हि शब्दवृत्त्येकत्वादिक कर्गतरेन्द्रियेण गृह्यते । ततश्चन्द्रियान्तराना हास्य शब्दनिष्ट - कत्वादिगणस्य ग्राहकत्वाच्छोत्रस्यन्द्रियान्तरत्वमनाविलमव । न च स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेनवेकत्वं शदे भासत इति वक्तव्यम्, साक्षात्सम्बन्धसम्भवे परम्परासम्बन्धकल्यन गैरवात, द्वित्व- बहुत्यादिप्रतीत्यनुपपत्तेश्च । एतेनापेक्षावद्भिविशेषविषयत्वरूपकत्वादिकल्पनापि प्रत्युक्ता, प्रदादाविव निरुपचरितैकत्व दरेव शब्दे प्रतीतः ।
एतेन = ओत्रस्प एकत्वाद्याश्रपशब्दग्राहकत्वप्रतिपादनेन । निरस्तमित्यनेनास्यान्वयः । श्रीन्द्रियमिति पक्ष-निर्देशाः द्रव्याऽग्राहकमिति। द्रव्यगोचरलौकिकप्रत्यक्षजनकत्वाभावः साध्यः । हेतुमाह रूपस्पर्शाग्राहकबहिरिन्द्रियत्वात् । इन्द्रियत्वादित्युक्ते मनसि व्यभिचारः तस्यात्म-द्रमग्राहकत्वादिति बहिरित्युक्तम् । तथापि घटस्पार्शनजनकस्पर्शनेन्द्रिवंग व्यभिचार इनि स्पांग्राहकेयुक्तम् । तथापि घटचाक्षुषजनकचक्षुरिन्द्रिपे व्यभिचाराद्रूपस्याऽपि तन्न निवेशः । यद्योग चक्षुषि भएपभियाग्राहकबहिरिन्द्रियत्न सत्यपि द्रव्यग्राहकत्वमस्ति तथापि रूपस्पर्शान्यतराग्राहकबहिरिन्द्रियत्वत्वस्य हेततावच्छेदकत्वमिन्यन्न तात्पर्यमिति न दोपः । दृष्टान्तमाह . रसनवदिति यथा रूपस्पशाग्राहकबाहिरिन्द्रियत्वेन रसनस्य न द्रव्यग्राहकत्वं नथव श्रोत्रस्यापि द्रव्याग्राहकञ्चसिद्भया
हो जाता है कि भिनेन्द्रियत्व का व्याप्य केवल इन्द्रियान्नगाग्राहाग्राहकत्व ही है, न कि उसमें गुप का प्रवेश कर के इन्द्रियान्नराग्राह्यगुणग्राहकत्व उसका व्याप्य है, क्योंकि गुग का निवेश करने पर गौरव है - यह तो पहले अन्धकारवाद में (देखिये द्वितीय संघ पृ. ३५५) कहा जा चुका है। जर. लघुरूप में व्याप्यता मुमकिन हो तब गुरुमप से व्याप्ति का स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि तब व्याप्यत्वाऽसिद्धि दोप प्रसस्त होता है। अतः पान्द गुणात्मक न हो तो भी इन्द्रियान्तर से अग्राह्य ऐसे शब्द का ग्राहक होने से श्रोत्र में इन्द्रियान्तरत्व की सिद्धि निरागाध है। इसलिए शब्द में द्रव्यत्व की सिद्धि निराबाध है । दूसरी रात यह है कि अभ्युपगमवाद से नैयापिकमान्य इन्द्रियान्तराऽग्राह्यगुणग्राहकत्व को भित्रन्द्रियत्व का व्याप्य माना जाय तो भी आंत्र में इन्द्रियान्तरत्व की सिद्धि निरागाध है, क्योंकि इन्द्रियान्तर में अग्राह्य ऐसे एकत्व, द्वित्व, महत्त्वादि गुणों का, जो शब्दनिष्ठ हैं, ग्राहकत्व श्रोत्र में रहता ही है । शब्दनिष्ट एकत्व आदि गुण का साक्षात्कार कंबल श्रोत्र के ही अधीन है। इस तरह एकत्वादि गुण का आश्रय होने से शब्द में द्रव्यत्व की सिद्धि भी निगराध है । इस तरह जब शन्दनिष्ट एकत्व | आदि गुण का एवं गुणाश्रय होने की वजह द्रव्यात्मक शब्द के ग्राहकत्व = लौकिक-साक्षात्कारजनकत्व की श्रोत्र में सिद्धि हो जाने पर यह कहना कि --श्रोत्रेन्द्रिय द्रव्यग्राहक - द्रव्यविषयकलौकिकसाक्षात्कारजनकत्वविशिष्ट नहीं है, क्योंकि यह रूप एवं स्पर्श की अग्राहक चहिरिन्द्रिय है . जो रहिरिन्द्रिय रूप या स्पर्श की ग्राइक नहीं होती है वह व्यग्राहक नहीं होती है, जैसे कि रसनेन्द्रिय । श्रोत्रात्मक रहिरिन्द्रिय भी रूप-स्पान्यतर की ग्राहक नहीं है । अतएच वह भी द्रव्यग्राहक नहीं है । अतः शन्द को द्रन्य मानने पर उसमें श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यता नामुमकिन हो जायेगी । मगर थोत्रेन्द्रिय शब्दग्राहक है यह तो छोटे बच्चे भी जानते हैं। इसलिए शब्द में प्रसिद्ध श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यन्य की अनुपपत्ति के बल से शन्न में द्रव्यच राधित होता है' -भी बेकार है, क्योंकि इस अनुमान में कोई विपक्षवाधक तर्क नहीं है। रूपस्पशांन्वतराग्राहकहिरिन्द्रियत्व होने पर भी श्रोत्र में शब्दात्मक द्रव्य की ग्राहकता हो तो क्या दोष है ? इस व्यभिचारशका का निवर्तक कोई नर्क नैयायिकपक्ष में नहीं है। विपक्षबाधक नर्क न होने पर विवक्षित हेतु मे साध्य की सिद्धि कैसे हो सकेगी ? यदि यहाँ नयायिक की
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*नवार्थवृनिसंबाडेन मञ्जूषाकृन्माननिगसः * अप्रयोजकत्वात् । द्रव्यग्रहप्रयोजकप्रत्यासत्तेरभिहितत्वेन तदसिन्दिरूपविपक्षबाधकतकाभावात्।
शब्दः पौगलिक: इन्द्रियार्थत्वास्पादिवत्, शब्दो ताम्बरगुणोऽस्मदादिप्रत्यक्षत्वात् सपादिवदिति तु प्राय: ।
* रालता* दाब्दस्य द्रव्यत्वे श्रोत्रस्य शब्दाहकत्वं न स्यादित्याशय आशेपकृतः।
तबिरसने हेतुमाह - अप्रयोजकत्वात् = व्यभिचारशकानिवर्तकानुकूलतर्कबिरहान । न च श्रीनेन्द्रियस्य द्रव्यात्मकग़न्दग्रहणे द्रव्यान्तरग्रहणप्रसङ्गस्यैव बाधकत्वमिति वाच्यम्, द्रच्यान्तरस्य श्रोत्रेणान्याम्पत्वादपि नदग्राह्यत्वस्योपपत्रेः।नत्र द्रव्यग्राहकप्रत्यासत्तिविरहादेव श्रीवस्य रसनवत् द्रव्यग्राहकत्वासम्भव इति वक्तव्यम्, द्रव्यग्रह्मयोजकप्रत्यासत्तेः = स्वसंयोगलक्षमाया द्रव्यगोचरज्ञानप्रयोजकाप्नत्यासत्तेः, पूर्व अभिहितत्वेन तदसिद्धिरूपविपक्षबाधकताभावात् = श्रीअनिष्ठत्वेन द्रव्यग्राहकप्रत्यासच्या असिद्भिरूपी यो विपक्षबाधकतर्कन्नस्य चिरहत् । साध्यचिकलश्च दृष्टान्तः, अस्माभिः स्याद्वादिभिः सप्विन्द्रियेषु द्रव्यग्राहकत्वस्य स्वीकृतत्वात. स्वसंयोगलक्षणद्रव्यग्राहकात्यासत्तेरविशेषादिति व्यक्तमेव तत्त्वार्थटीकायाम । अत एव चक्षमनःस्पर्शनेन्द्रियाण्यत्र द्रव्यग्राहकाणीत्येकान्तोऽपि प्रत्याख्यातः, सम्मिश्रीत्रीलचियता मन्द्रियेषु ज्यभिचाराच । एतन नव्यमनानुसारेण शब्दस्य गुणत्वं साधयता मुक्तावलीम पाकता “चाहना योग्यत्यगिन्द्रियातिरिक्त-बहिरिन्द्रियग्राह्यजात्तिमत्वस्य हेतुत्वसम्भवात्' (का.४४ मु. पृ.३६५) इत्युक्तं तदपास्तम् ।
प्राचां शब्दे दन्यत्वसाधन-गगनगुणत्वबाथपद्धतिमाविष्काति · शब्द इति । रत्नाकरावतारिकायां तु पूचानरमावेनानु. मानद्वयमिदमुपदर्शितं रत्नप्रभाचार्येण । तथाहि - 'न गगनगुणः शब्दः अस्मदादिप्रत्यक्षत्वात् रूपादिवत् । पौगलिकशब्द इन्द्रियार्थत्वात, रूपादिवदेव' (र.अ. 110) त । बलिप्रत्यक्षागनगुण व्यभिचारवारणाय असादादा'त्युक्तम् । प्राश्च इत्यनेना स्वरसोद्भावनं कृतम् । तद्वीजन्चिदम् - नैयायिकादीनां रुपादिषु द्रव्यत्वरूपस्य पौलिकत्वस्याऽनाममतत्वे तान्प्रत्येवं बक्तमशस्थत्वात, तन्मते दृष्टान्तस्य माध्यविकलवं. हेतोयभिचारित्वञ्च । न च द्रव्यत्वे सतीन्द्रियार्धत्वादित्यपि हेतः सम्भवति: अन्योन्याश्रयात्, दृष्टान्तस्य साधनविकलत्वापनेश्च । गदि च पौगलिकत्वं गुगलपरिणामरूपं गृह्यत तदा न कश्चिदंष इति तु ध्येयम् । न चात्म-ज्ञानादर्मनोलक्षणेन्द्रियार्थवादयभिचार इति वाचम, स्वनय मनसो नाइन्द्रियत्वात् यद्रा गहिगिन्द्रियार्थत्वं हेतुरस्नु ।
अन्ये ऽपि प्राश्चो जैनाचार्याः 'शब्दो द्रव्यं गणयचात बाणादिवत् । न च गुणवत्त्वमस्या सिद्धम्, तथाहि - गुणरान शब्दः स्पर्शाद्याश्रयत्वात्, बदगमलकादिवत । न तावत्स्पर्शाश्रयत्वमसिद्धम् । तथाहि शब्द: स्पर्दावान् स्वसम्बद्भार्धान्तराभिघातहतुत्वात ओर से ऐसा कहा जाय कि → 'श्रोत्रेन्द्रिय में द्रव्यग्राहक प्रत्यासत्ति नहीं है, किन्तु गुणादिग्राहक प्रत्यासत्ति है। इव्यविषपक लौकिक साक्षात्कार में प्रयोजक प्रत्यासत्ति न होने पर भी यदि श्रोत्र में द्रव्यग्राहकता मानी जाय तब तो द्रव्यग्रहप्रयोजकशुन्य रसनेन्द्रिय से भी द्रव्य का प्रत्यक्ष होने लगेगा। अतः श्रोत्रेन्द्रिय की द्रव्यग्राहकता में दव्यप्रत्यक्षप्रयोजकप्रत्यासति की असिद्धिस्वरूप विपक्षबाधक तर्क की उपस्थिति होने से रूपस्पर्शान्यतराऽग्राहकबाहिरिन्द्रयत्व हेतु से श्रोत्रंद्रिय में द्रव्याऽग्राहकता की सिद्धि निगराध है' -तो यह भी असहन है, क्योंकि द्रव्यात्मक शब्द के लौकिक साक्षात्कार में प्रयोजक संयोगनामक प्रत्यासत्ति का श्रोत्रन्द्रिय में हम पहले ही लाघवसहकार से निर्देवा कर चुके हैं । अतः श्रोत्र में द्रयग्राहकप्रत्यासत्ति की असिद्धिस्वरूप विपक्षबायक सर्क की सिद्धि ही नामुमकिन है। इसलिए प्रदर्शित अनुमान में अप्रयोजकत्व दोप तदयस्थ रहने से वह श्रीन्द्रिय में द्रव्यग्राहकता का बाधक नहीं हो सकता है। अतएव बाद में दन्यत्व की सिद्धि भी निगराध है . वह फलित होता है ।
मह प्राचीन जैनाचार्यों का सम्पदव्यत्वादिसाधक अनुमान पान्दः पी. । शब्दस्थल में रत्नप्रभसूनिभति प्राचीन जैनाचार्यों का यह वक्तव्य है कि . शन्न पाङ्गलिक है, क्योंकि वह इन्द्रिय का विषय है। जो इन्द्रिय का विषय होता है वह पौगलिक = पुदगलपरिणामस्वरूप होता है, जैसे रूपादि । मन्द भी ओत्रात्मक इन्द्रिय का विषय होने से पुद्गलपरिणाम है । एवं शब्द आकाश का गुण नहीं है, क्योंकि उसका हमें प्रत्यक्ष होना है। जो हमारे प्रत्यक्ष का विषय होता है बह आकाश का गुण नहीं होता है, जैसे कि रूपारि । गन्द्र भी हमारे प्रत्यक्ष का विषय है। अतः वह आकार का गुण नहीं हो सकता । इस तरह शब्द में पोद्गलिकता का विधानसमर्थन एवं गगनगुणत्व का निषेध पूर्वाचार्यों ने किया है।
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६९८ मध्यमरयाद्वादरहस्ये खण्ड ३ का. २१ * मामांसाठीतिककुमतापाकरणम
'आगतोऽयं शब्द:' इत्यादिप्रतीत्याऽपि क्रियावत्त्वाच्छब्दो द्रव्यम् । न च पवमानगतक्रियैव शब्दे आरोप्यत इति वाच्यम्, एवं सति कत्वादीनामये पवमानगतत्वापत्त्या शब्दस्य निरुपाव्य* गयलता है
मुद्गरादिवत् । एवं शब्दोऽलात्वाद्याश्रमः अत्रत्वप्रकारकप्रतीतिविषयत्वात् । अत्यः शब्दः महान शब्द इत्यादिप्रतीतेः सद्भावादित्याहुः । तदुक्तं स्याद्वादरत्नाकरेऽपि वर्णः पौद्गलिक मूर्त्तित्त्वायन्मूर्तिनाद्गलिकं यथा पृथिव्यादि । मूर्तिमांश्च वर्णस्तस्माद्गलिक इति । न च मूर्तिमत्त्वमस्याः सिद्धम् स्पर्शवत्वात् । यत्पुनर्मूर्तिमन्न भवति न तत्स्पर्शवत् यथा व्योम | पांव वर्णः । ततो मूर्तिमान् । न च स्पर्शवत्त्वमस्य प्रतीतम् कर्णकुहरं प्रविशति ध्वनी कर्णशष्कुलिकान्ततः स्वस्यानुभूयमानत्वात् । ततः स्पर्शवत्वाद्रूपरसगन्धस्पर्शवन्नलक्षणामूर्तिर्ध्वनी प्रसिद्धिपद्धतिभवतरति । यदि पुनर्ध्वनिरमूर्तिः स्यात्कर्णशष्कुत्यां स्पर्शापलब्धिर्न स्यात्, उपघाती वा चालकादिकाणी (स्या र ४ / १० पु. ६३९ ) इत्यादिकम् अधिकं बुभुत्सुभिः स्याद्भादकल्पलतासम्मतितर्क - द्वादशारनयचक्रादिकमभ्यसनीयम् ।
I
किञ्च दुरादागतीयं शब्दः समीपादागतीऽयं शब्द' इत्यादी श्रोत्रेण शब्दगतक्रियाविशेषः साक्षादेव गृह्यते यथा 'दूरादागतोऽयं मृगमदपरिमलः समीपादागतोऽयं मृगमदपरिमल' इत्यादी प्राणेन गन्धक्रियाविशेषवत् । इत्थमेव श्रीबाप्राप्य कारिशुद्धीदनीमता पाकरणात् क्रियाविशेषग्रहादेव दुरादिव्यवहारोपपत्तेः दुरस्थात्वादेः श्रत्रेण गृहीतुमशक्यत्वात् । दूरस्थस्यैव शब्दस्य ग्रहे दूरस्थ भर्यादिशन्ददशायां मशकादिशब्दस्यानभिभवप्रसङ्गाच्च । इत्थञ्च क्रियावत्त्वादपि शन्दस्य द्रव्यत्वसिद्विरय्यानेत्याशयेन प्रकरणकृदाह 'आगतोऽयं शब्द:' इत्यादिप्रतीत्यापीति । प्रयोगस्त्वेवम्, शब्दों द्रव्यं क्रियावत्त्वात् शरखदिति । न च पत्रमानगतक्रिया = निमित्तकारणीभूतपवनसमवेतक्रिया, एवं शब्दे आरोप्यते, स्वाभाविकरांतरन्यगत्यनुविधानानुपपत्तेरिति वाव्यम् इन्द्रनील भागतंरिन्द्रनीलगत्यनुविधा नवदुपपत्तेः शब्दनिष्ठतयैव क्रियावत्त्वप्रतीति भ्रमत्यकल्पने मानाभावात् गौरवाच । | एतेन शब्दस्यागमनं तावद्दुष्टं परिकल्पितम् । मूर्तिस्पर्शादिमत्त्वञ्च तेषामभिभवः सनाम । त्वगग्राशत्वमन्ये च भागाः सूक्ष्माः प्रकीर्तिताः ॥ श्रो.वा.श.नि.अ. १०७ / १०८ श्रीक) इति कुमारिलभट्टवचनमपि निराकृतम् शब्दनिष्ठस्पर्शादि प्रमाणस्य दर्शितत्वेन तादृशगौरवस्य फलमुखत्वात् ।
किञ्च एवं सति शब्दे पवनगतरात्यागे पस्वीकार सति तु कत्वादीनामपि पत्रमानगतत्वापत्त्या शब्दे पवनगतकत्वखत्वाद्यारोपप्रसङ्गः, अन्यथाऽर्धजरतीयप्रसङ्गात्। ततश्च यथा निमित्तपवनगता क्रिया शब्दे आरोप्यते तथैव निमित्तमद्धता एवं कत्वादयोऽप्यारोष्यन्त इत्यभ्युपगन्तव्यं स्यात् । न चेष्टापत्तिरिति वक्तव्यम्, शब्दनिष्ठतया प्रतीयमानानां सर्वेषां क्रिया-कत्वखत्वादीनां पवनगतत्वे शब्दस्य निरुपाख्यत्वापत्तेः = निःस्वरूपत्वप्रसङ्गात् । अतः कत्वादिवत् क्रियाया अपि शब्दगतत्वमुपगन्तव्यम्,
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इस क्रिया का आश्रय होने से शब्द द्रव्य है- स्थादादी स
आग | इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि 'यह शब्द दूर से आया है, वह शब्द नजदीक से आया है' इत्यादि | प्रतीति होने से शब्द में गमन आदि क्रिया की अबाधित सिद्धि होती है। क्रिया का आश्रय गुण तो नहीं होता है, क्योंकि क्रिया का समवायिकारण द्रव्य ही होना है। अतः क्रिया का आश्रय होने से शब्द अन्य है । यहाँ यह शंका कि शब्द तो वस्तुतः निष्क्रिय ही है, किन्तु शब्द का निमित्तकारणीभूत पवन ही सक्रिय होता है । अतः शब्दनिमित्तभूत पवन में समवेत क्रिया का सामीप्यादि की वजह शब्द में आरोप होता है । आरोपमान्त्र से शब्द में वस्तुतः क्रिया की सिद्धि नहीं हो सकती है' - इसलिए तथ्यहीन है कि 'दूरादागतोऽयं कशब्द:' इत्यादि प्रतीत्ति में जैसे पवनगत आगमन क्रिया का शब्द में आरोपित भान माना जाता है ठीक वैसे ही पवनगत कन्च, शब्दत्व आदि का भी शब्द में आरोपित भान मानने की आपत्ति आयेगी, क्योंकि इसमें कोई विनिगमक तर्क तो नहीं है कि शब्द में पवनगत क्रिया का ही आरोपित भान माना जाय, न कि पवनगत कत्व, शब्दव आदि का । इस तरह शब्द में जिन धर्मों का भान होता है वह आरोपित होता है एवं व धर्म पचनगत ही होते हैं - यह अनिच्छा से भी मान्य करने पर जो शब्द का अपना कुछ स्वरूप ही न बचेगा । फलतः शब्द निरुपाख्य निःस्वभाव बनने की आपत्ति नैयायिक के सर पर आयेगी । इसलिए यही मानना उचित है कि शब्द ही पवन के अनुसार परिसर्पण = गति करता है । अतः शब्द में क्रियाश्रयत्व निराबाध है। कहा भी गया है कि 'जैसे आकाश में पवन से कर्पास (रुई) प्रेरित होता है ठीक वैसे ही शब्द भी आकाश में पवन से प्रेरित होकर इधर-उधर जाता है। वायु के सामने क्या कोई जाता
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* शन्दम्य द्रव्यत्व गौरवानवकाशः ** त्वायत्तेः। ततश्च शब्दोऽनुपरमानं परिसपत्येवेत्यवश्यं प्रतिपत्तव्यम। उक्तश्च-'यथा हिप्रेर्यते तूलमाकाशे मातरिश्वना । तथा शब्दोऽपि, किं वायो: प्रतीयं कोऽपि गच्छती'ति ।( )
जल शब्दस्य द्रव्यत्वे तदेकत्वत्वादिग्रहाय श्रोत्रसंयुक्तसमवेतसमवायस्य प्रत्यासत्तित्वे गौरवमिति चेत् ? , इन्द्रियसंयुक्तसमवेतसमवायस्यैव सामान्यतः प्रत्यासत्तित्वात, रूप
* जायलता * | अविशेषात् । पयनस्य शब्दगतक्रियानिमिनकरणत्वं तु न निवारयामः । अत्रैव संवादमाह - उक्तश्चेति । निगदसिद्धोऽयं श्लोकः ।
स्कन्धन्यस्तगिरित्वमनिलपुत्रे बदन्नयम । मरुतोऽनुलमामर्थ्य न प्रतिक्षेनुमर्हति ।।१।।
ननु शब्दस्य द्रव्यत्वे मति तदेकत्वत्वादिग्रहाय = शब्दनिष्टकत्वसत्र्यावृत्त्येकत्वत्वनातिप्रभृनिगोचरली किकसन्निकर्ष - अन्यसाक्षात्कारोपपादनकृन, श्रोत्रसंयुक्तसमवेतसमवायस्य पार्थक्येन प्रत्यासनित्व कल्पनीय गौरवम् । न्यायनय श्रोत्रसमवायन शब्दग्रहः, श्रीनसमवेत-समवायन शब्दत्वादिग्रहः, शब्दस्य गुणले तत्रैकत्वादिविरहेण न नंदकत्ववादिग्रहाय श्रोत्रसमवनसमवन - समवायादिप्रत्यासनिकल्पनम । ग्यदानिमतं तु तदर्थं श्रोसंयुक्तसमवेतसमवायस्य प्रत्यानित्यकल्पनारवमिति नन्त्राशयः ।
तन्निगकुरुते . नेति । द्वग्यसमवेतसमवंत प्रत्यक्षत्वावच्छिन्नं प्रति इन्द्रियसंयुक्तसमवेतसमवायस्यैव सामान्यतः प्रत्यासत्तित्वात् न तु श्रीवभिन्नेन्द्रियसंयुक्तसमवतसमवायस्य, संकोचे मानाभारात, परमनं यावर्तकाभान व्यर्थविशेषणत्वात्, गोरखाच । तता घटगतकल्लनिकलत्वादिस्मार्शनं स्वसंयक्तसमवेनसमवायप्रन्यासन्या त्वगिन्द्रिोणोपजायते नव शब्दकलत्वादिसाक्षात्कार: स्वसंयुक्तसमवेन-सनवायप्रत्यासत्त्यैव श्रोत्रेण जन्पन इति न तदर्थं पृथकप्रत्यायनित्वकल्पनगौरवम् ।
ननु विषयतया द्रव्याकिकप्रत्यक्षत्वाव छिन्नं प्रति यद्वा द्रव्यनिष्ठलौकिकविषयतासम्बन्धेन प्रत्यक्षत्यावच्छिन्नं प्रति है?' 'पवनपुत्र हनुमानजी मारा का सारा पनत उठाकर ले चले' ऐसा माननेवाले आप नैयायिक महाशय 'पवन का कितना | अतुल बल होगा?' यह शांति से सोचिये । निष्कर्ष : शन्न की गति पवन के अनुमार होती है ।
शस्दत्यपक्ष में गौरव की आशा और परिहार ननु श. इति । शब्द को गुण न मान कर द्रव्य मानने में यह शंका हो कि → 'दाद को द्रव्य मानने पर शब्दगत एकत्व आदि संख्यास्वरूप गुण में रहनेवाली एकत्वत्व आदि जाति के साक्षात्कारापे श्रोत्रसंयुक्तसमवेनसमवाय नामक अतिरिक्त प्रत्यासनि = लौकिकसत्रिकर्ष की कल्पना करनी होगी। दखिय, प्रोत्रेन्द्रिय में संयुक्त शब्दद्रव्य, उसमें समवेत एकत्व आदि संख्या और उसमें समवेत होगा एकत्वत्व आदि । अतः एकत्वत्व आदि जाति में श्रोत्र इन्दिय स्वसंयुक्तसमवेतसमवायसम्बन्ध से रहेगी और वहाँ विपयतासम्बन्ध से एकत्यत्वादिसाक्षात्कार को उत्पन करेगी। मगर श्रोत्रसंयुक्तममचेतसमवाय नामक सत्रिकर्ष किसी भी पदार्थ के प्रत्यक्ष में आवश्यक = अवश्यक्लप्त नहीं है, क्योंकि उस प्रत्यासनि से अन्य किसी का लीफिक प्रत्यक्ष नहीं होता है। मगर शब्द को द्रव्य मानने वाले स्याद्वादी के मन में ही उक्त स्वतन्त्र मनिकर्ष की कल्पना करनी होगी, जो कि गौरवग्रस्त होने की वजह त्याज्य है । शन्द को गुण माननेवाले नैयायिक आदि के मतानुसार तो शब्द में एकत्य आदि संस्था, जो गुणात्मक होती है और उन्यमात्रवृत्ति होती है, ही नहीं रहती है। अतएव उनके मतानुसार तो शकत्वावजानि आदि ही अप्रसिद्ध होने की वजह उसके साक्षात्कार के लिए किमी अतिरिक्त सन्निकर्ष की कल्पना अनावश्यक होगी - तो यह इसलिए निराकृत हो जाती है कि गुणादिगन जाति के साक्षात्कार के प्रति सामान्यत: इन्द्रियसंयुक्तसमवेनसमवाय ही लौकिक सन्निकर्प बनता है, न कि वक्षुःसंयुक्नसमवेतसमवाय, स्पर्शनसंयुक्तसमवेतसमवाय, प्राणसंयुक्तसमवंतसमवाय आदि विशेष, क्योंकि तथाविध कल्पना करने में गौरव है और व्यतिरेक न्यभिचार भी प्रसस्त होना है। इस तरह विपयतासम्बन्ध से गुणादिसमवनजात्तिविषयक साक्षात्कार के प्रति इन्द्रियसंयुक्तसमवेतसमवाय ही लौकिकप्रत्यासनि है - यह उभयमसिद्ध = अवश्यकलप्त है। इसीसे शन्दैकत्वत्व आदि के साक्षात्कार की उपपत्ति हो जाती है, क्योंकि इन्द्रिय =थोत्र) से मंयुक्न = शन्न में समवंत = एकत्यादिसंख्या में एकत्वत्वादि समचत होने से स्वसंयुक्तसमवतसमरायसनिफर्य से श्रीत्रात्मक. इन्द्रिय शब्दकत्वत्वादि में रहती है, जहाँ विषयता सम्बन्ध में शन्दकत्वत्वादिप्रत्यक्ष उम्पन होता है। अतः शब्दद्रन्यपक्ष में दादकत्वस्वादिप्रत्यक्षानुरोध से अतिरिक्त प्रत्यासत्ति की कल्पना का गौरव अप्रसस्त है।
सद के ताक्षुष और सपार्सन | परिहा । रूगा. इति । यहाँ यह शङ्का हो कि > "रि शब्द को द्रव्य माना जाय एवं उसका लौकिक साक्षात्कार भी
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७= = मध्यमस्याद्वादरहस्यं खण्ड ३ का. २१ मुक्तावलीकारविश्वनाथभङ्गवचनप्रतिक्षेपः
स्पर्शयोः पृथग्नियामकत्वेनैवाऽयोग्याऽचाक्षुषाऽस्पार्शन निर्वाहातदनुरोधेन विशिष्य प्रत्यासत्तित्वाऽकल्पनात्, घाणादौ पृथिवीत्वादेर्मानाभावेनेन्द्रियत्वस्य जातित्वात् ।
ॐ गयलता *
| समवायेनीद्भूतरूपस्पर्शयो: कारणत्वान्निरुक्तप्रत्त्यासत्त्या शब्दे प्रत्यक्षं नोत्यनुमर्हति स्याद्वादिनये केचिद्भूत स्पर्शसचेऽपि शब्दत्वावच्छिन्नस्योद्भूतरूपशून्यत्वात् । किञ्च यस्य द्रव्यस्य लौकिकं प्रत्यक्षं जायते तस्य लौकिकं चाक्षुषं स्पार्शनं च भवितुमर्हत एव, लौकिकसाक्षात्कारस्वरूपयोग्यद्रव्यत्वस्य लौकिकचाक्षुपस्पर्शनी मयस्वरूपयोग्यत्वव्याप्यत्वात् । न च लौकिकमानसविषये आत्मनि व्यभिचार इति वाच्यम्, बहिरिन्द्रियजन्यस्य प्रत्यक्षस्य विवक्षितत्त्वात् । ततश्च शब्दस्य बाह्येन्द्रियजली किकप्रत्यक्षउद्भुतरूपस्पर्शयाः, स्वरूपयोग्यद्रव्यत्वं तु सति सत्रिकर्षे चाक्षुषत्वत्पार्शनत्वापत्तिरपि दुर्वास स्वादित्याशङ्कायामाह - रूपस्पर्शयोः = पृथनियामकत्वेनैवेति । द्रव्यनिष्ठवहिरिन्द्रियजलीकिकविषयतया नित्वावच्छिन्नं प्रत्येव समवायेनोद्भूतस्पर्शस्य चाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रत्येव च समवायेनोद्भूतरूपस्य पृथक्कारणत्वं न तु प्रत्यक्षत्वावच्छिन्नं प्रति मिलितोभयस्य । निरुक्तसम्बन्धेन प्रत्यक्षत्वस्योद्भूतरूपस्पर्शकार्यतानवच्छेदकत्वात्स्वसंयोगप्रत्यासत्या श्रीरेन्द्रियेण शब्दसाक्षात्कारो निरयास एवं । न च तथापि शब्दस्य चाक्षुषत्व स्पार्शनत्वापत्तिरिति शङ्कनीयम्, लौकिकचाक्षुषस्पार्शनी भयस्वरूपयोग्यत्वव्याप्यतावच्छेदकत्वं वहिरिन्द्रियजलौकिप्रत्यक्षस्वरूपयोग्यत्वविशिष्टद्रव्यत्वत्वे द्रव्यत्वविशिष्टलौकिकचाक्षुषस्पार्शनी भय स्वरूपयोग्यतात्वं वा ? इत्यन्त्राऽचिनिगमात् पिशाचादी व्यभिचाराच । न हि पिशाचपादप्रहार सहने पिशाचस्यादर्शन सत्यपि निपुणतरं निभालनेऽपि तचाक्षुषं भवति ।
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वस्तुत इन्द्रियादिवत् स्वरूपाऽयोग्यत्वादेव शब्दस्यास्पार्शनाचाक्षुषत्वनिर्वाह इत्याशयेनाह अयोग्याचाक्षुपाs| स्पार्शननिर्वाहात् = चाक्षुष - स्पार्शनस्वरूपाऽयाग्यशब्दगीचरचाक्षुपस्पर्शनानुत्पादनिर्वाहसम्भवात । उद्भूतरूपशून्पत्वान्न शब्दस्य शब्दगोचरचाक्षुपत्वम् । त्वगिन्द्रियजन्य- प्रत्यक्षस्वरूपायांम्पत्वादेव न तत्स्पाइनित्वप्रसङ्गः । अत एव तदनुरोधेन चाक्षुषस्पार्शनानुत्पादान्धधानुपपत्त्या विशिष्य प्रत्यासत्तित्वाऽकल्पनात् = श्रीत्रसंयुक्तसमवेतसमवायेऽतिरिक्तलौकिकसन्निकर्षवाकल्पनात् ।
किञ्चास्मन्नये इन्द्रियवर्गणादिजन्यतावच्छेदकतया सिध्यत्रिन्द्रियत्वं जातिस्वरूपमेव न तु स्मृल्पजनक - ज्ञानजनकमन:| संयोगाश्रयत्वादिस्वरूपम् । तच प्रकृष्टज्ञानकारणत्वाभिव्यङ्ग्यं द्रव्यनिष्ठमित्यभ्युपगम्यते । न च पृथिवीत्वादिना साङ्कथं स्यात्, घटादाववर्तमानस्य पृथिवीत्वशून्ये चक्षुषि वर्तनानस्येन्द्रियत्वस्य पार्थिवप्राणादिवृत्तित्वादिति वाच्यम्, प्राणादी पृथिवीत्वादेः मानाभावेनेन्द्रियत्वस्य जातित्वात् । एतेन शब्देतद्भुतविशेषगुणानाश्रमले सति ज्ञानकारणमनः संयोगाश्रयत्वमिन्द्रियत्वमिति (का.५८ मु.३,४३६) मुक्तावलीकारवचनमपाकृतम् । न च प्राणादेः पर्थिवादिभिन्नत्वे मानाभावेन विनिगमनाविरह इति वाच्यम्, 'प्राणादिकं पृथिव्यादिभ्यां भिद्यते इन्द्रियत्वात् मनोवन' इत्यस्य जागरूकत्यात् । न च तर्हि मनः स्वरूपमेव प्राणादिकं प्रसज्येतेति वक्तव्यम्, महत्त्वानमनसोऽपि भिद्यते घटवत्। युक्तमहतः पृथिव्यादेः रूपरसगन्धाविन्यतमाद्भवनियमात् 'प्राणेन्द्रियं पार्थिवं रूपादिषु मध्ये | तादृशस्य च प्राणादी प्रत्यक्षवाधितत्वात् न तस्य पार्थिवत्वादिकं सम्भवति । एतेन -> गन्धस्यैवाऽभिव्यञ्जकत्वात् कुङ्कुमगन्धाऽभिव्यञ्जकतत्त् न च दृष्टान्तं स्वीयरूपादिव्य अकत्वादसिद्धिरिति वाच्यम्, परकीयरूपाद्यव्यञ्जकत्वस्य तदर्थत्वात् - (का.३८ मु.पू. ३०७ ) इति विश्वनाधवचनमपाकृतम्, अप्रयोजकत्वात् प्राणघृतादीनामक -
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माना जाय तब तो शब्द का चाक्षुप और स्पार्शन प्रत्यक्ष होने लगेगा, क्योंकि जिस द्रव्य का बहिरिन्द्रियजन्य लौकिक प्रत्यक्ष होता है उसका चाक्षुपादिसामग्री (चक्षुः मत्रिकपदि) का समवधान होने पर चाक्षुष और स्पार्शन प्रत्यक्ष अवश्य होना है, जैसे घट, पट आदि । अतः शब्दद्रव्यपक्ष में शब्द के चानुष एवं स्पार्शन की आपत्ति मुँह फाडे खड़ी रहेगी" - तो यह भी इसलिए निराधार हो जाती है कि चाक्षुप प्रत्यक्ष का नियामक है उद्भूत रूप और स्पार्शन प्रत्यक्ष का नियामक है उत स्पर्श, जो शब्द में नहीं रहते हैं । अतएव चाप एवं स्पार्शन लौकिक साक्षात्कार के लिए आत्मादि की भाँति शब्द अयोग्य है। तब शब्द के चाक्षुप एवं स्पार्शन प्रत्यक्ष की आपत्नि को अवकाश कैसे मिलेगा ? अतः शब्द का केवल श्रावण प्रत्यक्ष दो और चाक्षुपादि प्रत्यक्ष न हो उसके लिए पृथक लौकिकप्रत्यासत्ति की कल्पना का गौरव भी स्याद्वानी के पक्ष में प्रसक्त रहेगा। दूसरी बात यह है कि हमारे मत में इन्द्रियत्व भी जातिस्वरूप ही है, न कि उपास्वरूप । यहाँ यह शंका हो कि 'इन्द्रियत्व को जाति मानने पर पृथ्वीत्व आदि के साथ सांकर्य होगा, क्योंकि पृथ्वीत्वशुन्य चक्षु में इन्द्रियत्व रहता है और इन्द्रियत्वशून्य घट में पृथ्वीत्व रहता है तथा प्राणेन्द्रिय में इन्द्रियत्व और पृथिवीत्व दोनों रहते हैं'
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* शब्दस्य वीणादिगुणत्वनिरास:
ताव्यास्तु निमित्तपवनस्यैव शब्दो गुण: । अत एव निमित्तपवननाशात्तनाश:, समवायिकारणनाशस्य समवेतकार्यनाशं प्रति हेतुत्वात् । कर्णसंयुक्तनिमित्तपवनसमवायाच्च तद्ग्रहः । न च वीणा-वेणु-मृदङ्गादेरेव कुतो नायं गुण इति वाच्यम्, तेषामननुगतत्वात् निमित्तपवन
जै नरालता ॐ
| जात्या व्यञ्जकत्वस्य युक्त्सहत्वात् । मतिज्ञानप्रत्यक्षत्वसाक्षादुत्र्याप्यधर्माविच्छिन्नहेतुत्वमवेन्द्रियलक्षणम् । इन्द्रिय षद्धर्विधसन्निकर्षान्पतमप्रत्यासन्या लौकिकप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नहेतुत्वं निराबाधम् । न च जन्यपृथिवीत्याद्यवच्छिन्ने पृथिवीत्वादिना हेतुत्वस्य क्लृप्तत्वाद प्राणादेः पृथिवीत्वादिकमेवेति वाच्यम्, पृथिवीत्वादिकं जलत्वादिकं वा ? इत्यन्नाऽविनिंगमादिति दिक् । नव्या नव्यास्तु रति । आहुरित्यनेनाऽस्याऽन्वयः । तुः पूर्वोक्तापेक्षया विशेषद्योतनार्थः । तथाहि निमित्तमवनस्येव शब्दनिमित्तकारणत्वेनाऽभिभतस्य मरुतः, एककांरणाम्बरन्यवच्छेदः कृतः । शब्दनिर्मिनकारणत्वेन प्राचामभिमतस्य पवनस्यैव शब्दसमवायिकारणत्वेन शब्दस्य पवनगुणत्वमित्यर्थः अत एव शब्दं प्रति क्लुप्तनिमित्तकारणताकस्प पवनस्थ समवायेन दान्दं प्रति हेतुत्वकल्पनाचित्पादव, निमित्तपचननाशात् = शब्दनिमित्तकारणत्वेन प्राचाननैयायिकः श्रभिमतस्य वस्तुतः शब्दसमवायिकारणस्य अनिलस्य विनाशात् तन्नाशः = समवेतशब्दध्वंसः सोपपत्तिकः, प्रतियोगिता समवायिकारणनाशस्य स्वरूपतः समवेतकार्यनाशं = समवेतकार्यनाशत्वावच्छिन्नं प्रति हेतुत्वात् । अनुभूयते हि शब्दोत्पादकःनिलविरामाच्छन्दविराम: । यदि च पवनस्य शब्दसमवायिकारणत्वं न स्यात् न स्यादेव अनिलविनाशाच्छन्दविनाशः । न हि निमित्तकारणस्थित्यधीना नैमित्तिकस्थितिर्भवति । अतोऽनिलस्य तादात्म्येनैव शब्दकारणत्वमङ्गीकर्तुमर्हति ।
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30%
ननु शब्दस्याऽम्बरगुणत्वानङ्गीकारे श्रीत्रावच्छिन्नसभवायात्तद्ग्रहो न स्यादित्याशङ्कायामाहुः - कर्णसंयुक्तनिमित्तपवनसमत्रायाच्च तद्ग्रहः = शब्दसाक्षात्कारः । कर्णसंयुक्ते निमित्तकारणत्वेन प्राचामभिमतं पवने शब्दस्य समवेतत्वात् स्वमंयुक्तसमवायप्रत्यासस्था श्रीञरस शब्दग्राहकत्वात स्वसंयुक्तसमवेतसमवायसन्निकर्षेण वाब्दत्वकत्वादिसाक्षात्कारजनकत्वान्न श्रोत्रावछिन्नसमवायश्रीभावच्छिन्नसमवेतसमवाययोः प्रत्यासत्तित्वकल्पनागौरवं न वा शब्दादिप्रत्यक्षानुपपत्तिरिति नव्यनैयायिकाभिप्रायः
न च प्राचां मते व वीणादेरपि शब्दनिमित्तकारणत्वाऽविशेषात् नव्यमले पवनस्यैव शब्दः कुती गुणः ? बीणावेणु- मृदङ्गादेरेव कुतो नायं गुणः । इति वाच्यम्, तपां वीणा-वेणु- मृदङ्गादीनां अननुगतत्वात् अनतिप्रसक्तसाधारण धर्मशून्यत्वात्, विजातीयत्यात् । न च वीणावादिनंच तत्कारणत्वमस्त्विति वाच्यम्, व्यतिरेकव्यभिचारप्रसङ्गात् । न च अन्यवहितोत्तरत्वनिवेशान्नायं दोष इति वक्तव्यम्, तादृशनानाकार्य कारणभावकल्पने महागौरवात् । पचनस्तु न शब्दव्यभिचारी. तस्य शब्दत्वावच्छिन्नाव्यवहितपूर्वक्षणावच्छिन्नाभावाऽप्रतियोगित्वात् पचनत्वेनानुगतत्वाचेति निमित्तपवनस्यैव पवनत्वेन रूपेण
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तो यह असङ्गत है, क्योंकि प्राण इन्द्रिय पार्थिव है इसमें कोई प्रमाण ही नहीं है, तब सांकर्य को अवकाश कैसे १ अतः इन्द्रियत्वरूप से लौकिक प्रत्यासत्ति से इन्द्रिय को लौकिक प्रत्यक्ष का कारण माना जा सकता है । शब्द पवनगुण है
जव्यगत 3
नव्या । शब्द के बारे में नव्य विद्वानों का यह कथन है कि शब्द न तो आकाश का गुण है और न तो अन्य है किन्तु शब्दनिमित्तकारणविया अभिमत पवन का ही गुण है। इसीलिए तो निमिनीभूत पवन के नाश से शब्द का नाश हो जाता है, क्योंकि समवायिकारण का नाश समवेत कार्य के नाश का हेतु बनता है। यहाँ यह शंका कि शब्द आकाश का गुण न होगा तो आंत्र के द्वारा स्वसम्बन्ध से शब्द का प्रत्यक्ष न हो सकेगा' <- इसलिए निराधार हो जाती है कि स्वसंयुक्तसमवायसम्बन्ध ने क्षेत्र शब्दग्राहक बन सकता है। स्व = श्रोत्रेन्द्रिय, उससे संयुक्त होगा निमित्तकारणविश्रया अभिमत पवन और उसमें समवेत है शब्द | अतः स्वसंयुक्तसमवायसन्निकर्ष सेन्दका प्रत्यक्ष हो सकता है। यहाँ इस शंका का कि 'शब्द को निर्मिनकारणविघया अभिभत पचन का गुण मानना या तादृश वीणा-वेणु-मृदंग आदि का गुण मानना : इसमें कोई चिनिगमक नहीं होने से शब्द को वीणादि का ही गुण क्यों न माना जाय ?' समाधान यह है कि वीणा, वेणु, मृदङ्ग आदि गल्दनिमित्तकारण अननुगत हैं । उनमें कोई एक अनुगत धर्म नहीं है, जिस रूप से उनमें शब्दसमवायिकारणता मानी जा सके । जब कि शब्दनिमित्तकारणविघया अभिमत पवन में तत्व धर्म अनुगत है । अतः पवनत्वस्वरूप अनुगत = सर्वपवनसाधारण धर्म से पवन को शब्दसमवायिकारण मानना ही मुनासिब है पवन में कारणता तो अवश्यक्तृप्त ही है, तब हम उसमें रही हुई शब्दकारणता को निमित्तकारणतास्वरूप न मान कर समवायिकारणतारूप मानते
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५२२ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड: ३ . का." * गगनम्य भित्र नयमन *
स्यैवानुगतत्वे समवायिकारणत्वौचित्यात्तेषां निमित्तकारणत्वे क्लृप्तेऽपि समवायकारणत्वाऽकल्पनात्, सम्बन्धभेदेन कारणताभेदात् । आकाश: पुनरीश्वर एवेन्याहुः ।
तर, पवनगुणत्वे शब्दस्य स्पर्शवस्पार्शनापत्तेः । न च त्वाचाऽयोग्यत्वाम्म तस्य स्पार्शनं, श्रावणं तु निराबाधं गुणश्रावणत्वाच्छेनं प्रति शब्दत्वेन हेतुत्वादिति राम्,
-* जयल - अनुगतत्वेन समवायिकारणत्वीचित्यात् = नादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नकारणत्यन्याय्यत्वात् ।
तर्हि किं वीणा-वेण-मदङ्गादानां शब्दकारणवमेव नास्ति ? इत्याशडकायामाहः . तपां = वाणा-वेणुमदङ्गादाना निमित्तकारणत्वे = तृणाणि-मगिन्यायन तादात्म्यातिरिक्तसम्बन्धान्छिन्नकारणत्वं कलून = प्रमाणसिद्ध मनि अपि ने समवायिकारणत्वाऽकल्पनात, समवायिकारणत्वम्य तादाम्यसम्बन्धावच्छिन्नत्वात. ततः किम् ? सम्बन्धभेदन कारणताभेदान्. घटक दे चटितभेदस्य न्याय्यत्वात् । एतेन वीणा-वण-मदरगादीनां शब्दनिमिनकरणत्वनानुगताकन्य शन्दरामवायिकारगत्वकल्पना:पि प्रत्युक्ता, एककार्यनिरूपिताया निमिनकारगनायाः समाविकारणतायाश्चैकचाः सम्भवाञ्च ।
ननु शब्दरत्याकाशविशेषगुणवानगीकारेऽम्बरसिद्धिरब दुर्घदा, शब्दसमरायिकारणत्वनैव नस्मिद्धिसम्भवादित्याशङ्कायामाहुः - आकाशः = आकाशपदप्रतिपाबः पुनरीश्वर एव । अत एवाकाशेश्वरपदयोः पर्यापनापनिरित्यक्तावपि न क्षत्तिः, इष्टापन:, जगत्कर्तृत्वन सिद्धादीश्वरादाकाशा नातिरिच्यत इत्यस्माल नयनयायिकानामभिनवराद्धान्तान् ।
दशब्दव्यत्ववादी प्रकरणकार: प्रदर्शितनव्यमतमपहन्तयदि - तति । पवनगुणत्व शब्दस्य स्वीक्रियमाग स्पर्शवत् स्पार्शनापत्तः। पथा पवनस्पस्य पवनगणल्यात्स्पार्शन भवति तद्वदेव शब्दस्यापि त्वगिन्द्रियजन्यसाक्षात्कारविषयत्वं प्रसज्यन, पवनगणत्वस्य स्पार्शनस्वरूपयोग्यत्वब्याप्यत्वात् । न च शब्दम्पार्शनं भवतीति व्यापकनिवृन्या व्याप्यनिनिमिदनानिलगणवं शब्दस्य, तस्य स्पार्शनप्रतिबन्धकत्वकल्पने च गौरवमित्वत्तपत्रादायः ।
ननु वायुगुणत्वं न लौकिकत्वाचबरूपयाम्पत्वब्याज्यं पवनाकाशसंयोग-पवनपरिमाणांदरपि स्पार्शनत्यापनः किन्न लागयोग्य. वायुगुणत्वमेव तधा । शब्दस्य वायगुणत्वेऽपि पचनाकाशसंयोग दिवत्स्पार्शनायोग्यत्वान त्वत्र ग्रह इत्या दाङकामपाकमपन्यस्यान -न चेति । वाच्यमित्यनेनान्वेनि । त्वाचाऽयोग्यत्वात् = लाकिकस्पार्शनम्वरूपयांच्या विरहात. न तस्य - शब्दम्य, स्पाईनं - त्वाविषयत्वं भवितमहंति, थावणं = श्रीनजन्यरोक्किान्यक्षविपयत्वं त शब्दन्य निगबाधम. लौकिकश्रावणान्यक्षस्वरूपयोग्यत्वात् । तदेवाह - गुणश्रावणत्वावच्छिन्नं प्रति शब्दत्वेन हेतुत्वादिति । शब्दत्व-कवादिश्रावण व्यतिकिमिनारबारणाय शब्दत्वावच्छिन्नकार्यतावच्छेदकं न श्रावणत्वं किन्तु गुणश्रावगत्वम । तच पूर्वोक्तदिशा गुगश्रावणमात्रवृत्निवजात्यस्वरूपं शंध्यम : है । अतः गौग्च दाप का भी अवकाश नहीं है। यहाँ यह शङ्का हो कि -> 'जैस पवन में कारणता अवश्यकलुप्त है, ठीक वैसे ही वीणा, बंणु, मृदङ्ग आदि में भी कारणना अवश्यक्लुप्त ही है। तब उनमें रही हुई कारणता को भी समवायिकारणतास्वरूप क्यों न मानी जाय ! आक्षेप परिहार तो दोनों पक्ष में समान रहेंगे' - तो यह अज्ञानमूलक है, क्योंकि बीणा, वेणु, मृग आदि में समवापिकारणता की कल्पना नहीं करते हैं। समवाधिकारणता तादात्म्पसम्बन्धारच्छिन्न होनी है, जब कि निमित्तकारणना तादात्म्याऽनिरिक्तसम्बन्धावचिन्न होती है। सम्बन्ध बदलने पर कारणता बदल जाती है । अतः वीणा. वंणु आदि अनेक में समयापिकारणता की कल्पना करने पर गौरय दोष प्रसक्त होत है। इसलिए उनमें निर्मिनकापणना का स्वीकार करना ही संगत है। यहाँ इस शंका का कि -> 'शन्द को आकाश का गुण न माना जाय नर तो आकाश की ही मिद्धि न हो सकेगी, क्योंकि दादाश्रयत्व या वादसमवायिकारणवरूप में ही आकाश की मिद्धि होती है' - समाधान यह है कि ईश्वर से अतिरिक्त आकाश नहीं है ईश्वरवादी हम नव्य नैयायिक आकाश को ईश्वरस्वरूप ही मानते हैं । अत: शब्दाश्रयत्वम्प से अतिरिक्त आकाश की सिद्धि न हो तो भी काई दीप हमारे मत में प्रसक्त नहीं है ।
स पyw] नहीं है - सादादी - तन्न. | मगर विचार करने पर नल्य मेगापिका का उपर्युक्त मत भी श्रद्धेय नहीं हो सकता है, क्योंकि शब्द को पवन का गुण मानने पर तो जैसे पवन के गुण स्पर्श का स्पादन प्रत्यक्ष होता है ठीक वैसे ही शन्द का भी स्पानि प्रत्यक्ष होने लगेगा । पवन के गुण का त्वगिन्द्रियजन्य ही माक्षात्कार होता है, न कि थांत्रन्द्रियजन्य साक्षात्कार । अत: इस दांप के सवच शब्द का पवनगुण नहीं माना जा सकता । यहाँ यह शंका हो कि > 'शद वायगुण होने पर भी स्पार्शन प्रत्यक्ष
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* न्यारत्नाकर मनापा
अयोग्यत्वस्य प्रतिबन्धकत्वे विशिष्य विश्रामाद, गौरवात् ।
किचैवमीश्वरादिगुणत्वेऽपि विनिगमनाविरहात् शब्दस्य द्रव्यत्वमेवोचितम् । न चानन्तसंयोगादिकल्पनागौरखं, तव सामानाधिकरण्येन तत्कल्पना, मम पुनरपृथग्भावेनेति प्रत्युत लाघवात् ।
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* जयलता
प्रकरणकारलन्निराकरोति
एतेन शब्दस्य पवनगुणत्वं लागलं गगनादिसंयोगादिवत् त्वगिन्दियातिरिक्तेन्द्रियजन्यलौकिकप्रत्यक्षस्वरूपायांसत्वं स्यादित्यपि प्रत्याख्यातम्, गुणश्रावणकारणतावच्छेदकस्याकाशानिलसंयोगे विरहेऽपि शब्दे सत्यादिनि नत्र्यनैयायिकादशयः । अयोग्यत्वस्य = लौकिकत्वाचप्रत्यक्षस्वरूपायोग्यत्वरूप, विषयतासम्बन्धेन लौकिकत्वाचत्यानं प्रति प्रतिबन्धकत्वं स्वीक्रियमाणं तादृशप्रतिबन्धकताना विशिष्य विश्रामात् = विशेषरूपेण पर्यवसानात गौरवात् कार्यकारणभावगौरवप्रसङ्गात् । लौकिकविषयतासम्बन्धेन द्रव्यसमवेतस्यादर्शनं प्रति शब्दानिलाकाशसंयोगादिनिदायोग्यत्वस्य स्वरूपेण प्रतिबन्धकत्वं द्रव्यसमवेत्तस्पाइर्शनं प्रति शब्दत्वकत्व खत्वानिलाकाशसंयोगत्यादिनिष्ठत्वाचयांग्यताभावस्य स्वरूपेण प्रतिबन्धकत्वमित्येवं रीत्या नानाप्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावकल्पनावश्यकत्वेऽनेकविधकार्यकारणभावकल्पनागौरवस्य प्रसी दुर्निवारः । न चाऽखण्डाभावस्यैव तद्धेतुत्वमिति वाच्यम्, उदासीनप्रवेशाप्रवेशाभ्यां विनगमनाविरह्मणाऽखण्डाभावहेतुत्वाभावस्य पूर्वमुक्तत्वात् । एतेन वायी हि श्रोत्रं प्राप्ते शब्द उपलभ्यते यथाहिं चम्पकद्रव्ये प्राणसत्रिकृष्टे गृह्यमाणस्य गन्धस्य तद्गुणत्वं तथा शब्दस्यापि वायुगुणत्वं वेदितव्यम् अथवा वायुरेव तात्यादिस्थानसंयोगात् तत्तच्छन्दगुणको निष्पद्यते तस्मिन्न श्रोत्रं प्राप्ते संयुक्तसमवायसन्निकर्षेण शब्दों गृह्यते (श्री. बापू ०२२) इति पार्थसारथिमिश्रस्य न्यायरत्नाकरकृतो वचनं निराकृतम्, शब्दस्य वागुणत्वं श्रोत्रग्राह्यत्त्वानुपपत्तेः वायुमात्रसमवेतानां श्रीवेन्द्रियाग्राह्यत्वात् दोषान्तरमाह किञ्चेति । एवं = शब्दस्य निमित्तपवलगुणत्वस्वीकारे, ईश्वरादिगुणत्वेऽपि विनिगमनाविरहात् । ईश्वरदिककालानां कार्यभात्रं प्रति निमित्तकारणत्वेन शब्दस्य किं स्वनिमित्तकारणीभूतपवनगुणत्वं स्वनिमित्तकारणीभूतमहेश्वरगुणत्वं तादृशकालादिगुणत्वं वा इत्यन्त्राऽविनिगमात्सर्वेषां तेषां गुणत्वं वक्तव्यं आहोस्वित् केषामिति, अन्यथा अजितीयप्रसङ्गादिति तदपेक्षा शब्दस्य द्रव्यत्वमेवोचितं कल्पयितुम् । न च शब्दरूप द्रव्यत्वं अनन्त संयोगाद्विकल्पनागौरवं इति वाच्यम्, तब नैयायिकस्य सामानाधिकरण्येन = एकाधिकरणनिरूपितसमवायसम्बन्धावच्छिन्नवृत्नित्वसम्बन्धेन शब्द तत्कल्पना = अनन्तसंयोगादिस्वीकारः मम स्याद्वादिनः पुनः अपृथग्भावेन अविष्वग्भावसम्बन्धेन तत्कल्पना इति नैयायिकमतापेक्षया प्रत्युत लाघवात् = सम्बन्धकृतलाघवात् । एतेन शब्दस्य नावयवत्वेऽनन्तावयव-तन्नाशादिकल्पगारवादिति' (का.४४ मु.मं. पू. ३६७) मुक्तावलीमञ्जूपाकृतां वचनमपि प्रत्याख्यातम् ।
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के अयोग्य होने से उसका स्पार्शन प्रत्यक्ष नहीं होता है, वायु का स्पर्श स्पार्शन साक्षात्कार के योग्य होने से उसका त्याच साक्षात्कार हो सकता है। इस तरह शब्द और पवनस्पर्श में पवनगुणत्व समान होने पर भी स्पार्शनाऽयोग्यत्व और स्पार्शनयोग्यत्वरूप धर्मविशेष की वजह एक के स्पार्शन प्रत्यन के अभाव की एवं अन्य में लौकिक त्वाचप्रत्यक्षविश्यता की उपपत्ति हो सकती * । हाँ, शब्द में स्पार्शन प्रत्यक्ष की अयोग्यता होने पर भी उसका श्रावण प्रत्यक्ष तो निराबाधरूप से हो सकता है, क्योंकि गुणश्रावण प्रत्यक्ष का कारणतावच्छेदकीभून शब्दत्व धर्म पवनगुण शब्द में रहता है। मतलब कि श्रवणस्वरूपयोग्यता होने की वजह शब्द का श्रावण प्रत्यश्न हो सकता है एवं लीकिक स्पार्शनस्वरूपाऽयोग्यता की बदौलत शब्द के अस्पार्शनत्व की भी हो सकती है तो यह भी इसलिए निराधार है कि शब्द में स्पार्शनस्वरूपाऽयोग्यता की कल्पना कर के उसे स्पार्शन प्रत्यक्ष के प्रति प्रतिबन्धक मानने पर तो अनेकविध विशेषरूप से प्रतिबन्धकता की कल्पना का गौरव उपस्थित होगा, जो अप्रामाणिक होने से मान्य नहीं हो सकता। मतलब यह है कि द्रव्यसमवेतस्पार्शन के प्रति शब्दनिष्ठ स्पार्शनयोग्यत्वाभाव को प्रतिबन्धक मानना, द्रव्यसमवेतसमवेतस्यार्शन के प्रति शब्दत्वकत्वादिनिए स्पार्शनयोग्यत्वाभाव को प्रतिबन्धक मानना - इस तरह विशेषरूप से प्रतिबन्धकता का स्वीकार करना और तत् तत् कार्य के प्रति तत् तत् प्रतिबन्धकाभाव को कारण मानना - ऐसी गोरवग्रस्त कल्पना नव्यनैयायिक मत में प्रसक्त होती है। दूसरी बात यह है कि - शब्द को निमित्तकारणीभूत पवन | का गुण मानना या ईश्वर का गुण मानना या काल का गुण मानना या दिशा का ? इस विषय में कोई विनिगमक नहीं है, क्योंकि पवन की भाँति वाब्दनिमित्तकारणता का स्वीकार प्राचीन नैयायिकों ने ईश्वर, काल आदि में समानरूप में किया है । इस विनिगमनाविरह दोष की वजह शब्द को आकाश, पवन, जगदीश, दिशा आदि किसीका गुण न मान कर उसे
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माध्यमस्याहादरहस्य खण्डः ३ . का.११ मतभेदेन मान्दगुगत्वापाकरणम एवचाऽस्य पौलिकत्वप्रतिक्षेपाय (9) स्पर्शशून्याश्रयत्वं, (२) अतिनिबिहप्रदेशप्रवेश
* ज्ञयलता हैस्वतन्त्रास्तु 'म । शब्दो द्रव्य तथापि तस्य न गुणत्वम यूपगन्यामः किन्वतिरिकत्वं, न चैवं पदार्थान्तरकल्पने गौरवमिनि वान्यम, विचारा:सहत्वात् । तथाहि- शन्दस्यातिरिकले कतो:स्माकं गौरवम् ? न हि शब्दस्त्वदनभिमती येन ततोऽस्माकं गौरा स्यात् प्रत्युत तस्मिन् गुणत्वजातिकल्पने तवैव गौरवम् । न च तस्मिन गुणत्वजातिसम्बन्धाभावस्त्वया काल्पनीय इति साम्यरिति वाच्यम, प्रतियोगिग्राहक- प्रमाणाभावनिवन्धनस्था.त्यन्ताभावरय प्रतियोग्यसिद्धब सिद्धत्वात. अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । कर्णशष्फल्यां च तस्य स्वरूप समवायो वा सत्रिकर्षः तस्य समवाप्स्यन्तरं कल्पपद्भिः यस्मिन् यस्मिन दोगनकल्वं कल्प्यने तस्मिन तस्मिन् अस्माभिः स्वरूपसम्बन्धस्य समयायस्य वा कल्पनेन गौरवा भावात. प्रत्युत ममवाप्यन्नरं कल्पयनां पराभव गौरवमिनि वदन्ति । नैयायिकैकदेशिनस्तु । “संयोगिद्रन्यं शाब्दः दूरना भएँ प्रहतायां 'आगन्छति शन्द' इनि प्रतीतः । अत एवाकस्मि
शिथिलकड़यादिकं डोलागत, दीर्यति झीर्यति च हठात् साटन्ति च अवणपटषु घटमानाः रिअषपिण्डा | शिम्य दया नयनगोलकाण्डा विटित भ्रमन्ति पतन्ति च । स्पृश्यते चानुभवरसिकः सूक्ष्मदर्शिभिरदरदेशपरिप्लुटायस - नानी
नपतन जन्मा निष्ठुरतरो निर्वादः कर्षविच देहमभिधान्नितःस्पर्शचानपि शब्दः । स च स्पर्श क्वचिदुद्भुतः कचिदनुभृतः । ततश्च काश-सरत्र्या-परिमाण-पृथक्त-संयोग-विभाग - परत्वापरत्व-वेगारल्याणनवकवान सावयवदत्र्यं शन्द" इति व्याचक्षन ।
यत् शब्दस्य गुणत्वं न स्यात् तदा नत्र गुणनिली किकविषयतासम्बम्धेन श्रावणप्रत्यक्षात्पादासम्भवेन चभरतिरिक | अंन्द्रियरूपं पनुबहिरिन्द्रिय सदनात्वं न स्यादिति तन शन्दत्र्यत्वपशे द्रव्यवृत्तिला किकविषयताया पर वादकापता
केन्दकसम्बन्धमा कसम्भन्तरतुगर कात्तिौशिवरगयनाया एत्र शब्दकार्यतावचंदकत्वमित्यादिकं चहुतरमहनीयं मारमयपरिकर्मितमतिभिरिति दिक् ।।
एवन = निरुक्तरीत्या शब्दस्य द्रव्यन्वं सिद्धे पति च, अस्य = शब्दस्य. पौलिकत्वप्रतिक्षेपाय = 'गुगलपरिणामवनिराकरणाय, अन्वयश्चास्याऽये 'उपन्यस्ता' इत्यनेन सह । स्पर्शशुन्याश्रयत्वमिति । प्रयोगस्त्वकम् - शन्दी न पादर्गालकः स्पर्शशून्याश्रयकत्वात, आकादापरिमाणनत् । स्पर्शशून्यायकत्वञ्च स्पारहितसमयायिकारणकत्वरूप ध्यं, तन |
कालिकादिना स्पर्शरहिताश्रयकत्वमादाय व्यभिचारः । दान्दसमवापिकारणस्याकाशस्य म्पर्शशून्यत्वेन न हताः स्वरूपासिद्धत्वमिति । त्यस्वरूप ही माना जाय, जिसकी वजह ये मब समस्याएं नी-दो ग्यारह हो जाय । यहाँ यह शङ्का हो कि - 'शन को द्रव्य मानने पर शन्द में अनन्त कर्ण आदि के संयोग की कल्पना का गौरव प्रसक्न होगा, जो महागौरवग्रस्त:' -तो इसका समाधान यह है कि शब्द को पचनगुण मानने काले नव्यनैयायिक के मत में भी शन्द्र में सामानाधिकरण्य सम्बन्ध में अनन्त कर्णसंयोगादि की कल्पना ती करनी ही पडेगी, क्योंकि 'कर्णसंयुक्त पचन का शब्द गुण है' यह नव्य नैयायिक की मान्यता है, जब कि हमारे मन में शब्द में अपृथग्भावनामक लघु सम्बन्ध से ही अनन्तकर्णसंयोगादि की कल्पना की जाती है। मतलब यह है कि शब्द में अनन्त कर्णसंयोगादि नयनयायिक के मतानुसार सामानाधिकरण्यमम्बन्ध से अवश्य कल्पनीय है जो सामानाधिकरण्यसम्बन्ध एकाधिकरणनिरूपितसमवायसम्बन्धावचिनवृत्तित्वस्वरूप गुमशरीरबाला है । जब कि हम स्याद्रादी तो अपृथग्भाव नामक लघुसम्बन्ध से ही शब्द में नाइश संयोग की कल्पना करते हैं। स्पष्ट ही है कि नव्य नैयायिक के मन में सम्बन्ध गुरुतर है जब कि स्यावादी का अभिमत सम्बन्ध लघुतर है, जो नैयायिकमतानुसार समवापात्मक हो सकता है । अत्तः इस गौरव दोप की वजह शन्द में व्रज्यत्व का स्वीकार ही मुनासिब है - यह फलित होता है।
* शादद्रव्यत्षा हेतुपकनिराकरण पचश्व, । प्राचीन नैयायिक शब्द में पौद्गलिकन्च - इन्यन्व के निरासार्थ पांच हेतुओं को बताते हैं। संक्षेप में उमका बयान इस तरह है कि . 'शब्द पौदुगलिक नहीं है, क्योंकि वह स्पर्शशून्य में आश्रित है । जिसका आश्रय स्पर्शशून्य होना है, नह पौगलिक नहीं होना है, जैसे आकाशपरिमाण । शन्द के आश्रय आकाश में पर्श नहीं होने से शब्द आकाग्मपरिमाणानि की भौति पीलिक नहीं हो सकता ॥३॥ इस तरह अतिनिबिड प्रदशा में भी शन्न के गमन-आगमन का प्रतिधात नहीं होने में वह पौलिक नहीं है। जो पौद्गलिक होता है उसके गमन-आगमन में अतिनिचिर भिनि आदि प्रतिबन्धक बनते है, जैसे पत्थर आदि पीलिक द्रव्य के गमनागमन में दीवार प्रनिरन्धक बनती है। मगर अनिनिरिट दीवार को भेट कर भी
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* अनेकान्तवादनियतारम्भवादासाकार: निर्गमयोरप्रतिघातः, (३) पूर्व पश्चाच्चावयवानुपलब्धिः, (४) सूक्ष्ममुन्तिराऽप्रेरकत्वं, (१) गगनगणत्वं चेति पचहेतवो ये जरीयायिकरुपन्यस्तास्ते हेत्वाभासा एव । तथाहि-प्रथम- | स्वावन्न सिदिसौधमध्यास्ते, भाषावणादेस्तदाश्रयस्य स्पर्शवत्वात्, पुलस्य स्पर्शवत्वनियमात्, अन्यथा तत्युदगलेषु कदापि स्पर्शानुभवप्रसङ्गात् । न चैतदशिमतमनियतारम्भवाद इत्यन्यत्र विस्तरः ।
- जयत*प्राचामाशयः । द्वितीयहतमाह अतिनिविप्रदेशप्रवेशनिर्गमयोपनियात इति । प्रयोगमवयम्हनीयः । घनादः पौगलिकन्य सतोनतिनिबिटादशाद् गमनागमनयाः प्रतिघाती दृष्टः । ततिक्रमा छन्दस्या गरोद्गलिकत्वगिति प्राचीननैयायिकारयः । तृतीयस्तु हेतुः पूर्व पश्चाचावयवानुपलब्धिः । बटादः पीद्गलिकस्योत्पादपूर्व चिनाशादनु वावयवा उपलभ्यन्त इनि दृष्टम् । शब्दांत्पादादाक नद्ध्वंसानन्तरच तदवयवानुपलब्यस्तस्यापोद्गलिकन्नमित्यभिप्रायः । चतुः सूक्ष्ममूर्तान्तरांप्रेरकत्वमिति ।। लोष्ठादः गौदगलिकस्य गमनागमनाभ्या सूक्ष्मतलादिमूर्तद्रव्यस्य प्रेग्णं दुष्टचरं शब्दगमनागमनाभ्यां न न नथा नत्प्रेरणं दमिर व्यापकानुपलब्ध्या:पि तत्पादगलिस्त्वं प्रतिषिद्धं भवानि भावः . पञ्चमहतुः गगनगुणत्वं अपि नग्य पानालकत्वं अपाकगनि. गगनपरिमाणादी तधोपलब्धरिति पञ्चहतवो ये जरनैयायिकैः उपन्यस्ताः ते हेत्वाभासा एय, म्यरूपासिद्धिव्यभिचारादिसरोष . विषमविषधरविषावगविधुस्तित्वात । तथाहि - प्रथमस्तावन सिद्धिसोधमध्यास्ते, भाषावर्गणाः तदाश्रयस्य = झान्दात्मकपरिणा. माधिकरणम्य स्पर्शवत्वात्, अतः पशून्याश्रयकत्वं स्वरूपासिद्धम् । नदपि कुन: : पुदगलस्य स्पर्शवत्वनियमात् रुपमरस - गन्धवर्णवन्नः पुद्गला:' (६/२३) इति तत्त्वार्थसूत्र बचनातअन्यथा = 'पदलत्यावन्छेदन स्पा दरनुप्रगर्म, तत्पुद्गलेषु - शन्दोगाटानकारणाभूतपुद्गलेषु कदापि स्पर्शानुभवप्रसङ्गादिति । न च एतत् = दादलपु स्पशानुद् भवत्यं. अभिमत अनियतारम्भवादं स्याहादिमने । न च बाब्दस्य पदगलपर्यायवे चक्षपोगलम्भासगी रूपवदिति वाच्यम्, गन्धपरमाणुभिः व्यभिचारात । न च तदद्दयत्वात्र तदर्शनामिनि शयम, शब्दपद्गलानामपि नत च तन्मा भूत । एतेन शब्दस्य पुद्गलरकन्धस्वभावत्वे घटवत् चाचपप्रसङ्ग इत्यपि प्रत्युक्तम्, गन्धपि तदापत्तेस्तुल्यत्वात् इत्यन्यत्र विस्तरः ।
मन्द का गमनागमन होता है । अतपत्र बह नौगलिक नहीं हो सकता ॥२॥ तथा दाद की उत्पत्ति के पूर्व और विनाश के बाद उसके अवयव की उपलब्धि नहीं होती है। जो पालिक होता है उसकी उत्पत्ति के पहले और विनाश के बाद उसके अवयव की उपलब्धि होती है, जैसे घट । मगर शब्द में ऐसा नहीं है। अतएव यह पौद्गलिक नहीं है ॥३॥ तथा शब्द अन्य सूक्ष्म मूर्त पदार्थ का प्रेरक भी नहीं होता है । मनला यह है कि पत्थर, निट्टी, घट, पट आदि पौडलिक पार्ध गमनागमन करते हैं तब कपास, बायु आदि अन्य सूक्ष्म मूर्त पदार्थ को गतिमान करते हैं मगर शन्द गमनागमन करने पर भी कपास आदि अन्य सूक्ष्म मुर्त पदार्थ को गतिमान नहीं करता है। अतएव वह पौद्गलिक नहीं है ॥॥ नया गन्द में पीद्गलिकत्व का प्रतिक्षेप करनेवाला पांचवा और अन्तिम हेतु है गगनगुणन | जिसमें गगनगुणत्व रहता है वह गौदुगलिक नहीं होता है, जैसे गगनपरिमाण । गगनपरिमाण में गगनगुणन्य रहता है। अलण्व वह पौद्गलिक नहीं है। इस तरह शन भी गगनगुण होने की वजह पौद्गलिक - पुद्गलपरिणाम नहीं है । इस तरह पाँच हेतु से शब्द में पोद्गलिकत्व का प्रतिपंच होता है।
ने १. । मगर प्रकरणकार श्रीमद्जी इसके खिलाफ यह कहते हैं कि प्राचीन नैयायिक से उपन्यत पे पांच हनु संतु नहीं हैं किन्तु असद्धेतु हैं, हेत्वाभार हैं। वह इस तरह - प्रथम हेतु है स्पर्शशून्याभपत्व यानी म्पई से शुन्य में रहना। मगर यह हेतु स्वरूपाऽसिद्धि दोष से दुष्प है, क्योंकि शब्दात्मक परिणाम के आश्रय भापाचर्गणा में स्पर्दा रहने के बाद में स्पर्शशून्याधितत्व = स्पर्शशून्य में रहना-यह हेतु रहता नहीं है । भाषावर्गणा पुद्गल से निप्पन्न है पर्व पुद्गलस्वरूप है और पुदगलमात्र में वर्ण-गन्ध-रस- स्पर्श रहते हैं। यदि ऐमा न माना जाय नर ना भापावगर्णा के पुद्गलों में कभी भी एपर्श का उद्भव ही नहीं होगा । मगर यह तो अनियत आरम्भवाद में अभिमत नहीं है। पुद्गल में ही यदि स्पर्श न होगा नब पुद्गल के समूह से निप्पन भापावर्गणा में भी स्पर्श कैसे आयेगा ? मगर शन्द में स्पर्श तो प्रमाणमिद्ध है । इसन्निए गन्दात्मक परिणाम में स्पर्शशून्याश्रयन्त्र = स्पर्शशून्याश्रितत्व हेतु स्वरूपाःसिद्ध है, जिसकी वजह शब्द में पोद्गलिकत्व का प्रतिपंध नहीं हो सकता । इस चिपय का विस्तार अन्यत्र प्राप्य है।
Hदाश्रय. समातिाज है ..
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५८६ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः ३ . का.११ *लाभरिपनिमनप्रकादानम *
शब्दाश्रय: स्पर्शवान बहिरिन्द्रियार्थाधारत्वात्पृथिव्यादिवदित्यायाः, ! एक स्पर्शवदनारभ्यत्वेन जन्यद्रव्यत्वाभावसाधनमप्यस्य परास्तम्, तवाऽपि विजातीयद्रव्यत्वेन जन्यद्रव्यजनकत्वमित्यस्याऽन्धकारखादे व्यवस्थापितत्वाच्च ।।
- आयलता शल्दाश्रयः - रातोपादानकारणीभून स्पर्शचान बहिरिन्दियार्थाधारत्वान = बाहिरिन्द्रियग्राहासमवायिकारणत्वात. पृधिच्यादिवदिति । बहिरिन्द्रियग्राह्यत्वचन बहिरिन्द्रियजन्यलीकिकपत्यक्षस्यमपयोन्यरूप वध्यम, नेन 'ज्ञानो घट' इतिप्रत्यक्षे ज्ञानस्याऽप्युपनीतभानविषयवानरत्यात्मनि ननिकान्तिकत्वम, न वा केना प्यगृहातगच्दाश्रये हेता भांगामिद्धिः तस्यापि स्वरूपयोग्यत्वात् । यद्यगि स्वमते मनसो नोइन्द्रियन्वेन बहिः पदमननिप्रगजनं तचापि परमतं मनस इन्द्रियत्वान्मानमविषयज्ञानादिसमवायिकारण आत्मनि व्यभिचारवारणाय तस्य सार्थकत्वनित्यादि विभावनायम् । आहः प्राञ्चो जनाचार्या रत्नप्रभरिप्रभृतय इति गम्मत ।
ननु शब्दो न जन्यदन्यं स्पर्शबदनार न्यत्यादिन्यनुमाने जाग्रति तस्य पाद्गलिकत्यं कर्य सिद्धमित्याशकामयाकरोनि - अत एव = शब्दसमयकारणम्योक्तानुमानेन स्पर्शवचसिद्रत्वादव, अस्पाग्रे परास्तमित्यननान्चयः । शब्दाश्रयः स्पर्शवानित्यनुमानन 'सावदनारभ्यत्वस्य हेनोः स्वरूपासिदत्वमावदिनन् । किञ्च म्पर्शबदारभ्यत्त्वे बाधित शब्दय स्पर्शवननाग्भ्यन्वसिद्धिः । पर तादावाध एव नास्ति । अरनु वा यथाकश्चि-छन्द म्प बदनारभ्यलं तथापि झन्द जन्य द्रव्यत्वाभावः कथं मिमध्येन् ? न हिमवत्समवेतन जन्यद्रव्यत्वव्यापकं येन तदभावात्तदभावसिद्धिः स्यात् । न च म्पर्शवत्वस्यैव जन्यद्रव्यममबायिकारणतावच्छेदकत्वान्छब्दसमवायिकारणीभूत आकशे स्पर्शविरहान्न शब्दस्य जन्ययानिनि वाच्यम्, तब = नैयायिकस्य अपि विजातीयद्रव्यत्वेन जन्यद्रव्यजनकत्वं न न पवन इत्यस्य पूर्व (पृष्ठ ८) पश्चमकारकाविवरणं अन्धकारवाद व्यवस्थापितत्वाच । नदन पूर्व नत्र 'अनन्तानलस्पर्शकल्पनामपक्ष्य लघुत कजातिविशेषकल्पनाया पयोचितत्वात' इति । नभनेगायिकमनानुरोधनामि "जातिविशेष एव द्रव्यारा-कतायछन कत्वेना भ्यायः स च तमम्पपि सन्भवती'त्युपपादितं पूर्व नत्रत्र । ततश्च नमः-शन्दवर्गणा-प्रभोद्योन-छायाऽन्तप-धिना- जल-तेजःप्रतिदन्यसाधारणं जात्यमेव जन्यद्रव्ययमवाणिकारणताछेदकमिति में शब्दस्य जन्यध्यत्ववाय इति पदार्थः । एतेन इन्दम्य जन्यदन्यत्वं स्पर्शवदनयबारभ्यत्व म्यान. स्पर्शवदनन्त्याववित्वस्य द्रल्यारम्भकतावच्छेदकवादित्यपि निराकृतम्, तत्र स्पविन्यस्यष्टवान् । वस्तुतस्तु भेन पण मारम्भकत्वं मार्शवत्वादर्विशेषणविशेष्यमा चिनिगमनाचिरहन, अन्न्त्यावविवरः व्यसमवायिकारणत्वपर्यवमिनस्य कारणतानयच्छंदकत्याचेत्यादिकं पूर्वो कमिहानुसन्धेयम् (गृ. ३.८१) ।
शब्दा, । अन्य विद्वानों का यह कथन है कि 'शब्द के आश्रय में स्पर्श है, क्योंकि वह पहिरिन्द्रिय अर्थ । शन्द) का आधार है । जो बहिरिन्दियग्राह्य विषय का आधार होता है वह स्पर्शवाला होता है, जैसे पृथ्वी आदि । बहिरिन्द्रिय = प्राण से ग्राह्य गन्ध आदि का आधार होने पर एची आदि में जैसे स्पर्श रहता है दीक वैसे ही बहिरिन्द्रिय = आंत्र में ग्राह्य शब्दात्मक परिणाम का आधार होने से भापावर्गणा में पर्श सिद्ध होता है । इसलिए यहाँ यह नैयायिकवक्तव्य कि --> 'शब्द स्पर्शचद् द्रव्य से अनारब्ध होने की वजह जन्य द्रव्य नहीं हो सकता है । जो स्पर्शवमून्य से आरब्ध नहीं होता है वह जन्य द्रव्य नहीं हो सकता है जैसे कि वर्ण, गन्ध, आत्मा, आकाश आदि । शब्द का आरम्भ भी स्पर्शशुन्य आकाश से होने में शन में स्पर्शवदनारभ्यत्त्व रहता है, जिससे शब्द में जन्यद्रव्यत्व का अभाव सिद्ध होता है 1 शब्द में जन्यद्रव्यत्व का अभाव मिद्ध होने से स्याहादी को अभिमत जन्यद्रव्यन्व शब्द में बाधित या सत्प्रतिपक्षित हो जायेगा' <<- भी इसलिए निराकृत हो जाता है कि रहिरिन्द्रियग्राह्यविषयाधारत्व हेतु से गन्दायय में स्पर्श सिद्ध हो जाने में दान में स्पर्शवदनारभ्यत्व हुन ही स्वरूपाऽसिद्ध हो जाना है, तब उससे कसे वाद में जन्यदन्यत्वाभाव की सिद्धि हो मकती है? दूसरी बात यह है कि जन्य इल्य का कारणताअवच्छंटक नैयायिकमत में भी विजानीयद्रव्यत्य ही है, न कि स्पर्शवदारभ्यत्व (जो अन्धकारजनक पुद्गल में भी एवं शब्दजनक भाषावर्गगा में भी रह सकता है।- यह तो पहले (देग्विय पृष्ठ-५८२) अन्धकारबाद में प्रमाण से सिद्ध हो चुका है, नय 'स्पर्शवदनाग्भ्यत्व होने की वजह शान में जन्यद्रव्यत्वाभाव रहेगा' यह कसे कहा जा सकता है ? बन्द के जनक भाषावर्गणा में जन्यद्रव्यकारणतावदक विजातीयद्रगन्यत्व रह सकता है नब जन्यद्रज्यकारणाला. वच्छंदकवैजात्यावच्छिन्न (= भापावर्गणा) से जन्य शब्द में जन्यन्यत्व की सिद्धि भी निराबाध है. यह फलित होना है।
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* न्यायभाग्यननत्यपांड: एवं सति शब्दो न स्पर्शशून्याश्रयः बहिरिन्द्रियमाद्यत्वे सति सामान्यतत्त्वाद रूपवदित्यनुमानमध्याहु: ।
का चल शब्दो न स्पर्शशून्याश्रयो बहिन्द्रियव्यवस्थापकत्वाद रूपवदित्याह । तदस, बहिरिन्द्रियव्यवस्थापकत्वं हि यत्किचिदबहिरिन्द्रियवृत्तिसामान्यधर्मावचिोमभेदव्याप्यर्बाहे
* जयलता एवं = शब्दाश्रयस्य पवित्व मिदं सति 'गली न स्पर्शशून्याश्रयः चाहगिन्द्रियग्राहावं सति सामान्यबत्त्वादिति । बहिरिन्द्रियग्राह्यत्वमनुपदानस्वम् बोध्यम् शब्दत्व-रूपत्वादी व्यभिचारचारणाय सामान्यवच्चादिति ग्रहणम । गगनपरिमागादी व्यभिचारधारणाय बहिरिन्द्रियग्राह्यत्वमित्युत्तम । ज्ञानादी व्यभिचारवारणाय बहिरित्युत्तम । आहः पूर्वाचार्य इति शेषः । ततश्च शब्द स्पर्शशून्याश्रयकत्वहताः स्वरूपासिद्धत्वमावदितं भवनि | पनन 'अगवान्नाश्रयस्य' (न्या.सू. २-२-२८ भा इति न्यायभाष्यकारवचनमणि निरस्तम् ।
कश्चित्तु इनि आइत्यनेनानाति । शब्दा न स्पर्शशून्याश्रय इति शन्ने गणित्या र पशिन्यासमवेनत्वसाधनाय हनुमान । बाहिरिन्द्रियव्यवस्थापकत्वादिति । त्यगिन्द्रियादिबहिन्द्रियगिन्नबाहिरिन्द्रियन्यिामकत्वादिति । दृष्टान्तमाह-रूपनदिनि । रूपस्य त्यगिन्द्रियादिभिन्नचक्षक्षणहिन्द्रियल्यव्यवस्थापकालेन यथा स्पर्शजन्यानाश्रयकत्वं नधा शब्दस्वामित्वमादिभित्रश्रांत्रात्मकबाहिरिन्द्रियलल्यवस्थापकत्वन म्पर्शशुन्याकाशानायकत्वं विध्यतीति नान्गाचे शब्द द्रव्यत्ववादिनः करयचित ।
तत्र प्रकरणकार आह- तदसादिति । बहिन्द्रिय कलमबहिरिन्द्रियातिरिकत्यनियामकल्यन शब्द स्पर्शगन्यानायकत्वमाधनं न राम्पगित्यर्थः । तदेव सानिमाह बहिरिन्द्रियव्यवस्थापकत्वं हि यत्किभिदवाहिरिन्द्रियनिसामान्यधर्मावच्छिन्न
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| गचं, । इमलिए तो प्राचीन जैनाचारों ने भी पमा अनुमानप्रयोग बताया है कि -> 'शब्द स्पर्शशुन्यद्रव्य में आश्रित नहीं है, क्योंकि रहिरिन्द्रियग्राख होते हुए वह सामान्यवान (=जातिमान) है, जैसे रुप । कप बहिरिन्द्रिय चक्षु में ग्राहा है पर्व रूपत्वजाति का भाश्रय है, अतएन उसका आश्रय पुस्थी, जल, नेज आदि इय्य पांचाला होता है । ठीक वैसे ही शाद भी रहिरिन्द्रिय श्रोत्र से ग्राहा है एवं सामन्य जाति का आश्रय है, अतएन झन का आश्रय दाब्दसमचाथिवारण = शब्दापादानकारण भापावर्गणा भी म्पर्शचाली सिद्ध होती है । अतः शब्द में स्पर्शदाधितत्व की सिद्धि निराध है' । इससे भी दान में पौदुगलिकन्च = पुद्गलपरिणानव की मिद्धि सूचत होती है, क्योंकि स्पा पुद्गल का ही थर है एवं शब्द के उपादान कारण में सर्ग अभे सिद्ध किया गया है . यह प्रकरणकार श्रीमदजी का तात्पर्य है।
पहिरिट्रियायपस्यापार प्रदान कश्चि । यहाँ किसी विद्वान का यह कथन है कि -- 'शन स्पर्शशून्य में आश्रित नहीं है, क्योंकि वह बहिरिन्द्रियव्यवस्थापक है । जैसे रूप चक्षुनामक पहिन्द्रिय का नगिन्द्रियानि में अतिरिक्त बाह्य इन्द्रिययन साधक : ज्यवस्थापक होने से स्पर्शशून्य में आश्रित नहीं है ठीक वैस ही शन भी आंचनामक बहिरिन्द्रिय का त्यगिन्द्रियादि में अतिरिक्त बहिरिन्द्रियन्वन यवस्थापक होने से स्पर्शशून्य में आश्रित नहीं हो सकता, गन का आथय : उपादानकारण पर्यन्य सिद्ध नहीं हो सकता। इस तरह भी शब्द में स्पर्शगुन्याश्रितत्व हेतु स्वरूपा सिद्ध हो जाना है' - मगर प्रकरणकार श्रीमदजी कहते हैं कि उपर्युक्त कधन समीचीन नहीं है, क्योंकि बाहिगिन्द्रिय का व्यवस्थापकन्न ती रूपन्यादि में व्यभिचारी है अर्थात रूपत्वादि में बहिरिन्द्रियव्यत्रग्यापकत्व हेतु रहने पर स्पर्शशून्यानाश्रयकावात्मक बाध्य नहीं रहता है । इसके पहले यह समझना जरूरी है कि बहिरिन्दिय. व्यवस्थापकत्व क्या है ? बहिरिन्द्रियव्यवस्थापकत्व का मजल्य है. पन किनिन बहिरिन्द्रिय के विषय में रहनेवाले सामान्य धर्म से अवच्छिन्न प्रतियोगिताक भंद का व्याप्य रोना बहिरिन्द्रियजन्यप्रत्यक्षस्यरूपयांग्यत्व । यह तो म्पादि की भाँति रूपत्यादि में भी रहता है, क्योंकि प्राणन्द्रिविषय सौरभ भादि में रहनेवाले गन्धत्वात्मक मामान्यधर्म सं भवचिन्नपनियोगिनाक भेन का व्याप्य ऐसा चक्षुजन्यप्रत्यक्षविषयत्न म्पादि की गाँति रूपवाटि में भी रहता है। मगर रूपादि में ही स्पर्शशून्यानाश्रयकर है. न कि रूपत्वादि में, क्योंकि रूपत्वारि के आश्रय रूपादि स्पर्शशुन्य ही हैं। इस तरह रूपत्वादि में विवक्षित हेनु रहन पर भी स्पर्शशुन्यनिरूपिनसमवायसम्बन्धावच्छिन्नत्रित्वाभान नहीं रहने में हतु में स्पष्ट ही व्यभिचार. दोष है । अतएव उममे शन में स्पर्शगुन्यानाश्रयकत्वस्वरूप साध्य की सिद्धि नहीं की जा मकली। इसके अतिरिक्त दोप यह है कि हतु का 'यत्किनिहि रिन्द्रियविषयवृत्तिसामान्यधर्मावच्छिन्नभदन्याप्य' ऐसा विशेषण व्यभिचाग्वारक न होने में व्यर्थ हो जाता है जिसव. फलग्नस्य
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७६८ मध्यमस्यादातरहस्य खण्ड: ३ का १२ * शन्दस्य पशुपाश्रयकत्वासिद्धिः **
रिन्द्रियजन्यग्रहणग्राह्यत्वम् । तथा च रूपत्वादौ व्यभिचारः, व्याप्यान्तवैयर्थ्य, 'सामान्यवत्ते सती 'तिविशेषणदाने च पूर्वहेत्वविशेष इति ।
द्वितीयोऽप्यसि शब्दगुणत्ववादिना क्रियारूपयोस्तत्प्रवेशनिर्गमयोरनङ्गीकारात् भित्यादिकमुपभिद्य प्रसर्पिणा मृगमदादिद्रव्येणाऽनैकान्तिकश्च ।
* गयलता
व्याप्यवहिरिन्द्रियजन्यग्रहणग्राह्यत्वमिति । यत्किञ्चिद्वान्द्रियग्राह्यनिष्ठो यः सामान्यधर्मः तदवच्छिन्नभेदव्याप्यं बहिरिन्द्रियजलौकिकसाक्षात्कारस्वरूपयोग्यत्वं खलु बहिरिन्द्रियव्यवस्थापकत्वमित्यर्थः । यथा प्राणग्राह्यसौरभादिवृत्तिगन्धत्वलक्षणमामान्यधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकभेदव्याप्यं वहिरिन्द्रियज-गद्दस्वरूपयोग्यत्वं रूपपादों वर्तते तदेव बहिरिन्द्रियव्यवस्थापकत्वमुच्यते । तथा चरूपत्वादी व्यभिचारी दुर्वार:, यतः प्राणग्राह्यसौरभादिवृत्तिगन्धत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकभेदव्याग्य-बहिरिन्द्रियजग्रग्राह्यत्वस्य सत्येऽपि स्पर्शशून्याश्रयकत्वस्य सत्त्वेन स्पर्शशून्यानाश्रयकत्वस्थ विरहात् । आदिपदेन रूपनिरूपाभावादिग्रहणम् । न च गुण सतीति विशेषणान्न व्यभिचार इति वक्तव्यम्, हेतोः स्वरूपासिद्धत्वापत्तेः । न तास्मन्मतं शब्दस्य गुणत्वमस्ति । साम्प्रतं व्याप्यत्वासिद्धिमुपदर्शयति व्याप्यान्तवैयर्थ्यामिति । यत्किञ्चिदवहिरिन्द्रियग्राह्यवृत्तिसामान्यधमविच्छिन्नप्रतियोगिताकभेदव्याप्ये'त्यस्य हेतुविशेषणस्य व्यभिचारवारकत्वाभावेन व्याप्यान्तवैयर्थ्यन व्याप्यत्वासिद्धिरपि दुर्निवारा, तादृशधर्मस्य अतिगुरुतया हेतुतावच्छेदकत्वादित्याशयः प्रकरणकृतः । न चेन्द्रियान्तराग्रह्मत्वं सति बहिरिन्द्रियग्राह्यत्वमेव बहिरिन्द्रियव्यवस्थापकत्वमस्त्विति वाच्यम्, तथापि रूपत्वादी व्यभिचारां व्याप्यत्वासिद्धिश्च ।
ननु व्याप्यत्वासिद्धिनिवारणाय वहिरिन्द्रियग्रहणस्वरूपयोग्यत्वस्यैव स्पर्शशून्यनिरूपितसमवायसम्बन्धावन्निवृत्तित्त्वाभावसाधकत्वमस्तु । न च रूपत्वाद व्यभिचारः, तस्य वहिरिन्द्रियजन्यला कित्यक्षस्वरूपयोग्यत्वादिति वक्तव्यम्, सामान्यवत्त्वं सनीतिर्विशेषणादिति चेत् ? मेवम्, वहिरिन्द्रियजन्यलौकिकप्रत्यक्षस्वरूपयोग्यत्वलक्षणताः 'सामान्यवत्त्वे सती' तिविशेषणदाने च पूर्वहेत्वविशेष: ' शब्द न स्पर्शशुन्याश्रपः वहिरिन्द्रियग्राह्यत्वे सति सामान्यवत्त्वाद्रूपवदित्यनुमानोपदर्शितहत्व भिन्नत्वप्रसङ्ग इति न ततः कश्चिदविशेष इत्यर्थः ।
=
इत्पन्न शब्द पौगलिकत्वप्रतिक्षेपायोपन्यस्तः स्पशून्याश्रयकत्वहेतुः स्वपासिद्धी न पालिकत्वप्रतिषेधाय समर्थ इति प्रचकार्थः ।
पौगलिकलनिराकरणकृते प्राचीनतयायिक पन्यस्तीच तिनिचिडप्रदेशप्रवेशनिर्गमयोरप्रतिघातलक्षणो द्वितीयां हेतुः अपि अन्यतराऽसिद्धः - वादिप्रतिवाद्यन्यतरमते खरूपासिद्धी न मनीषितसाध्यसिद्धिसाधनायाम् । तदेव समर्धयति शब्दगुणत्ववादिना नैयार्विकेन क्रियारूपयोः समावृतिस्वरूपयोः तत्प्रवेशनिर्गमयोः = शब्दनिष्ठतया गमनागमनक्रिययाः अनङ्गीकारात् । अनुमानप्रयोग हेतोः = वादिप्रतिवाद्युभयसिद्धस्यैव साध्यसाधकत्वात् । भित्त्यादिकमुपभिद्य प्रसर्पिणा मृगमहाद्रियणाऽनैकान्तिकश्च हेतुः मृगमदादा निविडनर भित्त्यादिप्रदेशप्रवेशनिर्गमयितस्य सत्त्वेऽपि पौद्गलिकल्वाभावस्य व्याप्यत्वासिद्धि दोष प्रसन्न होता है। यदि व्यर्थ होने से तावविशेषण को हटा कर केवल 'बहिरिन्द्रियग्राह्यत्व को हेतु बनाया जाय तब भी रूपत्वादि में व्यभिचार दोग आयेगा । इसके freetणार्थ 'सामान्यवत्त्वं सति' ऐसा हेतु का विशेषण दिया जाय तब यद्यपि व्यभिचार दोष का निवारण तो हो सकता है, क्योंकि रूपत्वादि में वहिरिन्द्रियग्राह्यन्त्र होने पर भी सामान्य (= जाति) नहीं होने से विशिष्ट हेतु ही नहीं रहता है तथापि तत्र हेतु सामान्यवत्त्वं सति बहिरिन्द्रियजन्यग्रहणग्राह्यत्यात्' ऐसा बनगः जां पूर्वोक्त अनुमान में प्रदर्शित हेतु हिरिन्द्रियग्राह्यत्वं सति सामान्यवत्त्वात् के समान बन जाता है। दोनों हेतु तुल्य बन, जाने से प्रस्तुत अनुमानप्रयोग ने कुछ अधिक प्रतिपादन या नयी रीति से या अन्य हेतु से शब्द में स्पर्शशुन्याश्रपकत्व की सिद्धि नहीं होने से पूर्वीक अनुमान से इसमें कुछ फर्क नहीं है। फिर भी शब्द में पांगलिकत्व पुद्गल परिणाम के प्रतिक्षेवार्थ प्राचीन नैयायिक में उपन्यस्त स्पर्शशून्याश्रयवत्व हेतु ती स्वरूपासिद्ध ही रहता है यह ख्याल में रखना जरूरी है * प्राचीन नैयायिक का विदवीय हेतु असिद्ध एवं व्यभिचारी *
=
द्विन तथा शब्द में पौगलिक के निराकरणार्थ प्राचीन नैयायिक ने जो द्वितीय हेतु बताया था 'अतिनिबिप्रदेश में प्रवेश और निर्गम में अप्रतिघात' वह भी वादी प्रतिवादी अन्यतराऽसिद्ध है। इसका कारण यह है कि प्रतिवादी नैयायिक शब्द को गुण मानते हैं और प्रवेश तथा निर्गमन क्रियात्मक होने की वजह गुण में नहीं रह सकते है, क्योंकि गुण में एक
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* अप्टसहस्रीसंवादः
अतिनिबिडप्रदेशे प्रसर्पणानङ्गीकारो ऽप्युभयत्र समानस्तुल्ययोगक्षेमत्वात् । तृतीयोऽप्युल्कादिना सव्यभिचारः ।
५
जयलता
विरहेण व्यभिचारोऽपि प्रसज्यते । एतेन प्रयोग उभयसिद्धहेतुप्रदर्शनस्यावस्यकत्वेऽपि प्रसङ्गेऽन्यतरसिद्धस्याऽपि गमकत्वादस्तु प्रकृते प्रसङ्गापादनमेवं शब्दः पौगलिकः स्यात् अतिनिबिडप्रदेशप्रवेशनिर्गमयीः प्रतिघातस्स्यादित्यपि पराकृतम्, गन्धपरमाणूनामि तत्प्रसङ्गात्। एतेन न पुद्गलस्वभाव: शब्द: निद्रिभवनाभ्यन्तरतो निर्गमनात, तत्र बाह्यतः प्रवेशाद व्यवधायक वेदनादेश्च दर्शनात् यस्तु गुद्गलस्वभावो न तस्यैवम्दर्शनं यथा लोप्टादेरित्यपि निराकृतम्, पुद्गलस्वभावत्येऽपि तदविरोधात् । तदुक्तं विद्यानन्देनाऽष्टसहस्यां > तस्य हि निश्चिंद्र- निर्गमनादयः सूक्ष्मस्वभावत्वात् स्नेहादिस्पदादिवन विरुध्येरन् कथमन्यथा पिहितताम्रकलशाम्यन्तगल जलादहिर्निर्गमनं स्निग्धतादिविशेषदर्शनादनुमति ? वा पिहितः सलिलाभ्यन्तरनिहितस्यान्तः शीतस्पर्शपलम्भात् सलिलप्रवेशी नुमीयेत ? तदभेदनादिकं वा तस्य निश्छिद्रतयेक्षणात्कथमुत्प्रेक्षेत १ ततो निरिनिर्गमनादिः स्नेहादिस्पर्शादिभिर्व्याभिचारी, न सम्यग्येतुर्यतः शब्दस्य पुद्गलस्वभावत्वं प्रतिक्षिपेत् तस्य मुदगलस्वभावत्वनिर्णयात्सर्वधाऽप्यविरोधान् । अ.स.पू. १५१) इति ।
कि अतिनिविडप्रदेशे प्रसर्पणानङ्गीकारः अपि उभयत्र सन्धपरमाणूनामिव शब्दमुद्गलानामपि शब्दद्रव्यत्वगुणन्ववादिनोगते समान इति अतिनिधिप्रदेशत्रवेदानिर्गमयोरप्रतिघानस्य भागासिद्धि: स्वरूपाऽसिद्धि उभयमतसिद्धा, तुल्ययोगक्षेमत्त्वात् । अत एव निचितरकुड़यादिना समस्त्यैव गन्धपरमाणुनां प्रतिघात उत्सुक्तावपि न नः क्षतिः शब्दगुगलप्रतिघातस्याऽपि दृष्टत्वात् ।
वस्तुतस्तु भिन्नभाषाद्रव्याणां चतुःसमयनीकव्यापित्वाऽभ्युपगमान् अतिनिचिङकुइयादिनाऽपि न तत्प्रतिवानः, औदारिकपुद्गलानामेवीदारिकदुगलप्रतिघातकत्वसम्भवात् वैक्रियादिस्कन्धानां तु ततोऽतिसूक्ष्मत्वान्न तद्व्यापातकारित्वमौदारिकस्कन्धानां सम्भवति । तथापि संपूर्णांकल्पापिनां निन्नशब्दद्रव्याणामतिनिविङकुइयादिकं विभिन्य पदसु दिक्षु विसर्पतां प्रायोऽस्मदादिश्रावणाऽगोचरत्वात अतिनिचिङप्रदेशे प्रसर्पणानङ्गगी कारोऽप्युभयन्त्र समान इति प्रकृतं प्रकरणकृतीतमिति ध्येयम् ।
पूर्वं पश्चाचावयवानुपलब्धिलक्षण: तृतीयां हेतुः अपि उल्कादिना आदिपदेन विद्युदणुकादिग्रहणं व्यभिचार:, निरुकहेतुत्वपि पौगलिकत्वाभावविरहात् न च योगिनिस्तृल्काद्यवयवाः पूर्वं पश्चाचोपलभ्यन्त एवेति वाच्यम्, शब्देि समसमाधानत्वान
भी क्रिया नहीं रहती है। क्रिया का समवायिकारण केवल द्रव्य ही होता है । इसलिए नैयायिक के मतानुसार क्रियामात्र का शब्दात्मक गुण में अभाव होने से अतिनिविडप्रदेशप्रवेशनिर्गम भी शब्द में असिद्ध होने पर अतिनिविडप्रदेशप्रवेशनिर्गमाऽप्रतिघातात्मक हेतु शब्दात्मक पक्ष में कैसे रहेगा ? जब प्रतिवादी से दर्शित अनुमान का हेतु ही प्रतिवादी के मतानुसार पक्ष में नहीं रहता है तब उस हेतु से प्रतिवादी को अभिमत साध्य की सिद्धि पक्ष में कैसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती हैं ।
1
दूसरी बात यह है कि प्राचीन नैयायिक से उपन्यस्त द्वितीय हेतु व्यभिचारी भी है. क्योंकि कस्तुरी आदि द्रव्य दीवार आदि की दूसरी ओर भी जाते हैं। मतलब कि कस्तुरी आदि के प्रवेश निर्गम में अतिनिबिड दीवारादि प्रदेश से प्रतिपात नहीं होने से नादृश हेतु उसमें रहता है फिर भी पौद्गलिकत्वाऽभावात्मक साध्य कस्तूरी आदि द्रव्य में नहीं रहता है । इसलिए द्वितीय हेतु में साध्याभाववदवृत्तित्त्वलक्षण व्यभिचार दोष भी है तथा अधिक विचार किया जाय तो नैयायिक और स्याद्वादी दोनों के मतानुसार अत्यन्त निश्छिद्र दीवार या पर्वत आदि तो शब्द के गमनागमन दोनों में प्रतिघात = व्याघात करते ही हैं । अतः अतिनिविडप्रदेशप्रवेशनिर्गमाऽप्रतिघानात्मक हेतु शब्द में स्वरूपाऽमि होता है । गन्धपरमाणु और शब्दपुद्गल दोनों में अनिनिवि दीवार आदि से प्रतिघात का होना या न होना • इस विषय के प्रश्न और प्रत्युत्तर तो नैयायिक और स्याद्वादी दोनों के मतानुसार समान ही रहेंगे । अतः दूसरा हेतु भी
शब्द में पीगलिक का प्रतिक्षेप कर सकता नहीं है । नैयायिक के तृतीय चतुर्थ हेतु भी व्यभिचारी
तुती । इस तरह शब्द में पौद्गलिकत्व के प्रतिकारार्थ प्राचीन नैयायिकों का पूर्व और पश्वादवयवानुपलब्धिस्वरूप तृतीय हेतु भी उल्का, बिजली आदि में व्यभिचारी है, क्योंकि उनकी उत्पत्ति के पूर्व और विनाश के बाद उनके अवयवों की उपलब्धि
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७१. मध्यमम्यादादहरये खण्ट: ३ . का.१
*स्वाहाटकापारतासवान: *
चतुर्थोऽपि धूमादिना । पक्षमस्तु स्पष्टमेव प्रागसिदत्वेन प्रदर्शित इति ।। स्यादेतत् - द्रव्यं भवनयं नित्यो वा स्यादनित्यो वा ? अत्र मीमांसकानुयायिततो → नित्य एव शब्दो 'यमेव पूर्वमश्रौषं स एवाऽयं मकार'
-* जयतdi सूक्ष्ममूत्तान्तरा प्रेरकत्वलक्षणः चतुर्थी हेतुः अपि धूमादिना सन्यभिचार: । आदिपदेनीमाप्रभादिग्रहगम । चूमस्य सुक्ष्ममूर्नान्तरा:प्रेरकत्येपि पौद्गलिकत्वाभावविरहात, तस्य स्पर्शबन्चात । तदुक्तं स्याद्वादकल्पलतायां → ‘म्पर्शस्ता शब्देन कर्णविचरं प्रविशता वायुनेव तदवारलगतूलांशुकादेः प्रेरणं स्यात् । न स्यात, धूमनाउनकान्तात् । धूमा ह स्पर्गवान्, तदभिः सम्बन्धन पांशुसम्बन्धेनेव चक्षुषा स्वास्थ्योपलव्धेः । न च तेन चक्षुःप्रदेवां प्रविदाता नल्पक्ष्ममानस्याऽपि प्रेरणं समुपल-यत इति । नवपर्शवत्वे शब्दस्य यायोरिंच स्पाइन सड़गः, धूम-प्रभादिबदनद्भुतस्पर्शल्यादि' (म्या.क.स्स.१०.गा.३६) त्यादि।
वस्तृतस्त मुनान्तरणरकल्वमपि दस्त्येव मेघगजनादिनो भित्त्यादिडोलनादी प्रसिदत्वान. आधुनिकध्वनियन्त्रादिजन्यमहावनेरपि पत्रादिप्रेरकत्वस्यापि दृष्टत्वात्स्वमगाऽसिद्धिः भागामिद्भिःपि चतर्ध वापि स्फुटत्यान्न सांपर्शिननि ध्येयम् ।
गगनगुणत्वलक्षणः पनमस्तु पौदगलिकत्वप्रतिपंधको हेदः स्पष्टमय प्राक सदस्याकाागणव मस्य सर्वशब्दग्रहणात्तिः श्रोत्रसमवाया विशेषादित्यादिना (पृष्ठ ६९.३) असिद्धत्वेन = स्वरूपाऽसिद्भलेन प्रदर्शित इति सोऽपि न दादपोद्गलिकन्यप्रतिक्षेपकृतेलमित्यलं. विस्तरेण । विस्नरस्तु स्याद्वादरत्नाकर-सम्मनितर्क-स्याद्वादकल्पलतादिनोग्यमयः ।
दनित्यानित्यत्वामांसाधम पक्रयते - स्यादेतदिति । द्रव्यं भवन = द्रव्यत्वेन सिध्यन् अयं = शब्दः नित्यो वा स्यादनित्पो वा ? इति । अत्र नित्यत्वकाटिर्मीमांसकानामनित्यत्वकाटिस्न नयाविकानाम् । क्रमेण तन्मतं प्रददौडने गन्दस्य नित्यानित्यत्वं स्याद्रादिनामिति दर्शयिष्यनि प्रकरणकार इति सन्दर्भः ।
अत्र = निस्ताविनति पत्नी मीमांसकानुयायिन इनि आहरित्वनना ग्रेन्चति । नित्य एच शब्द इति । शब्दस्यानित्यत्वव्यधिकरणनित्यमित्यर्थः । कुनः ? 'यमेव पूर्वमश्रीपं स एवायं गकार' इत्यबाधितप्रत्यभिज्ञानात् । श्रुतश्रूयमाण
न होने पर भी उनमें पौद्गलिकन्वाभावात्मक माध्य नहीं रहता है। अतएव तृतीय हेतु भी ज्यभिचारी होने के मरव शन्न में पीद्गलिकत्व का प्रनिषेध करने में असमर्थ बन जायेगा। इस तरह मूक्ष्ममून्तिग:प्रेरकत्वस्वरूप चतुर्थ हेनु भी धूम. प्रभा आदि में पौगलिकत्वाभाव का व्यभिचारी है। धून, प्रभ, उप्मा आदि द्रव्य गमनागमन करते हुए भी मूक्ष्म रूई आदि मन द्रव्यों के प्रेरक बनते नहीं हैं। फिर भी उनमें पौद्गलिकत्वाऽभाव नहीं रहता है, किन्तु पीद्गलिकत्व ही रहता है। इसलिप चतुर्थ हेतु भी व्यभिचारी होने से शन्द में पौद्गलिकत्वाभाव का साधक नहीं हो सकता है ।
* पचमहेतु स्वस्यासित पश्च. । इस तरह प्राचीन नैयायिक से उपनयस्न गगनगुणत्वात्मक पाँचवा हेतु भी शब्द में पाद्गलिकत्व का निराकरण नहीं कर सकता है, क्योंकि गगनगुण-यम्वरूप इंतु ही शन्न में स्वरूपाऽसिद्ध है - यह ना पहले शन्द्र के द्रव्यवमिडिप्रस्नाच में बताया गया है। जब कि. शब्द द्रव्यस्वरूप है तब उसमें गुणच ही कम रह सकंगा ' गुणत्व ही शन्द में नहीं रहता है, तब आकारागुणव ती शब्द में नितरां नहीं रह सकता है। इंतु ही पक्ष में न रहने पर गन्दात्मक पक्ष में पालकत्याभावात्मक साध्य की मिद्धि वृद्ध नैयायिक कम कर सकते है ? अतः पाँचवा हेतु भी पक्ष में ग्वरूपामिल है। इस तरह प्राचीन नयायिक से उपन्यस्त हुनु पञ्चक में से एक भी हेतु शन्न में पौदगरिकत्व का प्रतिक्षप नहीं कर सकता है। अतः शन्द द्रव्यात्मक ही है, पौदगलिक ही है . यह निरागधरूप में कहा जा सकता है।
ONGथा नित्य है - मीमांसक म्याद, । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि 'शब्द यदि द्रव्य है तो यह क्या नित्य द्रव्य है या अनित्य द्रव्य ?' इसके प्रत्युत्तर में मीमांसकानुयायिों का यह बकव्य है कि → "शब्द नित्य ही है अर्थात् पकान्तनित्य है । इसका कारण यह है कि 'पहले जिस ग शद को मैंने सुना था वही यह ग शद : गकार है ऐसी प्रत्यभिज्ञा होती है, जो अबाधित होती
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* यश उन्मादानविचार: * इत्यबाधितप्रत्यभिज्ञानात, शब्दोत्पादायितीतर्वायूत्पादादिविषयकत्वात्, उत्पते: स्वत्वगत्वेऽपि खण्डश: तदारोपसम्भवात् ।
जायलता* गकाराभेदसाधकप्रत्यभिज्ञाया अबाधाच्छब्दस्पैकान्तनित्यमितार्थः । न च ‘गकार उत्पन्नो गकारा विनष्ट' इत्यादिप्रतीनर्गम सद्भारात अभेदविषयिण्या निरुक्तप्नत्यभिज्ञाया बाध इति वाच्यम्, शब्दोत्पादादिप्रतीनेः बापुत्पादादिविषयकवाद न तस्याः प्रत्यभिज्ञानाधकल्चम । शन्दयाका यत्पादविनाशी गमीयादिदोपबशा भन्ने आगप्यने यथा जपाकुसुमगतरतिमा सबिहिन - म्फटिकशकले । अता न पूर्वापरकालीनगकारा भदावगाहित्वं नेकप्रत्यभिन्न या अग्राममिति । एतेन शब्दोन्पाटविनाटा. प्रतीनीनां भ्रमत्वकल्पनामपेश्य प्रत्यभिज्ञामात्रस्य नन्कल्पने लायमिति प्रत्युतम्, विषयबाहुल्यस्य जनचाहल्या प्रयोजकत्वान
ननून्यत्तिस्तु स्राधिकरणापत्रमानधिकरणक्षणसम्बन्धरूपैच वाच्या । सम्बन्धपदानुपादान तू पनिप्राकमणाना. मुत्पत्तिम्वरूपतापत्तिः। अन एव तदपादानम् । यद्वा स्वाधिकरणक्षणावृत्तिागभावप्रतियोगिक्षगसम्बन्धस्वरूपा मा वनव्या यद्धा स्वप्रथमक्षणसनासम्बन्धामिका सा किनच्या अन्यम्बन्पा या किन्तु ग्वत्वरितेच मानीकर्नया । प्रकृते वायुगनात्यादस्य शाचे आरोपार्थ स्वपंदन शब्द्धग्रहागं कार्यम् । परन्तु तस्य निन्यन्न निरुतात्पनरामिद्भिः, शब्दाधिकरणमणध्वंसाधिकरणत्यादिम्पत्त्वान सर्वेशमय क्षणानाम । तता न इन्द नादृशा भ्रम आरोपंः वा सम्भवति अन्यत्र प्रसिद्धस्येचा त्यागपगम्भवादिनि चेन ? मैत्रम्, प. = पानिपायस्य स्वयगर्भपि खण्डशः तदागेपसम्भवान = उत्पाद गंगसम्भवान् । यधा स्वगणनाधिकरणाभावा प्रतियोगिमागागाधिकरण्यरूपाया व्याप्तः स्वत्वगर्भवे:पि वाया प्रसिद्धं दहनममानाधिकरणा भावा:पनियांगित्वं धूम समारोग्य वहीं बहिसमानाधिकरणामाचाानियांगिधूनसामानाधिकरण्यस्वरूपाया धमन्यातः भ्रमः सम्भनि, बहिव्यापकधुमम्गमानाधिकरण्यस्याऽस्यण्डस्या प्रसिद्धत्वे:पि यहिच्यापकत्वस्य धूमसामानाधिकरणयग्य च तत्खण्डस्य प्रसिद्धेः नथैव नित्यशब्दाधिकरणध्वंसानधिकरणक्षणसम्बन्धात्मिकाया अखण्डोत्पनेप्रमिद्धतःपि गगनादौ प्रमिदं नित्यशदाधिकरणध्ययाधिकरण क्षण समारोप्य नित्यदाद नित्यशब्दाधिकरणक्षणध्वमानाधिकरणक्षणसम्बन्धात्मिकायाः स्यात्पत्तरारोपो भ्रमो वा मम्भवत्येव, नित्यशदाधिकरणक्षणाधिकरणल्वरूपस्य क्षणसम्बन्धरूपस्य च तत्त्वण्डस्य प्रसिद्धर्शित नामांसकाशयः । है । प्रन्यभिज्ञा पूर्वापरकालीन पदार्थ में अभेद की साधक होनी है। इसलिए पूर्वश्रुत और वर्तमानकाल में श्रूयमाण शन में अभेद की सिद्धि होती है । इस तरह शब्द में चिरस्थायिता की सिद्धि होने पर नित्यत्व की मिद्धि होती है 1 यहाँ यह शंका हो कि > "यदि शब्द नित्य है तब तो 'शब्द उत्पन्नः', 'शब्दो विनष्टः' ऐसी प्रतीति, जो सर्वजनप्रसिद्ध है, कैसे उपपन्न हो सकेगी? क्योंकि नित्य पदार्थ का कभी भी उत्पाद और विनाश हो सकता नहीं है" -तो इसके समाधानार्थ यह कहा जा सकता है कि शन्न में जो उत्पनि और विनाश की प्रतीति होनी है वह वस्तुतः शब्दविपयक नहीं है किन्तु रायुविषयक है । अर्धान नित्य गन के व्याक वायु का उत्पाद और विनाश होने में पामर लोग पकनगांचर उत्पनि और चिनाश का शन्न में उपचार करते हैं, जैसे जपाकुसुमगन रतिमा का स्फटिक में आरोप करते हैं । मगर आगेप करने पर भी जैसे स्फटिक में वस्तुनः रनिभा नहीं होती है ठीक वैसे ही पवनगत उत्पादादि का शन्द में आगेय करने पर भी इन्द्र क वस्तुतः उत्पादादि होते नहीं हैं ।
MICR में उत्पति की प्रतीति में पतिता की संगति यदि यहाँ यह कहा जाय कि -> 'उत्पनि स्वाधिकरणक्षणध्वंमानधिकरणक्षणसम्बन्धस्वरूप है । जैसे, जो व्यक्ति जिम क्षण में उत्पन्न होती है वह क्षण उस अनि, के अधिकरणीभूत क्षणों के ध्वंस की अनधिकरण होती है, क्योंकि उमके पूर्व उस व्यक्ति का अभाव होने से उनके पूर्व की श्रण उसकी अधिकरण नहीं होती है। नथा जो क्षण उस व्यक्ति की अधिकरण हानी हैं उनमें उसकी उत्पनिक्षण सर्व प्रथम क्षण है, जो उस क्षण में नष्ट न हो कर उसकी अगली क्षण में नए हाती है। अनः उस क्षण के साथ उस व्यक्ति के सम्बन्ध को ही उस लति की उत्पनि कही जाती है। नित्य व्यक्ति सभी क्षणों में रहती है । अतः प्रत्येक क्षण उसकी अधिकरणीभून अपनी पूर्व क्षण के ध्वंम की अधिकरण होती है । इसलिये उत्पत्ति के क लक्षण में स्वशब्द से नित्य व्यक्ति को ग्रहण करने पर उत्पत्ति की अप्रसिद्धि हो जाने से नित्य में उसका भम नहीं हो सकता है, क्योंकि एकत्र प्रसिद्ध का ही अन्यत्र आगंप या भ्रम हो सकता है तो यह इसलिए निगधार हो जाता है कि उत्पत्ति स्वत्वघटित होने पर भी खण्डशः उसका आगेर या भ्रम मुमकिन है। मतलब यह है कि नित्यपदार्थ की अधिकरणीभूत क्षणों के वंस का अनधिकरण क्षण अप्रसिद्ध होने से अस्वण्टरूप में नित्य का उत्पाद अप्रसिद्ध है फिर
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७४२ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः ३ का ११
एकत्र तारत्व - मन्दत्वादिमसमर्थनम
न च (? अथ) तारमन्दादिभेदेन शब्दनानात्वावश्यकत्वाद् नानाशब्देष्वपि अबाधितप्रत्यभिज्ञादर्शनात् अस्तु तस्यास्तजातीयाऽभेदद्विषयकत्वं, व्यक्त्यभेदविषयिण्यास्तु भ्रमत्वमिति चेत् ? न घटादौ श्यामत्व- रक्तत्वादिवदेकत्राऽपि शब्दे तारत्व-मन्दत्वादिसम्भवात् । अस्तु वा
* जयलता जै
=
अथ 'तारः स गकार: पूर्वमश्री मन्दोऽयं गकारो यः श्रूयंत इत्यादिप्रतीत्या तार- मन्दादिभवेन विरुद्ध धर्माध्यासन शब्दनानात्वावश्यकत्वात् = पूर्वापरकालीनगकारादिभेदस्य प्रमाणसिद्धत्वात् नानाशब्देषु प्रमाणसिद्धभेदवत्सु दादेषु. अबाधितप्रत्यभिज्ञादर्शनात् स एवायं वकारः पं पूर्वमश्रयम् इत्याद्याकारिकायाः सर्वानुभवसिद्धायाः स्वरसवाहिप्रत्यभिज्ञाया अत्राधितत्वीपलच्नेः अस्तु तस्याः प्रत्यभिज्ञायाः तज्जातीयाऽभेदविषयकत्वं पूर्वोत्तरकालीन-भिन्नगकारादिसादृश्याऽवगाहित्वं अन्यथा पूर्वोत्तरकालीनस्कारादिभेदसाधक- तारत्वादिप्रमितिविरोधप्रसङ्गात् । अत एव व्यक्त्यभेदविषयिण्याः = तावृदाप्रत्यभिज्ञायाः पूर्वो नरकालीनगकारादितादम्याचमाहित्ये तु भ्रमत्वं नादात्म्याभाववति तादात्म्याः वगाहित्वादिति चेत् ? न घटादी श्यामत्चरक्तत्वादिवदिति । यथा 'श्यामो नष्टी रक्त उत्पन्न' इतिज्ञानकाले 'स एवायं घट' इति प्रत्यभिज्ञायाः पूर्वोत्तरकालीनव्यक्त्यभेदविषयकत्वेऽपि प्रमात्वमेव विशेषणोत्यादादिप्रतीतः विशेष्याः भेदा: विरोधित्वात् ज्ञानाकारनंद विरोधाऽसम्भवात् तथैव एकत्राऽपि गकारादौ शब्दे कालभेदन तारत्वमन्दत्वादिसम्भवात् = तारत्व मन्दत्वादिविरुद्ध धर्मसमावेशसम्भवात् तारत्यादिपणत्यादादिप्रतीतेः गकारादिस्वरूपविशेष्यव्यक्त्यभेदाऽविरोधित्वात् ।
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एतेन 'उत्पच्च गकार, विनो गक्कार' इति वैधर्म्यज्ञानकालोत्पत्तिकाया: स एवायं गकार' इत्यादिप्रत्यभिज्ञायाः ५. जातीय भेदविषयकत्वमंत्र, न तु तदृद्व्यक्त्यभेदावगाहित्यम्, श्यामां नष्टः, रक्त उत्पन्न' इति ज्ञानकाले ' स एवायं यद' प्रत्यभिज्ञायास्तु व्यक्त्यैक्याऽवगाहित्वेऽपि न क्षतिः, तत्र विशिष्टोत्पादादिप्रतीतेः शुद्धव्यक्त्यभेदाऽविरोधित्वात् इह तु शुद्धस्यैव गकारादेरुत्पादाद्विधारिति विशेषादित्यपि परास्तम्, नादृशवैधर्म्यज्ञानाभावकालोत्पत्र - पूर्वापरकालीन व्यक्त्य भेदविषयक!.त्यभिज्ञया तदेक्यसिद्धानुत्पादादिप्रतीतेवत्पादादिविषयकत्वस्य सुवचत्वादित्युक्तोत्तरत्वात् अत एव दूरत्व- नैकट्य-शुकसारिकादिभवादिभेदेन नानाविधेष्वपि शब्देषु प्रत्यभिज्ञादर्शनात् व्यक्त्यभेदविषयकत्वं तस्या भ्रमत्वमेवेत्यऽपि प्रत्याख्यातम्, देषुत्पादविनादाभेदादिकल्पने गौरवाबोत्पादविनाशभेदादिप्रतीतीनामेव भ्रमत्त्वात् ।
ननु तादृशवधर्म्यज्ञानाभावकालीनव्यक्त्य भेदविषयकप्रत्यभिज्ञायाः तदैक्यसाधकत्वं न तु तादृशव्यत्य नेदज्ञानाभावकालीननिरुतवैधर्म्यज्ञानस्य तद्भेदसाधकत्वमित्यस्य शपथमात्र निर्णेयत्वमित्यादाङ्गकायां कल्पान्तरमाहुः अस्तु वेति । तारत्वादिजातिः
भी नित्याधिकरण समानाधिकरणत्व और क्षणसम्बन्ध इन दो खण्डों में प्रसिद्ध है। अतः गमन आदि में प्रसिद्ध नित्याधिकरणक्षणध्वंसानधिकरणत्व का क्षण में अवगाहन कर के नित्यपदार्थ में स्वाधिकरणक्षणध्वंसानधिकरणक्षणसम्बन्धस्वरूप सखण्ड उत्पत्ति का भ्रम या आरोप होने में कोई बाधा नहीं है ।
यदि ऐसी शंका की जाय कि " शब्द में तारत्व, मन्दत्व आदि भिन्न भिन्न धर्म का भान 'तारोऽयं गकारः ' 'भन्दः स गकार:' इत्यादि प्रतीति होने से नार, मन्द आदि भेद से पूर्वापरकालीन प्रतीन गकारादि में भेद मानना आवश्यक है। इस तरह जब पूर्वापरकालिक शब्द में भेद (नानात्व) सिद्ध होने पर भी जो 'स एवायं गकारः यो मया पूर्वमश्रापम' इत्यादि प्रसिद्ध प्रत्यभिज्ञा होती है उसको तभी अगति कह सकते हैं यदि उसे तार, मन्द आदि भेद से विभिन्न कार आदि में साजात्यावगाही मानी जाय, न कि व्यक्तिअभेदाऽवगाही । मतलब यह है कि 'त एवार्थ गकार:' इत्यादि प्रत्यभिज्ञा पूर्वापरकालीन गकारादि शब्दात्मक व्यक्ति में गत्वादिरूप से सादृश्य को अपना विषय बनाती है जिसका अर्थ है कि भूयमाण गकार श्रुत कार के समान है। मगर व्यक्तिअभेदविषयक मानने पर यानी 'श्रूयमाण गकार श्रुत गकारव्यक्ति से अभिन 'है' ऐसा उस प्रत्यभिज्ञा का आकार मानने पर वह भ्रमात्मक हो जायगी, क्योंकि नारत्व, मन्द्रत्यादि वैधर्म्य से श्रूयमाण और श्रुत मकार में नानात्व = भेद पहले ही निश्चित है। यह ठीक उसी तरह संगत हो सकता है जैसे 'संवेयं दीपकलिका' यह प्रत्यभिज्ञा" <- तो यह भी निराधार है, क्योंकि जैसे 'श्याम घट नष्ट हो गया, रक्त घट उत्पन्न हुआ' यह ज्ञान होने पर भी यह वही घट है, जो पाकपूर्वकालीन था इस प्रकार की श्याम और रक्त घट में ऐक्य की प्रत्यभिज्ञा पूर्व प्रतीति को श्याम और रक्तरूप स्वरूप विशेषण के क्रमशः नाश और उत्पाद को अवगाडी मान कर दोनों प्रतीति की उपपति
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*वचित्कदाचित्कस्याश्चि जागभिव्यक्तिः | तारत्वादिजातिः शब्दमात्रवृत्तिरेत, विजातीयपवनवशातु कचित् कदाचिदभिव्यक्तिरिति । ___ या चैत्रादेः ककारादिप्रत्यक्षे चैप्रादिकर्णावछिनविजातीयवायुसंयोगस्य हेतुतेति
--ॐ मयलाता - वान्दमात्रवृत्तिरेवेति । तर्हि पश्चादिव पूर्वमपि नत्र मन्दत्वं ज्ञायत पूर्वमिव वा यश्चादपि तारत्वं तत्रांपलभ्येन, जातेः बंद सर्बान प्रत्यविशेषादित्याशङ्कायामाहुः - विजातीयपवनवशानु शब्दमात्रनिष्ठनारत्वादिजातः क्वचित् कदाचिदभिन्यतिरिनि यथा जलान्तःस्थायां गवि गोत्व- पशुत्व-पृथ्वी त्व- द्रव्यत्वादिजानिसन्चापि यत्किञ्चिनदवयःस्पी द्रव्यत्वजातिप्राकट्य प्राणादन तद्गन्धोपलब्धी सत्याञ्च पृथिवीत्वजात्यभिव्यक्तिः, तत्पुङ्गादिदर्शने 'पशुत्वापासब्धिः. साम्नादिमन्वज्ञानं च गोत्वजानियनिरिति व्यञ्जवचित्र्यवशात् सम्भवति तथैव एकत्रा.शिरे तारत्यादिनानिसन्देही कितनीजापपदाकचित्कदाचिनदभिव्यक्त्युपपनिरपि सुघटा काष्ठयेन वायुना देगमभिसर्पजा शब्दगता तारत्व-जानियंज्यते मन्दमभिरूपता च मन्दवजातिरिति-मीमांयकाशयः।
इटचाऽभ्युपगमबादेनोक्तम । वस्तुतस्तु तारत्व मन्दत्वादिजातिः व्यञ्जकवायवीयचनिधर्म एव शब्द आरोग्यने न तु वान्दम्य स्वाभाविकं स्वरूपं मीमांसकमते । अत एव गोत्वाश्चत्वादिजातिवत् तारल्व मन्दत्वादिविरुद्ध जातीनामेका शब्द कवं समावेदाः सम्भवतीत्युनावपि न क्षतिः, अनभ्युपगमायति तु ध्येयं मामांसामांसलमतिभिः ।
एतेन दाब्दस्य नित्यत्वे मवंदा सर्वेषां मन सर्वशन्दीपलब्धिप्रसङ्ग इणि परास्तम्, पषां शब्दात्यादकानाम। विजातीयवायुसंयोगादीनामस्माभिः मीमांसकैः शब्दव्यञ्जकत्वेनाभ्युपगमात् ।
यत्तु इनि नचिन्त्यमित्यनेमान्यति । शब्दस्य नित्यन्द चैत्रादेः ककारादिप्रत्यक्षे = लौकिकविषयतासम्बन्धन दायमैत्रीयशुकीयककारादिश्रावणत्वावच्छिन्नं प्रति, चैत्रादिकर्णावच्छिन्नविजातीयवायुसंयोगस्य हेतुति = चैत्रादिकविच्छेद्या करती है अर्थात पूर्व में इमाम और वर्तमान में रक घट के अभेद को विषय करनेवाली उक्त प्रत्यभिज्ञा व्यक्तिअभेदविपयनपा प्रमा हो सकती है ठीक वैसे ही गकार में लारत्व और मन्दत्व की प्रतीनि के अभावकाल में 'स पचायं गकारः' यह प्रत्यभिज्ञा होती है उससे पूर्व श्रुत एवं साम्रत यमाण गकार में ऐक्य के सिद्ध होने में कोई बाधक न होने से एक ही घट में श्याम-रक्त रूप के विनाश-उत्पाद की भाँति एक ही गकार में नारत्व और मन्दम धर्म के विनाश-उत्पाद को विषय माना जा सकता है। अतः नित्य वान्द में तारत्व-मन्दत्वादि के विनाश और उत्पाद को विपय मानना संगत होने से 'म पचायं गकारः' इस प्रत्यभिज्ञा को न्यनिअभेदविपयकत्वेन भी प्रमा कहने में कोई दोप नहीं है । अथवा यह भी कहा जा सकत है कि तारत्व-मन्दत्व आदि केचल नित्य शब्द में रहनेवाली जानि हैं। मगर विजानीय पचन के सबब पहले शन्द में तारत्व नाति की अभिव्यनि हुई थी और माम्प्रतकाल में विजातीय वायु मन्दत्य जाति की अभिव्यक्ति की वजह कभी कहाँ पर अमुक जाति का ही प्राकट्य होता है, सर जाति का नहीं । जैसे गाय दूर होने पर उसमें द्रव्यन्व जाति की अभिव्यक्ति होती है, नजदीक आने पर उसमें पशुत्व व्यक्त होता है और अत्यन्त समीप उपस्थित होने पर उसमें गोत्व प्रकट होता है, न कि सर्वदा और सर्वत्र सब के लिए गांव की अभिव्यक्ति होती है। ठीक उसी तरह नित्य गकार आदि शब्द में भी नारत्व, मन्दत्व अटि जाति की कदाचित् विजातीय वायु के द्वारा अभिव्यक्ति सुसंगत हो सकती है ।
ख नैयायिकत में लापत् की प्रकाश यनु. । यहाँ पदार्थगाट नामक ग्रन्थ के कर्ता बा, जो वादानित्यताबादी नैयायिक है, गन्दनित्यतावादी मीमांसक के प्रनि यह आक्षेप है कि -> "शब्द नित्यत्वपक्ष में चैत्र आदि के ककार आदि वर्गों के प्रत्यक्ष मं चैत्र आदि के कर्ण में विजातीयरायुसंयोग को हेतु मानना हेगा, अन्यथा = यदि कार्यदल में चैत्र आदि का निवेश न करेंगे तो चैत्र आदि के कर्ण में चैत्र-क-सारिका आदि के ककार आदि के व्यञ्जक विजातीयवायुमंयोग के होने पर चैत्रादि से अन्य दर मनुष्यों को भी उक्त ककारादि के श्रावण साक्षात्कार की आपनि आयगी । एवं कारणदल में चैत्रादिकर्ण का निवेश न करने पर पुरुषान्तर के कर्ण में ककारादि के व्यञ्जक विजातीयवासंयोग के होने पर त्रादि को ककागदि के श्रावण प्रत्यक्ष की आपनि होगी । अतः शन्दनित्यत्वपक्ष में शन और रिजातीयवापुसंयोग आदि में व्यङ्ग्य व्यञ्जकमात्र की कल्पना करन में अत्यन्न गौरव है । जब कि शब्दाऽनित्यताबादी नैयापिकों के मत में इस प्रकार के गौरव को अवकाश नहीं है, क्योंकि नदायिकमत में अवच्छंदकतासमन्ध से विजातीय ककार आदि में विजानीयवापुसंयोग अवच्छेदकतामम्बन्ध से कारण होना है। एवं नत्युरुपीय निखिल शब्द के श्रावण प्रत्यक्ष में तत्पुरुषीय कर्णावच्छिन्न समवाय हेतु होता है । इसलिये लाघव है" -।
पदार्थमालाकार का आशय यह प्रतीत होता है कि शन्दनित्यत्ववादी मीमांसकों के मतानुसार क, ख, ग आदि वर्ण
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७१४ मध्यमस्याद्वादाहरु खण्ड:
* पदार्थमालाकार
मीमांसकानामतिगौरवं, नैयायिकानां पुनरवच्छेदकतया चैत्रादिककारादी विजातीयवायुसंयोगो
हेतुः तत्पुरुषीयनिखिल शब्दप्रत्यक्षे च तत्पुरुषीयकर्णावच्छिन्नसमवाय इति लाघवमिति प्रदार्थ
ॐ जयलता *
विजातीयवायुसंयोगा हतवी वाच्या हति मीमांसकानामतिगौरवम् । न च ककारादियगत्वमंत्र विज्ञातीयवायुसंभोगकार्यतावच्छेदकमिति न गौरवमिति वाच्यम् चैत्रकर्णे चैत्रायादिककारादिव्यञ्जकविजातीयया संयोगसच्चे दूरस्थानां यज्ञदत्तादीनां तादृशककारादिश्रावणापत्तिवारणाय कार्यतावच्छेदकधर्मकुक्षीयत्वादिनिशान गौरवण्या निराकार्यत्वात् । एवं कारणतावच्छेदकधर्मकोटी चैत्रादिकर्णाप्रवेशे तु पुरुपान्तरकर्णावनिस्स कारादिव्यअकस्य विजानीयवायुसंयोगस्य सत्त्वेऽपि वादः ककारादिप्रत्यक्षापत्तिः । अतः तत्राऽपि अनन्तनादिनिवेदी महागांवम् । संयोगाभिव्यक्तककारादीनां नित्यत्वादेकत्वाच्च विभिन्नन्यमिव्यञ्जित ककारादिप्रत्यक्षवैलक्षण्यमनुपपन्नमिति तदन्यथानुपपत्त्या चैत्रीयादिककारादिश्रावणात्यावच्छिन्नकारणतावच्छेदककोट जात्यनिवेशस्याउ प्यावश्यकत्वमिति गौरवम् । एवं गत चैत्रीयककार - मैत्रीयककारशुकीयककारप्रत्यक्षेऽपि नानाविजातीयवायुसंयोगानां कारणले तत्र चैत्र-मैत्रादिनिवेद्यावन्त कार्यकारणभावकल्पनागौरवा पत्तिमीमांसकानामिति पदार्थमालाकारभिप्रायः ।
シン
=
नम
नैयायिकानां मते पुनः ककारादीनामनित्यत्वेन नानात्वेन च तथा तदुत्पादकानां वायुसंयोगानामपि विनाशित्वेन विजातीयत्वेन च कार्यता- कारणतावच्छेदकधर्म को टावनन्तपुरुषानिवेशन लाघवं यतः तन्मतेऽवच्छेदकतया चैत्रादिककारादी विजातीयककारत्वाद्यवच्छिन्नं प्रति अवच्छेदकतासम्बन्धेन विज्ञातीयवायुसंयोगों हेतुः । न च शब्दानित्यत्वं चैत्रादेः चैत्रीयमैत्रीय-शुकीयककारादिश्रावणत्वावच्छिन्नं किं कारणं ? इति शङ्कनीयम, शब्दाऽनित्य तत्पुरुषीयनिखिलशब्दप्रत्यक्षे = शब्दनिलौकिकविषयतासम्बन्धेन तत्युरुपसमवेत श्रावणत्वावच्छिन्नं प्रति च स्वनिरूपितप्रतियोगित्वसम्बन्धन तत्पुरुषीयकर्णावच्छिन्नसमवायः = तत्पुरुषवकर्णशष्कुल्पवच्छिनाकाशावच्छिन्नसमवायः हेतुरिति स्वीकारात् । मीमांसकलते चैवादाः स्वीय-मैत्रीयशुकीयादिककारश्रावणे चैत्रादिकयवच्छेद्यविजातीयवायुसंयोगस्य कारणत्वं नेत्राः स्वीय-मैत्रयादिखवर्णसाक्षात्कारच नद्भिरूप चैत्रादिकर्णावच्छिन्नविज्ञातीयवायुसंयोगस्य कारणत्वमित्येवं गुरुतरकार्यकारणभावः । नैयायिकमते तु चैत्रस्य निखिलशब्दसाक्षात्कार एकस्यैव चैत्रकर्णावन्धसमवायस्य हेतुतति स्पष्टमेव नैयायिकमते लाघवमिति पदार्थमालायां प्रत्यादि ।
सर्वदा एवं सर्वत्र सब के लिये एक ही है और उसकी अभिव्यक्ति चैत्र आदि किसी भी होने पर उसमें कोई विलक्षणता नहीं होती है, क्योंकि नित्य और एक होने से उसमें वैजात्न्य नामुनकिन है । किन्तु विभिन्न व्यक्तियों से अभिव्यञ्जित एक ही वर्ण का श्रोताओं को विलक्षण श्रावण प्रत्यक्ष होता है । इसकी उपपत्ति के लिये मंत्र के अपने कार के साक्षात्कार में त्रीयांवय विजातीयवायुसंयोग, मैत्रीय ककार के प्रत्यक्ष में दूसरा विजातीयवायुसंयोग और शुक्र आदि के कार के प्रत्यक्ष में अन्य चिजातीयवायुसंयोग को कारण मानना होगा। इस प्रकार विभिन्न व्यक्तियों से अभिव्यञ्जिन एक ही ककार आदि के प्रत्यक्ष में विभिन्न विजानीयात्रायुसंयांगों को कारण मानना होगा । एवं एक श्रोता में जो ककारादि का प्रत्यक्षात्मक कार्य उत्पन्न होता है उसमें विभिन्न उच्चारणकर्ताओं का सनिवेश करना होगा। जैसे चैत्रगत वेत्रीयककारप्रत्यक्ष, चैत्रगत मंत्रीयकवणं. साक्षात्कार आदि में विभिन्न विजानीयवायुसंयांगों को कारण मानना होगा । इस प्रकार कार्यदल में ककारादि में विभिन्न उच्चारणकर्ताओं का निवेश करने से प्रत्येक श्रोता को होनेवाले कर्ण के प्रत्यक्ष को लेकर अनन्त गुरुतर कार्यकारणभाव की कल्पना होने से अपार गौरव है । किन्तु शब्दाऽनित्यत्वपक्ष में विभिन्न उच्चारणकर्ताओं के ककारादि में सहज वेन्दक्षण्य होता है । अनः उनके मतानुसार अवच्छेदकतासम्बन्ध में विजातीय ककारादि कार्य के प्रति अवच्छेदकतासम्बन्ध से विज्ञातीयवायुसंयोग कारण होता है । इस कार्यकारणभाव की कुक्षि में उच्चारणकर्ता का विशेषरूप से निवेश नहीं होता है । अतएव इस कार्यकारणमात्र में उत्पाद और उत्पादक के वैजात्पभेद से ही भेद होता है, उच्चारणकर्ता के भेद से भेद नहीं होता है। श्रोता को कव आदि का विलक्षण साक्षात्कार होता है वह पियभूत ककारादि के वैजात्य से ही सम्पन्न हो जाता है । अतएव तदर्थ विजातीय कारण की कल्पना की आवश्यकता नहीं होती है, किन्तु सामान्यतः शब्दनिष्ठविपयतासम्बन्ध तत्पुरुषीय श्रावण साक्षात्कार के प्रति तत्पुरुषीयकर्णाच्छे समदाय को प्रतियोगित्वसम्बन्ध से कारण मान लेने से सब सङ्गत हो जाता है, क्योंकि जो भी शब्द तत्पुरुषीय कर्णावच्छेदन उत्पन्न होगा उसमें तत्पुरुष समवाय प्रतियोगित्वसम्बन्ध से रहेगा और उस शब्द में उत्पादकाधीन जो बैजात्य होगा उस वैजात्य रूप से उस शब्द का तत्पुरुष को साक्षात्कार हो जायेगा । अतः शब्द अनित्यत्वपक्ष में उच्चारणकर्ता के भेद से और विजातीयवायुसंयोग आदि के भेद से न तो शब्द और वायुसंयोग के कार्यकारणभाव में गांव
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*मांकन तिम
मालायां प्रत्यपादि, तच्चित्यम्, विजातीयवायुसंयोगस्य स्वावच्छेदकश्रोत्रसंयुक्तमनः प्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धेन निखिलशब्दश्रावणं प्रति हेतुत्वे मीमांसकानामेवातिलाघवात् । किस शब्दस्य जन्यत्वे वीणाकाशादीनामप्यनन्तहेतुता कल्पनीया, न तु व्यङ्ग्यत्व
नयलता है
तचिन्त्यम् । यतो नित्यत्वपक्षेऽपि अवच्छेदकतासम्बन्धेन विजातीयककारादिप्रत्यक्षेऽवच्छेदकतासम्बन्धेन विजातीयसंयोगस्य कारण अवम्छेदकतया तत्तत्कर्णावत्रित्यक्षं च तादात्म्येन तत्तत्कर्णस्य कारणत्वमित्यङ्गीकारे गौरवविरहात् । प्रत्युत विजातीयवायुसंयोगस्य स्वावच्छेदकश्रोत्रसंयुक्तमनः प्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धंन निखिलशब्दश्रावणं प्रति = समवायसम्बन्धावच्छिन्नकार्यताश्रम - सकलशब्दश्रावणमात्रवृतिवैजात्याबस्थिभं प्रति हेतुत्वे स्वीक्रियमाणे तत्कर्णानां पृथगहेतुत्वात् मीमांसकानामेवाऽतिलाघवादिति । समवायेन यत्रात्मनि श्राव जायते तत्रैव विजानीयायोग निरुक्तसम्बन्धेन वर्तत एव स्वस्य = विजातीयपचनसंयोगस्यावच्छेदकं श्रवण संयुक्तं यन्मनः तत्प्रतियागिकान्मानुयोगिकविजातीयसंयोगाश्रयत्वात्तदात्मनः इत्थञ्च विषयनिष्ठप्रत्यासत्त्या पूर्वी कार्यकारणभावगीकारे तत्तदनन्तपुरुषनिवेशे गौरवानं परित्याज्मनिष्ठप्रन्यासन्यैव निरुक्तहेतुहेतुमद्भाव स्वीकार तिलापचं स्पष्टमंद मीमांसकमते ।
किश्च शब्दस्य = शब्दत्वावच्छिन्नस्य जन्य प्रागभावप्रतियोगित्वं प्रध्वंसप्रतियोगित्वं वा स्वीक्रियमाणे विजातीयपचनसंयोगस्पेन वीणाकाशादीनां काश-वेणु-मृनदण्डसंयोग- दादलक्ष्यविभाग-प्रथमादिशब्दादीनां अपि अनन्तहेतुता कल्पनीया = वाच्या पृधपृथग्नानाविधकारणताऽनङ्गीकारं व्यतिरेकव्यभिचारादिप्रसङ्गात् । न तु शब्दस्य व्यङ्ग्यले
=
=
دان
है और न तो तत्पुरुषीयशब्दप्रत्यक्ष एवं तत्पुरुषीयकविच्छिन्न समयाय के कार्यकारणभाव में गौरव है। अतः शब्दनित्यत्ववादी मीमांसक के मत की अपेक्षा शब्द अनित्यत्ववादी नैयायिक के मत में स्पष्ट लाघव है <
शब्दनित्यत्वपक्ष में गौरव का परिहार
तचिन्त्यम | मगर शब्दनित्यत्ववादी मीमांसक का पदार्थमालाकार नैयायिक के आक्षेप के खिलाफ यह वक्तव्य है कि. उक्त रीति से शब्दाऽनित्यत्वपक्ष का लाघव से समर्थन करना मुनासिब नहीं है, क्योंकि नित्यत्वपक्ष में भी ककारादि के विजातीय प्रत्यक्ष में अवकतासम्बन्ध से विजातीयवायुसंयोग को और तत् तत् कर्णावच्छिन्न ककारादिसाक्षात्कार में तत् तत् कर्ण को कारण मान लेने से गौरव नहीं होगा। प्रथम कार्यकारणभाव में कार्यता और कारणता दोनों अवच्छेदकता सम्बन्ध से अभिमत है । दूसरे कार्यकारणभाव में कार्यता का अवच्छेदक सम्बन्ध है अवच्छेदकता और कारणता का अबतक सम्बन्ध है तादात्म्य |
दूसरी बात यह है कि दूसरे कार्यकारणभाव को मान्य करने की आवश्यकता भी नहीं है किन्तु एक यही हेतुहेतुमद्भाव मानना मुनासिव है कि समवायसम्बन्ध से ककानदि सकल के साक्षात्कार में स्वावच्छेदक श्रीसंयुक्त मनःप्रतियोगिक विजातीयसंयोग सम्बन्ध से विजातीयवायुसंयोग कारण है। आशय यह प्रतीत होता है कि पानीयपवन के यज्जातीय संयोगसम्बन्ध से चैत्र के कण्ठ में ककार अभिव्यक्त होगा नज्जानीयपचन के सज्जातीयसंयोग की श्रोता के भन: संयुक्त कार्य में उत्पति होने पर श्रोता की चैत्रकण्ठाभिव्ययन ककार का प्रत्यक्ष होगा । इसी तरह खकार, गकार आदि सकल शब्द के साक्षात्कार में ज्ञातव्य है । यहाँ विजातीय एवनसंयोग को जिस सम्बन्ध से कारण कहा गया है उस सम्बन्ध की कुक्षि में स्वपट से श्रोत्रा के कर्णावच्छेदेन उत्पन्न होनेवाला विजातीय वायुसंयांग विबंधित है। उसका अवच्छेदक है, उससे संयुक्त है मन, उस मन का विजातीयसंयोग है आत्मा और मन का संयोग, जो श्रीतृभूत आत्मा में रहता है। अतः उस सम्बन्ध से विजातीयवायु का विजातीयसंयोग भी श्रीतृभूत आत्मा में रह जायेगा । इसलिये विजातीयवायुसंयोग ककारादि सकल वर्ण के साक्षात्कार में कारण होना है। इस कार्यकारणभाव का स्वीकार करने पर तन तक को तन् तत् कणांचन्छिन ककारादि प्रत्यक्ष में कारण न मानने से शब्दनित्यत्वपक्ष में गौवाभाव नहीं है किन्तु शब्दानित्यत्वपत्र की अपेक्षा अत्यन्त लाघव भी है । ॐ शब्द अनित्यत्वपदा में गौरवप्रदर्श
किं दा. । इसके अतिरिक्त शब्द के अनित्यत्व पक्ष में दोष यह है कि गल की जन्य = कार्य मानने पर वीणा. वेणु, मृदङ्ग, आकाश, शब्द आदि अनन्न पदार्थ में कारणता की कल्पना करनी होगी, जो गौरवग्रस्त है। मगर शब्द की नित्य अर्थात विजातीय वायुसंयोग से व्यग्य मानने पर श्रीणा, केणु, मृदङ्ग, आकाश आदि अनन्त पदार्थ में शब्दनिरूपित
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५१६ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः ३ . का.११ मामांसकमने कलपत्र कार्यतावशेदकता **
इति । (nt जन्यत्वपक्षे विजातीयपवनसंयोगस्य कत्वं जन्यतावच्छेदकमिति लाघवं, . व्यग्यत्वपक्षे तु कात्यक्ष करावणत्वादिकं वेति गौरवमिति निरस्तम्, स्वाश्रयलौकिकश्रावणविषयतया व्यङ्ग्यत्वपक्षेऽपि कत्तस्य तत्त्वसामवात् । न च समवायापेक्षयोक्तसम्बन्धे | गौरख, सम्बन्धगौरवस्याऽदोषत्वात् । वस्तुतो निरुक्तसम्बन्धेन शब्दत्वमेव मम तज्जन्यतावच्छेदकमिति कत्वाधवच्छिनं प्रति |
-* जयलता वीणाकाशादीनामनन्तहेतुता कल्पनीया, विजातीयवायुसंयोगस्यैव दाब्दव्यञ्जकत्वात् ।
एतेन = शब्दजन्यत्वपक्षेनन्तहेतुताकल्पनगौरवप्रदर्शनेन, निरस्तमित्यनेनाल्यान्वयः । शब्दस्य जन्यत्वपक्षे विजातीयपचनसंयोगस्य कवं जन्यतावच्छेदकं न तु प्रत्यक्षत्वादिकमिति नयापिकमते लाघवं, व्यग्यत्वपक्षे तु 'वजातीयवायुसंयोगनिरूपिनकार्यताया अबच्छेदकं प्रत्यक्षत्वं कश्रावणत्वादिकं वा सम्भवतीनि मीमांसकमत गौरवं = कार्यतावच्छेदकधर्मशरीरगौरवं इति नैयायिकवचनं निरस्तम्, स्वाश्रयलौकिकविषयतया - स्वाश्रयविषयकलंकिकप्रत्यक्षनिष्ठविपिनासम्बन्धन व्यङग्यत्वपक्षे = शब्दाभिव्यक्तिदर्शन अपि कत्वस्य तत्त्वसम्भवात = विजातीयपवनसंयोगकार्यतावच्छेदकत्वोपपत्र: । स्वस्य कत्वस्य आश्रया य: ककारस्तद्वीकिकसाक्षात्कारे निष्ठाया वेषयिताया विजातीयवायुसंयोगकार्यमात्रवृत्तित्वेन तादृशवियित्तासम्बन्धन कत्वस्य विजातीयपवनसंयोगकर्यता न्यूनाननिरिक्तनित्वन नत्कार्यतावच्छेदकल्सगर्न कार्यतावच्छेदकधर्नशरीरगौरव मामासकमते प्रसज्यते । न च समवायापेक्षया = नैयायिकसम्मतस्वसमवायापेक्षया, उक्तसम्बन्ये = स्वाश्रयलौकिकसाक्षात्कार-- निष्ठविषयितासंसर्गे विजातीयवायुसयागकार्यतावच्छेदकतारच्छंदकसंसर्गत्वकल्पनायां गौरचं दुर्वारमिति नैयायिकेन वक्तव्यम्, सम्बन्धगौरवस्य अदोपत्वात् । न चैवं दण्डत्यस्यापि घटकारणत्वं स्वाश्रयजन्यभ्रमिवचसम्बन्धेन स्यादिति शकनीयं, दषदेतरावृत्तित्वं सति सकलदण्डवृनित्वरूपस्य दण्डत्वत्वस्य घटकारणतावच्छेदकधर्मत्वकल्पनं गौरवादेव दण्डत्वस्य वटकारणत्वा योगात् ।
वस्तुतो निरुक्तसम्बन्धेन = स्वाश्रयलौकिकविषयितासंसर्गेण शब्दत्वमेव मम = मीमांसकस्य तज्जन्यतावच्छेदकं । कारणता की कल्पना अनावश्यक होने से उक्त गौरव निरवकाश है । शब्द को जन्य मानने पर महागीरप दोष की वजह यह नैयायिक कयन कि → "शब्द को विजातीयवायुसंयोग में जन्य मानने पर कार्यताअरच्छेदक धर्म होगा कत्व, जो अत्यन्त लघु है । नब कि शन्द को विजातीय वायुसंयोग से व्यंग्य मानने पर विजातीय वायुसंयोग का कार्य होगा शन्न अभिन्यक्ति यानी कविपयकलौकिक श्रावण प्रत्यक्ष । अनः विजातीय वायुसंयोग का कार्यताअवच्छंदक धर्म बनेगा कप्रत्यक्षत्व या कश्रावणत्व, जो कत्व की अपेक्षा गुमभूत है । स्पष्ट ही है कि शब्द के अनित्यत्वरक्ष की अपेक्षा नित्यत्वपश्न में विजातीयवापुसंयोगकार्यतारजोदकधर्म में गोरच है' -भी निगकृत हो जाता है, क्योंकि न्यङ्ग्यत्वपक्ष ( = शब्दनित्यत्वपक्ष) में विजातीय वायुसंयोग का कार्य ककार नहीं बल्कि ककारविषयक लौकिक श्रावण प्रत्यक्ष है, फिर भी उसका कार्यताअवदक धर्म तो स्वाश्रपलौकिकश्रावणविषयता. सम्बन्ध में कम ही होगा। स्व = कत्व, उसका आश्रय ककार, उसका (जो लौकिक प्रत्यक्ष है। जो विजातीयवासयोग का कार्य है, उसमें एक विषयिता नामक धर्म रहता है। अतः स्वायलौकिकविषयितासम्बन्ध से कत्व भी उस कार्य में ही रहेगा ही । अतः विजातीयवायुसंयोगकार्यता में अन्यूनाननिरिक्त होने से कत्व उक्त सम्बन्ध में कार्यताअवच्छेदक हो मकता | है । अतः नैयायिक और मीमांसक के मत में विजातीय वायुसंयोग का कार्यत.अवच्छेदक कत्व ही होगा। अनः शब्दानित्यत्ववाद की अपेक्षा शब्दनित्यत्वनाद में गौरव नाममकिन है। यहौं इम शंका का कि -> 'दोनों के मत में कत्व ही कार्यतावच्छंदक होने पर भी नैयापिकमन में विजानीय पवनसंयोग का कार्यतावच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्ध होगा समवाय और मीमांसकमत में स्वाश्रयलौकिकविषयिता सम्बन्य तत्कार्यतावच्छेदकतावदकसम्बन्ध होगा। अत: शब्दजन्यत्वपक्ष की अपेक्षा शब्दव्यहम्यत्व पक्ष में सम्बन्धगीरच नो जरूर होगा' - ममाधान यह है कि सम्बन्धीच वास्तव में दोधात्मक नहीं है। अवच्छेदकधर्म शरीर गौरव ही दोपरूप माना गया है, न कि अवनोदकसम्बन्धदेहप्रविष्ट गोरख भी । अतः गन्दव्यङ्गम्यत्वपक्ष में भी कन्व को विज्ञानीय वायुसंयोग का कार्यता भवछेदक मानने में कोई दोष नहीं है।
iD, स्व आदिशद एक ही है- मीमांसक। गम्तृता । यह तो अभ्युपगमवाट से कहा गया है कि विजानीय वायुसंयोग का कार्यतावच्छेदक स्वाश्रयलीकिकविषयितासम्बन्ध में कत्व है और अन्य विजातीयवायुसंयोग का निरुक्त सम्बन्ध से कार्यनाभरच्छेदक सत्व है। वस्तुस्थिति तो यह है कि निरुक्त.
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* मीमांसकमते शब्दत्वस्यैव कार्यतायच्छेदकता **
नानाहेतुताकल्पने तवैव गौरवम् । एतेन तव स्वावच्छेदकेत्यादिसम्बन्धेन हेतुता, मम तु अवच्छेदकतयेति लाघवमपि अपास्तम्, तथापि चैत्रत्वाद्यन्तर्भावेनाऽनन्तकारणता कल्पनागौरवाच्च । ॐ जयलता है
=
विजातीयत्रायुसंयोगकार्यतावच्छेदकमिति । चैत्रादिगतचेत्रीय मैत्रीयशुकीया। दिककार-स्वकारण भृतिप्रत्यक्ष विषयभूतवर्णानां विलक्षणले प्रतीतापि अभिन्नत्वात् व्यञ्जकभेद एवाऽभिन्ने शब्दे आरोप्यते नीलपीतरक्तकाचशकलपरावर्तितप्रकाशाभिव्यक्ते एकस्मिन्नेव शुक्ले पटे क्रमश: नीलत्व- पीतत्वादिप्रत्ययवत् । तनश्च मीमांसकमते शब्दत्वमेव निरुक्तसम्बन्धेन तत्कार्यतावच्छेदकं, किन्तु कत्वायवच्छिन्नं प्रति कत्ल - खत्व-गत्वाद्यवच्छेि नानाहेतुताकल्पने विज्ञानीयवायुसंयांग चीणा विष्णुमुदङ्गाकाशाद्यशब्दप्रभूत्यनेकविश्वकारणताकल्पनावश्यकत्वं तव = terrer एवं गीवम् गीतमीयदर्शने ककार खकार गकारादीनां विजातीयत्वात कार्यतावच्छेदकभेदे कारणभेदस्य न्यायप्राप्तत्वात् ।
=
एतेन = शब्दजन्यत्वपक्षे कत्रखत्वाद्यवच्छिन्ननानाहेतुना कल्पनागी स्वप्रतिपादनेन, अनास्तमित्यनेनाख्यान्वयः । तत्र मीमांसकर स्वावच्छेदकेत्यादिसम्बन्धेन = स्वावच्छेदकश्रेयसंयुक्तमनः प्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धन, विज्ञातीयवायुसंयो गाय हेतुता या विजातीयवायुसंयोगस्य हेतुता इति लाघवं इति गीतमाचवचनं अपि अपास्तम्, तथापि = मीमांसकमते विजातीयवायुसंयोगकारणतावच्छेदकसम्बन्धगौरवेऽपि ककारादिनानाशब्दजन्यत्वपक्षे विजातीयवायुसंयोगकार्यतावच्छेदककोटी चैत्रत्वतायन्तर्भावेन अनन्तकारणताकल्पनागौरवाच चैत्रीपककारे यो विजातीयवायुसंयांगां हेतुस्तद्भिस्यैव विजातीयवायुसंयोगस्य मैत्रीयककारहेतुत्वं ततोऽतिरिक्तस्यैव विज्ञातीयवायुसंयोगस्य शुक्रककारकारणत्वमित्येवं कार्यकोटिप्रविष्टानां चैत्रादिव्यक्तीनामानन्त्येनाऽनन्तकारणताकल्पनमप्यतिरिच्यते राजन्यत्वनये । एवं चैत्रीय- मैत्रायादिखकारगकारादावप्यनन्तहेतुहेतुमद्भावकल्पनमपि द्रष्टव्यम् । वाच्दव्यस्यत्वनये तु स्वाश्रयल किलविषयितासम्बन्धेन त्वानिं प्रति स्वावच्छेदकश्रीचसंयुक्तमनः प्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धन विजातीयवायुसंयोगस्य हेतुतेनि एक एवं कार्यकारणभाव: स्वीक्रियत इति अतिलाघवं मीमांसकानां कार्यताकोटी कत्व खत्वादीनां चैत्र-मैत्रादीनाञ्च प्रवेशात् ।
५१.५
A
ननु समानविषयकककाराद्यनुमितेः श्रावणसामग्रीप्रतिबध्यत्वं सर्वसम्मतमेव किन्तु सीमांसकसतं शब्दस्य नित्यन विजातीयवायुसंयोगस्य ककारादिश्रावणसामग्रीघटकत्वकल्पन नैयायिकमते तु शब्दस्य जन्यत्वेन विजातीयवायुसंयोगस्य न ककारादिश्रावणसामग्रीघटकत्वं किन्तु ककारादिसामग्रीघटकत्वमिति समानविषयकककाराद्यनुमिनित्वावच्छिन्न प्रतिबध्यतानिरूपितप्रतिबन्धसम्बन्ध से केवल शब्दत्व ही विजातीय वायुसंयोग का कार्यतावच्छेदक धर्म होता है, क्योंकि हम मीमांसकों की यही मूल मान्यता है कि चैत्रीय विजातीयचायुसंयोग मैत्रीय विजातीयवायुसंयोग आदि से अभिव्यक्त होनेवाले क, ख, ग आदि वर्ण सर्वत्र सर्वदा सब के लिए एक ही है । भिन्न भिन्न व्यंजकों से अभिव्यक्त होने पर भी उसमें कोई विलक्षणता नहीं है। यह ठीक उसी तरह संगत हो सकता है जैसे अन्धकार में रहे हुए एक ही श्वेत पद की चेत, रक्त, मील, पीत आदि भिन्न भिन्न रंगवाले प्रकाश से विलक्षण अभिव्यक्ति होने पर भी अभिव्यक्त पट तो एक ही होता है । इसलिये शब्दव्यस्यत्वरक्ष में उक्त सम्बन्ध से विजातीय वायुसंयोग का कार्यतावच्छेदक केवल शब्दत्वनामक एक ही धर्म होगा, जब कि नानाशब्दवादी नैयायिक के शब्दजन्यत्वपक्ष में उसका कार्यतावच्छेदक कन्व खत्व, गन्त्र आदि अनेक धर्म बनेंगे । अतः नैयायिक मत में ही अनेक कार्यकारणभाव के स्वीकार का गौरव प्रसक्त होगा । शब्दाऽनित्यत्वपक्ष में कत्व, स्वत्व आदि अनेक कार्यतावच्छेदक धर्म के स्वीकार से नानाविध कार्यकारणभाव की कल्पना का गौरव प्रसक्त होने की वजह यहाँ यह शका कि "मीमांसक को तो स्वावच्छेदकश्रोत्रसंयुक्त. मनः प्रतियांगिकविजातीयसंयोगसम्बन्ध से विजातीय पचनसंयोग की कारण मानना होगा मगर नैयायिक को तो केवल अवच्छेदकतासम्बन्ध से विजातीय वायुसंयोग को कारण मानना होगा। मतलब कि नैयायिकमत में विजातीयसंयोगनिए कारणता के अवक सम्बन्ध में लाघव है और मीमांसक के मत में गांव है" भी निराधार हो जाती है, क्योंकि विजानीयवायुमंयोगकारणतावच्छेदक सम्बन्ध में गौरव मीमांसक मत में अनिवार्य होने पर भी नैयायिकमत में विजातीयवायुसंयोग का कार्यतावच्छेदक धर्म केवल कव खत्व आदि न होकर चैत्रीयकत्व, मैत्रीयकत्व, चैत्रीयस्त्रत्व मंत्री आदि होगा । मतलब कि कार्यतावच्छेदक कोटि में चैत्रादि अनन्त व्यक्तियों का निवेश होगा | मगर तव कार्यता अवच्छेदक धर्म चत्रादि अनन्त व्यक्तियों के भेद से भित्र हो जाने से उनके कारणतावच्छेदक धर्म भी अनन्त बनेंगे, जिसके फलस्वरूप नैयायिकमत में अनन्त कार्यकारणभाव की कल्पना करनी होगी। ऐसा गौरव मीमांसकमत में नहीं है, क्योंकि चैत्र, मंत्र आदि अनन्त व्यक्तियों का एवं कत्व, स्वत्व, गत्व आदि अनेक धर्म का कार्यतावच्छेदकधर्मकुक्षि में प्रवेश आवश्यक नहीं है। मीमांसकमत में तो केवल एक ही कार्यकारणभाव मानना होगा, वह यह कि स्वाश्रयलोकिकविपयितासम्बन्ध से शब्दत्वावच्छिन्न के प्रति स्वावच्छेदकत्रसंयुक्तमन: प्रतियोगिक विजातीयसंयोग सम्बन्ध में विजातीय वायुसंयोग कारण है। अतः मीमांसकमत में अत्यन्त लाघव है यह फलित होता है ।
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४१८ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः ३ . का.११
मामासकमते गौरबाराष्ट्राः
एवञ्च समानविषयक-ककाराद्यनुमितो विजातीयपवनसंयोगघटितश्रावणसामग्या: प्रतिबन्धकत्वकल्पनागौरवमप्यनुदभाव्य, वैश्कर्णसंयोगावच्छिन्नसमवायटितसामय्या एव तथात्वे प्रत्युत गौरवात् । तथापि गकारादी गुणत्वादेः कलाभदाय हाय पृथक
पृ तीयपवनसंयोगस्याऽनन्तहेतुताकल्पने गौरवमिति वेत् ?
- जयलता - कताश्रयीभूनश्रावणसामग्णां विजातीयवायुस्योगनिवेशगौरवमतिरिच्यत इत्याशङ्गकामपाकर्तुमाहुः एवं च = निरुक्तरीत्या शब्दनन्यत्व. पक्षेन्नन्तकार्यकारणभावकल्पनानारप्रतिपादनन च, नैयायिकन मीमांसकं प्रति समानविषय लौकिकात्यक्षसामग्रीमत्त्वमिति सामग्रीसच्च च लौकिकप्रत्यक्षवानाद्यते न त्वनुमितिः, तदनन्तरं 'माक्षात्करोमीत्यनुव्यवसायस्यवांदयात् । ततश्च समानविषयकानुभितिसामग्रया: श्रावणादिसामाता दलल्लेन समानविपयकककाराद्यनुमिती समानकालानल्सामानाधिकरण्योभयसम्बन्धन विजातीयपचनसंयोगघटितश्रावणसामग्र्याः प्रतिबन्धकत्वकल्पनागौरवमपि अनुभाज्यं किमुत कारणतावच्छेदकारम्बन्धादिदागरगौरवमित्यापशब्दार्थः । तत्र परिहारमुपदर्शयन्ति . चैत्रकर्णसंयोगावच्छिन्नसमवायटितसामग्रयाः = नादशसमयायटिनश्रावणसामग्रया:, एव तथात्वे = समानविषयकककाराद्यनुमिनिप्रतिबन्धकवे स्व क्रियमाणे प्रत्युत नयायिकमन व गौरवात् । = प्रतिबन्धककोटी चैत्रायनन्तव्यक्तियशप्रयुक्तप्रतिबन्धकतावच्छंदकारीगौरवार । अयं मीमांसकाभिप्राय: समानविषयकककागद्यनुमितिप्रतिबन्धकी भूतश्रावणसमग्रयां बिजातीयवायुसंयोगनिवेशारक्षया चत्रमैनाद्यनन्तश्रोत्र-विजानीयवायसंयोगावच्छिन्नसमवायप्रवेश नयायिकमत एव नानाप्रतिबन्धकामावनिष्ठकारणताकल्पनागौरचमिति ।
अथ तथापि = चैत्रादिनिवेशप्रयुक्त प्रतिबन्धकतागौरबम्प नैयायिकमते टुरित्यपि, स्राश्रयवियित्या शन्नत्यावन्छिन विजातीयपवनसंयोगकारणत्वकल्पन गकारादी गणत्वा। ककारभेदादेश्च ग्रहाय-गकार दिनिप्रगणवेदन्त्व-ककारनद-खकारभेदादिप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नोत्पादोपपादनाय, पृथक् पृथक् विजातीयपवनमंयोगम्य अनन्तहतुनाकल्पने मामांमकानां गौरवं = महागौरवम् । अयं नैयायिकाशयः चैत्रीय-मंत्रीय-शुकाय-ककार -खकार-गकारादीनागस्य:पि ततानीतिबलक्षण्योपपादनाग्य शब्दत्व
एवञ्च । यहाँ मीमांसकमत के खिलाफ यह समस्या प्रस्तुत की जाय कि → "समानविषयक अनुमिति और प्रत्यक्ष की मामग्री होती है तब प्रत्यक्ष का उदय होता है, न कि अनुमिति का; क्योंकि समानविषयक अनुमिति और प्रत्यक्ष की सामग्री में प्रत्यक्ष की मामग्री बलवान होती है और अनुमिति की सामग्री दुर्बल । मतलब कि समानविषयक अनुमिति के प्रति प्रत्यक्षसामग्री प्रतिबन्धक होती है। जैसे कि ककारविषयक अनुमिनि के प्रति कफारायणप्रत्यक्षमामग्री प्रतिवन्धक होगी। मगर हम नैयायिक विजातीय वायुमंयोग को शब्द का जनक मानते हैं और मीमांसक झन्प्रत्यक्ष = श्रावण का जनक मानने हैं। मतलब कि ककारादिश्रावणप्रत्यक्षनामग्री में विजातीय वायुसयांग का नैयायिकमतानुसार प्रवेश नहीं होगा और मीमांसकमतानुसार प्रवेश होगा 1 अर्यात् समानविषयक ककारादिअनुमिति की प्रतिबन्धक श्रावणसामग्री नैयायिकमतानुसार विजानीय वायुसंयोग से घटित नहीं होने की वजह लघुभूत होगी और मीमानक मतानुमार बह निजातीय वायुसंयोग में घटित होने से गम्भुत होगी। अतः यह प्रतिबन्धकशरीरगारव टाप मीमांसकमन में अपरिहार्य होगा - ना यह तो नैयायिक को ही प्रतिकूल चन जायगी, क्योंकि मीमांसक के मतानुसार समानविषयक ककारादिगांचा अनुमिति की प्रतिबन्धकीभून श्रावणसामग्री केवल विजातीय वायुसंयोग से घटित होगी, जब कि नैयायिक के मतानुसार चैत्रादिकर्ण-विजातीयवायुसंयोगांभवमयांगावच्छित्र समवाय में घटित बनेगी, जिसमें चैत्रादि अनन्त व्यक्ति का निवेश होने से महागौरव है। यदि चैत्रादि व्यक्तियों का प्रतिबन्धककोटि में प्रवेश न किया जाय तब तो चैत्र के पास क्कागनुमिति की सामग्री होने पर भी मैत्रकर्ण विजातीनिमित्तपवनसंयोगावच्छिन्नककारसमवाय से घटित श्रावणसामग्री चैत्र की ककागनुमिति की प्रतिबन्धक हो जायेगी। अतः उस तरह आग अधिक विचार किया जाय तर तो नैयायिक के सर पर ही गौग्वशिला का प्रहार हाना है।
विजातीयतायुयोग का कार्यपदक प्राप(६ - मीमांसक अथ तथा. । यदि नैयायिक की ओर से पुनः मीमांसक के प्रति आक्षेप किया जाय कि - "मीमांसक मनानुसार विजातीय वायुसंयोग का कार्यतावजंदक स्वाश्रयलौकिकनिपयिता सम्बन्ध में कत्व, खुत्व, गत्व, शब्दव आदि हो ना तो कोलाहल में गकार आदि का गन्वादिरूप से श्रारण प्रत्यक्ष न हो कर गणत्वादि रूप में जो प्रत्यक्ष होता है, यह उपपत्र न हो सकेगा गर्व गकार का कवर्णभिन्नत्त्व, खचर्णभिन्नत्व आदि रूप से जो प्रत्यक्ष होता है, उसकी भी मंगति न हा मंकगी.
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* कोलाहलस्थीयश्रावणभामांसा * तहि श्रावणत्वावच्छिमं प्रत्येवोपदर्शितसम्बन्धेन हेतुताऽस्तु । तुदोषाभावानां हेतुतापेक्षया विजातीयवायुसंयोगस्य धग हेतुत्वमप्युचितमित्याहः ।
-* जयाता - विहाय कत्व-रक्त्वादरच स्वाश्रयविपितया कार्यनाबच्छेदकत्वमामाभिः कल्पनीयम् । ततः गुणत्व-कवर्णभेदादिशकारक-गकार प्रत्यक्षं न क्लसविजातीयवायसंयंगादत्पत्तमहनि, तत्कार्यतावच्छेदकविरहात । ततश्च स्वाश्रयलौकिकविषयितया गाव-ककार. भेदैदन्त्वादीनां क्लृप्तविजातीयवायसंयोगाऽपल्या नानाविजातीयवायु- संयांगकार्यनाचन्दकत्वं कल्पनीयम् । तादृशकार्यतावच्छेदक. धर्मानन्त्यात्कार्थकारणगावामनन्त्यं, कार्यतावच्छेदकमद कारणताभेदात् । नयाचिकमते तु नंतदवकादशः समकायेन कत्वादरव नत्कार्यतावच्छेदकलादिति चेत ? तर्हि समवायन श्रावणत्वावच्छिन्नं प्रति गव उपदर्शितसम्बन्धेन = रवावच्छेदककार्गसंयुक्तमन:प्रतियोगिकविजानीयसंग गसम्बन्धन विजातीयपवनसंयोगस्य हतताऽस्तु । विषयनिष्ठप्रत्यासच्या कार्यकारणभावकल्पने प्रदर्शित. गौरवात आत्मनिरप्रत्यायेव म कल्प्यते । चिजातीपपवनसंयोगकार्यतावच्छेदकं च समवायन श्रावणत्वमेव न नु स्वाश्रयविषयितया कत्वादिकम् । तनय गुणत्न-ककारादिदेवन्त्व-पदार्धत्वादिप्रकारक-गकारादिविष्यकथायणप्रत्यक्षानुरोधेनन नानाकारणताकल्पनं. श्रावणत्वनैन रिजातीयवायसंयोगकानावछंदकेन तदनुगमात् । इत्यश्च नानन्तहत्ताकल्पनागारच मीमांसकानाम् ।
अथ स्वाक्षयली किकवियितया कत्वाद: विजातीयवायसंयोगकार्यतावचोदकत्व कोलाहलादकत्वाटरग्रह-पादनवाब्दत्वा. दिना ककारादिप्रत्यक्षात तत्तत्यकारक-ककारादिप्रत्यक्ष प्रथा चेतुन गौरवम् , गकार दिनिष्ठगुणत्वादि- ककारभदादिश्रावण नथात् चातिगौरवमित्याक्षेप कचित्तू मीमांसका: कोलाहले कत्वादिश्रावणवारगाय दोपाभावानां कत्वादिप्रत्यक्षे हेतुत्तापक्षया = हेतुत्वकल्पना पक्षया निरुक्तसम्बन्धन विजातीयवायुसंयोगस्य = बिजानीयानिमित्नपवनमंदागम्य, स्वाथरलीकिकवियितया कव-सत्व-गत्व-गुणत्व-शाब्दत्व-ककारगंददन्वाद्यवच्छिन्न प्रति प्रथग्यतत्वमपि = स्वतन्त्रकारणत्वकल्पनमपि कल्पयितुं उचित, निमिनपवनाकाशाद: समवायन शब्दत्वस्य जन्यतावदकत्यापेक्षया काठाभिप्रातस्य निमित्नपचनापक्षीणतात. तस्यैवीक्तसम्बन्धन शब्दत्यस्य जन्यतावच्छेदकत्वावित्यात, तानेर कोलाहलप्रत्यक्षग्य सुघटत्वात् । न चैवमुदायमाणयावतणविषयला नियम तत्कनकोलाहलतारतम्यप्रत्यगानपतिरिति वाच्यम, मञ्जकतारतम्यस्यैव नवारांपाद ।
क्योंकि गुणत्व, ककारभेद, खवर्णमित्रत्व आदि विजातीयवायुसंयोग का कार्यतावच्छंदक नहीं है । यदि गुणवादिप्रकारक-गकागदिविशंप्यक, कारभेद आदिप्रकारक गकारादिविशेयक श्रावण प्रत्यक्ष आदि के प्रति भित्र भित्र विजातीय वायुसंयोग को स्वतन्त्र कारण माना जाय तब गुणन्यादिप्रकारक प्रत्यक्ष की संगति होने पर भी कार्यकारणभाव में महागौरव दोप तो जरूर प्रसक्त होगा । दादानित्पत्वपक्ष में यह दोप प्रसक्न नहीं है, क्योंकि विजातीय वायुसयोग से गकार आदि की उत्पनि गत्यादि रूप में ही होती है, न कि गुणव, कभित्रवादि उपर्युक्त सभी रूपों से, जिन रूपां से उसका प्रत्यक्ष होता है । अतः गत्वादि को ही विजानीय वायुयोग का जन्यतावनोदक मानने से नैयायिकमत में गौरव दोष नामुमकिन है - नो यह इसलिये निराधार है कि उक्त गौरव के निराकरणार्थ हम मीमांसक यह कह सकते हैं कि समवायसम्बन्ध मे धावणत्वावच्छिन्न ( = कार्य) के प्रति स्वावच्छंदक-कर्णसंयुक्तमन:प्रतियोगिक चिजातीयसंयोग सम्बन्ध से, जिसका विवेचन पहले किया जा चुका है, बिनातीय वायुसयोग को ही कारण माना जा सकता है । कन्व, खन्ध, गत्व या गुणन्य, उदन्व, सन्दत्य, ककारभेद, खभिन्नत्व आदि को कार्यतावच्छेदक मानने की कोई आवश्यकता इस कार्य-कारणभाव में नहीं होने से गौरव टोप का अवकाश नहीं है । गकार का थावण प्रत्यक्ष चाहे गत्त्वरूप से हो, या गुणत्वादिरूप से हो या ककारभेदादिरूप से हो . इसके साथ विजातीय वायुसंयोग को कुछ मतलब नहीं है, क्योंकि वे इसके कार्यताअवधादक नहीं हैं । उसका कार्यनाभवछंदक तो है समवाय सम्बन्ध से श्रावणत्य, जो कि गत्वप्रकारक गुणत्वादिप्रकारक एवं ककारभेदादिप्रकारक गकारादिविशेप्यक श्रावण प्रत्यक्ष में रहना ही है । अतः मीमांसक मत में गौरव का अवकाश नहीं है। गौरव तो विजातीयवासंयोग के कार्यताअवच्छेदकविधा समवाय से कत्व, खन्च, गत्ल आदि को माननेवाले नैयायिकों के मत में ही प्रसक्न होगा, क्योंकि उनके मनमें अनेक कार्यतावच्छेदक धर्म होने मे नानाविध कार्यकारणभाव का स्वीकार करना आवश्यक बन जाता है।
जातीयवायु,संयोग स्वतन्त्र कारण है . मीमांसकदेशीय कांचन. । कोलाहलादि के काल में गव आदि का ज्ञान न होने पर भी शब्दत्व, इदन्च आदि रूप में रकारविशंप्यक प्रत्यक्ष की उपपनि के लिए तथा गकारआदि का गुणत्वादि और ककारभेद आदि रूप में श्रावण प्रत्यक्ष के उपपादनार्थ कुछ मीमांसकों का यह कथन है कि कोलाहल में गवादि रूप से गकागदि के प्रत्यक्ष की आपत्ति के वारणार्थ गत्वादिप्रकारक..
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मध्यमस्वाज्ञादरहस्ये खण्ड: 3 का. १५
श्रावणसमवाय- श्रावणविशेषणतादिना गुणत्व-ककारभेदादिग्रह इत्यप्याहु: ।
नयलता है
ननु कोलाहले व्यञ्जकतारतम्या कल्पना न युक्ता, साक्षात्सम्बन्धापेक्षा परम्परासम्बन्धकल्पने गररवात् भ्रान्ती मानाभावादिति चेत् ? तर्हि अस्तु स्वाश्रयविपतिया कत्वादिकं विजातीयवायुसंयोगकार्यतावच्छेदकम, तथापि अनन्तशब्दात्पत्तिनाश-तत्प्रागभावादिकल्पनाती लाघवम् । यत्रा स्वनिरूपितलौकिकविषयितया ककाराचंद विजातीयनिमित्तपवनकार्यतावच्छेदकमस्तु क्षेत्रीय मंत्री शुकीयककारार्धक्याद व्यञ्जकवैचित्र्यादेव तत्तत्ककारादिवैलक्षण्यतीत्युपपत्तेः कोलाहले यावदुवर्णभानं भवत्येव, अन्यथा तत्तारतम्यप्रत्ययानुपपत्तेः किन्तु कत्वादिश्रावणसामग्रीविरहादेव न कत्यादिप्रकारकप्रत्ययस्तदानीं जायते । न चै कोलाहले कत्वादिवत गुणत्व ककारभेदादिग्रहोऽपि न स्यादिति वाच्यम्, श्रावणसमवाय श्रावणविशेषणतादिना गुणत्वककारभेदादिग्रह इत्यस्य सुतात् । स्वनिष्ठापितानिपितली किकविषयतासम्बन्धेन गुणत्वग्रहं प्रति प्रतियोगितासम्बन्ध श्रावणप्रत्यक्षविपयीभूतशब्दानुपातिकसमवायस्य कारणत्वमित्यभ्युपगमेन मकारादिनिष्ठगुणत्वमानोपपत्तिः तथा स्वनिरूपितलौकिकपियतासम्बन्धेन कारभेद - खकार भेदकत्वात्यन्ताभाव खत्वात्यन्ताभावादिप्रत्यक्षं प्रति श्रवणसाक्षात्कार विपर्या भूतगकारादिविशेषणतयाः हेतुमित्यङ्गीकारेण गकारादिवृत्तिककार भेदादिश्रावणसङ्गतिः । एतेन दत्वादिना कोलाहले ककारादिश्रम समर्थितं क्रमशः प्रोक्तकारणद्वयेन तदुतानसम्भवात् इत्यपि अन्य मीमांसका आहुः ।
इतरे मीमांसकास्तु एवा कार हत्याकारकप्रत्यभिज्ञया गकारादेस्तावत्कालमवस्थानस्य विषयीकृतत्वेनान्तराभृतशब्दादिनाऽनाशेन नाशकाभावाद्वनित्यत्वतिभिः । न च प्रत्यभिज्ञा तज्जातीयत्वविषयिणी, बाधकाभावात्. अन्यथा सर्वत्रापि तथाभाव मंदीच्छेदापत्तिः न च तारत्व- मन्दत्वरूपविरुद्धधर्माध्यासो वाधकः प्रत्यभिज्ञानबलेन तस्य नित्यत्वसिद्धी दिव्यायुधगंत्वस्य कल्पनात् श्री वासुधर्मस्य तारत्वादेरपि ग्रहणसम्भवात् स एवं तार स एवान्यापेक्षया मन्द' इतिप्रतीतः तारतमन्द्रत्वयोरविरोधादिति वदन्ति ।
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*** शावर भाष्यसंवाद
एके तु - 'सोऽयं ग' इत्यादिप्रत्यभिज्ञाचलाद्वर्णानां नित्यत्वम् । न चैवं सति उत्पन्नो गो विनष्टांग इत्यादितानेसनिरिति शङ्कनीयम् गादिव्यञ्जकवाय्वादिसंयोगविभागलक्षणनादगतो यादविनाशशविषयकत्वस्वीकारात् । 'वायवीयाः संयोगविभागाः शब्दमभिव्यञ्जयन्तो नादशब्दवाच्या (शर. भर. पू. १०१ ) इति शावरभाप्यकारः । तारत्वमन्द्रत्वादेः वायुधर्मत्वमेव, अन्यथाऽनन्तवर्ण. तत्यागभाव-ध्वंस-तत्कार्यकारणभावकल्पनापत्या महागौरवात् । न चैवं तयोः श्रीग्राद्यत्वानुपपतिरिति वक्तव्यम् व्याशुकनिष्ठगुणानां मध्यं रूपमात्रस्य॒ चक्षु॑र्ग्राह्यत्वद्धर्माणां मध्ये तारत्वादिमात्रस्याज्जायत्या तद्ग्रायत्वकल्पने क्षतिविरहादिति व्याचक्षते ।
कश्चित्तु 'उतम्भ की विनष्टीक इत्यादिप्रतीतः सोज्यं का उत्पादिप्रत्यभिज्ञायश्व प्रामाण्योपपादनामीत्यादसकारादिविशेष्यक श्रावणप्रत्यक्ष के प्रति अनेकविध दोषाभावों को कारण मानने की अपेक्षा स्वाश्रयलोकिकविपवितासम्बन्ध में कत्व, सत्व, गव, गुणत्व शन्य, ककारभेद, खकारभेद आदि को ही विजातीय वायुसंयोग का कार्यता अवच्छेदक मानना अर्थात् भित्र भित्र विजातीय वायुसंयोगों को ही स्वतन्त्ररूप से गत्वप्रकारक गुणत्वादिप्रकारक, ककारभेदादिप्रकारक गकारादिविशेष्यक प्रत्यक्षों का कारण मानना भी मुनासिब ही है ।
* श्रावणसमवायआदि गुणत्वादिप्रत्यक्ष में कारण मीमांसकविशेष
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श्रावणम् । अन्य मीमांसकों का यह कथन है कि कोलाहल के समय सुने जाते वर्णों में कल्ब, ख़त्व, गत्व आदि का प्रत्यक्ष दोपविशेष के कारण नहीं होता है मगर फिर भी तब गुणत्व, ककारभेद आदि का नो गकारादि में भान हो सकता ही है, क्योंकि स्वनिरूपितळी किविपयतासम्बन्ध से गुणत्व - शब्दत्व आदि प्रकारक धावणप्रत्यक्ष के प्रति प्रतियोगिता सम्बन्ध में श्रावणसमवाय अर्थात् श्रवणप्रत्यक्षविषयीभूतान्दानुषंगिक समवाय कारण है । जिस किसी पुरुष को गकारादि का बोलाहल में शब्दत्व-गुणत्वरूप से भान होता है वह स्वनिरूपितली किकविपयतासम्बन्ध से शब्दत्व, गुणत्वादि में रहता है और कार आदि समवाय के गुणत्व, शब्दत्व आदि प्रतियोगी होने की वजह कार आदिअनुयोगिक समवाय भी प्रतियोगितासम्बन्ध
वहीं रहना है। इस तरह गकारादि में जिस पुरुष को ककारभेद आदि का श्रावण प्रत्यक्ष होता है उसके उपपादनार्थ यह कहा जा सकता है कि स्वनिरूपित लौकिक विपयता सम्बन्ध से ककारभेद - कन्वात्यन्ताभाव आदि से विशिष्ट प्रत्यक्ष के प्रति श्रावणविशेषणता कारण है । ककारभेदआदिप्रकारक श्रावणप्रत्यक्ष स्वनिरूपितलौकिकत्रिपयतासम्बन्ध से ककारभेद आदि में रहना है और वहीं श्रवणप्रत्यक्षविषयीभूतगकारादिविशेषणता भी रहती ही है, क्योंकि ककारभेद आदि गकारादिविशेषण होता है ।
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* स्फोटाचारः * अत्र सारिकानुयाटियतः → शब्दस्य व्यङ्ग्यत्वे श्रावणजनकतावच्छेदिका जाति: पवनसंयोग इवात्ममनोयोगे श्रोत्रमनोयोगादी वा विनिममनाविरहेण कल्पनीया स्यात् । किश्चैवं घटादेरपि व्यग्यत्वसम्भवेन सत्कार्यवादापत्या साइख्यमतप्रवेशः ।
-* जयलता - बिनराशशालिप्रतीते: कादिविषयकत्वं प्रत्यभिज्ञायाश्च ककाराद्यमियज्यमानस्फोटो विषय | स्फुट्यने ज्ञाप्यतेऽर्थी नननि व्युतान्या अर्थस्मारको नित्यः शन्दविशेषः । पदस्फोट-वाक्यस्फोटभेदात् द्विविधः स्फोटः । 'पदज्ञाप्यस्फोटः 'पदस्फोटः, वाक्पज्ञाप्यस्फोटी हि वाक्यस्फोटः । वृत्त्या अर्धस्मारकत्वं स्फोटस्यैव 'पदवाक्ययोः स्फोटज्ञापकत्वात्परम्परथा अर्थस्मारकत्वमित्याह ।
___ अपरे तु 'सोऽयं' इत्यादिप्रत्यभिज्ञावलान् वनांनां नित्यत्वं 'उत्पन्नः ककारो बिनष्टः ककार:' इत्यादिपताते: ककारादिव्यञ्जकध्वनिविषयकत्वं, ध्वनरव श्रोत्रग्राह्यलान, उत्पादविनाशशालित्वाच्चति प्रतिपादयन्ति ।
सर्वथानित्यता शब्दस्थले इत्थं प्रचक्षते । सर्वे मीमांसकास्तन्नेत्याहुनैयायिका. खलु ||१||
अत्र = मदनित्यत्वा नित्यत्ववेप्रतिपत्तिस्थले नैयायिकान्यायिनः = प्राची नैयायिका: बदन्ति - दाब्दस्य व्यायव = निमिनविशेषजन्यज्ञानविण्यत्वे सनि निमिनविशेषजन्योत्पादाप्रतियोगित्वे वाक्रियमाणे श्रावणजनकतावच्छेटिका = लोकिकश्रावणप्रत्यक्षनिष्ठकार्यतानिरूपितकरणतावच्छेदिका जाति: मीमांसकाभिमत पवनसंयोगे = विजाायनिमित्तवायुसंग डब आत्ममनोयोगे - विजानीयात्मन:संयोगे श्रोत्रमनोयोगादौ वा = कर्णमन:संयोगादी वा, आदिपदेन विजानीयशब्दोत्र. संयोगकालदिगादिग्रहणं, विनिगमनाविरहेण कल्पनीया स्यात, शब्दज्ञाननिमिनकारणतायाः त सर्वत्रा:विशेषात । संयंत्रा:- विशेषेण तत्कल्पने महागौरवं, अन्यथा त्वर्धजरतीयप्रसङ्ग इत्युभयनः पाझारज्जुः ।
किञ्च, एवं = स्वाश्रय किरविषविराम कात्वाद: यातायपचनसंमोगादिकार्यतावच्छेदकत्वं, उत्पादकमामग्रया व्यञ्जकत्वस्वीकार इति यावत् । घटादेर पे ज्यङ्ग्यत्वसम्भवन घटायुत्पादकररामग्रया अपि तुल्ययुक्त्या व्यकत्वम्म्भवन पदार्थमावग्य नित्यवसिद्भा सत्कार्यवादापत्त्या - कारणनिष्ठात्यन्नाभावाप्रतियोगिविषयकशानजनकत्वलक्षणसत्कार्यवादप्रसङ्गेन सांख्यमतप्रवेशः मीमांसकानां दुर्वारः । अतिसुक्ष्मंश्किया ग्राहकविश्रामे च गतं घटादिना बाझ्यतयेच, ततो योगाचारमनप्रबंशापातः |
अनः ककारभप्रकारक-गकारविशेष्यक, कवात्यन्ताभावप्रकारक-गकारविदोप्यक श्रावण प्रत्यक्ष की उपपनि भी हो सकती है।
प्रिय वाचकवर्ग ! हम भली भाँति समझ सकते हैं कि भिन्न भिन्न मीमांमक मनीपी अलग अलग पहलू से गन्द्र में नित्यत्व-व्यङ्ग्यत्व का ही समर्थन करते हैं । पद्धति चाहे विचित्र-चिभित्र हो, उसका लक्ष्य एक ही है . शन्दनियन्वसमर्थन। शन में नित्यत्व का स्थापन करने में मीमांसक अच्छी तरह सफल रहे हैं। अब भीमारक्रमन के खिलाफ नैयायिकवक्तव्य को गौर से सुनियेगा।
EASE राज्य है - यायिक अब नं. इनि । नयायिक मनापियों का वक्तव्य यह है कि यदि शब्द को जन्य न मान कर व्यङ्ग्य माना जाय अर्थात् नित्य शब्द की निमित्त विशेष से अभिव्यक्ति = श्रारण प्रत्यक्ष होने का स्वीकार किया जाय तब तो शब्दगोचर आरण प्रत्यक्ष का निमित्त कारण विजातीय पवनसंयोग को मानना या बिजातीय आत्ममनोयोग को मानना या विजातीय श्रोत्रमनायांग को मानना ? इसमें कोई नियमक = विनिगमक नहीं होने से श्रावणजनकताअवच्छंटक जानि की विजातीय वायुसंयोग की भाँति विजातीय आन्ममनोयोग एवं विजातीय श्रोत्रमनःसंयोग में भी कल्पना करनी होगी, जिसके स्वीकार में महा गौरव दोप मीमांसक के सर पर आयेगा।।
म मीमांसा को सांस्यमतप्रवेशापति कि. । इसके अतिरिक्त यह भी दोप आ सकता है कि यदि मन को नित्य मान कर निमित्त विशेष सं उसकी अभिव्यक्ति को मान्यता दी जाय नब तो घट आदि सभी पदार्थों को भी नित्य मान कर कुलाल, दण्ड आदि से उनकी मी अभिव्यक्ति = बुद्धि होती है, न कि उत्पत्ति - यह भी निर्विवादरूप से माना जा सकता है, क्योंकि आलेप और परिहार दोनों मत में समान ही रहेंगे। मगर ऐसा मानने पर भीमसिक महादाय का सारख्य मन में प्रवेश हो जायगा, क्योंकि वान की भाँति घट, पट आदि सर पदार्थ नित्य सत् = कारण में विद्यमान होते हुए कारणविटोप से केवल ज्ञात होते हैं .
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७५२ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्ड ३ . का.११
* वाणायां दादः' इतिप्रनीतिविचार:*
'घटसाधनतादिज्ञानेन दण्डादौ प्रवृत्तेर्घटादिव्यज्यत्ववादो ज युक्त' इति चेत् ? तर्हि ॥ शब्दसाधनताज्ञानेन कण्ठताल्वाद्यशिघातादी प्रवृत्तेः शब्दव्यङ्ग्यत्ववादोऽपि किं न तथेति एकं सीव्यतोऽपरणच्युतिः । एतच 'शब्द उत्पा' इत्यादिप्रतीतो शब्दपदं शब्दाभिव्यक्तिपरमित्यापास्तग, 'वीणापो शब्द' इत्यादिशातीदोस्तथा ग्रामयितुमशक्यत्वात् ।
- जयला *ननु घटसाधनतादिज्ञाने = घटत्वावच्छिन्नकारणताज्ञानेन दण्डादी प्रवृत्तेः दण्डादिकार्यतायचंदकं समवायन घटत्वमेव न तु घटप्रत्यक्षमिति घटादिव्यङ्ग्यत्ववादो न युक्तः इति चेत् ? तर्हि तुल्ययुक्त्या शब्दसाधननाशानन = शब्दत्वच्छिन्न कार्यतानिरूपितकारणताज्ञानेन कण्ठताल्वायभिधातादी प्रवृत्तः तत्कार्यतावनडेदकमपि सनमायेन शब्दत्वमेव न तु शब्दप्रत्यक्षत्वादिकं इति शब्दव्यङ्ग्यलवादोऽपि किं न तथा ? नितरामयुक्त इत्यर्थः इति = हेनो: एकं सीव्यतः = वटादिव्यङग्यत्वापनिमपसारवतः अपरप्रच्युतिः = शब्दव्यङ्ग्यत्वव्यानि समागता ।।
एवन = शन्दव्यङ्ग्यत्वशंद सत्कार्यबादापातेन तनिराकरण शन्दव्यङ्ग्यत्वहानश्च, अपास्तमित्यननास्पान्ययः । 'शन उत्पन्न' इत्यादिप्रतीती शब्दपदं शब्दाभिव्यक्तिपरं = शब्दपदरम्य शब्दप्रत्यक्षे रक्षणंत्यदगीकारान 'शब्दसाक्षात्कार उत्पन्न' इत्यर्धकत्वस्वीकारान्न शब्दनित्यत्वव्याहनिरिलि मामांसकाकूतमपि अपास्तम्, तुल्ययुक्त्या 'घट उत्पन्न' इत्यादिप्रनीती घटापदं घटाभिव्यक्तिपरमित्यागीकारेण घटापदस्य घरमाक्षात्कार लक्षणया 'घटसाक्षात्कारः स्वाधिकरणक्षणसानधिकरणक्षणसम्बन्धप्रतियोगी' इत्पर्धकत्वस्वीकारेण घटादेगणि नित्यत्वं सुवचं स्यात् ।
___ अस्तु वा शब्दपदस्य शब्दाभिन्यक्ती लक्षगा तथापि 'वीणायां शब्द उत्पन्न इत्यादिप्रतीतः उपपादयितुमशक्यत्वान् । न हि वीणानि शब्दप्रत्यक्ष आद्यक्षणमाम्बन्धप्रतियोगि' इत्यर्धस्याबाधितत्वम, दादप्रत्यक्षस्यात्ममात्रवृनित्वात् । अनेन 'वीणायां शन्द उत्पन्न' इत्यस्य वीणावृत्ति: य: शब्दस्तलाक्षात्कार आरक्षणसम्बन्धात्मकोत्पत्तिानियोगी' इत्यर्थकत्वकल्पनापि परास्ता, मीमांसकमने-गि शब्दस्याकाशवृनित्वात् वायुवृनित्वाद्वा । अत एव स्वगीचरसाक्षात्कारजनकल्लसम्बन्धन शब्दरण वीणावृनित्वकल्पनाऽपि प्रत्याख्याता, दादपदस्प साझाइनत्वेन शब्दप्रत्यक्षपरकत्वानुपपनश्च, अन्यथा 'कपाले घट उत्पन्न
यही सारख्यों के मत्कार्यबाट का तात्पर्य है, जिसका प्रतिपादन एवं खण्डन हम नैयायिका ने पहले ही कर दिया है दिग्विये प्रथम खण्ड पृ.११५/१२६)। यहाँ बचाव के लिए मीमांसक की ओर से यह कहा जाय कि -> 'सांख्य का सत्कार्यबाट यानी घटादिम्पपयत्ववाद अयुक्त है. स्याकि लोगों की दण्डादि में घटसाधननादिप्रकारक ज्ञान से प्रवृत्ति होती है, न कि घटज्ञानसाधनतादिप्रकारक ज्ञान से 1 दण्डादि में घटसाधननादि का ज्ञान यही बताता है कि घटादि दण्डादि से जन्य है, न कि घटज्ञानादि' -तो यह कथन मीमांसक मन में भी समान रीति से लागू होगा कि लोगों की कनतालुअभियात आदि में शन्नसाधननादिप्रकारक ज्ञान में प्रवृत्ति होती है, न कि शब्दज्ञानसाधनतादिप्रकारक ज्ञान से । कण्ठतालुअभिघात आदि में झन्दसाधननादि का ज्ञान यही सिद्ध करता है कि ककार, गकार आदि शन्द कण्डतालुअभिघातादि में जन्य है, न कि ककारादिशब्दज्ञान । अन: शन्दव्यङ्ग्यत्वाद भी घटादिज्यङ्ग्यत्ववाद की भाँति अप्रामाणिक हो जायेगा। अत: पटादिन्यङ्ग्यात्ववादापति = सत्कार्यवादप्रसङ्ग दूर करने का प्रयत्न करने पर वन्दव्यङ्ग्यत्ववाद भी टूट पड़ेगा। यह मीमांसकमन में दुमग टोप है। इसलिये मीमांसक का यह कथन कि -> "सब लोगों को जो प्रनीति होती है कि 'शन उत्पन्न हुआ' उनमें शनपद शन्दाभिव्यक्तिपरक होता है यानो वादपद की शन्दज्ञान में रक्षणा होती है, जिससे उपर्युक्त वाक्य का अर्थ यह प्राप्त होगा कि 'शन्टज्ञान उत्पन्न हुआ' । अतः शब्द में नित्यत्व या व्यङ्ग्यत्व मानने में कोई दोष नहीं है" - भी निरस्त हो जाता है, क्योंकि तुल्य युक्ति से यह कहा जा सकता है कि , 'घट उत्पन्नः' इत्यादि प्रतीति में भी घटपन घटाभिव्यक्तिपरक होना है अर्थात् घटपद की घटज्ञान में लक्षणा होती है, जिससे उपर्युक्त प्रतीति का अर्थ होगा 'घटज्ञान उत्पन्न हुआ है। नब तो बटादि के व्यङ्ग्यत्व सिद्ध होने की वजह पुनः सत्कार्यबाद की आपत्ति आयेगी और उसको हटाने की लिए जो युक्ति मीमांसक की ओर से पेश की जायगी उसीसे शब्दव्यङ्ग्यत्वबाद भी धराशायी हो जायगा । इसके अतिरिक्त मीमांसकमत में यह दोप अधिक है कि शब्दपद की शन्दाभिव्यक्ति अर्थ में लक्षणा करने पर 'वीणायां शन्द इत्पन्नः' इस प्रतीति की उपपनि कथमपि न हो सकेगी, क्योंकि शब्दाभिव्यक्ति अर्थ में शब्द की लक्षणा मानने पर 'वीणा में वान्दज्ञान उत्पन्न हुआ यह अर्थ प्राप्त होगा, जो बाधित है । ज्ञान तो आत्मा में रहना है, न कि चीणा आदि में 1 अत: 'शब्द उत्पन्नः' इस प्रतीति की संगति करने पर 'वीणायां शब्द उत्पनः' यह प्रतीति अनुपात्र बन जायेगी । 'इतो व्याघ्र इतस्तटी' । इसन्दिप मानना
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शब्दस्थलेऽभिनवमीमांस
स चायं क्षणिकः । क्षणिकत्वञ्च तृतीयक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगित्वम् । अतो नापसिद्धान्तः । अत्र शिरोमणिनयानुयायिनः आद्यशब्दस्य कार्यशब्देन नाश:, अन्त्यशब्दस्य कारणॐ जयलता
इत्यत्राऽपि घटपदस्य घटाभिव्यक्ती लक्षणा साध्वी स्यात् । एतेन प्रत्यभिज्ञायाः तद्द्व्यक्त्यभेदविषयकत्वर्माणि निराकृतम्, तज्जातीया: भेदविषयकत्वंनाऽपि तदुपपत्तेः । न चानित्यत्वमतं प्रत्यभिज्ञायास्तज्जातीयत्वविषयकत्वं 'तज्जातीयांऽयं राकार: यं पूर्वमश्रीपम्' इत्याकारः स्यान्न तु 'सोऽयमि' त्याकार इति शङ्कनीयम्, यत्र प्रत्यभिज्ञायां जातित्वेन गत्वादेः भानं तत्रैव 'तज्जातीयो ऽयमित्याकार : यत्र तु स्वरूपतों भानं तत्र 'सोऽयमि त्याकार इत्यभ्युपगमात् । इत्थमेव 'सैवेयं दीपकलिका इत्यादिप्रत्यभिज्ञेोपपत्तेः । अनेन प्रत्यभिज्ञयर ज्ञात - ज्ञायमानशब्दव्यक्त्यैक्यमित्यपि पराकृतम, लुनपुनजतिकेशनखादिविव व्यक्त्यैक्यविषयकत्वे तस्या भ्रान्तत्वात् अन्यथा बाधितोत्पादविनाशप्रतीत्यनुपपत्तेः तार- मन्द-शुकसारिकाप्रभवादिशब्देन नानाविधष्वपि वर्णषु प्रत्यभिज्ञादर्शनात् तस्या भ्रमत्वावश्यकत्वाश्च । न चेष्टापतिरेव नारमन्दशुकसारिकाप्रभवान्देवय, तारत्वादेः दशब्दे आरोपादिति वाच्यम्, तस्य तारत्वादिधर्मवत्तयैव नित्यमनुभूयमानतया तत्र नारत्वायारोपायगान । तदृक्तं कुमारिलेनेव लोकवार्तिके यो ह्यसद्रूपसंवेद्यः संवधतान्यथा पुनः । स मिथ्या न तु तेनैव यो नित्यमवगम्यते (श्री.वा.प्र.सू. श्री. १०० (पू. १३१) इति शब्दाऽनित्यत्वमेव घटाकोटिमञ्चतीत्याह स चायं क्षणिक इति ।
इदन्तु बोध्यं शब्दो द्विविधः स्वन्यात्मको वर्णात्मकश्व । तत्र ध्वन्यात्मकाद्यशब्दो द्विविधः संयोगाऽसमवायिकारणको विभागासमवायिकारणकश्चेति । तत्राय: मेरीदण्डसंयोगादिनिमित्तको भर्याकावासंपांगाऽसमवायिकारणकः । अन्त्यस्तु बादलद्वयविभागनिमितको चंशदलाकाशविभागासमवायिकारणक एव विभागाऽसमवायिकारणकवर्णे मानाभावात् सवर्णात्मक शब्द कण्डताल्वादिना वाय्वादिसंयोगनिमित्तकः कण्ठताल्वादिना का शसंयोगासमवायिकारणकः । द्वितीयादिवर्गाः प्रथमादिवर्णाऽसमवायिकारणकाः । इदमपि भावकार्यमात्रस्य कारणत्रयजन्यत्वनियमागीकर्तुमनेन । निकृष्टमतं तु तादृशनियमे मानाभावात् शब्दमात्रस्याऽसमवायिकारणानभ्युपगमेऽपि न क्षतिः, मेरीदण्डसंयोगादिवंशदलद्वय विभागादिनिमित्तसहकृतेनाकाशेनैव ध्वनेः कण्ठताल्वादिना वाय्वादिसंयोगरूपनिमित्तकारणसहने नाकाशेनैव वर्णस्य चात्पत्तिसम्भवात् । एवं प्रथमादिशब्दानां स्वकार्यशब्देनैव नाशः योग्यविभुविशेषगुणानां स्वानरीत्पन्नस्वसमानाधिकरणविशेषगुणनादयत्वनियमात् । न चैवं सति चरमदान्द्रस्य नाशी न स्यात. नाशकतादृशशब्दविरहादिति वाच्यम् अन्त्यान्यशब्द एव ताद्शनियमाङ्गीकारात् अन्त्यशब्दस्य तु स्वयमेव कारणशन्दनाशेन वा नाश इत्युपगमात् । न चैवं सति तस्य द्वितीयक्षणं नाशापत्तिरिति वाच्यम्, इष्टत्वात । न चैवं सति बौद्ध मतप्रवेशापनिरिति वाच्यम्, तन्मते वस्तुमात्रस्य द्वितीयक्षणवृनिध्वंसप्रतियोगित्वेन चरमशब्दमात्रस्य तदङ्गीकारमात्रेण तादृशदोषासम्भवात्, अन्यथा हिंसारूपाभ्रमंस्य तदनुमतस्याऽस्माभिरपि स्वीकृतत्वेन सर्वेषामेव तन्मतप्रवेशापतिः । अचरमशब्दनिष्ठं क्षणिकत्वञ्च तृतीयक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगित्वम् । घटादिवृत्त तृतीयक्षणवृत्तीति । प्रथममुत्पद्यते द्वितीयक्षणे चोपतिष्ठतं तृतीयक्षणे च नश्यतीति तृतीयक्षणवृत्तिको यो ध्वंसः तत्प्रतियोगित्वमेव क्षणिकत्वम् । इत्थञ्च शब्दजनकशब्दस्य कार्यशब्देन शब्दजन्यशब्दस्य व कारणवन्दनाशेन नाश इति फलितमिति प्राची नैयायिकाः ।
अत्र = शब्दक्षणिकत्वनिरूपणस्थले, शिरोमणिनयानुयायिनः दीधितिकारघुनाथ शिरोमणिमतानुगनिनी नव्यनैयायिका: आहुरित्यनेनास्यान्वय: । आद्यशब्दस्य = वर्णव्वनिलक्षणद्विविधस्य शब्दाऽजन्यस्य शब्दस्य कार्यशब्देन = होगा कि शब्द अनित्य है क्षणिक है। अपनी सामग्री से शब्द उत्पन्न होता है और नष्ट होता है । यद्यपि नैयायिक मनीषी शब्द को क्षणिक मानते हैं फिर भी क्षणिकवादी बौद्ध के मत में प्रवेश होने की या अपसिद्धान्त की आपनि नैयायिक के सर पर नहीं आयेंगी, क्योंकि यह क्षणिकत्व क्षणमात्रवृतित्वस्वरूप नहीं है किन्तु तृतीयक्षणवृनिध्वंसप्रतियोगित्वस्वरूप है। मतलब कि शब्द की प्रथम क्षण में उत्पत्ति होती है, द्वितीय क्षण में स्थिति होती है और तृतीय क्षण में विपत्ति होती है। अतः तृतीय क्षण में होनेवाले विनाश की प्रतियोगिता शब्द में आयेगी । वही शब्दनिष्ठ क्षणिक है। बीद्धमत में तो प्रत्येक पदार्थ में द्वितीयक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगिता रहती है । अतः अपसिद्धान्त या बोद्धमनप्रवेश की आपत्ति को अवकाश नहीं है ।
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ॐ शब्द चारक्षणस्थायी रघुनाथतिखेर्माणि
अत्र शिंगं । रघुनाथशिरोमणि के मतानुयायिओं का यह कथन है कि "प्राचीन नैयायिकों ने शब्द को तृतीयक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगी माना है वह ठीक नहीं, क्योंकि उसकी उपपत्ति के लिये प्राचीन नैयायिकों को ऐसा भी मानना आवश्यक
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७२४ मध्यमस्वाद्वादरहस्ये खण्ड: ३ का. १५ * नानाविधशब्दनाशकताविचारः
शब्दनाशेन, मध्यमानां पुनरुभाभ्यामपीति सम्प्रदायमतमयुक्तम्, प्रतियोगितया नाशत्वावच्छिन्नं प्रति स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्धेन नाशत्वेनैवाऽन्यत्र क्लृप्तेन कार्यकारणभावेन सकलशब्दनाशनिर्वाहात् । तथा च शब्दस्योत्कर्षत: क्षणचतुष्टयावस्थायिविजातीयपवनसंयोगनाश्यत्वेन * जयलता कै
स्वजन्यशब्देन नाश:, अन्त्यशब्दस्य = शब्दजन्यत्वे सति शब्दाजनकस्य शब्दस्य कारणशब्दनाशेन = स्वजनकशब्दनाशेन स्वकार्यशब्दस्वजनकशब्दनाशाभ्यां अपि नाश, मध्यमानां = शब्दजन्यत्वे सति शब्दजनकानां शब्दानां पुनः उभाभ्यां | नाशः । प्रतियोगितया प्रथमशन्दनाशं प्रति स्वजनकत्वसम्बन्धेन कार्यशब्दस्य हेतुत्वं प्रतियोगितया चरमशदनाशं प्रति स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्धेन कारणाञ्चनाशस्य कारणत्वं तथा प्रतियोगितया मध्यमशदनाशं प्रति स्वजनकत्वसम्बन्धेन कार्यशब्दस्य स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्धेन च कारणशब्दनाशस्य निमित्तत्वमिति सम्प्रदायमतं प्राचीननैयायिकपरम्परामर्त अयुक्तम् नाना कार्यकारणभावकल्पने गौरवात्, आद्यशब्दमात्रस्य शब्दजनकत्वे मानाभावेन शब्दाऽजनप्रधमशदनाशानुपपतेः कत्वादिविशिष्टलौकिकप्रत्यक्षानुपपत्तेश्च । न हि प्रथमक्षणोत्पन्नः ककारः द्वितीयक्षणे क-कवनिर्विकल्पकज्ञानं जनयित्वा तृतीयक्षणं कर्त्याविशिष्टकका - गोचरव्ययसायात्मकलौकिकश्रावणोत्पातकालेऽवतिष्ठते । नागि विषयं विना तज्ज्ञानं भवितुमर्हति लौकिकसाक्षात्कार विषयस्य सहभावेन हेतुत्वात् अन्यथा भ्रमत्वापतेः । सम्प्रदायमतायुक्तत्वसाधकप्रदर्शितहेतूभयनस्य सुकरत्वात्तमुपेक्ष्य हेत्वन्तरमाहुः प्रतियोगितयेति । अयं भावः घटनाशः प्रतियोगितासम्बन्धेन घंटे वर्तते तत्र च स्वप्रतियोगिजन्यत्त्वसम्बन्धेन कपालद्रयविजातीयसंयोगनाश: तत्कारणमपि वर्तत एव । एवं प्रतियोगिता पन्ना पटेऽस्ति तत्र च स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्धेन तन्तुविजातीयसंयोगनाशोऽपि वर्तते । तती निरुक्तसम्बन्धन कपालद्वयविजातीयसंयोगनाशत्वावच्छिन्नस्य प्रतियोगितया बदनाशत्वावच्छिन्नं प्रति कारणता, विजातीयतन्तु संयोगनाशलावच्छिन्नस्य पढनाशत्वावच्छिन्नं प्रति हेतुनेति लम्पते । यविशेषयोः कार्यकारणभाव: स तत्सामान्ययारपि असति बाधके इतिन्यायेन प्रतियोगितया नाशत्वावच्छिन्नं प्रति स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्धेन नाशत्वावच्छिन्नस्य घटना पटनाशादिस्थले क्लृप्तेन कारणत्वमवश्यक्ळुानम् | अन्यत्र = प्रमाणसिद्धेन निरुक्तेन कार्यकारणभावेन एव सकलशब्दनाशनिर्वाहसम्भवात् प्रथमादिशन्दनाशस्थलीयनानाकार्यकारण भावाङ्गीकर्तुसम्प्रदायमतमयुक्तम् । न च प्रथमशब्दनाशस्य अनुपपत्तिरिति वाच्यम्, विजातीयनिमित्तपवनसंयोगनाशादेव तन्नाशसम्भवात् ।
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तथा च = निरुक्तकार्यकारणभावसमर्धनेन च शब्दस्य उत्सर्गतः क्षणचतुष्टयावस्थानिविजातीयपवन संयोगनाश्यत्वेन होता है कि आय शब्द का नाश कार्यशब्द से होता है अर्थात् आयशब्दनाश के प्रति आयशब्दजन्य शब्द कारण होता है। मगर अंत्य शब्द का नाश अन्यशब्दजनक शब्द के नाश से होगा, क्योंकि अन्त्यशब्दजन्य कोई शब्द नहीं होने से स्वजन्यशब्द से चरमशब्दनाश नहीं हो सकता है। प्रथम और चरमशब्द के बीच जो मध्यम शब्द हैं, उनका नाश स्वजनकशब्दनाश एवं स्वजन्यशब्द - दोनों से भी होगा। इस तरह शब्दनाश के निर्वाहार्थ प्राचीन नैयायिक के मत में अनेक कार्यकारणभाव का गौरव होता है। इसकी अपेक्षा तो मुनासिब यही है कि प्रतियोगितासम्बन्ध से नाश के प्रति स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्ध मे नाशवेन नाश को ही कारण माना जाय, मां अन्यत्र घटनाश, पटनाश आदि स्थलों में आवश्यक है । आशय यह है कि प्रतियोगितासम्बन्ध से नाशत्वेन घटना घट में रहता है और घट कपालद्रयविजातीयसंयोगजन्य होने से नाशत्वेन कपालद्रयविजातीयसंयोगनाश स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्ध से धद में ही रहेगा । इस तरह घटनाश आदि स्थल में प्रतियोगितासम्बन्ध से नाश के प्रति स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्ध से नाशत्वेन नाश कारण होता है ऐसा कार्यकारणभाव निश्चित ही है और उसी शब्दनाश का भी निर्वाह हो जाता है, अतिरिक्त कार्यकारणभाव की कल्पना का गौरव अनावश्यक है । जैसे स्वशब्द का अर्थ होगा विजातीयपचनसंयोगनाश तथा उसका प्रतियोगी होगा विजातीय-पवनसंयोग, उसकी जन्यता होगी शब्द में अतः स्वप्रतियोगिजन्यतासम्बन्ध से विजातीयवायुसंयोगनाश भी नाश्य शब्द में रहेगा, और उसीमें प्रतियोगिता सम्बन्ध से शब्दनाश रहेगा, क्योंकि शब्दनाश का प्रतियोगी शब्द है । अतएव शब्दजनक शब्द का कार्यशब्द से चरमशब्द का स्वजनकशब्दध्वंस से एवं मध्यम शब्दों का स्वजन्य शब्द से और स्वजनकशब्दनाश से नाश नहीं होता किन्तु (विजातीयवायुसंयोग = 1 जनक के नाश से ही नाश होता है । प्रदर्शित कार्यकारणभाव के अनुसार शब्द का नाश शब्द के प्रथम क्षण में उत्पन्न होगा अधांत चार क्षण तक शब्द की स्थिति रहेगी, क्योंकि शब्दजनक विजातीयवायुसंयोग उत्सर्ग में चार क्षण स्थायी होता है। इस मान्यता में उक्त विजातीयपवनसंयोगनाश से शब्द के पास क्षण में शब्द का नाश होने का क्रम यह है कि उक्त संयोग के इससे क्षण में शब्द उत्पन्न होगा और उसी क्षण में उक्त संयोग के उत्पादक पवनकम का नाश होगा। संयोग के तृतीय क्षण
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परिष्कृतगिकन्यनिरुक्ति: * क्षणचतुष्टयावस्थायितेवोपपत्तिमती । न चैवं क्षणिकत्वसिन्दान्तहानिः, अपेक्षाबुन्दिसहाय || तृतीयक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगिवृत्तिविभाजकोपाधिमत्वस्य तत्वादियाहुः ।।
- अयलता है क्षणचतुष्टयावस्थायित्वोपपत्तिमतीति : उत्सर्गतो बिजातीयपवनसंयोगस्य क्षण चतुष्टयावस्थायितया शब्दोत्पनिचतुर्धक्षणे निमिन| पवनसंयोगनाशात् पञ्चमक्षणे शब्दनाश इति शब्दस्य चतु:श्रणस्थायित्वमित्यर्थः । अयमभिप्राय: प्रतियोगितया शब्दमाशं प्रति स्वप्रतियोगिजन्यतासम्बन्धन विजातीयनिमिसपचनसंयोगनाशस्य कारगल्वम । कारणतावच्छेदकं कार्यतावच्छेदकञ्च नाशवमन लाघ्रयात, तु विजातीयपत्र-सयोगनाशवं शनात वा, गौरवात् । प्रधमक्षणे विजातीवनिमित्तपवनसंयंग उत्पद्यत. द्वितीयक्षणे शब्दोत्यादः विजातीयपवनसंयोगजनकपवनकर्मनादाश्च, तृतीयक्षण नूतनपवनकरियत्तिः, चतुर्थक्षण पूर्वदेशपवनविभागो जायते, पञ्चमक्षण पूर्वविजातीयपवनसंयोगनाशः पटक्षणं च शब्दनाश: । इत्थञ्च शब्दम्य क्षणचतुष्कस्थितिसिद्धिः प्रतियोगित्तया शब्दनाश: शब्द जायते तत्र च शब्दजनकविजातीयपवनसंयोगनाशोऽपि स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्धन वर्तत उति कार्यकारणसामानाधिकरण्योपपत्तिः । न च विजातीयनिमित्नपचनसंयोगनाशक्षणोत्पन्नशद द्विनीयक्षणानिध्यसप्रतियोगितलक्षणक्षणिकन्या . पत्तिरिति वाच्यम्, निमिनपवनसंयोगस्योतात्तिसम्बन्धन कार्यसहभाबेन या शब्दहेतृत्वात् । अवच्छेदकतया नार शकीयककागदी बा तादृशभावस्य हेतुत्वाद् वा । अत एव नैकावच्छेदेन सदृशनानाशब्दोरणत्तिरपि । इत्थश कत्वविशिष्टलौकिकसाक्षात्कारोऽप्यपपद्यते । शब्दोत्पादद्वितीयक्षणोत्पन्नक-कत्वनिर्विकल्पकज्ञानानन्तरं तृतीयक्षणे:पि शाब्दस्य सत्त्वात् । ततश्च न तनीयक्षणवृनिध्वंसप्रतियोगित्वं श्वणिकत्वम् । बौद्धमतप्रवेशप्रसङ्गस्तु दूरापास्त:, द्वितीयक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगित्वलक्षणग्य सूक्ष्मश्नगिकत्वस्यान भ्युपगमात् । न व एवं = शब्दस्य पञ्चमक्षणवृतिध्वंसप्रतियोगित्वस्वीकारे क्षणिकत्वसिद्धान्तहानिः = शब्दनिष्ठतृतीयक्षणवृनिकध्वंसप्रतियोगितलक्षणक्षणिकत्वप्रतिपादकगीनमीयराद्धान्तप्रव्युनिः इति शकनीयम, अपेक्षा बुद्धः क्षणत्रयावस्थायितया आकाशात्मनारच्याप्य - वृत्तिक्षणिकविशेषगुणत्वलक्षणसाधम्र्यवादियौगमले पेशाबु रसग्रहप्रसङ्गात, अपेक्षाबुद्धिसङ्ग्रहाय = अपेक्षाबुद्धा क्षणिकत्वापपादनाय, तृतीयक्षणवृत्तिश्वंसप्रतियोगिवृत्ति-विभाजकोपाधिमत्त्वस्य तत्त्वात् = क्षणिकत्वपदवाच्यत्वात । तृतीयक्षणानिध्वंसप्रतियोगिशाब्दबोधादिवृत्तिः यो ज्ञानत्वेच्छात्वादिचतुर्विशत्यन्यतमत्वलक्षणो गुणविभाजकोपाधिः तण्या पक्षाची सच्चाक्षागसमन्वयार ऐश्नाबुद्धी ।
अपेक्षाचुद्भित्वञ्च एकत्वन्यसंख्याधुपधायकत्वमिनि पट्टाभिरामः (मु. मयूषा.) ।
में पवन में दूसरा कर्म उत्पन्न होगा, चीधे क्षण में पूर्वदेश से पवन का विभाग होगा । पाँचवे क्षण में पूर्वविजातीयपवनमयोग का नाश होगा । छठ्ठी क्षण में पानी शब्द के पाँच क्षण में शन्न का नाश होगा । इस कार्यकारणभाव के अभ्युपगम पक्ष में विजातीय पवनसंयोग से उसके द्वितीय क्षण में उत्पन्न होनेवाला शन्न उक्त क्रम से अपने पाँचचे क्षण में नष्ट होने से चार क्षण तक स्थायी हो भकता है। इसलिए तृतीयक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगित्त्व को क्षणिकत्व नहीं माना जा मकता । इस विषय में यह शंका हो कि -> 'इस तरह शब्द को पञ्चमक्षणवृत्तिध्वंस का प्रतियोगी मानने पर शन्न में क्षणिकत्व का
जो नैयायिकसिद्धान्त है वह भग्न हो जायग, क्योंकि न्यायसिद्धान्त के अनुसार नी शन्न क्षणिक है तो इसका समाधान | यह है कि प्राचीन नैयायिकों को भी तृतीयक्षणनिध्वंसप्रतियोगित्वस्वरूप क्षणिकत्व का स्वीकार करने पर अपेक्षाबुद्धि, में, | जिसको प्राचीन नैयायिक भी क्षणिक मानते हैं, क्षणिकत्व की उपपनि न हो सकेगी, क्योंकि अपेक्षाबुद्धि तीन क्षण तक स्पायी होन से चतुर्थक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगी है । अतः अपेक्षाबुद्धि में क्षणिकत्व का सङ्ग्रड करने के लिये पानी अपेक्षाबुद्धि में क्षणिकत्व के समर्थनार्थ क्षणिकत्व का लक्षण ऐसा मानना होगा कि तृतीपक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगिवृत्तिगुणविभाजकोपाधिमत्व ही क्षणिकत्व है। अपेक्षावृद्धि में तृतीयक्षणनिध्वंस की प्रतियोगिता न होने पर भी तृतीयलणवृत्तिध्वंसप्रतियोगी घटप्रत्यक्ष आदि में रहनेवाली ज्ञानत्व-इच्छात्वआदिअन्यतमत्वस्वरूप गुणविभाजक उपाधि तो रहती ही है। जब क्षणिकत्व का उपयुक्त निर्वचन प्राचीन नैयायिक के मतानुसार भी अंगीकर्तव्य है नव तो उसके अनुसार शब्द में भी क्षणिकत्व संगत हो जायेगा, क्योंकि विजातीय पवनसंयोग से उसके चतुर्थ क्षण में जो शन्द उत्पन्न होगा वह स्वोत्पादानन्तर होनेवाले विजातीयपवनसंयांगना के अनन्तर क्षण में यानी शब्द के तृतीय क्षण में ही यह पान्द ना हो जाने से तृतीयक्षणवृत्तिसप्रतियोगी बनेगा, जिसमें रहनेवाली गुणविभाजक उपाधि (ज्ञानव-वन्दन्यआदि अन्यतमत्व) तो चार क्षण तक स्थायी शन्द में भी रहती ही है । अत: वान्द को, जो विजातीय पवनसंयोग के द्वितीय श्रण में उत्पन्न होता है, चारक्षणपर्यन्त स्थायी मानने पर भो दाब्द में स्थूल
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७२६ मध्यमस्याद्वादरहस्पे खपटः ३
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*दियोमणिनयनिराऽभनामामांसा
तच्चियम, एवं सति ज्ञानादेरपि विजातीयात्तामनोयोगनाश्यत्वापत्या क्षणचतुष्टयावस्थायितापत्ते: ।
-* जयला न चैवमपि शन्दासङ्ग्रहः, शब्दस्य क्षणचतुष्कावस्थायित्वेन तृतीयक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगिवृत्तिगुणविभाजकोपाधिमत्त्वस्य विरहादिति वाच्यम्, निमित्तपवनविजातीयसंयोगचतुर्थक्षणात्पन्नशब्दस्य स्वतृतीयक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगित्वेन तद्गततादृशोपाधिमत्त्वस्य चत:क्षणस्थायिशब्दश्वाप्यनपायान् । अत एवोन्सर्गत इत्युपादानम् । इत्थश्चापेक्षावृद्धिसङ्ग्रहाय कृत परिष्कारस्य क्षणिकत्वलक्षण शब्देऽपि व्यापकल्यान शब्दक्षणिकत्वकृतान्तव्याकोपप्रसङ्ग इत्याहुः ।
अत्र महे - प्रतियोगिता नाश स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्धेन नाशत्वेन काग्णत्वे दण्डनाशादितोऽपिघटादिनाशप्रसद्धगः। किश्च तृतीयक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगिवृत्तिगणविभाजको पाधिमत्त्वस्य अणिकत्व चिरतरकालस्थायिनां रूप-रसादीनामपि सत्रया क्षणिकत्वं प्रसज्यंत, घटोत्यादतृतीयक्षणे घटनाशस्थले रूपरसादीनामपि तृतीयक्षण नाशसम्भवान तद्वनिगुणविभाजकांपाथिमत्त्वस्य चिरस्थायिषु रूपरसादिष्वपि सत्त्वात् । न च चतु:क्षणानजन्या निजातिमच्चमेव क्षणिकमिनि न चिरग्धायिरूपादीनां क्षणिकत्वासङ्गो न वाउपेक्षावुरसङ्ग्रह इति वक्तव्यम्, तथा सति शब्दक्षणिकत्ववादाय दना जलाञ्जलिः, शब्दस्य त्वया चतु:क्षणस्थायित्वाऽभ्युपगमात् । न च पञ्चमक्षणनिजन्या वृनिजातिमत्वमेव तत्त्वमस्त्विति वाच्यम, प्रथमोपस्थिनतृतीयपरिहारप्रयोजनविरहात, अन्यत्रा क्लृप्तत्वात् । किञ्च शन्दे तृतीयक्षणनाट्यत्वरसम्प्रदायस्त्रक्तव्य एवं तर्हि शब्द बहुक्षगस्पापिनंब कल्पयितुमुचिता । इत्थश्च प्रत्यभिज्ञा भगवती अपि आराधिता स्यादिति । नतश्च
'अलीकवाचालतयाःतिचा पलं यदत्र विद्वन्ननु शीलितं त्वया । नवीननैयायिक : वक्ति केवलं त्वदीयबुद्धेस्तदनीव कुण्ठताम् ।।१।।'
शिरोमणिमतमसहन्त: सान्ग्रदायिका नैयायिका अत्र वदन्ति - तत् - शिरोमणिनयानुयामिप्रतिपादितं शब्दचतुः क्षणस्थायित्व चिन्त्यम् न तु चिन्तामृतेऽङ्गीकरणीयम् । चिन्ताबीजमावंदरन्ति पर्व = प्रतियोगितया नाशत्वावच्छिन्नं प्रति स्वप्रतियोगिजन्य . त्वसम्बन्धेन नाशत्वन हेतुताऽभ्युपगमे, सति ज्ञानादेरपि विजातीयात्ममनोयोगनाश्यत्वापत्त्या क्षणचतुझ्यावस्थायितापनेः । आदिपदेन योग्यानामात्मविशेषगुगानां ग्रहणम् । प्रतियोगिहया नाशत्वावन्छिन्नं प्रति स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्धन नाशवन हेतुनाया लाघवेन स्वीकारे ज्ञाननाशादिप्रतियोगिनां ज्ञानादानां विजातीयात्ममनोपोगनाशप्रतियोगिजन्यत्वेन चतु:क्षणस्थायित्वं प्रसज्यत, विजातीयात्ममनायोगस्योत्सर्गतः क्षणचतुष्कावस्थायित्वात् । तथाहि प्रधमक्षणे विजानीयात्ममनोयोग उत्पद्यते द्वितीयक्षणे ज्ञानादिप्रभवो विजातीयात्ममन:संयोगजनकमन:क्रियानाशश, तृतीयक्षणे मनसि कमान्तरोत्पादः, चतर्थक्षण पूर्विलात सायच्छिन्नादात्मना मनाविभागः, पञ्चमक्षणे पूर्विलात्मनन संयोगनाशः पटक्षणे ३ ज्ञानादिनाश इत्येवं ज्ञानादीनां चतुःश्णस्थायित्वापात त्वदीयकार्यकारणभावस्वीकाराविनाभाबित्वात्तस्यति गौतमीपसम्प्रदायानुयायितात्पर्यम् । अणिकत्व के भग का कोई प्रसङ्ग नहीं है। इसलिए शन्द को चार क्षण तक स्थायी मानना भी निदोष ही है ।"
शब्द की भाँति ज्ञानादि में चतु:क्षणस्यायिपप्राग - साम्प्रदायिक नचिन्न्यं, । रघुनाथशिरामणि के नत के खिलाफ साम्प्रदायिक = परम्परागत मान्यता को न छोडनवाले प्राचीन नैयायिकों का यह वक्तव्य है कि प्राब्द में क्षणचतुष्कस्थायिता चिन्तनीय - विचारणीय है, चिना विचार के स्वीकतन्य नहीं है और विचार करने पर दोप आने की वजह यह त्याज्य है। वह इस तरह कि प्रतियोगिता सम्बन्ध से नाचत्वावच्छिन्न के प्रति स्वप्रतियोगिजन्यत्व सम्बन्ध से नाझन्वावच्छिन्न को कारण मानने पर तो ज्ञानादि भी क्षणचतुफस्थितिवाले हो जायंगे, क्योंकि विजातीय पवनसंपांग जैसे शब्द का निमित्त कारण है ठीक वैसे ही विजातीयात्ममनःसंयोग भी ज्ञान, इच्छा आदि का निमित्त कारण है भीर चार क्षण नक दोनों स्थायी हैं। विजातीय आन्भमनःसंयोगनारा से ज्ञानादि के पश्चम क्षण में ज्ञानादिना होने का क्रम यह है कि उक्त संयोग के दूसरे क्षण में ज्ञानादि उत्पन्न होगा और उनी क्षण में उक्त विजानीय संयोग के जनक मन:कर्म का नाश होगा। उक्त संयोग के तृतीय क्षण में मन में दमग कर्म (=क्रिया) उत्पन्न होगा, चौथ क्षण में पूर्व सावच्छिन आत्मा से मन का विभाग होगा । पाँच्च क्षण में पूर्व विजातीय आत्ममनोयोग का विनाश होगा । छडे क्षण में यानी ज्ञानादि के पाँचचे क्षण में ज्ञानादि का नाश होगा । इस तरह ग्युनाशशिरोमणि से प्रदर्शिन कार्यकारणभाव के अभ्युपगमपक्ष में विजातीय आत्ममनःसयांग से उसके द्वितीय क्षण में उत्पन्न होनेवाला ज्ञानादि उक्त क्रम से अपने पाँचवे क्षण में नष्ट होने से चार क्षण नक स्थायी होने की आपनि आ सकती है।
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* जन्यात्म विशेषगुणनाशविचारः
'शब्दनाशत्वावच्छिन्नं प्रति विजातीयपवनसंयोगनाशत्वेन हेतुत्वमित्यपि अपास्तम्, जन्यात्मविशेषगुणनाशत्वावच्छिन्नं प्रत्यप्येवं विजातीयात्ममन:संयोगनाशत्वेन हेतुताया: सुवचत्वात् ।
अथ स्वप्रतियोगिजन्यत्व- कालिकोभयसम्बन्धेन स्वविशिष्टप्रतियोगिकनाशत्वावच्छिन्नं
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ॐ जयलता औ
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ननु अस्माभिः न प्रतियोगितया नाशत्वावच्छिन्नं प्रति स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्धेन नाशवंन हेतुता स्वीक्रियते किन्तु प्रतियोगितया शब्दनाशत्वावच्छिन्नं प्रति एवं स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्धेन विजातीयपचनसंयोगनाशत्वावच्छिन्नस्य कारणता स्वीक्रियते । अतो न ज्ञानादीनां चतु: क्षणस्थायित्त्वग्रसङ्गः, तत्सामग्रीविरहात् । ततो न कश्चिद् दोष इत्यादायमपाकर्तुमाहुः एतेन तुल्यन्यायेन, अपास्तमित्यनेनास्यान्वय: । शकाग्रन्थो विभावित एव । तदपाकरणाय तुल्ययुक्त्या वदन्ति - जन्यात्मविशेषगुणनाशत्वावच्छिन्नं जन्यां य आत्मनी यांग्यों ज्ञानेच्छा-द्वेष-प्रयत्न- सुख-दुःखान्यतरलक्षणां विशेषगुणः तत्प्रतियागिकनाशत्वावच्छिन्नं प्रति अपि एवं निरुक्तसम्बन्धन विजातायात्ममन:संयोगनाशत्वेन हेतुतायाः सुवचन्वात् । स्पष्टमेव । एतेन प्रतियोगितासम्बन्धावच्छिन्न शब्दनाशत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपितस्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्धावच्छिन्नकारणतावच्छेदकं नाशत्वमिति न ज्ञानादे: तथात्वप्रसङ्गः, कार्यतावच्छेदकानाक्रान्तस्याऽनापाद्यत्वादित्यपि परास्तम्, निरुक्तसम्बन्धावच्छिन्न योग्यविभुविशेषगुणनाशत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपितनिरुक्तसम्बन्धावभिकारगतावच्छेदकत्वं नाशत्वस्येत्यस्यापि वक्तुं शक्यत्वात् । अन एव शब्दनिष्ठप्रतियोगितासम्बन्धावच्छिन्न-नाशत्वावच्छिन्नकार्यनानिरूपितनिरुक्तसम्बन्धावच्छिन्नकारणतावच्छेदकं विजातीयपवनसंयोग
नाशत्वमित्यपि प्रत्याख्यातम् याग्यविभुविशेषगुणनिष्ठप्रतियोगितासम्बन्धावच्छिन्न-नाशत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपितनिरुक्तसम्बन्धाबच्छेिन्नकारणतावच्छेदकं नाशत्वमित्युपगमे ततोऽपि कारणतावच्छेदकलाघवादिनिं विभावनीयम् ।
अथेति । चेदित्यनेनास्यान्चयः । स्वप्रतियोगिजन्यत्व- कालिको भयसम्बन्धेन स्वविशिष्टो यः तत्प्रतियोगिकनाशत्वावच्छि स्वविशिष्टप्रतियोगिकनाशत्वाच्छिन्नं प्रति एव न तु केवलं नाशत्वावच्छिक प्रति नाशत्वेन हेतुतेति । कार्यतावच्छेदकसम्बन्धः प्रतियोगिता कार्यतावच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्धः स्वप्रतियोगिजन्यत्व- कालिको भयसम्बन्धः, कार्यनावच्छेदकधर्मः स्वविशिष्टप्रतियौगिकनाशत्वं, कारण्गतावच्छेदकधर्मः नाशत्वं कारणतावच्छेदकसम्बन्धश्च स्वप्रतियोगिजन्यत्व - कालिकोभयम् । स्वपदेन नाशकग्रामभिप्रेतम् । तथाहि स्वप्रतियोगिजन्यत्वकालिकांमयसम्बन्धेन कपालद्वयविजातीयसंभोगनाशविशिष्टघटप्रतियोगिकनाशः प्रतियोगिता
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एतेन । यहाँ बचाव के लिए उक्त कार्य कारणभाव का त्याग कर के ऐसा कार्यकारणभाव मान्य किया जाय कि - → प्रतियोगिता सम्बन्ध से शब्दनाशत्वावच्छिन्न के प्रति स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्ध से विजातीय पवनसंयोग का नाश विजातीयपवनसंयोगनाशत्येन कारण है । अतः ज्ञानादि के चतुःक्षणस्थायित्व का कोई प्रसंग नहीं होगा, क्योंकि उपर्युक्त कार्यकारणभावकोटि से ज्ञानादिनाश बहिर्भूत है । अतः निमित्तकारणीभूत विजातीय आत्ममन:संयोग के क्षणचतुष्कस्थायित्व के सबन ज्ञानादि में
क्षण तक स्थायित्व का अनिष्ट प्रसङ्ग नहीं होगा तो यह भी निराधार होगा, क्योंकि तुल्य न्याय से यह भी कहा जा सकता है कि प्रतियोगिता सम्बन्ध से जन्यात्मविशेषगुणनाशत्वावच्छिन के प्रति स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्ध से विजानीयात्ममनोयोगनाश विजातीयात्ममन:संयोगनाशत्वेन कारण है। इस तरह कार्यकारणभाव के स्वीकार से तो ज्ञानादि भी चार क्षण तक स्थायी बन सकते हैं, क्योंकि ज्ञानादि के नाशक का समवधान ज्ञानादि की उत्पत्ति के चतुर्थ क्षण में होने से ज्ञानादि में स्वपञ्चमक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगित्व आता है। देखिये स्व का अर्थ है विजातीय आत्ममन: संयोगनाश, उसका प्रतियोगी है विजातीय आत्ममन:संयोग, उसकी जन्यता है ज्ञानादि में । अतः विजातीयात्ममन:संयोगनाश स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्ध में ज्ञानादि में रहने से प्रतियोगिता सम्बन्ध से ज्ञानादि में ही ज्ञानादिनाश उत्पन्न होगा, क्योंकि ज्ञानादि ज्ञानादिनाश का प्रतियोगी ज्ञानादि है। इस तरह कार्य और कारण में सामानाधिकरण्य की भी उपपत्ति होगी और चतुःक्षणस्थायित्व की आपत्ति भी आयेगी । ॐ शब्द एवं ज्ञानादि की क्षणचतुष्कस्थायिता में प्रतिबन्दी
अथ । यदि शब्द की चतुःक्षणस्थिरता की उपपत्ति के लिए एवं ज्ञानादि के चतुः क्षणस्थायित्व के निरास के लिये ऐसा कहा जाय कि स्वप्रतियोगिजन्यत्व और कालिक उभय सम्बन्ध से स्व (विजातीयसंयोगनाश) से विशिष्ट ऐसे प्रतियोगी के नाश के प्रति स्वप्रतियोगिजन्यत्व-कालिकां भयसम्बन्ध से विजातीयसंयोगनाश नाशत्वेन हेतु है । कारणतावच्छेदक सम्बन्ध है स्वप्रतियोगिजन्यत्व और कालिक, कारणतावच्छेदक धर्म है नाशत्व, कार्यतावच्छेदक सम्बन्ध है प्रतियोगिता, कार्यता अवच्छेदकता अवच्छेदक
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७२८ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः ३ का ११
ज्ञानादेः स्वात्तगेत्पन्नज्ञानादिनाश्यता
प्रत्येव नाशत्वेन हेतुता, ज्ञानादेस्तु स्वोत्तरोत्पन्नज्ञानादिना पूर्वमेव नाशान विजातीयात्ममनः संयोगनाशनाश्यत्वमिति चेत् ? तर्हि प्रथमशब्दादेरपि प्रदेशान्तरे स्वोतरोत्पन्दितीयादि
* गयलता कै
सम्बन्धेन तादृशघटे जायते यत्र स्वप्रतियोगिजन्यत्वकालिको भयसम्बन्धेन कपालद्रयविजातीयसंयोगनाशः तादृशकार्यात्पादाव्यवहितपूर्वक्षणावच्छेदेन वर्तते इति सामानाधिकरण्येन कार्यकारणभावोपपतिः । इत्थं वाब्दचतुर्धक्षणकालीन विजातीयवनसंयोगनाशः स्वप्रतियोगिजन्यत्व- कालिको भयसम्बन्धेन तस्मिन् शब्दे वर्तते यत्र स्वप्रतियोगिजन्यत्व- कालिको भयसम्बन्धेन विजातीयवायुसंयोगनादाविशिष्टशब्दप्रतियोगिकनाशः प्रतियोगितासम्बन्धेन वर्तते इति सामानाधिकरण्येन कार्य-कारणभावसङ्गतिः | शब्दे चतुः क्षणस्थायित्वोपपत्तिश्च कालिकसम्बन्धानुपादाने शब्द प्रतियोगितमा पष्ठ- सप्तमादिक्षणेऽपि विशिष्टवादनाशोत्पादापात:, निशब्दे स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्धेन विजातीयवायुसंयोगनाशस्य सत्त्वात् । इत्थश्व शब्दस्य विजातीयपवनसंयोगनाशनाश्यत्वं सगच्छते । न चैवमेध ज्ञानादेरपि विजानीयात्नमनीयोगनाशनाश्यत्वं दुर्वारमिति वाच्यम्, ज्ञानादेस्तु स्वोत्तरोत्पन्नज्ञानादिना स्वोत्पादाव्यवहितोत्तरक्षणोत्पन्नज्ञानादिना पूर्वनेव विजानीयात्ममनः संयोगनाशीत्यादादवागिव नाशात् यांग्यविभुविशेषगुणानां स्वाव्यवहितोत्तरयोग्यगुणनादयत्वनियमात् अनित्यस्य विद्यमानस्यैव कालोपाधितया विनष्टं ज्ञानादी कालिकन विजानीयात्ममनोयोगनाशस्यासत्वात् न विजातीयात्ममन:संयोगनाशनाश्यत्वं विजातीयात्ममनोयोगनाशजन्पनाशनिरूपित प्रतियोगित्वमिति ज्ञानादेः चतुःक्षणस्थायित्वप्रसङ्ग इत्यथाशयः |
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प्राञ्चः प्रतिचन्द्या शब्दे विजातीयसमीरसंयोगनाशनाश्यत्यनपाकुर्वन्ति तति । ज्ञानादेः स्वाव्यवहितोत्तरज्ञानादिनाश्यत्वादगीकारे प्रथमशब्दादेरपि = प्रथमद्वितीयाद्यचरमपर्यन्तशब्दस्यापि प्रदेशान्तरे = अन्यायच्छेदन आकाशे स्वोत्तरोत्पन्नसम्बन्ध है स्वप्रतियोगिजन्यत्व- कालिकोभय, कार्यतावच्छेदक धर्म है स्वविशिष्टप्रतियोगिकनाशत्व । जैसे विजातीयपवन संयोग की पांचवी क्षण में विजातीयपवनसंयोगनाश होगा, जो स्वप्रतियोगिजन्य एवं विद्यमान ऐसे शब्द में स्वप्रतियोगिजन्यत्व - कालिकोभयसम्बन्ध ये रहेगा | अतः संयोग की पाँचवें क्षण में निरुक्त सम्बन्ध से विजातीयपवनसंयोगनाशविशिष्ट शब्द का नाया उक्त विजातीयसंयोग के छ क्षण में यानी शब्द के पाँचवें क्षण में प्रतियोगिता सम्बन्ध से उसी शब्द में उत्पन्न होगा जिसमें स्वप्रतियोगिजन्यल सम्बन्ध से एवं कालिक सम्बन्ध से शब्दनाशा व्यवहितपूर्वक्षणावच्छेदेन विजातीयपवनसंयोगनाश रहता है । अतः उक्त कार्यकारणभाव के स्वीकार पक्ष में विजातीय पवनसंयोग के द्वितीय क्षण में उत्पन्न होनेवाला शब्द उक्त क्रम से अपने पांचवें क्षण में नष्ट होने से चार क्षण तक स्थायी रह सकता है । कालिक सम्बन्ध का निवेश करने से विजातीयवायुसंयोगनाश के तृतीय, चतुर्थ आदि क्षणों में वह शब्द अविद्यमान होने से काल की उपाधि नहीं बनता है। अतएव कालिक सम्बन्ध से वह विजातीयपवनसंयोगनाश से विशिष्ट नहीं बनता है। सामग्री नहीं होने से तब शब्दनाशोत्पाद को अवकाश नहीं है ।
इस कार्यकारणभाव को मान्य करने पर ज्ञानादि में विजातीय आत्ममन: संयोग के नाश से नाश्यता की एवं चतुः क्षणस्थायित्व की आपत्ति को अवकाश नहीं है, क्योंकि ज्ञानादि का तो स्वान्यवहितोत्तर क्षण में उत्पन्न ज्ञानादि से पहले ही नाश हो चुका है । यांग्यविभुविशेषगुण का स्वाऽव्यवहितोत्तरवती गुण नाशक होता है। - यह प्रसिद्ध प्राचीननैयायिकसिद्धान्त है | इस कार्यकारणभाव के अनुसार विजातीय आत्ममन:संयोग के द्वितीय क्षण में उत्पन्न ज्ञानादि का तो तदुत्तरवर्ती ज्ञानादि से विजातीय आत्ममन:संयोग के चतुर्थ क्षण में यानी अपने तृतीय क्षण में एवं उत्तरवर्ती ज्ञानादि के द्वितीय क्षण में ही नाश हो जाने से पञ्चम क्षण में होनेवाला विजातीय आत्ममन:संयोगनाश स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्ध से विवक्षित ज्ञानादि में रहने पर भी कालिक सम्बन्ध से उसमें नहीं रहता है। अविद्यमान पदार्थ कालिक सम्बन्ध से किसीका अधिकरण नहीं हो सकता है। अतः विवचित ज्ञानादि तब स्वप्रतियोगिजन्यत्व- कालिको भयसम्बन्ध से विजातीयआत्ममनः संयोगनाशविशिष्ट नहीं होने से विजातीय आत्ममन: संयोग के प्रथम क्षण में ज्ञानादि के नाश का प्रसन्न नहीं है। सामग्री नहीं होने पर कार्योत्पाद का आपादन कैसे हो सकेगा ? अतः ज्ञानादि की क्षणचतुष्कस्थापिता का कोई अनिष्ट प्रसङ्ग सावकाश नहीं है' -
तर्हि । तो यह वक्तव्य भी असंगत है, क्योंकि यह तुल्यन्याय से वन्दनाश में भी लागू पड़ता है । मतलब कि यह कहा जा सकता है कि योग्यविभुविशेषगुण स्वोत्तरवर्ती योग्य गुण से नाश्य होने के नियम से प्रथमादि शब्द का आकाश में अन्याचच्छेदेन = प्रदेशान्तर में स्वाऽव्यवहितोत्तरक्षणावच्छेदेन उत्पन्न द्वितीयादि शब्द के द्वारा नाश हो जायेगा, जिस समय विजातीयपवनसंयोगनाश तो उत्पन्न भी नहीं हो सकता। तब वह शब्द का नाश कैसे कर सकेगा ? क्रम इस तरह होगा प्रथम क्षण में शब्दनिमित्तकारण विजातीय पवनसंयोग उत्पन्न होगा, दूसरे क्षण में शब्द पैदा होगा और उक्तसंयोगजनक
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* चरमाल्दनाशऋताविचारः
शब्देन पूर्वमेव नाशान्न निमित्तपवन संयोगजाशनाश्यत्वमिति समानम् ।
अन्त्यशब्दनाशार्थं विजातीयपवनसंयोगनाशत्वेन हेतुताऽस्त्विति चेत् ? न, विजातीयशब्दनाशं प्रति प्रागुक्तसम्बन्धेन शब्दनाशत्वेन हेतुताया एवोचितत्वात्, अन्यथा सुषुमिप्राकालीनज्ञाननाशार्थं मनः संयोगनाशस्यापि ज्ञानादिनाशकत्वकल्पनापत्तेरिति साम्प्रदायिका: ।
* जयलता
द्वितीयादिशब्देन स्वा:व्यवहितोत्तरोत्पन्नद्वितीयादिचरनपर्यन्तशब्देन पूर्वमंत्र निमित्तविज्ञानसंयोग नियोगिकनाशोत्पादादवगिव नाशात्, योग्यविभुविशेषगुणनाशस्य स्वप्रतियोग्यव्यवहित। नरोत्यन्नयोग्यगुण जन्यत्वनियमात, तत्र शब्दभिन्नत्वनिवेशे मानाभावात् गौरवाच विनष्टशब्दे कालिकेन निमित्तपवनसंयोगनाशस्यानित्वात् न निमित्तपवनसंयोगनाशनाश्यत्वं प्रथमशब्दादेरपि । एतेन शब्दे पञ्चमक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगित्वमपि निरस्तम्, युक्तिवैकल्यात. सम्प्रदायविरोधाच्च । ततश्च न शब्द विजातीयपवनसंयोगनाशनाश्यत्वं युक्तम् ।
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ननु प्रथमाद्यचरमपर्यन्तदशब्दानां स्वोत्तरवर्दिद्वितीयादिचरमशब्दनाश्यत्वेऽपि अन्त्यशब्दनाशार्थं = चरमाब्दनाशं प्रति 'विजातीयपवनसंयोगनाशत्वेन स्वप्रतियोगिजन्पत्वसम्बन्धेन हेतुताऽस्त्विति चेत् ? न विजातीयशब्दन्नावां = शब्दाजनकशब्दप्रतियोगिकनाशत्वावच्छिन्नं प्रति प्रागुक्तसम्बन्धेन स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्धेन शब्दनाशत्वेन = स्वप्रतियोगिजनकशब्दनाशत्वंन हेतुताया एवोचितत्वात् विजातीयगवनसंयोगनाशत्वापेक्षया शब्दाशत्वस्य कारणतावच्छेदकत्वं लाघवात् । नच स्वकारणशब्दनाशत्वस्य कारणतावच्छेदकत्वं अन्यधाऽतिप्रसङ्गादिति वाच्यम कारणतावच्छेदकप्रत्यासन्या एवातिप्रसगञ्जकत्वात् । यथा सुषुप्तिप्राककालीनज्ञानादेः स्वाऽन्यवहितपूर्वकालीनज्ञानादिनाशनापत्यं तवदमणि सम्यग् न तु विजातीयनिभितपवनसंयोगनाशस्य विजातीयशब्दनाशकत्वमिति गम्यते । ततो हि शब्दा जनकशब्दस्यापि न चमक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगित्वनित्यर्थः । विपक्षचाधमुपदर्शयन्ति → अन्यथा = विजातीयपवनसंयोगनाशास्यैव चरमशब्दनाशकत्वस्वीकार, तुल्यन्यायेन सुषुप्तिप्राककालीनज्ञाननाशार्थं मनः संयोगनाशस्यापि विजातीपरत्ममनोयोगनाशत्वंनाऽपि ज्ञानादिनाशकत्वकल्पनापत्तेः । न हि सुषुप्तौ ज्ञानादिकं जायते येन सुषुप्तिप्राकालीनज्ञानादिकं तत्तां नाश्येत । इति साम्प्रदायिकाः वदन्तीति गम्यते ।
न्यायदर्शनपरम्परानुगातिनी
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७०
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LA
पवनकर्म का नाश होगा, तीसरे क्षण में पूर्व शब्द से आकाश में अन्यदेशावच्छेदेन शब्दान्तर उत्पन्न होगा तथा पचन में दूसरा कर्म उत्पन्न होगा, चीधे क्षण में विजातीय पवनसंयोग का नाश होगा | हम इस तरह देख सकते हैं कि विजातीयपचनसंयोगनाश के पहले ही कार्यशब्द से कारणशब्द का नाश हो चुका है तब शब्द को विजातीयपत्रनसंयोगनाशनाइय कैसे कहा जा सकेगा ? ज्ञान और शब्द के नाश में युक्ति तो समान ही है । यहाँ यह वांका हो कि 'प्रथमादि अचरमपर्यन्त शब्द का नाश तो द्वितीयादि चरमपर्यन्त शब्द से हो जायगा मगर चरम शब्द का नाश तो कार्यशब्द से नहीं हो सकेगा, क्योंकि चरम शब्द किसी शब्द का जनक ही नहीं होता है। अतः चरमशब्दनाश के लिये तो विजातीय निमित्तपवनसंयोग के नाश को ही कारण मानना होगा तब तो विजातीय-पवनसंयोग चार क्षणपर्यन्त स्थायी होने से उससे उसके द्वितीय क्ष में उत्पन्न चरम शब्द को पूर्वोक्त रीति से स्थायी मानना ही होगा । तब तो चतु:क्षणस्थायित्व शब्द में निराबाध हो जायेगा एवं विजातीयपवनसंयोगनाश में शब्दनाशकत्व भी सिद्ध हो जायगा तथा रघुनाथशिरोमणि का मन भी निर्दोष हो जायगा <- तो यह निराधार है, क्योंकि चरमशब्दनाश के प्रति विजातीयपवनसंयोगनाश को कारण मानने की अपेक्षा शब्दनाश को ही स्वप्रतियोगिजन्यत्व सम्बन्ध से कारण मानना मुनासिब है, क्योंकि तब कारणतावच्छेदकधर्मशरीर में लाघव होगा । विजातीयपचनसंयोगनाशन्च की अपेक्षा शब्दनाशत्व धर्म लघु हैं. यह तो स्पष्ट ही है । यदि चरम शब्द के नाश के प्रति अचरम शब्द के नाश को स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्ध से शब्दनाशवेन कारण न माना जाय तब तो तुल्य न्याय से सुषुप्ति के अव्यवहित प्राकृ क्षणावच्छेदेन उत्पन्न होनेवाले ज्ञानादि के नाश के प्रति विजातीयआत्ममन: संयोगनाश को कारण मानने की कल्पना करनी पड़ेगी, जो रघुनाथशिरोमणिमतानुयायी को भी अमान्य है । सुपुति में ज्ञानादि उत्पन्न नहीं होते हैं । अतएव सुपुति के अव्यवहित पूर्व क्षण में उत्पन्न जानादि का नाश स्वान्यवहितोत्तरवर्ती ज्ञानादि से नहीं हो सकता है। नवयं यही मानना होगा कि स्वपूर्वकालीन ज्ञानादि ही सुपुतिअव्यवहितपूर्ववर्ती ज्ञानादि का नाशक होता है । इसी तरह चरम शब्द के नाश के प्रति भी स्वाव्यवहितपूर्ववर्ती शब्द के नाश को स्वप्रतियोगिजन्यत्व सम्बन्ध से कारण मानना मुनासिव होगा ।
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७३. मध्यमस्याद्वाररहस्ये खण्डः ३ . का.
* अस्वरवीनाडावनम स्यादितत् - योग्यविभुविशेषगुणनाशं प्रति स्वोत्तरोत्यनयोग्यविशेषगुणत्वेन हेतुत्वं न । युक्तमिति वेत् ? कति → प्रतियोगितया योग्यविभूविशेषगुणनाशत्वावच्छिन्नं प्रत्येकाधि
-* गयलता - साम्प्रदायिका इत्यनेनाऽस्वरसः प्रदर्शितः । तद्वाजश्वैवम - विजातीयशब्दनाशं प्रति स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्धन शब्दनाशन्वेन हेतुत्वे शन्दाजनकस्याउ द्यब्दस्य नाशो न केनापि स्यात, नदश्यवाहितीनराब्दस्यापि विरहात । वस्तुतस्तु प्रतियोगितासम्बन्धेन योग्यविभुविशेषगुणनाशं प्रति स्वाव्यवहितपूर्ववर्तित्वस्वसामानाधिकरण्याभ्यसम्बन्धेन योग्यविशेषगुणर कारणत्वे चरमशब्दस्य द्वितीयक्षणविशिष्टस्य सतः स्वनाशकत्वमेवोचितम । एतेन सुषुप्तिप्राककालानज्ञाननाशाध मनःसंयोगस्य ज्ञानादिनाशकत्वकल्पनापत्तिरपि परास्ता, सुषुप्तिप्राक्कालीनडानस्यैव द्वितीयक्षणविशिष्टग्य स्वनाशकत्वसम्भवात यतः तज्ञानसामानाधिकरण्यं तज्ज्ञानेऽपि वर्तन एवं स्वाव्यवहितपूर्ववृत्तित्वमपि स्वस्मिन्नबाधितम् । ततश्चाऽस्मदुक्सप्रकारणव शिरोमणिनपानुयायिमतं दुयितव्यमिति विभावनायम् ।
दाते . स्यादेतदिति । चंदित्यन्तः शङ्काग्रन्धः | योग्यविभुचिशेषगणनाशं = प्रतियोगितासम्बन्धावच्छिन्नकार्यतावच्छेदकयोग्यविभुविशेषगुणप्रतियोगिकनाशत्वावच्छिन्न प्रति स्वोत्तरोत्पन्नयोग्यविशेषगुणत्वेन हेतुत्वं न युक्तम्, चैत्रज्ञानोत्तरीत्पन्नमैत्रज्ञानस्यापि चैत्रज्ञाननाशकनापन: न च स्वसामानाधिकरण्यसम्बन्धस्य कारणतावच्छेदकसंसर्गवन नोक्त दोय इति बाच्यम्, तथापि सुषुप्त्यादिचिरपूर्वकालीनज्ञानाद: सुषुप्तिप्र मृत्युत्तरकालीनव्यवहितज्ञानादिनादयत्व पनः । न च स्वाव्यवहितातरोत्पन्नयोग्यविशेषगणत्वस्य योग्यविभुबिशेषगणनादकतावच्छेदकत्वान्न दोष इति वक्तव्यम्, तथापि ज्ञानादिनाशस्य स्वप्रतियोगितासम्बन्धन ज्ञानादी जायमानत्वंन तत्र चोक्तसम्बन्धेन नाशकविरहण ज्ञानाद्यनाशप्रसङ्गात् । न च वैयधिकरण्यनिरासार्थ कार्यतावच्छेदकसम्बन्ध: स्वप्रतियोगित्वं न तु स्वरूपसंसर्ग इति वाच्यम्, तथाप्यनन्तकार्यकारणभावकल्पनापनेः यतः स्वा:व्यवहितोनरत्वं स्वोत्तरविशेषगुगानुत्तरत्वे सति स्वीजरत्वम् । अब न नन्नस्य ननम्तन तनद्व्यक्तिविश्रान्त एव कार्यकारणभाव || इति तसव्यक्तिनाशं प्रति तत्तद्व्यक्तित्वेनैव कारणता युक्ता । तथा चानन्तकार्यकारणभावापत्त्या महागौरचमिति चेत् ?
अत्र = निरुक्तकार्यकारणभावस्थले, वदन्नि नैयायिका: → प्रतियोगितया = स्वनिरूपित्तप्रतियोगितासम्बन्धेन, योग्यविभुविशेषगुणनाशत्वावच्छिन्नमिति । अन्न कार्यतावच्छेदकसम्बन्धधर्मयोः प्रदर्शनं कृतम । कारणनावच्छेदकसम्बन्ध
काधिकरण्यनिवेदशान शब्दादिना यधिकरणानां ज्ञानच्छादीनां नाशः । स्वाव्यवहितपूर्ववृतित्वसम्बन्धनिशाब नहानाटीना. मुत्पत्तिकाले वर्तमान पत् तत्पूर्वक्षणोत्पनेच्छादि तेन ज्ञानादः स्वोत्पनिद्वितीपक्षणं नाशापत्तिः । योग्यविशेषगुणत्वस्य तर न तो ज्ञानादि में चतुःक्षणस्यापिता की आपत्ति होगी और न तो शब्द में भणचतुप्कस्थायित्व की सिद्धि होगी . यह न्यायसम्प्रदायानुरोधी हम प्राचीन नैयायिकों का वक्तव्य है ।
म योग्यविमुविशेषगुण में स्तोत्तरवर्तिगुणजाश्यता की मीमांसा स्याद. । यहाँ यह शत हो सकती है कि -> 'ज्ञान, दान्द आदि को क्षणिक मानने का मूल कारण है योग्य चिभुविशेषगुण का नाश स्वोत्तरवती योग्य विशेषगुण से होने की मान्यता । मगर यह मान्यता ही अप्रामाणिक है, क्योंकि ।। यह अनेक दोरों से दूर होने से अप्रामाणिक है। वह इस तरह-शन्दात्मक योग्य विभुविशेषगुण का भी स्वोत्तर उत्पन्न ज्ञानादि योग्यविशेषगुण से नाश हो जायगा । तथा चिरकाल पहले उत्पत्र ज्ञानादि का भी अतिव्यवहित ज्ञानादि से, जो स्वानर उत्पन्न योग्य विशेषगुण है, नाश हा जापगा। एवं नाशकारणतावोदक स्वोत्तरोत्पन्नयोग्यविशेषगुणत्व होने सं यानी अननुगत स्वत्व से घटित होने से प्रस्तुत कार्यकारणभार तत् तत् व्यक्तित्वरूप से = रिशेपरूप से पर्यवसिन होगा, जिसके फल में अनन्त कार्यकारणभाव के स्वीकार का महागीरव उपस्थित होगा-इत्यादि । इसलिए योग्यविभुविशेषगुणनाशकतावच्छेदक स्वोनरात्पन्न योग्यविदोपगुणत्व नहीं हो सकता है। अतएव शब्द, ज्ञान आदि में स्थूल क्षणिकता का स्वीकार भी नामुनासिब हैमगर यह इसलिए निराधार है कि हम नैयायिक कार्यकारणभाव का स्वीकार उपयुक्त रीति से नहीं करते हैं किन्तु अन्य प्रकार में करते हैं । वह इस तरह कि प्रतियोगिता सम्बन्ध से योग्यविभुवितोपगुणनाशत्वावच्छिन्न के प्रति ऐकाधिकरण्यअवचित्र स्वाऽव्यवहितपूर्ववृत्तित्व सम्बन्ध से योग्यविदोषगुणत्वावच्छिन्न कारण है। कार्यतावच्छेदकसम्बन्ध प्रतियोगिता है। कारणतावच्छेदकसम्बन्ध वारीर में ऐकाधिकरण्य का निवेश करने से शब्द का ज्ञानादि से, जो स्वाऽव्यवहितानगत्पन्न योग्यविशेषगुण है, नाश होने का प्रसङ्ग नहीं होगा, क्योंकि शब्दव्यधिकरण होने की बजह ज्ञान आदि ऐकाधिकरण्य = सामानाधिकरण्य से अवञ्चिन - विशिष्ट ऐसे स्वाऽव्यवहितपूर्ववृत्तित्वसम्बन्ध से शब्द में, जो प्रतियोगितया इन्दनाशात्मक कार्य के अधिकरणविधवा अभिमत
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* रामभङ्गतप्रकाशनम
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करण्यावच्छिन्नस्वाव्यवहितपूर्ववृत्तित्वसम्बन्धेन योग्यविशेषगुणत्वेन हेतुत्वम् । रोगगङ्गास्नानादिनाश्यसंस्कारनाशे व्यभिचारवारणाय कार्यतावच्छेदके 'योग्ये 'ति वेगाऽवृत्तियोग्यजातिमदर्थकं, तेन न निर्विकल्प - जीवनयोनियत्नाऽसङ्ग्रहः ।
* जयलता है
कारणतावच्छेदकत्वान्नानन्तकार्थकारणभावसतः स्वत्वस्य तत्राऽनिवेशात् । रामरुद्रस्तु 'अत्र चापेक्षाबुद्धिद्वितीयक्षणोत्यपुरुषान्नरीयज्ञानादिना तृतीयक्षणं तन्नाशवारणाय स्वसामानाधिकरण्यप्रवेशः । अपेक्षाबुद्धिद्वितीयक्षणे व तत्पुरुषस्य न योग्यविशेषगुणात्पादः | इति सिद्धान्तः । ज्ञानादे: क्षणिकत्ववारणाय द्वितीयसम्बन्धप्रवेश' (का. २७, मु. रा. प्र. २४४ ) इति व्याचष्टे । द्वितीयसम्बन्धप्रत्रश इति स्वाच्यवहितपूर्ववृत्तित्वसम्बन्धनिवेश इत्यर्थः ।
विवन्ति रोग - गङ्गास्नानादिनाश्यसंस्कारनाशे - राजयक्ष्मादिरोंग - गङ्गास्नान-सूर्यकिरणस्पर्श-स्मृत्यादिजन्यनाशप्रतियोगिसंस्कारस्वरूपविभुविशेषगुणप्रतियोगिकनाशे, व्यभिचारवारणाय = योग्यविशेषगुणाज्जन्यत्वेन व्यतिरेकव्यभिचारापोहाय कार्यतावच्छेदके = कार्यतावच्छेदकधर्मशरीरवृक्षी 'योग्ये 'ति उपादनम् । न च तथापि कथं व्यभिचारनिवारणमिति वाच्यम्, अत: वेगाऽवृत्तियोग्यजातिमदर्थकं योग्यपदम् । संस्कार यद्यपि गुणत्वलक्षणा योग्यजातिरस्ति तथापि तस्या वेगानित्वं नास्ति । संस्कारनिष्ठा संस्कारत्वजातिर्यद्यपि योग्या तथापि तस्या अपि वेगवृत्तित्वमिति न संस्कारस्य योग्यत्वं सम्भवतीति योग्यविशेषगुणनाश्यतानाक्रान्तत्वमेव तस्येति न व्यतिरेकव्यभिचारसम्भवः । तेन = बेगाःवृत्तियोम्पजातिमत्त्वस्य योग्यत्वपदार्थत्वनिरूपणेन, न निर्विकल्पकजीवनयोनियत्नासङ्ग्रह इति । उतेन योग्यत्वस्य लौकिकप्रत्यक्षविषयरूपत्वेन स्वोत्तरोत्पन्नज्ञानादिना निर्विकल्पकस्य जीवनयोनियलस्य च नाशो न स्यादिति निरस्तम्, वेगावृत्तिज्ञानत्वकृतित्वलक्षणयोग्यजातिमत्त्वेन तद्यांम्पत्वम्याःनपायात् । निर्विकल्पकत्वं तु न जाति: निष्प्रकारकज्ञानत्वस्यैव निर्विकल्पकत्वरूपत्वात् ज्ञानत्वस्य वेगावृनिययजातित्वं तु निरायमेव । यद्यपि योग्यत्वप्रवेशेन स्वाश्रयकवलितत्वमेव तथापि वेगावृत्तिलौकिकप्रत्यक्षस्वरूपयो ग्यविषयवृत्ति - गुणत्वव्याप्य जातिमत्त्वमेव योग्यत्वमित्यत्र तात्पर्यमिति विभावने नास्ति दोषगन्धलेशोऽपि । एतेन प्रायश्चित्तादिनायाऽदृष्टप्रतियोगिकनाशे व्यभिचारोऽपि प्रत्याख्यातः, अदृष्टत्वस्य लौकिकप्रत्यक्षविषयाःवृत्तित्वात् । रूपादिनाशे व्यतिरेकव्यभिचारवारणास विविति ।
है. नहीं रहता है। इस तरह अतिव्यवहित ज्ञानादि भी चिरपूर्वकालीन स्वसमानाधिकरण ज्ञानादि का नाशक होने की आपत्ति को भी अवकाश नहीं है, क्योंकि व्यवहित होने की वजह उत्तर ज्ञानादि स्वाव्यवहितपूर्ववृतित्वसम्बन्ध से भी चिरपूर्वकालीन ज्ञानादि में नहीं रहता है तब स्वसामानाधिकरण्यावच्छिन्न ऐसे स्वाच्यवहितपूर्ववृत्तित्वसम्बन्ध मे तो कैसे रह सकेगा ? सामग्री न होने पर कार्योत्पाट का आपादन नहीं हो सकता है । इस तरह कारणता अवच्छेदक धर्म शरीर की कुक्षि में अननुगत स्वत्व का निवेश भी नहीं किया गया है, जिसकी बदौलत विशेषरूप से अनन्त कार्यकारणभाव के स्वीकार का गौरव उपस्थित होता था । अतः प्रदर्शित केवल एक कार्यकारणभाव से ही शब्द, ज्ञानादि के नाश का निर्वाह हो जाता है, जिसमें कारणताअवच्छेदक धर्म भी पूर्वोक्त कारणता अवच्छेदक धर्म की अपेक्षा लघु है। फिर भी इस कार्यकारणभाव को मान्य न किया जाय तब तो शब्द ज्ञान आदि का अन्य कोई नाशक न होने से शब्द, ज्ञान आदि के नित्य हो जाने का प्रसङ्ग उपस्थित होगा, जो नामंजूर है । यहाँ कार्यता अवच्छेदक धर्म के शरीर में योग्यत्व का निवेश न किया जाय और विभुविशेषगुणनाशत्व को ही कार्यता अवच्छेदक माना जाय तब यद्यपि लाघव होता है तथापि रोग स्नान आदि से नाश्य संस्कार आदि के नाश में व्यतिरेक व्यभिचार होगा, क्योंकि संस्कार विभु आत्मा का विशेषगुण होने पर भी योग्यविशेषगुण से भिन्न रोग आदि से नष्ट होता है। रोग आदि से ज्ञानादिजन्य एवं स्मृतिजनक भावनाख्य संस्कार नष्ट होते हैं - यह तो सर्वानुभवसिद्ध है, क्योंकि विशिष्ट रोग आदि के बाद स्मृति मन्द हो जाती है। कार्यता अवच्छेदकधर्म कुक्षि में योग्यत्व का प्रवेश करने पर उपर्युक्त टोप को अवकाश नहीं है, क्योंकि संस्कार योग्य गुण नहीं होने की वजह नाश्यताकोदि से भूत बनता है । योग्यता का अर्थ है वेगाऽवृत्ति योग्य जाति । संस्कार के तीन प्रकार हैं वेग, भावना एवं स्थितिस्थापकता इस तरह भावना भी एक प्रकार का संस्कार होने से बेगाऽवृत्ति योग्य जाति से शून्य है । अतएव वह योग्य = वेगाऽवृत्तियोग्यजातिमान् नहीं है । योग्यता का उपर्युक्त निर्वचन करने का दूसरा लाभ यह है कि निर्विकल्प ज्ञान एवं जीवनयोनियत्न (जीवननिर्वाहक प्रयत्न, जिससे वासोच्छवास, रक्तभ्रमण आदि प्रवृत्ति चल रही है उस ) का भी योग्यविशेषगुणनाश्यताकोटि में सङ्ग्रह हो जायेगा, क्योंकि वेग में नहीं रहनेवाली प्रत्यनयोग्य ज्ञानत्व एवं यत्नत्व-जाति क्रमशः दोनों में रहती है । अतः निर्विकल्पक ज्ञान एवं जीवनयोनि यत्न का भी स्वोत्तर उत्पन्न इच्छादि से नाश हो सकेगा ।
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"५३२ मध्यमस्याद्वादरहस्य स्खण्डः ३ का ५४ * मुक्नालामनुपा दिनकरीपनिनिरामः **
व्दितीयक्षणोत्पन्नाऽदृष्टसंयोगादिनाऽपेक्षाबुब्देस्तृतीयक्षणे नाशवारणाय कारणतावच्छेदके 'योग्य'ति 'विशेषेति च योग्यजातिमदर्थकं उभयाऽवृत्यर्थकच । सत योग्यपदमतीन्द्रियजातिशून्यार्थकमिति, ता, गौरवात् ।
-* जयाता* संयोगादिनराश व्यभिचारवारणाय विशेषति एतेन पन्द्रियकगणत्वन्याप्यजातिमत्त्वं योग्यत्वमिति मञ्जूषाकारवचनमपाकृतम्, स्मृत्यादिनाश्यसंस्कारनाशे व्यतिरेकन्यभिचारतादवस्थ्यात्, संस्कारत्वस्य वेगवृजित्न गन्द्रियकत्वात् ।
नन्यस्तु कार्यतावच्छेदक योग्यत्वविशेषनिवेशनं परं कारणतावच्छेदक तयोः प्रबंदी कि प्रयोजनं ? इत्याशड़कायां वदन्ति • द्वितीयक्षणोत्पन्नादृष्टसंयोगादिना = अपेक्षाबुद्धिद्वितीयक्षागात्पन्ना दृष्टसंयोग-विभागादिना, अपेक्षाबुद्धः तृतीयक्षणे = अपक्षाबुद्धितृतीयक्षणे. नाशः स्यात् एकाधिकरण्याचांच्छन्नरवाज्यवहितपूर्व पतित्वसम्बन्धन अदृष्टादिगुणरय प्रतियोगितया नाझाधिकरणविधया भिमतापेक्षावृद्धी सचान । न च तृतीरक्षण नन्नाशा भनि, तस्याः चतुर्थक्षणनिध्वंसप्रतियोगित्वात् । अनरनेन नस्या: तनीयक्षण नाशवारणाय कारणतावच्छेदक = नाशकतावच्छेदकधर्मकक्षा 'योग्य' नि "विशेषेति चेति । नादशाउदृष्टादनान्द्रियसंयागादिना तृतीयक्षर्ण तमाशबारणाम योग्यत्वं गुणविशेषणं नाशसंयोगविभागादिना तृतीयक्षण तन्त्राशापाकरणाय च 'विशेष ति गुणविशेषणमित्यर्थः । तत्रिवचनमाबेदयन्नि - योग्यजातिमदर्थकं योग्यपदम । लौक्किप्रत्यक्षस्वरूपयोग्यगुणवत्र्याप्य - जानिमान् योग्यपदप्रतिपादन इत्यर्थः । तनाऽदृष्टादी लोकिकनत्यक्षस्वरूपयोग्यगुणत्वनातिसत्त्वेदपि न क्षतिः । उभयाऽवृत्त्यर्थकश्च । विशेषपदम् । द्रव्यविभाजककधर्ममात्रावच्छिन्नाधारवानिरूपिताधयनावान विशेषपदार्थ इति तात्पर्यम् । तेन ज्ञानादः चैत्रमैत्रांभयनिवे.पि न तिः । न च त्रसमंवतं ज्ञानं मैत्रसमवेतज्ञानादन्यदेवनि नैकमुभयवृनीति वाच्यम्, एवं सति परिमाणादरपि विशेष नुगत्यपराङ्गगात । एतेन सन्यासमवृत्तिगुणी विज्ञपगुणः इत्यपि प्रत्याख्यातम्, एकत्वादरपि विशेषगुणत्यप्रसङ्गगाचत्यादिक मदुपदिशा बिभावनीयम् ।
यत्त -> योग्यपदमतीन्द्रियजाठिशन्याकमिति र-तन्न समीचीनम. गौरवात लौकिकसाक्षात्कारकारणतावच्छेदक गणतन्यायजातिमत्वापेक्षया लौकिकसाक्षात्कारकारतानवच्छदकगणत्वच्याप्य जातिरन्यवरय गुलशरीरकत्वम् । नधा व व्यभिचार. वारकत्वाऽभावन व्यर्धगौरवमित्यत्र ताटायम् । एतेन याम्यत्वञ्च लौकिकसाक्षात्कारविश्यनिर्विकल्पकान्यतरस्वं अतीन्द्रियजातिशून्यत्वं वा' (का. २७. दि.पू. २४४) इति महादेववचनं परास्तम, जीवनयोनियत्नस्या योग्यत्वापनेश्च । अत एव लीकिकसाक्षात्कारविषयनिर्विकल्पक-जीवनयानियत्नान्यतमत्वं नाशक्तावच्छेदककोटिप्पविष्टं योग्यलमित्यपि पराकृतम, महागौरवात् ।
2 योग्यता एवं विशेष का निर्वचन - द्विता. । यहाँ यह शंका हो सकती है कि -> 'कारणतावच्छेदकधर्मकोटि में योग्यत्व और विशेषत्व का गुणविशेषणविधया निवेश न किया जाय तो क्या दोष है ? व्यर्थ गौरच क्यों करता ?' - मगर इसका समाधान यह है कि गुणत्व को ही उक्त मम्मन्य से नाशकारणतावच्छेदक माना जाय नब तो अपेक्षांबुद्धि के द्वितीय क्षण में उत्पन्न अदृष्ट (धर्म-अधर्म), संशेग आदि ऐकाधिकरण्यावच्छिन्न स्वाऽव्यवाहिनपूर्ववृत्तित्वसम्बन्ध से अपेक्षाबुद्धि में, जो प्रतियोगितामम्बन्ध मे अपेक्षावुद्धिनाशात्मक कार्य के अधिकरणविधषा अभिमत है. रइने से अपेक्षाबुद्धि के तृतीय क्षण में ही अपेक्षानुद्धि का नाश हो जायगा । मगर अपेक्षाबुद्धि तो अपने ननुर्घ क्षण में नष्ट होती है - यह तो नैयायिकसम्प्रदायसिद्ध हकीकत है । अतः ननिवारणार्थ नाशकतावच्छंदककोटि में योग्यत्व और विशेपत्व का गुणचिशेपणविधया प्रवेश करना आवश्यक है। योग्यपद का अर्थ है योग्यजातिमान अर्थान लौकिक्प्रत्यक्षस्वरूपयोग्यजातिवाला । अपेक्षाद्धि के द्वितीय क्षण में उत्पन्न अदृए = धर्म अधर्म तो योग्य नहीं है, क्योंकि उसमें लौकिकप्रत्यक्षस्वरूपाग्य जानि रहनी नहीं है। इस तरह वियोप का अर्थ है उभयावृति पानी दो विज्ञानीय द्रव्य में न रहनेवाला । संयोग नो आत्मा और पृथ्वी आदि विजातीय दो द्रव्य में रहने से विशपगुण नहीं है । इस तरह अपेक्षाबुद्धि के द्वितीय क्षण में उत्पन्न अदृष्ट गुण अयोग्य होने से पूर्व संयोगादि विशेषगुण नहीं होने में उनसे अपेक्षाबुद्धि का तृतीय क्षण में नाश होने की आपत्ति को अवकाश नहीं है।
चनु, । यहाँ अन्य विद्वान् का यह कथन है कि -> 'योग्यपट अतीन्द्रियजातिशून्य अर्घ का प्रतिपादक है 1 अदृष्ट आदि अतीन्द्रिय जातिवाल होने से अयोग्य है। अतएव यह नाक नहीं हो सकता है «- मगर यह ठोक नहीं है, क्योंकि योग्यजातिमान् इस अर्थ की अपेक्षा अतीन्द्रियजानिशम्प = प्रत्यक्षायोग्यजानिमभाववाला यह अर्थ गुगभन है । व्यभिचागदिदोषनिवारकन्न नहीं होने से यह गौरव अप्रामाणिक है।
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* अपेक्षाबुद्धिनाय विचार: * अपेक्षाबुन्दिनाशे तु ब्दित्वनिर्विकल्पकत्वेन पृथक्कारणतेति न तस्याः तृतीयक्षणे नाशः । अत्र स्वपूर्ववृत्तित्वं स्वाधिकरणक्षणाऽव्यवहितपूर्वक्षणवृत्तित्वमिति चरमज्ञानशब्दादिनाशे न व्यभिचार:, अनेन सम्बन्धन स्वस्यैव तर नाशकत्वात् ।।
* ज्ञायलता *वस्तुतस्तु अत्र पूर्वत्र सर्वत्र निरुक्तं यदपि योग्यत्वं कक्षीक्रियते तन्न चारु, अपेक्षानुद्धिद्वितीयक्षपात्पनेच्छादिना तृतीयाणे । अपेक्षाबुद्धिनाशापत्ते रित्वमेवेति नाशकताबच्छेदके योग्यत्वविदोपत्ननिवेशाचैयर्थ्यमेव । न च अपेक्षाबुद्धिद्वितीयक्षणे तदधिकरणों ज्ञानेच्छादिजनकसामग्रीसत्त्वेऽपि ज्ञानेच्छादिकं मोत्पद्यत इति वाच्यम, मानाभावात् । न हि प्रयोजनकभङ्गगमयेन सामग्री कार्य नार्जयति । यद्वा शक्यत एवमपि वक्तुं यदुत कारणसत्रेऽपि योग्यविदोषगुणोदीक्षावुद्धिद्वितीयक्षणे तदधिकरणं भवोत्पद्यते, अगत्या कस्यचित्प्रतिबन्धकस्य कल्पनादिति न दोषः । पाद चात्रा प्रामाणिककल्पनागौरमिति विभाब्यते तदा अपक्षाबद्धि| भिन्नयोग्यविभुविशेषगुणनाशत्वस्यैव कार्यतावच्छेदकत्वमस्तु अपक्षाबुद्धिनाशे = अपेक्षाबुद्धिप्रतियोगिकनाशत्वावच्छिन्नं प्रति तु द्वित्वनिर्विकल्पकत्वन पृथकारणता 1 ततश्च योग्यविशेषगुणनाश्यतावच्छेदकानाक्रान्नन्वन न तस्याः = अपेक्षाबुद्धः तृतीयक्षणे = स्वनृतीयक्षणे नाशः । कार्यतावच्छेदककाटी अपेक्षाशुद्धिभिन्नत्वनिवेशे तु कारणतावच्छेदककोटी योग्यचविशेषत्वनिवशा नर कर्तव्यः, प्रयोजनविरहेण गौरवात 'परन्तु मूलसिद्धान्तभड़गो दुर्गार इति अनुपटमेव वक्ष्यामः ॥
अत्रेनं बोध्यम् - प्रथम 'अयमेकोऽयमेक' इत्येवंरूपाऽपेक्षाबुद्धिर्जायते. ततो द्वित्वासादः, ततो विदोषणज्ञान द्वित्वत्वानविकल्पात्मक तना दित्वत्वविराष्टद्वितप्रारंभोगबन्दिनगलाच. ततो द्वित्वनाश इति नैयायिकप्रक्रिया । एवञ्च चापेक्षावृद्धिः क्षणत्रयमवनिपते । अपेक्षाबद्धेः क्षगद्रयमात्रस्थायित्व द्वित्वदनिर्विकल्पककाले पक्षाचद्भिनाश तदनन्तरं द्वित्वम्यंत्र नाशाद विषयाभावेन द्वित्वस्य प्रत्यक्षं न स्यादित्यतो रक्षाबुद्धः त्रिक्षगावस्थायित्वं कलप्यते ।
नन्येचं सति चरमज्ञान-दाब्द-सुषुप्तिप्राकृक्षणोत्पत्रकानादिनाशकदुर्भिक्षं स्पादित्याशड़कायां व्याचक्षते → अन्न - कारणतावच्छेदकसम्बन्धशारीरकुक्षी स्वपूर्ववृत्तित्वं = स्वाधिकरणक्षणाऽव्यवहितपूर्वक्षणवृत्तित्वमिति चरमज्ञानशब्दादिनाशे न व्यभिचारः । न च तत्समानाधिकरणस्य तदुत्तरवृत्तेः योग्यविशेषगुणस्य बिरहात कुता न व्यभिचार इति वाच्यम् , यन; अनन = स्वाधिकरणक्षणान्यवहितपर्वक्षणजिवलक्षणेन सम्बन्धेन स्वस्यैव चरमज्ञानादेरेव द्वितीयक्षणविशिष्टस्य सतः तत्र = नरम . ज्ञानादी नाशकत्वादिति ।
नित्यनिर्विकल्प अपेक्षामुहिनाशक - जैयायिक पं. । यहाँ यह शशा हो सकती है कि → 'अपेक्षावृद्धि का स्वद्वितीयक्षण उत्पन्न अदृष्ट, मयोग आदि से नाश नहीं होगा नर उसका नाशक कौन होगा ?' - इसका समाधान यह है कि द्वित्वत्व का निर्विकल्पक प्रत्यक्ष अपेक्षावृद्धि का नादाक है । पहाँ नैयायिकसम्प्रदाय की यह प्रक्रिया है कि प्रधम क्षण में 'अयमेकः अयमंकः' इत्याकारक अपक्षावुद्धि उत्पन्न होती है। द्वितीय क्षण में द्वित्व संख्या उत्पन होती है । तृतीय क्षण में द्वित्वत्व जाति का निर्विकल्पक प्रत्यन्न होगा। चतुर्थक्षण में द्वित्वत्वविशिष्ट द्वित्व का प्रत्यक्ष होगा और उसी क्षण में अपेक्षानुद्धि का नाश होगा। इस तरह स्वास्थ्यव. हितोत्तरवृनित्वामानाधिकरण्यसम्बन्ध से द्वित्वत्वनिर्विकल्पक प्रत्यक्ष अपेक्षाबुद्धि का नाशक नंगा। इसलिए अपक्षाबुद्धि के तृतीय क्षण में अपेक्षाबुद्धि के नाश का कोई प्रसङ्ग नहीं है।
परमशाजादिजासहै - यारो अत्र स्व. । योग्यविभविशंपगुणनाशकतावच्छेदकसम्बन्ध में जो स्वापूर्वनिता निविष्ट है उसका अर्थ है स्वाधिकरण - क्षणाऽव्यवहितपूर्वक्षणवृत्तित्व । जैसे द्वितीय क्षण में उत्पन्न ज्ञान का अधिकरण क्षण हे द्वितीय क्षण और उसका अन्य हित पूर्व क्षण है प्रथम क्षण । प्रधमक्षणवृत्ति है तत्क्षणापत्र ज्ञान, इच्छा आदि । अतः द्वितीयक्षणोत्पन्न ज्ञान उक्तमम्बन्ध में प्रथमक्षणापत्र ज्ञान-इच्छा आदि में रह कर प्राथमिक जान इच्छा आदि के तृतीय क्षण में उसका नाग करेगा । या निरूपण करने का तात्पर्य यह है कि चरम ज्ञान, चरम शब्द आदि के नाश में व्यभिचार न हो । कहने का मतलब यह है कि चरम ज्ञान, बग्म शब्द आदि के अव्यवहित उनर श्रण में न तो कोई ज्ञान, इरा आदि उत्पन्न होते हैं और न तो शब्द उत्पन्न होता है । अतः उसके विनाशक का दुपकाल पडेगा । मगर स्वपूर्वचतितापट का उपयुक्त अर्थ मान्य करने पर उक्त दोप का यानी चरमज्ञानादिविनाशकाभाव का या चिना विनाशक के चरमझानादि के नाश से व्यतिरेक व्यभिचार का प्रराङ्ग
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७३५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये गण्डः ३
* स्वस्य स्वनाशकत्वमांसा
शो पूर्ववृत्तित्वं स्वप्रागभावाधिक रणक्षणवृतित्वं, अन्यथा स्वस्मिन् स्वनाशकत्वापतेरिति निरस्तम्, चरमज्ञानादाविवाऽन्यत्राऽपि ज्ञानान्तरस्येव स्वस्य नियमबलायातनाशकत्वस्य प्रामाणिकत्वात् ।
ॐ गयलता
एतेन निरुक्तसम्बन्धस्य पूर्ववृत्तित्वप्रतिपादनेन निरस्तमित्यनेनारयान्वयः । पूर्ववृत्तित्वं पूर्ववृनित्यदप्रतिपाद्यं, स्वप्रागभावाधिकरणक्षणवृत्तित्वं यथा इच्छांनगत्पन्नस ज्ञानस्य यः प्रागभावः तदधिकरणीभूतयः पूर्वक्षणः तद्वृत्तिः इच्छापदार्थः । अतः ज्ञानं स्वप्रागभावाधिकरणवृत्तित्वसम्भवितुमर्हति । यद्यपि स्वप्रागभावाधि करणक्षणवृत्तित्वन्तु व्यवहितपूर्वियादावप्यस्ति तथापि स्वप्रागभावाधिकरणक्षणप्रागभावानधिकरणत्वं सति स्वप्रागभावाधिकरण यः क्षणः तदुद्वृत्नित्वरूपं स्वप्रागभावाधिकरण क्षणवृत्तित्वमित्यत्र तात्पर्य दीपः । अन्यथा = पूर्ववृत्तित्वपदप्रतिपाद्ये प्रागभावाऽप्रवेश स्वस्मिन् ज्ञानादौ स्वनाशकत्वापत्तेः द्वितीयक्षणविशिष्टस्य ज्ञानस्य अधिकरणभूती यः वर्तमानः क्षणः तदव्यवहितपूर्वक्षणं वृनि यत् उत्पद्यमानं स्वं तत्र स्वाधिकररणक्षणाव्यवहित पूर्वेक्षणवृत्तित्वसम्बन्धेन द्वितीयक्षणविशिष्टस्य ज्ञानस्य सन्वेन विशिष्टस्य स्वस्यैव
स्वनाशकत्वप्रसङ्गः ।
का. १५
111
तन्निरासार्थमाहुः चरमज्ञानादी व अन्यत्राऽपि - अचरमज्ञानादी अपि ज्ञानान्तरस्येव स्वात्तस्वर्तिनः मित्रस्य ज्ञानादेः इव स्वस्य नियमबलायातनाशकत्वस्य श्रीक्तकार्यकारणभावप्राप्तनाशजनकत्वस्य प्रामाणिकत्वात् = प्रमाणसिद्धत्वात् । चरमज्ञानादी यथा द्वितीयक्षणविशिष्टस्य स्वस्ल नाशकत्वं यथा सम्प्रतिपन्नं तदेव अचरमज्ञानशब्दादी द्वितीयक्षणविशिष्टस्य स्वस्य नाशकत्वमपि प्रामाणिकम्, योग्यविभुविशेषगुणं निरुक्तसम्बन्धेन योग्यविशेषगुणस्प नाशकत्वस्यो भयमतसिद्धत्वात् । यथा ज्ञानान्तरं स्वान्यवहितोत्तरोत्पन्नयोग्यविशेषगुणत्वेन स्वपुर्ववर्निज्ञानेच्छादिनाशकं तद्वद् द्वितीयक्षणविशिष्टं स्वमपि तथा । प्रयोगस्त्येवं द्वितीयक्षणविशिष्टमचरमज्ञानादि अव्यवहितपूर्ववर्तिज्ञानादिनाशके उत्तरवर्नियोग्यविशेषगुणत्वात् अल्पवहितांनरवर्तिज्ञानान्तरादिवत् द्वितीयक्षणविशिष्टचरमज्ञानादिव । एतेन स्वस्य स्वनाशकत्वं कथमिति निराकृतम् ।
C
=
=
नहीं आयेगा, क्योंकि चरमज्ञानादि द्वितीय क्षण में द्वितीयक्षणविशिष्ट बनता है और स्वाधिकरण क्षणाऽव्यवहित पूर्व क्षण में रहने वाले चरम ज्ञानादि में स्वाधिकरणक्षणाऽव्यवहितपूर्व क्षणवृत्तित्वसम्बन्ध से रहता है। वह योग्य विशेष गुण भी है ही । अतः द्वितीयक्षणविशिष्ट चरमज्ञानादि ही प्रथमक्षणविशिष्ट चरमज्ञानादि का नाश्य के तृतीय क्षण में, नाश कर सकता है । मतलब चरम ज्ञानादि का नाशक चरम ज्ञानादि डी है ।
एतन. । यहाँ अन्य नैयायिक विद्वानों का यह मत है कि > स्वपूर्ववर्तितापद का अर्थ है स्वप्रागभावाधिकरणक्षणवृत्तित्व | जैसे स्व = नाशक द्वितीयक्षणोत्पन्न ज्ञानादि, उसके प्रागभाव का अधिकरण क्षण है प्रथम क्षण, उसमें वृत्ति है प्रथमक्षणोत्पन ज्ञानादि । अतः स्वप्रागभावाधिकरण क्षणवृत्तित्वसम्बन्ध से द्वितीयक्षणोत्पन्न ज्ञानादि प्रथमक्षणोत्पन्न ज्ञानादि में रह कर नाश्यतृतीयक्षण में उसका नाश करेगा । यदि स्वपूर्ववृत्तितापदार्थ में प्रागभाव का निवेश न किया जाय तब तो स्व में स्वनाशकता की आपत्ति आयेगी । वह इस तरह प्रथम क्षण में उत्पन्न इच्छा द्वितीय क्षण में द्वितीयक्षण से विशिष्ट बनती है और वह स्वाधिकरणक्षण द्वितीयक्षण से अव्यवहित पूर्व क्षण = प्रथम क्षण में वृत्ति रहने वाली इच्छा में, जो स्वात्मक = नाशकात्मक = नाशकाsभिन्न है, स्वाधिकरण क्षणावहितपूर्वक्षणवृत्तित्वसम्बन्ध से रह जायेगी । वह योग्य विशेषगुण तो है ही । अतः द्वितीयक्षणविशिष्ट इच्छा ही प्रथमक्षणविशिष्ट इच्छा की नाशक बनने की आपत्ति आयेगी। मगर अपने में अपना नाशकत्व तो अभिमत नहीं है । इसलिये पूर्ववृतित्व का अर्थ प्रागभावघटित करना चाहिए । तब इस प्रसंग को अवकाश नहीं है, क्योंकि प्रथम ritrea इच्छा का अधिकरण क्षण द्वितीयसमयविशिष्ट इच्छा = स्व के प्रागभाव का अधिकरण नहीं है'ा
=
चरम | मगर यह कमन असंगत प्रतीत होना है। इसका कारण यह है कि चरमज्ञान चरम शब्द आदि का जो योग्य विभुविशेषगुण है, नाशक सो उपर्युक्त रीति से द्वितीयसमयविशिष्ट चरमज्ञान आदि ही है यह सिद्ध हो चुका है। स्व में स्वनाशकता जब चरमज्ञानादि में मिद्ध ही है तब अचरम ज्ञान, अचरम इच्छा आदि के नाशकविधया नाय का ही स्वीकार करने में क्या बाधा है ? जैसे प्रथमसमयोत्पन्न अचरम इच्छा के द्वितीय क्षण में उत्पन्न होने वाला ज्ञान योग्य विशेषगुण हैं एवं स्वसामानाधिकरण्य-स्वाऽव्यवहितपूर्ववृत्तित्वसम्बन्ध से प्रथमसमयोत्पल इच्छा में रह कर उसके तृतीय क्षण में उसका नावाक | बनता है ठीक वैसे ही द्वितीयक्षणविशिष्ट इच्छा, जो प्रथम क्षण में उत्पन्न हुई है, भी योग्यविशेषगुण है एवं स्वसामानाधिकरण्यावच्छिनस्वाऽव्यवहितपूर्ववृत्तित्वसम्बन्ध से प्रथमक्षणोत्पन इच्छा स्व में रह कर तृतीय क्षण में अपनी नाशक हो सकती है । दोनों में प्रमाणसिद्ध कार्यकारणभाव तो समान ही है । प्रमाणसिद्ध वस्तु का अपलाप कैसे किया जा सकता है ! यह मानना
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* दिनकरभद्रमनिरासः युक्ततत, अन्यथा चरमज्ञानादी नाशकान्तरकल्पनागौरवादिति ध्येयम् ।
इदन्तु ध्येयम् - यदेकाधिकरणवृत्तित्व-स्वपूर्वकालीतत्वोशयसम्बन्धो नाशकतावच्छेदक:, अन्यथा देश-कालयोस्वद्यावच्छेदकभावे विनिगमनाविरहादिति गि।
- IIMill - युक्तश्च एतत् = स्वस्य द्वितीय क्षणविशिष्टम्प पुर्वक्षण शिष्यस्वनाशकत्वानिपाटनम, अन्यथा - स्वस्य स्वनाशकत्वानगीकार, चरमज्ञानादी = चरमज्ञानच्छाशब्दादी नित्यत्वापानवारणाप क्षणिकन्यापपादनाय च नाशकान्तरकल्पनागौरवादिति। | अचरमान्यवहितपूर्ववर्तिझाननाशादः चरमज्ञानादिनाशकन्वकल्पने गौरवादित्यर्थः । एतेन 'चरमस्य नृतात्पशन्देनोपान्त्यश्ब्दनाशेन वा नाम' (का, १६८ दि.पू. ८.३) इनि दिनकरवचनं पगस्तम् ।
नन एकाधिकरण्यावन्छिन्नस्बा व्यवहितपूर्वदृत्तित्वाय कारणतावच्छेदकसम्बन्धत्वं यदुत स्वाव्याहतपूर्ववनिता वच्छिन्नकाधिकरण्यस्य ? इत्यत्र विनिगमका भावनाभयो : नथात्वे गौरमित्या शाकायामाहः इदन्तु = अनादं वक्ष्यमाणन्तु ध्येयम् - यत् एकाधिकरणवृतित्व-स्वपूर्वकालीनत्वोभयसम्बन्ध: नाशकतावच्छंदवः - दया: स्वातन्त्र्येण नाशजनकतावदगम्बन्धत्वमिति भावः । अन्यथा = स्वातन्त्र्येण तथात्वगनायुपगम्या:न्यत्रस्य नाशकारणतायचंदकसम्बन्धविशेषणविधया निवसे, तु देशकालयोः - स्वममानाधिकरणनिरूपिनमित्व-स्वाव्याहतपूर्वकालनिरूपितनित्वयाः अवच्छेद्यावच्छेदकभावे = विशेषणविशेष्यभाव विनिगमनाविरहात् उभया: विशिष्टया : गुरत्स्योः नाशकत बच्छदलसम्बन्धत्वं प्रमयत । तथा च महा. गौरवापात: कारणतावच्छंदकसम्बन्धभेद कारणनाभेदन नानाकार्यकारणभावकल्पनापरिनि । न चबपि भगवज्ज्ञानेन्छाकृतीनामुक्तरीत्येव स्वन नाशापनि: नाशकनावच्छेदककंदी जन्यत्वनिवेशादित्यादिसूचना, दिगिन्युक्तम् ।
अत्रेदं मनाग मीमांस्यत -> चरमशन्द-सपग्निप्राककालात्पन्नज्ञानेन्छादिवन औक्षाबुद्धिः स्वयमेव द्वितीयक्षविशिष्टा | सती स्वात्गानं कुता न विनाशयत् : स्वोत्पन्यधिकरणाचागमागभानाधिकरणक्षणप्रागनावानधिकर रवान्यन्यधिकरणक्षणप्रामभावाधिकरणक्षणवृत्तित्वरूपस्य स्वाऽन्यवहितपूर्ववृत्नित्वस्य निवश तु सुतिप्राककालोत्पत्रज्ञानच्छादिविनाइ मादुमिकापनः । न चा पक्षावृद्धिनाशे द्वित्वनिर्विकल्पकस्य विशेषसामग्रीत्वान्न तृतीयांपेक्षावृद्धिविनाश इत्यपि चार, तदा कारणतावदककाटी याम्यवादावैयपिनः । एतेन विशेषयनिवेशनमपि प्रत्याख्यातन् । यदा तु योग्यत्त्वविशेषत्वे न कारणतावरदककांटी चिदशनाम तदा सुषप्तिप्राककालोत्पत्रज्ञानेन्द्रलादेस्तदात्मनि विमा यत्र क्वापि प्रदश तदत्तरक्षगमवश्यमेवगगमानना::नबरनपरिस्पन्द्रमामा गम्ति - परमाणुसन्नानसंयोगमन्नानान्त:पातिना केनचित्संयोगन नाश उपपद्यत इति ऐकाधिकरण्य-स्वाऽव्याहतपूर्वाणनित्यनियमनक्लेशोपि नावश्यकः । न चैवं शन्दादिनन्छादीनां नाशापनिरिति वाच्यम्, किमिच्छाद्वितीयक्षणोत्पन्नंग डायनच्छाया नारा आपयन आहास्चित् इच्छोत्पनिक्षणोत्पनेन ? इति विकल्पयुगलशस्त्रप्रहारजर्जरितत्वात् । आद्यं त्विष्टापत्तिः, नीयन लायां तदव्यरहितपूर्ववृजिताविरहान् न तामड़गः । ततश्च सुषभप्राककालोत्पन्नज्ञानेच्छादनां यत्र कचिदात्मनि प्रधिव्यादी । युक्तिसंगत भी है, क्योंकि द्वितीयक्षणविशिष्ट इच्छादि वो बनाशक न माना जाय तब तो द्वितीयक्षणविशिष्ट चम्मतानादि को भी स्वनाशक नहीं माना जा सकेगा। इस परिस्थिति में चरम ज्ञानादि की नित्यत्वापत्ति के परिहागर्थ अ 'क की कल्पना करनी होगी, जो गौरवग्रस्त होने से मान्य नहीं हो सकती है । इस बात पर ध्यान देना चाहिए । - इदं । यहाँ दूसरा यह भी ध्यातव्य है कि योग्य विभुविझेपगुण के नाशकतावच्छेदकसम्बन्धविधया जो ऐकाधिकरण्यावाच्छन्नस्वाव्यवहितपूर्ववृत्तित्वसम्बन्ध का प्रदर्शन किया गया है उसका अर्थ यह है कि ऐकाधिकरण्य = एकाधिकरणवृतित्व = स्वसमानाधिकरणव और स्वाऽव्यवहितपूर्वक्षणवृत्तित्व दोनो स्वतन्त्र नाशकतावच्छेदकसम्बन्ध हैं, न कि एकविशिष्टाऽपर । यदि ऐसा न माना जाय यानी एकचिशिष्टाऽपर को नाशकारणतावच्छेदकसम्बन्ध माना जाय तब विशेषणविधया - अबच्छंदकविषया किसका ग्रहण किया जाय और विशेष्यविधया = अवच्छेगविधया क्सिका ग्रहण किया जाप ? इस विषय में कोई चिनिगमक नहीं होगा । अर्थात् देश की भाँति काल को भी अवच्छेदककुक्षि में प्रविष्ट किया जा सकता है एवं काल की भाँनि देश का भी अवच्छेदकोदि में निवेश हो सकता है। मेकाधिकरण्य यह भाग देशवदित है अर्थात देश उसका घटक है एवं स्वान्यवहित. पूर्वक्षणवृतित्व यह अंश कालटिन है यानी काल उसका घटक है । अतः ऐकाधिकरण्यावच्छिन्नस्वाइन्यवहितपूर्वक्षणवृत्तित्व को नाशकतावच्छंदक मानना या स्वाव्यवहितपूर्वक्षणवृतित्वावच्छिन्नमामानाधिकरण्य को ? इस समस्या का कोई समाधान नहीं मिलने से दोनों गुरुभूत सम्बन्धों को नाशकतावच्छेदक मानने होंगे। इसकी अपेक्षा तो मुनासिब यही है कि लघुभूत स्वसामानाधिकरण्य और स्वान्यवहितपूर्वक्षणवृत्तित्व दो सम्बन्ध को स्वातन्पण योग्यविभुविशेषगुणनापाकतावच्छंदक सम्बन्ध माना जाय । इस विषय
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५३६ मध्यमम्पादादरहस्ये खण्डः ३ . का.? *नृसिंह पट्टाभिराम -गदाधरमतयोतनम *
स्साहादितास्त → नित्यानित्यः शब्दः, केवलनित्यत्वे प्रकृतिप्रत्ययादिविभागेनाऽनु
URBTNICE:USLIM Tua. तदुत्तरक्षणमुत्पन्नन येन केनाय गुणेन नाशः सम्भवति । एवञ्च प्रतियोगितासम्बन्धेन योग्यविभुविशेषगुणनाशत्वावच्छिन्न प्रति ।। स्वाज्यवहितपूर्वक्षणवृत्तित्वसम्बन्धेन गुणत्वेन द्रव्यन्येन पदार्थत्वेन वा कारणतंत्येव वक्तुमर्हति । न चैवं मूलसिद्धान्तभङ्गेन खेदः कर्तव्यः. सुयुक्तिनिर्णीनेऽ नस्याऽप्रयोजकत्वेन हेयन्वादिनि दिक्।
नृसिंहस्तु प्रतियोगितासम्बन्धेन योग्यविभुबिशेषगुणनाशं प्रति स्यान्यरहितपूर्ववृत्तित्वसम्बन्धेन गुणत्वन कारणत्वम् । कार्यतावच्छेदकं तु यावन्तो योग्यविभुविदोषणध्वंसाम्नावदन्यतमत्वं स्वाश्रयप्रतियोगिकत्व-कालिकत्रिंशेषणत्वननुभयसम्बन्धन बुद्धित्व-सुखत्व-दुःखत्वेच्छात्व-द्वषत्व-यत्नत्व-इन्दत्वतदन्यतमत्वावच्छिन्नं वा बोध्यम् । अत' नाननुगमः । वस्तुनः कार्यनाटकाननगमेऽपि न क्षतिरिति तच्चम । प्रतियोगितासम्बन्धनाऽपेक्षावृद्धिनाशं प्रति स्वनागभावाधिकरणक्षणप्रागभावानधिकरणक्षणवृतित्वस्वसमानकालीनत्वा भयसम्बन्धेन गणवन कारणत्वमिति समानाधिकरणाणसाधारन नादयनाशकभावादित्याचष्ट ___कस्मिन् क्षण नानाविदोषगुणव्यक्तीनां नाशेन तद्गक्तिनाशं प्रति तनदुव्यक्तित्वेन कारणत्वकल्पनं बहुतरादिकार्यः | कारणभावाधिक्यसम्पादकमतो लाघवेन एनलक्षणोत्पनयोग्य विभविशेषगणलंग नाश्यना पतत्मणोत्तरक्षगनित्वविशिष्ट-योग्यविभविशेषगुणत्वेन नाशकता, अपेक्षाबुद्धिनाशे तु द्वित्वप्रत्यन्नं विशेषसामग्री परमज्ञानादिकं तूतरक्षणवृत्तित्वविशिष्टं स्वमेव नाशकं ।।। एतत्क्षणोतानसकलविशेषगुषमाधारणश्वेदमित्येके ।
स्वत्वस्य तत्तव्यक्तिपर्यवस्तितया तत्तद्गुणस्य तत्तद्गुणों नाशको पेक्षाबुद्धरनु द्वित्वप्रत्यक्षमित्यन्ये ।
पट्टाभिरामस्तु रतियोगितासम्बन्धना पेक्षाबुद्ध्यन्ययोग्यविशेषगुणनादात्वावच्छिन्नं प्रति तादात्म्यसम्बन्धना पगबुद्धयन्ययोग्य. विभविशेषगुणत्वन कारणतान्तरं स्वीकृत्य स्वाव्यानपूर्वक्षावृतित्वसम्बन्धन गुणस्य नादात्म्पसम्बन्धनापेक्षाकुद्यन्योन्यविभुविशेषगुणस्य च परम्परसहकारित्वस्वीकार' (का, २७ मं.पू. २.१) इत्याह ।
वस्तुतस्तृनरवर्तिना योग्यविशेषगुणानां नाशकत्वमय न सम्भवति, कारणस्य कार्याव्यवहिनपूर्वक्षणनित्वात् । तम् योन्यविभुविशेषगुणानां स्यानरवर्तिविशेषगुणनाश्यत्वं इत्यरय कोऽर्थः । इति चेत् ? एफयोग्यविशेषगुणोत्पादक्षण नदति आन्मान योग्य विशेषगुणान्तरानुत्पादनियम इत्यर्थ इति तु मामान्यलक्षणान्याख्यायां गदाधरः । इत्यञ्च .
नित्यनिरंशव्यापकरूपों यः पर्यकल्पि किल शब्दः । अति स न घटाकोटिं तद्विपरीतस्तताउस्त वृथाः ॥शा इति नैयायिकाः । इत्थं मिट्यामतिभिरपरैस्तस्करलंयमाने त्रैलोक्यार्थप्रकटनपटावत्र सर्वजतत्त्वं । तेषां सम्प्रत्यमलमतयो निग्रहार्थ यतन्त म्यादादज्ञाः स्फुरितनिशितन्यायशवप्रहारः ।।२।।
नदेवाह . स्याद्वादिनस्तु नित्यानित्यः = नित्यत्वसम्भिन्नानित्यत्वाश्रयः शब्दः । कुतः ? केवलनित्यत्वे - . अनित्यत्वयधिकरणनित्यत्वे, प्रकृतिप्रत्ययादिविभागेन अनुशासनादिना = शब्दानुशासनकोझाप्तवचनन्यवहारादिना, साधना
में बहुत कुछ विचार हो सकता है । यह तो एक दिग्दर्शन है . इसकी सूचना देने के लिए विग शब्द का प्रयोग किया | गया है । यह नैयायिकों की मान्यता है।
इस तरह शन्न में एकान्तनित्यत्व का साधक मीमांमकों का प्रतिपादन क्या है तथा नैयायिकों का एकान्तक्षणिकल = निरन्वयनाश का समर्थक वक्तव्य क्या है ? इसका निरूपण प्रकग्गकार श्रीमद्जी ने बई ठाट से किया है। अब प्रकरणकार उपर्युक्त दोनों मत की समालोचना करने के लिए शब्द के सम्बन्धी स्याद्वादियों के मन्तव्य का प्रदर्शन कर रहे हैं। अब सुनिये स्यादादी को।
* शुष्द नित्यानित्य है - स्याहादी * स्वा. । शब न तो केवल निन्य है और न तो केवल अनित्य है. किन्नु नित्यानित्य है। इसका कारण यह है कि शब्द को केवल नित्य मानने पर शब्द की प्रकृति, प्रत्यय आदि विभागपूर्वक अनुशासन = शन्दानुशासन = व्याकरण आदि द्वारा साधनिका अनुपपन्न बन मायगी । आशय यह है कि शब्द सर्वथा नित्य होगा ना तो बाद में विकार ही न हो सकेगा, क्योंकि विकृति नित्यप्रकृति नहीं है। इस परिस्थिति में इकार का यकार . और यकार का इवार आदि नहीं
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* पाणिनिसूत्र न्यायभाप्य न्याहादानाकर-वृहनि लघुन्यासादिसंवादः * शासनादिना साधनानुजप, केसा नित्यत्यपि क्षति पत्र प्रकृतिप्रत्ययादिनोपस्काराधानासाभवात् । अत एवोक्तं स्तुतिकतेच 'सिन्दिः स्यान्दादात्' (सि.हे. 9/9/२) इति ।
- रायलतानुपपत्तेः । 'य' इनिप्रकृत: यकप्रत्यय-समभित्र्याहारे यकारस्थान इकारी विधीयन विध्यतीनि । एवं दरिअन' इत्यादी 'इको यणचि' (प्रा. मु. ६/१/७७) इति पाणिनिसूत्रेण 'दश्यत्र' इति भवति । त्यदि स्यान प्रकृति विकारमाबो वर्णानां तस्य प्रकृतिनियमः स्यात् । दुष्टो विकारधर्मित्वं प्रकृतिनियमः । वर्णस्य नित्यत्वपक्षे इकार-यकारी वणी इत्युभयोर्नित्यत्वाद् विकारानु. पपत्तिः। सर्वथानित्यत्वे विनाशित्वात् कः कस्य विकार इति ? ततश्च यकादिरूपेण विक्रियमागवादिकारादनित्यत्वमप्य - नपायमेव । नदक्तं न्यायभाये-नित्यं नोपजायते नागति । अनुपजनापायथर्मक नित्यम्. अनिन्य पुनम्पजनापाययुक्तम् । न चान्तरणोपजनापाया विकार: सम्भवति । तद्यदि वीं विक्रियन्ते नित्यत्वमेपां निवर्तते' (न्या. मु. २/२/५१भा.) इति । स्याद्वादरत्नाकरे पि एकान्तनित्यत्वादा पूर्वापरस्वभावत्यागोगदानन्थिनिलक्षणपरिणामाभाव क्रमयोगपद्याभ्यामनियाबरोधावस्तु - त्वासम्भवादिति नैकान्तनित्यः दान्चः' (प्र.न.त. ४/१८ - च्या. र. पृ. ६२.५) ।
तहस्तुि विकारित्वात्मवलमनित्यत्वमेव मन्द इत्यादाकायामाह - केवलानित्यत्वेऽपि क्षणिके तत्र = शब्द प्रकृतिप्रत्ययादिना उपस्काराधानाऽसम्भवात् = विद्यमानत्वं सनि संस्कारान्तरप्राप्ति; नाम उपस्काराधानं, तस्याः शक्यत्वात, उत्पन्यनन्तरंगद विनाशिवात्त्र संस्कारोत्यादः । अनां नकवलं नित्यत्वं नापि केवलमनित्यत्तम गन्दस्य तयक्षणवृत्तिसप्रतियोगिलं चतुर्थभणनिध्वंसप्रतियोगिल्वे वा 'दधि अत्र' इत्युक्त्वा चिरं स्थित्वा 'दध्यन इत्येवं नैव स्यान, नदानी पूर्वोच्चरितशब्दविनागान, शब्दान्तरे तत्कल्पने गौरवादिनि नित्यत्वमम्मिन्नानियलसिद्धिः । अत एव = शब्दस्य नित्यानित्ययादव, उक्तं शब्दानुशासने स्तुतिकृता - दातरागस्तांत्रादिस्नतिकारण मूलकारेण श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरेण 'मिद्धिः स्याद्वादात्' । व्याख्यानञ्च बृहदवना तत्र ‘स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकं ततः स्याद्वादोऽनेकान्तबादः नित्यानित्यायनेकधम्शवतेकयस्त्वभ्युपगम इति यावत् : ननः सिद्धिः निष्पत्ति प्तिर्वा प्रकृतानां शब्दानां बेदितव्या । एकस्यैव हि हस्यदीघादिविधयाग्नेककारकमन्निपान: मामानाधिकरण्एं विशेषणविंदाष्यभावादयश्च स्याद्वादमन्तरण नापपद्यन्न । सर्वपापंदत्वाच शब्दानुशासनस्य सकलदर्शनसमूहात्मकस्याद्वादममाश्रयणमतिरमणीयम् (सि.हे. १/१/२ वृ.तृ.) । तदुक्तं लधुन्यास:पि 'यरमेव वर्गस्य हम्बत्वं विर्धयने तस्यैव दीर्घत्यादि । नम्य च सर्वात्मना नित्यत्व पूर्वधर्मनित्तिकम्य हम्बादिविधरसम्भवः । एवमनिटले पि जन्मनन्तरमेव विनाशान कम्य दरबन्या दिविधिरिनि वर्णरूपमामान्यात्मना नित्यो हस्वत्वादिधर्मात्मना वनित्य इति स्याद्वादः (सि.१, १// ल.न्या.) इति ॥
यपि मामांमकः तारत्वादीनां निधर्मत्वनक्तं तदपि न मनगरमम्, तत्प्रत्यक्षानुपपन:, सपाद्यन्न्तनविन गादीनामशब्दधर्मत्वेन च श्रीत्रस्य तत्रा व्यापारात् । तदनं स्याद्वादरत्नाकरे . 'तार-तारवादयां न गयधर्माः श्रावणल्यान, कादिवत्' (प्र.न.त. '४/१०/६५१) इत्यादि। 'सन्त तर्हि वनयो नाभसा' इति चेत् ? न, तथापि व्यक्तियोग्यतान्तर्भूतत्याज्जातियांग्यतायाः 'तारोऽयं' इत्पादी वन्यस्फुरणे तद्गततारत्वाद्यस्फुरणप्रसङ्गगाच्च । न चंदवं कन्यादिकमपि वायगतमेवारांप्येनेति दाद क्यं ग्यात. हो सकेगा। मगर 'दधि + अत्र = दध्यत्र' यहाँ इकार का यकारात्मक विकार होता है । इस तरह व्यथ् प्रकृति = शुद्ध धान का प्रत्यय के सानिध्य में 'विध्यति' ऐसा रूप बनता है, जिससे यकार का इकारात्मक विकार ज्ञात होता है। यह व्याकरण = गन्दानुशासन से अनुशासित = नियन्त्रित है। एकान्तनित्यत्वपक्ष में तो दान में तनिक भी परिवर्तन नहीं हो सकता है । अतः उसकी अन्यथा अनुपपत्ति के बल से शब्द को एकान्त नित्य नहीं माना जा सकता । इस तरह शब्द केवल अनित्य भी नहीं है, क्योंकि क्षणिक पदार्थ अनेकक्षणपर्यन्त स्थायी नहीं होने से उसमें संस्कारोत्पादन नामुमकिन है। जो चिरकालस्थायी होता है उसमें अन्य क सनिधान होने पर परिवर्तन होना मुमकिन है। मगर शब्दक्षणिकबादी नैयायिक के मत में शब्द प्रथम क्षण में उत्पन्न होता है, दूसरे क्षण में रहता है और तृतीय क्षण में नष्ट होना है। तब ता 'दधि + अत्र' ऐसा बोल कर घोड़ी देर तक ठहरने के बाद 'टध्यत्र ऐसा नहीं हो सकेगा, क्योंकि तब तो पूर्वोचरित गन बिनए हो चुके हैं । इसलिए शब्द को केवल क्षणिक भी नहीं माना जा सकता । इस तरह सर्वथा नित्यत्व और सर्वथा अनिन्यत्व पक्ष से व्यावन हो कर शब्द नित्यानित्व यानी नित्यत्वसंभिन्न अनित्यत्वबाला है-यह सिद्ध होता है। इसीलिये तो स्तुतिकार मूलकार श्रीमद् हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महागजा ने मिलाहम ान्दानुशासन में कहा है कि "सिद्धिः स्याद्वादान' यानी शन्दों की निप्पति या ज्ञाप्ति स्याहाद = अनेकान्तबाट के आश्रयण से ही हो सकती है। नित्यत्व, अनित्यत्व आदि विरुद्धत्वन प्रतीयमान धर्मों का एकत्र ममावेश एकान्तवाद में तो कैसे हो सकता ? इसलिए शब्द का नित्यानित्य मानना न्याय है।
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15. मध्यमस्या दादरहस्य खण्डः ३ का.११ * कोलाहलमान्यक्षाधिकार: *
इदन्तु ध्येयम् -> घटत्वादिना घटादिरिव शब्दत्वेन शब्दोऽनित्य एव, द्रव्यत्वेन तु नित्य इति । अत एव कादाचित्कत्वलक्षणपर्यायलक्षणेनोत्स्वातत्वातशब्दःपर्याय इत्यस्यविरुदम् ।
- जयलला - कादेधि वा वायुधर्मत्वं स्यान । नया , तद्गतस्पद दिवन त्वचा ग्रहणप्रसङ्गः श्रीवा:ग्राह्यत्वापनिवेति पूर्वगुक्तमेव । अवयविगुणत्वेऽनित्यत्वप्रसङ्गः, परमाणु वर्मन्वं चा ग्रहणप्रसङगः ।
किन शन्दस्य नित्यत्व सर्वदा सर्वचोपलब्धिप्रसड़गः, दिजातीयवायुसंयोगाटानां व्यञ्जकन्ये न निन्यसगंगत-ककारांदवर्गस्य श्रीवस्य उभयग्य बायारकाणां वायूनागपनयनान क्रमण वर्ण -श्रोत्र-तदुभयसंस्कारपक्षम्या:न्यत्र विस्तरता निरास इनि न नर श्रमो विधीयते ।
वस्तुत: कल्वारेच विजानीयवासयोगकारनावदकत्वम अन्यधा कोलाहलप्रत्यक्षानपाने:, नत्र काद्यविषयकत्वं च तारतम्यानुपपत्तेः। ध्वनिगततारतम्यम्य दान्ने आगे पस्नु न सगन:, नम्या श्राःणत्वान, दिलक्षणतारतम्यानुभवाच । कत्वादिगद. त्वादिप्रकार प्रत्यक्ष पृथग्यत त गारयम् । न च कवादिन कारकप्रत्यक्ष दोषाभावहतत्वमपक्ष्य विजातीयवायनयोगहतत्वमिति वाच्यम्, तत्र कोलाहलादावपि बह- बहृविधादिम नेनानक्षयोपशमबन: कवादि-शुकीयत्वादिप्रत्यक्षोदयान नत्र दोषाभावह तत्वावश्यकान न च कलाकालिका मन्दिरकारलत्पने गुणविशेषस्यैव हेतुत्वम्. तथापि विजातीयवायुसंयोगानां विशिष्य हेतुल्वे गौरवानपायात. गुणविदोषस्य क्षयोपशमविशेपद्वारकत्वन याद्वोपयो कार्यकारणभाव: स नत्सामान्यमार्गप' इति न्यायान सामान्यत एव क्षयोपशमस्य हेतत्वाच्च । एतेन स्व श्रयविषयिनया कत्वादेस्तत्कार्यतावच्छेदकं प्रत्युत्तम, कादेः स्वगनधर्मानुविधायित्वेन | साक्षादेव कत्वादेस्तधात्वौचित्यात् । नस्मात 'उत्पन्नः ककार निनष्ट: ककार' इत्यादिकलादिविशेष्यत्पत्त्यादिप्रकारकत्वनानुभुयमानप्रतीने: अननुभूवमाननाल्वादियोगादी उनान्याद्ययगाहित्वस्वीकारस्पानामाणकतया वर्णानामनित्यत्वमावश्यकमेव । एतेन | व्यञ्जक-वन्यादाइत्पादादिकल्पनाऽपि परास्ता, वध्यनकनया निरिक्तध्वनि परिकस्य नस्य श्रीजग्राह्यत्वानि प्रतीसिचलेन कादीनामेव तथान्त्वकल्पनौचित्यात् । 'श्रावणसमवाय'त्यादिकमाययुक्तमुक्तम, नदीयश्रावणसमवाय श्रावणत्वम्यापलक्षणवे तिप्रसगात. विशेषणत्वं तु यमं केवलान्दप्रत्यक्षस्थाका पमिदान्तापाताचेनि । दर्शस्फोटादिकल्पनानिरासम्वन्पत्ती वगन्तव्यः ।
भीमांमक ! समुनिष्ट व्रज सद्म सम्वे यतः । आइास्ते निष्फलीभूताः स्वाः स्याद्वादसद्मनि ।।१।।
गन्दनाशस्थले सर्वेषां नैयायिकानामैकमत्रमंच नरान्ति, सन्दीपसन्दन्यायन ले परम्परमा विददन्तो विनष्टा इनि निरूपिनमेव, लेशतः तन्निरासीपि प्रदर्शित पद नत्र नत्र, अन्यत्र तन्मनं प्रत्यग्ल्यातमब चेति न तत्राधिक प्रयास:। इत्यञ्च परमनिराकरणपूर्व शब्दस्य नित्यानित्यत्मव्याहतमंत्र ।
ननवं सति सड़ाकर-व्यतिकर -संशयादिदापनिपाना दुर्वार एवेत्याशङ्कायामाह - इदन्तु ध्येयमिनि । घटवादिनति । यथा घटत्वादिना घटादिरनित्य एव द्रव्य वेन च नित्य एव तथा शब्दत्व-कत्वादिना शब्दोऽनिन्य एव द्रव्यत्वेन तु नित्य एन । न चैवर्गकान्तवादग्रसङ्ग इति वाच्चम, अनेकान्तबादम्य सम्यगकान्ताविनाभाविवादित्यस्यो क्तत्वात् । न च विरोधः द्रव्यत्वनान्यत्रासिद्धेऽपि दण्डत्वेनानन्यथासिद्धत्वबद द्रव्यत्वेन ध्वनाप्रतियागिन्यपि शब्दादी शब्दत्वादिना वसप्रतियोगित्वाविरोधादित्युक्तीनरत्वात् । शब्दत्वेनाबलिकाया असइयेयभागापरतो नवरधानानेन रूपेण ध्वंसप्रतियोगिय युक्तमेव । भाषावर्गणाचनाःपि उत्कर्षता सहख्येयकालानन्तरमनवस्थानान व्यत्वन मप्रतियोगित्त्वाभाव इत्युन्तन । उपलक्षणात गुगलत्या नीवत्वादिग्रहण, तेषां शन्दनिध्यंगतियोगिनानवछंदकत्वात् । अत एव = शब्दत्वन सदस्य उत्पनि नियोगिकत्व सनि ध्वंसप्रतियोगित्वादेव.
यहां इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि जैसे घट घटत्वादि धर्म की अपेक्षा अनित्य ही है और द्रन्यत्व धर्म की अपेक्षा नित्य ही है ठीक वैसे ही शन्ट भी शब्दत्व, कत्व आदि धर्म की अपेक्षा अनित्य ही है और द्रव्यत्व धर्म की अपेक्षा नित्य ही है। इसीलिए -> 'कादाचित्कन्व तो पर्याय का लक्षण है । शब्द भी कभी : कदाचिन होता है, कदाचित् = कभी नहीं होता है । अनः कादाचित्क है। अतः इन द्रव्य का पर्याय है' - यह पूर्व जैनाचार्यों का कथन भी अविरोधी है। क्योंकि पुल द्रव्य में शन्द्रत्व धर्म की अपेक्षा अनित्यत्व यानी वादाचित्कल्न ही है - यह हम मान्य करने हैं। 'शब्दात्मना शब्द नष्ट हुआ यह प्रतीति भी सार्वजनीन ही है। इसलिए शब्द को पर्याप कहना भी उचित ही है। घट भी मिट्टी का पर्याय होने हा घटात्मना अनिन्य और द्रव्यात्मना नित्य होता है ठीक वैसे शन्न भाषावर्गणापर्याय होते हुए शब्दात्मना अनित्य और द्रव्यात्मना नित्य है - ऐसा मानने में कुछ भी विरोध नहीं है।
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* मनःप्रकरणसंवादावादनम * मनसोऽपि चानतिरेके न किश्चिदनिष्टं नः, पृथिव्यादेः पुदलत्वेनेकधैव विभजनात् ।
-* जयलता *अविरुद्धमित्यनेनारयान्वयः । कादाचित्कत्वलक्षणपर्यायलक्षणेन उत्खानत्वात् = निकिनत्वान. उपेनत्व दिति वावत् । शब्दः पर्यायः = द्रव्यपरिणामः । अभूत्वा भवनं भूत्वा स्थित्वा च्यवनमित्यव कादाचित्कत्वमुच्यने । तच पर्यायलक्षणं घटादी पये प्रसिद्धम् । कुलालादिव्यापारात प्राक् घटत्वा दिना भूत्वा पश्चाद् घटत्वन भवन किञ्चित्कालं स्थित्वा चटत्वादिना विपद्धत च । तद्वदेव कण्ठताल्यादिव्यापारात्माक शब्द ना-मूचा पश्चा-छन्दत्वेन भवन उत्कर्षत आर्यालकाया असारभ्य सभामग्रमितकानं स्थित्वा हान्दवन रूपेण विलायते चेति घटादिः यथा मृत्पर्याय: नथा दाब्दांऽपि पदलाव्ययायः । परं मर्यथा न पांय द्रव्यात्मताया अपि तत्र स्वीकारात् । अतो द्रव्यवन ध्रौव्यमयविरुदमिति भावः। एतन 'नापि सर्वथा द्रव्यं, पयांयान्मनाम्बाकागन् । स हि पुलस्य पर्याय: क्रमशः तत्रंदात (प्र.न.त. '५/१- न्या.र.पृ. ६०.६) इनि वादिदेवसूरिबचनमापं व्याख्यातम् । पतावता प्रबन्धेन शाकादशोऽपि नातिरिच्यते, निमित्तानस्यैव शब्दसमवायिकारणलान' (दश्यतां ७:१तमे घाटं) इति यता नास्तिकेनाक्तं तनिरस्तम् ।
यत्तु पूर्व चाकिन 'मनोऽपि चासमवेत भूनम । - व पृथिवीत्वादी विनिगमका गावादतिरको युक्तः, गानिंबाटत्व पि तत्तदात्मा:कृष्टत्वेन विशेषसम्भवादिति' (दृश्यता ६४७ तमे पृष्ट) इत्युक्नं तन्मनसिकृत्य सिंहावलोकनन्यायनाह - मनसोऽपि चानतिरेके किमुत दिगादरित्यपिशान्द्रार्थः, न किश्चिदनि नः = अस्माकं स्थाद्वादिनाम । कुतः ' पृथिव्याः पुद्गलल्वेनेकधैव न त्वनेकधा विभजनात् = विगागकरणात । द्रव्याणामनन्नत्वपि प्रथिवी-गल नेजा-याय -मनांद्रयाणां अनमनेन पद्दत्यन मडग्रहसम्भवात् पुदलत्वस्यैव द्विगाजकोपाधिािन न माया पडलद्रव्यानिरिक द्रव्यत्यमग्नन्मने गम्भवतानि मनसः स्नापद्रव्यातिरका निक्षेपास्मभिमत एवति न तन्निगम कश्चिन्प्रयत्न स्माभिर्विधय: चानक प्रनि । किन्तु यत्पूर्व चाशक: मनसाः समतभूतत्वादिकं प्रतिपादितं तत्र वदन्ति → नम्य गीतिक धिना गलत्यादिक बन्यत्रा:विनियमात प्रथिोत्यादिग़हिन्यसिद्धेः । न चान्यनमत्वेन निर्णयानुक्तविनिगमकचिन्तनीचित्यमिति वाच्यम्. तथापि ज्ञानादिजनकात्मप्रतियोगिकविजातीयसंयोगं प्रति मनस्त्वेन बजात्येन हेतुन्वानस्य धन्य यतिरिक्तत्वगिद्धेः । न च एप्तिकाले ज्ञानांतपादः कालविशेषम्य विधत्वादेव न तु विजातीयमन:संयोगबिरहादिदि बान्यम, अनन्तकालविशेषाणां तत्तापायानन्तज्ञानविरोधित्वकल्पनामोक्ष्य जन्यज्ञानमात्र विजातीयात्ममनोयोगहेतत्वकल्पनाया एव युक्तत्वात, अतिरिक्तशालोपगमे नास्तिकानामापसिद्धान्तापाताच । पतन पार्थिवादित्वे:पि तत्तदात्माकृष्टत्वेन विशेषसम्भवादित्यपि प्रत्युक्तम्, ज्ञानजनकतावच्छेदकोटी ननन्दम्पनिवेश नहागौरबान । अम्माकं मन्नु दीर्घकालिकसंज्ञाभिधानव्यक्तज्ञानजनकत्वेनैव गर्भजपश्चन्द्रियाणामक गृहीत्तमनंवर्गणास्कन्धात्मक पौदगलिक मनः मिव्यान न चोन्करज्ञानजनकतावच्छेदिका शरीरनिष्ठत्र जाति: कलयत जान नेत्यं स्वतन्त्रमन: सिद्धिरिति वाच्यम्, शगंगेन्कयांपकपाध्या ज्ञानोत्कर्षाकदिर्शनान तन्त्रियामकत्वेन मनोनिशेषस्पैच पृधिन्यप्तेजीबान्यतिरिक्तस्य पौदर्गालकस्य सिद्धिरित्यधिक न मन:प्रकरणादवसंयम ।
राया तिति मGI अHि - दादी मनसी. । पहले नास्तिकों ने जो कहा था कि-मन भी दिशा आदि की भांति अतिरिक्त नहीं है (पृ.६४५) यह बस्नग्य तो हमारे प्रति तनिक भी प्रतिकूल नहीं है, क्योंकि पृथिवी. जल आदि पदार्थ का हम म्यादातरी पुलन्द धर्म की अपेक्षा विभाग करते हैं । पृथिवी, जल, तेज, यायु, मन ये मब पुद्गल ही हैं । अतः पुदलन्न धर्म की अपेक्षा न मय का एक ही विभाग में समावेश होना न्याय्य है । यहाँ यह शंका हो कि → यदि पृथ्वी. जन्न, नेज आदि का एक ही विभाग में समावेश किया जाय तब तो पृथी और जल में परम्पर भेद ही नहीं हो सकंगा । जैसे एक ही विभाग में समाविष्ट होने से चैत्र, मैत्र, देवदत्त आदि में भेद यानी आत्मन्च की अपेक्षा जात्य नहीं होता है. ठीक वैसे ही प्राविभाग में प्रविष्ट होने की वजह पृथ्वी, जल आदि में भी भेद नहीं हो सकंगा' <ी उसका ममाशन यह है कि एक विभाग में प्रविष्ट होने में भेद का विलय हो जाय - यह कोई नियम = व्यानि नहीं है। अन्यथा धट, पट आदि भी पृधी हाने मे या द्रव्य होने से एक ही विभाग में ममाविष्ट हान में परस्पर भित्र नहीं हो सकंग । मगर उनमें भी भेद ने मिड ही है । अतः एकविभागाश्रित होने पर भी घट, पद की, भौति पृथ्वी, जल में भी भेद हा मकता ही है। यहाँ इम शंका का कि --> 'पृथिवी, जल आदि द्रव्य का पुद्रलयन एक ही विभाग में ममाचंदा करने पर अधिषी का इनर व्य
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७४० मध्यगस्याद्वाद रहस्ये खण्ड ३ का. १९ ॐ पृथिव्याः स्वतविचा
'एवं सति पृथिवी - जलयोर्भेदो न स्यादिति चेत् ? घटपट्योरिव किं न स्यात् ? द्रव्यतोऽयं न स्यादिति चेत् ? स्यादभिमतमेवेदं युक्तिसिद्धत्वात् । तथाहि पृथिवीतरेभ्यो भिद्यते गन्धवत्त्वादित्यत्र सर्वदा मन्धवत्वं भागाऽसिद्धम्, कदाचिद्रन्धवत्वं तु जलादों व्यभिचारीति ।
* जयला
.
=
लब्धावसरों नैयायिकः प्रत्यवतिष्ठते एवं सति पृथिवी जलानलानिलादीनां गुगलवनेकधा विभजने सति पृथिवी - जलयोः भेदो न स्यात् एकविभाजकोषाध्याक्रान्तत्वात् । यद्यपि चैत्र-मैत्रादीनामात्मत्वेनैकचैव विभजनेऽपि चैवत्वादिना भेदोऽस्त्येव तथापि भेदपदमत्र वैजात्यपरमिति न दोषः । न हि चैत्र-मैत्रादीनामात्मत्वेन वैजात्यमनुभूयते । तथैव पृथिवीजलयारेकविभाजकी पाध्याश्रितले पृथिवीत्यादिना वैजात्यं नैव स्यादिति आक्षेपग्रन्थाभिप्रायः ।
स्याद्वादी प्रतिबन्धा समाधत्ते घटपदयोरिव किं न स्यात् । इति । यथा पृथिवीत्वन टपटपकधव विभजनेऽपि घटत्वादिना वैजात्यं समस्त्येव तत्र गुद्गलत्वेन पृथिवी जलयोरकधैव विभजनेऽपि पृथिवीत्यादिना बजात्यं स्यादवति न कश्चि विरोधः ।
=
S
जलदिनैयायिक आक्षिपति द्रव्यतः अयं भेदः न स्यात् । पुद्गलत्वकदेव विभजने पृथिव्यादीनामिवरती द्रव्यतः भेदो विजात्यं न स्यात् । यथा चैत्रमैत्रदेवदत्तादीनामात्मनेकमेव विभागे चैत्रादीनां मंत्रादितां वैजात्य नास्ति देवेन नैयायिकाभिप्रायः ।
स्याद्वादी इष्टापन्यासमाधनं स्यादभिमतं कवि एवं इदं पृथिव्यादीनां जलादिद्रव्यतः बेजान्या भावापादनं. युक्तिसिद्धत्वात् प्रामाणिकत्वात् । तर्हि पृथिवी स्वेतरभिन्ना गन्धवत्त्वादित्यनुमानाद का कथा इत्याशङकामपाकर्तुं स्याद्वादी आह तथाहीति । 'पृथिवी इतरेभ्यो भियते गन्धवत्त्वादित्यत्र अनुमान पक्षावच्छेदकावच्छिने किं सर्वदा गन्धवत्त्वमभिमतं कदाचिद्रा । इति विकला युगला समुपतिष्ठते । प्रथगं आह- सर्वदा उत्पत्तिक्षणतः प्रारभ्य विनाशशणपर्यन्तं गन्धवत्त्वं हेतुत्वेनाभिमतं तदा तत भागासिद्धम् = पक्षैकदेशसिद्धग, उत्पत्तीतरक्षणावच्छेदेन पृथिव्यां गन्धयन्वस्य सत्त्वऽपि उत्पत्तिक्षणावच्छेदेनाऽसत्त्वात् । द्वितीये आह कदाचित् = उत्पत्ति-स्थिति-प्रच्युतिक्षणान्यतमक्षणावच्छेदन पृथि॒व्या॑ गन्धवत्त्वं तु जलादी व्यभिचारीति । यदाकदाचिद्रन्धवत्त्वस्य करतूरिकाकुङ्कुमादिवासितजलादी सत्तेपि पृथिवीतरभेदस्य विरहात् ।
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जलादिद्रव्य से भेद नहीं हो सकेगा, क्योंकि वे सब एकविभागान्तः पतित है - समाधान यह है कि यह स्यादभिमत कथंचिन् इष्ट ही है, क्योंकि पृथ्वी में जलादि द्रव्य में कथंचित् अभेद = आपेक्षिक अभेद स्वाद्वादी ने मान्य किया है। यहाँ यह प्रश्न नहीं करना चाहिए कि यदि पृथ्वी जलादि से कथंचित अभिन्न है, तब तो 'पृथ्वी स्वेतरभिन्ना गन्धवा इस व्यतिरेकी अनुमान का जो पृथ्वी में इतरभेद जलाविभेद का साधक है, क्या होगा ?' - इसका कारण यह है कि पृथ्वीपक्ष स्वेतरभेदसाधक उपर्युक्त अनुमान में जो गन्धवत्व हेतु बताया है उसका यदि सर्वदा पक्ष में विद्यमान होना अभिमत हो तब तो हेतु भागासिद्ध बन जायेगा । जो हेतु पक्ष के एक देश में रहता हो और पक्ष के एक देश में उसका अभाव भी रहता हो वह हेतु भागासिद्ध कहा जाता है । प्रस्तुत में पक्ष है उत्पत्तिक्षणविशिष्ट पृथ्वी से लेकर विनाशक्षण तक की पृथ्वी । उसका एक भाग है उत्पतिक्षणविशिष्ट पृथ्वी । उसमें गन्ध नहीं रहती है, क्योंकि उत्पतिक्षणावच्छेदेन द्रच्य निर्गुण गुणशून्य होता है यह प्रश्नकार प्रतिवादी नैयायिक की मान्यता है। पक्षतावच्छेदकावच्छिन में हेतु न रहने पर पक्षतावच्छेदकावच्छेदेन साध्य का अनुमान निरक्षित हेतु से नहीं हो सकता है। यदि वाचित गन्धवत्त्व हेतु हो तोह रह जायगा मगर वह इतरभेद = जलाविभेद का साधक नहीं हो सकेगा, क्योंकि वैसे तो कभी कभी जलादि उल्प में भी गन्ध होने पर भी साध्य = जलादिभेद नहीं रहने की वजह विवक्षित हेतु व्यभिचारी बनता है । साध्य को छोड़ कर रहनेवाला | हेतु साध्य का अनुमापक नहीं हो सकता है। यदि नेपारिक की ओर से यह कहा जाय कि "गन्धसमवायिकारणतावच्छेदक तो पृथ्वी ही है, न कि जलत्वादि भी जलादि में तो पृथ्वीत्व नहीं है । अतः जलादि कैसे गन्थारम्भक हो सकते हैं । हाँ, औपाधिक अन्यगत पृथ्वीसमवेत गन्ध की जल में प्रतीति मानी जाय तो बात अलग है तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो पूर्वकाल में सर्वा गन्ध से शून्य है, उससे तो कालान्तर में भी गन्ध का आरम्भ हो सकता नहीं है । पश्चात् काल में जलादि में गन्ध की उपलब्धि होती है, उसे औपाधिक मानने में गोरव है । अतः उसे स्वाभाविक अनीपाधिक जलादिगत गन्ध की प्रतीति मानना उचित है । अतः मानना होगा कि पहले जलादि में अनुद्भुत गन्ध
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तत्वार्थसूत्र रूपालादरत्नाकरसंवाद
न च जलादेर्न मन्धारम्भकत्वं पृथिवीत्वेनैव तदेतुत्वादिति वाच्यम्, गन्धवतॆव कदाचिददृष्टविशेषादिसहकारेणोद्भूतगन्धारम्भात् ।
इत्थञ्च द्रव्याणि धर्माधर्माकाशजीवसमयपुद्गला इति विभागवाक्ये न कश्चिद् दोष: 1
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* नयलता है
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| न च जलादेः न गन्धारम्भकत्वं = गन्धसमवायिकारणत्वं पृथिवीलेनैव तद्धेतुत्वात् गन्धसमवायिकारणतावचंद्रकत्वस्वीकारात् अन्यथा गन्धत्वावच्छिन्नस्याकस्मिकत्वापत्तेः इति वाच्यम्, गन्धवतैव = अनुद्धृतगन्धाश्रयेणैव जलाद्वित्र्येण कदाचित् कालविशेषे अदृष्टविशेपाद्रिसहकारेण अदृष्टविशेष कालविशेष- देशविशेष- द्रव्यविशेपादिसाचिव्येन उद्धृतगन्धारम्भात् यथा अतितलादी अदृश्यदहनसन्ततेः दृश्यदहनोत्पत्तिः । तत्र तदन्त: शतिभिः यदहनावयवैः स्थूलानीत्यादादिकल्पने मानाभावान् । न च गन्धस्यैव जलादावसिद्धेः कुतोऽनुद्धृतगन्धसिद्धिः १ इति वक्तव्यम् पयो गन्धवत् तेजी गन्धरसवत्, वायुर्गन्धरसरूपवान् स्पर्शवत्त्वात् पृथिवीवत इत्यनुमानेन तत्सिद्धेः तथाप्यनुपलब्धिर्यत्र कदाचित तदा तत्रानुद्भूतगन्धादिसिद्धेः । अत एव न बाध:, अनुद्धृतस्वभावे प्रत्यक्षस्य मूकत्वात्, अन्यथा सुवर्णेऽपि उष्णस्पर्शसाधनं कथं न तत्प्रसङ्गः । 'स्पर्श-रस- गन्ध-वर्णवन्तः पुद्रला' (त. ५ / २३) इति तत्त्वार्थसूत्रमपि तत्समर्थकमिति नागमबाधा । एतेन पृथिव्यादीनां पुद्गलपर्यायत्वेनानिलक्षणत्वं पृथिव्यामित्र जलादिष्वणि गन्धादीनां सर्वदोद्भूतैव स्यात्, अन्यथा सर्वथा भिन्नलक्षणात वैषामित्यपि परास्तम्, पाषाणानुरोधिन पृथिवीत्वावच्छेदेनाऽपि सर्वदोद्धृतगन्धावसिद्धेः, नायनेन तेजसा व्यभिचाराच ॥ न शुभूतीष्णस्पर्श नायनं तेजोद्रव्यमुद्धृतोष्णस्पर्शात्पावकाद्धिनलक्षणमभिमतं नैयायिकानाम् । न हावान्तरजातिभेदः सर्वधा लक्षणभेदं प्रसाधयति किन्तु व्यक्तिभेदमेव । अधिकं तु तत्त्वमत्रत्यं स्याद्वादरत्नाकरादवसेयम् (पृ.४६७) |
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इत्थञ्च = पृथिवी-जल-तेजो वायु-मनीद्रयाणां पुनचैव विभजनस्य समर्धनेन च द्रव्याणि धर्माधर्माकाशजीवसमयपुद्गला' इति विभागवाक्ये आईतीयद्रव्यविभागप्रतिपादकवचनं न कश्चिद् दोषः । परस्परासी धर्मप्रतिपादकवाक्यस्यैव विभागवावयत्वम् । प्रकृतं द्रव्यविभागस्याभिप्रेतत्वात् परापरा सकीर्ण द्रव्यत्यसाक्ष व्याप्य धर्मव्यवस्थापनं विभागः । पृथिबी जलादीनां पुद्गलत्वं द्रव्यत्वसाक्षादल्यायम पृथिवीत्व जलत्वादिकं तु द्रव्यत्वव्याप्यव्याप्यम् । गतिनियागकतावच्छेदकत्वेन सिध्यतां धर्मत्वस्य स्थितिनियामकतावच्छेदकत्वेन चाऽधर्मत्वस्य द्रव्यत्वसाक्षादुत्र्याप्यस्य जीवादिष्वसत्त्वाद द्रव्यविभाजकांपाधित्वं न्याय्यमेव । ततश्च पण्णां द्रव्यविभाजकधर्मत्वात् पविधी द्रव्यविभागी निर्दोष एव । एतेन नवथा इत्यविभाग नैयायिकपरिकल्पितः प्रत्युक्तः, आधिक्यदीपात्
می ده
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स्यादेतत् - जीवाजीवभेदन द्रव्यद्वैविध्यमेव प्रतिपादयितुं युक्तम्, अजीयत्वस्यैव द्रव्यत्वसाक्षादुत्र्याप्यत्यात् धर्मत्वा धर्मत्वादीनां सु द्रव्यत्वव्याप्या: जीवत्वव्याप्यत्वात् अन्यथा पृथिव्यादीनामप्यतिरेकः स्यादेवेति । न च धर्मास्तिकायादीनामजीवत्वेऽपि शिष्पबुद्धिवैशद्यार्थः प्रकारान्तरेणोपन्यास इति वाच्यम्, पृथिव्यादीनां मुद्गलत्वेऽपि तत एवातिरकप्रदर्शनस्य न्याय्यत्वापत्तेः । एतेन पृथिव्यादीनां पुद्गलयाविशेषेऽपि यदि अतिरिक्तत्वेन विभजनं स्यात. स्वादेव तर्हि घट-पट - मठादीनामप्यतिरिक्तत्वमिति नपा विभागां भज्येतेति निरस्तम्, समसमाधानत्वादिति चेत् १ ब्रूमः पृथिवी जलादीनां गुद्गलत्वाविशेषे सति परस्परात्मकताऽ भवति पृथिव्यारम्भकानामेव पुद्गलानां सहकारिवशानीराधारम्भकत्वात् । अतस्तेषां पुलत्वेनैव विभागः । धर्माधर्मादीनामजीवत्याःविशेषेऽपि परस्परात्मकता न भवति । न हि धगस्ति कार्याऽधर्मास्तिकायत्वादिना परिणमति कदाचित । अनस्तेषां धर्मत्यादिनव
होगी और पश्चात अदृष्ट विशेष आदि के सहकार से उद्भुत गन्ध की वहाँ उत्पत्ति होनी चाहिए। मतलब कि गन्ध तो जलादि की ही है मगर सहकारी कारण उसे अभिव्यक्त करता है। जैसे हरीतकी जलंगत मधुर रस की व्यञ्जक होती है ठीक वैसे यह भी कहा जा सकता है । जलादि पृथ्वी अभिन्न है तो सर्वदा उद्भूत गन्ध ही उसमें उपलब्ध हो ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि पापाण पृथ्वी होने पर भी उद्भुत सन्ध की उपलब्धि उसमें नहीं होती है । इसलिए पृथ्वी, जल, तेज, वायु और मन द्रच्य का पुलत्वेन एक विभाग में प्रवेश होने से तथा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय क्रमशः गति और स्थिति में नियामक होने से अतिरिक्त द्रव्यविधया अवश्य स्वीकार्य होने से 'द्रव्याणि धर्माधर्माकाश- जीव- समय पुद्रला:' ऐसा जो द्रव्यविभागप्रतिपादक जैनेन्द्र वचन है वह भी निर्दोष ही हैं। परस्पर अमंकीर्ण व्याप्य धर्म का प्रतिपादक वचन ही तो विभागवाक्य कहा जाता है। द्रव्यत्वसाक्षाद्व्याप्य धर्म तो : ही है। पृथिवीत्य, जल आदि तो परंपरा से द्रव्यत्वव्याप्य है यानी द्रव्यत्वव्याप्यपुङ्गलत्वव्याप्य पृथ्वीवाद है। अतः उनका पुल वन्य में समावेश करना मुनासिब ही है ।
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मात्र
७४२ मध्यमस्थाद्वादरहस्ये रखण्डः ३ का.११ * आधुनिक विज्ञानसिद्धान्तमण्डनम*
अत्र राद्यपि उद्देश्यविधेयभावस्थले विधेयतावच्छेदकरूपेण 'धुमवान वहिमान' इत्यादी विधेयस्य व्यापकत्वलामो दृष्टः तयाधि अत्र धर्मत्वादिना तदसम्शवाद विधेयतासमव्याप्तखपेण व्यापकत्वं संसर्गतया लभ्यत इति धर्माद्यन्यतमत्वादिना व्यापकत्वलाभ इत्टोके।
-* जयलता *विभजनं न त्वजीवत्वेन । न च धर्माधर्मादिवत् पृथिव्यादीनामपि जलादिना परिगातिर्न स्यादिति वाच्यम्, प्राणवायुद्धिगुणितहाइड्जनवायोर्जलवन परिणमनस्य साम्प्रतमाधुनिक विज्ञानप्रयोगशालादी प्रमाणप्रसाधितस्य प्रसिद्धस्यानपलपनीयत रम्भवादस्तु प्रत्याख्यात एवं ।
अत्र = प्रस्तुतविभागवाक्ये, अस्य 'इत्येक' इत्यनेनान्वयः । यद्यपि उद्देश्यविधेयभावस्थले विधयतानिरूपकसम्बन्धन विधेयतावच्छेदकरूपेण 'धूमवान वहिमान' इत्यादौ विधेयस्य संसर्गमर्यादया व्यापकत्वलाभः = उदयव्यापकत्वलाभ: दृष्टः व्यापकत्वविशिष्टभेदादे: संसर्गत्वात् उद्देश्यस्य च व्याप्यत्वं तादात्म्यसम्बन्धेनेति सर्वसिद्धा शुत्पत्तिः । तादात्म्यसम्बन्धेन धूमवान उद्देश्य: विधेयतानिरूपण संयोगसम्बन्धेन वह्नित्वेन वहि: विधेयः, धूमवन्तमुद्दिश्य व: विधानात । ततश्च धूमबदुल्यापकत्वं वहे: बह्नित्वेन संयोगसम्बन्धेन संसर्गमर्यादया लभ्यते । तथापि = उद्देश्यविधेयभावस्थले विधेयतावच्छेदकरूपण विधेयस्य व्यापकत्वप्रतिसन्धानेऽपि, अत्र = 'दन्याणि धर्माऽधर्माकाश-जीव-समय-पद्गलाः' इति द्रव्यविभागवाक्ये. द्रश्याणि उद्दिश्य धमादीनां तादोज निधाने मी तिदिना - धर्मत्वाधर्मत्वकाशत्व-जीवत्व-समयत्वादिना रूपेण तदसम्भवात् = उद्देश्यव्यापकत्वा:सम्भवात् । कुतः ? उच्यते धर्मत्वाधर्मत्वादेविधेवनावन्दकस्य नानात्वात् परम्परत्यभिचारण तेन रूपेण व्यापकत्वात्ययाऽयम्भवः । न हि यस्मिन् कम्मिंश्चिद् द्रश्य धर्मवादिना धर्मादीनां पण्णां तादात्म्येन सम्मयोऽस्ति । अत एव व्यापकत्वविशिष्टभेदसम्बन्थेन द्रव्यत्वावन्छिन्ने धर्मवादिना धर्मादीनामन्वयोऽपि बाधितः । अतो न्यूनसहरव्याल्यवच्छेन्द्रलाभा-पि न सम्भवति । ततश्चागत्या प्रकृते विधेयतासमब्याप्तरूपेण - विधयतासमनियनधर्मग विधेयस्य व्यापकत्वं = उद्देश्यव्यापकत्वं संमर्गतया = विधेयनान्वयिताबच्छेदकसंसर्गतया संसर्गमर्यादया लभ्यते । धर्मत्वाधर्मत्वाकागत्वाद्यवच्छिन्न-विधयता:न्यूनान्ततिरिक्तवृत्ति रूपं तु धर्माद्यन्यतमत्वादिकमेव । अतः धर्मादीनां षण्णां धर्मायन्यतमत्वादिना व्यापकत्वलाभः = द्रव्यव्यापकत्वबोधः मंसर्गमर्यादया । एतेन विधयनानवच्छेदकरूपेणाऽपि व्यापकत्वभाने 'धूमवान् हिमान्' इत्यादी वढे: द्रव्यत्वादिनाऽपि व्यापकत्वलाभप्रसङ्ग इनि प्रत्युक्तम्, तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नमवनिष्ठोंदृश्यतानिरूपितसंयोगसम्बन्धावच्छिन्नविधयतासमनयत्यग्य द्रव्यत्वादी बाधितत्वात् । व्यापकत्वस्य संसर्गमर्यादयैव भानाभ्युपगमेनाऽन्यतमत्वोपस्थापकदिरहेऽपि पतिविरहात् इत्येक व्याचक्षते ।
- उ.श्यवियेयभातविचार अत्र य. । यहाँ कुछ विद्वान मनीषियों का यह वक्तव्य है कि → "उद्देश्यविधेयभावस्थल में विधन विधयतावचंदकरूप मे उद्देश्य का व्यापक होता है . यह प्रतीतिसिद्ध है। जैसे मवान् बल्लिमान' यहाँ उद्देश्य है धूमपान और विधय है दहि । विधेयतावच्छेदक है पवित् । तादात्म्यसम्बन्ध उद्देश्यतावचटकसम्बन्ध है और संयोग विधयतावच्छेदकसम्बन्ध है, क्योंकि पछि संयोग सम्बन्ध से विधय है। अतः तादात्म्य सम्बन्ध से न्याय होगा उद्देश्य = धूमवान और संयोग सम्बन्ध से चरित्वेन व्यापक होगा यहि । यह तो सर्वमान्य है । अत: विधेयत्तावादक धर्म से ही विधेय उद्देश्य का ज्यापक होता है - यह संसर्गमर्यादा से ज्ञात होता है। वैसे 'द्रव्याणि धर्माधर्माकाशजीचसमयपुद्गलाः' इस विभागवाक्प में द्रव्य उहश्य है और धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि ६ विषय है। विधेयतावच्छंदक धर्म है धर्मत्य, अधर्मत्व, आकाशत्व, जीवत्व, कालत्व और पुदलन्य। तादात्म्पसंबन्ध से यत्किञ्चित् द्रव्य के आश्रय में धर्मत्व अधर्मवादिरूप से तादात्म्य से धमाधर्मादि नहीं रहते हैं, क्योंकि विधेयताबन्दक धर्म अनेक होने से परस्पर व्यभिचारी हैं । अतः धर्मत्व, अधर्मन्न, आदि रूप से विधेय थर्मादि में द्रव्यात्मक उदृश्य की व्यापकता नामुमकिन है। इसलिए यहाँ विधेयनावदक रूप से नहीं किन्तु विशेयतासमच्याप्तमप में धर्मादि में द्रव्यन्यापकता का संसर्गमर्यादा से लाभ होगा . ऐसा माना जायगा। विधेयता धर्मास्तिकाय आदि पद उन्ध में रहनी है और तादृश विधयता का समनियत धर्म है धर्माधर्म-आकाश-जीव-काल-पुद्गलअन्यतमत्व आदि । किसी भी द्रव्य में धमादिअन्यतमत्व रूप में का? न कोई नादाम्यसम्बन्ध में रहता ही है। यानी द्रव्याश्रयवृत्तिअभाव की प्रनिगेगिता का अवच्छेदक धर्मादिअन्यतमत्व नहीं होता है । यह मानने में तो कोई गधा नहीं है" -।
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* रद्देश्य-विधेयभावमीमांसा * तदसत् - 'द्रव्यं गुण-कर्मान्यत्वविशिष्टसत्तावत्' इत्या द्रव्यान्यत्वविशिष्टसत्तात्वेन व्यापकतालाभप्रसहगात, विधेयतावच्छेदकावच्छिन्नसमव्यापकतावच्छेदकधर्मावच्छिमव्यापक
-* ायलता *दुषयति - नदसदिति । उद्देश्यविधेयभावस्थले विधेयतासमव्याप्तरूपेण विधेयस्योद्देश्यव्यापकत्वलाभप्रतिपादनं असत, यतः 'द्रव्यं गुणकर्मान्यत्वविशिष्टसत्तावत' इत्यत्र तादात्म्येन द्रव्यस्योद्देश्यत्वेन व्याप्यत्र सामानाधिकरण्यन गुणभेद-कर्मभेदविशिष्टसत्तायाः समवायसम्बन्धेन व्यापकत्वम् । विधेयतावच्छेदकं तु गुणभेद-कर्मभेदविशिष्टसत्तात्वम् । यदि च विधयतावच्छेदकरूपेणैव विधेयस्य व्यापकत्वलाभमपोद्य विधेयतासमनियनधर्मेण विधेयस्योदेवयच्यापकत्वं संसर्गमर्यादया लभ्यमित्युच्यते तदा प्रकृते विधेयस्य द्रव्यान्यत्वविशिष्टसत्तात्वेन व्यापकतालाभप्रसङ्गात् = द्रव्यनिष्ठतादात्म्यसम्बन्धादचिनच्याप्यतानिरूपितव्यापकताया: संसर्गमर्यादया लाभापने: गणकान्यत्वविशिष्टसत्तायाः शुद्धसत्ताग अनतिरेकात् शुद्धसत्तायाश्च गुण दिवत्तित्वेन तत्र च द्रव्यान्यत्वस्य सन्चन द्रश्यनिरूपितविधयताश्रयीभूताया गुणनिष्ठायाः सामानाधिकरण्येन द्रव्यान्यत्वविशिष्टायाः सत्तायाः विधेयतासमव्याप्तेन द्रव्यान्यत्वविशिष्टसजावन रूपेण द्रज्यव्यापकताऽपि संसर्गमर्यादया लभ्या स्यादिति प्रसङ्गापादनम् । वस्तुतोत्र गुणकान्यत्ववैशिष्ट्य -सत्तात्वयोरेच विधेयनावच्छेदकत्वम्, अन्यथा विशेषण-विदोष्यभावे विनिगमनाविरहान् । एतेन विधेयतानवच्छेदकन विधपतासमञ्याप्तरूपेण व्यापकत्वभानेऽपि 'धूमवान् वहिनान्' इत्यादी बहिघटान्यतरत्वादिना व्यापकत्वला भासगी नास्ति, विधेयतावच्छेदकनानात्वस्यले पत्र शन्दोपात्ततत्तद्धेियतावच्छेदकावच्छिन्नान्यतमत्वादिना व्यापकत्वं प्रनयत इति व्युत्पत्तेरिति परास्तम्, गुणकर्मान्यत्वरिष्ट्रयसत्तात्वन्यतरत्वेन ब्यापकत्वलाभप्रसङ्गात् ।
ननु विधेयतासमव्याप्तरूपावच्छिन्नव्यापकत्दसंगर्गेण द्रव्यत्वावच्छिचे गगकर्मान्यत्वविशिष्टयनाया अन्वयः स्वीक्रियते किन्तु विधेयतावच्छेदकावछिन्नसमन्यापकतावच्छेदकरूपवच्छिमव्यापकत्वसंसर्गेगैव । द्रव्यान्यत्वविशिष्टसत्तात्वस्य विधेयतासमव्याप्तत्वेऽपि विधेयतावच्छेदकावच्छिन्नसमव्यापकतावच्छेदकत्वं नास्ति, तस्य गुणकर्मान्यत्वविशिष्टसनात्वावच्छिन्नाया: समयापकताया अनवच्छेदकत्वात, गुणकर्मान्यत्वविशिष्टरसात्वेन तादृशासनाया द्रव्यवृत्तित्वेऽपि द्रव्यान्यत्ववेशिष्टसत्तात्वेन सनाया द्रव्यवृत्तित्वचिर. हात् । न च गुणकर्मान्यत्ववैशिष्ट्य-सत्तात्वयोः विधेयतावच्छेदकत्वेन विधेयतावच्छेदकी भूतसत्तात्वाश्रयीभूतायाः सनाया पदधिकरणं । गुण: तन्निष्ठाधिकरणतानिरूपकताबच्छेदकत्वस्य तत्रिष्टाभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वस्य च द्रव्यान्यत्वविशिष्टसत्ताले मत्त्वन नाय विधयतावच्छेदकावच्छिन्नममच्यापकावच्छेदकत्वमनपायमेवेति वाच्यम, पर्याप्तिसम्बन्धन विधेयतावच्छेदकताया विचक्षणान्भेष दोषः । न हि पर्याप्तिसम्बन्धावच्छिन्नवियतावच्छेदकताश्रयीभूतगुणकर्मन्यत्ववैशिष्ट्यसत्तात्वीभयावच्छिन्नायाः समव्यापकताया अबच्छेदकता द्रव्यान्यत्वविशिष्टसत्तात्वे समस्तीत्याशङ्कायां प्रकरणकार आह - विधेयतावच्छेदकावच्छिन्नसमव्यापकतावच्छेदकावच्छिन्नव्यापकत्वस्य = पर्याप्तिसम्बन्धावच्छिन्नविधेयतावच्छेदकतापा आश्रयेणावच्छिना या समव्यापकता तवच्छेदकेन रूपेणाऽवच्छिन्नस्य
व विशेरातासमलियतरूप से व्यापकतालाभ अमान्य हुन नदसन । मगर विचार करने पर यह गत असंगत प्रतीत होती है, क्योंकि विधेयतासमनियन धर्म से विघय में उद्देश्यन्यापकता का लाभ मान्य किया जाय तब तो 'द्रव्यं गुणकर्मान्यत्वविशिष्टसत्त्ववत्' इस स्थल में द्रव्यान्यत्वविशिष्टसत्तात्वेन द्रव्यव्यापकता का विधेय में स्वीकार करने की आपत्ति आयेगी। यहाँ उद्देश्य है द्रव्य और विधेय है गुणकर्मान्यत्वविशिष्ट सत्ता । गुणकर्मान्पल्लविशिष्ट मत्ता केवल द्रव्य में ही रहती है 1 मगर गुणकर्मान्यत्वविशिष्ट सत्ता भी शुद्ध सत्ता से अतिरिक्त नही होने से गुण और कर्म में भी रहती है । गुण, कर्म में जो सत्ता रहती है वह द्रन्यान्यत्वरिशिष्ट है, क्योंकि गुण एवं कर्म में द्रव्यान्पत्व = द्रव्यभेद और सत्ता रहती है। मतलब कि गृख सना से विधेय = गुणकर्मान्यत्वविशिष्ट सत्ता अतिरिक्त नहीं है और इल्यान्यत्वविशिष्टसत्ता भी शुद्ध सत्ता से भिन्न नहीं है । अतः द्रल्यनिरूपित विधेयता का समव्याप्त धर्म गुणकर्मान्यत्वनिशिएसत्ताच की भौति द्रव्यान्यत्व-विशिष्टसत्तात्वरूप से अन्यन्यापकता का संसर्गमर्यादा से लाभ होने का अनिष्ट प्रसंग उपस्थित होता है।
मा परिणत व्यापकता भी दोषारत का धि. । यदि उक्त दोप के निरासार्थ यह कहा जाय कि -"विधेयतासमव्यापकथर्मावजिन्नन्यापकतासम्बन्ध से विधेय का उद्देश्य में अन्वय न मान कर विधेयतावच्छेदकधर्मावच्चिनसमन्यापकतावच्छेदकधर्मावच्छिन्नन्यापकता सम्बन्ध से विधय का उद्देश्यतावच्छेदकावच्छिन्न में अन्वय मानने पर उक्त दोप का अवकाश नहीं होगा, क्योंकि द्रव्यत्वावस्छिन में गुणकर्मान्यत्त्वविशिष्टसना
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७१४ मध्यमस्याद्वादरहस्य खगर: ३ का... नियावपिनावच्छेदकसविचार: * त्वस्य संसर्गत्वे बाधात । न हि धर्माद्यन्यतमत्वं धर्मत्वावच्छिमसमव्यापकतावच्छेदकम् । विधेयतावत्समव्यापकतावच्छेदकरूपावच्छिमव्यापकत्वस्य तथावं तु बहळ्यादेः द्रव्यत्वा
-* जयलला * व्यापकत्वस्य संसर्गत्व -- विधयान्वयितावच्छेदकसंसर्गवं स्वीक्रियमाण, तस्य 'दन्याणि धर्माधर्माकाश-जीव-समय- पुद्गला इत्यत्र बाधात् । बाधर्मर दर्शयति - न हि धर्माद्यन्यतमत्वं धर्मवाद्यवच्छिन्नसमन्यापकतावच्छेदक = विधेयतावच्छेदकीभून नर्मवादिषटकावच्छिन्नायाः समन्यापकताया अवच्छंदकं भवति । धादिषटकान्यतनत्वाश्रर्याभूतं धर्मास्तिकायद्न्य तवृत्त्यभावनिरूरित प्रतियोगितावच्छेदकताया विध्यतावच्छेदकष्धधर्मत्याकाशव-जीवन-कालत्यादिषु सत्त्वात् । तादात्म्यसंबन्धावछिन्न-धर्माद्यन्यनमत्यावच्छिन्नाधिकरणनाश्रयवृत्त्यभावप्रतियोगितानवच्छेदकताबा अधर्मत्वादिविधयतावचंद्रदकेष्वसन्चान विधेयतावच्छंदकीभूननम - वादिषटकावच्छिन्नसमव्यापकतावच्छेदकत्वं धर्मायन्यतमत्वे सम्भवति । अनः धमांद्यन्यतमत्वन धर्माधर्माकाशजीवकालपद्गलेष प्रध्यत्वावच्छिन्नब्यापकत्वलाभोऽपि नैव सम्भवति ।
नन मास्तु विधेयतासनव्याप्तरूपावचित्रव्यापकत्वस्य विधयतावच्छेदकावचिनसगव्यापकतावच्छिन्न धर्मावच्छिन्नच्यापकत्वस्य वा विधयान्वयितावनंदकसंसर्गत्वं किन्तु विधेयतावासमव्यापकतावच्छेदकरूपाचचित्रव्यापकत्वस्य तथावे = विधेयान्वपिता
के अन्वयितावच्छेदकसम्बन्धात्मक व्यापकता का अबछेदक धर्म, जो विधेयतावच्छेदकारच्छिन्नसमव्यापकता के अवच्छेदकविधया अभिमत है, इल्यान्यत्वविशिष्टसनाव हो सकता नहीं है। विधेयतावच्छेदकीभूत गुणकर्मान्यचविशिष्टमत्तात्व से अवच्छिन्न समयपकता का अवच्छेदक धर्म न्यान्यत्वविशिष्टसतात्व नहीं हो सकने का कारण यह है कि गुणकर्मान्यत्वविशिष्टमत्तात्यरूप से सना का अधिकरण द्रव्य है फिर भी द्रव्य में न्यान्यन्वविशिष्टसत्तात्य रूप से सत्ता नहीं रहती है । मतलब कि विधेयतावच्छेदकावच्छिन्नाधिकरण में रहनेवाले अत्यन्ताभाव का प्रतियोगितावच्छेदक द्रव्यान्यत्वविशिष्टसतात्य बनना है । विधेयतावच्छेदकावचित्र के अधिकरण में रहनेवाले अभाव की प्रतियोगिता का अनवच्छेदक धर्म द्रव्यत्वविशिसत्तात्व नहीं होने से वह कैसे विधयताबच्छेदकावच्छिच की समन्यापकता का अबच्छेदक बन सकता है ? अतः 'द्रव्यं गुणकर्मान्यत्वत्रिशिरसत्तावत्' इस स्थल में द्रव्यान्यत्वविशिष्ट सत्तावन रूपेण उद्देश्यभूत द्रव्य की व्यापकता का गुणकर्मान्यत्वविशिष्टसत्तास्वरूप विधय में लाभ होने के अनिष्ट प्रसङ्ग को अबकाना नहीं है" -
तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि विधेयतावच्छेदकयांच्छि बसमव्यापकलायच्छेदकावच्छिन्नव्यापकता को विधयान्वयितापगंदक सम्बन्ध मानने पर 'द्रव्यं गुणकर्मान्यत्वविशिष्ठसत्तावन्' इस स्थल में दोप का निराकरण होने पर भी 'च्याणि धर्माऽधर्माऽऽकाशजीव-समय-पुद्गलाः' इस स्थल में यह संसर्ग बाधित होने का दोष उपस्थित होता है। वह इस तरह कि प्रस्तुत में द्रव्य उद्देश्य है और धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि विधेय है। विधयतावच्छेदक हैं धर्मन्व, अधर्मत्व, आकाशव, जीवत्व, कालन्य और पुद्गलव 1 विधेयताअवच्छेदकधर्मपदक से अवच्छिन्न समव्यापकता का अवच्छेदक धर्मास्तिकायादिअन्यतमत्व, जो यहाँ प्रतिवादियों को उद्देश्य की विधेय में रहनेवाली न्यापकता के अवच्छेदकविधया अभिमत ई, नहीं हो सकता है । समच्यापकतावच्छेदक धर्मादिपटकभन्यतमत्व नहीं होने का कारण यह है कि धर्मादिषट्कअन्यतमत्व धर्मास्तिकाय में भी रहता है मगर उसमें अधर्म, आकार, जीव आदि तादात्म्यसम्बन्ध से नहीं है । मतलब कि विधयतापच्छेदकीभूत अधर्मत्व, आकाशत्त्व आदि धर्म धर्माद्यन्यतमत्य के आश्रयीभूत धर्मारितकाय में रहनेवाले अभाव की प्रतियोगिता के अवदक बन जाते हैं। विधेयतारच्छेटकीभून धर्मत्व, अधर्मत्व आदिधर्मपटक की समन्यापकता का अवच्छेदक धर्मादिपकअन्यतमत्व तर बनता यदि विधेयतावच्छेदकावच्छिन्न के आश्रय में रहनेवाले अभाव की प्रतियोगिता का अवच्छेदक धर्मादिपकअन्यनमन्त्र न बने और धर्मादिपटकअन्यतमत्व के अधिकरण में रहनेवाले अभाव की प्रतियोगिता का अवच्छंदक धर्मत्व, अधर्मच आदि न बने । मगर यहाँ ऐसा नहीं बनना है . यह हम बता चुके हैं। इसलिए विधेयतारच्छेदकसमन्यापकतावच्छंदकधर्मावन्निध्यापकल को विधेयायितावच्छेदक मानने पर 'च्याणि धर्माधर्माकाशजीचसमयपुद्गलाः' इस स्थल में धर्मादिषट्कअन्यतमत्वेन धर्मादिपदक में अल्पव्यापकता का लाभ नहीं हो सकेगा और उसे विधेयनान्वयितावच्छेदक सम्बन्ध न मानने पर विधेय में विधयताममच्याप्तरूप से उद्देश्यव्यापकतालाभ की मान्य करने की अवस्था में 'द्रव्यं गुणकर्मान्यत्वविशिष्टसत्तावत्' इस स्थल में द्रव्यान्यत्वविशिष्टसत्ताचेन विधय में दून्यच्यापकना का लाभ = ज्ञान होन का अनिष्ट प्रमग आयेगा । इस तरह दोनों नगद दीप मुँह फाड़ कर बड़ा रहने से उपर्युक्त प्रतिपादिमन अप्रामाणिक है ।
वह्नि में ट्रन्यावादिता गंमत्यापकतापति (4) विधयतावत्. । यहाँ बचाच के लिए प्रतिवादी की ओर से यह कहा जाय कि --> "विश्यानपितावच्छेदकसम्बन्धविधया
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*अनलाद्र पन्दारिता यापकत्वाणादतम * | दिना व्यापकत्वलाभप्रसङ्मात् । विशेदपावहातिरिक्तधर्मानवच्छिन्मा व्यापकता मायेति नातिप्रसहमो न वा
* गयलता *बच्चंदकसम्बन्धवे नास्ति कश्चिद दोषः । न हि धादिषटकान्यतमत्वाश्रयाभूते यस्मिन कस्मिंश्चित चांदा विधयतावच्चाबच्चिन्नप्रतियोगिताकाभावोऽस्ति न वा विधेयताबदाश्रये धर्मादिषटकान्यतमत्वावचिन्नप्रतियोगिताकाभावा वर्नन येन धनांदिषटकान्यतमत्वस्य विधयतावत्समव्यापकताबच्छेदकल्वे न स्यात् । अती धर्मादिषटकान्यतमत्वन द्रव्यत्वावच्छिन्नब्याजकत्वं विधेय निगवाधमेचेन्याशाइकामपाकर्तमाह- विधेयतावत्ममन्यापकतावच्छेदकरूपावन्छिनन्यापकत्वस्येति । उद्देश्यत विधेयता चा नादात्म्पसम्बन्धन झया । विधयतावच्छेदकसम्बन्धन विधेयतावनः समन्यापकं यन तनिष्ठा या तत्समन्यापकता तस्या अवन्दक यदूपं तदन्छिन्नस्य व्यापकत्वस्य, तथान् = विधयनान्वयिताचच्छदक्संसर्गले तु 'द्रव्याणि धर्माधर्माकाश-जीव-काल पुद्गला' इत्यय विधयतावन्य - मव्यापकतावच्छेदकीभूतेन धर्मायन्यत्मत्वेन द्रव्यन्या पकत्वस्य वेधेये लाभेऽपि, 'धूमवान हिमान्' इत्यादी संयोगसम्बन्धा - वच्छिन्नविधेयतावतः वहन्यादेः द्रव्यत्वादिना व्यापकत्वराभप्रसङ्गात् = तादात्यसम्बन्धावच्छिन्न-धूमचत्रिपन्याप्यनानिक पिनाया ज्यापकनाया भानापनेः, द्रव्यत्वादेः संयोगसम्बन्धावन्छिन्नविधेयनावह्निमत्रिशाभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्तान । न हि बहिमति दव्यत्वावचिन्नाभावो भवति । न च दन्यत्वस्य विधेयताब दिल्याकतावच्छेदकत्व:मि वहिसमव्यापकतानचटकन, दव्याश्रयवृत्त्यमारप्रतियोगितावच्छेदकल्वाद बह्नित्वस्यति वाच्यम, उच्यत्वपदस्य दन्यत्वविशिप्रय हित्वपरवान्नैप दांपः । बद्रा द्रव्यत्वं आदी यस्य द्रव्यत्वविशिष्टचह्नित्वस्य स तथा तेन इति विग्रडः कार्थः । तेन द्रव्यत्वपदस्य लक्षणाश्रयणमनिजघन्यमियनामि न क्षतिः । न हि व्यत्वविशिटवह्नित्वस्य बनिसमव्यापकतानवादकत्वम । आदिपदनोपलक्षणाद् वा रहिवदान्यनरत । वहीतरतरत्व - पदार्थत्वविशिष्टवाहित्वादनां ग्रहणम् । तेषामपि विधयताबसिमच्यापकनावच्छेदकलादिति भावः ।।
अथेति । चंदित्यनेनान्यः । विधेयत्तावच्छेदकातिरिक्तधर्मानवच्छिन्ना व्यापकना = दृश्यच्यापकता वहिनिष्ठा विधया - चयितावच्छेदकसम्बन्धविधया ग्राह्या इति हेतोः 'धुमवान बलिनान' इत्यादी नानिप्रसङगः = न द्रव्यत्वव्यायवडिलेन बहनेः धूमवव्यापकत्वापरातः, द्रव्यत्वविशिष्ट हित्वस्य बिंधपतावन्दीभूतहित्वातिरित्तत्वेन तदरित्रव्यापकताया बहिनिधिवनाचयितावच्छेदकसंसर्गत्वाइसम्भवात् । अत एव 'ज्यं गणकर्मान्यवंशिष्टसनावत' इत्यत्रापि न इल्यान्गत्वविशिष्टयनात्वाच्छिन्नव्यापकनायाः विधेयतान्चयितावच्छेदकसंसर्गत्वम, द्रव्यान्यत्वविशिष्टसनान्यस्य गणकर्मान्यत्वरिशिष्टसनात्यानिरिकत्वात् । न वा
हम विधेयतायत्समन्यापकनावच्छेदकरूपावच्छिनच्यापकता का स्वीकार करते हैं। धर्माश्चन्यतमत्व विधयतावच्छचकावन्निसमव्यापकता. अवच्छेदक धर्म न हो तो भी क्या ? वह विधेयताविशिएसमव्यापकतावच्छेदकधर्म तो है ही, क्योंकि तादात्म्यसम्बन्ध से धर्मायन्यत. मत्वविशिष्ट के आश्रय में विधेयतावचावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव नहीं रहना है और तादात्म्यसम्बन्ध में विधेयत्तावत् से विशिष्ट में रहनेवाले अभाव का प्रतियोगितावच्छेदक धर्मादिषट्कअन्यतमत्व भी नहीं बनता है। अतः धर्मादिषट्कअन्यनमन्वेन ब्यव्यापकता का धर्मास्तिकाय आदि पय्य में भान हो सकता है" -
तो यह, इसलिए मान्य नहीं हो सकता कि तर धर्मादिपटक अन्यतमत्वेन पर द्रव्य में ज्यव्यापकता का लाभ होने पर भी 'धूमचान वह्निमान' इत्यादि स्थल में वहि आदि विधय में द्रव्यत्वादिरूप से धूमवव्यापकना का भान होने की आपनि आयेगी, क्योंकि विधेयतावान् यहि की समच्यापकता का अरच्छेदक द्रव्यत्वादि = दुग्यत्वविशिष्टच हित्व है ही । जहाँ जहाँ वह्नि होता है. वहाँ वहाँ द्रव्यत्वविशिष्ट यहि रहना है और जहाँ जहाँ द्रव्यत्वविशिष्य चदि रहता है वहाँ वहाँ यदि रहता ही है । अत: विधेयताविशिष्ट चहि की ममच्यापकता का अवांटक दव्यत्वविशिष्टवबिच बन सकता है। अतः धर्मादिपकअन्यतमत्वेन द्रज्यव्यापकतालाभ की उपपत्ति करने पर द्रव्यत्त्वविदिष्ट वहिवन धूमच्यापकता के भान की आपनि आयगी ।
___E विशेशतावदामि धर्म से अनावशिवा त्यापता दोषग्रस्त
अथ. । यहाँ उपर्युक्त टोप के निराकरणार्थ प्रतिबादी की ओर से यह कहा जय कि -> "विधेय में रहनेवाली उद्देश्य की व्यापकता विधेयतावच्छेदकभित्र धर्म मे अनवच्छिन हो वैमा विवक्षित है । 'धुमचान चह्निमान्' यहाँ विधय है बहि। विधयतावच्छेदक है वहिव । द्रव्यत्यविशिष्टवाहित्य नो विधयतावच्छेदक नहीं है। अनः विधयनावचंदकातिग्नि द्रव्यत्वविशिष्टचहित्य से अवच्छिन्न व्यापकता का विधेयान्नयितावच्छेदकममविधया गृहण नहीं किया जा मयता। इसलिए वहि में द्रव्यत्वविशिष्टपहिल्वरूप से धूमबदल्यापकता = तादात्म्यसम्बन्धन्छिन अमरिष्ठव्याप्यत्तनिरूपितव्यापकता के भान की आपत्ति नहीं है । इस नन्ह
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७४६ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः : - का.११
* दीधितिसंवादः * वर्तिभिमभेदादिना व्यापकत्तलाभग्रसङ्गः गुरोरनवच्छेदकत्वादिति चेत् ? न, एवं सति प्रकृते | बाधात, तत्र समव्यापकताया द्रव्यत्वाद्यतिरिक्तावसिन्नत्वात्। 'सत् द्रव्यं संयोगी'त्यादी
-* जरालवा *बहिलसमव्यापकन चह्निभिन्नभेदादिना आदिपदन बभिंदाभावादिना बल: व्यापकत्वलाभप्रहः = धूमबव्यापकत्वभानापातः, गुरोः धर्मस्य अनवच्छेदकत्वात् 'सम्भवति लधौ मुरी तदभावात्' इति दीधित्युक्तेः । सम्भवदविधेयतावच्छेदकताक्रवाहित्यरूपलधुधर्मसत्त्वे वह्निभिन्नभेदादिरूपे गुरौ स्वरूपसम्बन्धरूपनवच्छेदकत्वं न स्वी.क्रयते । एतन बहित्वस्मनियत्त्वेन वहिमित्रभेदस्य ननोऽनतिरिक्तत्वेन हित्वाच्छिन्नविधेयताया वह्निभिन्न भेदायवच्छिन्नल्यस्य न्याय्यत्वादिति निरस्तम् इत्यञ्च बहित्यसमा नियनस्य वह्निभिन्नभेदस्य न वहिनिष्ठाया धूमबदव्यापकनाया अवच्छंदकत्वमिति न विभिन्नभेदावच्छिन्नन्यापकतामा विधयान्वयितावच्छेद - कसम्बन्धत्व, निरुक्तरीत्या तस्या एवाप्रसिद्धरित्यधाशयः ।
प्रकरणकार: तन्निगचष्टे - नेति । एवं सति = विधयतावच्छेदकातिरिक्तधर्मानवच्छिन्नाया विधेयतावत्समव्यापकतावच्छेदकानच्छिाया व्यापकताया विधयान्वदितावच्छेदकसंसर्गत्व स्वीक्रियमाणे मति, प्रकृते = 'धूमवान बल्लिमान उत्यादौ रथले. बाधात् = विधेयान्वयितावच्छेदकसंसर्गस्य बाधिनत्यात् । नदेवाह तत्र = वहौ. समच्यापकतायाः = विधयतावत्समव्यापकतायाः द्रव्यत्वाद्यतिरिक्तावच्छिन्नत्वात् = वहिवलक्षणविधयतावच्छेदकातिरिक्तद्रव्यत्वाद्यवछिन्नत्वात् । न च द्रव्यत्वस्य बहीतरवृत्तित्वेन विधेयतावत्समव्यापकतानवच्छेदकलं, द्रव्यविशिष्टबल्लित्वस्य विधेयतावत्तमन्यापकतावच्छेदकत्वं तु न सम्भवनि, रहित्यापेक्षमा नस्य गुरुत्वनानवच्छेदकत्वादिति वाच्यम्, वहन्यनुयोगिन्समवायन द्रव्यत्वस्य लघुत्वेन बहित्वापेक्षया द्रव्यत्वस्य गुरुत्वम् । समनियतानां सर्वे पाभवा गुरूणामवच्छेदकता त न्यायसिद्धान्तसिदैव ।
ननु विधेयतावत्समव्यापकतावच्छेदकता विधेयतावच्छंदकतावच्छेदकरसम्बन्धेन ग्राह्या । द्रव्यत्त्वनिष्ठा बहिनष्ठविधयतावत्समव्यापकतावच्छेदकना तु यहिमात्रानुयोगिकसमवायसम्बन्धावच्छिन्ना न त समवायाबच्छिन्ना । न च समवायस्पैक्यात्मा समवायावच्छिन्नति वाच्यम्, सम्बन्धिताइन्छेदकभेदात्समवयस्य नानात्वाभ्युपगमादित्याशङ्कायां प्रकरणकारो दोषान्तरमाविष्कराते - 'सत् द्रव्यं संयोगी' त्याद्राविति । जमवायन्यैर पूर्वमपास्तस्यादनुपदमुकामपि निरस्तमच तथापि स्फुटल्यानदुःपेक्ष्य पीढिवादेन दोषान्तरापादनमपि युक्तमेव । 'रात द्रव्यमिति उदेश्यनिर्दवाः, संयोगस्य विधेयत्वम् । विधयतावच्छेदकला संयोगत्वं । विधेयतावच्छेदकसम्बन्धलं विश्वेयतावच्छेदकतावच्छेदकसंसर्गत्वं च समवायस्य । उदयतावच्छंदकत्वं सामनाधिकरण्येन गत्वविशिष्टद्रव्यत्वं पयांप्तिसम्बन्धन सन्चद्रव्यत्वयाचा । उदन्यतावच्छेदकसम्बन्धस्तु नादात्म्यमेव । सद्गव्य नेष्ठांदेश्यतानिरूपितसंयोगनिष्ठविधेयतावत्समञ्यापकतायाः समवापसम्बन्धावच्छिन्ना अबच्छेदकता यथा संयोग चनिष्ठा नया द्रव्यत्वादिनिष्ठाः । न हि संयोगाधिकरणनिष्ठम्य । तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्या:भावस्य प्रतियोगिताया अबच्छेदकं द्रव्यत्वं भवति । ततश्च यथा 'धूमयान बहिमान' इत्पत्र समन्यापकताया विधयनाच्छेदकातिरिक्तद्रव्यत्वाद्यवच्छिन्नत्येपि वहिवन व्यापकत्वभानं प्रतिवादिनोऽभिमतमस्माभिश्च वविभिन्न भिन्नत्व आदि रूप में भी वहि में धूमरदव्यापकता के भान की भी आपत्ति नहीं आयेगी, क्योंकि विधेयतावच्छेदकीभूत चहित्य का वडिभिनभेद समव्यापक होने पर भी बहिन से अभिन्न नहीं है, अनतिरिक्त नहीं है । यहित्व से अनिरिक्त होने की बजह वलिभिन्नभेट आदि धर्म से अवच्छिन्न व्यापकता यहाँ विधेयान्वयिताबकंदकसम्बन्धविधया मान्य नहीं हो सकती । इसलिए 'धुमपान वहिमान्' यहाँ बडि में रह्निभिन्नभेदरूप से धूमव्यापकता के भान की आपत्ति भी निावकाश है" <--
न. यं । नो यह भी ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि . 'मवान बहिमान' इत्यादि स्थल में विधेयतावच्छेदक है रहित्व और विधेयतावत्समन्यापकतावच्छेदक है बहिनिष्ठसमवाय = वह्निअनुयोगिकसमवाय सम्बन्ध से दव्यत्व, क्योंकि रविअधिकरणवृत्ति अभाव का प्रतियोगिताबछेदक द्रन्यन्य नहीं होना है और वलिअनुयोगिक समचार सम्बन्ध में द्रव्यत्वविशिष्ट के अधिकरण में रहनेवाले अभाव की प्रतियोगिता का भवज्छेदक वहित्व या रहिनिष्ठविधयनायत्त्व नहीं होता है। दव्यत्व विधेयतावच्छेदकीमत बहित्व की अपेक्षा गुरु धर्म नहीं है और विधेयत्तावत्समव्यापकतानक धर्म है। इसलिए विधेयतान्वयितावच्छेदकीभूत व्यापकता. सम्बन्ध, जो प्रतिवादी को सम्मन है, धियताअवच्छेदकीभून घहित्व से अतिरिक्त अन्यत्त्व से अवच्छिन्न होता ही है । अतः वह सम्बन्ध ही बाधित हो जायगा यदि विधेयतान्वयितावच्छंदकीभून विधेयतावत्समव्यापकतावच्छेदकधर्मावत्रिन्यापकतासम्बन्ध को विधेयनारच्छेदकातिरिक्ताधर्मानवच्छिन्न माना जाय। दूसरा टोप यह है कि 'सन द्रव्यं संयोगी' इत्यादि स्थल में संपांगादि में द्रव्यत्वादिरूप से व्यापकता के भान की आपनि आयेगी । आशय यह है कि उपर्युक्त स्थल में सद् द्रव्य को उद्देश्य बना कर समायसम्बन्ध से संयोग का विधान होता है। विषयतावच्छेदक संयोगत्व है। अतः संयोगत्वेन संयोग में उदयच्यापकना
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* सत्पदप्रयोजनप्रकादानम् ** | संयोगादेः द्रव्यत्वादिना व्यापकत्वलाभप्रसहगाच्च । एतेत विधेयतावच्छिन्नसमव्यापकतामहे नाऽतिप्रसङ्गो, लघुद्धित्वादेरेवावच्छेदकत्वेऽपि
- जयाता , द्रव्यत्वादिना व्यापकत्वभानमापादितं तथैव प्रकृते विधेयस्य संयोगादेः विधेयतावत्समन्यापकतावच्छेदकन द्रव्यत्वादिना व्यापकत्वलाभप्रसङ्गात् = सद्व्यनिरूपिनन्यापकत्वस्य भानापतेः । न च विधेयाधिकरणवृत्तियों विधेयतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताकोभावस्तत्प्रतियोगितानबच्छेदकत्वस्य विधयतावत्ममब्यापकतावच्छेदकविशेषणोपगमन्निायं दोषः, द्रव्यवस्य तु विधेयाश्रयवृनितादालयसम्बन्धावच्छिनप्रतियोगिताकाभावीयप्रतियोगितानवनोदकत्वं न त नादशसमवायसम्बन्धावच्छिन्नाभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वमिति वाच्यम्, तथापि सन्ति द्रव्याणि धर्माधर्माकादश-जीव-काल-पगला' इत्पन्न धर्मादीनां व्यवन व्यापकत्वलाभप्रसङ्गात् । उद्देश्यतावच्छेदक -विधेयतावच्छेदकयोभिन्नत्वनियमाद्देश्यकोटी न सदिति निवेशः प्रकरणकारेण कृतः, विधेयतावच्छेदकीभूतसंयोगत्वस्य द्रव्यत्वातरिक्तत्वादेव किन्तु 'उदेश्यतावच्छेदकातिरिक्तरूपेणच विधेयताया भानमिति नियमादभिमतापादानानुरोधेनोदृश्यकोटी प्रकरणकृना सदित्युक्तमिनि तु ध्येयम् ।।
एतेन = निरुक्तप्रसङ्गेन, अपास्तमित्यनेनास्पान्वयः । उद्देश्यविधेयभावस्थले विधेयतावच्छिन्नसमच्यापकताग्रहे = विधेयान्वयितावच्छेदकसम्बन्धघटकविधया विधेयतावन्निन्नायाः समश्यापकनामा भाने रवीक्रियमाणे नातिप्रसङ्गः = न सन् द्रव्यं संयोगी' त्यादी संयोगादेव्यत्वादिना व्यापकत्वभानप्रसङगः; द्रव्यत्वस्य संयोगवतिनिधेयनान्यधिकरणत्वंन विधेयतारच्छिन्नसमव्यापकताबछेदकल्वाल्यांगात, विधेयतासमानाधिकरणे संयांगत्वं पत्र विधेयतासमानाधिकरणसमन्यापकताया अवच्छंदकताया अवच्छेदकत्वसम्भवात् । ततश्च विधेयतासमानाधिकरणा या समन्यापकता तस्या अरकंद्रनको यो विधयतासमानाधिकरणी धर्म: तदवच्छिन्नस्य व्यापकत्वस्यैव विधेयान्वयेताबन्छन्दकसन्दन्धत्वमित्युपगमे न को पि. दीपः ।
ननु विधेयताया विधेयस्वरूपतया ननुगतत्वेन विधयत्ववच्छेदकीमतवहिल्याद्यपेक्षया गुरुत्यान्न समब्यापकतावच्छे कल्वं सम्भवति, गरोरनवच्छेदकल्लादिति चेत् न, 'धूमवान वह्निमान इत्यादी विधेयतावच्छेदकस्य लघुवदित्वादेः एव अवच्छेदकत्वेऽपि
11.
का ज्ञान होता है। मगर विययतावत्समव्यापकताअवच्छेदकधर्म से व्यापकता का भान माना जाय तर दव्यत्वादि कर से भी संयोग में व्यापकता की बुद्धि होने की आपत्ति आयेगे, क्योंकि विषय मयंग का समव्यापक तादात्म्यसम्बन्ध से द्रव्य होना है । संयोग केवल दत्र्य में ही रहता है और मभी द्रव्यों में कोई न कोई संयोग तो रहता ही है। अतः द्रव्यत्व विधेयताबान संयोग के अधिकरण में रहनेवाले अभाव की प्रतियोगिता का अनवच्छेदक होता है। अतएव विध्यतावन्ममन्यापकताचच्छदक द्रव्यत्वरूप से भी संयोग में सन्पव्यापकता के भान का अनिष्ट प्रसंग उपस्थित होता है । इसलिए प्रतिवादी का कथन मान्य नहीं किया जा सकता ।
विधेयतावसिता समन्यापाता का भान दोपग्रस्त पतन, । उक्त आपत्ति के निरासार्थ उद्देश्यविधेयभावस्थल में कुछ विद्वानों का यह कथन है कि -> "विधय में विधयतावच्छिन्नसमव्यापकता का विधयान्वयितावच्छे टकसंसर्गघटकविधया भान मानने पर किसी टोप को अबकाया नहीं है । विधेय का जो समन्यापक हो उसमें विधेय की समव्यापकता रहती है। मगर वह समव्यापकता विधयताबभिन्न होनी चाहिए तब विधेयनिरूपित समव्यापकता के अपच्छेदकधर्मरूप से विधय में उद्देश्यन्यापकता का भान हो सकता है । अतः 'मन द्रव्यं संयोगि' इस स्थल में द्रव्यत्वरूप से व्यापकता के भान का प्रसा नहीं है, क्योंकि द्रव्यत्व जिस समव्यापकता का अवच्छदक है वह विधयताउछिन्त्र = विधेयताविशिष्ट = विधेयतासमानाधिकरण नहीं है। विधयता रहती है संयोग में और द्रव्यत्व रहता है द्रव्य में । दोनों समानाधिकरण नहीं है । विधेयना और दून्यत्त्व व्यधिकरण होने से संयोगनिष्ठविधेपनाअवजिन्न (-विशिष्ट) समन्यापकता का अवच्छेदक द्रव्यत्व नहीं हो सकता है, किन्तु संयोगत्व ही हो सकता है, क्योंकि यह विधेयतासमानाधिकरण है। इसलिए विधेयतावच्छिन्नसमध्यापकतावच्छेदकधर्मावधिभव्यापकता सम्बन्ध में ही विधेय का उद्देश्य में अन्वय करना उचित है । यद्यपि 'धूमवान वहिमान्' इत्यादि स्थल में विधेयतावछेदक वह्नित्व आदि लघु धर्म प्राप्त है । अतः बही समव्यापकता का अवनोंदक बन सकता है अर्थान बहिल्यावछिन्न ही समच्यापकता ही मकती है, न कि विधेयतावच्छिन्न समच्यापकता; क्योंकि गुरु धर्म अबच्चंटक नहीं हो सकता है । वहिल की अपेक्षा स्वरूपसम्बन्धात्मक विधयता ग धर्म ही है । तथापि विधयता में पारिभापिक अवनंदकता का स्वीकार करने में कोई दाप नहीं है । मतालर यह है कि स्वरूपसम्बन्धात्मक अवदकता का विधेयता में
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४८ मध्यमस्याद्वादरहस्ये बण्डः ३ का.५५ *दाधिन्युन्तियारध्यानम * विधेयतायां पारिभाषिकावचोदकत्वानपायात् । न चैवं गौरव, समव्यापकतावच्छेदकत्वेनोपलक्षणीभूतेनैव तत्तधर्मानुभमादिति :रापास्ता, ताहशधर्म विधेयतासमानाधिकरणत्वविशेषाणेऽपि संयोगादेर्गुणत्वाधवच्छिमव्यापकतालाभप्रसगात् । विधेयताऽभाववदवृत्तितादृश
-ॐ जयलता *= स्वरूपसम्बन्धात्मकावच्छेदकतावचगि विश्रयस्वरूपाय विधेयतायां पारिभापिकाबच्छेदकत्वानपायात = स्वरूपसम्बन्धानिरिनस्य तान्त्रिकाभिमतस्याउनुगतच्यावच्चंदकत्वस्याच्या धात् । पतेन 'सम्भवति लबी, गरी तदभावात' इनि दीधितिकारवचनमपि व्याख्यातम् । नतश्च विधेयतावच्छिन्नसमव्यापकताबछेदकावच्छिन्नव्यापकत्वस्य विधेयान्ययितावच्छेदकसम्बन्धत्व नास्ति दोषलशा-पि । न हि बहिनिष्ठचिंधयता वच्छिन्नसमल्याकन वच्छेदबहित्यावच्छिन्नव्यापकत्वसम्बन्धन धूमवचावछिन्ने बहरचयः बाधितः । न च एवं = विधेयतायां पारिभाषिकस्याःतिरिक्तावच्छंदकत्वस्य स्वीकार गौरव = अननुगतावदककल्पनागौरवं इति वात्र्यम्, विधेयतात्यह्नित्वत्वा दृदयनानिरूपकतात्यादिना समयापकताबच्छेदका भूतविधयता-वस्थित्वादृश्यता निरूपकनादीनां अननुगमेऽपि समन्यापकताबदकलेन उपलक्षाभूतेन = परिचायकन पच, न नु विषणरूपण, नत्तधर्मानुगमात् = | विधेयतावदित्वाश्यतानिरूपकत्वादिधर्मसङ्ग्रहमम्भवाद । समन्यायकतावच्छेदकत्वस्य विशेषणत्वं आत्माश्रयदोष इत्यत लक्षणीभूतनवति तदविशेषणम । इत्थश्च विधेयताचयितावचंदकस्मविध्या विधेयतावच्छिकसमव्यापकनारच्छंदकावच्छिन्नन्यायकत्वस्य स्वीकारे नास्ति बाधकं किञ्चिन । न हि 'सत उज्यं मयगी'त्यत्र संयोगमात्रनिष्ठविधेयनाचिनसमव्यापकतावच्छेदकल्लं द्रव्यत्वेऽस्ति, येन द्रव्यत्वन संयोगस्यायव्यापकत्वलाभः प्रसज्यंतति शङ्काग्रन्धाभिप्रायः ।
बिराकरत - तादशधर्म = स्मव्यापकतावदकधर्म, विधेयतासमानाधिकरणत्वविशेषणेऽपि = विधयतारामानाधिकरण्यात्मकविधयत्तापच्छिन्नत्स्य विशेषणत्वांपगम 'सत् त्र्यं स्यांगा त्यादी संधोगादेव्यत्वेन व्यापकत्वलाभनिराकरणपि, 'दृश्यं संयोनी'त्यादी विधयस्व संयोगादः गणवाद्यवच्छिनच्यापकतालाभप्रसड़गान, गुणत्वादः संयोगादिन्ठिविधेयतास्मानाधिकरणवान । नहि संयांगत्वाद्यवछिन्नविधेयतानामान्य निरूपिताधिकरणतान्छिन्नवृन्यभावप्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नत्वं गणत्वादेः सन्भवनि ।
ननु, समन्यापकनावदकधर्मे विधेयसान्यनिरूपिनवृत्तिनाशून्यत्वस्य च विशेषणल्वमस्तु । नती न 'द संयोगी'त्यादी संयोगादेः गुग्गत्वेनादयव्यापकत्वलाभप्रसङ्गः गुणत्वस्य विधपता-तिरिक्तवृत्तित्वादित्याइझटकायामाह- विधेयताऽभाववदवृत्तितादृष्ट्य -
स्वीकार करने पर विधेयता विधेयस्वरूप होने से विधेयता में रहनेवारी अवच्छेदकता भी विधयम्वरूप हो जायगी और विधेय = संयोग अननुगत होने से महागीरव उपस्थित होगा। अतः विधेयता को अवछटक नहीं मानी जा सकती यानी विधेयता में स्वरूपसम्बन्धात्मक अवछंदकना मान्य नहीं हो सकती । मगर पारिभापिक अवच्छंदकता यानी नान्त्रिकपुरुषअभिमत अवधेचकना का विधेयता में स्वीकार करने में तो कोई बाध नहीं है, क्योंकि स्वरूपमम्बन्धात्मक अवच्छेदकता में यह विरक्षित अवच्चंटकता भित्र है, अननुगत नहीं है। वहाँ गौरख दोप का भी अवकाश नहीं है, अर्थात् विधयता की भाँति अन्य धर्म में भी समव्यापकता. अवच्छंदकना मानने पर भी समव्यापकतावच्छदक धर्म अननुमत बनने से आते हा गौरव दोष को भी अवकाश नहीं है, क्योंकि यहित्व, विधेयना, उद्देश्यतानिरूपकत्व आदि धर्मों का, जो अननुगतत्वन प्रतीयमान हैं, ममन्यापकतावच्छेदकत्वस्वरूप उपलक्षणीभूत धर्म से अनुगम हो सकता है, क्योंकि ममन्यापकतावदकता उन मब में अनुगत है, साधारण है । समव्यापकता. वच्छंटकना विशेपण नहीं है, किन्तु उपरक्षण है। अर्थात् च्यावर्नक नहीं है किन्तु परिचायक है। अनः समव्यापकदारच्छेदयता को अनुगमक मानने में किसी दोष का अवकाश नहीं है। इसलिए विधयान्वयितावच्छेदकसंसगंधदकविधया विधेयतापदिन्नसमव्यापकता का भान मानने में किमी दोप का अवकाश नहीं है ।'' -
नादा. । मगर यह बक्तव्य भी इमलिए निगधार हो जाना है कि ममच्यापकतावच्छंटक धर्म के विशेपणविधया : विधयताबकिन्नत्व = विधयनासानानाधिकरण का निवेश करने पर भी 'इन्यं संयोगी' इत्यादि स्थल में गुणात्मक विधय संपांग में रहनेवाली उद्दश्यव्यापकता के अवच्छेदकधर्मविधया गुणच का, जो संयोगवृत्ति होने में विधयतासमानाधिकरण है. ग्रहण मकिन होन से गुणत्वावच्छिन्नव्यापकता के भान का अनिष्ट प्रमंग उपस्थित होगा। विधयताविशिष्ट के अधिकरण में रहनेवाले अभाव । = भंटा की प्रतियोगिता का गणत्य अनवच्छंदक है। अनः विधेयतावच्छिन्न ममन्यापकता का अवच्छेदक गुणच हो गकता ही है। इसलिए विधयतासमानाधिकरण मं धर्म का विधयाना उद्देश्यव्यापकता के अवच्छंदकविधया भान मानना भी नाम्नासिव है . यह फलित होता है ।
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* नानाविधयतावदकरपले व्यापकत्वमीमांसा * धर्मोपादानेऽपि संयोगरूपयोरन्यतरत्वेन विधेयत्वे संयोगत्वेन व्यापकत्वलाभप्रसगाच्च । -> "सर्वत्र विभागवाक्ये चरमपदे तावदन्यतमत्वेन लक्षणा स्वीकार्या, धादेिपदानां
-* जयलाता हैधर्मोपाटानेऽपि = विधेयतात्यावन्त्रिप्रतियोगिताकात्यन्नाभावाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वाभावविशिष्टत्य समव्यापकतावच्छेदकधर्मस्य If विधयनिष्ठावश्यध्यापकताबच्छेदकत्वन ग्रहणेऽपि, 'द्रज्यं संयोगरूपान्यतरविशिष्टं' इत्यादी द्रव्यस्याश्यत्वं संयोगरूपयोरन्यतरत्न || विधंयत्वे = संयोगरूपान्यतरत्वावच्छिन्नविधेयत्वे चाभिमते सति संयोगरूपयोः संयोगत्वेन ज्यापकत्वलाभप्रसङ्गात् = संयो गत्वावच्छिन्नस्योद्देश्यव्यापकत्वस्य भानापत्तेः, संयोगत्वस्य विधेयतानतिरिक्तवृत्तित्वेन विधयताशून्यनिरूपितवृत्तित्वशून्यत्वात् । ततश्च विधेयताऽभावबनिरूपितवृत्तित्वशन्धन विधेयतावच्छिन्नसमव्यापकतावच्छेदकेनाऽवच्छिन्नस्य ज्यापकत्वस्य विधेयान्वयितावच्छेदकसंसर्गतयोगदानेऽपि न निस्तार:. 'द्रव्यं संयोग-रूपन्यतरबदित्यत्र विधयताशुन्या वृनिविधेयतासमानाधिकरण-समन्यापकताबच्छेदकसंयोगत्वावच्छिन्नव्यापकत्वसम्बन्धन द्रव्यत्वावच्छिन्न संयोग-रूपान्यतरान्वयस्था वाधितत्वादिति तात्य॑म् ।।
वस्तुतो विधेयतावच्छेदकनानात्वस्थले या विधयतम्वच्छन्द्रकरूपण ज्यापकत्वं बाधितं तत्रैव शब्दा पाचन नधियतावच्छेदकावच्छिन्नान्यतमत्वादिना व्यापकत्वं प्रतीयत इति व्युत्पत्तिरिति न क्षतिरिति वदंति ।
ननु -> सर्वत्र विभागवाश्ये पदार्थ-द्रव्य-गुणादेविभागप्रतिपादकवाक्यत्व वच्छेदन विधेयाशे चरमपदं तावदन्यतमत्वेन = शब्दोपात्तयावविधयान्यतमत्वन लक्षणा = अपरवृत्तिः स्वीकार्या । यथा 'द्रव्याणि धर्माधर्माकाशीबसमयमला' इत्पन्न जनेन्द्र विभागवाक्ये विधेयां चरमस्य पुद्गलपदस्य धम धर्माकादशजीवसमयपुद्गलान्यतमत्वावच्छिन्ने लक्षणा स्वाकर्तुमुचिता । धर्मायन्यतमत्वावच्छिन्नव्यापकत्वविशिष्टतादात्म्यसम्बन्धेन द्रव्यलावच्छिन्ने तदन्यः । नामार्धयोरभदातिरिक्तरम्बन्धमात्रंगान्धयबोधस्यैव निराकाशनया व्यापकत्वस्य संसर्गमध्य प्रवेश ग्यव्युत्पत्तिविरहात् । गतेन निशतारिक्तिनामार्थयो: भदनान्वयम्या शुत्पन्नत्यनियमोऽपि व्याख्यातः. उदयविधेयभावमहिम्ना व्यापकत्वभानस्पीर्गिकत्वात् । न च लक्ष्यतावच्छेदयटकलयब
विधयनाःभा. । यदि उक्त दोष के निगसार्थ प्रतिवादी की ओर से यह कहा जाप कि -> "विधेयतान्वयितावच्छेदकसम्बन्धविधया अभिमत व्यापकता के अवच्छेदक धर्म के विशेषणविधया विधेपनासामानाधिकरण्य का नहीं अपितु विधेयता भावरदवृतित्व का ग्रहण करने पर किमी दोप का अवकाश नहीं है, क्योंकि 'द्रय संयोगी' इत्यादि स्थल में विधयना केवल संयोग में ही रहती है,
और गुणत्व तो विधेपताशून्य ज्ञानादि गुण में भी रहता है । अतः गुणत्वावच्छिन ब्यापकता के भान का कोई अवकाश नहीं है" -तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस तरह 'द्रव्यं संयागी' इत्यादि स्थल में गुणत्यादिरूप से विधेय में उद्देवयव्यापकता का परिहार होने पर भी 'द्रव्यं संयोगरूपन्यतावत' इस स्थल में संयोगत्वेन उद्देश्यव्यापकत्व का संयोगरूपान्यतरात्मक विधेय में भान होने का अनिए प्रसा अपरिहार्य है । प्रस्तुत में द्रव्य को बद्देश्य कर के संयोगरूपान्तरत्वेन संयोगरूपान्यनर का विधान किया जाता है । विधयतावच्छेदक संयोगरूपान्यतरत्त्व होने पर भी संयोगत्वेन व्यापकता का भान होने की भापति का कारण यह है कि विधेयताशुन्य रस-गन्धादि गुण, घट, पट आदि में संयोगत्व नहीं रहता है। विधेयताइभाववदवृत्तित्व संयोगत्व में अबाधित होने से संयोगत्वावच्छिन्त्रव्यापकत्व का विधेय में भान होना तथा संगत्वारच्छिन्नब्यापकत्वसम्बन्ध से इव्यत्वावच्छिन्न में संयोगरूपान्यतर का अन्वय होना न्यायप्राप्त है, यदि विधेयताअभाववान में न रहनेवाले धर्म को व्यापकत्यवच्छेदक माना जाय।
नपद की तावदन्यताम में लक्षण भी दोषग्रस्त सर्वत्र । यहाँ कुछ विद्वानों का कहना है कि -- "सर्वत्र विभागवाक्य में विधेय अंश में जो चरम पद होता है उसकी नावदन्यतमत्वेन तावदन्यतम में लक्षणा होती है । जैसे 'द्रव्याणि धर्माधर्माकाटा-जीव-काल-पुद्गलाः' इस स्थल में विधेयांश में चरम पर है पुद्गल, उसकी लक्षणा धर्माधर्माकाश-जीव-काल-पुद्गलान्यतम में होगी और लक्ष्वतावादक होगा धर्माधर्माकाशीकालपुद्रलान्यतमत्व । लक्ष्यतावच्छेदक धर्म से अवच्छिन्न ज्यापकत्व का विधय में भान होगा । अतः प्रस्तुत स्थल में धर्माधर्माकाशीचकालपुद्रलान्यतमत्वेन धर्मास्तिकाय-अधर्माग्निकाय-आकाशास्तिकाय-जीरास्तिकाय-काल-पद्लास्निकाय में द्रन्यव्यापकत्व का भान हो सकता है और नादृशान्यतमत्वावच्छिन्नव्यपकत्वविशिशोंद संवन्ध से विधय धर्मास्तिकाय अदिपट्क का उद्देश्यभूत द्रव्यत्वावच्छिन्न में अन्वय हो सकता है, जो अगाधित है। यहाँ इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि चरमपद की तावदन्यतम में लक्षणा होने पर भी धर्माधर्मादिपटपञ्चक का प्रयोग आवश्यक है, क्योंकि वे नात्पर्यग्राहक हैं । वक्ता के अभिप्राय का ज्ञान कराने से पूर्वोक धर्म, अधर्म आदि पद में पुननि दोष का भी प्रसङ्ग नहीं है" --
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७०० मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड ३ का. १४ *न्यायसूत्रसंवादः पट्टाभिरामोक्त्पतिदेशन
तु तात्पर्यग्राहकत्वान वैयर्थ्यम्" ← इत्यपि न युक्तम्, प्रथमादिपदेष्वपि तत्स्वीकारसम्भवेन विनिगमनाविरहात् । तस्मात् 'चित्रगुः' इत्यादाविव सर्वेषामेव लक्षकत्वमिति अपरे ।
* जयलता *
धर्मादीनां मानाद् धर्मादिपदपञ्चकवैयर्थ्यमिति वाच्यम्, धर्मादिपदानां अचरमाणां तु तात्पर्यग्राहकत्वात् = चक्त्रनिप्रायगोचरबोधजनकत्वात् न वैयर्थ्यं = नरर्थस्यम् । धर्मादिपदाप्रयोगे केवलमुद्गलपदात् चटपटाद्यन्यतमत्वावच्छिन्ने लक्षणा द्रव्य-गुणकर्माद्यन्यतमत्त्वावच्छिन्ने वा ? इत्यन्त्राऽनिर्गयात् । अत एव न पौनरुक्त्यमपि लच्यावकाशम् । इत्थञ्च चरमपुद्गलपदलक्ष्यतावच्छेदकीभूतेन धर्माद्यन्यतमत्वेनैव विधेयस्योद्देदयतावच्छेदकीभूतद्रव्यत्वावच्छिन्ननिष्ठन्याप्यतानिरूपितव्यापकत्वलाभः सम्भवतीनि तालम <- इत्यपि न युक्तम, प्रथमादिपदेष्वपि = धर्मादिपदेष्वपि चरमपुद्गलपदवत् तत्स्वीकारसम्भवेन = तावदन्यतमत्वावच्छिन्नलक्ष्यत्वनिरूपितलक्षकत्वाभ्युपगमस्य शक्यत्वेन 'चरमपदस्य तावदन्यतमत्वावच्छिन्ने लक्षणा प्रथमादिपदानां वा ?' इत्यन्न चिनिगमनाविरहात् = निर्णायकतर्काभावात् । न हि धर्मादिपदानां धर्माधर्माद्यन्यतमत्वावच्छिन्ननिरूपितलक्षकतावचमनीकृत्य तादृशभानीपगमे किञ्चिद् बाधकमस्ति । न च कर्मादिपदानां तावदन्यतमत्वावच्छिन्ने लक्षणाऽङ्गीकारे प्रत्ययानां प्रकृत्पर्यान्वि तस्वार्थबोधकत्वनियमभङ्ग एवं बाधकः धर्मादिपदानां प्रथमविभक्ति - प्रकृतित्वाभावादिति वाच्यम्, प्रथमायाः साधुत्वमात्र प्रयोगात् तादृशनियमस्य तेषां मोहः पाणीयान, नामूढस्येतरोत्पत्तेः' (न्पा. सू. ४ ९ ६ ) इतिन्यायसूत्रे दुषितत्याच
एतेन चरमं पुद्गलपदं धर्मन्वाद्यन्यतमवत्परं द्रव्यत्वावच्छिन्ने मेदसम्बन्धेन धर्मत्वाद्यन्यत्वावच्छिन्नस्थान्वयो व्युत्पत्तिवैचित्र्यात् । तथा च 'द्रव्याणि धर्मत्वाद्यन्यतमवन्ति' इति बांध इत्यपि परास्तम, धर्मादिपदानामपि धर्मवाद्यन्यतमवति लक्षणास्वीकारेण अभिमतशाब्दबोधनात् । तस्मात् चरमपदस्य लक्षकत्वमुताही प्रथमादिपदानां १ इत्यन्त्राऽविनिगतात, 'चित्रगुः' इत्यादी बहुव्रीहिसमासस्थल इव सर्वेषामेव समासघटकपदानां विभागवाक्यस्थले लक्षकत्वं तावदन्यतमत्वावन्नि लक्षकत्वम् । न च 'चित्रगुः' इत्यादी लाघवात् गोपदस्य गोमति लक्षणा गवि चित्राऽभेदान्वय इति वाच्यम्, पदार्थः पदार्थनान्चेति न तु पदार्थैकदेशेनति नियमस्य भङ्गप्रसङ्गात् । न च शरै: शातितपत्र : चैत्रस्य गुरुकुलमित्यादी पदार्थैकदेशान्ववस्व सर्वानुमतत्वेन तादृशव्युत्पत्ती मानाभाव इति वाच्यम्, अभेदसम्बन्धेन पदार्थः पदार्थेनान्वेति न तु तदेकदेशेनेत्यत्र तात्पर्यात् तदनङ्गीकारे तु 'ऋद्धस्य राजमाता' इत्यस्यापि प्रसङ्गात् । न च गोपदस्यैव चित्रगीमति लक्षणाऽस्तु चित्रपदं तु तात्पर्य ग्राहकमिति वाच्यम्, सम्भवति सार्थकत्वे निरर्थकत्वकल्पनाया अन्याय्यत्वादिति न्यायेन पूर्विचित्रपदस्य तात्पर्यग्राहकत्व स्वीकारानौचित्यात् । तस्मात् चित्रपदस्य गोपदस्य च चित्रगोमति लक्षणास्वीकारीचित्यात् । तदेव द्रव्याणि धर्माधर्माकाशात्नकालपुद्गला’ इत्यत्रापि धर्मादीनां सर्वेषामेव तावदन्यतमत्वावच्छिन्ने लक्षण स्वीकृत्याऽभिमतशाब्दबोधनिर्वाहस्यचित्ात् । अपरे इत्यनेनास्वरसः प्रदर्शितः । तद्वीजचेदम् यथा द्रव्य-गुण-कर्म- सामान्य विशेष- समत्रायाभावा: सम पदार्थ' इत्पन्न द्रव्यादीनां सर्वेषामेव तावदन्यतमलक्षकत्वे द्रव्यत्वाद्यन्यतमत्वावच्छिन्नस्य सप्तवारं भानापत्तिः पट्टाभिरामेण प्रदर्शित देव प्रकृतं धर्मायन्यतमत्वावच्छिन्नस्य षट्कृत्वः भानापत्तेः ।
=
मगर विचार करने पर यह वक्तव्य भी दोपग्रस्त प्रतीत होता है, क्योंकि तावदन्यतमत्वेन तावदन्यतम में विधेय अंग के चरमपद की लक्षणा की जाय या प्रथम पद की लक्षणा की जाय या द्वितीयादि पद की लक्षणा की जाय ? इस विषय में कोई विनिगमक नहीं है। इसका कारण यह है कि प्रथम धर्मपद की या द्वितीयादि अधर्म आदि पद की धर्माधर्माकाशात्मकालजीवपुलान्यतमत्वेन लक्षणा मुमकिन है नामुमकिन नहीं है, बाधित नहीं है। इसलिए मुनासिब तो यही है कि 'चित्रगु' इत्यादि स्थल की भाँति सभी पदों की लक्षणा को जाय अर्थात पदों को लक्षक माना जाय । आशय यह है कि 'चित्रगु यह पद बहुत्रीहिसमासवाला है जिसका अर्थ है चित्रगायवाला । यहाँ गोपद की गांमान् या चित्रगोमान् में लक्षणा करनी या चित्रपद की ? इस विषय में कोई विनिगमक नहीं होने से चित्रपद और गोपद दोनों की चित्रगांमान में लक्षणा की जाती है यानी चित्रपद और गोपद दोनों लक्षक हैं यह माना जाता है। ठीक वैसे ही प्रस्तुत में चरम पर की तावदन्यतम में लक्षणा की जाय या प्रथमादि पद की ? इस विषय में कोई विनिगमक नहीं होने की वजह धर्म, अधर्म आदि सभी पदों की धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय आकाश- जीव-काल- पुद्गल अन्यतम में लक्षणा की जाती है यही मानना मुनासिब है - ऐसा अपर विद्वानों का अभिप्राय है ।
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* अदम्याजाःबदनम
४.१
'अन्यतमत्व एव लक्षणा, धर्मादीनां तु तदेकदेशे भेदे प्रतियोगितयाऽन्वय इति ।
वस्तुतो भेद एवास्तु लक्षणा, लाघवात् । तस्य च धर्मादिभिः समं स्वयश्च त्रियान्वयो | व्युत्पत्तिवैचिभ्यादिति न्याटयः पन्थाः ।।
*वायल नन थमादीनां सर्वेषामेव नावदन्यतमल्यावच्छिन्ने लक्षमाया अगीकार गौरवमिति लाश्वात् अन्यतमत्त्व एव लक्षणा अस्तु । अन्यतमत्तन अनेकभंदावच्छिन्नप्रतियोगिताकदस्वरूपम् । धर्मादीनां = धर्मादिपदशक्वार्धानां तु तदेकदेशे अन्यतमत्वपदार्थभूतभेटप्रतियोगिताबन्छेदकलक्षण भेदे = अन्योन्याभावे प्रतियोगिनया = स्वनिष्ठप्रतियोगितानिरूपकत्वसम्बन्धेन अन्वयः - योगी नवनि । इत्पश्च स्वनिष्टप्रतियागितानिरूपकानसम्बन्धेन धादिषन्ट्रकविशिष्टभेदावच्छिन्नप्रतियोगिताकदवचन विधेयस्योंद्रश्यनावच्छेदकारचिन्ननिरूपितज्यापकत्वलाभ: 'नादाल्यसम्बन्धन द्रव्याणि निरुतधर्माद्यन्यनमवविंशष्टबन्तीत्यन्यधस्वीकारा. निहाति तात्पर्यम् ।
अन्ये इत्यनेन प्रकरणकृता स्वास्वरसः प्रदर्शितः । ताजश्चंदम् नानाभेदावनिप्रतियोगिताकभेदत्वेन ननाभेदारच्छिन्ननियागिताकद नलगायाः नकार पि गौरवानपायात, पृथिदी द्विविधा नित्यानित्या' इत्यत्रान्चयबोधानुपपत्तश्च न हात्र पृथिव्यामन्यतमत्वं प्रायते किन्तु नित्यानित्यान्यनरत्वमेव | न चान्यतमत्वान्यतरत्वयोरन्यतरनन्छध्यमस्त्विति वाच्यम्, मा मलि महागौरवादिति हदि निधायाह - वस्तूत इति । भंद एव, न त धर्माद्यन्यतमत्वावच्छिन्ने धर्मत्वाद्यन्यतमति अन्तमत्वादी या. अस्तु सर्वत्र विभागाक्यस्थले लक्षण, लाययात् = लतापदकालापात् ।
प्र दत्वस्य लक्ष्यतावच्छेदकत्वम, तपय धनांद्यन्यत्मन्याद्यपक्षया लधुत्वं मटमेव । अन्वयबोधोपपादनायाह तस्य - भंदम्य च स्वप्रतियोगिभिः धर्मादिभिः समं स्वयं = स्वाटतान्यतमत्वघटकविशेष्यात्मकदन सके, उद्देश्यतावच्छेदकारच्छित्रन सार्द्ध च त्रिधा = त्रिप्रकारण अन्चयः = यंगः व्युत्पत्तिदैचित्र्यात = दान्दस्यार्थबोधकशक्तिविशेषमहिम्ना नवति । भेदस्य प्रतियोगितासम्बन्धन धर्माश्रमांकाशजीवकालपुद्गलः सहा-बन्यो भवति । तस्य अन्यतमत्वएटकी भूतविशेध्यात्मकभेदेन समं स्वावच्छिन्न प्रतियोगितानिरूपकत्वसम्बन्धनान्बया भनि । उद्देश्यतावच्छेदकान्छिन्नं च तस्य स्वावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकभेदबत्त्वसम्बन्धनान्वयः कार्यः, निग्रह-पदाधंस्मरणशाब्दबोधानां समानप्रकारकत्यप्रत्यासन्या कार्यकारणभावनियमात् । एतेन प्रतियोगितावच्छेदकीभूतभेद रक्षणाङ्गीकार पि तदन्छिन्नप्रतियोगिताकदवत्ववादश्य भानं भवत इति मग्धप्रलापः परास्तः, पदार्थः पदार्थेनान्वेति न त तदेकदर्शनात
अन्यतमत्त में लक्षणा - अज्य विन्दान १० अन्यतमत्व. । यहाँ उद्देश्यविधयभावस्थल में अन्य विद्वानों का यह मन्तव्य है कि "चरमपद की लक्षणा नाचदन्यतमत्व में न मान कर केवल अन्यतमत्व में ही माननी चाहिए, क्योंकि उसमें लाघच है । अतः 'द्रव्याणि धर्माधर्माचाशनीवकालपुद्रलाः' यहाँ चरम पद की लक्षणा केवल अन्यतमत्व में ही होगी, जो नजिनचे सनि तानिनचे सति नभिभिन्नत्वस्वरूप है अधरा अनेकभेदावच्छित्रप्रतियोगिताकभेदावस्वस्वरूप है। अन्यतमत्व का घटक = एकटेश है अनेकमेट । उस भेद के प्रतियोगी धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय, आकाशास्निकाय आदि हैं । अनः धर्मास्तिकाय आदि का अन्यतमत्व के एकटेश भेट में प्रतियोगितामम्बन्ध - स्वनिष्टप्रतियोगितानिरूपकत्व सम्बन्ध में अन्वय होगा। अतः स्वनिष्ठप्रतियोगितानिरूपकत्वसम्बन्ध से धर्माधर्माकाशात्मकालपुद्रल. विशिष्टभदावभिन्नप्रतियोगिताक भेद, जो धमांस्तिकाय अथर्मास्तिकाय आदि छ में रहेगा, में लक्षणा मान कर तादृशाभेदावचित्रप्रतियोगिताकभंदावजिन उद्देश्यव्यापकत्ल का विधेय में भान माना जा सकता है। इस मान्यता के अनुसार तादृशच्यापकत्वविशिष्टतादात्म्य सम्बन्ध में उश्यतावच्छेदकद्रव्यत्वावच्छित्र में धर्मातिपदइन्य का अन्नय प्राप्त होता है या नादाम्यसम्बन्ध से द्रव्यत्वान्छिन में धर्मारिभन्यतम का भान होता है।
मेदमें हो लक्षण प्रामाणिक वस्तु. । वास्तविकता को लक्ष्य में लिया जाय तब तो सर्वत्र विभागवाक्यस्थल में भेद में ही लक्षणा होती है, क्योंकि नापदन्यतमत्वादछिन्त्र, अन्यतमत्व आदि में लक्षणा मानने की अपेक्षा भेट में लक्षणा का स्वीकार करने पर लक्ष्यतावच्छेदकधर्म शरीर में लाघव होता है । इस पक्ष में लक्ष्यार्थ भेद का प्रतियोगितासम्बन्ध से धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि के साथ अन्वय होता है तथा अन्यनमन्व के घटक विशेप्यान्मक भेद में बाबच्चिद्रनप्रतियोगिताकत्वसम्बन्ध से अन्वय होता है और उद्देश्यतारच्छेदक
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७०२ मध्यमस्यादादरम्ये खण्ड: ३ का. ११
* मथुरानाथसम्मतिदर्शनम
साम्प्रदायिकास्तु विशेषविधिनिषेधयोः शेषनिषेधाभ्यनुज्ञाफलकत्वान्न्यूनाधिकसङ्ख्याव्यवच्छेदकत्वमत्र व्युत्पत्तिसिद्धमिति : आहुः ।
ॐ जयलता है
नियमस्य भगप्रसगाव । ततश्च प्रतियोगितया धर्मादिविशिष्टभेदः स्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वसम्बन्धेन भेदान्तरेऽन्वितः सन् स्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकभेदवत्त्वसम्बन्धेन भासते । न च निपातातिरिक्तनाम धंयोर्भेदसम्बन्धेनान्वयस्यायुत्पन्नत्वान्नायमन्वयबीधः तान्त्रिकाणामभिमतः स्यादिति वाच्यम्, तथापि तस्यावश्यतावच्छेदकावच्छिन्ने स्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकभेदविशिष्टतादात्म्यसम्बन्धेनान्ययं बाधकाभावात् निपातभिन्ननामार्थयोरमेदातिरिकसम्बन्धमात्रेणैव निराकाङ्गत्वं न त्वतिरिक्तसम्बन्ध घटितादेनेत्यस्य मथुरानाथप्रभृतीनामप्यभिमतत्वात् । न चान्यत्र पूर्वोत्तरयोवान्वयस्य दृष्टचरत्वेन त्रिधान्वपस्थाऽच्युत्पन्नत्वमिति वाच्यमाशत्पत्तेः विशिष्य विश्रामान् । एतेन उक्तयानया दिशा नान्ययो दृष्टचर इत्पर निरस्तम्, तात्पर्यसत्त्वे क्रिमदर्शनमात्रेण । अत एव व्युत्पत्तिवैचित्र्यादित्युक्तम् । सर्वत्र विभागवाक्ये विधेयांश चरमपदस्यैव भेदे लक्षणा, अन्यथा प्रत्ययानां प्रकृत्यर्थान्वितस्वार्थबोधकत्वनियमभङ्गप्रसङ्गात् ।
न च प्रथमाया निरर्थकत्वान्नार्य दोष इति वाच्यम्, सम्भवति सार्थकले निरर्धकत्वकल्पनाया अन्याय्यत्वात् प्रथमाया अपि सार्थकत्वस्य तत्र तत्रीकत्वादित्ययमेव न्याय्यः = न्यायानपेतः प्रसिद्धनियमानुरोची पन्थाः = अन्ययवधीपालप्रकार: इति दृढतरं विभावनीयं व्युत्पन्नैः ।
साम्प्रदायिकाः उदयनाचार्यप्रभृतयः तु विशेषविधिनिषेधयोः प्रदर्शितयोः शेषनिषेधाभ्यनुज्ञाफलकत्वात् = अनुन्तप्रनिषेधत्रिधानावरांधजनकत्वनियमात् न्यूनाधिकसंख्याव्यवच्छेदकत्वं = प्रतिपादितसङ्ख्यापेक्षया न्यूनाया अधिकायाश्च भव्यायाः प्रतिषेधकत्वं अत्र सर्वच विभागवाच्यं व्युत्पत्तिसिद्धमिति । अयं तेषामाशयः यथोपस्थितेषु पुरुषेषु अस्मै देयं' इति विशेष विधानेऽन्यस्य दाननिषेधज्ञानं यथा वा तेषामेव मध्ये 'अस्मै न देयं इति विशिष्य निषेधे दिन दानविधि लक्षणादिना शाब्दरूपमनुमितिरूपं वेत्यन्यदेतत् । तथा विभागस्यापि न्यूनाधिकसङख्यान्यवन । सामान्यतः ज्ञातानां विशेषरूपेणाऽभिधानं विभागः । विभाजकांपाधीनां परस्परसामानाधिकरण्यवच्छेदोऽधिकस दुव्यासवच्छेदः । वस्तुतः विभाज्यतावच्छेदकसामान्यविभाजकांपाधिमनिष्ठान्योन्याभावप्रतियेगितावच्छेदकयवच्छेदी- धिकसख्यान्यवच्छेदः । विभाजकोपाध्यवच्छिन्नातिरिके विभाज्यतावच्छेदकसानान्यधर्मव्यवच्छेद्ये विभाज्यतावच्छेदकसामान्यधर्मस्य विभाजकतावच्छेदकं यत् तद्धर्मावच्छिन्नभेदसमुदायववृत्तित्वाभावो न्यूनसंख्याव्यवच्छेदः । तद्बोधकत्वञ्च व्युत्पतिसिद्धम् । न च साम्प्रदायिकमतानुसारेणाऽपि 'द्रव्याणि धर्माधर्माकाशजीवकालपुद्गला' इत्यत्र जैनेन्द्रद्रव्यविभागवाक्यं कथं प्रतिषेधः सम्भवति ? न हन्यगतस्य प्रतिषेधः सम्भवतीति वाच्यम्, द्रव्यस्य रातः पडनात्मत्वं पचाद्यस्य सत्तो द्रव्यत्वं वा प्रतिषेध्यम् । तथा च प्रतिपन्नस्य प्रतिपत्रं प्रतिषेध इति न किञ्चिद् दूषणम्। अतः परं न शक्ता न चोत्तरम् । तथाहि इदं द्रव्यमेभ्योऽधिकं स्यादिति वा इदभ्योऽधिकं द्रव्यं स्यादिति या शक्यते । प्रथमे आधिक्यं निराचिकीर्षितं यथा पुद्गलात्पृथिबी जलानला निलदिग् मनसां द्वितीये च त्वं यथा गुणादेः । अतः परं न शङ्का न चोत्तरं धर्मिण एवं बुद्ध्यनारोहान् । यदि कथञ्चिद् बुद्धिमारोक्ष्यते तदाऽस्माभिरुक्तेष्वद्रव्यत्व से अवच्छिन = द्रव्यसामान्य में स्वावच्छेदकावच्छिनदविशिष्टतादात्म्यसम्बन्ध से अन्वय होता है । इस तरह लक्ष्यार्थ भेद का विधा अन्य मानना ही न्याय्य है। इस तरह 'न्याणि धर्माधर्माकाशजीवकालपुद्गलाः ' इस विभाग वाक्य से अन्वयबोध इस तरह होगा कि प्रतियोगितासम्बन्ध से धर्मादिविशिष्ट भेद, जो स्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वसम्बन्ध में भेदान्तर में अन्वित होता है, स्वावप्रतियोगिताकभेदविशिष्टतादात्म्पसम्बन्ध से द्रव्य को स्वविशिष्ट बनाता है अर्थात् 'तादृशसम्बन्धेन भेदविशिष्टानि द्रव्याणि । अन्वयबोध का यह प्रकार मुनासिन है, क्योंकि इसके स्वीकार में किसी प्रसिद्ध प्रामाणिक शाब्दस्थलीय नियम का भङ्ग नहीं होता है । विशेपजिज्ञासु जयलता पर निगाह डाल सकते हैं ।
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3 विभागवाक्य न्यूनाधिकसंख्याव्यवच्छेदज्ञापक है प्राचीन नैयायिक
सां । साम्प्रदायिक
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गौतमीय न्यायसम्प्रदायानुरोधी मनीषियों का यह कथन है कि विशेष का विधान अनुक्त प का निषेध करता है और विशेष का निषेध अनुक्त शेप का विधान करता है। जैसे 'केवलिप्ररूपित धर्म श्रद्धेय है' ऐसा विशेषविधान होने पर इतर मिध्यादृष्टि आदिप्ररूपित धर्मों में श्रद्धेयत्व का निषेध होता है तथा 'अयोग्य को दीक्षा नहीं देनी चाहिए' ऐसा विशेष निषेध होने पर इतर = योग्य को यथोक्त संख्या से न्यून या अधिक संख्या का निषेध होता है
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दीक्षा देने का विधान होता है। इस तरह विभागवाक्य से यह तो व्युत्पतिसिद्ध ही है। यहाँ व्युत्पत्ति का अर्थ है
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* किरणावरीक गंदयनमतनिरास: अप व्युत्पत्तिः सदव्युत्पनीयबोधहेतृत्वग्रहः । तत्त्वच पदार्थे धर्माचन्यतमभिमाऽतादातम्यतवृतिभेदाऽग्रतियोगित्वोभयसंसर्गकशाब्दबोधं प्रत्युक्तानुपूर्वीज्ञानत्वेन । तेन विपरीतव्युत्पास्याऽन्यथाबोधेऽपि न क्षतिः ।। अन्यत्र तु 'बाह्मणेभ्यो दधि दातव्यं, कौण्डिन्याय न दातव्यं', 'बाह्मणेभ्यो दधि न
-* जयलता *नान्तर्भावयिष्यते, अनन्तभबि वा द्रव्यत्वं तस्य निराकरिष्यत इति तात्पर्यम् ।
अत्र = विभागवानये, व्युत्पतिः = न्यूनाधिकसंग्ल्यान्यवच्छेदसाधकव्युत्पनिपदप्रतिपानः, सद्व्युत्पन्नीयाधहेतुत्वग्रहः = सम्यग्ज्युतान्त्रपषीयान्वयबोधनिष्ठकार्यत्वनिरूपितकारणत्वोधः, तत्त्वं = समीचीनव्युत्पन्नसमतदाब्दबोधहेतुत्वं च पटार्थे | * उद्देश्यतावच्छेदकावन्लिन्ने धर्माद्यन्यतमभिन्नाऽतादात्म्य - तदनुत्तिभेदाऽप्रतियोगित्वोभयसंसर्गकशाब्दबोधं प्रति उकानपूर्वी ज्ञानत्वेन = 'च्याणि धर्माधर्माकाजीवकालपुद्गलाः' इत्याकारमानुपूर्वी ज्ञानत्वन । परिमन शान्दवांचे अंदपनावच्छेटक द्रव्यत्वावच्छिन्न विधेयस्य धर्माद्यन्पत्तमभिन्ना तादाम्प-नवृत्तिभेदाप्रतियोगितामा सम्बन्ध: संगर्गमर्यादया भासत नादावादीधवावच्छिन्न प्रति निरुजानुपूर्वीझानत्वंन कारणत्वम् । न हि द्रव्यत्वावच्छिन्न धर्माद्यन्यत्मनिम्नमित्रत्वं एमांदिवृनिभेदा:प्रनयोग वा गधितम् । कार्यतावच्छेदकगंसर्गश्च न केवलं ममवायः किन्तु सम्यग्व्युत्पन्नएम्पानुयोगिकसम्यायः, कार्यनम्वछंदकधाकोटी तन्त्रको तु गौरवम् । नत्फलमाह - तेन = सम्यग्युत्पन्नानुयोगिकनमबायस्य आनुपूर्व जानकार्यतावच्छेदकसम्बन्धत्वन, विपरीतव्युत्पन्नस्य = प्रदर्शितविल तिमत. पास', मसोमेडशि - न्यूधिकरल्यान्यवच्छंदानवनाहिशाब्दबोधोत्पाद कपि, न क्षतिः = न व्यभिचारः, प्रदर्शितकार्यकारणभावानाक्रान्तलान. व्युटानी निरुक्तहत्त्वग्रहलस्य बाधितत्वत । इत्या विभागवाक्यस्थले विशेषविधि-निषेधयो: दोपनिषध नुज्ञाचोधजनकत्वन न्यूनाधिकसंग्शययच्छंदवावकामगनपायमेव प्राचीनगीत - मीयदर्शनाभिप्रायानुसारेणेति फलितम् ।
वस्तुतरन्येवमभ्युपगमे 'द्रयाणि पृधिव्याजावग्याकाहाकालदिंगात्ममनारिस नवव' इतिगातमायद्रव्यविभागवावगे ‘नवर' इनि व्यर्थं स्यात् । पनेन यद्यपि विभागस्य न्यूनाधिकारख्याव्यवच्छेदपरत्वादेव न्यल लयं तथापि स्पष्टार्थ नवग्रहणं, सरकारश्च विप्रनिपनिनिराकरणार्धः' (कि.ग.) इति उदयनवचनमपि प्रत्यारख्यातम. सदव्युतान्नस्य तसिद्धान्तानुसरंण विभागवाश्याय नबत्वलाभात, विप्रतिपत्तिनिराकरणसम्नवाच्च । न हि संसगमर्यादया तत्प्रत्यये किञ्चिद्बाधकमम्नान्यस्वरसं हदि निधाय 'आहुः' इत्युक्नमिति ध्येयम् ।
अन्यत्र - विभागवाक्यादन्यत्र विशेषविधिनिषेधस्थले । करणाकरणविकल्पप्रसक्त्येति । युगपद विधिनिषेधविकल्पापल्या ।
सम्पक रीति से व्युत्पन्न पुरुप के बांध की कारणना का ज्ञान, जिससे विभागवाक्य में न्यूनअधिकसंख्याप्रतिषेधकत्व मिद्ध होना है । समीचीनव्युत्पत्रपुरुषसम्बन्धीज्ञानजनक आनुपूर्व ज्ञान है । आनुपूर्वी का मतलब है पदों का पूर्वोत्तरभाव । भानुपूर्व ज्ञान में रहने वाला तत्त्व - सम्यग्व्युत्पत्रपुरुपीयशान्दवोधजनकत्व प्रदर्शित आनुपूर्वी ज्ञानस्वरूप में है। आनुपूर्वी ज्ञान का जो कार्यभूत शाब्दबोध है वह विषयतासम्बन्ध में पदार्थ में उत्पन्न होता है । वह शाब्दबांध पदार्थपत्तिधमांदिअन्यतमभिन्नाऽताटात्म्य और पदार्थवृत्तिभेदाप्रतियोगित्त्व उभयसंसर्गक होता है। 'द्रव्याणि धर्मधर्माका-जीव-काल-पुद्गलाः' यहाँ विवक्षित आनुपूर्वी ज्ञान से उपर्युक दाब्दबोध होने में कोई गध नहीं है, क्योंकि द्रव्यपदार्थ द्रव्य में धर्मादिअन्यतमभिन्न गुणादि का अनादात्म्य = भेट रहना है और द्रव्यपदार्थ में रहनेवाले भेट - गुणभेद आदि की अप्रतियोगिता भी रहती है। इस तरह तादृशाउभयमनगंक शाब्द के प्रति प्रदर्शिन आनुपूज्ञानत्वेन कारगता का ज्ञान ही व्युत्पति है, जिससे विभागवाक्य में न्यून अधिकमयान्यवच्छंदकारणना सिद्ध होती है। ऐसा कहने से जो पुरुप सम्पग्व्युत्पन्न नहीं है किन्तु विपरितव्युत्पत्र है. उसे अन्यथा में प्रदर्शित झान्ट बांध से भिन्न = विलक्षण शाब्दबोध हो तो भी कोई दोर नहीं है, क्योंकि वह चिलवण शाब्दबोध उस व्युत्पनि का कार्य है। नहीं है । यह विभागवाक्यस्थल की रात हुई। मगर जो वाक्य विभागवाक्य नहीं है फिर भी विधि-निपंध करता है वहां करण-अकरण विकल्प सं सामान्यवाचक पद की विशेष अर्थ में लक्षणा होती है। जैस 'ब्राह्मणेभ्यो दधि दातन्यं, कौण्डिन्याय न दातव्यं' इस वाक्य से ब्राह्मणों को दही देने का विधान और कौण्डिन्य को नहीं देने का निषेध होता है । मगर कौण्डिन्य को दधिदान भी प्राप्त होता है, क्योंकि वह ब्राह्मण तो है ही। कौण्डिन्य को जो दधिटान प्राप्त था उसका निषेध करनेवाले, वचन से ब्राह्मण पद की कौण्डिन्यभिन्न ब्राह्मण = ब्राह्मणविशेप में लक्षणा होती है, अन्यथा वाक्य के पूर्वार्ध से करण =
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७०४ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड : का ११ * तक्रकौण्डिन्यन्यायनिरूपणे पातञ्जलमहाभाष्यसंवादः *
दातव्यं, कौण्डिन्याय दातव्यं' इत्यादी करणाकरणविकल्पप्रसक्त्या सामान्यपदस्य विशेषपरत्वं युक्तं, सामान्यरूपेणैव वा विशेषबोध: ।
नव्यास्तु → इतरबाधादिसहकारेण व्यापकतानवच्छेदकरूपेणाऽनुमितिरिवाज्ञ पदानुपस्थि
ॐ जयलता
"ब्राह्मणेभ्यो दधि दातव्यमित्यनेन ब्राह्मणत्वाऽविशेषात्कौण्डिन्य दानविधानं 'कोण्डिन्याय न दातव्यमित्यनेन कौण्डिन्यं दाननिषेधश्व युगपलभ्येताम् । तथा ब्राह्मणेभ्यो दधि न तव्यमित्यनेन कौण्डिन्ये ब्राह्मणत्वाविशेषात् दधिदानप्रतिषेधः 'कौण्डिन्याय दातव्यमित्यनेन च तस्मिन्नेव दधिदानविधिश्व युगपदेव लभ्येताम् । न तद दृष्टमिष्टं वा विरोधात असम्भवाच । | इत्यनेन हेतुना तत्र सामान्यपदस्य विशेषपरत्वं = विशेष लक्षणायाः स्वीकरणं युक्तम् । ततश्व ब्राह्मणपदं कौण्डिन्येतरब्राह्मणत्वेन लक्षणायाः स्वीकारात् कौण्डिन्येतरत्राह्मणसम्प्रदानक-दधिकर्मक दानविधिः कौडिन्यस्म्प्रदानक- दधिकर्मक- दानप्रतिषेधश्च युगपत्प्रथमविधिनिषेधवाक्याल्लभ्येते द्वितीपविधिनिषेधवाक्यान्तु कौण्डिन्यतरब्राह्मणसम्प्रदानक- दधिक्रमक दाननिषेधः कौण्डिन्यसम्प्रदानक- दधिकर्मकदानविधानश्च समकालमंत्र प्राप्यते । न च विरोधः, विधानप्रतिषेधकर्माऽपि विधिनिषेधाधिकरणभेदात् ।
ननु शक्त्यैवापादनसम्भवे लक्षणया तदुपपत्तेरन्याय्यत्वात्. लक्षणाश्रयणस्याऽतिजवन्यत्वादित्यत आहसामान्यरूपेण = ब्राह्मणत्वेन एव वा विशेषबोधः = ब्राह्मणपदात कौण्डिन्येतरब्राह्मणाविषयकरशादबोधी युक्तः, एवकारेण लक्षणया विशेषचोध इत्यस्य व्यवच्छेदः । अत ब्राह्मणत्वावच्छिन्न- कौण्डिन्येतरब्राह्मणनिष्ठसम्प्रदानताक-दधिकर्मदानविधिः कौण्डिन्यसम्प्रदानक-दधिकर्मक दाननिषेधश्व प्रथमवाक्यादायेत । ब्राह्मणत्वावच्छिन्नकौण्डिन्येतखाह्मणनिष्ठसम्प्रदानताक• दधिकर्मकदाननिषेधः कौण्डिन्यसम्प्रदानक-दधिकर्मक दानविधान द्वितीयवाक्यादवगम्यते इति फलितम एतेन तक्रकीन्विन्यायों प व्याख्यातः शब्दतः साक्षाभिषेवा करणेऽपि विशेषविधानस्य नदितरनिषेधकत्वलाभात् । तदुक्तं पानञ्जलमहाभाष्ये लीकिकोऽयं दृष्टान्तः । लोके हि सत्यपि सम्भवे बाधनं भवति । तद्यथा दधि ब्राह्मणेभ्यो दीयतां तर्क कौण्डिन्यानि सत्यपि सम्भ दभिदानस्य नक्रदानं निवर्तकं भवति (पा.म.सा. १-१-४७) इति ।
नव्यास्तु इति आहुरित्यनेनान्वेति । इतरबाधादिसहकारेण = महानसं चत्वरीयवदन्यादिबाध- तदनुपस्थित्यादिवलेन, व्यापकतानवच्छेदकरूपेण = धूमनिष्टव्याप्यतानिरूपितव्यापकताया अनवच्छेदकेन पर्वतीयह्नित्वेन रूपेण अनुमितिः पर्वतपक्षक-धूमलिङ्गकानुमितिः इव, अत्र ब्राह्मणेभ्यो दधि दातव्यं कौण्डिन्याप न दातव्यं', 'ब्राह्मणेभ्यां दधि न दातव्यं, कौण्डिन्यास दातव्यं इत्यादी विधिनिषेधस्थले पदानुपस्थितेन ब्राह्मणादिपदजन्यपिस्थितिप्रकारतानवच्छेदकेन अपि विशेषरूपेण afvarafaधि और उत्तरार्ध से अकरण = दधिदाननिषेध की कौण्डिन्य में युगपत् प्राप्ति होने की आपत्ति आयेगी । इसी तरह 'ब्राह्मणेभ्यो दधि न दातव्यं, कौण्डिन्याय दातव्यं' यहाँ पूर्वार्ध से एक ही ब्राह्मणस्वरूप कीण्डिन्य में दधिदाननिषेध = अकरण और पश्चात् भाग से दधिदानविधान करण के विकल्प की युगपन् = समकालीन प्राप्ति होती हैं, जो विरोधग्रस्त है । इसे हटाने के लिए ब्राह्मणपत्र की, जो ब्राह्मणसामान्य का वाचक होता है, ब्राह्मणविशेष कौण्डिन्यभिन्न ब्राह्मण में लक्षणा करनी युक्तिसंगत है । अथवा यह भी कहा जा सकता है कि ब्राह्मणपद से सामान्यरूप से = ब्राह्मणत्वेन विशेष = ब्राह्मणविशेष
कौण्डिन्यभित्र ब्राह्मण का बोध होता है। अतः प्रथम वाक्य से ब्राह्मणत्वेन ज्ञायमान कौण्डिन्यभिभवाहण में दान का विधान होगा और दूसरे वाक्य से उसीमें दान का निषेध होगा। अतः प्रथम वाक्य के उत्तरार्ध से कौण्डिन्य में दान का निषेध या दूसरे वाक्य के उत्तरार्द्ध से कौण्डिन्य में दान का विधान होने में कोई विरोध उपस्थित नहीं होगा । ब्राह्मणत्वेन ज्ञापमान कौण्डिन्येतर ब्राह्मण को दान देना, कौण्डिन्य को नहीं तथा ब्राह्मणत्वेन ज्ञायमान कौण्डिन्येतर ब्राह्मण को दही न देना और कॉण्डिन्य को देना ऐसा अर्थबोध नानने में विरोध को अवकाश कहाँ ? इस द्वितीय पक्ष में ब्राह्मणपदकी विशेष अर्थ में लक्षणा करने की आवश्यकता नहीं है ।
पदानुपस्थितरूप से शाब्दबोध - जव्य वैयायिक
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नव्या । यहाँ नव्यनैयायिक का यह वक्तव्य है कि जैसे पर्वतो द्धिमान् धूमातृ' इत्यादि स्थल में धूमव्यापकतावच्छेदक त्व होने पर भी पर्वतीयवहिन ही, जो धूमव्यापकतानवच्छेदक हैं, नति की अनुमिति होती है, क्योंकि वह्नित्वेन ि की अनुमिति का कोई प्रयोजन नहीं है । यहाँ महानयवदित्य चत्वरीयवत्व आदि रूप से वह्नि की अनुमिति नहीं हो सकती; क्योंकि पर्वत में, जो यहाँ पक्षविया अभिमत है, महानसीय वहि आदि का बाध है । इस तरह इतरबाध आदि
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* नव्यमताऽस्वरसवाजविचारः
तेनाऽपि विशेषरूपेण शाब्दबोध इत्याहु: । तच्चिन्त्यम्, अधिकोऽन्यत्र विस्तरः ।
ॐ जयलता M
कौण्डिन्येतरब्राह्मणत्वेन रूपेण शाब्दबोधः सम्प्रदानाद्यन्वयबोधः भवति । अयं नेपामाशयः पर्वती वह्निमान् धूमादित्य धूमत्वावच्छिन्न-संयोगसम्बन्धावच्छिन्नधूमनिष्ठव्याग्यतानिरूपित संयोगसम्बन्धावच्छिन्नवव्यापकताया अवच्छेदकं बह्नित्वमेव तथापि वह्नित्वेन वहन्यनुमितिर्न भवति, महित्वेन वह्नः सिद्धत्वेन सिषाधयिपाविरहकाले पक्षाविरहेणानुमित्यनुदयप्रसङ्गात् । नापि महा नसीयचह्नित्यादिना रूपेण तदनुमितिः सम्भवति बाधान अनुपस्थितंश्च । किन्तु गरिदीयन्ययन पर्वतीयबह्नित्ववानुमितिजायते । प्रत्युक्तः, पर्वतीयवह्नित्वेन सिषाधयिथितले अनुमितेरनुत्यादापतेश्च । किञ्च यथा घटमानय उत्पादी तात्पर्यवाश्रादिसहकारेण शक्यतानवच्छेदकन निश्चिद्रघटत्वेन शाब्दबाधी जायते । तदेव ब्राह्मणेभ्यो दधि दीयतां न कौण्डिन्याय' इत्यत्र कौण्डिन्याभिधानब्राह्मणं दधिदाननिषेध्वसहकारिण कीण्डिन्येतरब्राह्मणत्वंनव ब्राह्मणपदाच्छन्द्रबोधी जायत । ततश्च विशेषविधिनिषेधस्थले विशेषरूपेणैव निषेध्य-विधेयसामान्यबोधः सङ्गच्छते न तु सामान्यपदस्य विशेषणरत्न, लक्षणायां गौरवात् नापि सामान्यरूपेण विशेषबोधः इति ।
काका
Sak
आहुरित्यनेन नन्यमने स्वास्वरसः प्रदर्शितः । तदेव दर्शयति तचिन्त्यमिति । चिन्ताबीज भावनीयम् व्यापकतावच्छेदकप्रकारेणैवानुमितिनियमानुरोधा व्यापकतानवच्छेदकरूपेणानुनितिः सम्मता, गौरवात् । न च वह्नित्वेन वह्नेः सिद्धत्वात्रानुमितिरिति वाच्यम् पर्वते तदसिद्धेः । पर्वतीयवह्नित्वेन सिषाधपितित्वं तु पर्वतीयधूमत्येनेव हेतुत्वाद व्यापकतावच्छेदकत्वमंत्र पर्वतीयचह्नित्वस्य । नचह्नित्वेनानुमिनी वह्निविशेषलाभी न स्यादिति वाच्यम ह्निनानुमितावपि पश्चात पक्षश्रमंतावलंन तत्सम्भवान् । एतेन घटमानय इत्यत्र निविघटन घटधपि प्रत्युक्तः, वृत्तिग्रह - पदार्थोपिस्थितिशाब्दबोधानां समानप्रकारकत्वेन कार्यकारणभावनियमात् घटलेनेव घटवावेऽपि हात्पचादिसहकारीकविशेषणविशिष्ट परवशिष्ट्रयमिति न्यायानिटि भानसम्भवात्, अन्यथा घटोत्सारणीय' इत्यादावपि समीपस्थघटत्वन शाब्दबोधः स्वीकार्यः स्यात् । तथा च प्रसिद्धकार्य. कारणभावभङ्गप्रसङ्गः ।
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एतेन यद्यपि व्यापकतावच्छेदकत्वेन गृहीत धर्मावगाहिपरामर्शात व्यापकतावच्छेदकी भूततद्धमविच्छिन्नप्रकारिकवानुमितिजायते | न पुनर्स्थापिकतानवच्छेदकधर्मान्तरावच्छिकारिका इति न्यायमर्यादा तथापि एकविशेषबाधालीनपरामर्शातु व्यापकतानवच्छेदकमांबच्छिन्नप्रकारिका अनुमितिः प्रामाणिकी प्रथा बह्नित्वावच्छिन्नव्या स्कतावगाहिनः महानसीयतरवचिन्वन्धकालीनपरामर्शात् महानसीयह्निमानयं' इत्येव व्यापकता नचच्छी दकमहानसीयत्वावच्छिन्नप्रकारका अनुमितिर्भवति एवं लाघवज्ञानासहकृतादपि परामर्शांन व्यापकतानवच्छेदकश्रमविच्छिन्नप्रकारा अनुमितिजयितं यथा यतित्वावच्यिा एकतवगाहिनः महानसवही लाघवमितिबुद्धिसहकृतात् परामर्शात् महानसायवह्निमानयं' इत्येवानुमितिजायते ।
यद्यपि तद्धविशेष्यकतत्पदनिरूपितशक्तिप्रकारकज्ञानजन्यया तद्धमविच्छिन्नास्थित्या नमविच्छिन्नविषयक एवं शाब्दबोधो जायत इति व्यायनयः यथा घटत्वान्निस्यैव विषयता तथापि कचित् बधप्रतिसन्धानं वाधिततरत्वेन वृत्त्यनवकरुणा तस्य शाब्दबोधविषयता यथा 'घटेन जलमानव' उत्पन्न जलान्वयले सरिकरणकत्वं वाधितमिति प्रतिसन्धानं वृत्त्यनवच्छेदकसच्तिरत्वरूपेणैव यदस्य शान्दवो रविषयता भवति तत्र हि रातिकं जन्दान्यनमिति शाब्दबोधात । एवं मा हिंस्पात सर्वाणि भूतानि इत्यय हिंसात्सामान्यावच्छेदेन अनिष्टसाधनत्यचजनकादपि विधिवाक्यात 'अग्निपीमाय पशुगालमेत' इत्यादिविशेषहिंसाविषयकेष्टसाधनत्यबोधकापवादसंहतान् तत्तदपवादतरहिंसामात्रे एवान्धिन्त्वविषयकः शाब्दबोधसम्पद्यत इति सापवादोत्सर्गविधिवाक्पस्थले एक कार्यसिद्धी नात्यगिकारादिकजन्यानां विभिन्नानां शाब्दगंधानां कल्पना समुचिनेति मीमांसकादिमतं प्रत्याख्यातम्, श्रुती लक्षणा अयोगाच एतेन भूताऽपि हिंसाविशेषविषयकेष्टसाधनत्वबोधक।'पबादसहकारेण तदपवादेतरहिंसामात्रेऽनिष्टसाधनत्वमनमित्यपि प्रत्युक्तम्, तथापि सर्वार्थान्वयानुपपश्च ।
के सहकार से जैसे व्यापकतानवच्छेदकरूप से अनुमति होती है ठीक वैसे ही यहाँ 'ब्राह्मणपद से अनुपस्थित भी कौण्डिन्येतरब्राह्मणत्व धर्म में ब्राह्मण का शाब्दबोध होता है, क्योंकि ब्राह्मणस्वरूप कौण्डिन्य में दधिदान का बाध है। मतलब कि विशेपविधिनिषेध स्थल में विशेषरूप से ही निषेध्यसामान्य और विधेयसामान्य का बोध होता है यह नव्यनैयायिकों का मत है। प्रकरणकार श्रीमद्जी कहते हैं कि यह नव्य नैयायिकों का कथन चिन्त्य यानी विचार करने योग्य है बिना विचारविशेष के आँखें मूँद कर स्वीकार्य नहीं है। इस विषय का विस्तार अन्यत्र ज्ञातव्य है ऐसा कह कर श्रीमदजी इस विषय पर पर्दा डालते हैं।
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७५६ मध्यमस्थाह्रादरहस्ये खण्ड ३
का. १४ * वृहद्रव्यसङ्ग्रह - तद्वृत्तिसंवादः
तदेवं षण्णां द्रव्याणां तद्गुणपर्यायाणां च विवेक्ताऽस्ति शरीराद्यतिरिक्तः कश्चिदात्मा । स चायं 'चैतन्यस्वरूपः, परिणामी, कर्ता, साक्षाद्भोक्ता, स्वदेहपरिमाणः, प्रतिक्षेत्रं भिन्नः, पौगलिकादृष्टवांश्च' इति सूत्रम् (प्र.न.त. परि. ७ - सू. १६) । न हि पृथग्भूतयोः ज्ञानात्मनो: * जयलता
वस्तुतस्तु एकत्र व्यमिति न्यायेन 'मानस' इत्यत्र घटनेव दूरस्थनिद्रिपदबोधः, 'घटोऽपसारणीय' इत्यत्र घटन समीपस्थबोध: इत्थञ्च विपतिधिनिषेध व न्याय्यत्वसिद्धया 'ब्राह्मणेभ्यो दधि दानव्यं न | कौण्डिन्याय' इत्यत्र ब्राह्मणत्वेनैव कौण्डिन्येतरब्राह्मणबांध इति पूर्वोक्तमंत्र साध्विति दृढतरं भावनीयम् । अत्रत्यः अधिकः अन्यत्र विस्तरः ज्ञातव्यः । इत्थञ्च द्रव्याणि धर्माधर्माकाशजीवसमदुगलाः' इति विभागवाक्यस्य निर्दोषतैवेति प्रकार्थः ।
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तदेवं प्रदर्शितप्रचन्धेन पण्णां द्रव्याणां अन्यतमः वास्तविकः तद्गुणपर्यायाणां द्रव्यानुयोगिक सहभाविधर्मलक्षणगुणक्रमभावधर्मलक्षणपर्यायाणां च विवेक्ता अस्ति शरीरायतिरिक्तः शरीरेन्द्रियप्रभृतिभिन्नः कश्चित् आत्मा = आत्मपदप्रतिपाद्यः । स चायं मानसिद्धः चैतन्यस्वरूपः = साकारनिराकारो प्रयोगाख्यं चैतन्यं स्वरूपं यस्यासी चैतन्यस्वरूपः । पुनः कीदृश: ? परिणामी परिणमनं प्रतिसमयं परापरपयथिषु गमनं = परिणामः स नित्यमस्यास्तीति परिणामी 1 पुनः कीदृशः । कर्ता. करोत्यदृष्टादिकमिति कर्ता । पुनः किरवरूपः ? साक्षाद्भीता साक्षात् = अनुपचरितवृत्त्या मुते सुखादिकं = साक्षाद्धोता । स किं व्यापको शुन्यादृशपरिमाणां वा ? इत्याह- स्वदेहपरिमाणः = स्वीपात्तवपुत्र्यपिकः । किमेक एव यदुत नाना ! इत्याह प्रतिक्षेत्रं = प्रतिशरीरं भिन्नः = पृथक् नानेति यावत । स चायं नित्यनिर्लेपः स्यात्सो वा ? इत्याह- पीलिकादृष्टवांव गतिपरतन्त्र, संसार्यवस्थापेक्षयेदं वयम्। विप्रतिपत्तिनिराकरणाय प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकारसूत्रे विशेषणसप्तकोपादानम् | प्रथमविशेषणेन योग-वैशेषिक-सांख्य- कुमारिलभमतव्यवच्छंदीऽभिमतः । द्वितीय तृतीय चतुर्थविशेषणैः कापिलमततिरस्कारः । पञ्चमविशेषणेन नैयायिक वैशेषिकादिमननिरासः । पचविशेषणं नाऽद्वैतमत पराकरणम् । सप्तमविशेषणेन | चार्वाक नैयायिक सांगतादिमतप्रतिक्षेपः सम्मत इति तदूव्याख्यायामतिरोहितम् । यथा चैततन्त्रं तथा क्रमशः निरूपयिष्यते । तदुक्तं श्रीनेमिचन्द्रेणापि वृहद्रव्यसङ्ग्रहे जीवों उपओगमओ अमुत्ति का संदेहपरिमाणो । भोत्ता संसारथी सिद्धी सो विरससागई || २ || इति । जीवसिद्धिश्रावकं प्रति, ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणं नैयायिकं प्रति अमूर्त्तजीवस्थापनं भट्ट चार्वाकद्वयं प्रति, कर्मकर्तृत्वस्थापनं सांख्यं प्रति स्वदेहप्रमितिस्थापनं नैयायिक-मीमांसक सांख्यत्रय प्रति कर्मभोक्तृत्वव्याख्यानं बद्धं प्रति, संसारस्थत्र्याख्यानं सदाशिवं प्रति, सिद्धत्वव्याख्यानं भट्ट चार्वाकद्वयं प्रति ऊर्ध्वगतिस्वभावकथनं माण्डलिकग्रन्धकारं प्रतीति तद्वृत्तिकारी ब्रह्मदेवः ।
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तथाहि चैतन्यस्वरूपत्वविदो षणेन जडस्वरूपः नैयायिकादिसम्मतः प्रमाता व्यवच्छिद्यते । स्वरूपेणाऽविद्रूपस्य जडस्वरूपस्य प्रमातुरर्थग्रहणानुपपत्तेः । न च ज्ञानात्मनोः पृथग्भूतत्वेऽपि व्यतिरिक्तज्ञानसमवायाजस्वरूपोऽप्यसी अर्थ प्रमास्तीति वक्तव्यम् यतो न हि पृथग्भूतयो: ज्ञानात्मनोः समवायसम्बन्धः गौतमीयपरिकल्पितः सम्बद्धः, तस्य = प्रमातृप्रमितिव्यतिरिक्तस्य
= आत्मस्वरूपविचार
नंद । यहाँ तक के विचारों से इन्याणि धर्माधर्माकाशजीवसमयपुद्गलाः इस जैनीय द्रव्यविभागवाक्य का समर्थन हुआ 1 भेद करनेवाली आत्मा पारमार्थिक इससे फलित होता है कि पड् द्रव्य में से अन्यतम एवं द्रव्य के गुण पर्यायों का विवेक है, जो स्वशरीर से भिन्न होती है । उनके स्वरूप के बारे में प्रमाणनयतत्त्वालांकालंकार सूत्र में श्रीवादिदेवसूरिजी महाराजा ने कहा है कि प्रमाणसिद्ध आत्मद्रव्य चैतन्यस्वरूप है, परिणामी परिणमनशील है, कर्म का कर्ता है तथा कर्मफल का साक्षात् भोक्ता है । इतना ही नहीं यह स्वदेहपरिमाणवाला है, न कि विभु या अणु । तथा प्रत्येक शरीर में वह भिन्न भिन्न होता है और संसारी अवस्था में पौद्रलिफ अदृष्ट शुभाशुभ कर्म से युक्त होता है इन सात विशेषणों का ग्रहण faurपति के निरास के लिए किया गया है। प्रथम विशेपण से नैयायिक आदि के मन का निरास हो जाता है। नैयायिकों का यह कथन है कि 'आत्मा तो सर्वभा जड़ ही है मगर ज्ञान का समवाय होने से वह चेतन कही जाती है। जैसे घट और पट सर्वथा भिन्न होता है ठीक वैसे ही जर आत्मा और ज्ञान भिन्न है । विशेषता सिर्फ इतनी है कि जड आत्मा में ज्ञान का समवाय होता है जिसकी वजह वह वेतन कही जाती है मगर यह असंगत है, क्योंकि ज्ञान और जड़ आत्मा परस्पर सर्वथा पृथक होने पर तो विन्ध्याचल और हिमाचल की भाँति समवाय सम्बन्ध से सम्बद्ध भी नहीं हो सकते
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* सिमान्दानुशासनसंबाटः * समवायसम्बन्धः सम्बाद, तस्य निरस्तत्वात् । तस्यैकत्वेनाऽतिप्रसजाकत्वात, स्वभावापेक्षिणा तेलाऽतिप्रसहगभइगे स्वभावस्यैव तत्वौचित्यात् । किये, परस्यापि 'ज्ञानमय' इत्यादिश्रुत्या ज्ञानरूपतैवात्मनोऽभ्युयमन्तुमुचिता । न च
-* गयला - समवायस्य प्राक प्रथमकारिकान्याख्याने (पृ.४८, विस्नरनो निरस्तत्त्वात् । अस्तु बा पभिमतः समायः नधापि यदि समवायमाहात्म्यादात्मनि ज्ञानं समबति नदात्गनां समवायस्य न व्यापित्वादेकत्याच सर्वात्मसु विक्षितात्मज्ञानं किं न समति विाषाभावात । एवञ्च जिन्दसंबंदनन नदवारमाणिस्त तन्ने प्रनिगोपन्नित्यागयेनाह - तस्य = ज्ञानवनिरिकरण समवायस्य एकत्वेन - एकभानन्यक्तिरूपतया, अतिप्रसन्नकन्वात । त्र ज्ञानोत्पाद मैनादपि वस्तुसंवेदनप्रसङ्गादिति । यांगनां पदेव मञ्चन सबंदा मात्र सर्वेषां मविषयकसाक्षात्कारणम् गोपि दुर्निबार न्यायिकगतं । समचायस्य कन्येपि ज्ञानोन्यादकृत नेनात्मस्वभावविशेषापनि नातिप्रसङ्ग इनि वाच्यम, स्वभावापेक्षिणा तेन - ममगयन अनिप्रसङ्ग स्वभावस्येव = आत्मस्वभावविगमस्यच तत्त्वीचित्यान् = ज्ञाननियाम्कत्वौचित्यात् । यद्वा कस्मिंश्चिदात्मनि ज्ञानान्गाद बटादारनियमनायेन जाननुत्पर्धन, समवायस्यकत्वाद् घटादेव समवायानुयोगित्वात् । ततश्च घटादडस्य आित्मन इव ज्ञानिल्पसङ्गः । न च बटादी ज्ञानसगवायसच्चऽपि ज्ञानबिहान झानित्यव्यवहारप्रसङ्ग इति वाच्यम, प्रतियोगिसम्बन्धसत्वं तदवच्छिन्न प्रतियोगिताका. भागायोगादिति पूर्वमुक्तत्वान् । एतेन घटादी ज्ञानसम्वायसन्च-पि बानोत्पनय समचायनानुयोग्यात्मस्वभावापक्षणतिनमा इत्याप प्रत्युक्तम्, स्वभावापेक्षिणा = आत्मस्वभावापेक्षिणा तेन = समवायन अतिप्रसङ्गमों = घटादी ज्ञानान्पादपाननिक्षेप त स्वभावस्य = आत्मस्वरूपस्य एव तत्त्वौचित्यात = ज्ञानमयत्वौचित्यात् ।
किन परस्य = वेदप्रामाण्यवादिनी नैयायिकस्य अपे 'ज्ञानमय' इत्यादिश्रुन्या ज्ञानरूपतव आत्मनोऽभ्युपगन्तुं उचिता. श्रुनेरन्यार्थकतयारपादन प्रमाणाभावान् । एतेन नन्न लक्षगाऽपि प्रत्युक्ता, श्रुती लक्षणाया आयोगाद, अन्यत्र प्रसिद्धस्य - वादन्यत्रा रोपसम्भवनात्मनि ज्ञानमरत्वो पधारस्यायनवकाशात । न त्यात्मन्यतिरिकरय कस्यचिज्ज्ञानमयत्वं सम्भवति स्वाकियने वा नत्रभवद्भिः भवद्भिः । प्रकृते व मनप्रत्ययः वाचुर्य प्राधान्ये वा बाध्यः । तदु सिद्धहमशन्दानुशासने 'प्रकृतं मयट' (सि.हे.७-३-१) इति । 'प्राचुर्येण प्राधान्यन वा कृतं प्रकृतम् तदर्धात न्या) मयट म्यात' इति तल्लघुवृत्तिगाठः । यद्वा 'अस्मिन' (५-३-२) इति सिद्धहेमसूत्रेण मयप्राप्तिभावनीया । तदुनः लघुवृनौ 'प्रकृतादिस्मिन्निति विषये मयट म्यान. अपूपमयं पर्व इनि । अस्मित्रिनि विषय इत्यस्य सम्तम्यर्थ इत्यर्थः । ननश्च ज्ञानं प्रकृतं = प्रचुर प्रधानं या अम्मिन्निति
हैं । समवाय का ही प्रथम काग्किा के ज्यारयान में (देखिये प्रथम खण्ड पृष्ट ४८) निरास किया गया है। जब कि समवाय ही असिद्ध है, तब पृथक ज्ञान और जट्ट आत्मा समराय से सम्बद्ध ही कैसे हो सकते हैं ? इसरी बात यह है कि नायकसम्मन समवाय का अभ्युपगमबार में 'तुप्यतु..' न्याय से स्वीकार कर लिया जाय ना भी नयायिकसंमत समय एक होने की वजह जैसे हम आत्मा का ज्ञानी-चंतन कहते है क वसे ही घट आदि को भी चंतन कहने का व्यवहार होने लगेगा। यद में रूपादिप्रतियोगिक समवाय तो है ही तथा रुपसमवाय और ज्ञानममवाय एक होने से ज्ञानसमवाय भी घट में रहता ही है। इम अतिप्रसंग के निवारणार्थ यदि नैयाबिक की ओर से यह कहा जाय कि → 'बट में ज्ञानममवाप होने पर भी ज्ञानोत्पत्ति के लिये समवाय स्वभाव = अनयागिविश्या आत्मग्वभाव की अपेक्षा रखता है । घट में आत्मस्वभाव नहीं होने से घर में ज्ञानोत्पत्ति की आपत्ति को अवकाश नहीं है -नो यह भी निराधार है, क्योंकि घट में ज्ञानोत्पत्ति के अनिप्रसंग को हटाने के लिए स्वभाव की अपेक्षा समचाय करता ही है तब तो आत्मस्वभाव को ही ज्ञानमय मानना उचित है । बीच में ममवाय को खड़ा करने की कोई जरूरत नहीं है । ऐसा मानने पर तो आन्मा अनायास ही बैतन्यस्वरूप सिद्ध हो जायेगी, क्योंकि ज्ञानमय कहाँ पा चैतन्यस्वरूप कहा, मिर्म शब्द में फर्क है, अर्थ में नहीं ।
जगाय आत्मा श्रुतिसिल किञ्च । यह मानना जैसे नर्कसंगत है ठीक वैस आगमसंमत भी है, क्योंकि नयायिकसंमत ति = वेद-उपनिषत् से भी सुसंगन ही है । अनि में कहा गया है कि . 'ज्ञानमय आन्मा' । इससे ही सिद्ध होता है कि आत्मा ज्ञानस्वरूप है, स्योंकि मपट् प्रत्यय स्वार्थिक है । प्रकृत अर्थ में मयट् प्रत्यय का व्याकरण से विधान होता है। यहाँ इस शंका का कि
→''वेद-उपनिपत में तो 'चक्षुर्मय आत्मा, पृथिवीमय आत्मा' इत्यादि भी कहा गया है। मगर आत्मा चक्षुस्वरूप या पृथिवीस्वरूप - --
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४.८ मध्यमस्याहादरहस्य खण्टः ३ का, ५५ *हदारण्यकोपनिषदादिसंबादः * 'चक्षुर्मयः पृथिवीमयः' इत्यादिवन्मयटोऽन्यार्थकतया श्रुतिरुपपत्स्यत इति वा राम, भावचक्षुर्मयत्वस्य पृथिवीजीवानां पृथिवीमयत्वस्य च साक्षादविरुदत्वात् ।
- जयलतावाक्य ज्ञानमय आत्मा इत्यर्थः । एल्दुप पनिश्च 'तराकृतवचने मयट' (पा.सू. ५-४-२१) इति गणिनीयसूत्रेणापि स्वयं || भावनाया । एतेन 'विज्ञानमय आत्मा' इति तैत्तिरीयोपनिषद्वचनमपि (तै.५ १-४) ब्याख्यातम् । नधा 'यो-यं विज्ञानमयः । प्राणपु (वृ.उप. ४-३-७) इनि बृहदारण्यकोपनिपटुवचनं व्याख्यानयता शङ्कराचार्येणाऽपि ब्रह्मसूत्रशाइरभाप्ये -> स्त्र विज्ञानमय इति बुद्धिमय इत्येतदुक्तं भवति. प्रदेशान्तरे "विज्ञानमया मनामयः प्राणमयः चक्षुर्मयः श्रोत्रमय' इति विज्ञाननयस्य | मन आदिभिः सह पाठात् । बुद्धिमत्वञ्च न्दगुगसारत्वमेवाभिोयने, यधा लोक बीमयो देवदन इति श्रीरागादिप्रधानोभिवायत्त तदिन - (.सू.२-३-३- शां.भा.) प्रोक्तम् ।
ननु मयदप्रत्ययस्य विकारार्थत्वमपि मुख्यमवति तदेव 'ज्ञानमय' इत्यस्त्वित्या येन पर: दाते - न चेनि वा-यांगननास्यान्वयः । 'चक्षुर्मयः पृथिवीमयः' इत्यादिवत् मयटाऽन्यार्थकतया = विकारार्थ कतया. श्रुतिः = विज्ञानमा इनि अनिः | उपपत्त्यत इति । मूलादर्शन मवडा न्याथैत्यशुद्धः पाठः । चक्षुपः तंजसत्वन चक्षुगयुपाययच्छिन्ना ह्यान्मा भनि चक्षुरादिविकारो. घटाकाशमिव घटविकारः । तद्रदेव ज्ञानोपाध्यवन्छिन्नो यात्मा भवति ज्ञानर्विकार एच. चिकारेऽपि मयटस्नुल्यमंत्र मुख्यार्थमिनि तु 'मयईवतया षायामभक्ष्याच्छादनयं:' (पा.मू. ४-३-१४३) इति पाणिनीयमूत्रसिद्धमनि शङ्कादायः ।
प्रकरणकार: समाधनं - भावचक्षुर्मयत्वस्य आत्मनि साक्षात् = अनुपरितवृत्त्या अचिरुद्धत्वात् = अगधितत्वान् ।। भावन्द्रियं लब्ध्युपयोगात्मकं खाल्चाल्नव भवते, न तु ततिरिक्तम । इल्यमंत्र ‘अचक्षुर्विश्वतश्चक्षुरको विश्वन: कर्ण: (ना. २) इति भस्मजाबालोपनिषदचनर्माण सगच्छन्, न्यन्द्रियभिन्नतंपिलब्यपयोगलक्षणभावान्द्रयात्म पृथिव्या अपि जनमन एकन्द्रियजावत्वेन पृथिवीजीवानां पृथिवीमयत्वस्य = पृथिवीवरूपत्वस्य च साक्षाविरुद्धत्वं स्फुटमेव ।। पृधिन्यादः सचतनवसिद्धिने तृक्तं स्याद्वादमञ्जयाँ -> 'मात्मिका विद्रुमशिलामिका पृथिव छंद समानधातत्यानात. अमो:करवत् । भागमम्भोऽपि सात्मकं तभूसजातीय स्वभावस्य सम्भवात. शालूरवत् । आन्तरिक्षमाप सात्मकं अनादिविकार स्वतः सम्भूय पानान् मत्स्यादिवत । तोऽपि सात्मकं आहागपादानेन वृद्धयादिविकारायलम्मान. पुस्पाङ्गवत् । गयुर्रार सात्मकः अपप्रेरितत्त्वं नियंतिमत्त्यद गोवत्' (स्या.मं. २५. श्लो.व्या.) इति । ननश्च 'पृ मय जापानयो वायुमयस्त जामय' इत्याद्या अतिरीप ध्याख्याता जलादिर्जावानामापामयवादः साक्षादविरुद्धत्वात ।
पतन तस्माद्वा एतस्मादन्त्र-समयादन्योन्तर आत्मा प्रणम्यः. तस्माद्धा एतस्मात्यागमयादन्यारन्तर आन्मा मनामयः, तस्मादा एतस्मान्मनोगगदन्यारन्तर आत्मा विज्ञानमयः तस्माद्वा एतस्माद्विज्ञानमयादन्या:न्तर आत्मा आनन्दमय' (न.प./ २-३.५.. इत्यादीनि ननिरीयांपनिपतचनान्यपि व्याख्यातानि, अन्नमय इत्यादी मयट विकागथल्यन र यार्थतांपादन:प संक्षिजीवानां मनोमयन्यस्य सर्वपमात्मनां ज्ञानमयत्वस्य सिद्धजीवानां आनन्दनयत्वस्य व प्राचुर्यप्राधान्यान्यतरार्थकत्वन मवटी मुख्याधत्व विरोधात । एतेन आनन्दमय इत्यादी विकार प्राचुर्य च मयटस्तुल्यं मुख्यामिनि निकारयन्नम्याटिदागठान्जाननयादि. पदपि विकागर्थमन्त्र युक्तमित्यपि पगस्तम्, 'नित्यं विज्ञानमानन्दं ब्रह्म इनि अतिविरोधापनश्च । एतन आनन्दामिन्यस्यायानन्द - बदित्यर्थः, अर्शआदित्वान्मत्वीयोयत्ययः, अन्यथा पल्लिङ्गत्वापत्तेः, आनन्दापि दावामा उपचर्यत, भाराद्यपगम मुखी
नहीं है, क्योंकि बक्षु नेजस द्रव्य है, पृथिवी भी आत्मभित्र द्रव्य है । अतः यहाँ नो यद् प्रत्यय को अन्याथैक : विकागधक ही मानना होगा । चक्षु का विकार जो आत्मा है बह चक्षुर्मय बनती है । एवं पृथिवर्वाद्रव्य का विकार जो भान्मा है यह पृथिवीमय है । ठीक वैसे ही ज्ञान का विकार जो आत्मा है वह ज्ञानमय है। मतलब कि आत्मा चक्षुम्प, पृथिरूप या ज्ञानस्वरूप नहीं है। इस तरह चिकारार्ध में भी मयट् प्रत्यय की उपपत्ति हो सकती है" - ममाधान यह है कि आत्मा में भले ही द्रव्यचक्षुमयत्व बाधित हो मगर भावयनमयन्य तो अवधित ही है, क्योंकि भावचक्ष ज्ञान ही है। इस नग्ह पृधि काप नीवा में पृथिवीमयन = पृथिवीस्वरूपना भी साक्षात् विरोधी नहीं है। अत: चक्षुमय = भावचक्षुमय - भावचक्षुस्वरूप आत्मा के स्वीकार में कोई बाध नही है । इस तरह पृथि काय जीव पृथिवीमय = पृथिवीस्वरूप है - यह भी माना जा सकता है। अतः ज्ञानमय - ज्ञानस्वरूप आत्मा का स्वीकार भी अदृष्ट ही है - यह फलित होता है। इसका स्वीकार करना व्यवहार से भी अविरुद्ध है, क्योंकि व्यवहार में देखा जाता है कि प्रकाशक प्रकाशस्वरूप ही होता है । दीपक प्रकाशात्मक ही है।
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मुक्तावलीनिगः
किय प्रकाशकस्य प्रकाशमयत्वमेव युक्तिमत् ।
'अभेदे कर्तृकरणभावो न स्यादिति पुनरसार, 'आत्माऽऽत्मानं जानातीति बहुश: प्रयोगदर्शनात् ।
एता 'प्रकृतिपरिणामरूपमहत्तत्त्वाऽपरनामक त्रिगुणात्मकबुद्धी सत्वगुणोद्रकरूपो वृत्यपर
ॐ जयलता
संहमितिवत् अस्तु तस्मिन्नानन्दो न त्वसी आनन्द:, असुखमिति श्रुतेः (का.४९..पू. ४०१) इति मुक्तावलीकारवचनभी परास्तम्. 'आनन्द आत्मा' (ते.उप. २५) इति तैत्तिरीयोपनिपद्वचनानुपपत्तेश्व छांदसत्वादपि नपुंसकलिङ्गगवीपतेः. आनन्दपदस्य मुख्यार्थकत्वसम्भवे उपचाराज्योगात असुखमित्यस्य तु पांगलिकसुखभिन्नार्थ कतया प्रयुपपत्तेः । अत एएमय घट' इत्यादी या मराटी विकारार्थत्वं तथैव 'ज्ञानमय आत्मा इत्यत्रापि विकारार्थत्वमेवेत्यपि प्रत्याख्यानम् तदुक्तं शाङ्करभाष्ये ‘नास्यात्मनोऽन्तर्वहिर्वा चैतन्यादन्यद्रूपमस्ति चैतन्यमेव तु निरन्तरमस्य स्वरूपमिति (त्र.सू. ३-२-१६ शां.मी. पू. ९.३७) । एतेन विज्ञानयन एवतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय नान्येवानुविनश्यति' (बृ. उप. ४-६-१३) इति बृहदारण्यकोपनिपद्धचनमपि व्याख्यातम्, प्रातिस्त्रिकज्ञानापेक्षया विकारित्वेऽपि उपयोगसामान्यात्मना सर्वदाऽवस्थित रुपयांगस्वरूपत्त्रेऽविरोधादिनि न ह्यववीधप्रवाहः कचिदपि विच्छिद्यत इति अवबोधानन्दस्वरूप एवात्मा स्वीकर्तव्य इत्यन्यैरपरिशीलितोऽयं गन्धा विभाव्यतां समाकलितश्रुतिरहस्यैः । हेत्वन्तरेणात्मनां ज्ञानात्मकत्वं साधयति किञ्चेति प्रकाशकस्य प्रकाशमयत्वमेव स्वयमप्रकाशस्वरूपस्य परप्रकाशकत्वानुपपत्तेः। न हि प्रकाशानात्मकः प्रदीपः पदार्थसार्थं प्रकाशयति । ततश्च प्रकाशक्स्थानीय आत्माऽपि प्रकाशस्थानीयज्ञानस्वरूप एव पटाकोटिगाटीकते ।
ननु ज्ञानात्मनो: अभेदे सति कर्तृकरणभावां न स्यात् । न हि दण्ड- कुलाल्यांरभेद घटापेक्षया तयोः कर्तृकरणभावः सम्भवति कर्तृत्व करणत्वयोः परस्परविरोधित्वादिति पुनरसारम्, अभेदेपि आत्मात्मानं जानाति' इति बहुशः प्रयोगदर्शनात् । 'आत्मात्मानमात्मनात्मन्यात्मने जानाति' इत्यन अभेदेऽपि कर्तृकर्म करणाधिकरणादिभावदर्शनादात्नज्ञानयोरभेदेऽपि कर्तृकरणमावाहन एवं एतेन कर्तृकरणयोः वर्धकीवासिवत् भेद एवेत्यपि प्रत्युक्तम्, बाह्यकरणस्य कर्तृभिनत्वेऽपि जन्तरकरणाऽभेदाःविरोधात् वस्तुतस्तु ज्ञानात्मनानं सर्वथा तादात्म्यं किन्तु कथञ्चिदभेदः । ततो नेकानेककारकविरोध उपमसाङ्कर्येप्युपायसाकर्यादिति तु चतुर्थकारिकाव्याख्यानिरूपणेऽस्माभिः ( दृश्यतां पृष्ठ - २०२ ) प्रदर्शितमेव ।
I
अत एव स्वयं जडरवरूपोऽपि ज्ञानसमवायाचेतन आत्मा इति नैयायिकमतं प्रत्युक्तम् । तदुक्तं मूलकाररपि अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकायां सतामपि स्यात्वचिदेव सन्ता चैतन्यमपाधिकमात्मनोऽन्यत् । न संविदानन्दमयी च मुक्तिः सुसूत्र मासूत्रितमत्वदीयः ॥ (अन्ययो. डा. ८) इति ।
नैमासिकमतमपाकृत्य कापिलमतमपहस्तयितुमुपक्रमते एतेनेति पूर्वोक्तरीत्या आत्मनी ज्ञानात्मकत्वसाधनेन वक्ष्यमाणदगि चेत्यर्थः । प्रकृतीति । अकायस्थोपलक्षितले सति गुणसामान्यत्वं प्रकृतित्वन । सत्त्वरजस्तमोगुणसाम्यावस्था प्रकृतिरुच्यते ।
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15,0
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ज्ञान हैं प्रकाश और आत्मा है प्रकाशक दीपक । अतः आत्मा को ज्ञानस्वरूप मानना ही युक्तिसंगत है। यहाँ यह का कि "आत्मा ज्ञानस्वरूप होने पर तो आत्मा ज्ञानाभित्र बन जाने की वजह 'आत्मा ज्ञान से घटादि को जानती है" इत्यादि स्थल में बोध का आत्मा कर्ता और ज्ञान करण नहीं बन सकते। कहां और करण भित्र होते हैं, अभित्र नहीं | कुलाल दण्ड से घट बनाता है इत्यादि स्थल में घटकर्ता कुलाल से घटकरण = aus fभन्न होता है. यह देखा गया *" - इसलिए निराधार हो जाती है कि कर्ता और करण में अभेद होने पर भी कर्तृकरणभाव मुमकिन है। 'आत्मा आत्मानं आत्मना जानाति' इत्यादि प्रयोग व्यवहार में अनेक बार सुनने में आते हैं, जिसमें कर्ता-कर्म-करण केवल एक ही आत्मा है । इस तरह कर्ता और करण में अभेद मानने में किसी दोष को अवकाश नहीं होने से आत्मा ज्ञानमय = ज्ञानस्वरूप
= ज्ञानस्वभाव = ज्ञानात्मक = ज्ञानाभिन है ऐसा स्वीकार बिना
किसी हिचकिचाहट के हो सकता है ।
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आत्मराम ज्ञान नहीं है
एतेन । आत्मा के बारे में सांख्य मनीषियों का यह कथन या न हो, मगर आत्मा तो कमलपत्र की भाँति निर्लेप रहती है
सांख्यमत
है
कि आत्मा तो कूटल्य नित्य है। ज्ञान उत्पन्न हो क्योंकि ज्ञान बुद्धि का धर्म है, न कि आत्मा को ।
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ब्रह्मवतदभागवत योगसूत्र-साख्यादिसंवाद
नामा घढाकारादिपरिणामो ज्ञानम्, तत्र मुकुर इव निर्मले चैतन्यप्रतिबिम्ब उपलब्धिरिति, बुदावेव व सुखादिगुणाष्टकं आत्मा तु कूटस्थ' इति साङ्ख्यमतमपि अपास्तम्,
गयलता -
ब्रह्मवैवर्तेत्कुष्टवाचा प्रश्न कृतिश्च सृष्टिवाचकः । सुष्टी प्रकृष्टया देवी प्रकृतिः सा प्रकीर्तिता ॥ ( प्रकृतिखण्ड(प्रथमाध्यायः) इत्युक्तम् । देवीभागवते व गुणं प्रकृष्टत्येव प्रशब्द वर्तते श्रुती । मध्यमं रजसि कृचतिः शब्दस्त मसि स्मृतः (मा.स्कंध ( ) इति प्रोक्तम् प्रकृतमहान बुद्धयपराभिधानः प्रकृतिपरिणामः सञ्जायते । परिणामश्च धर्म- लक्षणा| स्थाभेदात्रिविधः । तदुक्तं पातञ्जलयोगसूत्रे एतेन भूतन्द्रियेषु धर्मलक्षणावस्था परिणामा व्याख्याताः' (पा.यो.सु.पा.२ भू. १३) इति । अवस्थितस्य वस्तुनः पूर्वावस्थापरित्यागेन धर्मान्तरोत्पत्तिः परिणामः काफिलसम्मतः न तु नैयायिकसम्मतः विनाशलक्षणः सः । सा च बुद्धिः सन्वरजस्तमोगुणात्मिका । सत्त्वादिगुणस्वरूप क्षेश्वरकृष्णन 'सत्वं लघु प्रक्रादाकमिष्टमुपष्टम्भकं चलञ्च रजः । गुरुवरणकमेव नमः प्रदीयतोवृत्तिः ॥ इत्येवं सांख्यकारिकायामुक्तम् | बुद्धितत्व प्रकृतिरिकृतिस्वरूपम् | दुक्तं तेनैव मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाया: प्रकृतिविकृतयः सप्त । पीडाकरतु विकारी न प्रकृतिनं विकृतिः पुरुषः ॥ इति । तच यदा सचगुणांदेकः चक्षुरुम्मिलनादिना भवति तदा सैव ज्ञानमित्युच्यत इत्याहानाह प्रकृति परिणाम|रूपमहत्तत्त्वाऽपरनामकत्रिगुणात्मकबुद्धी सत्त्वगुणोद्रेकरूपः नृत्यपरनामा चक्षुरादीन्द्रियप्रणालिकया घटकारादिपरिणामः चादिना बुद्धिसम्बन्धः ज्ञानं = घटादिज्ञानमित्युच्यते । घटादिविषयकार मदादिज्ञानानामनित्यतया तदाश्रयतया मूलार्थिव वृद्धिशब्देन व्यवह्रियते । मूलाविद्यायास्तदाश्रयन्ये तु तस्या अन्यत्ततया 'जानामी' यद्याकारकप्रत्यक्षविषयत्वं न सम्भवतीति तदर्थं तुलाविद्यास्वीकारः तत्समवायिकारणत्वेन मूलाविद्यास्वीकारश्वावयकः । उभयपार्श्वे बुद्धः स्वच्छतया तत्र = मुकुरे = आदर्श इव निर्मले चैतन्यप्रतिबिम्ब उपलब्धिरिति उच्यते । यतः तदेव 'अज्ञान' इति पुरुषः चेत्यते । बुद्धितत्वं अतः घटोपलविकृत बुद्धी चैतन्यप्रतिविम्वस्वीकारीयावश्यकः । तदुक्तं बुद्धि निःसरन्ति प्रथमती विषयाकारेण परिणमन्ति । ततो मनोवृतिद्वारेण बुद्धिय एकतः संक्रान्तविपयाका अन्यतश्च 'प्रतिपुरुषं विभिन्नाः इन्द्रिय मनोवृत्तिद्वारेण सङ्क्रान्तचिच्छाया विषयव्यवस्थापिका भवन्ति । बुद्धी दर्पणप्रतिमा विकासक्रम पुरुषेणार्थः चेतयितुं शक्यते । युद्धमभ्यवसितं = बुद्धिप्रतिविम्बितं हि अर्थं पुरुषः चेतयते इति । सा च बुद्धिर्न चेतना परिणामित्यात् । यथा ज्ञानं बुर्गुः | तथा सुखादिरपि सुखादेः ज्ञानसामानाधिकरण्येन प्रतीतरित्याह बुद्धावेव सुखादिगुणाष्टकम् = सुख-दुःखेच्छाद्वेष कृतिधर्मा-धर्म-विज्ञानलक्षणम् । पुरुषस्तु निर्गुण इति न ज्ञानाद्याश्रयः । तदुक्तं सांख्यसूत्रे 'निर्गुणत्वाम चिद्धर्मा (सां. सु. ४१४७) इति । तर्हि पुरुषः किस्वरूपः ? इत्याह आत्मा तु कूटस्थः नित्यः संचालितः न कदापि विक्रियतेऽन्यं विकरोति वा । अनुयोगितासम्बन्धेन विजातीयसुखादिसम्बन्धवत्वं लिप्तत्वम् तद्भिन्ननलिप्सतम् । वैजात्यचात्र अम्मा लिप्तं मन्मनः लिप्तं तैलेन लिभं शरीरभित्याद्यनुगत प्रतीतिसिद्धनंदनत्वव्याप्यजातिविशेषस्वरूपमिति वदन्ति । इत्थञ्च विज्ञानोत्पतिसमयेऽपि यथाविधः पूर्वदशायामयमात्मा तथाविध एवं साम्प्रतमति साङ्ख्यमतं अपि अणस्तम् ।
इस जगत में कुल २० तत्त्व हैं, जिसमें मूल प्रकृति अविकृत यानी सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की साम्य अवस्थास्वरूप है । प्रकृति में से महत्तत्त्व उत्पन्न होता है, जिसका दूसरा नाम है बुद्धि । वह प्रकृति का परिणाम है एवं सत्त्वगुण- रजोगुणतमोगुणात्मक है । जड प्रकृति का परिणाम होने से बुद्धि भी जड़ ही है। जब उस बुद्धितत्व में सत्वगुण का उद्रेक
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प्राचुर्य होता है तब वह वृत्ति नामक कहा जाता है। मतलब यह है कि बुद्धि का ही ज्ञानवृत्यात्मक परिणाम अर्थात् चक्षुरिन्द्रियात्मक नालिका के द्वारा घटादि विषयों के साथ विपयाकारात्मक जो परिणतिस्वरूप सम्बन्ध है वह परिणाम ज्ञानस्वरूप ही है, न कि उससे अतिरिक्त । विषय के आकार से आकारित जो इन्द्रियवृत्तिरूप ज्ञान है, वह बुद्धि का ही धर्म है, आत्मा का नहीं । आरसी की भाँति वृद्धि अत्यन्त निर्मल होने की वजह पुरुषगत चैतन्य का प्रतिविम्व बुद्धि में पड़ता है। मतलब कि जैसे दर्पण में मुखप्रतिविम्ब उत्पन्न होता है वैसे पियाकारपरिणत बुद्धि में पुरुषगत चैतन्य का प्रतिविम्व उत्पन्न होता है जिससे पुरुष को 'चेतनोऽहं जानामि' इत्याकारक उपलब्धि होती है, जो ज्ञानांश में भ्रमात्मक है; क्योंकि ज्ञान बुद्धि का गुण है, न कि पुरुष का ज्ञान की भाँति सुखादि भी बुद्धि के ही गुण है। सुख, दु:ख, ज्ञान, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न धर्म और अधर्म ये आठ बुद्धि के गुण हैं। अतएव विषयादि का सन्निधान होने पर भी पुरुष तो पुष्करपत्र की भाँति निर्लेप है. क्योंकि वह अपरिणामी है । अत: ज्ञान, इच्छा आदि लेगों से पुरुष सर्वथा रहित है यानी सदा शुद्ध | अतएव वह कूटस्थ नित्य सर्वथा अविचलितस्वरूपवाला होता है । यह सांख्य मनीषियों का वक्तव्य है
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* तशवकालिनियुक्त्यनिदाः * 'अहं ज्ञाता' इत्यादावहन्त्वज्ञानयोः स्फुटमेव सामानाधिकराग्यप्रतीते: । सा भेदेऽभेदे वेत्यन्यदेतत् । कि बदौ जडघटाकाराधा निर्हेतुकं,दज्ञानसामग्याहिविषयरूपघटाकारस्तु न जडः
- जयलता___ नदपास्तत्वे हेतुमाह 'अहं ज्ञाना' इत्यादी मानसमाक्षान्का अहंत्व-ज्ञानयोः स्फुटमेव सामानाधिकरण्यप्रतीनः ।। कृनिः स्वसमानाधिकरणमेवादाएं जनयति, तचा:दष्टं बसमानाधिकरणमेव भागं जनपदीनि कृत्यदृष्टभागान परगण्या सामानाचकरण्यप्रमितिबनं 'अहं ज्ञाता', 'चतनोई करोमि इति समानाधिकरणयमितिम्वरूपप्रनीतः ज्ञानमात्मन पब धर्मः । किन ज्ञातुभिन्न चेनने मानाभावान पुरुषत्वसमानाधिकरणमेव जानादिकम । न च चेतना करोमातिप्रतीतः चतन्यांश ममत्वमिति वाच्यम, विनिगमकाभान कृत्यंशेऽपि तथात्यापन: । एतन कर्तृत्वाश्रया न चेतनः जन्यधमाश्रयवादित्यपि निरम्नं, द्धिः कर्तृत्वाभाववती जन्यधर्मावयवत् घटयदित्यम्यागि मनचत्वात । न च 'अहं ज्ञाना इतिप्रनातिवसान नेपाधिकादिमानना ज्ञानात्मनो दापि सिध्येदिति वाच्यम. यतः सा अहं शान तिप्रनीतिज्ञांगत्गमाः भेद मत्युपपद्यत दे चत्यन्यदनत - न साम्प्रतं कृतम, अहंव-ज्ञानयों वैयधिकरयनिगसम्यव प्रक्रान्तत्वत् । दशवकालिकनिर्वक्त्यनुसांगणे मानगोमाधिकार नदेशपालम्भारमानं ज्ञानव्यम् ।
याक्तं बुद्धी घटाकारादिपरिणाम: ज्ञानमित नराकरणायोपक्रनन - किञ्चति । बुद्धी जयटाकागधानं निर्हेतुक:निष्प्रयोजनम्, बुद्भरच ज्ञानत्वात, उपलश्चिापि ज्ञानात्रातिरिनाने तदक्तं न्यायसूत्र ‘बुद्धिरूपलविज्ञानमित्यनान्तरम' (न्या. सू.१-१-२५) इनि । न चैत्र घटज्ञानस्य बटाबगाहित्यानुगनिरिति वाच्यम्. घटस्य घटज्ञाननिविपिनानिम्पकत्वन नद्भागःपपनः, घटादिविषयनिष्टविषयता - निरूपितविपयितया प्रतिनियविषयभानोपपनः । एतेन बद्धी विषयाकारानाहान घरजानं वटाप प्रकाटादित्यपि प्रत्याख्यातम्, घटबुद्धिनिष्टयपदिनानिपिनाविषयतानबछंदकत्वन पटवारेगमपच्य भानापन: ! न च मया विषयाकारो ज्ञान स्वीकनः त्वया त वियिताविशेष इति शब्दभेद बनत अभट इनि वाच्यम्, धिपधिनाया ज्ञानानतिरकादिति विशेषात् । घटज्ञानसामग्याहिताविपयतास्पघटाकारः = वक्षरादिधरज्ञानसामग्रीसम्पादिम्पिकतानिपत -
* जाणादि पुरुष" - स्याहादी * आहे. । मगर पूर्वोक्त युक्तियों के द्वारा आन्म को ज्ञानमय सिद्ध कर देने से उपर्युक्त सांख्यमत निगकृत हो जाता है। फिर भी प्रकरणकार श्रीमदनी दूसरे ढंग से मांज्यमत का निरसन करते हुए कहते हैं कि • सब रांगों को एसी प्रतीति होती है कि 'अई ज्ञाना' अर्थान 'मैं ज्ञानवाला है। इस सार्वजनीन प्रनीति में अहत्व के समानाधिकरण ज्ञान का भान होना है। जिसमें अहत्व रहता है उसी में ज्ञान की प्रतिनि होने की वजह ज्ञान अपदार्थ पा का धर्म है। यदि जह बुद्धि का धर्म ज्ञान होता तब ना 'बुद्धिः ज्ञात्री' ऐसी प्रतीनि होनी चाहिए । अहं पद से तो बुद्धि का नहीं किन्तु पुरुष = आत्मा का ही भान होता है । इस तरह 'नीलो घटः' प्रतीति से जैसे घर में ही नील रूप का भान होता है, न कि पट में, ठीक वैसे ही 'अई ज्ञाना' इस प्रतीति से पुरूप = अहंपदार्थ में ही ज्ञान का भान होन है, न कि बुद्धि में - यह सिद्ध होता है । 'अहं ज्ञाता यह प्रतानि आन्मा और ज्ञान में भेद मानने पर उत्पन्न हो सकती है या अभेट मानने पर - वह अलग रात है । इस विषय की चर्चा मांख्यमननिराम में अनुपयोगी है । यहाँ तो ज्ञान जइबुद्धि का धर्म नहीं है - इतना ही सिद्ध करना अभिमन है। इसके अतिरिक्त बात यह है कि मान्य मनीषियों ने पूर्व में जो कहा था कि → 'जड बुद्धि में इन्द्रियप्रणालिका से घटाकार = विपयाकार का आधान होता है अर्थात् वशुरिन्द्रियादिस्वरूप नालिका के द्वारा बुद्धि घटाकारादि रूप में परिणत होनी है' - वह भी असंगत है, क्योंकि जह बुद्धि में जड घटाकार मानने की कोई आवश्यकता नहीं है । विना हेतु के क्या जड विषयाकार की बुद्धि में कल्पना की जाय ? बुद्धि में जड विपयाकार का परिणाम उत्पन्न न होने पर भी घटज्ञान में घटादि के अभान की या घट-पट-मट आदि सब के भान की आपनि नहीं हो सकती है, क्योंकि घटज्ञानसामग्री से घटज्ञान में घटनिष्टविषयता से. जो घटत्वारभित्र होती है न कि पटत्व-मटरमादि में अवच्छिन्न = नियन्त्रित, निरूपित विपयिता का आधान होने मे घद का ही भान घटज्ञान में अवश्य होगा । घटज्ञाननिविपयिना की निरूपकता घट में होने मे और पटादि में न होने में उम प्रीति की घटायगाही मानना और पटादिअवगाही न मानना मनासिब ही है । हाँ, घटज्ञाननिष्ठ विपपिना को सारत्र्य नांग विषयाकार कर सकते हैं, मगर वह जर द्धि का धर्म नहीं है किन्तु चनना का धर्म है। यहां यह शंका नहीं होनी चाहिए कि - 'चेतना भी प्रनिरिम्यान्मक होने में जवृद्धिस्वरूप ही है, क्योंकि बुद्धि में ही चैतन्यप्रतिबिम्ब पड़ता है' - क्यों कि चेतना प्रतिविम्बरवरूप नहीं है किन्तु ज्ञानात्मक है।
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का. ४५
२४६२ मध्यरयावादरम्ये खण्डः ३ ** मांगा चेतनाधर्मत्वात् । अत एव चेतनाऽपि न प्रतिबिम्ब: किन्तु ज्ञानमेव, अमूर्तप्रतिबिम्बासम्भवात् ।
भास्तु 'मामहं न जानामी 'त्यात्मनि ज्ञायमानेऽपि न जानामी 'ति ज्ञानाज्ज्ञानाऽज्ञानोभयस्वभाव एवात्मा । अत एव मिथ्यादर्शनप्रकर्षापकर्षवत्त्वेन तद्विशेधितया सिद्धस्य सम्य
विपयितास्वरूपी घटाकर काममस्तु । स तु न जडः सम्भवति चेतनाधर्मत्वात् चेतनाथमंस्प चेतनात्मकन्यात् धर्मस्य जात्मकत्ववत् अन्यथा तथाविधधर्मधर्मिभावाऽयोगात । अत एव = विषयिताम्पाकारस्य चेतनाधर्मत्वादेर, चेतनाऽपि न प्रतिविम्व: जडबुद्धिप्रतिविम्वले नत्वप्रसङ्गात् । किन्तु ज्ञानं एव चेतना पडवान्यं अमूर्त प्रतिविम्बाऽसम्भवात् । न हि कालप्रकृतिप्रमृतिप्रतिशिवं कदाचिदपि दृष्टम बुद्धेरपि चैतन्यत्वात् न प्रतिविम्वादयाः सम्भवात् । एतेन बुद्धिर्जा प्रकृति जन्यत्वादित्यपि प्रत्युक्तम्, तोरसितान ज्ञानामि चैतन्यरूपतासिधाञ्च । तमूर्त्तमूर्जप्रतिचिदं कल्पचन् कापिका कथं न विदुषां हास्यतां व्रजेत् १ न मूर्त्तस्य विषयाकारधारित्वं कचिद दृष्टन प्रतिविम्बस्य पोद्गलिकत्वं तु स्याद्वादरत्नाकरादितोव्ययम् । विस्तरतः सांख्यमतनिरासस्तु स्वाद्वादकल्पलतादितां बोध्यः ।
योगसारख्या निराकृत्य साम्प्रतं गमकर्तृगारी तन्मनमावेदयति भट्टास्तु इति आहुरित्यनेनाऽस्यान्चयः । ‘मामहं न जानामी’नि आत्मनि ज्ञायमानेऽपि = नाशज्ञानसन्चदशायामपि ' न जानामी 'तिज्ञानात् अज्ञानवत्त्वमपि तत्र निराबाधमिति सिद्धं ज्ञानाज्ञानोभयस्वभाव एवात्मेति । ततो न केवलमात्मने ज्ञानमयत्वं युक्त न वा अज्ञानमयत्वं किन्तु ज्ञानाज्ञानोभयमयत्वं ज्ञानाज्ञानी भयात्मकत्वमिति यावत । ज्ञानञ्च गुणोऽज्ञानख दोष इति सिद्धगात्मनां गुणदोषो नयात्मकत्वम् ।
गुण-दोन पदाविष्यति । अत एव आत्मनां गुणदोषोभयस्वभावत्वादेव. अस्य चान्ये यत्प्रपञ्चितं तत्राऽयमनुयोग इत्यनेनान्वयः । मिथ्यादर्शनति । अत्र सोपी गित्वात्पूर्वापरानुसन्धानद्योतनाय साम्प्रत मष्टसहत्र्यामुपलभ्यमानः पाठः प्रदर्शित । नक्तं तत्र विद्यानन्देन प्रथमपरि आममीमांसाचतुर्थकारिकाव्याख्यायां द्विविधां ह्यात्मनः परिणामः स्वाभाविक आगन्तुक । नत्र स्वाभाविकी जन्तज्ञानादिगत्मस्वरूपत्वात् मलः पुनरज्ञानादिरागन्तुकः,
बुद्धि में चेतना का प्रतिविम्व तो नामुमकिन है, क्योंकि बेतना अमूर्त है। अमुर्त का कभी भी प्रतिबिम्ब पडता नहीं है, अन्यथा काल, आकाश आदि का भी प्रतिविम्ब आरसी में उत्पन्न होने में कोई बाधा नहीं होगी । अतः चेतना की ज्ञानात्मक मानना ही युक्त है और वह ज्ञानात्मक चैतन्य पुरुष में रहने की वजह पुरुष चेतन कहा जाता है ऐसा मानना सांख्य मनीषियों के लिए उचित है। ज्ञान की बुद्धि का धर्म मानने पर तो बुद्धि ज न हो कर चेतन वन जायेगी । इसलिए ज्ञान की जड बुद्धि का धर्म माननेवाले सांख्यों का मत अश्रद्धेय है ।
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आत्मा ज्ञानाऽज्ञानोमयात्मक है
मह
पूर्वपक्ष: भा । आत्मा के बारे में भट्ट के अनुयायियों का यह कथन है कि आत्मा न तो केवल ज्ञानस्वभाव है और न तो केवल अज्ञानस्वभाव है किन्तु ज्ञानाज्ञानोभयस्वभाव है । उसका कारण यह है कि 'मामहं न जानामि' ऐसी प्रतीति लोगों की होनी है जिसमें अपद से आत्मा ज्ञायमान = ज्ञानाश्रय होने पर भी न जानामि' अर्थात् 'ज्ञानवाला में नहीं हूँ' यह प्रतीति होती है । उक्त प्रतीति में ज्ञायमान होने से आत्मा ज्ञानस्वभावसिद्ध होती हुई भी केवल ज्ञानस्वरूप इसलिए नहीं कहीं जा सकती कि तब न जानामि यह प्रतीति अनुपपन्न बन जाती है । केवल ज्ञानस्वरूप आत्मा में ज्ञानाभाव नहीं हो सकता है। इसलिए उक्त प्रतीति के बल से आत्मा को ज्ञानाज्ञानोभयस्वभाववाली = ज्ञानाज्ञानांभवात्मक माननी की युक्त है। आत्मा गुणदोषोभयस्वभाववाली है यह निश्चित होता है। इसलिए अष्टहग्री ग्रन्थ में विद्यानन्द ने आत्मा में केवल गुणस्वभावत्व का प्रतिपादन किया है वह असंगत है । पहले दिवम्बर आचार्य विद्यानन्द ने अष्टसही ग्रन्थ में क्या कहा है ? यह सुनिये
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आत्मा में केवल गुणस्वभावत्व है
अष्टलक्ष्मीकार
मिथ्या । संसार का कारण मिथ्यादर्शन आदि है, जिसका अपकर्ष और प्रकर्ष होता है । वह नभी संगत हो सकता है जब उसके विरोधी गुण का प्रकर्ष और अपकर्ष हो । जैसे सैन्य का प्रकर्ष होने पर उष्णता का अपकर्ष होता है और सैन्य का अपकर्ष होने पर उष्णता का प्रकर्ष होता है, क्योंकि सैन्य और उष्णता परस्पर विरोधी हैं। मिथ्यादर्शन आदि के अपकर्ष और उत्कर्ष की उपपति जिनके प्रकर्ष और अपकर्ष के अधीन है वहीं सम्यग्दर्शनादि शब्द से प्रतिपाय है। मिथ्यादर्शनादि
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आत्मनः गुणस्वभावनम
ग्दर्शनादेः प्रकृष्यमाणत्वेन सिध्देन परमप्रकर्षेण सिध्दमिथ्यादर्शनात्यन्तनिवृत्त्यन्यथानुपपत्या संसारात्यन्तनिवृत्तिसिद्धेः कचिदिनिवृत्तौ आत्मनि सिद्धं गुणस्वभावत्वमन्यत्राऽप्यात्मत्वात्यथानुपपत्त्या साध्यते । दोषस्वभावत्त्वं तु विरोधाद् बाध्यते' इति अष्टसहस्सा यत्प्रपञ्चितं * नगलता *
कर्मोदनिमित्तत्वात् । स चात्मनः प्रतिपक्ष एव । ततः परिक्षयों । तथा हि यो यत्रागन्तुकः स तत्र स्वनिरिनिमित्तविवर्द्धनबशात्परिक्षसी यथा जात्यंहेनि ताम्रदिमिश्रणकृतः कालिकानि. आगन्तुकश्चात्मन्यज्ञानादिगंलः इति स्वभावहेतुः । न तावदयमसिद्धः । कथम् ? यो यत्र कादाचित्क में तत्रागन्तुकः यथा स्फटिकाश्मनि लोहिताद्याकारः । कादाचित्कचात्मनि दीपः इति । न चेदं कादाचित्कत्वमसिद्धम् सम्यग्ज्ञानादिगुणाविर्भावदशायामात्मनि दीपानुपपतेः । ततः प्राकृतत्सदावाभृतिदशायानपि तिरोहितदोषस्य सद्भावान्न कादाचित्कत्वं सातत्यसिद्धिरिति चेत न गुणस्याप्येवं सातत्य । त च हिरण्यगर्भादिर्वेदार्थज्ञानकालेऽपि वेदार्थज्ञानप्रसङ्गः । ज्ञानाज्ञानयोः परस्परविरुद्धत्वादेकका प्रसङ्ग इति चेन ? नहि गुणस्यापि पुनराविभूतिदर्शनाद् दीपकालेऽपि सत्तामात्र सिद्धिः सर्वथा विशेषात् । तथा चात्मनी दीपस्वभावयसिद्धिद गुणस्वभावत्यसिद्धिः कुतो निवात ? विरोधादिति चेत ? दोपस्वभावत्वसिद्धिरेव निवासतां तस्य गुणस्वभावत्वसिद्धः । कुतः सेति चेत १ दोषस्वभावत्वसिद्धिः कृतः १ संसारित्वान्यथानुपपत्तेरिति चेत् तत्सारित्वं सर्वस्यात्मनो वचनाद्यनन्तं तदा प्रतिवादिनाऽसिद्धं, प्रभाणतो मुक्तिसिद्धेः । कुत इति चेतु इसे प्रचताः । कचिदात्मनि संसारात्यन्तं निवर्तन तत्कारणात्पन्तनिवृत्यन्यथानुपपत्तेः । संसारकारणं हि मिथ्यादर्शनादिकतुभगप्रसिद्धं कचिदत्यन्तनिवृत्तिमत तद्विधिसम्यग्दर्शनादिपरमप्रकर्षसद्भावात् । यत्र द्विधिपरमकसद्भावतच तदत्यन्तनिवृत्तिमद् भवति यथा चक्षुपि तिमिरादि । नदमुदाहरणं साध्यसाधनभर्मविकलं कस्यचिचक्षुपि तिमिरादेरत्यन्तनिवृतित्वप्रसिद्धेस्तद्विधिविशिष्टाञ्जनादिक सद्भावसिद्धे निर्विवादकत्वात । कथं मिथ्यादर्शनादिविरोधि सम्यग्दर्शनादि निश्चीयत इति तत्प्रकर्षे तदपकदर्शनात् । श्रद्धि प्रकृष्यमाणं यदकपति नन् द्विरोधि सिद्धम यथोपस्पर्शः प्रकृष्यमाणः शीतस्तद्विरेश्री मिथ्यादर्शनादिकमपकर्षति च प्रकृष्यमाणं कचित्सम्यग्दर्शनादि, तन (१ ततः ) तद्विरोधि । कथं पुनः सन्दर्शनादः कचितारक सिद्ध इति चेतु ? प्रकृत्र्यमाणत्वात् । गद्भि प्रकृष्यमाणं तत्कवचित्परमप्रकर्षसद्भाव भारदृष्टम् या नमगि परिमाण प्रकृष्यमाण सम्पन्दर्शनादि । तस्मान्परमकसावा | परत्वापरत्वायां व्यभिचार होत येन तयोरपि सायंन्तजगादिनां एनप्रकर्षाभावसिद्धेः न चापर्यन्तं जगदिति वक्तुं शक्यं विशिष्टसन्निवेशत्वान्पर्वत । यत्पुनरपर्यन्त नभ विशिष्ट सिद्धं यथा व्यास विशिष्ट सन्निवेशं च जगत् । तस्मात्मनः सपर्यन्तमिति निर्गादिनमन्यत्र । संसन्त इति चेत ? न तस्याप्यभाजावेषु परमप्रकर्षसद्भावसिद्धी प्रकृष्यमाणलेन प्रतीनः । एतेन मिथ्यादर्शनादिभिन्नभिचारः प्रत्याख्यतः नेणगायव्येषु परमकसद्भावात् । विरोधितया सिद्ध होने वाले सम्यग्दर्शनादि का अपकर्ष और प्रकर्ष होता है चरम = उत्कृष्ट प्रकर्ष भी अवश्य होना चाहिए, क्योंकि तारतम्यवाले भावों का उत्कर्ष अवश्य कहीं पर विश्रान्त होता है, जैसे परिमाण के उत्कर्ष का विश्राम गगनपरिमाण में होता है । जब सम्यग्दर्शनादि का चरम प्रकर्ष होता है तब मिव्यादर्शनादि की अत्यन्त निवृति होनी चाहिए, क्योंकि सम्यग्दर्शनादि उसका विरोधी होना है। जैसे गर्मी के दिनों में मध्याद काल में गगन स्वच्छ होने पर तप्त रास्ते पर गरमी का प्रकर्ष होता है या टाटा (फेक्टरी) की भट्टी में उष्णता का एकम होता है तब सैन्य की अत्यन्त निवृति उच्छेद होता है ठीक वैसे ही यह संगत हो सकता है । जब सम्यग्दर्शन, केवलज्ञान आदि गुणों के परमप्रकर्ष से मियादर्शन, मिथ्याज्ञान आदि दोषों की अत्यन्त निवृत्ति सिद्ध हो गई तब तो उसकी अन्यथानुपपत्ति के बन्द से संसार की भी अत्यन्त निवृत्ति सिद्ध हो जायगी। इस तरह परमप्रकृष्ट सम्यग्दर्शनादि से जिस आत्मा में संसार का अत्यन्त उच्छे मित्र होगा उसमें गुणस्वभावत्व की सिद्धि हो जायेगी, क्योंकि स्वभाव का उसमें स्वीकार करने पर तो दोष की सर्वया निवृत्ति ही अनुपपत्र हो जायेंगी। उसका विरोध होगा। आय के अधिकरण किसी एक आत्मा में गुणभाव की सिद्धि हो जाने पर तो अन्य भव्य अभव्य, जातिभव्य, दुग्भव्य आदि में भी गुणस्वभावत्व की सिद्धि हो जायेगी. क्योंकि वेसा न मानने पर उसमें आत्मत्य की अन्यथा अनुपपनि हो जायेगी । यहाँ अनुमानप्रयोग इस तरह होगा कि अभव्य, जातिभय आदि आत्मा गुणस्वभाववाली है, आत्मत्व की अन्यथा अनुपपति होने से मुक्तजीवन ऐसा मानने पर अपसिद्धान्त आदि दोषों को भी अवकाश नहीं है. क्योंकि अभव्य जातिभव्य आदि में सत्ता में तो केवलज्ञान, सम्यग्दर्शनादि गुण विद्यमान ही है। वह निरोहित है - वह अलग बात है । यह है अवीकार दिगम्बर जैनाचार्य विद्यानन्द का वक्तव्य ।
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७६४ मध्यमस्थानादरह खण्ड ३ की. १९ * आमनि दीपपाधिकत
तत्राऽयमनुयोग, एवं सति सातत्येन सताऽज्ञानादिनाऽनादिनिगोदजीवानां दोषस्वभावत्वस्य सिद्धत्वादन्यत्राप्यात्मत्वान्यथानुपपत्या तथात्वं कुतो न सिध्येत् ? गुण: साक्षात्, दोषः पुनरात्मन्युपचारादिति विशेषेऽपि वैपरीत्यस्य सुवचत्वात् ।
* जयलता है
ततो नानैकान्तिके प्रकृष्यमाणत्वं परसप्रकर्षसद्धये साध्ये नापि विरुद्धं सर्वधा विपक्षाद व्यासः । इति कचिन्मिथ्यादर्शनादिविरोधि सम्यग्दर्शनादिं परमप्रकर्षसद्भावं साधयति । स च सिध्यन्मिध्यादर्शनादेरत्यन्तनिवृत्तिं गमयति । सा च गम्यमाना स्वकार्य संसारात्यन्तनिवृत्तिं निश्चाययति । यामी संसारस्यात्यन्तनिवृत्तिः सा मुक्तिरिति । तदन्यधानुपपत्तेरात्मनां ज्ञानादिगुणस्वभावत्वसिद्धेन दस्वभावयसिद्धिः विधान प्रसिद्धयां कचिदात्मनि निःश्रवाणि गुणस्वभावतायामभज्यादावपि तन्निर्णयः जीवत्वान्यधातुपपत्तेः । प्रसिद्धे च सर्वस्मिन्नात्मनि जानादिस्वभावत्वं दोषस्वभावत्वासिद्धेः सिद्धं दोषस्य कादाचित्कत्वनागन्तुकत्वं साधयति । ततः स एव परिक्षयी स्वनिनिशादिति सुस्पष्टमाभाति, दोषनिर्वानिनित्तस्य सम्यग्दर्शनादः विशेषेण वर्द्धनप्रसाधनातू' (अ.स.१-४.०० इति । प्रकृतप्रकरणे चेदमंत्र संक्षेपतः प्रोक्तं मिथ्यादर्शनारकप्रकर्षयन्येनेत्यादिना । सुस्पष्टमेवाटही पादर्शनादिति न प्रतन्तेज्माभिः ।
विद्यानन्दवक्तव्यं अयं = अनुपदं वक्ष्यमाणः अनुयोगः भट्टानुयायिनीञ्च प्रतिचन्द्या प्रत्यवतिष्ठन्त - तत्र = पर्यनुयोगः प्रश्न इति यावत् । एवं सति सम्यन्दनादिप्रकाशायां सिद्धातत्येन ज्ञानादिना मुकात्ननां गुपस्वभावत्वस्य | सिद्धत्वादन्यत्राप्यात्भत्वान्यथानुपपत्त्या गुणस्यभावत्यसाधने सति मिध्यादर्शनादिकादशायां सातत्येन सता अज्ञानादिना प्रत्येक कामादिसुक्ताअनादिनिगोदजीवानां. अप्राप्तसम्यग्दर्शनादिगुणत्बोधनायानादीनि दोषस्वभावत्वस्य सिद्धत्वात् अन्यत्र = त्मपर्यन्तेषु अपि आत्मत्वान्यथानुपपत्त्या तथात्वं दोपस्वभावत्वं कुतो न सिध्येत् ? सिध्येदेव । प्राप्तसम्यग्दर्शनादीनाम पूर्वं दोपस्वभावत्वस्य सिद्धत्वात् । एतेन निगदभिन्नजावानां ग्रामसम्यग्दर्शनादीनां गुणस्वभावत्वकल्पनमपि प्रत्याख्यातम्. तथापि अभव्येषु जातिभयेषु सर्वदा अज्ञानादिना मिथ्यादर्शनादिदी स्वभावत्वस्य सिद्धत्वादन्यत्रात्मत्वान्यथानुपपन्या दोषवभाचत्वाऽसाहंतेः । एतेनात्मवान्यथानुपपत्त्या न तत्र दोपस्वभावत्वं किन्तु अभव्यत्वजाति भव्यत्वान्यधानुपपन्यति नान्यत्र दोषस्वभाचत्यसिद्धिरित्यपि निरस्तम् अवास्प्रकृष्टसम्यग्दर्शनानां नात्मन्यान्यथानुपपत्त्या गुणस्वभावत्वं किन्तु प्रकृष्टसम्यग्दर्शनाद्यन्यथानुपपन्येति नान्यत्राभव्यादिषु गुणस्वभावत्वसिद्धिरित्वस्यापि जागरूकत्वात् ।
औपाधिकः सम्यग्दर्शनादिः गुणः साक्षात् = अनोपाधिकः, दोष: मिथ्यादर्शनादिः पुनः आत्मनि उपचारात् । इति गुणस्वभावत्वमेवानुपचारित दोषस्वभावत्वं तु काल्पनिकमुपचरितं वेति विशेष सति अपि वैपरीत्यस्य आत्मन्वाविशेषेऽपि | दीपः साक्षात् शृष्णः पुनरूपचारादित्यस्य सुवचत्वात् दोपस्वनावत्यमेवानुपचरितं गुणस्वभावत्वं तु काल्पनिकमुपचरितं वेत्यत्रा:विनिगमा गुणदोषोभयस्वभावत्वमात्मनि निपायमेाऽस्माकं महानुयायिनाम् ।
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* विद्यानन्द का वक्तव्य प्रतिवन्दिग्रस्त
भट्ट क
नाभ | विद्यानन्द के वक्तव्य के खिलाफ भड़ानुयायियों का यह प्रश्न है कि जैसे परमप्रकृष्ट सम्यग्दर्शनादि के सतत साथ रहनेवाले सम्यग् ज्ञानादि गुणों की अन्यथा अनुपपति से मुक्तान्मा में गुणभाव की सिद्धि कर के आत्मत्वान्यथानुपपत्ति गे सकल आत्मा में गुणस्वभाव की सिद्धि करने पर तो सतत प्रकृष्ट मिथ्यात्वादि दोपवाले अनादि निगोदजीवों में, जिन्होंने कभी भी निगोद से बाहर नहीं निकलने की वजह सम्यग्दर्शनादि गुणों को कभी भी प्राप्त नहीं किया है, दोपभावत्व की सिद्धि हो जाने से अन्य निगोन से बाहर निकलनेवाले भव्य आसन्नभव्य, मुक्तात्मा आदि में भी आत्मत्व की अन्यथा अनुपपति के चल से नधान्य दोपस्वभावत्व की सिद्धि क्यों न होगी ? युक्ति तो दोनों पक्ष में समान ही है। यहाँ यह तो नहीं कहा जा सकता कि आत्मा में गुण ही साक्षात् = अनुपचरित सम्बन्ध = अपृथग्भाव सम्बन्ध से रहता है। दोष तो उपचार से = परम्परासम्बन्ध में रहता है । अतः आत्मा में गुणस्वभावत्व ही होगा, न कि दोपस्वभावत्व' <- क्योंकि इस तरह विशेष ज्ञान करने पर तो विपरीत रूप से भी विशेष उद्भावन करना सरल होगा कि आत्मा में दोष ही साक्षात्सम्बन्ध से रहता है. गुण तो म्म्म्बन्ध से रहने से औपचारिक है । निगोद के जीव में साक्षात्सम्बन्ध से दोप रहता है - इसका अपलाप नो दिगम्नर भी नहीं कर सकता। इसलिए सभी जीवों में दोपस्वभावत्व मानना भी निर्दोष ही है ।
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दिगम्बर नीमालकाःनिवन्दिः
दोषस्वभावत्वे निर्दोषत्वं कदापि न स्यादिति चेत् १ गुणस्वभावत्वे निर्गुणत्वं कदापि न स्यादित्यपि किं न स्यात् ?
दोषाविर्भावकालेऽपि तिरोहितगुणसत्वात् स्यादभिमतमेवेदमिति चेत् ? तदितररापि समानम् । 'तिरोहितोऽपि दोषो गुणविरोधीति' चेत् ? तिरोहितो गुणोऽपि किं न दोषविरोधी ?
* जयलता - ननु अनादिनिगादीवाना सातत्यना:ज्ञानादिना दोपस्वभावत्व स्वीकृते सति निर्दोपत्वं - मिथ्यादर्शनादिदोपहित्वं कदापि न स्यादिति तदन्यथानुपणाच्या गुणस्वभावत्वमवानुगारतं कल्पयितुमर्हनि न तु दोषस्वभावमिति विद्यानन्दानुयायिभिरुनाने चेत ? तर्हि अभव्य-जातिभव्यानां सदैव निगणत्वमभिमतमंत्र । न च नदिनषा कदापि निर्दोषनं न म्यादिति वाच्यम. तर्हि कचित् परगरायादर्शनादिना गुणस्वभावत्वे सिन्द्रं सर्वेषामात्मत्वान्यधानुपपन्या गुणस्वभावत्वे चाकृते सनि अनादिनिगोदादिजीवानां निर्गणत्वं कदापि अनादिनिमोदाद्यवस्थायामपि न स्यात् इत्यपि किं न स्यात् ? युक्तः तुल्यत्वान. अन्यथा अर्धजरतीयप्रसङ्गात् ।।
नन्चनादिनिगोदादिदगायां किं कश्चिदाणस्वभावत्वमापाद्यते सर्वथा या ? इति पक्षामयी | नाधा नवद्यः, दोपाविभांचकालेऽपि = क्लिष्टमिथ्यादर्शनादिदापाभिव्यक्तिसमयावच्छेदेनापि सर्वेपामयामन्य-जातिभव्य दग्भव्यादीनां तिरोहितगणसत्त्वात् = अन्य ककेवलज्ञानादिगुणानां सच्चात स्याटभिमतं = कथञ्चिदिष्टं एव इदं = सर्वेषामात्मनांकचिनिगणिभित्रत्वम् । में हि, आकाशादिवत् अभव्यादीनां सर्वथा केवलज्ञानादिरगशुन्यत्चमभिमतम, अन्यथा केवलज्ञ नावरणानुष पनः । जावस्य सतोऽभत्र्यादेरपि कंवलज्ञानापरणवत्त्वादावरणेन च सतामय ज्ञानादिगुणानामभिभवस्य कर्तुं शक्यत्वादभन्यादरपि ज्ञानादिगुण - स्वभावत्वमेव । द्वितीयस्तु नास्माभिः स्याद्वादिभिः मुक्तात्मस्वपि स्वीक्रियते । न हि मिद्धानि निगोदाद्यवस्थापक्षया प्रकटसम्यग्दर्शनादिगुण-स्वभावोभ्युपगम्यते । तत् ग्याद्वादिभिरुच्यमानं इतरत्र = जीवानां दोषस्वभावत्वपश्यं अपि समानम् । सम्यग्दर्शनादिगुणा-विभावकालेऽपि तिरोहितदोषसच्चात् कश्चिदभिमतमेव 'दोषस्वभावत्वे निपित्वं कदापि न स्यादि'त्युच्य. मानम् । न हातमत्नादि-गणस्थान प्रकृष्टसम्यग्दर्शनसपि सर्वधा निदोपत्वमस्ति । न च मकान्मम्वपिनिषत्वं न ग्यादिनि वाच्यम, स्यादभिमतमेवंदम । न हि मनो-पि संसार्यवस्थापेक्षया निषिः स्वाक्रियते, अन्यथा स्याङ्गदाय जलाञ्जलि: दत स्यान ।
ननु तिरादितोऽपि दोपो गुणविरोधीति तिरोहिंनदोषसत्त्व निर्मलसम्यन्दर्शनादिकनव न स्यादिति चेन ? नहि अनादिनिगादजीयानां तिगेहिनां गुणोऽपि किं न दोपविरोधी = मिथ्यात्वादिदोषप्रतिबन्धकः स्यात : ततो नादिनिगादायस्धायामपि जीवानां निषित्तमभ्युपगन्तव्यं स्यादित्यपसिद्धान्तागतः ।
यहाँ दिगम्बर की ओर से यह कहा जाय कि → 'सभी जीवों में दोपस्वभावत्व मानने पर तो किसी भी जांच में कभी भी निर्दोपता की सिद्धि नहीं होगी । तब तो मुक्ति भी अनुपपन्न बन जायेगी, क्योंकि कृत्स्नोपात्यन्तनिनि ही मुक्तिशब्द से प्रतिपाद्य है' - तो यह भी इसलिए नभ्यहीन है कि नच तो तुल्य युक्ति में यह भी कहा जा सकता है, कि सब जीवों में आत्मत्वान्यथानुपपत्ति से गपस्वभावत्व मानने पर तो कोई भी जीप कभी भी निर्गण नहीं हो सकेगा। तब नो अनादिनिगाट के जीव में भी गण की मिद्धि हो जायगी ।
→ 'हो, हम दिगमर अगदि निगादीव में भी तिरोहित गुण का स्वीकार करने हो है । अत्मत्वान्यथानुपपनि के बल मे सिद्ध होनेवाले गुणस्वभावत्व का अपलाप तो कैसे हो सकता है ?' - इस वक्तव्य के खिलाफ यह भी कल्पना की जा सकती है कि - भव्य, आनन्नभव्य, मुक्त आन्मा आदि में भी निगेहिन टोप रहता ही है । आत्मवान्यभानुपपनि के इल सं सिद्ध टोपस्वभावत्य का अपलाप नी कम हो सकता है ? यहाँ इस कथन का कि → 'मुम्तात्मा में निहित भी दोष मानने पर नो गुण नहीं माना जा सकता है, क्योंकि निगहिन दोप भी गुण का विरोधी होता है। क्या धाक में तिरोहित एक भी विपविन्दु आरोग्य, पृष्टि आदि गुणों का नाशक नहीं होता है ?' - समाधान भी मुलभ है कि अनादिनिगाट जीनों में तिरोहित भी गुण मानने पर ना मिथ्यादानादि दोष नहीं माना जा सकता, क्योंकि निहित गुण भी दोष का विरोधी होता है। क्या भोजन में तिरादित अमृत का एक भी चिन्द्र रोग, नता, थकावट आदि टोपी का नाशक नहीं होता है ? युम्ति नो दोनों पक्षों में ममान ही है।
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३६६ मध्यमस्वादादरहस्य खादः ३ . का. * मुखममवाप्याम ति प्रतिविचार:*
अथ स्फटिकम्त्यादिगुणस्य तिरोहितस्यापि तापिच्छश्यामिकादिदोषाऽविरोधित्वं हामिति चेत् ? त, आत्मन्यज्ञानादिदस्यौपाधकस्याउनभयुजमाद बोधांश-द्रव्यांशयोरेव प्रकाशाप्रकाशरूपत्वात् । न चैकत्र ज्ञानाज्ञानयोर्विरोधः, भेदाभेदवविरोधात । अत एव 'सुखमहमस्वासं न किचिदवेदिधमिति सुषुप्त्युत्तरकालीनोऽपि बोधः सङ्गच्छते शाह ।
- जयलता. विद्यानन्दानुयायी शङ्गत अति । चेदित्यनेनास्यान्वयः । स्फटिक श्वेत्यादिगुणस्य तिरोहितस्यापि नापिञ्चम्यामिकादिदोपाविरोधित्वं दृष्टम् । स्फटिंक तिरोहितश्चतिमायाः सञ्चापि नापिनश्यामकारूपी दांप उपजायते निरोहिनिर्मलनासच नापिच्छमलीनिमा जायन इनि इष्टत्वान्न निरोहितगणग्य दोपततिबन्धकत्वम् । अन एवानादिनिगादीवानां निगहिनकवलज्ञानादिगुणस्य नाज्ञानादिदोषप्रतिबन्धकत्वमित्यान्मत्वान्यधानपगन्या गणनभावल्वकल्पनं न्यायमनि चत् ! न दृष्टान्नदाटन्निकयाः वैषम्यात् । स्फटिके हि तिरोहितदशीकल्यादिगुगसच तापिन्छादिलक्षणोपाधिसम्पादिन पश्यामिकानिदोषी न नियंत न तु अनागाधिकः दोष इति तिरोहितगुणस्य न दोषप्रतिबन्धकत्वं किन्तु वानीराधिकदोषप्रनिरन्धकन्न । न नब प्रतियनावच्छंदकगौरवदोष इति वाच्यम, विशएधर्मेण व्यभिचागज्ञान सामान्यधर्मणान्पधासिद्धृत्वात । न च तथापि निगहिनज्ञानादिमास्यान्नादिनिगीदजीवाज्ञानादिप्रतिबन्धकल्वं न स्यान अज्ञानादनपाधिकल्लादिति वाच्यम, आत्मनि = आत्मत्वावच्छिन्न अज्ञानादिदोषस्य श्रीपाधिकस्य = उपाधिजन्यस्य अनभ्युपगमात । क हितापिन्छासन्निधाने स्फटिक पत्रं यथा दयामिकांदरभावः प्रेक्ष्यत तथा नादिनिगोदजीवादिषु पूर्वमज्ञानादिदो पस्या भावः स्वीक्रियते स्याद्रादिभिरपि, निगावजागनामियाज्ञानादिदोषागामाचमादित्यात । इत्यञ्च विनिगमनाचिरहात् गुणस्वभावत्वमित्र दीपस्वगायनमयात्मत्वान्छिन्न रबीकर्तव्यम् । न हि जीवानामतायता प्रबन्धेन गुगस्वभावत्वं प्रतिक्षिप्यते किन्तु दोषस्वभावत्वमपि तुल्ययुक्त्या साध्यते । ततश्च ज्ञानाज्ञान्ने भयम्वरूप व जीचा भ्युपगन्तव्यः, आत्मनी बोधांश-द्रव्यांशयोरेव प्रकाशाप्रकाशरूपत्वात = ज्ञानाज्ञानात्मकन्वान । न च एकत्र आत्मनि ज्ञानाज्ञानयोः बिरोधः अन्धकारप्रकाशयोरिवति वक्तव्यमा भेदाभदवदविगंधात । वृक्ष मुलांझ-झारखांशयां : कापियागिभिन्नत्य. तदभिन्नत्यक्त् आत्मन्यपि बोधांश-द्रव्यांशयोानाहानात्मकत्वभनपायमेव । अत एव = आत्मनो ज्ञानाज्ञानात्मकत्वादव, 'सुखमहमस्वाप्सं न किनिदवेदिपमिति सुपुप्युत्तरकालीनोऽपि बोधः सङ्गच्छते, सुखस्यावश्यवदनीयत्वन सुरबबांधे गि 'न किश्चिददिपमिति ज्ञानात ज्ञानाज्ञानाभयस्वभावत्वमेवात्मनः सिध्यति । आत्मनः ज्ञानाज्ञानोभयात्मकत्गनगीकारे यं,
बजाज और अज्ञान एकत्र अविरोधी - ] अय सफ। यदि दिगम्बर की ओर से यह कहा जाय कि → 'तिगहित गुण का निगोद जीवों में स्वीकार करने पर भी मिथ्यादर्शनादि दोषों के विलय की आपत्ति नहीं आयेगी, क्योंकि निरोहित गुग दोपविगंधी नहीं है, किन्तु प्रगट प्रबल गुण ही दोपविरोधी है । यह तो व्यवहार में भी प्रसिद्ध है । जैस स्फटिक में वन्य आदि गुण होते है ये नापिच्छ = तमाल पुप्प आदि के मनिधान में तिरोहित हो जाने हैं फिर भी स्फटिक में श्यामिका आदि दोप रहते ही हैं। नापिन के श्याम' रूप से स्फटिक में श्यामिका दोप का आधान होता है, उसका विगंधी स्फटिकगत निगहिन बनमादि गुण नहीं होना है। अनः निगोद के जीवों में निराहित गुण होने पर भी मिध्यान्वादि दाप रह सकते हैं' - तो यह भी अमंगन है, क्योंकि दुरान्त और दाष्टान्तिक में पम्य है । स्फटिक में जो ग्यामिका आदि दोप हैं आपाधिक है और निगादादि जीवों में जो अज्ञानादि दोप है ये अनोपाधिक है, स्वाभाविक है। स्फटिक पहल न होता है बाद में नापिट के मनिभ्य से उसमें श्यामिका आती है और तापिच्छ के चले जाने पर बह चली जाती है। इसलिए स्फटिक में दयामिका दांप औपाधिक है। जब कि अनादिनिगांद के जीवों में अज्ञानादि दाप औपाधिक नहीं होते हैं। पहले व नीव अज्ञानानि दोर में हित थे और बाद में किसी उपाधि के सन्निधान से उसमें अज्ञानादि दोष भाने हैं . पसा हो नब अनादिनिगोर के जीवों में अज्ञानादि को औपाधिक मान जा सकते । मगर मा नहीं है। अनादि काल में निगांद के जीयां में अज्ञानादि दोष रहने हैं। हमारा यहाँ यह वक्तव्य है कि तिराहिन गण श्रीपाधिक दोप का विरोधी हो सकता नहीं है, मगर अनापाधिक = साहजिक दोपों का तो वह विरोधी होगा ही । इसलिए निगोदजीवां में कंबल गुणस्त्रभावन्न मान कर निगहिन गुण का स्वीकार करना उचित नहीं है। उचित तो यही है कि अनादि निगाहजीवों में भी गुण-दीगंभपस्वभावत्व का स्वीकार किया जाय । प्रकाशाप्रकाशाभयात्मकता यानी ज्ञानाज्ञानस्वभावत्व का अनादि निगटजीव, व्यवहाग्गशिनीव, मक्तीन आदि में स्वीकार
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* बाधा दयांदापागदः *
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सोने - न तावदेकमात्मनि बोधांश-द्रव्यांशी भिन्ना, अन्यथाऽऽत्मन्दयापत्तेः । न वात्रांशोऽवयव: सम्भवति, निरवयवत्वादात्मतः, न वा प्रदेश: सर्वस्यैव बोधांशत्वात, सर्वस्यैव द्रव्यांशत्वाच्च । तथा च सर्वावच्छेदेन प्रकाशाप्रकाशोभयापतिः । विरुध्द चैतत, एकावच्छेदेन भावाभावोभयासमावेशात् ।
- गयला * दोधी न वटा काटिमाटीकेत । ननश्च गुणदोषामयग्नभावत्वमेवात्मनि सिध्यति इत्याहुः ।।
यद्ययभञ्यादायगन्मान गुणदागोभयस्वभावत्वमविरुद्धं, परषामययविगुणेऽवयवगुणस्येबास्माकं विभावगुण पाय स्वभावगणपर्यायस्य तत्वसम्भवान. शुद्धात्मत्वावृतत्वावच्छेदकलंदन चौमयसमावास्याप्याविरोधादात्म। प्रदेशाटकनिर्देशकबारमर्पस्यायतनिकलत्वात् तथागि प्राधान्यन व्यपदेशा भवतीति न्यायानुसारिणीयमन्तिरिति प्रकरणकारणव असहस्रीतात्पर्यविवरण प्राभितं तथापि प्रकृते 'बोधांश-द्रव्यांशबारेत प्रकाशाप्रकारूपन्यादि ति ममतखण्दनार्थ प्रकारान्नंगणापक्रमने प्रकरणकार; अत्रांच्यत इति । एकत्रात्मनि ज्ञानाज्ञानी भवसमावास्तदा म्बत बन्दा न्दबन्दकर्मदलाभ: स्यात, अन्यथा तद्विरोधात । च म सम्भवनि । तथाहि न तावत् एकत्र आत्मनि बोधांदा-द्रव्यांशी परस्पर भित्री मम्भवतः, अन्यधा = एकान्ततः आत्मच्य-पयांभेदाभ्युपगमे तु आत्मद्वयापत्तेः । कपालतन्तूनां परम्पर भिन्नत्वेन बटपटद्वयवनः । न च अत्र आत्मनि अंशो - झानांश, अवयवः सम्भवति, तस्य गुणल्लादचयवसम्य तु द्रव्यमाननिल्यात् । न चात्र द्रव्यलक्षणीपिं अंशः सम्भवति, त्वन्मते निरवयवत्वात् = अन्वयज्ञानारचलान आत्मनः । न च स्याद्वादिमतापेक्षया आत्मनो माज्यप्रदेशात्मकत्वात नानांशी दव्यांशो वा प्रदेशः सम्भवतीति वाच्यम. स्यादिमतानुसारेण सर्वस्येच आत्मप्रददास्य - आत्मप्रदात्यावच्छिन्नरय एव बोधांशत्वात, बाधांशस्य प्रकाशरूपत्वस्वीकारे सांवच्छंदनात्मनि प्रकाशरूपत्वापनिः, सर्वस्यैर आत्मप्रदेशस्य = आत्मप्रदशल्या . वच्छिन्नस्य द्वन्यांशत्वात द्रव्यांशस्या:प्रकाशरूपत्तोपगम च सर्वांवच्छंदनात्मनि अग्रकाशरूपत्वागतिः । तदेवाह - नथा च = बांधांश-द्रव्यांदायाः प्रकाशाप्रकाशरूपत्वमकृत्य म्यानिमत सांगत आत्मप्रदेशः तम्प ज्ञानांशत्व द्रव्यांशत्वस्वीकारे । आत्मनि सर्वावदन = सर्वानप्रदशवच्छंदन प्रकाशाप्रकाशोभयापत्तिः = ज्ञानाज्ञानभयस्यनावासनः । ततः कि? इत्याह - विम्द्धं चैतत = मर्यात्मप्रदेशावदनात्मनि ज्ञानाज्ञानामयस्वरूपत्वकल्पनं, एकत्र धर्मिणि एकावदेन भावाभाचीभया
करने में कोई अनुपपनि नहीं है, क्योंकि सभी जीवों में जो गंधांश है वह प्रकाशस्वरूप है और द्रन्यांश है वह अप्रकाशस्वरूप अज्ञानरवरूप है। इसलिए सभी जीवों में ज्ञानाज्ञानस्वरूपत्व का स्वीकार ही उचित है । पहाँ इस शंका का कि → 'ज्ञान और अज्ञान तो परस्पर विरोधी हांत है । अतः प्रत्येक जीव में ज्ञानाज्ञानाभयस्वभाव की कल्पना नहीं हो सकती है' - समाधान यह है कि ज्ञान और अज्ञान परस्पर विरोधी नहीं हैं। जैसे स्यावादी एक हो घटाढे धर्मी में भेद और अभेद दोनों का स्वीकार करते हैं ठीक वैसे ही प्रत्येक जीन में ज्ञान और अज्ञान की कन्यना करना असंगत नहीं है । भंद और अभेद की भाँति ज्ञान और अज्ञान में विरोध न होने से जीव में ज्ञानाज्ञानस्वभाव की स्वीकृति करने पर ही सुपुप्ति के उत्तरकालीन "मुखमहमस्वापस न किञ्चिदवेदिप' अर्थात् “मैं सुख-चैन से सो गया, कुछ भी मुझे मालूम नहीं हुआ ऐसी प्रतीति की संगति हो सकती है। सुख नो अवश्यरंदनीय होने मे निद्रा में सुख का अनुभव = ज्ञान ना हुआ ही है फिर भी 'न किश्चिदवेदि' इस प्रतीति से अज्ञान का भी स्वीकार करना आवश्यक है। इस प्रतीति की उपपत्ति जीच को ज्ञानाऽज्ञानोभयस्वरूप मानने पर सरलता से संगत हो सकती है। इसलिए जीव को ज्ञानाज्ञानीभयस्वभावाला मानना ही युक्त है, न कि केवल ज्ञानस्वभावाला या केवल अज्ञानस्वभाववाला । यह भट्टानुयायिओं का मन्नत्र्य है । भेटाभेदाविरोध की सिद्धि प्रथम कारिका की व्यारन्या से ज्ञातव्य है, देखिये पृ. ७५)
* ाजाज्ञानोमयस्वभातपादि भष्ट्र के मतको समालोचना उत्तरपक्ष :- अत्रो. । भट्ट के उपर्युक्त मन्तव्य के खिलाफ प्रकरणकार श्रीमट्ट का यह वक्तव्य है कि एक ही आत्मा में बोधांश और द्रव्यांश भिन्न हो तर तो 'बोधांश ही प्रकाशस्वरूप है और दोश ही अप्रकाशस्वरूप है' पह माना जा सकता है. क्योकि अपडेदकमंद में एक धमी में विरोधी धर्म का समावेश हो सकता है। मगर एक ही आत्मा में बांधांश
और द्रव्यांश परस्पर भिन्न नहीं होते हैं, क्योंकि तब दो आत्मा के स्वीकार की समस्या मुंह फाड़ खड़ी रहती है । एक पोधांशस्वरूप आत्मा दसर्ग द्रव्यांशलक्षण आत्मा । मगर ऐसा नहीं है। इसलिए अवच्छेदक भेद का स्वीकार आमा में ज्ञान
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५६८ मध्यमस्याद्वादाहस्थे खण्ड: ३ का. १४
* भावस्वरूपा: ज्ञानानीकारः **
स्थादभिमतमेतत् आत्मत्वावच्छेदेन प्रकाशो द्रव्यत्वावच्छेदेन चाप्रकाश इति, मैतम्, एवं सति सर्वशोऽपि 'मामहं न जानामी 'ति जानीयात् । ततो य एवं जानाति तत्र ज्ञानपदं चाक्षुषादिपरम् ।
* जयलता है
समावेशात् । न हि वृक्षे एकावच्छेदेनेव कपिसंयोग-तदभावसमावेशी दृष्टचरः किन्वच्छेदकभेदेनेव । ततश्च ज्ञान- तदभाववी'रात्मन्य भिन्नात्मप्रदेशावच्छेदेन समावेशोऽपि निशितवरधारकरालविरोधकुठारहारजर्जरित एव । नचाज्ञानं न ज्ञानाभावः किन्तु भावान्तरमेवेति वाच्यम्, भावात्मकस्याज्ञानस्य ज्ञानविन्दाचंच मधुसूदनमतसूदनेऽपास्तत्वात् भावान्तरस्वरूपाज्ञानस्वकारे नवापसिद्धान्ताच । ततां नात्मनि ज्ञानाज्ञानोभयस्वभावकल्पना श्रेयस्करी |
भट्टा: शङ्कन्तं - स्यादभिमतमेतत् यदुत आत्मनि आत्मत्वावच्छेदेन प्रकाशः = ज्ञानं, आत्मत्वस्य ज्ञानरसमवायिकारणतावदकत्वात् द्रव्यत्वावच्छेदेन चाप्रकाशः = अज्ञानं द्रव्यत्वस्य ज्ञानसमायिकारणतावच्छेदकत्वात् । यथा दण्डादी दण्डवाद्यबच्छेदेनानन्यथासिद्धत्वं द्रव्यत्वावच्छेदेन धान्यधासिद्धत्वम् । वच्छेदकभेदेनेव विरोधपरिहारात् । ततः प्रत्येकमात्मनि आत्मत्स्य वापच्चंदनाची निरदिकस्य तदभाववच्छेदकले विरोध प्रतियन्ति नीषिणः । प्रकरणकारस्तन्निराकुरुते - मैवमिति । एवं सति आत्भत्व द्रव्यत्व लक्षणावच्छेदेन ज्ञानाज्ञानयोर्विरोधमपहत्व सर्वस्मिन्त्रात्मनि ज्ञानाज्ञानाभ्यस्वरूपत्वकल्पने सति सर्वज्ञः सर्वविद् अपि 'मामहं न जानामीति जानीयात् । द्रव्यत्यावच्छेदेन न जानामीति प्रतीत्युपपत्तेः । ततश्च सर्वशोऽप्यसर्वज्ञः स्वात् । न चाभिमतमिदम् । ततो यः छमस्थः मामह न जानामि इति एवं जानाति तत्र उद्यस्थे आत्मनि ज्ञानपदं 'जानामी' तिपदं चाक्षुपादिपरं वहिरिन्द्रियजन्यप्रत्यक्षादिबांधेच्छयोच्चरितमिति स्वीकर्तव्यम् । ततो मामहं न जानामीत्यस्य अनुष्यवसायस्य अहगात्मकर्मकचाक्षुपादिज्ञानानाश्रयः इत्येवार्थः । आत्मविषयकस्यानुव्यवसायज्ञानस्य सत्येऽपि चाक्षुषादिप्रत्ययस्याऽसत्येनात्मनि न ज्ञानाज्ञानी भयस्वरूपत्वमापद्यत ।। न हि नीलपटयति भूतले पीताऽसत्त्वदशायां भूतलं बद-तद्भावो भयाधिकरणं भवति तथा व्यवहियते वा । तलव नात्मनी आनाज्ञानांभयस्वरूपत्वं कल्पयितुमर्हति ।
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अज्ञान उभय के समावेशार्थ नहीं किया जा सकता। अतएब आत्मा में प्रकाशाप्रकाशउभयात्मकता को भी मान्यता नहीं दी जा सकती। दूसरी बात यह है कि आत्मा में बोधांश या द्रव्यांश के स्वरूप में भानुयायी अवयव का स्वीकार ही नहीं कर सकते हैं, क्योंकि उनके मतानुसार आत्मा निम्नयर है। यद्यपि जनमतानुसार आत्मा में असंख्येय प्रदेश है तथापि जैननम्मत आत्मप्रदेश का स्वीकार भट्ट बोधांशविधया या द्रव्यांशविधया नहीं कर सकता है, क्योंकि जैनसम्मत सर्व आत्मप्रदेश बोधांशात्मक है और सभी आत्मप्रदेश द्रव्यांदस्वरूप है। फिर भी आत्मप्रदेश को स्वरूप या द्रव्यांशस्वरूप माना जाय तब तो आत्मा में सर्वात्मप्रदेशावच्छेदेन प्रकाश और अप्रकाश उभयात्मकता की आपत्ति आयेगी, क्योंकि 'बोधांश प्रकाशस्वरूप है और द्रव्यांश अप्रकाशस्वरूप है' - यह भङ्गनत है । मगर यह मानना तो बिरुद्ध है, क्योंकि बिना अवच्छेदकभेद के एक ही धर्मो में भाव और अभाव का समावेश नहीं हो सकता है। अतः एकावच्छेदेन आत्मा में ज्ञानाज्ञानोभयस्वरूप की कल्पना त्याज्य | है । अज्ञान तो ज्ञानाभावात्मक हो है यह तो पूर्वपक्षी बने हुए भट्ट का ही सिद्धान्त है । 'मामहं न जानामि' प्रतीति की उपपचि
स्वाद । यदि यहाँ यह कथन हो कि
आत्मप्रदेशात्मक एकावच्छेदेन आत्मा में ज्ञान और अज्ञान दोनों का समावेश मत हो; फिर भी आत्मत्वावच्छेदेन प्रकाश ज्ञान एवं द्रव्यत्वावच्छेदेन अप्रकाश = अज्ञान का स्वीकार तो एक ही आत्मा में हो सकता है, क्योंकि अवच्छेदकीभूत आत्मत्व और अन्यत्व परस्पर भिन्न होने से एक आत्मा में ज्ञान और अज्ञान के विरोध का परिहार हो जाता है । अतएव प्रत्येक आत्मा को ज्ञानाज्ञानोभयात्मक मानना युक्तिसंगत ही है क्या आप स्थानादी को यह अभिमत हो सकता है ?" तो यह भी मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि अवच्छेदकभेद से ज्ञान और अज्ञान के विरोध का परिहार कर के सर्व आत्मा में ज्ञानअज्ञानाभस्वभाव का स्वीकार करने पर तो सर्वज्ञ को भी 'मामहं न जानामि अर्थात 'मैं मुझे नहीं जानता हूँ ऐसी प्रतीति होने की आपनि आयेंगी, क्योंकि द्रव्यत्वावच्छेदेन सर्वज्ञ में ज्ञानाभाव का समावेश डोने से आपके मतानुसार कोई बाध नहीं आयेगा । इसलिए 'सामहं न जानामि' अहं आत्मकर्मकज्ञानानाश्रय' इस प्रतीति में ज्ञानपद को चाक्षुपाविज्ञानपरक मानना चाहिए । अर्थात् ज्ञानपद की चाक्षुषादिप्रत्यय में लक्षणा करनी उचित है। तब उक्त प्रतीति का अर्थ होगा 'अहं आत्मकर्मकचाक्षुपादिप्रत्ययानाश्रयः । अनुव्यवसाय ज्ञान का आश्रय होते हुए भी चाक्षुरादिज्ञान का अनाश्रय बनने में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि अनुव्यवसाय मानस प्रत्यक्ष है, न कि चाक्षुप प्रत्यक्ष और आत्मा में उत
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ज्ञानाभाचवन्न जान्पतिबन्धकताविचार: * किये 'मामहं जानामि सुववन्तं दुःखवन्तं च' इति विपरीतप्रत्ययोऽपि दृश्यते । तथा | च ज्ञानवत्त्वज्ञानस्याऽवच्छेदकानन्तर्भावेल ज्ञानाभाववत्त्वज्ञानप्रतिबन्धकत्वं युक्तिमत् ।
किय तदनवच्छेदकस्य तदभावावच्छेदकाचे घटकारणतालवच्छेदकस्य द्रव्यत्तस्य घटकारणत्वाभावावच्छेदकत्वापतिः, अन्यथा घटाहावपि दैवप्यापत्तिरिति दिग ।
*गवलlla दोषान्तरमावेदान - किति । भामह, जानामा तिप्रत्ययात विलक्षण: मामहं जानामि मुखवन्तं दुःखवन्तने'ति विपरीतप्रत्ययोऽपि दृश्यते = अनुभूयते । ततः कश्रमात्मलाईछन्न झानाज्ञानोभयम्यभावत्वकल्पनं सगच्छन !
तथा च = 'मामहं न जानामी'त्यत्र ज्ञानपदस्य चाक्षषादी लक्षगारबीकाम्याचक्ष्यकन्चात, नत्ययपि 'मामह, जानामि मुखवन्तं द:खचन्तति प्रत्ययाच, ज्ञानवत्त्वज्ञानस्य - ज्ञनत्यावच्छित्रपकारताकज्ञानस्य. अवच्छेदकानन्नविन : ज्ञानत्वातिरिक्तावच्छेदकानवगाहित्वन जानाभाववत्वज्ञानप्रतिबन्धकत्वं .. ज्ञानामावविषयकज्ञानं प्रति प्रतिबन्धक ज्ञानत्वावच्छिन्ननदतिरिक्तधर्मानबन्छिन्त्रप्रतियोगिताकाभावप्रकारकज्ञानमात्रवृनिबंजस्यावच्छिन्नं प्रति प्रतिबन्धकत्वमिति यावत. युक्तिमत् । इत्यञ्च 'मामहं जानामि सुखवन्तं दाखवन्नञ्च' इति ज्ञानस्य स्वप्रकार भूतज्ञाननिष्ठप्रकारतावच्छेदकत्वेन विषयतया सुखाग्रगाहिल्वेन न मामहं न जानामी ति ज्ञान प्रति प्रतिबन्धक सम्मान . न वः सर्वज्ञस्य 'मामहं ने जनामी नि प्रत्ययापनिः, नस्य 'मामहं जानामी ति ज्ञानस्य स्वनिरूपिनाकारतावच्छेदकत्वेन ज्ञानत्वातिरिन्तधमानवगाहित्वन नत्प्रतिबन्धकलान । न का 'मामहं जानामि' इति प्रत्ययेऽपि 'मामहं चक्षषा न जानाना नि प्रतीत्यनापनिः, तस्बा ज्ञानल्यातिरिक्तचक्ष:करणकत्वावन्नित्वेन प्रतिबध्यानाको टिबहिर्भूतत्वात् । सा च सर्वज्ञ:गि निराचाधा, नरिमन मत्पादिज्ञानचदष्कान युपगमेन मांझपलक्षणगतिनाविद्यापविग्हम्यष्टत्वात् । न चैनम्वना तम्य ज्ञानाज्ञानं भयात्कन्द प्रसन्यत इति त्वगुपदम्बान्तम् ।
कि द्रव्यत्वावच्छेदनात्मनि ज्ञानाभावस्वरूपान्नन्नममाचशाने तदनवच्छेदकान्य तदभावावच्छेदकत्वे म्बीमियनाणं तु घटकारणतानवच्छेदकस्य = घनिष्ठकारवानिपिनदात्त्वाअवच्छिन्कारणतानवच्छंटकरस्य द्रव्यत्वस्य घटकारणवाभावावदकत्वापत्तिः = घनिरूपितकारणवाभाबन्दकत्वं प्रसन्न । न चटापना करें मुख्यत, गणादा द्रव्यवहारकाममात्यामागी न स्यादिति गुणाद: घटकारणत्वं प्रसज्यतेत्यां निष्काशयतः मलकागात: ! यता घटकारणतानवच्छेदकस्य :- यदीयारादिनिष्ठकार्यतानिरूपितघनिष्टकारणतानवच्छेदकस्य द्रव्ययम्य घटकाग्णवाभावावच्छेदकन्चापतिः = घनिष्टकारणत्याभावावगंदकन्वापतिः । ततो न तदनवच्छेदकन्य तदभावाबन्दकत्यकलपनमचितम । अन्यथा - नन्दनवन्दकस्य नदभावावन्दकन्द स्वीक्रियमाणे तु, आत्मनि आत्मत्व- द्रव्यत्वावन्दन ज्ञानाज्ञानोभयम्बम्पमिव घटादावपि पटत-नत्यत्वावच्छेदन रूप्यापत्तिः
सप न होने की वजह उसका चाक्षप कभी भी होना नहीं है । दूसरी बात यह है कि 'मामहं न जानामि इस प्रतीति में विपरीत 'मामहं जानामि सुखवन्तं दाखवन्तं च' ऐसी प्रीति भी होती है। द्वितीय प्रनीति ज्ञानवत्वज्ञान = ज्ञानविषयक ज्ञान स्वरूप है और प्रथम प्रतीति ज्ञानाभावरत्वज्ञान = ज्ञानाभाषविषयक ज्ञान स्वरूप है। गामान्यतः तदभाषचनाज्ञान का तद्वत्ता ज्ञान प्रतिबन्धक होता है । फिर भी उपर्युक्त तभावानाजान = ज्ञानाभायवाचज्ञान का प्रतिबन्धक नदवत्ताज्ञान - ज्ञानबत्त्वज्ञान प्रतिबन्धक नहीं होता है, क्योंकि वह अवच्छंदकावगाही है। यदि 'मामहं जानामि गंगा जान उत्पत्र हुआ हो तो 'मामह न जानामि' ऐसा ज्ञान नहीं होता है । इसलिए अवच्छेदक का अन्नाव किये बिना ही ज्ञानवत्त्वज्ञान और ज्ञानाभावरन्यज्ञान में प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभाव मानना आवश्यक है । 'मामहं जानामि मुग्वबन्नं दाखवन्तं । यह ज्ञान ता प्रकारोभून ज्ञान के विषयविधया अवच्छे टकचेन सुख और दाम का अवगाहन करता है और 'मामहं न जानामि' यह ज्ञान भी प्रकारीभूत अभाव के प्रतियोगी ज्ञान के भवन्दकविधया ज्ञानत्वातिग्विन चाचपत्वादि का अवगाहन करता है। अतः उन दोनों के बीच प्रतिरश्यप्रतिबन्धकभाव नहीं माना जा सकता . यह फलिन होता है। नर सर्वज्ञ का मामई न जानामि' इस प्रतीति की आपनि नहीं भायेगी, क्योंकि सर्वज्ञ का 'मामहं जानामि' इस ज्ञान की प्रतिवध्यता के अवच्छंदक धर्म से वह भाक्रान्त है । 'मामह जानामि' यह ज्ञान ज्ञानत्वानिरिक्त धर्म का अवनोदकविधया अवगाहन नहीं करता है , यह नो स्पष्ट ही है ।
ताजवछेद दावाबरोदा नहीं हो सकता किश्च नद । भट्टमत में इसके अतिरिक्त दंप यह है कि आत्मा में जानाज्ञानोभयरूपता के समावेशाध ज्ञान के अनबन्दक दव्यत्व का ज्ञानाभाव का अबतक मानने पर तो घर में रही हटे घटीय रूप, ग्स आदि की कारगना के, नो घटत्यावचिन है, अनवच्छेदक द्रव्याव को घटकारणत्याभाव का अवच्छंदव. मानने की आपनि आयेगी, क्योंकि द्रव्यत्व घटीयरूपम्मानिष्टकार्यता
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७.७: मध्यमस्यालादरम्प खग्गः . का. *साहाध्यकारिका मालन्यादिसंवादः
तदेवं योग-साहस्य-भानमनिरासाय 'चैतन्यस्वरूप' इत्यसूत्रयन् । 'परिणामी कर्ता साक्षाद्धोक्ता' इति सांख्यमतपतिक्षेपाय । तथाहि ते वल्वेिदमाचक्षते -> 'जीवो हिन क्वचिदपि परिणामते, अपकृतिविकृतित्वात् । अत एव तस्य कूटस्थत्वं श्रुतिसिन्दम् । न च
-* जयलगा घीयरूपादिकारणत्याकारणवीभयात्मकतापनि दुगारवत्पयुक्तमव भमतम् ।
तदेवं दर्शितरीत्या योग-सांख्य-भद्रमनिरासाय 'चैतन्यम्वरूप' इत्यसूत्रयन श्रीवादिदेवसूरिः प्रमाणनयनचालोकालङ्कारसूत्रे । 'परिणामी, कर्ता, साक्षाभोक्ता' इनि आत्मविशेषणनिपादानञ्च सांख्यमतप्रतिशंपाय । नथादि ने = साङ्ख्या: ग्बलु इदमाचक्षते - 'जीवो हि न परिणमते, अप्रकृतिविकृतित्वात् । तदुक्तमीश्वरकृष्णेन सांख्यकारिकायां मूलप्रकृतिरविकृति: महदायाः प्रकृनिविकृतयः सप्त । पोडमाकन्तु विकारः न प्रकृतिन विकृति: गुरुतः ।। (मो.का. ३) ध्याच्यानञ्च माठरवृत्ता पुरुषस्तु पुनर्न प्रकृतिरनुत्पादकत्वान, न च विकृतिरनुत्पन्नत्वात' (मा..पू. १२) इति । अत पत्र तन्य कूटस्थत्त्वं श्रुनिसिद्धम् । नदुक्तं वृहदारण्यकोपनिपदि 'असगा ह्ययं पुरूषः' (बृ. उप, ६/३/१६) इति । 'माक्षी चंता केबलों निगंगञ्च' इनि श्रुतिरप्यस्यैव साधिका । तदुक्तं योगन्यमण्युपनिषदि नित्यं शुद्धं या. बृ.पू. १) इति । अत एव 'भयान्य पुरुषः' (सां.स. १/?..) इति सांख्यसूत्रमपि व्यवस्थितम् । न च नित्यत्वं = ध्वंसा प्रतियोगित्वं पब तत् = कूटम्यत्त्वं, निरूपित कारणता का अनवच्छेदक है। मगर घट में दन्यत्वावच्छेदेन स्वीयरूपादिनिरूपिन कारणना के अभाव का व्यवहार नहीं होता है । अतः तटनरच्छेदक धर्म को तदभाव का अवच्छेदक नहीं माना जा सकता । अन्यथा = फिर भी नदनवञ्छंदक धर्म को तदभाव का अवछेदक माना जाय तब नो घट में भी घटीयरूपादि के कारणाकारणोनयस्वरूप की आपनि आयेंगी, क्योंकि भट्टमतानुसार घट में घटत्वावच्छेदेन पटीवरूपादि की कारणता और द्रव्यवायचंबन घटीयम्पादि की कारणता का अभाव माने जा सकते हैं। घर में घटत्व-द्रव्यत्यावच्छेदन दोनों का समावेश करने पर विरोध का परिहार भी हो जाता है। मगर घट में घटत्व-द्रव्यत्वापदेन स्वीयरूपादिकारणत्व- कारणत्वाभावांभयस्वरूप का व्यवहार नहीं होता है । ठीक वैसे ही एक ही आत्मा में आत्मत्व-द्रव्यत्वावदन ज्ञाना ज्ञानोभयस्वरूप का समावेश नहीं हो सकता। अतः आत्मा का ज्ञानाजानाभयस्वरूप • गुणदापभयस्वरूप माननेवाले भट्ट के मन का स्वीकार नहीं हो सकता - यह फलित होता है । यहाँ जो कहा गया है वह तो एक दिग्दर्शनमात्र है। विद्वान लोग इसके आगे भी विचार कर सकते हैं। यहाँ तक की विचार गृखला से आत्मा ज्ञानमय-ज्ञानस्वरूप-चैतन्यस्वरूप है - इसका, जो वादिदेवमुरिजी के प्रमाणनयतत्त्वालांकालंकार के वे परिच्छंद के .६ चें सूत्र में मात विशपण से विशिष्ट आत्मा के प्रथमविशपविधया निर्दिष्ट है, समर्थन हा जो नैयापिक, सांख्य और भट्ट के मत के निरासार्थ प्रयुक्त है . यह पाटकवर्ग के लिए ध्यातव्य है ।।
पूरुप. सर्वथा मिला है-स्यमत" परि । मूत्र में परिणामी, कां, साक्षातोक्ना' मा आत्मा के तीन विशेपणों का ग्रहण मांख्य मत के निरासार्थ किया गया है। सांख्य मनीपियों का यह मनव्य है कि आत्मा अपरिणामी. अकर्ता एवं साक्षात अभाक्ता है। हमकी सिद्धि के लिए उनका यह वक्तव्य है कि. 'जीव = पुरुष नामक २. यो नाच परिणामी नहीं है । वह कभी भी किसी परिणाम में परिणत नहीं होता है, क्योंकि यह अप्रकृतिविकृतिस्वरूप है। परिणाम का मतलब है पूर्व अवस्था का त्याग कर के उत्तर अवस्था की प्राप्ति । यह परिणाम उसी में मुमकिन है, जो किाका उपादान कारण हो या किसीका उपादेय कार्य हो । जैसे दूध दही का उपादान कारण होने में उस रूप में परिणत होता है । अतः दुध परिणामी कहा जाता है और नही उसका परिणाम । मगर भान्मा किसीका उपादान कारण या उपाय = कार्य नहीं होने से बह परिणामी नहीं है । इसीलिए आत्मा का कुटम्मच श्रुति में सिद्ध है । उपनिष्टादि में कहा भी गया है कि 'पुम्प अमंग है । पुरुष में रहनेवासा कूटस्थस्य नित्यत्वस्वरूप नहीं माना जा सकता, क्योंकि सत्कार्यवाद में, जो सांख्यदर्शन के प्रवर्तक कपिल महर्पि के द्वारा मान्य किया गया है, सभी वस्तुग 1यंस की अप्रतियोगी होने से नित्य ही हैं। किसी भी वस्तु का मर्वया नाग - अभाव या सर्वधा असन् की उत्पत्ति मांख्यदर्शन में अस्वीकृत है। इसलिए सभी वस्तुओं में ध्वसनिरूपितानियोगिचाभावस्वरूप नित्यत्व होने में उन सब की अपेक्षा पुरुप में कुछ विशेषता न आ सकी । इसलिए पुरुप में रहनेवाले कूटस्थत्व का जन्यधर्मानाश्रयत्यस्वरूप मानना ही मनामिब है। जन्य ज्ञानादि धर्म का आश्रय होने में बद्धि आदि तत्त्व का दम्य नहीं कहा जा मकता किन्तु पुरुष को ही, क्योंकि वह किसी भी जन्य मुख, नख, धर्म, अथर्म, ज्ञान, इच्छा आदि का भाशय नहीं है।
यायिकसमात फूटस्खला . SATCH जागतित - सांत्य र
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*स्वत्वनिरुक्तिः
नित्यत्वमेव तत् सत्कार्यवादे सर्वस्य नित्यत्वात्, किन्तु जन्यधर्मानाश्रयत्वम् । फो रूपान्तरभावः परिणामः तदभावश्चात्मनि योगाद्यभिमत एवेत्यपास्तम्, अपरिणामिनोऽजनकत्वात्, परिणामिन एव मुत्पिण्डादेर्घलघुपादानत्वदर्शनात् । जन्यधर्माश्रयत्वे प्रसह्य परिणामत्वस्यैव प्रसक्तेः । न वैवं तस्य बन्ध-मोक्षाद्यनापतिः, इष्टत्वात् । तदुक्तं तस्माज्ञ बध्यते,
* जयलता &
सत्कार्यवाद सांख्ययनं सर्वस्य नित्यत्वात् सः प्रतियेगित्वात् । तर्हि किस्वरूपं तत् : इत्याह किन्तु जन्यधर्मानाश्रयत्वम् । कश्विन्तु वास्तविकसुख-दुःखादिसम्बन्धाधिकरणत्वाभाव एवं कुदरत्वमित्याह ।
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एतेन = पुरुषस्य जन्यधर्मानाश्रयत्वप्रतिपादनेन वक्ष्यमाणदपणेन च अपास्तमित्यनेनास्यान्ययः । रूपान्तरभावः परिणामः = परिणामपदप्रतिशयः सांख्यनाच्यनं तदभावः = रूपान्तराभावः अपरिणामित्वाच्यः चात्मनि योगाभिमतः = नैयायिकाभिगत एव । यथा पयसः परिणामः सांख्यैः प्रतिगद्यते तथात्मनीनान्तररूप परिणामां भवतीति नैयायिकेरपि स्वीक्रियत एव । ततश्च योगाभिमनमात्मनोऽपरिणामित्यच सांरन्य: 'अपरिणामी पुरुष:' इति वदद्भिरभिहितमिति तेषां गीतगायदर्शनप्रवेशी दुवरि इति शङ्काः ।
सांख्या: तन्निराकुर्वन्ति अपरिणामिनः अजनकत्वात् । यदि नैयायिकेरात्मा अपरिणामी स्वीक्रियते तदा तस्य सुखदुःखदसमवायिकारणत्वं नैयायिकाभिमतं नात्मनि स्यात् अपरिणामिनीनुपादानत्वात् । कुल इदमनायि इति चेन ? उच्चरते. परिणामिनः = भावान्तरप्रापकस्य एवं मृत्पिण्डादेः घटाद्युपादानत्वदर्शनात् । मृत्पिण्डादि: प्राक्तनपिण्डावस्थां परित्यज्य कम्बुग्रीवादिसंस्थानलक्षणभावान्तरं परिणामाद तिपायं स्वीकुरते तदेव घटानुपादानं भवति नान्यथा । इत्थं उपादानकारणत्वस्य परिणामित्वच्पायत्वं सिध्यति । अत एवात्मन्यरिणामित्यगनुपादान्यं साधयति व्यापकाभावस्थ थाग्याभावनिश्चायकत्वात । अत एवात्मनां जन्यधर्माश्रयत्वं जन्यधर्मवायिकारणत्वं प्रराह्य बलात्कारण परिणामित्वस्यैव प्रसक्तः, व्याप्यमत्रं व्यापकापलापस्य कर्तुमनहलान् । ततश्वात्मनोः परित्वं व्याहन्येत वायकानाम् । अतो जन्यमानाश्रयत्वमंत्र परिणामित्वं वक्तुं युज्यते । चैतन्यव्यवच्छेदाय जन्येति विशेषण। यत् न प्रागभृत्या भवनं किन्तु प्रागभिभूतस्याविभांवः | सत्कार्थवाद्यनिमनः । न च एवं पुरुषस्य जन्यधर्मत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताका भावाश्रपत्वस्वीकारं तस्य = पुरुषस्य बन्धमोक्षा
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एतेन । यहाँ अमुक मनीपियों का यह वक्तव्य है कि 'सांख्य का संमत परिणाम भावान्तरस्वरूप है, जैसे शुभ का परिणाम दधि और भावान्कर का आश्रय होगा परिणामी । भावान्तर के अभाव की अपरिणामस्वरूप मानना होगा जिसका आश्रय होगा पुरुष, क्योंकि यह अपने स्वरूप को छोड़ कर भावान्तर ज्ञान, सुख आदि को प्राप्त नहीं करता है । सुख, दु:ख आदि भाव से वह परिणत नहीं होता है। सुख, दुःख की उत्पत्ति के पूर्व जैसे आत्मा की जड़ अवस्था भी ठीक वैसे की उनकी उत्पति के बाद भी आत्मा की जड अवस्था ही होती है, जिसका स्वीकार नेयायिक करता है। ऐसा अपरिणामित्व तो नैयायिक को भी आत्मा में मान्य है। अतएव सांख्य मनीपी का नैयायिकमत में प्रवेश हो जायेगा मगर वह निरस्त हो जाता है, क्योंकि आत्मा में जन्यधर्मानाश्रयत्वस्वरूप अपरिणामित्व = कुस्वत्य का हम सांख्य मनीपी स्वीकार करते हैं, जो नैयायिक को मान्य नहीं है । नैयायिक तो मानते हैं कि आत्मा जन्य सुख दु:ख ज्ञान आदि धर्म का आश्रय है । मगर ऐसा मानने पर पुरुष को नैयायिक के द्वारा अपरिणामी नहीं माना जा सकता, क्योंकि अपरिणामित्व तो अजनकल
अनुपादानत्व का व्याप्य है। अपरिणामी कभी भी किसीका उपादान कारण नहीं हो सकता, क्योंकि जो कोई भी उपादान कारण बनता है वह परिणामी हो कर ही किसीका उपादान कारण = समवायिकारण हो सकता है। जैसे मृत्पिण्ड आदि अपनी पूर्व पिण्डास्था का त्याग कर के भावान्तर कम्बुग्रीवादिसंस्थान की प्राप्त कर के ही घट का उपादान कारण बनता हैं यह व्यवहार में देखा गया है। इससे परिणामित्व में उपदानकारणत्व की व्यापकता सिद्ध होती है। यदि नैयायिक को आत्मा में परिणामित्व मान्य नहीं है तब उपादानकारणत्व भी मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि व्यापकाभाव से व्याप्याभाव की सिद्धि होती है। तब तो सुख, दु:ख आदि की उपादानकारणता आत्मा में हो जायेगी, जिसमें न तो नैयायिकमत
में हमारा प्रवेश होगा और न तो हमारा अभिमत असिद्ध होगा ।
सांख्यमत
प्रकृति का ही बरा मोक्षादि नवं । यहाँ यह शंका कि यदि जन्म को अपरिणामी अनुपादानकारण मानी जाय तब तो आत्मा में
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०७२ मध्यमादरह गण्डका. १४
* उपसंवादः
नापि मुच्यते नापि संसरति कश्चित् । संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रथा प्रकृतिरिति ॥ (सां. का.६९) । तथा पलाशौ कर्ता of वा ततो वस्तुती भोक्ता, अकृतभोगे कृतनाशाकृताभ्यागमप्रसङ्गात् । बुद्धिगतभोगयोगात्पुनर्भोक्तेत्युपचर्यते ।' -
ॐ जयलता
नापत्तिः इति वाच्यम्, इष्टत्वात् प्रकृतेरेव बन्धमोक्षाङ्गीकारात् पुरुषस्तु पुष्करपलालचन्निर्लेप एव । तदुक्तं सांख्यकारिकायामी वरकृष्णन, 'तस्मान्ने 'ति । तस्मात् पुरुषस्य निर्गुणत्वात् अपरिणामित्वाचेत्यर्थः । अत्र च तस्मात् कारणात् पुरुषों व बध्यते नागि संसरति गरमात् कारणात तिरेव नानाश्रया देवस्तुतिर्यग्योन्याश्रया बुद्ध्यहङ्कार- तन्मात्रेन्द्रियभूतस्वरूपेण बध्यते गुच्यते संसरति चति । अयं गुक्त एव स्वभावत्वात् । स सर्वगतश्च कथं संसरति ? अप्राप्तप्राणार्थं संसरणमिति | तेन पुरुषी वध्यते. पुरुषां मुच्यत पुरुषः संभरतीति व्यपदिश्यते येन संसारित्वं विद्यते सत्वरूपान्तरज्ञानात्तत्त्वं पुरुषस्याऽभिव्यज्यते तदभिव्यक्ती केवलः शुद्धः मुक्तः स्वरूपप्रतिष्ठः पुरुष इति । अथ यदि पुरुषस्य बन्धी नास्ति तती मोक्षीऽपि नास्ति, अत्रांच्य प्रकृतिस्वात्मानं बध्नाति मोचयति च यत्र सूक्ष्मशरीरं तन्मान्नकं विविधकरणोपेतं तत् त्रिविधन बन्धन बध्यते । उक्त प्राकृतेन चबन्धन तथा वैकारिकेण च दाक्षिणेन तृतीयण बद्धी नान्येन मुच्यते ॥ तत् सूक्ष्मं धर्मावर्मसंयुक्तम् (सां. का. ६२. गां. भा. ५.१३३) इति गौडपादभान् । तथा च पुरुषस्य सर्वदा निपत्वात् अपरिणामित्वाच न असी पुरुषः कर्ता न वा ततः = अकर्तृत्वात् वस्तुतः = साक्षात भोक्ता - सुखादिसाक्षात्कारवान् अकृतभोगे अकृतस्य स्वानियादितस्य सुखादेरनुभव कृतनाशाकृताभ्यागमप्रसङ्गात इति । प्रकृत्या कृतस्य सुखादेः नाशः = प्रकृत्या अननुभवः कृतनादाः तस्य, तथा अकृतस्य = पुरुषाजनितस्य सुखादेः अभ्यागमः यहा कृतस्य
'पुरुषेणानुनवः = अकृताभ्यागमः, तस्य च प्रसङ्गदित्यर्थः । प्रकृतिप्रयत्नस्य नाशः = उपधानाव्याप्यत्वं प्रकृति निष्फलीत्यादाव्याप्यत्वमिति यावत् अकृतस्य = पुरुषप्रयत्नानावस्य अभ्यागमः = अनुषधानाच्यावत्वं पुरुषनिष्ठफलोत्पादाभावाऽच्यापत्यमिति यावत् योगपातादित्यर्थः ।
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न चैत्र पुरुपाभोक्तृत्वं कथं पुरुषः भोक्ता' इति व्यपदिश्यत इति वाच्यम्, बुद्धिगतभांगयोगात् = साक्षाद् बुद्धिगतस्यैव सुखादिमाक्षात्कारस्य सम्बन्धात् पुनः पुरुषः भीवता = सुखादिसाक्षात्कारवानिति उपचर्यते, तत्सम्बन्धस्योपचारनिमित्तत्वात् । ज्ञान, इच्छा, द्वेष आदि की उत्पत्ति नहीं होने से आत्मा का बन्ध भी नहीं होगा और बन्ध न होने पर आत्मा की मुक्ति भी नहीं हो सकेगी, क्योंकि जो बद्ध होता है उसीकी मुक्ति होती है । बन्ध और मोक्ष समानाधिकरण होने से सांख्यसम्मत अपरिणामी जन्यधर्मानाश्रय पुरुष का बन्ध एवं मोक्ष अनुपपन्न हो जायेगा इसलिए निराधार हो जाती है कि हम सांख्य विज्ञानों को पुरुष का बन्ध मोक्ष न होना अभिमत ही है । प्रतिवादी के इष्ट का आपादन कैसे हो सकता है । ईश्वरकृष्ण ने भी सांख्यकारिका में कहा है कि 'निर्गुण एवं अपरिणामी होने की वजह पुरुष वस्तुतः संघता नहीं है. मुक्त भी नहीं होता है एवं संसरण आवागमन नहीं करता है । ( अपितु ) प्रकृति (= बुद्धि) ही विभिन्न योनि के चैतन्याधिष्ठित शरीरों का आश्रय प्राप्त करती हुई संसरण, बन्धन एवं मोक्ष को प्राप्त करती है । इसीसे सिद्ध होता है कि पुरुष वस्तुनः कर्ता नहीं है किन्तु प्रकृति हीं की है। धर्म अधर्म आदि का अकतां होने की वजह पुरुष वस्तुतः सुख, दु:ख आदि का साक्षात् भोक्ता भी नहीं है । सुख, दुःख का उपयोग तो वस्तुतः प्रकृति (बुद्धि) ही करती है। यदि धर्म, अधर्म
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आदि का कर्ता न होने पर भी सुख दुःख आदि फल का उपभोग दीप की आपत्ति आयेगी । कृतनाश इसलिए कि धर्म, अधर्म को
साक्षात्कार पुरुष करे तब तो कृलनाश और अकृताभ्यागम करनेवाली प्रकृति (बुद्धि) है जिसको तत्काल सुख, मुख
का साक्षात्कार नहीं होता है ऐसा मानना न्यायप्रात होता है, जब पुरुष को तत्फलभोक्ता माना जाय करनेवाले को फल न मिलना ही तो कृतनाश है। एवं धर्म, अधर्म को नहीं करनेवाले पुरुष को तत्फल का अनुभव होता है वह अकृताभ्यागम दीप है । कुछ न करने पर भी फल की प्राप्ति ही तो अकृताभ्यागम दोष है। मगर करनेवाले को फल न मिलना और न करनेवाले को फल की प्राप्ति यह तो नादिरशाही है, जो न्यायोचित नहीं होने से मान्य नहीं की जा सकती। इसलिए पुरुष को सुख-दुःखादि फल का भोक्ता भी नहीं माना जा सकता । हाँ, उपचार से सुस्वाद का भोक्ता माना जाय तब तो कोई दोष नहीं है, क्योंकि वास्तव में बुद्धि में सुख, दुःख आदि के साक्षात्कारस्वरूप भोग की उत्पत्ति होती है मगर पुरुष बुद्धिमभिहित होने से एवं निर्मल बुद्धि में पुरुपगत चैतन्य का प्रतिविम्व पडने से पुरुष में सुखादि के भोक्तुत्य ज्ञानृत्य का आरोप होता है । तदय कि पुरुष साक्षात सुखादि का भोक्ता नहीं है। इस तरह सिद्ध होता है कि पुरुष सर्वथा अपरिणामी, एकान्तन: अकर्ता एवं साक्षात् अभोक्ता है ।
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* साख्यकारिकासंवादः *
तदेतत्सर्वमालतालम्, साक्षाज्जीवगतत्वेन प्रतीयमानानां परिणतीनां प्रकृतिगतत्वकल्पनाज्योगात् । प्रकृतेरेव बुध्दिपरिणामित्वे मुक्तायामपि तत्प्रसङ्गात् । जीवसहकृतप्रकृतेस्तथात्वे
ॐ जयलता
| सुखादिसाक्षात्कारवतो बुद्धितत्वस्य सर्वदा सन्निहितत्यात् तत्र निर्मललया चैतन्यप्रतिबिम्बाच्च पुरुषः भोक्तेत्युपचर्यते, घृतं दहतीति न्यायेन । उदासीनोऽपि पुरुषः कर्तेव भवति न कर्ता । यथाचारः चोरैः सह गृहीतः चीर इत्यवगम्यते । वस्तुतः पुरुषः साक्षी एवं केवल: 1 यथा कलहे प्रवृत्तं कश्चनान्योऽवास्तव्य: साक्षी अत्रिगुणत्वान्मध्यस्थ एव पुरुषः परिब्राजकवत । यथा कश्चित् परिवाजको ग्रामीणेषु कर्मणार्थेषु प्रवृत्तेषु केवलः मध्यस्थः, पुरुषोऽपि एवं गुणेषु प्रवर्तमानेषु न प्रवृत्तो भवति । तदुक्तं सांख्यकारिकायां ' तस्माच्च विपर्यासात् सिद्धं साक्षित्वमस्य पुरुषस्य । केवल्यं माध्यस्थ्यं द्रष्टृत्वकर्तृभाव ।। तस्मात्तत्संयोगादचेतनं चेतनावदिव लिङ्गम् । गुणकर्तृत्वेऽपि तथा कर्तेव भवत्पुदासीनः । पुरुषस्य दर्शनार्थं केवल्यार्थं तथा प्रधानस्य । पबन्धबदुभयोरपिं संयोगः तत्कृतः सर्गः || (सां. का. १९ २० २१) इति । तस्मात्सिद्धमेकान्ततीऽपरिपामित्वमकर्तृत्वं साक्षादभोक्तृत्वश्च पुरुषस्पति सांख्यमतसंक्षेपः ।
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तदेतत् = अनुपदमुक्तं सांख्यमतं सबै आलजालं = मायाजालसदृशं आबालगोपाल साक्षाज्जीवगतत्वेन = अनुपचरितसम्बन्धेनात्मवृत्तित्वेन ‘अहं ज्ञानी, कर्ता, सुखी, दुःखीत्यादिरूपेण अहंत्वसाभानाधिकरण्येन प्रतीयमानानां परिणतीनां = ज्ञान - कृति - सुख-दुःखादिपरिणामानां प्रकृतिगतत्वकल्पनाऽयोगात् । न हि प्रतीती प्रकृत्पुल्लेखः दृष्टश्वरः । एतेन स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धन पुरुष ज्ञानादिमत्त्वकल्पनाऽपि प्रत्युक्ता, परम्परासम्बन्धकल्पने गौरवात् साक्षात्सम्बन्धकल्पने बाधकाभावाच्च । एतन विज्ञानोत्यादसमयेऽपि यथाविधः पूर्वदशायामयमान्मा तथाविध एवेत्यपास्तम्, तथा सति पूर्वमिव पश्चादपि पुरुषोऽप्रमत्तव स्यात् स्याद्वा पूर्वमपि प्रमाता ।
किश्व बुद्धेः पारमार्थिकचैतन्याभावे विषयव्यवस्थापनशक्तिरपि दुधंदा न खलु माणवकस्य पात्रको पचाराद् दाहजननशक्ति - दृष्टा । एतेन पुरुषगतचैतन्यप्रतिविम्वं बुद्ध जायत इत्यपि प्रत्युक्तम् । ततः परमार्थतो बुद्धिः चिद्रपैवोपगन्तव्या । तत आत्मन एब बुद्धिपरिणामिकारणत्वमिति सिध्यति । एतेन बुद्धिः जडा प्रकृतिजन्यत्वादित्यपि प्रत्युक्तम्, हेतोरसिद्धेन । प्रकृतेरेच बुद्धिपरिणामित्वे बुद्धिपरिणामिकारणत्वं सति मुक्तायामपि प्रकृती तत्प्रसङ्गात् = बुद्धिजननप्रसङ्गात् । जीवसहकृतप्रकृतेः तथात्वे = बुद्धिपरिणामिकारणत्वं तु वैपरीत्यं प्रकृतिसहकृतजीवस्यापि तथात्वं = बुद्धिपरिणामिकारणत्वं किं नाभ्युपैपि ? युक्तस्तुल्यत्वात् । अपि च प्रकृत्यसम्बद्धस्य पुरुषस्य न प्रकृतिसहकारित्वं सम्भवति, अतिप्रसङ्गात् । ततः प्रकृतिसम्बद्धस्यैव
=
सांख्यमतनिरास
=
तदेत । मगर यह सांख्यवक्तव्य मायाजाल है । इसका कारण यह है कि आबालगोपाल सब लोगों को ऐसी प्रतीति होती है कि 'मैं सुखी हूँ', 'मैं ज्ञानी हूँ' इत्यादि, जिसमें सुख, ज्ञान आदि धर्म की जीवगतत्वेन प्रतीति होती है, क्योकि अन्वसामानाधिकरण्येन सुखादि का वह अवगाहन करती है । इसलिए सुखादि में प्रकृतिगतत्व की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए आत्मा को ही बुद्धि का उपादानकारण परिणामी मानना संगत है, न कि प्रकृति को फिर भी बुद्धिपरिणामिकारणत्वेन प्रकृति का स्वीकार करने पर तो प्रकृति जब मुक्त बनेगी तब भी उसमें बुद्धि की उत्पत्ति का प्रसंग आयेगा, क्योंकि प्रकृति ही बुद्धि का कारण हैं, जो बद्ध एवं मुक्त अवस्था में विद्यमान ही है । यदि इसके निरासार्थं सांख्य की ओर से यह कहा जाय कि 'प्रकृति अकेली बुद्धि को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं है, किन्तु सहकारिकारणवित्र्या पुरुष की अपेक्षा रखती हैं । मुक्त अवस्था में प्रकृति और पुरुष का सम्बन्ध नहीं होने से प्रकृति तब बुद्धि को उत्पन्न नहीं करती है' -- तो यह ठीक नहीं है । इसका कारण यह है कि प्रकृति और पुरुष के बीच तादात्म्यसम्बन्ध तो नहीं माना जा सकता, | क्योंकि यह तो सांख्य को ही मान्य नहीं है और उसके स्वीकार में भी पूर्वोक्त दोप तदवस्थ ही रहेगा, क्योंकि मुक्तावस्था में प्रकृतिअभिन्न पुरुष का तादात्म्यसंसर्ग प्रकृति में अबाधित रहेगा। इसलिए प्रकृति और पुरुष के बीच संयोग सम्बन्ध को ही मान्य करना होगा । मगर यह संयोग सम्बन्ध भी जन्य ही मानना होगा, क्योंकि उसे अजन्य मानने पर तो उसका नाश नामुमकिन बन जाने से पुनः मुक्तदशा में प्रकृति में बुद्धिजन्म की आपत्ति मुँह फाडे खडी रहेगी । जो भाव अजन्य होता है उसका कभी भी नाश नहीं हो सकता है। अतः प्रकृति और पुरुष के संयोग सम्बन्ध को जन्म ही मानना होगा। मगर तब तो पुरुष जन्य धर्म का आश्रय होने से पूर्व में जो कहा था कि 'पुरुष में जन्यधर्मानाश्रवस्वस्वरूप कूटस्थत्व रहता
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७७४ मध्यमरुयाद्वादरहस्ये खण्डः : का.११ * सांख्यकारिकानिराकरणम् *
प्रकृतिसहकृतजीवस्यापि तथात्वं किं नाभ्युपैषि ? अपि च प्रकृतिजीवयोः न तादात्म्यसम्बन्धोऽनभ्युपगमात, किन्तु संयोग एव । स च जन्य एव, अजन्यभावस्य नाशायोगात । तथा च जन्यधर्मानाश्रयत्वसिन्दान्तोऽपि न ते हिताय । अपि च पुरुषसम्बन्ध एव बन्धः, स च जीव एवेति किं न तत्र मोक्षोऽपि ? तथा च कर्तृत्वभोक्तृत्वे अपि तस्याऽव्याहते एवेति न किञ्चिदेतत् ।। _ 'स्वदेहपरिमाण' इति नैयायिकाद्यभिमतविभुत्वविधूननाय ।
-ॐ जयलता तस्य तथात्वमगीकर्तव्यम् परन्तु प्रकृतिजीवयोः न तादात्म्यसम्बन्धः सम्भवति, सांख्यः अनभ्युपगमात्, अन्यथा पुरुषस्य प्रकृतिवज्जडत्वापत्ते: प्रकृतेवा पुरुषबचैतन्यापने पूर्वोक्तदोषनादवस्थ्याच्च । नापि तयोः समवायः सम्बन्धः सम्भवति, अनभ्युपगमात् । नापि जन्यजनकभावः, तन एव । किन्तु तयोः संयोग एव सम्बन्धः सम्भवति । स च संयोग: जन्य एव स्वीकार्यः, अन्यथा सर्वदेव प्रकृतेः बुद्धिजननप्रसङ्गस्य तदयस्थत्वापने:, अजन्यभावस्य नाशायोगात्, अन्यथा प्रकृतिपुरुषयोरपि ध्वंसप्रतियोगित्वापतेः । अस्तु जन्य एव संयोगस्तयोः । तावता किं नदिछन्नं ? इत्याह - तया च = प्रकृतिपुरुषसंयोगस्य जन्यले च पुरुषस्य | जन्यधर्मानाश्रयत्वसिद्धान्तः अपि न ते = तव सांरख्यस्य हिताय, संयोगस्य द्विष्ठत्वन पुरुषस्य स्वाकतिजन्यसंयोगाश्यत्वमिन्द्रः।। अपि च प्रकृतिपुरुषसम्बन्धः = प्रकृतिगुरुषजन्यसंयोगसम्बन्ध एव बन्धः = बन्धपदप्रतिपाद्यः, संयोगविशेषरूपत्वाद् बन्धपदार्थस्य । स च जीवे = चेतने सम्भवति एव, तस्योभयनिष्ठत्वबात्, इति = हेतोः किं न तत्र = चैतने मोक्षोऽपि स्वीक्रियते ।
तथा च = निरुक्तरीत्या पुरुषस्य बन्धमाक्षसिद्धी च, कर्तृत्वभोक्तृत्वे = ध धर्मादिकर्तृत्व-सुखादिभोक्तृत्व अपि तस्य = पुरुषस्य अन्याहत्ते एव । 'अहं धर्मकर्ता मुखादिभोक्ता त्र' इत्यत्रं साक्षाज्जीवगतत्वेन प्रतोतयोः कर्तृत्व-भोक्तृत्वयोः प्रकृतिगतत्वकल्पनाऽयोगात् । प्रकृतेरेव कर्तृत्वे भोक्तृत्वे वा मुन्तायामपि तत्प्रसङ्गान् । जीवसहकृतप्रकृतेस्तथात्वं प्रकृतिसहकृतपुरुषस्यापि भार्ग फिनापो किन राष्ट्र नित्यनेर जात्सन्निधानस्य सदैव सद्भावन सदैव कर्तृत्वभोक्तृत्वापसगात् । न च बुद्धौ पुरुषप्रतिचिम्बनमेव पुरुषसंसर्ग इति वाच्यम्, अमूर्तप्रतिबिम्बस्य पूर्वमेव निरस्तत्वात् । न च भोग्यभोक्तुभाव एवं तयोः संसर्ग इति वाच्यम्, पुरुषस्य निरभिलाषत्वन सुखादिसंवेदनलक्षणभोगाभावात, तस्य भोक्तृत्तायां प्रकृतेश्च भोग्यताया अनुपपत्तेः । एतेन 'तस्मात्तत्रयोगादचेतनं चेतनावदिव लिङ्गम् ।' (सां.का.८) इति सांख्यकारिकाबचनमपि प्रत्युक्तम्. अन्यसन्निधाने न्यस्यान्यधर्मस्वीकारायोगात्, अन्यथाऽकर्तृत्वादिधर्मोपेतात्मसन्निधानात् प्रकृतेरप्यकर्तृत्वादिधर्मस्वीकारः म्यादिति न किञ्चिदेतत् ।
प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारे 'स्वदेइपरिमाण' इति आत्मनः पञ्चमविशेषणं यायिकाद्यभिमतविभुत्वविधूननाय || प्रदर्शितम् ।
है' यह सिद्धान्त उसे ही प्रतिकूल बन जायेगा । प्रकृति-पुरुषसंयोग नामक जन्य धर्म के आश्रय पुरुप में जन्यथम नाश्रयत्व का सिद्धान्त सांख्य को हितकर न बनेगा । इसके अतिरिक्त एक बात यह है कि प्रकृति और पुरुष का सम्बन्ध ही बन्धपदार्थ है । वह सम्बन्ध संयोगात्मक बनने से और संयोग उभयवृत्ति होने से वह बन्ध तो पुरुप में भी रहेगा ही। तब तो पुरुष को चद्ध मानना मुनासिर ही है । बन्ध और मोक्ष समानाधिकरण होते हैं पानी जो बद्ध होता है वही मुक्त बनता है • यह तो पूर्वपक्षी बने हुए माग्ज्य का भी मान्य होने की वजह पुरुप में मोक्ष का स्वीकार क्या नामुनासिर बनेगा ? बिलकुल नहीं । मतलब कि पुरुप ही बद्ध होता है और पुरुष ही मुक्त होता है, न कि प्रकृति । यह सिद्ध होने पर नो पुरुप में कर्तृत्व और भोक्तृत्व भी निराबाध ही बनेंगे, क्योंकि 'अहं धर्मकर्ता, घटकर्ता' इत्यादि सार्वजनीन प्रतीति से पुरुप में कर्तृत्व एवं 'अहं सुखभोक्ता' इत्यादि स्वारसिक प्रतीति से पुरुप में भोक्तृत्व सिद्ध होते हैं । नर इन नीन धर्मों की प्रकृति में कल्पना कर के पुरुप को सर्वधा अपरिणामी, अकर्ता एवं साक्षात् अभोक्ता मानने का दुःसाहस करनेवाले सांख्य का मत क्या नथ्य हो सकता है ? अतः यह सांख्यमत कुष्ट नहीं है, सिवा अपनी बुद्धि की विकृति ।
* .आत्मा देहपरिमावाली है* स्वदह । प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकारसूत्र में आत्मा के पचम विशेषणविधया 'स्वदेहरिमाण' ऐसा जो प्रतिपादन किया गया है वह नैयायिक आदि को संमत आत्मविभुत्व को हटाने के लिये किया गया है। इस तरह जब जिनेन्द्रमत का स्वीकार
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* आत्मविभुत्ववादारम्भः * भाषितेऽत्र भगवन्मतस्पृशां कर्णकोटरकुटुम्बिनि स्फुटं ।
आः किमेतदिति भूरिसम्भमादाह गौतमिकुटुम्बमुच्चकैः ॥9॥ आत्मा विभुर्भवति नि:क्रियताख्यहेतोः, व्योमेव मूर्तिमति सक्रियता हि सिदा । नाऽसिन्दिमधमनिबन्धनमेति तस्मादस्माकमेष नियमः खलु तर्कसिन्दः ॥२॥
अनोत्तरं → परिमाणमवच्छिन्नमत रूपादियोगिता । मूर्तिराद्यात्मनि स्पष्टा, दितीया व्याप्तिभहगभूः ॥३॥
-* गयलता. * -- आत्मा विभुत्वमुक्तं हि, न्यायाचार्येण साम्प्रतम् । यदेकाशीतिगाथानिः तद्रहस्यं निशम्यताम् ।।१।।
भगवन्मतस्पृशां = जिनेन्द्र मानिन्नानां रदं. कर्ण कोटामुनिति : भोजगहयो: स्वस्वजने अत्र = आत्मदहपरिमाणे भाषिते स्वकर्णकोटरप्रविष्ट 'आः किमेतत् स्याद्वादिभिः उक्तं ?' इति गौतमिकुटुम्बकं = नैयायिकवृन्दं भूरिसम्भ्रमात् उच्चकैः आह ।।१।। तद्वक्तव्यमेव दर्शयति - आत्मा विभुः भवनि निःक्रियताख्यहेतोः न्यो मेव । प्रयोगस्त्वैवं आत्मा विभुपरिमाणाश्रयः निष्क्रियत्वान्, गगनवत् । न च निष्क्रियत्वमात्मनि कुत: सिद्धमिति वाच्यम्, यतो मूर्तिमति हि = एव सक्रियता सिद्धा स्वस्या मूर्नत्वच्याप्तत्वमावेदयति । सा हि मूर्ति; जीवाद् च्यावर्तमाना स्वत्र्याच्यां सक्रियतामपि निवर्तयत्ति, व्यापकाभावस्य साप्याभाव| साधकत्वात् । अतएवात्मनि विभुत्वसाधर्न निष्क्रियत्वं असिद्धिगन्ध = स्वरूपासिद्धिदापलक्षगंदगन्धं अनिबन्धनं = निष्कारण :
आकस्मिकं न एति = न प्राप्नोति । तस्मात् कारणात् अस्माकं नैयायिकानां एप नियमः = विभुत्व-निष्क्रियत्वयोः ब्याप्य - व्यापकभावः तर्कसिद्धः = विपक्षबाधकयुक्तिसाहाय्य; खलु = एव । ततो विभुत्वमेवात्मनी युक्तमिति नैयायिकाशयः ।।२।।
यद्यपि निष्क्रियत्वं गुणादी विभत्वन्यभिचारे, त्र्यत्वे सतीति विशेषणे तु विनिगमनाविरहः तथापि निष्क्रियद्रव्यमात्रवृत्तिवैजात्यस्य हेतुलमित्यत्र नैयायिकाशयः प्रतिभाति ।
ननु आत्मनि निष्क्रियत्वसाधिका:मूर्तिप्रतियोगिता मूर्तिः किं अवच्छिन्नपरिनाणात्मिका यदुत रूमादियोगिता या ? इति विमलीभावमाचिद् विकल्पयुगलमत्र सनुपतिष्टन इत्याशयेन प्रकरणकार: प्रत्युत्तरयति । अत्रोत्तरनिति । अबजिननं - सावच्छिन्न परिमाणं मूर्तिः उत्त रूपादियोगिता ? आद्या = सावच्छिन्त्रपरिभाणस्वरूपा मूर्नि: आत्मनि स्पष्टा 'अर्धधनुःप्रमागीsहमित्यादिस्वरसवाहिसार्वजनीनप्रतीते: प्रसिद्धत्वात । यदि च रूपादियोगितास्वरूपा द्वितीया मूर्तिरभिमता तर्हि ब्याप्तिभगभूः | करनेवाले स्यावादियों के कर्णकोटर के लिए कुटुम्नी जन जैसी 'आत्मा देहपरिमाणवाली है। यह स्फुट वाणी जब गौतमीय (नैयायिक) कुटुम्न के कर्णकोटर की कुटुम्बिनी बनती है तब नैयायिक वृन्द 'ओह ! यह क्या रोल दिया ?' इस तरह अत्यन्त सम्भ्रम में चिल्लाता है ।शा नैयायिक कहता है कि 'आत्मा विभु है, क्योंकि वह निष्क्रिय है। जो निष्क्रय होता है वह विभु होता है जैसे गगन। आत्म भी निष्क्रिय है। अतएव गगन की भौंति बद्द सर्वव्यापिपरिमाणाश्रय है। यहाँ यह शंका करना कि → 'भान्मा में निष्क्रियत्व हेतु ही नहीं रहता है, तर उसके बल पर आत्मा में विभु परिमाण की सिद्धि कैसे हो सकेगी ?' - इसलिए अनुचित है कि आत्मा में निष्क्रियत्व की सिद्धि अमूर्तत्व हेतु से होती है । जो मूर्त होना है उसी में क्रिया उत्पन होती है, जैसे घट, पट । मतसय कि मूर्तत्व का व्याप्प सक्रियत्व है। आत्मा में मूनत्व नहीं होने से सक्रियत्व नहीं हो सकता है, क्योंकि ज्यापकाभाव व्याप्याभाव का साधक होता है। अतः आत्मपक्षक विभुत्वसाध्यक निष्क्रियत्व हेतु निष्कारण असिद्धि दोप की गन्ध को भी छूता नहीं है । इसलिए हमारा यह नियम = न्याप्ति तक सिद्ध = विपक्षबाधकतर्क से सिद्ध है । अतएन आत्मा में विभुपरिमाण निगवाध है - यह नैयायिकबक्तब्य है ॥२॥
LSICAL में मूत्व है अत्रो.। मगर यह उपर्युक्त नैयायिककथन विचार करने पर असंगत प्रतीत होता है। इसका कारण यह है कि नयायिकाभिमत क्रियत्वब्यापक मुनि (मतत्व) का मतलब क्या अबजिन परिमाण है या रूपादियोगिता = रूपादिआश्रयत्व ! ये दो पक्ष उपस्थित होते हैं । इसमें से प्रथम पक्ष का आश्रय करने पर तो आत्मा में मूर्ति की ही स्पष्टतया सिद्धि हो जायेगी, क्योंकि 'मैं फीट लम्बा है। इत्यादि सार्वजनीन प्रतीति से आत्मा में साच्छिनपरिमाणबत्त्व सिद्ध ही है । मतलब कि जब मूनच ही आत्मा में रहता है नब अमूर्तत्व हेतु से आत्मा में निनियन्व की सिद्धि कर के विभुत्व की सिद्धि करने का नयायिक का मनास्य कैसे मफल होगा ? कथमपि नहीं । इसलिए पदि दूसरे पक्ष का स्वीकार किया जाय कि -- 'मूर्ति = मूनत्व
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४५:५६ मध्यमस्यावादरहस्य खण्डः ३ . का,११ * वराहमिहिर - गग-वादिदेवाचार्याक्तिसंबादः *
किच, अहं पथीह गच्छामि संवित्तिरिति यौक्तिकी । क्रियामेवाह जीवस्य हेतुस्ते केतुवीक्षितः ॥४॥
* जयलाlts मनसाऽनैकान्तिकत्वात्, नीरूपत्वेऽपि = रूपसमवायिकारणतावच्छेदकचिरहे:पि सक्रियत्वात् । न च तव मते मन्सो रूपित्वविरहान व्यभिचारित्वमिति राज्यम्, मम मतस्य प्रमाणत्वेन स्वीकारे त्वात्मनो देहपरिमाणत्वमप्यङ्गीकुरु । नव मत तु, व्यभिचारः | स्पष्ट एवेत्युभयतः पाशारज्जुः । ततो मूर्निव्याप्यत्वं सक्रियत्वे कल्पयितुं नार्हति । तदुक्तं स्याद्वादरलाकरे 'कयं मृत्तिनांम ? असर्वगतद्रव्यपरिमाणं रूपादिमत्त्वं बा ? तत्रायः पस: कक्ष कृनत्वान्न दोपावहः । द्वितीये तु नास्ति व्याप्तिः । न खलु सक्रियण तथाविधमूर्तिमनव भाव्यम, मनसानकान्तिकत्वात् । तस्य रूपादिरहेतस्यैव पर: स्वीकारात । अधात्मन: सक्रियत्वे क स्यात, तन्न, परमाणुभिर्मनसा च व्यभिचारात । (प्र.न.न. ./८ स्या.र.. २.०२) इति । ||शा
आत्मनः विभुत्वसाधकत्वनोपन्यत्तस्य निष्क्रियत्नहेतोः स्वरूपासि भागारिद्धिं वा प्रदर्शयितुमुपक्रमते - किति । 'अपिट पथि गच्छाषि' इनि मीनितकी - मुक्तिसंगत स्वरसवाहिनी संवित्तिः = प्रतीतिः जीवस्य क्रियां = सक्रियत्वं एवाह । अत: ते = तव नैयायिकस्य आत्मविभुत्वसाधक हतः = निष्क्रियत्वहेतगुरुः केवीक्षितः = स्वरूपासिद्धिरूपदष्टकंतुग्रहदृष्टः । ततो नात्मनो विभुत्वसिद्धिः । ज्योतिर्विदा केतुदर्शनस्यानिष्टत्वेनाऽभिमतत्वात्, योक्तं वराहमिहिरेण बृहत्संहितायां
> दृश्या:मावास्यायां कपालंकेतुः सधूम्ररदिमशिखः । प्राग्नभसोर्द्धबिचारी क्षुन्मरकावृष्टिरोगकर: ।। (बृ.सं.केतुबार गा. ३१) गर्गेगापि → क्षच्छस्त्रमरकव्याधिभ्यः सम्पायन प्रजाः । मासान दश तथाष्टौ च चलकेतुः सुदारुणः ॥ स्वरूपाऽसिद्धतमाविष्कुर्वद्भिरुक्तं वादिदेवसूरिनिः - 'नात्मा सर्वगतः क्रियायत्त्वात् । यदेवं तदेवं यथा वायुः। तथा चायं तस्मानधेति । न चास्य क्रियावत्त्वमसिद्धं प्रत्यक्षेणैव तत्प्रातः । तथाहि - प्रत्यक्षेण सर्बो देवान्तरमायान्तमात्मानं प्रतिपद्यते । नधा व वदति ‘अहमद्य योजनमेकमागत' इति । मनः शारीरं वा समागतमिति चेत् ? किं इनस्तदहं प्रत्ययवेद्यम् । तथा चेच्चा कमतानुपङ्गः । अतः यथा स्थूलो हमिति शरीरमात्रनिमितः प्रत्ययस्तथा आगनोहमित्यादिरणीति चेत् । नन्द सुरवीत्यादिरपि किं न तथा स्यात् ? 'सुखस्यात्मनि सम्भवादात्मगोचर एवायमिति' चेत् । गतिरप्यात्मनि सम्भवत्यवति सोऽपि ननिमिन; किं न स्यात् । अथ नात्मा क्रियावान सर्वंगतत्वात् गगनवदित्यनुमानबाधितत्वानय गरसम्भव एव । नवम् । इतरेतराश्रयापन्या हतोत्रासिद्धल्यात् । सिद्धे हि तस्य क्रियावत्त्वाभावे सर्वगतत्वसिद्धिः नत्सिद्धी च क्रियावत्त्वाभावसिद्धिरिनि सिद्धं प्रत्यक्षर्णव तत्र क्रियावत्त्वम् । अनुमानतोऽपि तसिध्यति । तथाहि . क्रियावान आत्मा अन्यत्र द्रव्ये क्रियाहेतुत्वात. का अर्थ है रूपादिआश्रयत्व । अर्थात् जो रूपादिआश्रय होता है वही सक्रिय हो सकता है, जैसे घट-पदादि । आत्मा में तो रूपादिआश्रयता नहीं है। अतएव उसमें सक्रिय चाभाव की सिद्धि हो जायगी, जिसके फल स्वरूप में आत्मा को विमुपरिमाणाश्रय मानना आवश्यक बन जायेगा' - तो यह पक्ष नो नितरां मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि मूर्ति = रूपादियोगिता - रूपादिआश्रयत्व सक्रियत्ल का व्यभिचारी होने से वह व्याप्ति ही भय हो जाती है । मन में रूपादि आश्रयत्व नहीं होने पर भी मक्रियत्व रहना ही है - यह तो प्रतिवादी बने हुए नैयायिक के सिद्धान्तानुसार ही सिद्ध होता है। व्यापक रूपादिआश्रयत्व का अभाव होने पर भी सक्रियत्व हेतु, जो रूपादिआश्रयत्वव्याप्यत्वेन अभिमन है, रह जाने पर उसमें वस्तुत: व्याप्ति धराशयी हो जायगी। नर व्यभिचारी रूपादिआश्रयत्वाभाव के बल पर आत्मा में सक्रियत्वाभाव की सिद्धि कैसे हो सकेगी ? और जब लक आत्मा में निष्क्रियत्व की सिद्धि न हो तब तक आत्मा में विभुत्व की सिद्धि भी कैसे हो सकेगी? नहीं ही होगी। अतः 'आन्मा विभुः निष्क्रियत्वात्' यह नैयायिक अनुमानप्रयोग असंगत प्रतीत होता है ॥३॥
आत्मा सक्रिय है। ___किश्च । इसके अतिरिक्त बात यह है कि सब लोगों को यह प्रतीति होती है कि . 'मैं इस रास्ते पर चलता हूँ' 'मैं वहाँ से आ रहा हूँ' इत्यादि, वह युक्तिसंगत ही है, क्योंकि आत्मा में सुखादि की भाँति क्रिया की उत्पत्ति भी मुमकिन है। उपदर्शित प्रतीत ही आत्मा में क्रिया की सिद्धि करती है । अत: है नैयायिक | तेरा निष्क्रियत्व हेतु आत्मा में स्वरूपासिद्धि दाप स्वरूप केतुग्रह से दृष्ट है तब भला उस हेतु से आत्मा में विभुत्व की सिद्धि कैसे हो सकती है ? कथमपि नहीं । दृष्टग्रह की दृष्टि बुध, गुरु आदि अच्छे ग्रह पर पड़ने से जैसे शुभग्रह के प्रकृष्ट फल की सिद्धि नहीं हो सकती है . वैस स्वरूपासिद्धिरूप दुष्ट केतुग्रह की दृष्टि निष्क्रयत्वहंनुस्वरूप गुरु आदि शुभ ग्रह पर पड़ने से उसके साध्य-फल की सम्भावना नहीं की जा सकती . यह तात्पर्य है ॥
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* कारस्य परिगामिनिमिनमात्रत्वम * जनु यदि न विभुर्वः चेतनः तद्गुणः तत् कथमहह समग्रव्यापृत्तिव्यगमूर्तिः । न हि सपदि विहाय स्वाश्रयं कोऽपि जायदभुवनभवनभूयः सम्शमी बाशमीति || सहाऽटष्टस्य कार्यण योग: स्वाश्रययोगिता | जन्यसत्वेन जन्यत्वमतो न व्यभिचारिता ॥६॥
* गयलता समारणवदिति । कालंन व्यभिचार न हतुर्गमकोऽवति वैन ? न. कालस्य क्रियाहतुत्वाभावात् । क्रियानिर्वतकत्यं हि क्रियाहेतृत्व मिह साधनम् । न पुनः क्रियानिमित्तमात्रत्वम् । तस्य काले सद्भावाभावान व्यभिचारः । काली हि परिणामिनां निमन्मात्रम् स्थचिरगती यष्टिवत, न पुनः क्रियानिर्वर्तकः पर्णादा पवनवत् । (स्या.र.प. ५००) इति ।
किन, अस्त्यात्मनि निष्क्रियत्वं माम्त नत्र विभत्वं गई को दोप: " ट्रात पर्यनयोग न किमपि रिपक्षबाधक बलवनर प्रमाणं नैयायिकेन दयितं पार्यत इत्यप्रयोजकांऽयं निक्रियत्वहतर्शित न ततो स्वपनापिनसाध्यसिद्धिः ।
कारिकात्रण अत्र नैयायिक आह - ननु यदि वः = यमाकं स्याद्वादिनामभिमतः चतनः न विभुः तत् = तस्मात कारणात् तद्गुणः अहह ! समग्रन्यापूतिज्यग्रमूर्नि: = शरीगद्रतरवर्तिष देदार जायमानानां समाण कार्याणां न्यानी यग्ना मूर्नि: - स्वरूपं यस्य स अदृष्टारल्याणः कथं स्यान ! न हि = नैव स्याश्रयं विहाय = परित्यज्य सपदि कोऽपि पदार्थ: जाग्रभुवनभवनभूयः संभ्रमी वम्भ्रमीति = अत्यन्त भ्रमनि । अयं नैयायिकाभिप्रायः अदुटं स्वाथ्यसंयुक्त आश्यान्नर कर्मारमते एकद्रव्यत्वे सति क्रियाहेनगुगतान प्रयत्नवत् । न चाम्य क्रियाहेत्गुणत्वमसिद्धम, अग्नमध्यज्वलनं बायोस्नियनपचनं. अणुमनसाश्चाद्यं कर्म देवदत्तविशेषगुणकारितं कार्यन्ये सनि तदृपकारकत्वात् पाण्यादिपरिस्पन्दनवदित्यनुमानतः तमिन्द्रः । नाय. कद्रव्यत्वसिद्धम्, एकद्रव्यमदृष्टं विशेषगुणत्वाच्छन्दवदित्यगुमानतः त्मिद्भः । एकदव्यत्वादित्युच्यमाने रूपगादिभित्र्यभिचारः | क्रियाहेतगुणत्वमित्युच्यमाने करमुसलसंयगेन स्वाश्रयासंयुक्तस्तम्भादिक्रियाहतुना व्यभिचारः । यदि चात्मा न रिनुस्तहि | देशान्तरे स्वाश्रपासंयुक्ते कथमदृष्टं कर्म जनयेत, अतिप्रसङ्गत । अन्नः तत्र नलारणादृष्टमिद्भिः । गुणश्च स्वाश्रयं गुणिनम्नुमा. पयतीति तत्रात्मास्तित्व स्वीकर्तव्यमेव । इत्पश्चात्मना विभन्वसिद्धिः ।।।।
नन्चात्मगणस्यादृष्टस्य कथं देशान्तर जायमानकार्यमामानाधिकरण्यमित्यादराक नमायिक आह - कार्येण सह भदृष्टस्य = आत्मगुणरूप योगः = सम्बन्ध: स्वाश्रययोगिता = स्वयमबारिमयोगः । समवापन घटस्याधिकरण कपारे स्वाश्मयम् योगना दृष्टं वर्तत देवदत्तभोग्यघटसमयायिकारण कपालम्या:दृष्टाश्रयदेवदनात्मसंयुक्लन्नात अत: कार्यकार गमागनाधिकरणोपपतिः । न चादृष्टस्य स्वसभवायिसंयोगसम्बन्धन जन्यमत्रं पनि कागचे बाध्वंसादिना व्यभिचार; नन ववमाश्यग्य करालम्या दृष्टसम - वाय्यात्मसंयुक्तत्वेन न व्यतिरकव्यभिचार इति वाच्यम, कमालध्वंस घदध्वंसस्य निनाश्रयत्वाप:. कपालिकायाः तदा घटनंगाश्रय
अहए स्वाश्रयासंयोगसम्पन्ध से मन्या का जनक -ौरायि पूर्वपक्ष :- ननु य, । यहाँ नैयायिक विद्वानों का यह कथन है कि . 'यदि तुम्हारी आमा त्रिभु नहीं है तब तो उसका गुण अदृष्ट भिन्न भिन्न देशों में अनके व्यापारों में व्यग्र ५ प्रवृनि के जनक स्वरूपराला कैसे हो सकेगा ? आत्मा विभु न होने से आत्मा के अनाथप देशावच्छेदन नो आत्मा या अदृष्ट गुण नहीं रह सकता है, क्योंकि अपने आश्रय को छोड़ कर कोई भी गुण जागृत विभभवन में अनवावाः तो क्या एक भी बार घूम सकता नहीं है । गुण स्वानाथय में रह नहीं सकता तब उससे सम्बद्ध हो कर कार्यजनक कसे हो सकता है ? मतलब यह है कि देवदत्त कर्णाटक में रहता हो और उसके भाग्य छिद्र घट की उत्पत्ति महागष्ट्र में होती हो नर देवदत्त के अदृष्ट की उत्पनिम्थल में उपस्थिति होनी जरूरी है, अन्यथा वह घट निश्छिद्र न हो और मछिद्र हो . उसका कोई नियामक नहीं बन मकता है । कुम्हार की इच्छा तो सछिद्र घट बनाने की है ही कहाँ ? मगर दवदन ( = आनविशेष) को व्यापकः न माना जाय तब वह, भाग्यसछिद्रपटोन्पादस्थन से संयुक्त नहीं हो सकता और नेब देवदन्न अदृए भी स्वाश्रयासंयुक्त स्थल में सछिद्र घट का नहीं बना सकेगा। इसकी अन्यथा अनुपपत्ति से आत्मा को विभु माननी होगी, जिससे देवदत्त स्वभोग्य के उत्पत्तिस्थान में संयुक्त होने से देवदर अदृष्ट स्वाश्रयसंयुक्त में सछिद्र एट को उत्पन्न करेगा। अतः कुम्हार हजारों बट को बनाता है जिनम मे चैत्र, मैत्र, जैत्र आदि के अदृष्ट में निश्छिद्र घट की उत्पनि और देवदन के अदृष्ट से मछिद्र घट की उपपत्ति आत्मविभुत्ववाद में मुकर है ॥
यहाँ यह शंका हो कि-> 'अदृष्ट स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध से कार्यमात्र का जनक है-ऐसा मानने पर तो न्यतिरेक व्यभिचार आयेगा, क्योंकि घटध्वंस काल में उत्पन्न होता है जो कार विभ होने की वजह रिन आत्मा में मंयुक्न नहीं हो सकता। कपालादि को घटादिश्वस का उत्पत्तिस्थल नहीं माना जा सकता, क्योंकि कपालादि का भी नाग हो जाने पर पटानियम
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७७८, मध्यमस्याद्वादरहस्ये रखण्डः ३ . का.११ * अदष्टस्य करणवनामांमः
नाशं प्रति पृधमेव हि हेतुत्वमसङ्ग्रहस्ततो नास्तेि । विभुनाऽपि परम्परया संयोगो युज्यते जन्तोः ॥७॥
-ॐ जयलता *वायोगात्, एककार्यतावच्छेदेन सनः कार्यस्य कालान्तर-धिकरणान्तरवत्तित्वाध्योगादिनि काम्यैव ध्वमाधिकरणत्वनियमात. तस्य च विभुत्वेन सर्वमूर्त्तसंयोगिन आत्मनस्तत्संयुक्तत्वाऽसम्भवात, संयोगस्याःप्राप्तिपूर्वकप्राप्तिरूपत्वादिति दुरि एब व्यतिरकन्यभिचार इति वक्तव्यम्, यतो जन्यसत्त्वेन जन्यत्वमुपेयते । जन्यसत्त्वावच्छिन्नं प्रत्यवादृष्टस्य स्वरमवायिसंयोगसम्बन्धेन कारणत्वात, वंसे र नोक्तसम्बन्धावच्छिन्नादृप्रनिष्ठकारणतानिरूपितकार्यताया अवच्छंदकमित्यतो न व्यभिचारिता । सन्चस्य कार्याकार्यसाधारणवेनादृष्टकार्यतावच्छेदकल्या योगादिति जन्यत्युक्तम् । ध्यस व्यभिचारचारणाय सवते नमन जन्यत्वविशिष्टसत्वं उननीतरत्वान किन्तु जन्यसन्मात्रवृनिवजात्पम् । जन्यत्त्वस्य कार्यतावच्छनकत्वे परस्पराश्रयत्वन कार्यतायाः कार्यतावच्छेदकत्या योगान । इत्यश्च जन्यसन्मात्रवृत्तिबैजात्याच्छिन्नं प्रति स्वाश्रयमयोगेना दृष्टस्य कारणत्वादात्मवैभवनिद्धिरिनि गौननीयाभिप्राय: ।।६।।
नन्वेवमदृष्टस्य कार्यमात्रजनकत्वनियमानुपसगृहीतः स्यादित्याशड़कायां योग आह - नाशं = सत्वावच्छिन्नं प्रति पृथगेव हि हेतुत्वं - अदृष्टनिष्ठकारणत्त्वम् । ततोऽसङ्ग्रहः = ध्वसनिरूपितकारणत्याभाव: नास्ति अदष्ट । : प्रति स्वसमवायिसंयुक्तसंयोगेनादृष्टस्य कारणत्वस्योपगमान कार्यमा प्रत्यदृष्टस्य साधारणकारणत्वसिद्धान्नाच्यवः । न च विभुना कालेन सहात्मनः संयोगाउसम्भवात्राउदष्टस्य ध्वंसजनकत्वं सम्भवतीति राज्यम, विभुनाऽपि कालद्रव्येण साकं जन्तोः = जीवस्य परम्परया = स्वसंयुक्तसंयोगलक्षण परम्परासम्बन्धन मंयोगः = सम्बन्धः युज्यत एव । स्वेन = आत्नना संयुक्तो यः परमाण्वादिः तत्संयुक्ने काले आत्मनः स्वसंयुक्तसंयोगसम्बन्धना दृष्टस्य च ग्वसमवापिसंयुक्तसंयोगेन नित्वानोक्तकार्यकारणभावो लंदशनोऽपि दष्ट इति आत्मवैभवसिद्भिरिति नैयायिकाभिप्रायः ॥७॥
में निराधारता की आपत्ति आयेगी। संयोग का अर्थ है 'अप्राप्तयोः प्राप्तिः । अतः विभु कालद्रव्य में अदृष्ट स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध से नहीं रहने पर भी घटध्वंस आदि कार्य की उत्पत्ति काल में हो जाने से अदएनिष्ठ स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्न कारणता का स्वीकार नहीं किया जा सकता' - तो इसका समाधान नैयायिक की ओर से इस तरह बताया जा सकता है कि स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धाचच्छिन अदृष्टनिष्ट कारणना से निरूपित कार्यता का अवच्छेदक केवल जन्यत्व नहीं है किन्तु जन्यसत्त्व है। घटध्वंस आदि में जन्यत्व होते हुए भी सत्त्व = सत्ता जाति नहीं होने से वह कार्यतावच्छेदक धर्म से शून्य है । अन एच स्वाश्रयसंयोगसम्बन्य से अदृष्ट के अनधिकरण काल द्रव्य में पदश्चम की उत्परि हो तो भी व्यतिरेक व्यभिसर दोप को अवकाश नहीं है ॥६॥
यहाँ यह शंका हो कि -> "जन्यसत्व को अदृष्ट कार्यतावच्छेदक मानने पर तो कार्यमात्र के प्रति अदृष्टकारणता का नैयायिकसिद्धान्त धराशायी हो जायगा - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि हम नैयायिक नाश के प्रति अदृष्ट में पृथक कारणता का स्वीकार करते हैं। मतलब कि जन्यमत्त्व अदृष्टनिरूपितकार्यता का उचच्छेदक नहीं है किन्तु स्वाश्रयसंयांगसम्बन्धावन्छिन अदृष्टनिष्ठ कारणता से निरूपित कार्यता का अवच्छेदक है। अन्य = स्वाश्रयसंयोग से भित्र सम्बन्ध से अवच्छिन्न = नियन्त्रित अदृष्टनिष्ठ कारणता से निरूपित कार्यता का अरच्छेदक नो चमत्त्व भी बन सकता है। कारणतावच्छेदकसम्बन्ध का कारणताशरीर में प्रवेश होने से कारणतावच्छेदकसम्बन्ध पृथग बनने पर उससे घटित कारणता भी पृथक बन जाती है । अत: यहाँ नादा के प्रति पृथक कारणता के स्वीकार का प्रतिपादन किया गया है । मगर सनिष्ट कार्यता से निरूपित कारणना अदृष्ट में रहनी नो है ही। यहाँ इस शंका का वि --> ध्वंस के प्रनि अदर में अन्य सम्बन्ध से पृथककारणता का स्वीकार करने पर भी कालद्रव्य विभु होने से आत्मा को विभु मानने पर काल के साथ आत्मा का सम्बन्ध कसं हो सकेगा?' - समाधान यह है कि विभु कालद्रव्य के साथ भी जीव का परम्परा से सम्बन्ध माना जा सकता है। यह सम्बन्ध होगा संयुक्तसंयोग। स्व = आत्मा से संयुक्त परमाणुआदि से संयुक्त काल होने से वसंयुक्तसयोगनामक परम्परासम्बन्ध से जीच कालसम्बद्ध हो सकता है । तब ध्वंसनिष्ठ कार्यता से निरूपित अदृष्टनिष्ठ कारपता का अवच्छंदक सम्बन्ध बनेगा स्वाश्रयसंयुक्तसंयोग। स्व = अदृष्ट के आश्रय = आत्मा से संयुक्त परमाणु आदि से संयुक्त = काल में स्वाश्रयसंयुक्तसंयोग सम्बन्ध से अदृष्ट रहने से काल में यदलंस आदि की उत्पति हो सकती है। कारण की उपस्थिति में ही कार्य की उत्पत्ति होने से व्यतिरक व्यभिचार को भी अपकाश नहीं है। अतः आत्मा का विभ परिमाण मानना ही मुनासिब है . यह फलित होता है |
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* काशिकानन्दस्वादः विजृम्भितं व्यापभयात्तदेतत्तगानिपातोपमिति प्रसुते । यज्जन्यमानं प्रति कालिकेत हेतुत्वमेकं प्रतिपनमस्य ॥८॥ शकते → कालिकेन घटत्वादि जन्यत्वं किल नैकथा । अथ स्वरूपसम्बन्धोऽनित्याभावत्वमेव तत् ॥el
-* गयलता - प्रकरणकृता साम्प्रनं नैयायिका क्तिपराकरणाय प्रक्रियते - विजृम्भितमिति । तदत्तन् = जन्यसन्मात्रवृनिवजात्यावच्छिन्नं प्रत्यदृष्टस्य स्वसमवायिसंयोगन ध्वसत्वावच्छिन्नं प्रनि च स्वसमवायिसंयक्तसंयोगन कारणमिति योगवचनं व्याघ्रभयात् = आत्मवैभवासिद्धिलक्षणव्याघ्र भयान्, गर्तानिपातापमितिं = कारण्ताद्वयकल्पनागौरवगर्तापतनोपमा प्रसूते । यत् = यतो नैयापिकेन अस्य = अदृष्टस्य जन्यमानं = जन्यमानतिधर्मावच्छिन्न प्रति कालिंकन = कालिंकविशेषणतासम्बन्धेन एकं हेतत्वं प्रतिपन्नम् । साम्प्रतञ्च कारणतावच्छेदकसम्बन्ध-कार्यतावच्छेदकधर्मभेदेनाइदष्टे कारणतायमात्मव इति । अयं भाव: अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां घटादाबदष्टस्य तत्वसिद्धेः तत्र घटत्व-पटत्वादीनामानन्त्यात्कार्यत्वमेव साधारण्यात तत्कार्यतावच्छेदकम् । एतेन नागभावप्रतियोगित्वलक्षणजन्यत्वापेक्षया घटत्वादावव कार्यवच्छेदकत्वं लघुत्वादिति निरस्तम्, शरीरलाघवमपेक्ष्य सङ्ग्राहकलाघवस्य न्याय्यत्वात्, यदिवशेषयोरिति न्यायात्सामान्यतो नपि आदृष्टस्य हेतुत्वसिद्धिः । नत्र च कालिकसम्बन्धावच्छिन्नैव जन्यत्वायलिनकार्यतानिरूपिनकारगत स्वीकृता, लाघवात्। एतेन जन्यसन्मात्रवृत्तिवेजात्यान्छिन स्वसमवापिसंयोगेन ध्यंसे च स्वसमदायिसंयुक्तसंयांगनादृष्टस्य कारणमिति परास्नम्, कारणताद्वपकल्पनन गौरवात. मानाभावाच । एतेनादृष्टं स्वाश्रयसंयुक्ते आश्रयान्तर कमरिभते एकद्रव्यले मनि क्रियाहेतगणवादित्वपि प्रत्याख्यातम्, अप्रयोजकत्वान, अदृष्टस्य पादलिकत्वसाधनेन स्वरूपासिद्धत्वाच ।।८।।
साम्प्रतं नैयायिकः शकते - जन्यत्वं किलन प्रगभावातियोगिवलक्षणमंकविध किन्त कालिकेन = कालिकोविंदाषणतासम्बन्धेन घटत्वादि - घटत्वपटल्वादिस्वरूप नैकवा = अनेकविधम । अयं नैयायिकाझयः सकलकार्यसाधारणमनिरिक्तं मागभावप्रतियोगित्वलक्षणं कार्यत्वं नंदव स्वीकतमर्हति यदा कतृप्तस्य तथात्वा सम्भवः । स च नास्ति कालिकन घटत्वादरेव तत्वसम्भवात । तदुक्तं सामान्यलक्षणाजागदीशीकाशिकानं दिवृत्ती 'कालिकसम्बन्धेन घटत्वदर्जन्यमात्रवृत्तितया घटत्वादेरपि कार्यत्वसमनियतत्वादिति (सा.ल.का.पू. २८)। कप्तस्य कल्यादबलाधिकत्वात्कालिकेन घटत्व-पटत्यादिरूपमेव कार्यत्वम ।
* अष्ट में कालिकावच्छिन्न कारणता गुजाराष* उत्तरपक्ष :- विज़, । वाह ! नैयायिक महाशय ! तुम्हारा यह कथन तो बाघ के भय में खाई में गिरने जैसा है, क्योंकि आप नैयायिक ने अदृष्ट में कालिक सम्बन्ध से जन्यमात्र के प्रति कारणता का स्वीकार किया है । आत्मा का अदृष्ट कालिकसम्बन्ध से कपाल आदि में भी रहता है और काल में भी रहता है । अत: एक ही कालिक सम्बन्ध का कारणतावच्छेदकसम्बन्धविधया स्वीकार कर के घट, घटध्वंस आदि के प्रति अदृष्टकारणना को आपने मान्य की है, जिसमें कारणताद्वय के स्वीकार का गौरव नहीं है अपितु एक ही कारणना के स्वीकार से लायब भी है। मगर आत्मा में अविभुन्य - अपरम महत्परिमाण की सिद्धि के भय से आप उक्त कालिकसम्बन्धावच्छिन अदृष्यनिष्टकारणता को छोड़ कर स्वाश्रयसंयोगस्वाश्रयसंयुक्तसंयोगसम्बन्धावच्छिन्न पृथक् पृथक अदृष्टनिएकारणता का स्वीकार करने के लिये तैयार हो रहे हैं, गौरव टोप होने के बावजूद भी ! आप नेयायिक नां कमाल करते हैं । यहाँ यह ध्यान में रखना जरूरी है कि अदर कालिकसम्बन्ध से अनित्य पदार्थ में ही रहना है मगर काल नित्य होने पर भी कालिक सम्बन्ध में नो काल में कोई भी अनिन्य पदार्थ रह सकता है, क्योंकि अनित्य अदृष्ट आदि कालोपाधि - कालविशेपण बनता है। नित्य पदार्थ कालिकसम्बन्ध से केवल अनित्य पदार्थ में ही रह सकता है, नित्य पदार्थ में नहीं, चूँकि अनुयांगी-प्रतियोगी दोनों नित्य होने पर कालोपाधिता = किश्चित्कालवृनिता ही नामुमकिन बन जाना है। अस्तु ! ॥८॥
कालिकसम्बन्ध से अटकारणतापक्ष में गौरव की Ariel ! नेयायिक :- कालिकलम्बन्ध से अदृष्ट को कार्यमात्र के प्रति कारण मनने में गौरव टोप उपस्थित होता है, क्योंकि कालिकसम्बन्ध से जन्यता घटत्व, पटत्व आदि अनेकास्वरूप बन जाती है। मतलब यह है कि कार्यत्व, जो संपूर्ण कार्यों का संग्राहक है, एक धर्मस्वरूप न हो कर कालिकसम्बन्य से घटत्व-पटत्वादिस्वरूप है. कार्यत्व को सकल कार्यों में एक अनुगत धर्म के रूप में भी स्वीकार किया जा सकता है जन संपूर्ण कार्यों का अनुगम करने का कोई मार्ग न रहे किन्तु यहां
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७८ मध्यमस्याद्वाद रहस्य खण्ड ३
का. १५
* जन्यतावच्छेदकविचारः **
अत्र प्रतिक्रिया
युक्तं तज्जन्यसत्त्वं लघुगदितमवच्छेदकं जन्यतायाः, तत्किं तत्रापि हेतुर्न भवति नियति: कालिके नैव वादिन् ! पाशास्ज्जुः किलात्र प्रभवति भवतो बन्धनावन्ध्यबीजं, साक्षी लाक्षीणमूर्तिर्विभुनि भवति भोः कोऽपि संगोपितात्मन् 11901
जयलचा औ
| घटत्व-पटत्वादीनामानन्त्येन कार्यतावच्छेदकानन्त्यप्रयुक्तानन्तकार्यकारणभावापत्तिः । ततो न कार्यत्वावच्छिन्ननिरूपितकालिकसम्वनिक स्वीस !
ननु जन्यत्वं न कालिकेन घटत्वादिस्वरूपं नानाविधं किन्तु स्वरूपसम्बन्ध एवं जन्यत्वमिति न जन्यत्वावच्छिन्ने दृष्टस्य कालिकेन हेतुत्वे गौरवमित्याशङ्कायां नैयायिक आह अथ स्वरूपसम्बन्धः तत् = जन्यत्वं अभिमतं अस्तु तथा तथापि अनित्याभावत्वं = अनित्याभावप्रतियोगित्वं = प्रागभावप्रतियोगित्वं एव तत् = जन्यत्वं स्वीकर्तुमर्हति । परन्त्वेवमपि गौरवमपरिहार्यमेव स्वरूपसम्बन्धरूपस्य प्रागभावप्रतियोगित्वलक्षणस्य जन्यत्वस्य प्रतियोगिभेदेन भिन्नत्वात् । तथा च कार्यतावच्छेदकानन्त्यप्रयुक्तानन्तकार्शताया: कालिकसम्बन्धावच्छिनाया अदृष्टनिष्ठायाः स्वीकर्तव्यत्वेनानन्तकार्यकारणभावापत्तिस्तदवस्थैव । ततो न जन्यत्वावच्छिन्नं प्रति कालिकेनादृष्टस्यकं कारणत्वमुक्तं युक्तं किन्त्वत्मदभिमतं द्विविधमेवेति नात्मवैभवोऽस्माकं दुर्लभ इति नैयासिकाशयः ॥
अत्र = निरुक्तनैयायिकनये स्याद्भादिनामियं प्रतिक्रिया कालिकसम्बन्धावछिन्नजनकतानिरूपिताया जन्यतायाः अवच्छेदकं कालिकन घटत्वादत्वाद्यपेक्षया प्रागभावप्रतियोगित्वापेक्षया वा लघुगदितं जन्यसत्वं एव युक्तं = पुक्त्यनपेतं तस्य द्रव्यजन्यनावच्छेदकतया सिद्धत्वेन क्वात् अदृष्टकार्यताऽन्यूनानतिरिक्तवृत्तित्वाच्च तत् = ततः तस्मात् कारणात हे वादिन् ! तत्राऽपि = जन्यसत्यावन्नपि कालिकनैव नियतिः तत्तद्रव्य क्षेत्रकालभावभव भाविपरिणामनैयत्यान्यधानुपपत्त्या लग्नात्मलाभा नियतिपदवाच्या किं हेतुः न भवति ? भवतीति स्वीक्रियते नैयायिकेन तदा परमतप्रवेदाः आत्मवैभवासिद्धिश्व नियत्यैव विप्रकृष्ट| देशादी जायमानकार्यजातनैयत्यापपत्तेः । न चैन्द नेयत्वं स्वभावप्रयोज्यं, स्वभावस्य कार्येकजात्यप्रयोजकत्वात् । न भवतीत्युच्यते नैयायिकेन तदा नात्मवैभवस्वीकारेऽपि नियतरूपावच्छिन्नसमग्रकार्यव्यवस्था सङ्गगच्छत इति किलात्र उभयतः पाशारज्जुः प्रभवति यस्मात् भवतो नैयायिकस्य उभयत्रापि प्रदर्शितरीत्या बन्धनाऽवन्ध्यवीजं भवति । अतो भोः ! संगोपितात्मन ! ऐसे मार्ग का अभाव नहीं है, क्योंकि कालिकसम्बन्ध से घटत्व सभी कार्यों में ही रहने से कार्यत्वसमनियत होने की वजह समस्त कार्यों का अनुगमक हो सकता है। मगर इस तरह कार्यता कालिकसम्बन्ध से पटत्वादि स्वरूप भी बनती है। मतलब कि कालिकसम्बन्ध से घटत्व पटत्वादि धर्म से भिन्न कार्यत्वनामक एक अतिरिक्तधर्म की अप्रामाणिक कल्पना नहीं हो सकती है । एवं घटत्व पटत्वादि धर्म अनन्त होने से घटत्य, पटत्वादि अनन्त धर्मों से अवछिन अदृष्टनिष्ठ कालिकसम्बन्धावच्छिन्न कारणता अत्यन्त गुरु बन जायेगी । अतः कार्यत्वावच्छिन के प्रति अदृष्ट को कालिकसम्बन्ध से कारण नहीं माना जा सकता । यदि कार्यत्व को स्वरूपसम्बन्धात्मक माना जाय तब वह अनित्याभावत्व = प्रागभावप्रतियोगित्वात्मक ही हो सकता है । स्वरूपसम्बन्धात्मक प्रागभावप्रतियोगिता प्रतियोगिभेद से भिन्न होने की वजह पुनः कार्यता अवच्छेदक आनन्त्य प्रयुक्त अनन्त कारणता के स्वीकार का गौरव बज्रलेप बन जायेगा । इसलिए जन्यत्वावच्छिन्न के प्रति कालिकसम्बन्धावच्छिन्न अदृष्टनिष्टकारणता का स्वीकार संगत नहीं है ॥९॥
जन्यसत्व में कार्यतावच्छेदकता मुमकिन छ
स्याद्वादी :- मगर विचार करने पर कालिकसम्बन्धावच्छिन्न कारणता से निरूपित कार्यता के अवच्छेदकविधया जन्यमत्त्व की स्वीकार किया जा सकता है, क्योंकि वह कालिकसम्बन्ध से घटत्व, पटत्व आदि की अपेक्षा एवं प्रागभावप्रतियोगित्व की अपेक्षा लघुधर्मस्वरूप कहा गया है। अब तो अदृष्ट में कालिकसम्बन्ध से अवच्छिन्न कारणता का, जो जन्यसत्त्वावच्छिन्न है, स्वीकार मुमकिन ही है । तब आत्मा के विभुपरिमाण की सिद्धि कैसे हो सकेगी ? क्योंकि इस कार्यकारणभाव में संयोग सम्बन्ध का ही निवेश नहीं किया गया है । दूसरी बात यह है कि हम तो निर्यात में भी कालिकसम्बन्ध से अवच्छिन कारणता का, जो जन्यसत्त्वावच्छिन्न है, स्वीकार कर सकते हैं । हें वादी नैयायिक कालिकसम्बन्ध से ही नियति जन्यमत्वावच्छिन्न के प्रति कारण हो सकती है या नहीं यदि हाँ ऐसा जवाब आग देंगे तब तो कार्यनयस्थ की संगति नियति में ही हो जायेगी। कहाँ कर, किसको किस तरह, किस प्रमाण में किस चीज का मिलना १ इस नियम की व्यवस्था तो नियति ही कर लेगी, क्योंकि नियत रूप से ही पदार्थों की उत्पत्ति के अनुरोध से यह मानना आवश्यक है कि सभी पदार्थ किसी
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* महत्वस्य विविधकारणांचंदनम्
(शङ्का) → द्रव्यप्रत्यक्षहेतुत्वान्महत्त्वं सिध्यदात्मनि । व्योम्नीव ननु विश्रान्ततारतम्यमनादि रात् ॥1991 सादित्वे जन्यतापतिर्हेतुस्तत्र तु कोऽपि न । बहुत्वं वा महत्त्वं वा तदेतुः प्रचयश्च यत् ॥ १२॥ * जयलता
७८४
अतोऽसाक्षिकोऽयमात्मवैभववादः सर्वैरेव बहिष्कार्यः । किञ्च नेपाविकनते जन्यसत्त्वावच्छिन्नं सत्वावच्छिन्ने च कालिकेनाऽदृष्टस्य हेतुत्वस्वीकारेऽपि व्यवस्थोपपत्तेर्नात्नविभुत्वसिद्धिः ॥१०॥
अत्र: नैयायिकः पुनः कारिकार्तिकण प्रत्यवतिष्ठत द्रव्येति । नन्वात्मनो महत्त्वानाश्रयत्ये 'अहं सुखी' त्यादिसाक्षात्कार एव न स्थात्, विषयतासम्बन्धेन द्रव्यप्रत्यक्षं प्रति समान महत्वस्य हेतुत्वात् । महत्त्वस्य द्रव्यप्रत्यक्षहेतुत्वात् 'अहं सुखी'त्यादिप्रतीत्या आत्मनि सिद्धय महत्त्वं = महतारभागम् । तच्च स्वीक्रियत एव स्याद्धादिभिरिति सिद्धसाधनमित्यादाङ्कायामाहननु = खलु विश्रान्ततारतम्यम् विश्रान्तं तारतम्यं यस्मिन महत्परिमाणं नन् दृष्टान्तमाह व्योम्नीव तत्र हेतु विशेषणमाह अनादि सत् = प्रागभावाप्रतियोगित्वं सति भावत्वं नित्यत्वमिति यावत । द्रव्यप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नस्य हेतोर्महत्त्वस्यात्मनि सिद्धां तस्य नित्यत्वे लाघवमिति आना विभुः नित्यमहत्त्वात्, गगनवदित्यनुमानात् तस्य विभुत्वं सिध्यनीति नैयायिकाशयः ||११|| नन्यात्ममहन्त्वस्य प्रागभावाप्रतियोगित्वलक्षणाऽनादिवे गौरवेण प्रागभावप्रतियोगित्वलक्षणं सादित्वमेवास्तु लाघवादित्यसिद्ध एव हेतु रित्या शङ्कायामक्षपादतनय आह सादित्वे = तन्महत्त्वस्य प्रागभावप्रतियोगित्वं जन्यत्वापत्तिः । न च प्रागभावाप्रतियोगित्वं सनि ध्वंसाप्रतियोगित्वलक्षणनित्यत्वापेक्षया जन्यत्व एवं लाववमिति वाच्यम्, तथापि तदुत्पादकादिकल्पनागरवात । न च तस्य फलमुखत्वेनाऽदीपवमिति वाच्यम्, तत्कारणस्यैवात्मन्यसम्भवादित्याह तत्र = आत्मनि कोऽपि हेतुः । = महत्वजनकः न विद्यते । कुनः ? इत्याह यत् यस्मात् कारणात् बहुत्वं = एकत्वभिन्नसंख्या, वा महत्त्वं = अवयवमहत्त्वं वा प्रचयश्व शिथिलाख्यः संयोगश्च तद्धेतुः = महत्त्वजनकः सम्भवति । अयमन नैयायिकाभिप्रायः महत्त्वं कचित् एकत्वभिन्नसंख्यातः जायते यथा ॠणुकस्य संरेणीश्च परिमाणं प्रति परमाणुपरिमाणं दणुकपरिमाणं वा न कारणं परिमाणस्य स्वसजातीयीत्कृष्टऐसे तन्त्र से उत्पन्न होते हैं जिससे उत्पन्न होनेवाले पदार्थों में नियतरूपता का नियमन होता है, पदार्थों के कारणभूत उस तत्त्व का नाम ही नियति है। मगर तब तो दूर देश आदि में उत्पन्न होनेवाले कार्यों के प्रातिस्त्रिक नैयत्य की उपपत्ति नियति से हो जाने से अदृष्ट में नाश नैयत्य का नियामकत्व नामुमकिन वन जाने से आत्मविभुत्व की पुनः असिद्धि ही होगा । और यदि नैयायिक जन्यसत्वावच्छिन के प्रति कालिकसम्बन्ध से नियति को कारण न माने तब तो सभी कार्यों के नियतस्वरूप की संगति नैयायिक मतानुसार कथमपि नहीं हो सकती है। इस तरह यहाँ नैयायिक नियति में कालिकसम्बन्धावच्छिन कारणता का स्वीकार करे या न करें दोनों पक्ष में नैयायिक के लिये बन्धन का अवध्य = अमोघ बीज = कारण बननेवाला उभयतः पाशारज्जुन्याय अपना प्रभाव दिखलायेगा । इसलिए ओ 1 नयायिक के शागिर्द 1 अपने को लज्जा से छुपानेवाले : तुम्हारे लिए आत्मा में विभुत्व का साक्षी बननेवाला कोई भी अक्षीणस्वरूपवाला हेतु नहीं है तब कैसे आत्मा में सर्वव्यापकता सिद्ध होगी ? कथमपि नहीं ||१३||
=
* महत्त्व में द्रव्यप्रत्यक्षकारणता से आत्मवैभवसिद्धि का प्रयास क
नैयायिक विषयतासम्बन्ध से द्रव्यप्रत्यक्ष के प्रति समवाय सम्बन्ध से महत्त्व कारण होता है | अतः 'अहं सुखी दुःखी इत्यादि आत्मप्रत्यक्ष के अनुरोध से आत्मा में भी महत्त्व सिद्ध होता है । वह महत्त्व = महत्परिमाण गगन में विश्रान्ततारतम्यवाले परम महत्परिमाण की भाँति अनादि सत् = प्रागभावाऽप्रतियोगी होते हुए भावात्मक यानी नित्य ही सिद्ध होगा । नित्य महत्त्व का आश्रय होने की वजह आत्मा में विभु परिमाण की सिद्धि होगी । अनुमानप्रयोग इस तरह हो सकता है कि आत्मा विभु है, क्योंकि यह नित्य महत्त्व का आश्रय है । जो जो नित्य महत्त्व का आश्रय है वह सब विशु होता है जैसे गगन | अतः आत्मा को विभु मानना ही युक्तिसंगत है यहाँ यह शंका हो कि
आत्मा अनित्य महत्त्व का आश्रय हो तो क्या बिगड़ता है
तो इसका समाधान अनित्य मानने पर उसमें जन्यत्व की आपत्ति आयेगी । 'फिर भी आपका क्या क्योंकि आत्मा में महत्व की उत्पत्ति का कोई कारण नहीं है। महत्व की उत्पत्ति
यह है कि आत्मा के महत्व को सादि बिगड़ता है ? यह प्रश्न भी निराधार है,
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४१.२ मध्यगरपदानहराय गाण्डः : . का. ४५ गुगिहामानमरणम *
विनाऽवयवमात्मनि प्रमिदं किल क्लीबत: सुतोद्भवलतूहलं कलयति प्रतियताम् । विभुत्चभिकाहक्षतां मुकुलितं पिपासावशात् जयानकरवः श्रवः श्रयतु तेन विश्वामिनाम् ॥१३॥
अयोच्यते -> परिमाणमत्र कि मापकृष्यते ? अपकर्ष इवोत्कर्षोऽधिजन्यतां यत: ॥१४॥
--* जयलता - मिनिकन्य मात्, द्वयकपरिमाणं तु मानगुन क्षय नोत्कृष्टं, सरेणुरिमाणं तु न सजातीयम् । अतः परभणी द्विल्पसंगच्या द्वयगकरिमाणपक त्रित्वसङ्गज्य च त्रसंरपरिमाणस्या समवानिकारगम् । कचिदबाबमहत्त्वरिमाणा महत्परिमार्ग जायने यथा समगन घटादिगरिमाणं प्रनि स्वसमवापिसमवेतत्वसम्बन्धन कपालादिमहत्परिमाणस्य कारणत्वम् । वनिश्च प्रत्याजायत यधा तलकादिपरिमाणम् । अब नृसिंहः 'प्रचयत्वं चाववयोगगना जातिविशेषः. तादशजातिविशेषावनिछन्न
थि, उत्तन्यत्त' इत्याचष्टे । (का,११२ ..) ||१२॥
सातायता कागपतं ? इतर किल अवयत्रं बिना आत्मनि इदं = अनपदोनबा त्रयं = काचान्गस दाव्यामहत्व -प्रनयान्यनम, कलावतः = नपुंसकान सुतोद्भवकुतूहलं कलयति । यथा मादशुकशुन्यमंत्वन नपुसकम्य मन्नानाजनफवकप नदः अनायाः पुत्रोत्पादाझिलप: यादगाः भवति तादृदा एवामिलामा जन्यात्म परिमाण दिनां, आत्गनी निस्वयवत्वन कल्यान्य. महत्या-नहल-प्रचयन्यत्व:पि जन्मपरिमाण अग्रत्वकाङ्क्षणान । नेन कारणं सावधानं प्रतिथूयतां, विश्वाङ्गिनां = गकलजनानां पन पिपासावशात् नलितं जातं तत् अवः = आंत्रयुगर विभुन्य = व निकात नमामिलानां जयानकरवः = जयकार: श्रयत् । नित्यमहत्त्वस्य स्वरूपासिद्धत्यापनयनात्मनः सर्वच्यापित्यसायनादिति गौतमीयाशयः ॥५॥
अत्र = आत्मना निन्य महत्वहतुना विभुत्वप्रतिपादन स्याद्रादिभिः उच्यने अत्र = आगनि परिमाणं किं = कुना हती: नापकृप्यते ? नित्यमहन्त परिमागवन्चे बायकामाना ग्रयोजकतात । न हि नियमहत्वमस्तु मास्तु विनत्वं तहि को दापः ? इति गर्यनुयोग नमाविकन किञ्चिद्वान पाते । न च नरयामकृष्टत्त्व जन्यना निर्वाधिका, गगनाडन्यावधिकापकर्षम्य बहत्वादिजन्यनारदकत्वादिनि वात्र्यम्, यतः तस्य विभुल जन्यत्यापनिनाधिका, परनाम्बपकांवधिकान्कस्य कलादिजन्यताबादकत्यादित्यस्यापि सुवचत्वन अपकर्षः गगनमहत्याधिकापकर्षः इबोत्कर्षोऽपि परमापापविधिकोत्कपा-पि ! के तीन कारण हो सकते हैं (१) पहल = स्वाश्रयावयवगत बढ़त्वसंख्या, जैसे द्यणुकपरिमाण के प्रति दयणुकावयपरमाणुगत । द्वित्तसंन्या, ( महत्व = स्वाथयावयच का महत्पग्मिाण, जैसे पटपरिमाणाश्रय घट के अवपब कपालद्वय का परिमाण घरपरिमाण का कारण होता है, () प्रचय = विधिसंयोग, जैसे मूलिकापरिमाण के प्रति उसके आश्रय के अवपदों का शिधिलमयोग हेतु होता है |॥१॥
मगर आश्मा निरचयब होने की वजड न ना आत्मा में खाश्रयममचेतत्वसम्बन्ध से महत्परिमाण रह सकता है और न तो प्रचय = अवयव विधाथिलमयोग रह सकता है । पग्मिाण के जनक तीनों कारणों में से एक भी कारण आत्मा में न रहने पर भी आत्मा के परिमाण में जन्यत्व की कल्पना हिजड़े से बेटे के जन्म की कुतुहलता की तुलना करता है । इसलिए पिपासा की बजह वैभव-द्धि की कामना करनेवाले विधान के पंध हो गये हा वर्ण विभुत्व की कामना करनेवाले नैयायियों के जयानकरव = विजयध्वनि का आश्रय करें, क्योंकि जन्यमहत्व की आत्मा में कथपि सिद्धि नहीं हो सकती है और पानिपन्याय में सिद्ध होता हुआ नित्य महत्व विभुत्व का घ्याप्य होता है । इसलिए आत्मविभत्तबादी को ही चिजयमाला प्राप्त होगी ॥४॥
जियमहा। विगुपिया ही है - स्यादादी स्याशादी :- यह कथन टीक नहीं है, क्योंकि आत्मा में नित्य महत्त्व होने पर भी उसमें अपकृष्ट परिमाण मानने में म्या बाधा है ? इस प्रश्न का कोई प्रन्युनर न होन में उक्त अनुगान अप्रयोजक है. विपक्षराधकन शून्य है । यदि यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि --> 'आत्मा के परिमाण को अपकृष्ट परिमाण मानने पर उस जन्य मानना होगा, क्योंकि गगन के परिमाण में अपकृष्ट परिमाण त्र्यणुकग्मिाण की भांनि अवयवगत बहुत्वादि में जन्य है - तब तो नुन्य मुनि मे स्याद्वाटी की ओर से यह भी कहा जा सकता है कि , 'भान्मा के परिमाण का उत्कृष्ट = परममहन मानने पर उसे जन्य मानना होगा, क्योंकि परमाण के परिमाण में उत्कृष्ट पग्मिाण अवयगत बहुत्यादि से जन्य है. जंग ज्यणुकांग्माण' .। इस तरह तो अपकर्ष की भांति उत्काई भी पग्मिाण का जन्यता में अवच्छिन्न = विशिष्ट बना देगा । नच नो आत्मविभूत्वपक्ष में भी वह ममम्या ज्या की न्या बनी रहगी ॥१४ा।
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ॐ आत्मपरिमाणन्य जन
आगोरपरिमाणत्वादपकर्षस्तथेति चेत् ? व्योम्नोऽप्यपरिमाणत्वादुत्कर्षः किं न तादृशः [199 विलेयत्तां सगं सत्त्वं काष्ठप्राप्ततया ब्दयोः । ततो जातिविशेषेण जन्यतैवातु शील्यताम् ॥१६॥ वस्तुतो जन्यमेवेदं प्रचयात् प्रतिजानीते । प्रदेशैजभितो जन्तो: शाश्वतैकत्वशालिभिः ॥ 9911 ॐ जयलता है
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जन्यतां
बहुत्वादिनिपजन्यां अवच्छिन्यात् नियच्छेत्, गगनमहत्त्वावधिको प्रकर्षस्येव परगावकर्याविधिककास्थिापि बहुत्यादिजन्यतावच्छेदकत्वेः चिनिगमान्नात्मवित्वपक्षेऽपि प्रयुक्तदीपप्रच्यव इति भक्षितं पिलाने शान्ता व्याधिरिति न्यायपा इति स्याद्वादिनी: भिप्रायः || १४ ||
=
2
4
कारिकार्द्धन नैयायिकः समाधत्ते - अणोः अपरिमाणत्वात् = स्वसनधापिसमवेतत्वसम्बन्धेन परिनाशून्यत्वाद अपकर्षः = गगनमहत्वाचधिकापकर्षः तथा = बहुवदिन्यतत्वक इत्यात्यपरिमाणस्याऽपकृष्टले जन्यत्वापत्तिचाधिकेति चेत ? स्याद्वादी प्रतिवन्द्या समाधत्ते व्योम्नः अपि अपरिमाणत्वात् = स्वस्वामिसंवतत्वसम्बन्धेन परिमाणरहितवान् उत्कर्षः
८६
परमाण्वपकरांवधिकोत्कर्मः किंकरीयतावच्छेदका ? युक्तरविशेषात । ततश्वात्मविभुत्वेऽपि जन्यत्वापत्तिः तदवस्थव । एतेन परमपवित्रिकमहत्त्वस्य गगनपरिमाणसाधारणतया न कार्यतादिकन्यागत्यपि प्रत्युक्तम्, गगनमहत्याधिकापकर्षस्य परमा परिमाणसाधारणतया न कार्यतावच्छेदकत्वमित्यस्य तुल्यत्वात् ||१५||
अत इयत्तां विना द्वयोः गगनपरमाणुपरिमाणयोः काष्टाप्राप्ततया = विश्रान्तया समं सत्यम । ततो जातिविपण परमाणुपरिमाणात्परिमाणगगनादिपरिमाणच्यावृनवजात्येन चादिपरिमारासाधारन एव जन्यता - बहुत्वादिनिलजनकत निरुपितजन्यतः अनुशील्पनां = विमृश्यताम् । ततो न नित्यमहत्त्वाश्रयत्वेऽपि आत्मनो विभुवं किञ्चित्साधकं न वा उपकृष्टपरि मागाश्रयत्वं बाधकं किञ्चित् तस्याःप्रकृति बहुत्वादिजन्यतावच्छेदकत्व ||१६||
इदञ्जाभ्युपगगवांदेनोक्तं, वस्तुतः जन्यमेव इदं = आत्महत्यनिष्णं, कुतो जन्यत्वमस्य ! इत्याह प्रचयात् शिथि लाख्त्र्यसंयोगात् इति स्याद्वादिनः प्रतिजानते। न च निरवयव आत्मनि कथं प्रचयसम्भव इति वाच्यम्, तस्य लोकाकाशप्रदेश नि नाऽसङ्गख्यदेशानामभ्युपगमात् । देवाह शाश्वतैकत्वशालिभिः प्रदेश: जाग्रतः = अवष्टब्धस्य जन्तोरिति । एतेन विनाऽत्र
=
यदि नैयायिक की ओर से समाधानार्थ यह कहा जाय कि 'अणु के कोई अवयव नहीं होने से स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्ध से अणु परिमाणशुन्य होने की वजह गगनमहत्त्वाधिक, अपकर्ष तथा = बहुत्वादिजन्यतावच्छेदक बनता है। इसलिए आत्मपरिमाण को परममहत् न मानने पर उसमें जन्यता की आपत्ति आयेगी अतएव आत्मा विभुपरिमाणवाली सिद्ध होती है तो तुन्ययुक्ति से स्यावादी की ओर से कहा जा सकता है कि 'गगन के कोई अवयव नहीं होने से वह स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्ध से परिमाणशून्य होने की वजह परमाणु अपकर्यावधिक महत्त्व तादृश = बहुत्वादिजन्यतावच्छेदक बनता है। तब तो आत्मा के परिमाण को परममहत् = विभु मानने पर उस परिमाण में जन्यता की आपनि ईंट कर खड़ी रहेगी। मतलब कि जिस दोष का आपादन शरीरपरिमाणात्मवादी के मत में आत्मविशुत्ववादी की ओर से किया जाता है उस दोष से मुक्त होना उसके लिए भी मुश्किल बनता है ||१५||
मगर अणुत्व- महत्व को छोड़ कर गगनपरिमाण एवं अणुपरिमाण दोनों ही काप्राप्त = विश्रान्ततारतस्यवाले होन की वजह दोनों समान ही है । इसलिए न तो गगनमहत्त्वाधिक अपकर्ष को जन्यता अवच्छेवक माना जा सकता है और न तो परमाणु अधिक उत्कर्ष को इसलिए मुनासिव तो यही है कि जातिविशेष में ही बहुत्वादिजन्यता का परिमाण में | स्वीकार किया जाय । अर्थात् परिमाणनिष्ट जातिविशेष को ही बहुत्वादिजन्यतावच्छेदक मानना युक्त है। वह वैजात्य = जातिविशेष जैसे मगनपरिमाण, परमाणुपरिमाण आदि से व्यावृत होता है ठीक वैसे ही आत्मपरिमाण से भी व्यावृत्त है - ऐसा माना जा सकता है। अतएव आत्मा में नित्य महत्त्व के होने पर भी अपकृष्ट परिमाण का स्वीकार करने पर उस अपकृष्टपरिमाण में जन्यता की आपत्ति को अवकाश नहीं हो सकती ॥१६॥
यह तो अभ्युपगमाद से बात की गई है। वस्तुस्थिति तो यह है कि आत्मा का महत्त्व नित्य नहीं है किन्तु जन्य ही है। इसलिए विभुत्व को सिद्ध करनेवाला नित्य महत्त्व हेतु भी स्वरूपासिद्ध है। तब आत्मा में विभुत्व की सिद्धि केन हो सकती है। यहाँ यह नहीं कहा जा सकता कि आत्मा का महत्त्व जन्य कैसे माना जा सकता है ? क्योंकि
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४ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः ३ . का.१ आत्मानः सङ्कार विस्तारसमर्थनम*
स्यातां सोचविस्तारौ जीवपुदगलयोर्दयोः । नामकर्मोदयादेव कस्यातिप्रसहगतः ॥१०॥
स्मर्यते > 'अविरलगलल्लालाजालावलीढमुख: शिवः, परिणतहढस्कन्धन्दन्दो युवाऽपि । स जायते । पतितदशनो वृन्दः प्राय: स एव कदाचन प्रथयति किल स्वाधीनत्वं भवे ॥ क इवाङ्गभृत् ॥५॥ इत्थच तनुमानत्वे परिमाणशिदात्मनः । भेदापत्तिः परास्तैव स्यान्दादाततिलहधिनी ॥२०॥
-ॐ जयलला - यवमात्मनि बयमिदमिति यदुक्तं परेण तभिरस्तम्, स्याश्रयासमवेतत्वसम्बन्धनात्मनि बहुत्वसत्त्वान्न जन्यामकृष्टपरिमाणा सा भवः ।।। अत एवापकृष्टमहत्वं प्रत्यनेकद्रव्यवत्त्वस्य प्रयोजकत्वमित्सुनावपि न निः, असहयवदेवात्मकावयवानमवाधान । एनेन 'सादिवे तस्य जन्यत्वापनिई तरनत्र त कोणि न' रत्यादि परास्तम् ॥१७॥
___ प्रदीपप्रभाया इवात्मनः सकोचविकासाभ्यां परिमाणभेदस्याभ्युपगमन सर्वथा नित्यमहत्त्वा सिद्धनान्मवैभवसिद्धिः किन्तु शरीरावच्छेदेनैव नद्गुणगोपलब्धः कायमानत्वमेव युक्तनिति साधयितुमुपक्रमने स्याद्वादा- द्वयोरेच जीवपुगलयोः अन्योन्यानुविद्धयःः आत्म- शरीरयोः नामकर्मोदयात् सङ्कोच-विस्तारी स्याताम्, न एकस्य = जीवस्य शरीरस्य वा सड़कोशिनी, अविनिगमाद्, अतिप्रसङ्गतश्च ।।१।।
ननु कायमानत्वे आत्मनः परिमाणभेद नित्यत्वापन्या एक सीनो परप्रच्युनिरित्याशङ्गकायामाह्- स्मर्यते चति , अविरलेति स्पष्टार्धम् । बालमध्यमपर्यन्ताबस्थाग्यां स एवामि ति प्रत्यभिज्ञानानात्मनः क्षणिकत्वापानः शरारभेदपि दारारिणानभेदात श्याम - रक्ततादशायां घटबर्बादनि कारिकानात्पर्यम् ।।१५।।।
तदेव दर्शयति । इत्थञ्च परिमाणभिदात्मनः = परिमाणभेदं भजतो जाचम्य तनुमानवे = शारीरपरिमाणत्वे सिद्ध आत्मनः सर्वधा भेदापत्तिः परास्तेव, अत्र हेतुविशेषणनाह-स्यानादानतिलचिनी, परिमाणभेद परिणामिना मदन स्याद्वादानतिलधनात् ॥२०॥
प्रचय से वह जन्यस्वरूप मालूम पड़ता है। उपचय और अपचय से आत्मपरिमाण में जन्यता का अपलाप नहीं किया जा सकता । आत्मा के असंख्य प्रदेश है, जो नित्य है एवं नित्य एकत्वसंख्यावाले हैं। अनः अवयवगत बहुत्वसंख्या से आत्मपरिमाण की उत्पनि मानी जा सकती है ॥११॥
जीव संसारी अवस्था में कर्मों से आवृत होता है । अष्टविध कर्मों से आवृत जीव के नामकर्मोदय की बजह शरीर और आत्मा दोनों का ही संकांच पर विस्तार होता है, किसी एक का नहीं । जीव या शरीर में से किसी एक का विस्तार होने पर तो अनेक दोषों की आपनि आयगी, जैस बालक के शरीर का विस्तार होने पर भी बालक की आत्मा का विस्तार न हो तब तां विस्तारवाले अश्यबों में जीव न रहा। फलतः बढे हुए अवयव में दाह आदि का अनुभव न हो सकेगा। यदि केवल आत्मा का विस्तार माना जाय नत्र नो आत्मा का शरीर ८८ साल होने पर भी जन्मावस्थाचाला ही रहेगा। अतः नामकर्मोदय से शरीर पावं आन्मा दोनों का विस्तार मानना न्याय्य है । ठीक इसी तरह नामकर्मोदय से शरीर पर्व आत्मादोनों के संकोच के बारे में भी स्वयं विचार करना चाहिए ।।१८॥
___ कहा भी गया है कि सतत गिरनेवाली राला की आवली में व्याप्त मुंडवाला बालक ही कालान्तर में दृढ एवं परिणन दो कथेवाला युवान बनता है और कदाचित् वही वृद्ध बनता है, जिसके मुँह के दांत भी टूट गये हैं एवं इन्द्रियाँ भी शिथिल हो गई है। सचमुच यह रात सूचना देती है कि इस संसार में कीन प्राणी स्वाधीन है। किसी भी जीव की युवा अवस्था आदि स्वाधीन नहीं है ॥१०॥
उपर्युक्त कथन से भली भाँति जान पड़ता है कि एक ही जीव शिशु आदि विविध अवस्था को धारण करता है, भले ही उसका परिमाण भिन्न भित्र बनता है। परिमाण के बदलने पर भी परिमाणी = परिमाणवाला = परिमाणाधिकरण बदलता नहीं है। इसलिए यहाँ यह शंका कि > 'आत्मा कापरिमाणवादी होने पर आत्मा का शरीर छोटा बड़ा होने पर आत्मपरिमाण में भेद होने की वजह आत्मा भी बदल जायगी । पविल आत्मा से भिन्न नवीन आत्मा की उत्पनि को मान्य करनी होगी' <-भी निरस्त हो जाती है, क्योंकि आन्मपरिमाणभंद का भी हम स्यावाद का अबलम्बन कर के स्वीकार
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* मान्मरम्मातिसंवादः विशिष्टोत्पादसंवितिर्विशेष्ये बाधके सति। विशेषणोपपना कि विशिष्टाधिक्यवादिनाम ॥७॥
ननु नियामकमेव हि वैभवं वदति कष्टमष्टमिहात्मनः । इतरथा प्रतिगृहागत तं विना कथमहो जगति(ती ?) व्यवतिष्ठते ॥॥
* गयाता* नन् ‘रक्तो जान' उत्पादिप्रत्ययवत् 'युबा ज्ञात' इत्यादिप्रतीतः सविशेषणी हि विधिनिषेधी बिशपणमुपसङक्रामनः मति विशेश्यबाधे इति न्यायेन विशेषणावगाहिल्वमेव, विशष्ये बालनि प्रागभावप्रतियोगित्यादवांधादिति जीवरकान्तन नित्यत्वमेय विशिष्टे आत्मन्युटयादपदार्धान्वयन “विशिष्टं शुद्धानातिरिच्यते' इनिन्यायेन शुद्ध आन्मन्यपि तदन्त्रयः म्यादित्पाझकायां स्यादवाद्याह - विशिष्टोत्पाढसंवित्तिः - युवाद्यवस्थाविशिष्टात्मात्यादसचिनिः.विशेष्ये आन्मान प्रागभावप्रतियागित्वावरगाहिले तु बाधक मति = कान्तिकात्मविनाशनदपादकगंधपणादिचाधक सति, विशिष्टं शुद्धानतिरिच्चन इति वादिनां नैयायिकनां नये विशेषणोपपन्ना = रनाद्युत्पादावगाहित्वन्तु युवादिदागरात्मकविशेषणोत्पादावगाहिल्यनोपपना इति किं विशिष्शधिक्यवादिनां मने तथा स्यात् ? नैव स्यात् । यथा सार्वभौमादिभिः विशिष्टं दादादतिरिक्त स्वीक्रियने तथा स्याद्वादिभिरपि कश्चिदति ततश्च विशेषणोत्पादे विशेषणविशिष्टयन विशेष्यमाःपि प्रागभावप्रतियोगित्वमच्याहतमेव । न चैवमात्मनो नित्यलप्रसङ्ग इनि वाच्यम्, विशिष्टोत्पादस्य विशिष्ट वंसप्रयांजकतना विशिष्टावस्थाना:प्रतिपन्धित्वेन द्रव्यपर्यायादिनात्मनो नित्यानित्यन्त्र पपनः । सर्वधा विशिष्टानतिरिकत्वनये तु नारका विशिष्टात्मनि नदवस्य सुहाभावः कष्टसाध्य इत्यधिको विस्तर आत्मख्याती ॥२||
अब नयापिकः कारिकात्रिकणात्मनी विभूत्वं साधयति मन नहीं करत यत उह, आत्मनः अदएं एवं नियामक = वैभवनियामकं सत स्वनियम्यं वैभवं = आत्मविभरिमाणं वदति इति भी : स्वादादिनः यूयमिदं प्रतिगृहणत । इनरधा = आत्मना रिभुत्व नं = अत्मवैवं बिना कायं जगलि गहिनदि नान्यापान विप्रतिनियत्व्यवस्था व्यतिष्टतं ? नचल्यर्थः । अदृष्टस्य स्वाश्रयसंग के आश्रयान्तर कर्मजनकत्वादिनि हतारित्यादिकमनुपदामच 'गनु पदी दि । श्रांकन्यारव्यानं भावितमंच ॥२२॥
करते हैं । पूर्वपरिमाणविशिष्ट आत्मा का नाश होने पर भी उत्तर एरिमाणविशिष्टरूप में आत्मा का अवस्थान अबाधिन ही है। इसलिए आत्मा का कथंचित मंद = नाश होता है, सर्वथा नहीं । इसलिए आत्मा में मणिकन्च की आपत्ति को अक्कास नहीं है ।।।।
यहाँ नैयायिक की यह शंका कि -> "आन्मा और अगेर ना जल और अनल की भाँनि भिन्न है। अनः 'चत्रः युवा जानः' इत्यादि प्रतीति में भाममान उत्पत्ति का प्रतियोगी तो युवावस्थाबाला शरीर होगा न कि चैत्रात्मा, क्योंकि आत्मा तो नित्य होने की वजह प्रागभाव का प्रतियोगी ही नहीं होने से अध्यक्षणसम्बन्धस्वरूप उत्तनि का अन्वर आत्मा में पित है। यह एक न्याय है कि जब रिशिए विधान या निषेध किया जाता है तब विशेष्य में विधान पा निपेय का अन्वय करने में बाध होने पर उसका अन्य केल विशेषण में होना है. जैसे 'गत उत्पन्नः' इत्यादि स्थल में पूर्व उत्पत्र घट में पुन: उत्पत्ति का अन्न्य बाधित होने से केवल रक्त रूप में ही उत्पत्निपदार्थ का अन्वय होता है । ठीक वैसे ही आत्मा में उत्पनिपदार्थ का अन्वय राधित होने से केवल युवाशरीरात्मक विशेषण में ही होगा। मतलब कि आत्मा तो सर्वथा नित्य है । किमी भी नरद्द उत्पत्र नहीं होती है। यदि ऐसा न माना जाय नच नो 'चिशिष्टं शुद्धनातिरिच्यत'न्याय में विशिष्ट में उत्पतिपदार्थ का अन्य करने पर शुद्ध आत्मा में भी उत्पत्ति की आपनि आयेगी' -भी निराधार है, क्योंकि हम म्याद्वाटी विशिष्ट को शुद्ध से अतिरिक्त मानते हैं । चिझिए और शुद्ध पदार्थ परस्पर भिन्न है। इसलिए हमारे मतानुसार 'युवा जातः' इस बुद्धि का सिर्फ विशेषण में उत्पानिपदार्थ का अन्वय कर के उपपत्र नहीं की जा सकती, क्योंकि युवावस्थाविशिष्ट आत्मा में उत्यनिपदार्थ का अन्य किया जा मकता है। विशिष्ट शूज से भिन्न होने की वजह युवाशरीरविशिष्ट आत्मा में उत्पत्तिएटार्य का अन्वय करने पर शुद्ध - विशेषणविनिर्मक्त आत्मा में उत्पनि की आपत्ति को अवकाश नहीं रहता है, क्योंकि विशिष्ट रूप से उत्पनि का प्रतियोगी होने पर भी आत्मत्वेन उत्पनि का अप्रतियागिन्य आत्मा में अबाधित रहता है। इसलिये हम रयाद्रादियों के मतानुसार आत्मा में नित्यानिन्याय अच्छी तरह संगत होता है ।
नेयायिक :- अहाँ कएं । अदष्ट ही आत्मवैभव का नियामक है और वही आत्मवैभव को बोलना है . बनाना है। फिर भी आप स्याद्वादी आत्मा के विभु परिमाण का अपलाप कर रहे हैं। मगर आत्मा के विभ पग्मिाण का स्वीकार किये बिना जगत कैसे ज्यवस्थित रह सकेगा 'जगत की व्यवस्था कम उपपत्र हा संकेगी, यह तुम ही बनाओ।
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४८.६ मध्यभायादादरहर खण्डः ३ . क.
* नराम्भ्यं न्यादितनाविचारः
हत तमिलजाचालामालाजटालमहाऽनि(?न)लो. ज्चनति न विरोनाधो मोवन धावति तन्दतः । चरति पवनस्तिर्यग्नाधो न वाम्बरसचरो न खल नियामकादृष्टाकष्टां गति हि विमुवति ॥२३॥
अत एव तत्र कर्मणि संयोगोऽहटशालिनो मागतः । धुवमसमवायिकारणमात्मन इति मन्यतामेतत् ॥४॥
* जयलता किञ्च देवदत्तं प्रत्युपसर्प ती गामहिलादया देवदनविद्रोपनुगाफाटाः तं प्रत्युपसर्पणत्वादग्रासादिवत । ग्राम हि दवदनं । प्रत्युपसर्पन्देबदनविशेपगुणन प्रयन्नरूपेणाकृत्यगण दुष्टः । ततः पादयापि तथैव गुका इति ननाहितार्गणग्य ग्गिंद्रः । न वा प्राप्तानां तेषां तन गृणनाकर्पगं सम्भवतीनि तः तद्गुणस्य प्ररिसिद्धिः । तथा दबदनागनादिकं देवदनगुणपूर्वक कार्यत्वे सति तदुपकारकन्चात. ग्रासादिवत् । कार्यदेश च सन्निहितं कारण कार्य जन्मान व्याधियत नान्यथा, आनप्रसङ्गगात । अतः तबहानादिकाया नावाशे नत्कारण जन-पादिवत देवदनगरिदिः । यत्र च गुणाः प्रतीयन्ते नत्र नद्गुण्यध्यनुमीय कमन्नग्ण । तेषामनुत्पत्तेः । स्वाश्रयमयोगापेक्षाणां गुणानां आश्रयान्तर कर्मारम्भकत्वाधपत्नश्चाग्नस व्यज्वालनादिकमपि कायचे. सनि नदपकारकत्वेन नदिशेषगुणकारितमित्यनुमानानवा दृष्टसिद्धिः स्वाश्रयात्मानमनमाश्यतीति वैभवमात्मना मन्यतामित्यशयन नैयायिक आह ! हुतघनेत्यादि । मूलादी 'महानिला ज्वलति' इति पादः । वस्तुतः ‘महानलो ज्वलती नि पाटन भवितव्यम् । महानलः तिरो न चलति, अधो न ज्वलति, उद्धनः गन ऊभ्य न भवतीति न, किन्न धावत्येव नापं तु रिभावितमंत्र ||२३||
अत एव = एकद्रव्यले सति क्रियाहत्गणत्वस्य स्वाश्रयमुक्ताश्रयान्नरानुयागिककमारम्भकत्वादेव, तत्र कर्मणि . उचलनपचनापमणांदिकर्मत्याग्रच्छिन्नं प्रति, भू अदृष्शालिनः = अदृष्टाश्रवस्य आत्मनः गंयगः असमवायिकारगं इति मन्यतां एतत् = आत्मना विभुत्तम । अन्यथा तिप्रसझ्यानिति यायिकाशयः ।
पात्र मगरी गत्वात प्रथमगुन पक्षायाः श्रीवादिदेवसूरिशोक : प्रदर्शन्ने । न्दन स्थाबाद गलाकरे --> नदेनदफलं सर्वमपर कृषिकर्मवत् । निनिमेषगक्षारमानापा लक्ष्यत बुधः नाहिगगरमात्न' नद्योग द्वारारं नमात्मना । आत्मा मारा. संयुक्त लगाः बा तथा विधः || || दयदत्तध्यनेयांगायोगः प्राचि कथ्यते । इत्युमा यति पभेदी पण्मुग्यस्यच पण्मुखा ।।३। शगर निदा सिध्यनत्र ज्यामिमत्तव नाम। नया व जाती-गिलासा: गवकागमः ।। अधान्मा तन्न नित्यन्वव्यापित्याभ्याम्यं यतः । वाकय माणवस्तूनां विद्यते देशकालयोः ।। || न चामृदुशगात्नानं प्रति कस्यापि मणिन् । युज्यत्तान्तमाश्रियं यथा मानुः गिj प्रनि ।६।। तथाहि - अर्थान्यदर्शनारदेवाम गति यातीह यया शारादिः । यद्वान्यकाळापरकालननं यथः घटादन प्रति निकादिः ।। || 7 वयोक्ताम्हानुमाने बयां निंगि पन माध्यम । यश्चापि हेतुः सकलं तदन्तरम्य यज्ञे परिकल्पनात्रम ८|| नाति तन्वात्ममंदार पक्ष: सातिनानि ।यतो गणबम्पो यमिप्यने कणभुक्त- ।।७।। युक्ती गुणी न चनरिमन्तुगानां नित्ततः । 'वाद्याटिकन सिनष्ट नत्कुती भवेत् । १। पाठप्रकार पुनरागमनानाः सात्विकः । पाकिमतान्त्रिको वः । अनाधिकश्चत्कथमत्र सिध्यत्र नाचिका ने भंडाणा मः ।।१।। तादृशांमागणनिर्मिता ननः प्रत्यदापि रिकल्पिता भवत् । कन्गिनाग्निनगिना याचनायिका किमह निग्ननास्तिमाः ।।१६|| स्वनं हन्न शपिकण त्वय बनमेवं च नाथागतं दर्शनम : शात्मसन्नः प्रदेशस्त्ती नाच्चिक: कीवंगान: कर्य की कल्पनाम ।।१४।। ताचिकटयं नाव्यवा भदवास्याद नावदाया न पक्षः क्षमः | प्रातना प्रकारप्रतिक्षपकल्पटनिष्टविताशेषरं पाप्तितः ||१|| भित्रं तं गंदाधयथा-
हम नैयायिक तो कह सकते है कि घी डालने से परपर मिरित ज्वाला की श्रेणी में व्याप्त महाकाय अनि न तो निर्यक जलती है, न तो अघोदिशा के अभिमुम्ब जलती है । मगर उद्भन होकर उर्ध्व दिशा के अभिमुग्न जलनी नहीं है • ऐसा नहीं है । मनलब कि अनि कः केवल उर्च जलन क्रिया होती हैं । पत्रं आकाश में घूमनवाला पवन अधोगनि नहीं करता है कि निर्यक दिशा में ही गान करता है । ऐसी प्रतिनियत दिशा में गनि ही अपने नियामक अदृष्ट की बना रही है, क्योंकि नियामक अदृष्ट के आकृप गति का कभी भी अग्नि, पवन अतिक्रमण नहीं करना है ।
इस तरह गनि अदृष्ट में नियम्य होती है यह सिद्ध होने में ही क्रिया : गति के प्रति अदृष्टवाले जीव के मंयांग कां कर्म का असमवायिकारण अवश्य मानना ही होगा । दिना असमनायिकारण के तो किसी कार्य की उत्पान नहीं होनी है । भोक्ता के अदृष्ट में गतिमान अग्नि आदि की गनि जहाँ होनी है वहाँ स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध से अदृष्ट (पुण्य-पाप) व
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* म्यादादरम्नाकरसंवादः शृणुत पूर्वमपूर्वमिहेदृशं मनु विलक्षणमेव समीक्ष्यते । अधि / विलक्षणतेव पणाङ्गना, परकटाक्षविलक्षणवीक्षिणी र कुलवधूरिख नायकमात्मनः सुरतरगतरङ्गतरहिमणी । यदि न मुञ्चति हेतुमियं न तत्कथमहो न कृति प्रति चेष्टते ॥२६॥
-* गया * स्तदानीं पश्यादिः स्थानद्गुणाकर एव । पश्चतस्वंय सत्यात्मभावे किं कर्तव्य भारतदन्यन पुरा ||१६|| (प्र.न.त../८या.. प्र. ) इत्यादिकम् । अधिकं तता वसंयम् ।
माननं प्रकरणकार: पूर्व कारिकाविकोपातिं नयायिकमतम'पाकर्तुं कारिकासनकनापक्रमत - गृणुतति । पूर्व = || प्रथमं मा ! नयायिका ! यूयं शृणुत, अदृष्टं हिस्सयमयोगदानलं इस पचनपि वर्तते । ततः तत्रादयध्वंगमनं न्याय । एवं पवनतियामनकारणा:दृष्टस्य स्थाश्रमगंगाननः नलपि सन्चन नयापि नियंगनिः स्यादव । वातः नभिगकरणाय वया स्थाकायमेव यदत अनलार्ध्वगमन देकारणादा । बिलक्षणमंब अपूर्व - अदाटं इह = अनिलोतबग्गमनादी दर्श = कारणमिनि ममीक्ष्यने । परन्तु अयि ! मुन्धा; : परकटाक्षविरक्षणाक्षिणी - पनत्वसम्बन्धमा सम्बद्भस्य परस्त कटार या विलक्षणता तस्या अबलाकिनी राम्पादिका च पणाङ्गना = या इव, अपूनिष्टा विलक्षणता अपि म्याश्रयसमापिसंयोगसम्बन्धना सम्बदरूप त्यादी या विलक्षणता उध्वाभिमुखत्वादिलक्षण तम्याः सम्पादिका स्पादेव । चिलमागमदृष्टमेवदृशं यत् असम्बद्धपि नियतकादिकमसाद दित्य व कल्यमितमहंनि । तथा च नात्मवभवसिद्धिरित स्याद्वादिनी गूदा भिनाय जायत ।।२।।
नन्चियं चिलक्षणता नपणाङ्गना किन्नु कुलपय ने नयायिकाशङ्कायो म्यादाटी बनि - यदि सुरतरङ्गतरङ्गतर्रागिणी = कागकलिकलाकटाशकुलद्रयप्रवाहिनी कुलवधूरिन इयं = विलक्षणता आत्मनः = स्वस्य नायकं हतं = गमनादिकारण नमुधति. तत् तस्मात् कथं नु अहा : कृति प्रनि न चपत : इत्पन्वयार्थ: ! आर्य भावः या कलमा स्वस्वामिपरिहारिणी नैव भवनि तययं विलक्षगना उध्वंगमनादिकारणतान्याना व भवतानि स्वात्रियते तदा विलक्षणता कयमदष्टमि प्रनि न नष्टन : अदृष्ट इन कृतावपि गमनादिहतुत्यस्या:विशंपात । ननश्च कृत ननच गम्बन्धन कारणाना प्राधा । न मानवति वाच्यम्. ध्यानांवंशास्टिान प्रयत्नेन यहिता पृष्टघटस्फांटनादानन याचारात । न चैतद यथानुपपत्याननियमे - नात्मविभुत्वसिद्धिरिति वाच्यम, नस्पत्यावश्यसिदत्वान । न च कृतरण्यदृष्टचत्यक्षत्वमिनि न न्यभिचार इति बायम तथा पनि अयोगालको आमवान बलग्त्यिस्यापि प्रमात्वा नरिति दिक ॥२६।। समराय सम्बन्ध मे अदृष्टविशिष्ट आत्मा के गंयोग की सिद्धि होती है । यह नय उत्पपत्र हो सकता है यदि आत्मा को कायपरि-माणवाली न मान कर विभुपरिमाणवाली मानो जाय, क्योंकि अग्नि. पवन आदि भोक्ता के शरीर में दर दात हैं। इस नरह आत्मा का विभु पग्मिाण ही सिद्ध होता है ।।
स्याद्रादी :- ओ नैयायिक ! पहले म क्या कहते हैं वह मुनिय । सच बात यह है कि यहाँ चरा विलक्षण ही । अदृष्ट कारणविधया देखा जाता है । इसका कारण यह है कि आत्मविभुत्वपक्ष में जो अदास स्वाधयसंयोगसम्बन्ध में अग्नि में रहना है वही पवन में भी उसी सम्बन्ध में रहना है । नब वह अग्नि की भाँति वायु में उभ्यं गति ही क्यों न उत्पन्न करेगा? अनः मानना होगा कि भग्नि की उच्च गति के कारणीभूत अदृष्ट में वायु की निर्यग गनि का कारणीभूत अदृष्ट विलक्षण है। इस नगह जब विलक्षणना का अदृष्ट में ग्वीकार करना नैयायिक के लिए आवश्यक ही है नव हम स्यादाद नयाथिक में यही कहते हैं कि जैसे पणांगना - वेश्या पतिनसम्वन्ध से असम्बद्ध परपुरुप के कटाक्ष की चिदक्षाना को देखती है ठीक वैसे ही विलक्षणता अपने आश्रय भए से असम्बद्ध = अदएविशिमा संयुक्त अग्रि, वायु में गति की विलक्षणता - उर्वाभिमुखत्व, तिर्यगभिमुखत्यादि का मग्पादन करेगी। इसमें क्या क्षति है। मतलब कि अदृष्ट की विलक्षणना ही ऐसी है जिसकी वजह अदृष्ट स्वाधया मयुक्त गहि आदि में गतिविशेप को इत्पत्र करता है । तब आत्मविश्व की सिद्धि कैसे हो सकेगी ? कथमपि नहीं होगी ।२।।
यदि नयायिक की ओर से यह कहा जाय कि -> "जम कामक्राडा की करा के तरंगवास नदीतुल्य कुलवधू अपन नायक = स्वामी को छोड़ती नहीं है ठीक बग ही यह विलक्षणता भी हैन को छोड़ी नहीं है यानी ऊर्वज्वलनादिकारणतावच्छेदकीभूत विलक्षणना अचंचलनादि के कारण में हो रही है - नर ना यहाँ पश्न यह उपस्थित होगा कि विलक्षणना अपने भावविधया अदृष्य को पसंद करती है टीक वग है। कृति प्रयत्न का चयों पसंद नहीं करनी ? कृति भी नयायिक मतानुगार कार्यमाः
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... मध्यमस्बाहादरहस्य खण्डः ३ . का.१५ * दाभितिम्पाद्धादमराबादः
कुलवधूरये नेयमहो तव व्यभिचचार विचारय वारय । सभिदि रूपशिदैव निबन्धाने न हिरिरंसति पूर्वविवोढरि ॥२७॥
तमेष तस्मानियम स्वभावविजृम्शितं चारु चरीकरीति । सा हेतुता चेत्प्रकृते तथापि स्ववृत्तिरूपेण वरीवृधीति ॥८॥
* जयलता हैअही : वस्तुत इयं = विलक्षणता तब कुलवधूरपि = अर्ध्वगत्यादिकारणत्वाऽपरिहारिणी अपि न, यतः सा व्यभिचचार तासविलक्षणताशालिनो दुष्टस्य द्वीपान्तरवर्तिमुक्ताफलोगमनक्रियाजनकवाभावनान्वयन्यभिचारादिति त्वं योग ! विचारय ।
__यनु आत्मनोऽविभृत्य नानादिग्वर्निदहनादिषु ज्वलनादिक्रियाणां युगपदतृष्टवदात्मसंयोगाभावाद् युगपदनुत्पनिप्रसङ्गः, आत्मगुणम्य साक्षात क्रियाद्वारकस्याश्रयसंपांगेनैव क्रियाजनकत्वस्य प्रयत्नस्थलं दृष्टवादिति प्राचां वचनं ननु 'जनयतु प्रयत्नो यधा तथा, अदृष्टं तु यथाकथञ्चित् परम्पत्या स्वाश्रयसंयोगादेव जनयति, अतिप्रसजस्तु बपि तुल्य' इनि ग्रन्यन शिरोमणिनंब दूषितम् ।
अतो नैयायिकमन्य : अन्चयन्यनिवारं वारय = अपसारय । 'समवायनो चलनत्वावच्छिन्ने यल: स्वम्पविशेषेण हेत कल्पयित्वा :तिग्रसङ्गवारण तु वृधव विशिष्यान्दष्टहतत्यप्रत्याशा इत्याशयन च्याद्वाद्याह . सभिदि = पबनादिभेदवति वही रूपभिदा = स्वरूपावशषण एव निबन्धने = उध्वंज्वलनादिकारणत्व नपारिकन स्वीक्रियमाप तु पूर्वप्रदर्शिता विलक्षणता न हि = ने पूर्व विवाढरि = पूर्व स्वाश्रयत्वन प्रतिपन्नं अदष्टं प्रति रिरंसति = रन्तु आश्रयितुं इच्छति. तस्या विलक्षणताया वहिनिष्ठत-गि बहरूनलनायुपपने: । अदृष्टस्य कारणत्वानभ्युपगमे: बहरबोर्वज्वलने नान्यस्येति व्यवस्था स्यादव, समचायनीर्वस्वलनत्वावच्छिन्न प्रति म्यमपविगषावच्छिन्नस्यान्यनारावादिनि भावः ॥२७॥
तस्मात् कारणात एपः = ‘स्वभावविशेषणचंचलनत्वावच्छिन्नं प्रति कारणन्यविचार , स्वभावविजृम्भितं नं = पूर्वा. चायविदितं नियम = कार्यकारणभावं चार चरीकरीति - अत्यन्तं चास्तामापादयनि । तदनं श्रीमल्लिपेणमूरिभिः 'अथास्त्येव प्रमाणं बहरूज्वलने वायोस्तिर्यकपवन चावटकारिमिति चत् ? न, तया: तत्स्वभावत्वादर तत्सिद्धः दहनस्य दहनशक्तिवत्' (अ.व्य... न्या.मं. पृ.१३.) इनि ।
ननु तथापि प्रकृते = बढेरू ज्वलनादी सहेतुता तु अन्गिकार्य यति चेत् ? न, स्ववृत्तिरूपेण वह्नित्वादिना कारण अतिधर्मण ऊज्वलनादिनिरूपितकारणता वर्गवधीति = अत्यन्तं वर्धत मरुत इति यावत् । समवायनाश्यञ्चलनत्यान्छिन्न
का कारण है हो । तर तो अर्थान्तर आदि दोप आदि उपस्थित हो जायेंगे ॥२६॥
मगर वस्तुस्थिति को लक्ष्य में लिया जाय नब तो यह विलक्षणना तुम नैयायिक लोगों की कुलवधू भी नहीं बन सकती है, क्योंकि वह न्यभिचारिणी है । इसका कारण यह है कि नायिकाभिमत विलक्षणता का आश्रय अदृष्ट जैसे स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध से अग्नि में रहना है दीक वैसे ही उसी सम्बन्ध से बही अदृष्य पचन में भी रहता है फिर भी पवन में सर्वगमन क्रिया नहीं होती है । इसलिए अन्वय न्यभिचार दोप अनिराकार्य है। है नैयायिक ! तुम यह सोचो और उमका निशरण कगे । यदि उक्त अन्बय व्यभिचार टोप का वारण करने के लिए नैयापिक की ओर से यह कहा जाय कि → 'जैसे उध्वंगमन में अदृष्ट कारण होता है टीक वैसे ही स्वरूपविशेप भी प्रयोजक होता है। यह स्वरूपत्रिदीप अग्नि में ही रहता है, न कि पवन में। इस तरह उर्ध्वगमन में स्वरूपविशेष से वह को कारण मानने से उपयुक्त अन्यय व्यभिचार का अवकाश नहीं रहता है। सामग्री के विरह में कार्य की उत्पत्ति कैसे हो सकती है?' -तर ती चिलक्षणता, जो नैयायिक का कुलवधू के रूप में अभिमत है, अपने पूर्व स्वामी अदृष्ट को नापसंद करेगी। मतलब कि उक्त विलक्षणता की वहि में ही कल्पना की जा सकती है। विलक्षणता कहाँ, या स्वरूपविशेष कही अर्थ में कुछ फर्क नहीं है। अर्थात विलक्षणता = स्वरूपविशप में रहि को ही ऊर्ध्वगमन का कारण मान लेने पर भी अग्नि में ही चलन की मंगति एवं पवन में ऊर्ध्वगमन की आपनि का परिहार मकिन होने मे पतदर्थ अदृष्ट में उबलनारि के प्रति कारणना की कल्पना अनावश्यक है। नब आत्मविभुत्व को कहाँ अवकाश है ? ॥७॥
इस तरह अदृए को बीच में लाये बिना ही रहि के कबज्वलन आदि की संगति हो जाने में स्वभाव से ही कार्यकारणभाव बहुत अच्छी तरह उपपन्न हो जाता है। फिर भी सहेतुता का यहाँ नैयापिक को आग्रह ही हो तो भी स्ववृत्तिरूप = निष्ट धर्म में ही कार्यकारणभाव मुमकिन ही है। जैसे कि समराय सम्बन्ध से उज्वलनत्वापन्छिन के प्रति तादात्म्यन
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सम्मानित तसवादः
तेन चेद्भुवनमस्ति समस्तं स्वस्वभावविहितस्थिति नूनम् । तर्हि गर्हितमिदं किल सर्व हेतुमीलनमिति प्रतिचक्रे ॥२९॥ स्वेन सम्भवति हि स्वकधर्मे नर्मकर्मण परः क इवास्तु | स्वप्रकाशनिपुणाः खलु दीपा न प्रकाशमपरं मृगयन्ते ॥३०॥ मृत्पिण्डेऽप्रभवति सति चक्रं दण्डश्व वस्त्रखण्डश्च । प्रभवन्ति हि परमाणौ यणुकाविभवनि तु न परे ॥३१॥ * जरालता श्र
=
तादात्म्येन वह्नित्वेन रूपेणहेतुत्वसम्भवनादृष्टकारणत्वाऽयगात् ||२८|| तेन स्ववृत्तिरूपेण समस्तं भुवनं = कार्यजातं नूनं स्वस्वभावविहितस्थिति समाहित स्थिति तत् भुवनं इति अस्ति चेत् १ तर्हि किल इदं वनादी सर्व हेतुमीलनं अटकानापादनं ० स्वाश्रयसंयोगन कार्येण सह मीलनं अदृष्टसमवायिसंयोगासमवायिकारणतानिरूपणं च इति गर्हितं प्रतिचक्रे तिरस्कृतमेव दर्शनत्यर्थज्वलनस्य स्वभावनय देशप्रतिनियमान् ॥ २९॥
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=
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=
तदेव समर्थयति स्याद्वादी स्वेन स्ववृत्तिरूपेण त्वादिना हि = एवं स्वधर्मे वज्वलनादी सम्भवति = नागमाने सति परः अदृष्टादिः कोऽस्तु ? नर्मकर्मणीच खियः साकं कामक्रीडाक्रियादा स्वाधीने सति यथा कोऽपि परं नाप तथैव स्वरूपेणैव स्वस्मात्कार्यसम्भवे परमदृष्टादिकं नैवानलादिरपेक्षनं न खलु = तंत्र स्वप्रकाशनिपुणाः दीपाः स्वकायाः परं प्रकाशं मृगयन्ते । एतेन स्वधर्मोत्पतिः स्वरूपेण स्वाधीना कथं स्यादित्यपि प्रत्युक्तम्, प्रकाशशक्तिवत्तदुपपत्तेः ||२०||
मूर्ति
ननु थालीनत्वनैव स्वस्मिन्नू ज्वलनादिकं जनयति नापरमदृष्टादिकमपेक्षते तथैव मृत्पिण्डो रूपेण मुत्पादयेत् अपरं दण्डवस्त्रादिकं नैवापेक्षत इति नैयायिकाङ्कायां स्वाद्वाडी प्राह - मृत्पिण्डे - इतरनैरपेक्ष्यण घटोत्पादं प्रति अप्रभवति असम सति हि = एव परे चक्रं दण्डश्व वस्त्रखण्ड प्रभवन्ति = घटोत्पादनकृतं व्याप्रियन्तं किन्तु द्वयणुकाविर्भाविनि वकाविर्भावनं प्रति प्रत्यले सति परमाणी परे दण्डचक्रवखण्डादयों न हि = लैब प्रभवन्ति = व्याप्रियन्तं परमशुद्रस्यैव यणुकं प्रति समर्थत्वात् । ततश्च यदुपादानकारणमितरानपेक्षया स्वकार्योत्पादने नालं तदेव परमपेक्षते किन्तु यदुपादानमितरा साहाय्येन स्वधर्माविर्भावने शतं तत्रैवान्यं तदर्धमपेक्षते न वा तद्विलम्बेन कार्यं तत्र विलम्व्यत इति फलितार्थः । अतो नलादेः स्वरूपेोर्ध्वज्वलनादिकं प्रत्यन्यनिरपेक्षतया समर्थत्वान्नादृष्टादिकं तत्रापेक्ष्यते अन्यथा घटादष्यपेक्षा
=
प्रसङ्गात् ।
किञ्च यथा शैलादिव्यावृत्त देवकुलायनुवृत्तं कृतबुद्धिजनके सकलजनव्यवहारनिद्धं प्रायोगिकत्वमेव प्रयत्नजन्यतावच्छेदकमिति सम्मतितर्कवृत्तावुक्तं तथैवार्ध्वज्वलनादिक्रिया व्यावृत्तं देवदत्तगत्यायनुवृत्तं वैजात्यमेवाः दृष्टजन्यतावच्छेदकमित्यभ्युपगन्तुमर्हति ।
त्वेन कारण है । समवाय सम्बन्ध से तिर्यग्गमनत्वावच्छिन्न के प्रति तादात्म्यसम्बन्ध से वायुत्वेन वायु कारण है.. इत्यादिरूप से कारणवृत्ति धर्म से ही कारणता का स्वीकार करने से पवन में ऊर्ध्वगमन की या वहि में तिर्यग्गमन की आपति नहीं रहती है ||२८||
इस तरह कारणवृत्ति धर्म से ही समस्त भुवन के कार्यों की उत्पत्ति की उपपत्ति होने से अपने स्वभाव में ही सारा जहाँ स्थित हो जायेगा । अदृष्ट की सब कार्यों के प्रति कारणता को मान्य कर के अदृष्ट हेतु का स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध से कार्याधिकरण में मीलन करने की जो नैयायिक प्रक्रिया है वह गर्हित हो जायेगी, क्योंकि अदृष्ट में कारणता का स्वीकार किये बिना ही स्ववृत्ति धर्म रूप से वृद्धि के ऊर्ध्वज्वलनादि की संगति हो जाती है ||२९||
रूप से वति से ही स्वधर्म ऊर्ध्वज्वलनात्मक कार्य की उत्पत्ति हो जाय तब अन्य अदृष्ट आदि की अपेक्षा वह्नि क्यों रखे ! अपने धर्म की उत्पत्ति अपने में हो सम्भावित हो तब पर की अपेक्षा क्यों की जाय ? क्या प्रिया के साथ कामक्रीडा स्वाधीन हो तब तदर्थ कोई भी पति अन्य मित्र आदि की सहायता की अपेक्षा रखता है ? जिस तरह प्रदीप अपने को दिखाने में अन्य प्रकाश की अपेक्षा नहीं रखता है ठीक वैसे ही वह अपने ऊर्ध्वज्वलन में अन्य अदृष्ट आदि की अपेक्षा नहीं रखता है। तब अदृष्टकारणता का प्रतिपादन अरण्यरुवनतुल्य ही सिद्ध होगा ||३०|
हाँ, अकेला मृत्पिण्ड घट को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होता है । इसलिए वह चक्र, दण्ड, वत्रखण्ड आदि की अपेक्षा रखता है मगर परमाणु तो द्व्यणुक की उत्पत्ति में अन्य चक्र, दण्ड, कुलाल आदि की अपेक्षा रखता नहीं है, क्योंकि
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'४५ = मध्यमल्याद्वादरहस्ये खण्डः ३ का..? * यं गदागंगद *
परे पुनः पाहुरिदं वचस्वितो तो संस्किया जातु विनात्मवैभवम् । धृतावघातोचितवतिरात्मनो न गोरखादन्यगता तु कल्प्यते ॥३२॥
* जयलाता नतो नायंचलनाचनुरोधेन नैयापिकान्तरीत्या त्मवैभवसिद्धिः । एतेन नोदनाभिधात्वगत्यत्वगुम्ल्वप्रयत्नादटानां नोदनत्वाभिवानत्वादिभिः प्रत्यकरूप: क्रिमालावछिन्न प्रति कारणत्वं न सम्भवति, अनकंपा तधामककार्य प्रति यत्र प्रानिमिकरूपेण कारगना नत्रककाग्णविन्हे पि कारणान्नण कार्योत्पत्ततिरकन्यभिचारादिनि क्रियायां वंजात्यं कल्पयित्वा ननविजातीयक्रियावारभिन्न पनि नोदनवादिना कारणल कल्पनीयं ग्यादित्यनककार्यकारणभावप्रसक्त्या गाग्वम् । त्दपक्षया नादनादानां गुणवज्याप्येकजातिरूपण क्रियान्वायदिन प्रति तत्वकल्पनमंच लाघवान्न्यायम । तथा च बदम्ज्व लनपि क्रियात्वरूपकायंता. वच्छेदकाकान्तम् । न च तब नोदनाद्येकनपि दृष्ट कारणमनुभूयत इत्यदृष्टमेव गुणत्वव्याप्य नातिरूपण कारणगङ्गीकार्यम् । नम्य । | समवागनीध्वंज्वलनाधिकरतो वहीं स्वाश्रयसयोगेनर नित्वमात्मनो विभूत्वमन्तरेग न सम्भवतीति नसिद्धिरित्यपि परास्तम्, गुणसाक्षात्कारजनकतावादिन्या रग़ इकर्येण तवाहनुत्वाऽसिद्धः । यदि चादृष्टहेतुत्व एवाग्रहस्नत्र तब तदास्तु कार्यसामान्यजनकतावच्छंदकसम्बन्धन तन । न हि गोपि स्वाश्रमसंयोग एव, आकाशगतान्दा ज्याप्तः, अजसंयोगनिषधन परेरास्माकाशमयांगस्यानभ्युपगमान, कालाकाशदिशामिवादृष्टस्यापि कार्यसामान्यजनकतावच्छंदकसम्बन्धस्यानिरिक्तस्यैव सिद्भः । परम्परया अदष्टस्य गगनसम्बद्धत्वकल्पने पृधनकारणताकल्पनागौरवात । अत एव योगशास्त्रे 'न ज्वलत्यनलस्तिर्यग यदृचै बाति नानिलः | अचिन्त्यमहिमा नत्र धर्म एव निवन्धनम || (४/९७) इति श्रीहम्चन्द्रसूरिक्तमपि व्यारत्र्यातम् ।।
वस्तुताउनलानिलयोर्गतिवसनामकर्मोदयात्मकम्वादविशेषण साक्षादेव क्रियाजननं न तु देवदत्ताउदष्टविशेषगति न कार. प्यनुपपत्तिः । अत एव तयारनन्यप्रतिगतिमत्त्वेन मचिनत्वं नत्र तत्र प्रसिद्धम । नच जीवविग्रामस्नगस्टयाव्यभिचार इति शङ्कायम. यदाकदाचिजाववत्तस्य साध्यस्य चियक्षिनत्वेन तन्ग्रन्यवात : नहाया क्रियावत्वच प्रयांगाहितबगबशादित्यादि विभावनीयम ॥३क्षा ___प्रकरणकार आत्मविभुन्यबादिना 'परेषां मतं नानिमकारकपः यः - गरे पुगे पविनः = बाचा; इदं अनपदं वक्ष्यमाणं प्राहा नधाहे आत्मवैभवं विना संस्क्रिया = ब्रीह्यबहननजन्यसंस्कारी न जातु = कदाचिन उपपद्यते । न चावघातक्रिययात्राहावेव संस्कार उत्पद्यतां तंत्रंब समवायन भबघाक्रियायाः सन्चात् इति वाच्यम, ब्रीहीणामनेकत्वेन तत्र नानासंस्कारांपादकल्पने गौरवात् आत्मनोऽन्यगता = आत्मभिन्नवीहिसमवेता संस्क्रिया तु न कल्प्यते - नानुमीयते । अत | आत्मन एब धृतावघातोचितवृत्तिः = प्राप्तावघात-क्रियान्वृित्तितानिरूपिताधिकरणताकत्वं अनुमीयते । समवायेन त्रीहिनिष्टानहन्नक्रिया समकागिसंयोगसम्बन्धेनात्मनि वर्तते । अतस्तत्रात्मन्येव समवायन संस्कार उत्पद्यते । एतेन कार्यकारगयोयधिकरण्पमपि प्रत्युक्तम्, नानासंस्कारोत्पादा-कल्पनेन लाघवाच । कायपरिमाणस्यात्मनो दूरस्थत्रीहिसंयुक्तत्वविरहण संस्कारानत्पनिप्रसङ्ग इत्यत आत्मवैभवसिद्धिरिति पराशयः ॥३॥
वह स्वयं ही द्वयणुक को उत्पन्न करने में समर्थ है। परमाणु जैसे व्यणुक की उत्पत्ति में समर्थ है ठीक वैसे ही अनि भी अपने उज्वलन आदि में समर्थ है। अतः मृत्पिण्ड की तरह वह अन्य किसीकी अपेक्षा नहीं रखेगी । तब अदृष्ट में कारणता का आविर्भावन करना निरर्थक ही है। अत: अदृष्टनिष्ठ स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्न कारणता पर निर्भर आत्मवैभव भी धराशायी हो जाता है ||३१||
- अवधारविचार कुछ गाचाट लोगों का यह कथन है कि -- 'यज्ञ में त्रीहिकर्मक अपहनन क्रिया से जो संस्कार उत्पन होता है वह आत्मा को विभ माने बिना संगत नहीं हो सकता है। मतलब यह है कि ब्रीहि के अवयात = ताइनविशेष से ब्रीहि में संस्कार की उत्पत्ति मानने में गौरव है । अतः यही मानना होगा कि आत्मा ही अपघातयोग्य वृनि को धारण करती है। मगर ताइन क्रिया व्रीहि में होने से संस्कार की उत्पति आत्मा में मानने पर वैयधिकरण्य दोप प्राप्त होता है । उसके निराकरणार्घ यही मानना होगा कि जहाँ अवघात क्रिया हो रही है वहाँ भी आत्मा का अस्तित्व है । तब अवच्छेदकतासम्बन्ध में आत्मा में भी अवघात क्रिया रह जाने से आत्मा में संस्कार की उत्पत्ति हो सकती है । इस तरह शरीर के बाहर भी आत्मा के अस्तित्व को मान्य करना होगा । अपातक्रियाजन्य संस्कार के अनुरोध से शरीर के बाहर आत्मास्तित्व सिद्ध होने पर तो अनायास ही आत्मविभपरिमाण सिद्ध हो जायेगा' -॥२॥
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* अवघातस्य संस्कारजनकानीकारः *
अनुकुरुते ऽनभ्युपगमविधुरितवाचाटवचनविन्यासम् ।
अत्रोत्तरम् तदिदं गुर्जरनारीकुचयोर्निष्कचुकीकरणम् ||३३|| अपि चेयमहो परम्पराहितसम्बन्धमपेक्ष्य लाघवात् । सकलाश्रयनाशनाशभाग् निखिलव्रीहिगतैव युज्यते ||३४||
ॐ जयलता
→
५२.१
अन स्याद्वादिनः प्रतिविधानम् → तदिदं अनुपदोक्तं अनभ्युपगमविधुरितवाचाटवचनविन्यासं गुर्जरतारीकुचयोः निष्कचुकीकरणं अनुकुरुते । यथा परेणानाहूताऽपि गुर्जरनारी स्वाभिलपितसिद्धिकते आत्मनः स्तनद्वय पाटीद्घाटनानन्तरं | परेणानङ्गीकृता निष्फलकामा विल्लीभवति तथा स्याद्वादसदसि अनाहूता अपि परे वमनीपतात्मभवसिद्धये अवघातजन्यसंस्का रानुपपत्तिगृह्मप्रकटनानन्तरं स्याद्धादिना सन्मानितमनीकृतं संस्कारनिष्ठावघातजन्यत्वमवगत्य निरस्तमनोरथा विभवन्ति । | न हि प्रतिवादिना पदनभ्युपपदेनमति, अतिप्रसङ्गादिति स्याद्वादिनोऽभिप्रायः ||३३|| वस्तुतः स्याद्वादिभिः तानविशेष एवाऽवघातपदार्थ: स्वीक्रियते न तु संस्कारजनकनाउन व्यापारविशेषः । तथापि प्रौढिवादन परोक्तनिराकरणार्थमुपक्रमत प्रकरणकारः कारिकाद्भयेन अपि च किञ्च समवायेन संस्कारीपदी त्राही स्त्रांक्रिपदा तत्कारणतावच्छेदकसम्बन्धः समवायः आत्मनि तदङ्गीकारे तु स्वमत्राविसंयोगस्य तथात्वमिति कारणतावच्छेदकसम्बन्धगौरवम् । अतो लाघवात् निखिलीडिंगतैव इयं वातजन्य संस्क्रिया युज्यते स्वीकर्तुम् । न त्वकत्रीहिसमवेता नवान्भरामवता । एवञ्च निखित्रीहिसमवेता संस्क्रिया सकलाश्रयनाशनाशभाग भवति स्वरूपेण संस्कारनाशं प्रति प्रतियोगि नया स्वाश्रयनाशस्य कारणत्वात् । यदि चैकस्मिन्नात्मनि संस्क्रिया समवेता स्वीक्रियते तर्हि निखिल ब्रीहिनाशस्य स्वप्नतियोगिसंयोगसम्बन्धेन तन्नाशकत्वमङ्गरिकर्तव्यं स्यादिति नाशकतावच्छेदकसम्बन्धगौरवमपि । अपि च सर्वेषामेवात्मनां विभुत्वपक्षे ब्रीहिसंयुक्तत्याचेच निष्ठसंस्कारनादी त्रीयन्तरावचातजन्या मैादिता संस्क्रिय नश्येत । एतेन स्वप्रतियोगिसंयुक्तसमवेतत्व- स्वप्रतियोगिसमवेतावद्यातजन्यत्वोभयसम्बन्धेन निखिलव्रीहिनाशस्य प्रतियोगिता संस्कारनाशं प्रति कारणत्वमित्यपि प्रत्युक्तम्. गौरवात् । किचात्मवित्वपक्षे श्रीह्मवघातेन स्वसमवायिसंयोगसम्बन्धेन सर्वेष्वात्मसु संस्क्रियामा उत्पत्तिरनिराकार्येव सम्बन्धान्तरकल्पनेच गीरयम् । ततो निखिलग्रीहिंगतेय संस्क्रिया स्वीकर्तुमर्हति । न चैकी हिंसमवेतत्वमेव संस्कारस्याऽस्त्विति वाच्यम् विनिगमनाविरहेण
मगर इसके समाधानार्थ कहा जा सकता है कि हम त्रीहि में अवघातक्रिया से संस्कार की उत्पत्ति को ही नहीं मानने हैं । जब उसकी उत्पत्ति ही स्वाद्वादी को अमान्य है तब 'उसकी उत्पत्ति व्रीहि में नहीं बल्कि आत्मा में होती है'यह मुखरपुरुष का वचनविन्यास विधुरित विह्वल हो जाता है। जब गुर्जर नारी अपने दोनों स्तनों को प्रकट करती हो और सामनेवाला पुरुष उसका स्वीकार न करे तब वह गुर्जर स्त्री जैसे विल बन जाती है ठीक वैसे ही अपने गुप्तसिद्धान्त को जब नैयायिक उपर्युक्त रीति से प्रकट करते हैं और हम उसका अस्वीकार करते हैं तब वे भी विश्वल बन जाते हैं । प्रतिवादी जिसका स्वीकार ही नहीं करता है उसके बल पर प्रतिवादी के सामने कैसे अपने अभिमत पदार्थ की, जो प्रतिवादी को अनिष्ट है, सिद्धि बादी कर सकेगा ? तर वादी विवश ही बन जाता है यह तो स्पष्ट बात है ||३३||
व्रीह्नि में अवघात क्रिया से स्याद्वादी संस्कार की उत्पत्ति वास्तव में मान्य नहीं करते हैं। फिर भी अभ्युपगमवाद से उसका स्वीकार कर लिया जाय तब भी सरकार की उत्पत्ति सब व्रीहि में ही माननी युक्त है, न कि आत्मा में । इसका कारण यह है कि अवघातक्रिया साक्षात् = समवाय सम्बन्ध से क्रीहि में ही रहती है, न कि आत्मा में आत्मा में तो वह स्वसमवायिसंयोगसम्बन्ध से रहती है, जो परम्परा सम्बन्ध है । इसके स्वीकार में कारणतावच्छेदक सम्बन्ध में गौरव होता हैं। इसकी अपेक्षा लाघत्र से समवाय को ही संस्कारनिरूपित कारणता का अवच्छेदक सम्बन्ध मानना मुनासिब है । समवाय सम्बन्ध से अवइनन क्रिया (= ताइनक्रियाविशेष) व्रीहि में होने से त्रीहि में ही समवाय सम्बन्ध से संस्कार उत्पन्न होगा । जीहि में संस्कार उत्पन्न होने से संस्कार का नाश भी सकलजीहिनाश से ही हो जायगा। संस्कार को आत्मसमवेत मानने पर तो परम्परासम्बन्ध से सकलत्रीहिनाश को आत्मा में रख कर उसे संस्कारनाशक मानने की क्लिष्ट कल्पना करनी पड़ेगी, जिसमें गौरव है । वह परम्परासंबन्ध होगा स्वप्रतियोगिसंयोग । स्व = सकलब्रीहिनाश के प्रतियोगी निखिलव्रीहि से संयुक्त आत्मा में अखिलजीहिनाश स्वप्रतियोगिसंयोगसम्बन्ध से रह कर आत्मा में संस्कारनाश उत्पन्न करेगा । इसकी अपेक्षा लाघन से सकलत्रीहिनाश को प्रतियोगिता सम्बन्ध से ही जीहिसमवेत संस्कार का नाशक मानना मुनासिब है। संस्कार का आश्रय एवं सकलब्रीहिनाश का प्रतियोगिविधया आश्रय सकल व्रीहि होने से नाश्यनाशकभाव की संगति हो सकती है । इस तरह
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५०.२ मध्यमस्थाद्वादरहस्ये खण्डः ३ . का.५५ *प्रतिष्ठागः पूजाफालप्रपा मकत्वम *
तेन न समप्रति सकतत्वाद गौरवमेध विभाञ्च विभाव्यम् । दोषकृते व्यवहारावलोपात् कार्यमुखं हि न ततावदन्ति ॥३१॥ अथ कथमपि सर्वतीहिसंस्कारयोगो यदि लघु लघुभावात् कल्पते कश्चिदेक: । तदिह निजनिवासात् कर्षयंशलाममेकं युवरवणसमूहाभ्यागमन्यायभूमिः ॥३६॥ यतः -- अनुरुगन्दिन वैभवमात्मनः स हि भवमानयोः परमन्तरा । न युवतीस्तनयोर्टढपीनयोलवणिमा परमन्तरमपेक्षते ॥३७॥
-* जयलता - प्रतिनियतकाहिसमयतत्वानुपपने:. एकत्रीहिनाशे संस्कारनाशापनेश्च । एतेन प्रतिष्ठाकारपितृगतादृष्टमेव पूजाफलप्रयं जामति प्रत्युक्तम्, परणं तदभावाददृष्टनाझी प्रतिमापूज्यतानापनेः तन्मत चाण्डालस्पादिना व्यधिकरणन तन्नाशायोगाच्च । वस्तुत: प्रनिष्ठनत्वज्ञानाहितभक्तिविशेषद्वारा प्रतिष्ठाया: पूजाफलप्रयांजकत्वं अस्पृश्यस्पर्शादिप्रतिसन्धानस्य च भक्निविशेषन्याघातकत्वेनाइनुपपनिविरहादियधिकं 'कल्याणकन्दल्यां बक्ष्यामः । एतेन संस्कारस्यैकात्मसमवेत्तत्वकल्पनापेक्षया सकरवासियतत्वकल्पन गौरबमयपि प्रत्युक्तम्, उक्तरीत्या नस्य फलमुखत्वेनाइदोषत्वात् ॥३४॥
एतदव ममर्धयति - तेन = संस्क्रियाया निखिलवा हिमवतत्वस्यैव प्रदर्शितरीत्या यूक्तिसिद्धत्वन, सम्प्रति अवपातजन्यसंस्क्रियाया नैकगतत्वाद् = निरिबलबीहिसमवेतलान गीरवमेव इति विभाज्य आत्मसमवेतल्वं न विभाज्यम, व्यवहारबिलोपात् सकलीहिनादास्य ब्राहिंगतसंस्कारनाशकत्वल्यवहारविल्यापत्ते: । यद्वा 'यत्रैव क्रिया तंत्रय संस्कारोत्पादों यथा गर क्रियासन्द तत्रैव गोत्राद' इत्यादिप्रसिद्धव्यवहारस्य विलोपापा: । न हि कार्यमुखं - फलमख = कार्यकारणभावनिश्चयाधीनं तत् = गौरवं दोषकृते = दोषाय इनि प्रवदन्ति मनीषिणः, बाधकावतारे लाघवसहस्रस्याकिश्चित्करत्वात्, अन्यथा द्वैतदर्शनप्रवदाप्रसङ्गान् । एतेन व्रीहिसमयतायातनात्मनि संस्कारीत्पादान्यधानुपपत्त्या आत्मविभुत्वसिद्धिरिति पराकृतम् ।।३।।
पद्यक्तियेन नयायिक आत्मविभुत्वं साधयति - अथ कथमपि = येन केन प्रकारेण, लरभावात् = लाघवात् याद कश्चित् एकः सर्वव्रीहिसंस्कारयोगः सकलतीहीणां अवमानजननसंस्कारसमवायित्वं लघु कल्पते ख्याद्वादिनां तत् = तादृशकल्पनं इह = प्रकृते निजनिवासात् एकं छागं कर्षयन् = बहिर्निष्काशयन् युवरवणसमूहाभ्यागमन्यायभूमिः = मदोद्भुरक्रमलकवृन्दसमागमदृष्टान्तस्थानं, रौतात्यशीलो खण:क्रमेलक: दीर्घग्रीव इति वचनात् ।।३।।
कथमत्रोक्नन्यायापात: ? इत्याशङ्कायामाह नैयार्षिक: - यतः = यस्मात्कारणात, परं स: = अवधानजन्यः संगकार: अनयोः आत्म-ब्राहिसमूहयोः अन्तरा = असंयुक्तत्वे सति न भवन् = अनुत्पद्यमान आत्मनो विभुत्वं सर्वमूर्नमयोगित्वं यह संस्क्रिया संपूर्ण ब्रीहि में ही समवायसम्बन्ध में रहती है - यह सिद्ध होता है ॥३॥
इस तरह युक्ति से सिद्ध होता है कि अवधातजन्य संस्कार सकल ब्रीहि में उत्पन्न होता है तब इस वचन का कि -> 'आत्मा में संस्कार की प्रत्पनि नानने में लाधव है। इसकी अपेक्षा विचार करने पर अनंक ब्रीहिसमतत्व की संस्कार में कल्पना करने पर गौरव है' - तो उद्धावन ही नहीं करना चाहिए, क्योंकि तब तो ब्रीहि में अवयात करने से व्रीहि में संस्कार उत्पत्र होता है एवं सकल ब्रीहि के नाश से उसका नाश होता है, जिसमें क्रिया होती है उसीमें संस्कार उत्पन होता है - इत्यादि प्रमिङ व्यवहार का बिलय हो जायेगा । इसलिए कार्यकारणभाव, प्रसिद्ध व्यवहार आदि का निर्वाहक होने में उपर्युक्त गौरव दीप के लिए नहीं होगा। अत: अवघातजन्य संस्कार में सकलनीहितमवेतन्य की कल्पना ही संगत प्रतीत होती है ||३५||
मात्मवैभव के बिना शरीर में किया जागुगफिता नैयायिक .. पेन केन प्रकारण आप स्याद्वादी लाघन से अवघातक्रियाजन्य संस्कार को सकल त्रीहि में मानत है, जो लघुभाव से एक ही है। मगर यहाँ आएकी यह कल्पना - अपने घर में एक बकरे को निकालने पर युवान ऊंट का समूह घर में घुस जाये इस न्याय की भाजन बनती है ।।३६।।
इसका कारण यह है कि अवघातजन्य सरकार आत्मा और वीडिसमूह के बीच अन्तर रहने पर उत्पन्न नहीं होना हुआ आत्मा के विभुपरिमाण का अनुरोध करता है। जैसे युवती के दृढ एवं पुष्ट दो स्तन का लावण्य दोनों स्तना के बीच में अंतर की अपेक्षा नहीं रखता है। मतलब कि पुरती के स्तन नम्र एवं अल्पपरिमाणवाले होते हैं तब उन दोनों १. देषिप, पाटदाकप्रकरणात ओठवा थोडशक कल्याणकन्दलीटीका पृन-१८६
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*** अयस्कान्तदृन्तविचारः *
विना विभुत्वमात्मनोऽणुभिस्तमाप्तसंयुतैः । न चाद्यकर्मसम्भवस्ततः कृतस्तनुर्ननु ? ॥३८॥ अत्रोत्तरम् → अयस्कान्तमयस्कान्तमाकर्षीत न संयुतम् ।
आकर्षणेन तत्प्राज्ञः संयोगव्याप्यता मता ॥३९॥
ॐ जयलता
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अनुरुणद्धि = अनुमापयति । अत्र दृष्टान्तमाह दृढपीनयो: युवतीस्तनयोः लवमा परमन्तरं नापेक्षते नैवापक्षत | = व्यवधानाभावमपेक्षत एवं यथा ललनाकुचकलशयां शिथिलसंकुचितयोः व्यवहितत्वे लावण्यत्वं नैव भवत्किन्तु विर्यये सत्येव । तथा संस्कार्यधान्य- पुरुषयोः परस्परमन्तरितत्वे सति व्रीहिंसमवेतसंस्कारणात्मगुणी खाडी नैव सम्भवति, अतिप्रसङ्गात् किन्तु परस्परं संयुक्तले सत्येव तदुपपत्तिः सुकरात आत्मनो विभुत्वमेव सिध्यति ॥३७॥ ॥
ननु आत्मनो विभुत्वं विना नाशुभि: आयकर्मसम्भवः, अदृष्टवदात्मा संयुक्तत्वात् । ततः कुतः तनुः = भवान्दीयशरीरसम्भवः ? अयं नैयायिकाशय: आत्मनी देशपरिमाणत्वं दिग्देशान्तरवर्तिभिः परमाणुभिर्भुगपत्संयोगविरहादाद्यकर्माभावस्तदभावादन्त्यसंयोगस्य तन्निमित्तशरीरस्य तेन तत्सम्बन्धस्य चाभावादनुपायसिद्धः सर्वदा सर्वेषां मोक्षः स्यात्, सावयवत्वेन तद्विनाशे "परलोका भावरपातन नास्तिकत्वकल्पकालिमा व न निर्मल करणाय प्रभू प्रभुणाऽपि । आत्मवित्वपक्षे तु नैतद्रवकाशः यतः तं = वैभव आप्तसंयुतै: वैभवमाप्तं येनादृष्टशालिना आना तेन साकं संयुतैः = संयुक्तैः देशान्तरवतिभिः अणुभिः युगपददृष्टवदात्मसंयोगादायकमेतिपादः तती विभागः ततः पूर्वसंयोगनाशः तत्त: उत्तरसंयोगस्य द्वारम्भकस्योत्यायतती कोत्पत्तिः एवमन्त्यसंयोगेन भवान्तरीयशरीरनिष्यति तेनात्मसम्बन्धश्रेत्यविकलमान्वीक्षिकी विद्यालयत्येवेति आत्मवैभवपक्ष एव विजयततरामिति नैयायिकाशमः ||३८||
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न हि यद्येन संयुक्तं तदेव त प्रत्युपसर्पतीति नियमः सम्भवी अवस्ान्तं प्रत्ययस्कान्तस्याऽसंयुक्तस्याऽयुपपणीप लब्धेरित्याशयेन स्याद्वादी अत्रीसरं व्याचष्टे अयस्कान्तं न संयुतं संयुक्तं भिन्न अयस्कान्तमाकर्षति किन्त्वयुक्तमंत्र ।। तत् = तस्मात् कारणात् प्राज्ञैः आकर्षणेन संयोगव्याप्यता मता. आकर्षणस्य संयोगव्याप्यत्वम् । संयोगश्चाप्राप्तयोः प्राप्ति: । अतः पूर्वमसंयुक्तपरिवाकर्षणं कारणान्तरण सम्भवति नतु स्वेन संयुक्तस्य । अनंन कुतो न स्वसंयुक्तस्पायस्कान्तस्यायस्कान्तान्तरेणाकर्षणं सम्भवतीत्याशड़का निरस्ता प्राप्तयो: संयोगान्तरोत्पत्तिसम्भवागावातू । अन आत्मनो विभुत्वे अण्वादीना
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502
स्तनों के रीच अंतर = रिक्त स्थान रहता है, जिसकी वजह प्रेक्षक को वहाँ लावण्य का दर्शन नहीं होना हैं। ठीक वैसे ही आत्मा और व्रीहि के बीच अंतर हो यानी आत्मा विभुपरिमाणचाली न हो तब तो व्रीहि में संस्कार की उत्पति ही नहीं हो सकती है, क्योंकि संस्कार व्रीडिसमूह में होने पर उसके कार्य की उत्पत्ति आत्मा में नहीं हो सकती है, जो प्रकृत दृष्टान्त के लावण्यस्थान पर अभिषिक्त है। इसलिए आत्मा को विभु माननी आवश्यक है ||३७|
ॐ भवान्तरीय शरीर का जन्म
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दूसरी बात यह है कि आत्मा में विभुपरिमाण का स्वीकार न करने पर अनेक परमाणुओं में शरीरारम्भक आय क्रिया कैसे उत्पन्न होगी ? क्योंकि आत्मा शरीर से अन्य देश में रहती है यह मानने को आप स्थाद्वादी तैयार नहीं है, जिसकी वजह परलोक में प्राप्त होनेवाले शरीर के आरम्भक परमाणुओं से आत्मा संयुक्त हो सके तब तो शरीर की निप्पति ही कैसे होगी ? भवान्तरीय शरीर की निप्पति न होने पर तो परलोक का ही उच्छेद हो जायगा, जिसकी वजह नास्तिकता की आपनि से अपने को बचाना स्याद्वादी के लिए मुश्किल न जायगा । हम नैयायिक तो कह सकते हैं कि विभुत्व की प्राप्त = विभु अदृष्टवाली आत्मा के संयोगवाले अनेक अणुओं में स्वाश्रयमंयोगसम्बन्ध से अदृष्ट रहना है, जो उन परमाणुओं में आय क्रिया को उत्पन्न करता है । बाद में परमाणु में पूर्वदेशविभाग, बाद में पूर्वदेशमंयोगनाश, बाद में उत्तरदेश में अन्य परमाणु से संयोग, बाद में द्वयणुक की निप्पत्ति इस तरह क्रमशः त्र्यणुक, चतुरणुक एवं अन्नतां गत्वा भवान्तरीय शरीर की निष्पत्ति होगी, जिसकी वजह परलोकाभाव या तन्मूलक नास्तिकता की आपत्ति नैयायिकपक्ष में नहीं आयेगी । मगर आत्मा के विभुपरिमाण का अस्वीकार करने पर यह सब नामुमकिन सा बन जायगा । इसलिए आत्मा को विभु माननी आवश्यक है ||३८||
★ स्वाश्रयसंयोग से अदृष्टकारणता नामुमकिन स्याद्वादी
स्याद्वादी : नैयायिकों की यह मान्यता कि क्रिया के प्रति अदृष्ट स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध से ही हेतु है' - इसलिए
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७०४ मध्यमस्यादादरहस्य खण्डः . का.१५ ** स्यावादरत्नाकरसंवादः *
-* जयलाता | गाकर्पोद 7 रामपनि, राहा सन्निहितत्वानेपानित्यादिकमुक्तमेव पूर्वमत्रानुसन्धयम ॥३५।।
गनेनासंयुक्तस्याकाणे तळीरारम्भं प्रत्यभिमुरवीभूतानां निभुवनीदरवर्तिसकटापरमाणुनामाकर्षणप्रसङ्गान जाने तच्छरीरं कियत्प्रमाणं स्यादिति प्रत्युक्तम्, आत्मना व्यापकत्वेन सकलपरनाणूनां तेन संयोगानदोषस्य विभुत्वपक्षेपि ममत्वान् । न च तद्भावाविशेषेप्यदृष्ट्वशाद्विवक्षितदारीगटादनानुरणा नियता एवाग्गव उपसर्पन्तीति वात्र्यम्, अन्यत्रापि तुल्यत्वात् । एतंन । देवदनं प्रत्युसर्पन्नः पवादयः तद्गुणेनाकृष्टा इत्यपि प्रत्युक्तम् । तदुक्तं वादिदेवसूारेभिः देवदत्तशरीरसंयुक्तात्मनदेवो वर्तमानमदृष्टं दशान्तरवर्तिपश्यादिषु देवदनं प्रत्युपसणवत्स क्रिगहेनुस्त देशान्तरवर्तिपश्वादिसंयुक्तात्मपदंश किंवा सर्वत्र ? नत्राय: पक्षो न श्रेयान. अतिव्यवहितत्वेन तस्य प्रारभावानाकर्षणतत्वासम्भवात् । अध स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धसम्भवानदभग्यो मिशः, तदसत, तस्य सर्वत्र सद्भावतः सर्वस्याकर्षणप्र सक्नेः । 'यददृष्टेन यज्जन्यते नदष्टन तंदवाकृप्यने न सर्व इति अवद्यम, दबदनापभोग्यपश्वादिवारीगरम्भकपरमाणनां नित्यत्वेन तददष्टाजन्यनयाकर्षणामावग्रसहगात् । तथापि अकर्षणे:निप्रमङ्गः । अथ यदेव योग्यं तदेवाकृष्यते, तदवद्यम्. स्वरूपमहकारियतिरिक्ताया मान्यतायाः त्वयानभ्युपनमात । नम्याश्च विवक्षिताकृष्ठमाणपत्रार्थवदविवक्षिनेऽपि भावात् । द्वितीयपि यथा वायुः स्वयमुपसर्पजन्य पा तगादानां तं प्रत्युपगणतः । तना दृष्टमपि स्वतं प्रत्युपसर्पदन्यषां उपसपणहतः देशान्नबर्निद्रव्यसंयुक्तात्मप्रदेशस्थमंच शब्दवत्प्रतिक्षणमन्यदन्यात्वद्यमानं वा ? प्रथमपक्षे सक्रियत्वं - ना दृष्टस्य वायुवत् द्रव्यत्वापत्या गुणत्वं वायत्त । किञ्चदं स्वयमब तं प्रत्युपसपंत्यदृष्टान्तग़द्रा ! स्वययास्य नं प्रत्युपसर्पण देशान्तरवर्तिपश्चादीनामपि तथैव नत्प्रसङगाददृष्टकल्पनावफल्यम् । तं प्रत्युपसणवत्वादिति हेतुश्च सयभिचारः । अदृष्टान्तरानस्य तं प्रत्युपसर्पण नवस्था तस्याप्यदृष्टान्तरानं प्रत्यूपसर्पणप्रसङगात । अथ देशान्तरवर्निपश्वादिलंयुक्तात्मप्रदेशवास्थमेव ननंपां तं प्रत्युगसणहेतुः । नवम, अन्यत्र प्रयत्नादौ गुणे तश्राइनभ्युपगमात । न खलु प्रयत्नो ग्रारादिसंयुक्नात्मप्रदेशस्थ गान ग्रामाद: देवदनमुखं प्रत्युपसर्पणतः, अन्तगलायलंचफल्यामड़गान । अथ प्रयत्नवचित्र्यदरेग्दष्टेऽप्यन्यथा कल्पनम् । तथाहि कश्चिन्तयत्न: स्वयमपरापरदेशवानपरत्र क्रियाहतः। यथा नन्गदिता-परश्चान्पधा यधा शरासनाध्यासस्थानसंयुक्तात्मप्रदास्य पत्र दागदीनां लक्ष्यप्रदेशप्राप्तिक्रियाहेतुरिति चेत् ? तहीये विचित्रना पश्वादिसमाकर्षणहत भूनगुणानां स्वाश्नयसंयुक्तासंयुक्तपश्या द्यायप्रणहेतुत्वेन किं नष्यत ? विचित्रशक्तिवाद्भावान्गम् । नयादर्शनाभावादिनि न वाच्यम, अयस्कान्तस्पर्शरणस्य स्वाश्रयासंयुक्तलोहदव्यं प्रत्या. कर्षणदर्शनात तथास्त्र द्रव्यमाकरणकारणं न स्पर्शगणा द्रव्यरहितस्य तस्याष्टिहतत्वादर्शनात् । एवं तर्हि तत एव प्रयत्नस्यापि न ग्रासाद्याकर्षणनिमित्तता स्यात् 1 नधा च ग्रासादिवदिति दृष्टान्त : साध्यविकलो अंचल । अध द्रव्यस्य नत्कारणले प्रयत्न. रहितस्यापि ततासक्तिरिति चंन ? रूपहरहित्स्यायस्कान्नस्यापि किन नासक्तिः तहतस्य तस्यादनायं दोष इति चेत् ? दृष्टिश्चेत् प्रमागं तर्हि लाहद्रव्याकर्षणोत्पत्ताभयं दृश्यन इत्युभयमपि ननत्र कारणमस्तु विशेषाभावात् । तथा च नं प्रत्युसर्पणवच्चादिति व्यभिचारी हेतुः । तृतीयपक्षेपि हान्दवदपरापरम्योत्सनावपरमदएं कारणं नदत्पनी प्रसस्तं तत्रालयपरमित्यनवस्था, अन्यथा शब्दपि किमदृष्टलक्षानमिनपरिकल्पनया : अत्र सर्वत्रा दृष्टस्य वृनिस्तर्हि सर्वदल्यक्रियाहेतुत्वं यददृष्टं तद्न्यमुत्पादयति तनत्रैव क्रियामुपरचयतीत्यभ्युपगम शरीरारम्भकेषु परमाणुषु क्रिया न स्यादिति प्रागचोक्तम् । (प्र.न.त../८ स्या.र.पू.५.६७) इन् ि।
ननु प्रयत्नादृष्टादीनां कृतित्वादिना प्रत्यकरूपणाकर्षणत्वावच्छिन्नं प्रति कारणत्वं न सम्भवति, कारणान्नररिह यि कारणविशेषण कार्योत्पत्तेर्व्यतिरेकव्यभिचारादिति आकर्षणे वैजात्यं कल्पयित्वा तत्तद्विजातीयाकर्षणत्वावन्छिनं प्रति कृतित्वादिना
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अप्रामाणिक है कि जैसे लोहचुम्बक अपने से असंयुक्त लोहचुम्बक में भी आकर्पण क्रिया को उत्पन्न करता है। ठीक वैसे ही अदृष्टशाली आन्मा भी परमाणुओं से असंपुस्त होने पर भी उनमें आकर्षण क्रिया को उत्पत्र कर सकती है। यह जरूरी नहीं है कि अदृश्शाली आत्मा का परमाणुओं से संयोग होना ही चाहिए । इसलिए दरदेशवी परमाणुओं से आत्मा को असंयुक्त मान कर उनमें परस्पर आकर्षण क्रिया की उत्पनि हो जाने से आत्मा के विभुपरिमाण की सिद्धि नहीं होगी। दूसरी बात यह है कि आकर्पण क्रिया संयोग की ज्याप्य होती है. यह प्राज्ञ पुपों की मान्यता है। मतलब कि आकर्षण क्रिया मे सयोगनामक गुण की उत्पत्ति होती है । संयोग का मतलब है अप्राप्तपदार्य की प्रालि । यदि आत्मा को विभु मानी जाय नब तो दूरस्थ परमाणु ही नहीं, सभी मूर्न पदार्थ आत्मसंयुक्त हो जायेंगे । मतलब कि परमाणु आदि आत्मप्राप्त ही है, अप्राप्त नहीं। तो फिर उनमें आकर्पण क्रिया कैसे उत्पन्न होगी १ दरम्य पदार्थ का, जो अपने में असंयुक्त है, आकर्पण होता है, न कि स्वसंयुक्त पदार्थ का। इसलिए आत्मविभुत्त्वपक्ष में तो आकर्षण क्रिया ही नामुमकिन हो जायेगी ।।३।।
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* आकर्षणम्य गानित्यानाकार: उत्क्षेपणत्वादिकजातिसइकरादाकर्षणत्वं च न जातिरीक्ष्यते । व्योमादिना संयुतिरस्ति चान्तत: संकल्पितव्याप्तिहतिर्न वा तत: 1001
- गवलता *भारणत्वकल्पने नानाकार्यर भिवप्रसङ्गः । अत आकर्षणत्वावच्छिन्नं प्रति कृत्यदृष्टादीनां गुगत्यच्याप्येकजात्या हेतुत्वं लाघवाकल्यते । तथा चायस्कान्ताकर्षणम्यागि कार्यताबन्छन्दकाक्रान्तत्वन कृत्यादिविहात्तत्रादृष्टमंच गुणत्वव्याप्यजातिरूपेण कारणमहागाकार्यम । तस्य च समबानाकर्षणाधिकरण यस्कान्ते साम्पाश्रयसंयोगनच । नमात्मनो विभुत्वमन्तरण न सम्भवतीत्यात्मनी विभुत्वसिद्धिरित्याशङ्कायां म्याद्रादी ग्राह-न च कृत्यदृष्टादिजन्यताबन्छेदकं आकर्षणत्वं जातिरीक्ष्यते = जानित्वन कल्पयितुं दशश्यम्, उत्क्षपणत्वादिकजातिसकरात् । स्वयं अनलाक्षेपणे आकर्षणत्वं नास्ति, उत्क्षेपणत्वं चास्ति. पर्णस्याध आकर्षणक्रियायामाकर्षणत्वमस्ति, उत्क्षेपणत्वं वास्ति ! प्रस्तगतरूवमाकर्षण त्वाकर्षणत्यमुत्क्षेपणत्व स्न इत्यत्क्षेपणल्वेन साइकर्यमाकर्षणस्वस्य । एबमबक्षेपण नापिना सममपि नल्याइकर मोटा । तप कर्षणत्वावच्छिन्नं प्रति कृत्यदष्टादीनां गणल्यव्यायचजात्यन कारणत्तसम्भवः ।
किञ्च गुणसाक्षात्कार जनकतावच्छदिकया जात्या साङ्गकर्येण कृत्यदृष्टादीनां गुणलव्याप्पजातिविशेषरूपेण तत्कारगत्वमपि न सम्भवति । तथाहि गुणसाक्षात्कारं प्रत्यदृष्ट-भावना-गुरुत्व. स्थितिस्थापकसंस्काभिन्नगुणानां विषयविधया कारणत्वे तत्रा:प्युन. रीत्या रूपतादिना प्रत्यकम्पण कारणत्वे व्यतिरेकन्यभिचाराद योग्यगणगतेन गुणत्वव्याप्यकंजात्या कारणत्वनदानीकर्तव्यम् । तथा च गुणमाक्षात्कारजनकतावच्छेदकजाति बिहाया दुष्टे वर्तमानस्याकर्षणकारणतावच्छेदकबजात्यस्य भाकर्षणजन्यतावच्छेदकबंजान्यं परित्यज्य रसादी वर्तमानस्य गणसाक्षात्कारकारणतावच्छन्दवजात्यस्य च कृत्यादी सन्चन साहकर्यान्न कृत्यदृष्टादीनां गणत्यव्यायकवजात्यन हेतुत्यसम्भव उत्पावधेयम ।
न वा आत्मनो व्यांमाटिना साध संयतिः = संयोगः अस्ति, अजसंयोगानपंधन पर कादयात्मसंयोगस्यानभ्युपगमात तथा नाकाशसमवेतशब्द व्यभिचार:, शब्दस्याष्टकार्यमामान्यान्तर्गतम्य ममवयनाश्रये गगने स्वाश्रयसंयोगेना-दुष्टस्याःसन्नात् । ततोऽन्ततो गत्वा नैयायिकः सङ्कल्पितव्यातिहतिः समवेतकार्यमा प्रत्यदृष्टस्य कारणवनिश्चम नयायिकोपकल्पितः स्वमंगप| सरतीति न तन्मूलात्मनो विभुत्वरिद्विरिति स्याद्वादिनोऽभिप्रायः ॥१०॥
इसके अतिरिक्त बात यह है कि आकर्पणत्वावच्छिन्न के प्रति भी अदृष्ट को कारण नहीं माना जा सकता, क्योंकि आकर्पणत्व जाति ही नहीं है। इसका कारण यह है कि आकर्षणत्व का उन्क्षेपणत्व भादि के साथ सांकर्य होता है। वह इस तरह . स्वयं ऊर्ध्वगामी अमि की उन्क्षेपण क्रिया में उन्क्षेपणत्व है मगर आकर्षणत्व नहीं है । पेड़ के पत्ते को नीचे की ओर खींचने पर उस क्रिया में आकर्षणन्त्र रहता है मगर उन्क्षेपणव रहता नहीं है। इस तरह उत्क्षपणत्व और आकर्षणत्व परस्पर न्यधिकरण धर्म सिद्ध होते हैं। फिर भी पत्थर आदि को नीचे से उर्ध्व दिशा की ओर खींचने पर उस क्रिया में उन्क्षेपणत्व और आकर्षणत्व दोनों ही रहते हैं । परस्पर व्यर्थिकरण धर्मों का एक अधिकरण में समावेश होने पर दार्शनिक जगत में सांकर्य का व्यवहार होता है, जो नाति का गधक है । अतः आकर्षणत्व को जाति नहीं मानी जा सकती । अत्तएन 'आकर्षणत्वनामक गति से अपच्छिन के प्रति अदृष्ट निमित्तकारण है' . पह नैयायिकनियम अमिद्ध हो जाता है।
*शहद के प्रति अटकारणता व्यभिचारग्रस्त - स्यादादी* यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि समवतकार्यमात्र के प्रति अदृष्ट को स्वाश्रयसयोगसम्बन्ध से कारण मानने पर शन्दोत्पत्ति में व्यतिरेक व्यभिचार भी प्रसक्त होता है। इसका कारण यह है कि नैयायिक विद्वानों ने विभु द्रव्यों के संयोग का निषेध किया है, क्योंकि 'अप्रामयोः प्राप्ति।' यह संयोगलक्षण रहाँ नहीं रहता है। अतएव अदृष्ट भी स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध से गगन में नहीं रह सकता है। फिर भी समवाय सम्बन्ध में शब्द की उत्पति गगन में होती है यह तो नैयायिक को मम्मत है। कार्यतावच्छेदक सम्बन्ध से कार्य के अश्किरण में कारणनारच्छेदकसम्बन्ध से कारण के नहीं होने पर भी यहाँ कार्य की उत्पनि का होना ही तो न्यतिरक व्यभिचार दोष है। इस तरह अदृष्टकारणता व्यतिरेकभिचारग्रस्त होने पर नैयायिकों से संकल्पित व्याप्ति को = समवेतकार्य के प्रति अदृष्टकारणता के नियम को अन्ततो गत्वा न्याहत बनने के लिये विवश बनना पड़ता है। तब अदृष्ट में समवतकार्यत्वावच्छिचकार्यतानिरूपित स्वाभयमयांगसम्बन्धावच्छिन कारणता के बल पर जो विभुत्वसिद्धि नैयायिक को अभिमत थी यह सिद्ध हो मकती नहीं है। अतः आत्मा को कायपरिमाणवाली मानना ही युक्त है-यह हम स्यावादियों
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७०.६ मध्यमस्थाद्वावरहस्य खण्डः . . का. * पायकन्टाहाका मान-यपाहा*
(शा) अधात्मनोनिजकायमानता भवेतनोः खण्डलमगसहगरे ।
सुयोधहोर्मण्डलकुण्डलीभवन्दनुः प्रकाण्डोद्रतकाण्डताडले ॥४॥ अहङ्गीकारपरास्तं गोत्सहते किल तदेतद्वत्थातुम् । छिन्ने खलु नो चेच्चेष्टा कधमुदेतु ? ॥४२॥
तत्राष्टिाकृष्तस्वान्तागमनिर्गरायुपगमस्तु । अज्ञानमेव गमयति योगानां गोरखविगीत: ॥४३॥
- जयलता *वरनुनी यस्कान्नकृत्यदृष्टान मेकशक्तिमत्त्वाकर्षणहतुत्वम् । एतन शत्रुजिघांसया कृतेन इयेनयागेना दृष्टजननानस्य शनासम्बन्धात्कारमात्मविश्वं बिना क्रियाकलापपनि रियपि प्रत्याख्यातम, अनिनिहापापस्य कारणावरयासम्बन्धेऽप्यविरोधात सम्बन्धटितत्व वा तस्य प्रकृत-पि फल्योग्यतास्न्यः कश्चित्सम्बन्ध: कल्पनाम । एतेन 'विभुत्वश्चात्मनो बहेरून ज्वलनाद् वायोस्तिर्यगमनादवगतम् । न हावटकारित । न व नदाश्रययासम्बद्धं अदृष्टं तयोः कारणं भवितुमर्हनि, अतिप्रसङ्गान् । न चात्मसगवेतस्याटस्य साक्षात अन्यान्लगसम्बन्धी धरत इति स्वाश्रयमायबारेण नस्य सम्बन्ध इत्यायातम् । ततः समस्तमुनंद्रन्यसम्बन्धलाणमान्मनो विभुत्वं सिध्यताति (न्या. कं. .२१८) न्यायकन्दलीकारवचनं निरस्तम् ।
कचत्वारिंदाचमनछन योगः शतं -> अथ आत्मनो निजकापमानता चेत् ? नहि अगसहरे = प्राणियुद्धे तनो: सुयोधदोर्मण्डलकुण्डलीभवद्धनुःप्रकाण्डोद्नकाण्डनाउने = सुभटवायुगलयोः कुण्डलमिव भवतः प्रकाण्डचापादुत्क्षिनः शरैः प्रहार पति शरीरस्यात्मनोऽपि खण्डनं = बिनाशः भवत् । तथा चात्मना नित्यत्वासाः परलोकाभावश्च दुर्वागविति नैयायिकाशयः ॥४२||
अत्र म्यादिनः प्रत्युनरः - नंदनत् अन्तरी किल अङ्गाकारपरास्त = थञ्चिदभ्युपगमनिरस्तं उत्धातुं = स्यादादिमनपगारणाय नात्सहत - न शमीभवनि । ना चन् आन्मनः कश्चित्खण्डनं, कथं खलु छिन्नं गोधार = गृहगाधिकापुच्छादी चेष्टा कम्पादिस्वरूपा देतु ? र स्यादिनानभिप्रायः शरीरस्य खण्डन कथञ्चिदात्मखण्डनभिमतमब । शरीरसम्बद्धात्मप्रदेशेभ्यो हि कनिपयात्मप्रदशानां खण्डितशरीरप्रददाऽवस्थानात आत्मनः खण्डनम । तच्चान विद्यत्त एव । अन्यथा शगंगाधरभूतावस्वस्य कोपलब्धिर्न स्थान । शरीरारारिणः सर्वथा भेदे नच्छेदादिना कथं तस्य दःखम् ? 'परापरासम्बन्धन तदात्मसम्बन्धादि ति चेत् ? साक्षादव कथं न तत्सम्बन्धः ? शरीरावयवच्छंद एव हि शरीरात्पधग्भूतस्यावयवस्य कम्पपलब्धिरपीत्वमवोपपद्यते नान्यथा, प्रक्रियया अप तन्मात्रोपग्रहं विनाऽभावात् तस्यैकान्तनित्यत्वं तु श्रुतिबाधितम् । तदुक्तं 'असहदभग्रे आसीत्तता शे सदजायत (ते. २.७) इति तैत्तिरीयोपनिषदीति दिक ।।४।।
ननु च्छिन्न शरीगत्गृधाभूतावयव आत्मनी मनः प्रविशति तदनुभावानेव तत्र कम्पोपलब्धिः ततस्तन्निर्गमे तु निश्चेष्टतब तस्यत्वमपि वक्तं शक्यते शरीरात्मनोः सर्वथा भेदे । अदृष्टस्यैव तन्त्रियामकत्वेनानतिप्रसङ्गात् इति नैयायिकागवायां स्याद्वादी
का अटूट सिद्धान्त विजयी बनता है ॥४||
नैयायिक :. यदि आत्मा को शरीखमाण मानी जाय तर तो प्राणियों के युद्ध में जब अपने वारीर में प्रतिपक्ष के सुभट के दोनों दृढ हाथ से कुण्डल की भाँति बलाकारप्राप्त प्रकाण्ड धनुप से निकले हुए राणों का प्रहार होता है तब जैसे शरीर के खण्डशः टुकड़े हो जाते हैं ठीक वैसे ही आत्मा का भी खण्डन = टुकड़ा हो जायेगा । फलतः आत्मा में अनित्यल की आपत्ति आयेगी। यही आत्मा को शरीपरिमाणवाली मानने में गधक है ||२||
.मा का करांवित छेद अभिमत - स्वादादील स्यावाटी :- मगर नैयायिक का उपर्युक्त आक्षेप अभ्युपगम में पराहत हो जाने की वजह हम स्याद्बादी के प्रति अनिष्टापादन करन को खड़ा होने के लिए भी उत्साहित नहीं हो रहा है। मतलब कि वारस आदि के प्रहार से शरीर के टुकड़े हो जाने पर आत्मा का भी कथभित् खण्डन होता ही है . यह हम स्याद्वादी को इष्ट है । यदि आत्मा का छेद कथमपि न माना जाप तब ती गोधा = गिगेली की छिन्न पुच्छ के टुकड़े में कम्पन आदि बंश कैम उत्पन्न हो सकेगी ? क्योंकि शरीर तो जड है। शरीर से पृथक पास्वछिन्न अवयव में चैतन्य न माना जाय तब घट आदि की भाँति उसमें भी कम्पनादि की उत्पनि हो नहीं सकती। मगर होती है। इसीसे सिद्ध होता है कि शम्रहत अवपत्र में भी आत्मा रहती है ॥४ना।
नैयायिक :- शस्त्र में छित्र अवयव में कम्पनादि चेटा होने का कारण यह है कि भोका आत्मा के भदृए से मन, जो मूल शरीर में रहता था, स्वण्डित अवयव में जाता है जिसकी वजह से वहाँ कम्पनादि बेटा उत्पन्न होती है। जब अदृए की वजह वह मन खदित अवयन से निकल कर मूल शरीर में चला जाता है उसके बाद पण्डित अवयव में कम्पनादि
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* आत्मनः खण्डनसमर्थनम
खण्डितमपि तमखण्डितज्ञानशालिनो बुवते ।
न हि पद्मनालतन्तौ च्छेदाच्छेदौ न संसिदो ||४४|
खण्डनं न पृथग्भावो बहिर्निर्गम एव तु । सहोचितप्रदेशस्य तत्र न अपमानता ||85|| * जयलता
प्राह तत्र
मौगानां
च्छिन्नावयचे. अदृष्टाकृष्टस्वान्तागमनिर्गमाभ्युपगमः - आत्गसम्वेता पूर्वनियन्त्रितमनः प्रवेशबहिर्निर्गमम्बीकारः तु शेवानां अज्ञानमेव गमयति ज्ञापयति । अज्ञानसाधकं तादृशाभ्युपगमविशेषणमाह-गौरवविगीत: अप्रामाणिकगौरक्षणवलपन्धि ताहि छिन्नेऽवयवे यथा कम्पाद्युपलब्धिर्भवति तथा मूलशरीरेऽपि तदानीं सा प्रसिद्धा । | आत्मनो मनरत्येकगणः चेति न युगपदुभयत्र संयुज्यते । अतः प्रतिसमयं मनसी देहतदवयवसीयतायातत्त्वं तत्संयोग - तत्प्रागभावनाशादिकल्पनागौरवम् । वस्तुतो न तयोः क्रमशः चेष्टा दृश्यते किन्तु युगपदेव । अतो युगपदेव तयोः मनःसंयुक्तत्वमभ्युपगन्तव्धम् । न च यौगपद्यप्रत्ययस्य भ्रमत्वं सम्भवति युगपज्ज्ञानद्वयानुपदेऽपि नानक्रिपोत्पादस्य त्वयाऽपि स्वीकृतत्वात् : न च वये युगपदुभयत्र मनः सत्रिकर्षसम्भवः । किव मनस शरीरादन्यत्र गमने दृष्टसहस्राणामकिचित्त्वम् ||४३|| अब हि अखण्डज्ञानशालिनो जिनेन्द्रगगधरपूर्व धरादयः खण्डिनमपि = वागरात्पृथग्भूतावयवावस्थितं तं आत्मानं अखण्डितं नदानीं मूलशरीरस्थासयात्मप्रदेशसम्बद्धं ब्रुवतं "कान्नेनाऽच्छिन्नत्वात् । न हि पद्मनालतन्ती च्छेदाच्छेदी न संसिद्धी किन्तु प्रसिद्धावेव । न च पद्मनारतन्तुः पद्मनालादेकान्तेन छिन्नः पद्मद्वयप्रसङ्गात् । नायंकान्तेनाच्छिन्न एवं तन्तुब्धवहाराभावप्रसङ्गात् । एतेन च्छंदाच्छेदी परपरविरुद्ध कथमेकत्र ? विरोधादिति निरस्तम्, अविगांत प्रत्यक्षस्यैव तद्विरोधापहारित्वात् कथञ्चिदादसंवलनेन निराकाशादवीधोपपत्तेश्च । एतेन तदवयवस्थाः आत्मप्रदेशास्तत्रैव नष्टा इति प्रत्युक्तम्, तेषां नित्यत्वात् कथञ्चिदनित्यत्वञ्च चविकाशभावमात्रेण तथा तथा परिणमनापेक्षया न तु न्यूनाधिकभावनोत्पादविनाशापेक्षया प्रदेशानां नियतसङ्गव्यत्वात् । न च ते सक्रियत्वेनान्यत्र गता इति वक्तव्यम् अन्येषामपि तैः सह गमनं स्यात् नित्यमविष्वग्भावेन तेपां सम्बद्धत्वाभ्युपगमात् । अत एव मनसो यातायानत्वकल्पनागौरव न सावकाशमिति दिक ॥४४॥ |
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तदेव समर्थयति खण्डनं हि प्रकृतं न पृथग्भावः परस्पराऽजहद्वृत्तित्वानेषां किन्तु शरीरसम्बद्धात्मप्रदेशेभ्यो हि कतिपयात्मप्रदेशानां खण्डितावयवपर्यन्तं शृङ्खलावयवत्पान बहिर्निर्गमः एव तु खण्डनपदेनात्र विवक्षितम् । तर्हि मूलका नहीं होता है। इस तरह भी उसकी संगति की जा सकती है, तब क्यों आत्मप्रदेशों की यहाँ जाने की कल्पना की जाय ? स्याद्वादी : यह नैयायिकों की कल्पना उनके अज्ञान की यांतक है, क्योंकि वह अप्रामाणिक गौरव से कलङ्कित है। जब मूलशरीर मे शस्त्रहत अवयव पृथक् हो जाता है तब खण्डित अवपत्र की भाँति मूल शरीर में भी कंपन, गति आदि नेष्टा होती है । मन तो एक एवं अणु होता है इस नैयायिक मान्यता के अनुसार उपर्युक्त वस्तुस्थिति की संगति तभी हो सकती है जब मन प्रतिक्षण मूलशरीर और रूण्डित अवयव में गमनागमन करे । इस तरह अनेक बार मन के अनेक संयोग और विनाश की खण्डित अवयव में कल्पना करने से गौरव तो स्पष्ट ही है। इसलिए नैयायिक के उपर्युक्त वक्तव्य का स्वीकार नहीं किया जा सकता ||४३||
पद्मनातंतु ध्ष्टान्त से आत्मा की खंडिता-अखंडिता मुगकिन
इसकी अपेक्षा तो यही कल्पना करनी उचित महसूस होती है कि मूलशरीर में रहे हुए सर्व आत्मप्रदेशों में से ही कतिपय आत्मप्रदेश खण्डित अवयवपर्यन्त फैलते हैं । इस पक्ष में अनेक बार अदृष्ट से नवीन संयोग की उत्पत्ति एवं विनाश की कल्पना का गौरव निरवकाश है। मूल शरीर से अमुक आत्मप्रदेश खण्डित अवयव में जाते हैं इसकी अपेक्षा आत्मा का खण्डन = छेद कहा जाता है और तब भी वे खण्डित अवयव में रहनेवाले आत्मप्रदेश मूलशरीर के आत्मप्रदेशों से सम्बद्ध होने आत्मा अखण्डित ही है ऐसा अखण्ज्ञानवाले तीर्थंकर गणधरादि महापुरुष कहते हैं । एक ही आत्मा में खण्डितत्व और अखण्डितत्व की कल्पना अपूर्व या अप्रामाणिक नहीं है, क्योंकि कमलनाल के छिन्न तन्तु का छिन्न नाल के साथ छेद और छेदाभाव दोनों ही प्रसिद्ध हैं। जैसे कमलनाल के छिन्न तन्तु एकान्ततः छिन नहीं है और सर्वथा अविच्छिन्न भी नहीं है ठीक वैसे ही आत्मा भी न तो सर्वथा खण्डित ही है और न तो सर्वथा अखण्डित ही किन्तु अंशतः खण्डित और अखण्डित है ॥४४॥
यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि आत्मा की खण्डितता का मतलब यह नहीं है कि जैसे शरीरावयत्र शस्त्र की बदौलत
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मनापाबाराहर५ गत::: . ५ मापसापान स्याहाकल्पसनामगरः * एकसत्तालगामित्व स्मृतं पुनरखण्डतम् । तेन नानात्मतापत्तिन तनुब्दयगामितः ॥४६॥
- जयITI - गावन्कार प्राणसंयोगः तावत्कालं बदिताजयंय कम्पोपलब्धिः स्यादित्यागद काय माह. संकोचिनप्रदास्य - पृथग्भुतहस्नानयज्ञान अदृष्टवशेन समाकुटा: स्वप्रदेशा बन नस्यात्मनः नदानी नत्र = विजनहस्तादी न अपमानता = कम्पमानता, दाना हस्ताद: नेतना भप्रदेशश्न्यन्यात । ।
वाइनपदार्थों का साम्प्रतमखण्डनपदप्रतिपाय निरूपयितुमचार इत्याह अखडनं = अबण्डनपदनिगा पुनः एकसन्नानगामित्वं - मूलागरम्बस्वात्माटदासनहानुप्रचंगनं स्मृतम् । न्न काणन ननुद्वयगामिनः सतः स्वस्य नानात्मतापनिः नच्यावकाशमा । तदनं न्यायखण्डसाय प्रकरणशागणव ->चंदागहावयात्मनः कायच्छेदप्ररोहयाः कश्चिदिष्टाचेच. सान्या . न्यानस्यनप्रदात्यान । इयांस्न विशेषः छिनाररावययगहस्तजातीयोन्यत्तिः आन्गप्रदेशप्ररोहश्च तत्रानप्रवेश | गई ददापि कारस्य छिन्यवान्नान्यनिः जयञ्चिदात्मनश्च शससम्बदामादशानां कतिप्न्यानां छिन्नाबधवानग्रव। दान । यदि च नवं वीक्रियते तदा शरीराधाभदास्यवस्थकम्पोपलब्धिनं स्यान्न, पद्मनालम्वदन्छेदम्यारिखकानंदकान्न दानभ्यपनमादभयावसय. वृत्त्यान्गप्रदेशानां पश्चात्यम्बटगोपनः । आकृष्यमाणप्रदशन्चाचास्य मृतत्व माटमः । अत एव न च्छित्राश्यानामात्मप्रदमानवान प्रवगान्मकताप्रसङ्गः. प्रश्मिनप्रदान्वयव पृथक्त्वलक्षणत्वात्त । न चात्रान्मप्रदेशाः प्रविभक्ताः, शृङखलाग्यवन्याग्न परम्पग जहदवृत्तित्वात. अवस्था देनावस्थायझंदरतु नात्पन्नभेदनियतः, उत्फपविफणावस्थसम्वदिति (म.स्त, ७२.न्या...: । इति ।
स्याद्वादकल्पलतायामपि -> 'नन्च छिन्नावयगनुप्रविष्टम्य पृथगावात सक्ति: स्यादिनि नेत :. तव पश्चादनप्रदान ।। मन रम्नादी कम्पादिनलिमाटनाटित्थं कल्पनात् । न वकन्यादात्मना विभागाभगवानंदाभाव इति वान्यम. इगरदांग' तम्बापि सविमागतात; अन्यथा मावयवशम्न्यागिता नगा न स्यान् । तधा न नदनान्तर्गयामंदी न स्यात् । छिन्ना:छिन्नधीः कथं पान्स पटनम ? डॉट चन ? न. एकान्तमा छिन्नत्तान. 'पद्मनालगन्तवछंद - छंदामुपगमान । गङ्गटनमपि तथा मृनादृष्टवादविरुदमर । 'हन्त ! एवं शगरदाह ग्यात्मदाहः स्यादिति चेत ? ने, सारनीस्योरबा मिनबपि भिन्नलगत्वना तदापाभावादिति' - (शा.स. २-२ स्या.क.ल.पृ.५१. ] इति प्रतिपादितं प्रकरणकांग्णव ।।।
किचात्मना चिमत्व गरवछंदनवन्यावच्छेदनानायुतमादवारणाय ज्ञानादरच्याप्यनित्वं कल्पनामिनि गौरवम । न वसमानाधिकरणामारप्रतियोगित्वरूपं अवन्छिन्ननिकल्यस्वरूपं प्रतियोगिताव टकवच्छिन्नप्रतियोगियामानाधिकरण्यलक्षणं चत्वन्य - देनन । तथा च नानादीनां ज्ञानाद्यभावविरंधाप्यवच्छे टकगर्भ एव कल्पनीय इन्यपि गाग्वम । गरम कितनदा मेरगाव तद्विरो
शरीर में पृथक् हो जाता है जैसे कतिपय अत्मनदेश आत्मा से पृथक हो जाते हैं । खण्टन का मतलब यहाँ यह है कि शरीर ग बाहर खण्डित शरीरावयव तक आत्मप्रदेशों का फलना । सरीर के कहर आत्मप्रदनों का निर्गम ही खण्दनपद के यहाँ अभिगन है । मगर वे जान्मादमा भी सबंदा छिन्त्राचयत्र में नहीं रहत हैं, किन बाद में नहाँ में अपने आत्मपदों को आत्मा खींच लेती है जिसकी वजह याद में पुर्वचन छिन्न अवयव में कम्पमानतः देखी जाती नहीं है ||
अखण्डितत्व का मतय है एवमन्नानगामित्व । अपन पागर में रहें हर एक जीव में खण्डिताचयवम्ध आन्मप्रनगा का पुनः प्रवेश होना ही आत्मा की अवण्डितता है । आन्मा के प्रदेश भी आत्मा की भाँति नित्य हैं । अतः छिन्न अवयव में रहनराले आन्मदगों का भी बाद में नाश होता नहीं है किन्न छिन्न अंशी के माय पनः मंघटन हो जाता है । अप म व नि, रहती है, जिसकी पनह. छिन अंग या छिय अंगी के साथ संघटन होने में कोई राधा नहीं रहती है। इमलिग यहाँ इस का का कि → 'देह अवयर के छद में आत्म अवयव का छेद होता है . मा मानने पर देह के छिन्न अपयर में आत्मा चा जो भाग अन्प्रविष्ट होना है, वह एक पृभग जीन बन नायगा । मुल शर में भी ना आत्मा तो रहती ही है । अतः दो अगर में रहने की वजह अनक आत्मा के स्वीकार की आपनि आयगी' -भी समाधान हो । जाना है, यांकि आत्मा का ना भाग छिन्न दहावयव वं. पाथ शहर आना है वह मूल जाम में मनग्न होने से था? समय के बाद अदृष्टमहिमा न पूर्व शरीर में रहनेवाली आमा में अनप्रविष्ट हो जाता है । यह कन्चना इनाला की जाती है कि देह के छिन्न अवयर में कुछ ममर तक कम होता है और बाद में कम नहीं होता ३ ॥४॥
* ll को यासतhिill अप्रामाणिक -रादादी इसके अनिग्कि आत्मविभाव पक्ष में यह आपनि मुँह फार काही रहती है कि आत्मा नो रुदेह की भांनि अन्यत्र भी रहती है जब दो जैस शरीर में ज्ञान उत्पन्न होता है टीक वर्ग ही शरीर में अन्यत्र भी जानापान का अपलाप नहीं
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*सात्मवानिमजद:* ज्ञानस्याव्यासवृतित्वं नवमित्या लाघवम् । न वा तदनुरोधेनाऽनन्तहेतुत्वकलाता 1891 व्यभिचारि समुदधाते तनुमानत्वमस्ति चेत् ? जैवं तत्रापि सूक्ष्मागसद्भावादिति भावय ॥४८॥
---- - जयला 43धन्य कल्पनालापत्रम. ज्ञानारायच्याग्यनित्वाकल्पनादित्यागयेन स्याद्वादी प्राह ज्ञानस्य उपलनपटान इनष्ठा प्रयत्न सुखादे नयायिकनय यदयकल्पनीयं अव्याप्ववृत्तिन्वं नवं पर्शिनरीत्या अत्र = आत्मनाऽविभुत्वे कम्पनी इनि स्यादादिनये लाघवम ।
किवात्मना विभल अवच्छेदकलासम्बन्धन ज्ञानादी शगंगदर्गप नादान हेतुत्वं कल्पनामिति गौरबम ! दारोगानन्वनय तु नैयं कल्पनामिति लावमिन्याशायनानग़धमाह - न वा तदनुरोधेन = नानादेशव्याप्यनित्यानुरोधेन अनन्तहतुत्वकल्पना स्याद्रादिनये सावश्यकी । नन परनय कथं नदानन्त्यकल्पनामनि चन १ उच्यते, आत्मनी विभूले स्वकीययाः आत्ममनसाः संयोगात स्वशरीरावच्छेदनात्मविषगुणोपनिदझाया परकीयमगरव्यवच्छंदकतासम्बन्धन तदत्पनिवारणाय नछरीरविशिष्टावछेदकतासम्बन्धनात्मविशेषगणपसिएन नि तात्न. नरीमन कारणता वाच्या । नागरं च नेत्रवादिजातिविशेषण ग्राह्य तथा विशेषमागविरहादव तदानीं नादशपम्मागरे आत्मविशेषगणमामान्यांन्पादापन्यसम्भवः स्वात्मसमवेतज्ञानाद: स्वासरावग्हायर सम्भवादवले दकनया नदयनी न तादालयन स्वगर्गरस्यैव हेचान पगत्मसमवेतझानादश्च परदार आपादनम्पवासामधान, रागवायसम्बनमोनोत्पत्ति बिनायवेदकलामम्बन्धनपत्तिविहादिति ननन्गरम्य विदिपध्य हतत्वकलानायां महागीमा मिच सुषुप्त्युपधायकात्ममनःपूर्वसंयोगना झोन्पादकाले तदनां च मुनिकाले आत्ममनोविभागक्षणात्पन्नविशेषगडानादिनः ज्ञानाद्युत्गदप्रसङ्गस्य दुवारत्त्वम, तदानामप्यात्मनि पुरुपान्तरीयमानःपयोगमत्वात् । न च ननन्मनःसंयोगत्वेन लेनदात्मसमबनान्म - विदोपगुगलेन हेतु-हेतुमध्यावानापं दोप इनि बान्यम्, आत्मना विभुतायां स्वशरीग़वच्छेदन स्वात्मनि स्वीयमानःसंगांगात्पत्चिदशामा स्वर्गगवच्छंदन गुरुपान्तरमात्म-प स्वीचमनःसंयोगात्पन्या पुरुषान्तरयात्मन्यपि स्वामियमचंतामविशेषगणांत्यादप्रमगात । न च ननदात्मविशेषगुणत्वावच्छित्र प्रति नदात्मत्वना:पि समचाथिकारणत्वान्नायमनिप्रसङ्ग इति वाच्यम्, प्रत्येकात्मस्थल पण कार्यकारणभावदयापनी महागास्वात् । सर्गररिनाणत्वनये न मानान्यन एव समवान ज्ञानादः स्वजन्योपयोगच्यापारसम्बन्धन मन:रांगोगत्वक रात्र त हेतुमदार इनि लाघवम् । अस्तु वा सुपमिल्यावृत्तमन:संयोगविशेपवन मामान्यता हेतुना नधाप्युक्तगौरविरहान् । गान्मवैभवादकत्र गन:गयोगशिपंत्यादयात्मन्यन्यत्रा वर्जनीयहतकतया नतापनगतानन्तकार्यकारणभावकल्पनागौवं दारिद्वारगन । तिन ननदात्मत्वविदिशटसमबागन नसदात्मानयत्वोपनियागाजिनाधारताविटापसम्बन्धन नाऽऽत्मविशेषगणवाछिन्नं प्रनि तन्त्र सम्बन्धेन ननन्ननःसंयोगवन कार्यमहभितया हेतुत्पनियपि निम्स्तम्. मधानमंट नानन्तहेन-हेतु गावस्य दुवारत्यादित्यधिकं आत्मस्ख्याती दृश्यम् ।।४।।
___ ननु आत्मनः तनुमानत्यं -- शर्गरपरिमाणत्वं ममुद्धाते - फेवलिमन्द्राने व्यभिचारि अस्ति इति चेत ? नैचम्, नत्र | किया जा सकता । मगर वस्तुस्थिति यह है कि ज्ञान का उत्पाद शरीर में अन्यत्र नहीं होता है। इसकी संगति के लिए नैयायिक मनीपी जान आदि को अव्याप्यवृत्ति = स्वाभारसमानाधिकरण मानता है । मतलब कि वागरावच्छं देन आत्मा में ज्ञान || आदि रहते हैं और घटादिअपच्छेदेन आत्मा में समवाय समन्ध से नहीं रहने नहीं हैं। इस तरह ज्ञान आदि में अन्यान्यनिना की कल्पना का गीग्य नगायिकमन में आवश्यक है। मगर आत्मा को शरीपरिमाणवाली मानन पर ज्ञानादि में अन्यायनिता - स्वाभावसामानाधिकरण्य की कल्पना का गॉग्य अनावश्यक है, क्योंकि, संपूर्ण आत्मा में मुख, ज्ञान आदि की उत्पत्ति का अनुभव होता है जैसे 'साङ्गीग मुखं अनुभनं मया इत्यादि प्रतीति तो गजनप्रसिद्ध है । आत्मा शरीर से अन्यत्र नहीं रहने से ज्ञान, मुख आदि में अन्यायनिता की कल्पना आवश्यक नहीं है। अनः दारीपग्मिाणली आत्मा का स्वीकार करने में लाघव है । दुर्ग बात यह है कि आत्मा को सर्वगन भानन पर जैत अपने वारीर के साथ उसका सम्बन्ध होता है उसी प्रकार अन्य इज्यों के साथ भी उसका सम्बन्ध होना है। अतः अपने शरीर को छोड कर अन्य शरीरावदेन भी आत्मा में ज्ञानादि की उत्पनि की आरनि भायंगी, जिमको हटाने के लिए नयायिक का यही कहना पडगा कि . 'अवच्छंदकतासम्बन्ध में नत्तन आत्मा के ज्ञानादि के पनि नादात्म्यसम्बन्ध में नत्तन आत्मा का शरीर कारण होता है। इस तरह विशेषरूप से कारणता का स्वीकार करन पर फलतः अनन्त कार्यकारणभाव की आपनि आयगी। मगर आत्मा को देहपरिमाणवाली मानने पर इम अनन्न कार्यकारणभाव की समस्या को अवकाश नहीं रहता है, क्योंकि तब ज्ञानाति के प्रति वियोपरूप में शरीर में काग्णता का स्वीकार अनावश्यक है। अन: आत्मा को शरीरमाण मानने में ही राघय है. यह फलित होता है ॥४॥
गुदा विचाराम यहाँ नयायिक की और में स्वाहाटी के प्रति यह आप किया जाय कि -> "आत्मा को शरीरप्रमाण नहीं मानी
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- मध्यमरपाद्वादरहस्य खण्टुः 3 . का.५५ वान्दोग्योपनिषदारिमनिरासः * कश्चितु → भवतो विशुनस्तथात्मनो बल नानात्वमयुक्तमीक्ष्यते । नियतं यदुपाधिगामिनी भवति व्योम्न इव व्यवस्थिति: ॥४॥ तथाहि
-* जयलता = केबलिसमुद्रातादी अपि स्वशरीरबहिःस्थात्मप्रदेशेषु सूक्ष्मागसद्भावात् कार्मणकाययोगादिलक्षणानीन्द्रियशरीरस्य विद्यमानत्वात् ।। समुद्राती हि स्वशरीरमविहायात्मप्रदेशानां प्रयोजनविशेषेण वदनाविशेषादिना वा बहिःनिःसरणमुच्यते । बहिनिर्गतात्मादेषु औदारिकादिकायविरह-पि कार्मणादिसरीरमस्तोत । अली नाभिरि कामामत्वमात्मनः । अस्माकमनकान्तबादिनां समुद्धातातिरिकस्थरते. शरीरस्य विशिष्य हेतुत्वाकल्पनालाघवम्. आत्मनः शरीरपरिगाणत्वेनैवानतिप्रसङ्गात । वस्तुतः संमार्यात्मपरिमाणे शरीरनामकर्मपरिणतिविशेषः सिद्धात्मपरिमाणे च चरमभवीपत्रिभागहीनानगाहनापरिणामी योगनिरोधजनिती तुरित्यादिक व्यक्तमेव आत्मख्याती। तदुक्तं न्यायखण्डखाये प्रकरणकृतंत्र ‘स आत्मा इह जगति लंकामननदशो लोकाकाशप्रदेशसमसारख्यप्रदेश इति कृत्वा शक्त्या विभुः । न हि सकलमूर्नद्रव्यसंयोगित्वं विभुत्वं परेषामध्येकदा सम्भवति अनीतानागतसंयोगानां युगपदभावात् किन्तु तदवच्छेदकरूपतत्त्वम् । तत्र लोकतुल्यप्रदेशत्यमिने शक्त्या आत्मनो विभुत्वाविरोधः व्यक्त्या तु कर्म गा कृतं यन | सौयं = स्वकीयं शरीरं तन्मानस्तावमात्र इत्यविभुरेव' (न्या.ख.खा.गा. ७.प्र.४५६) इति ।
वस्तुन आत्मनि विभुत्वनत्र सकलमूर्नद्रव्यसंयोगत्वरूप नैयायिकादिमतमनुरुध्योक्तम् । स्वनयन ताचिकं विभुत्वं लोकालोकव्यापिन्याकाशे एव न त्वन्यत्रेति ध्येयम् । एतेन ‘ज्यायानन्तरिक्षात्' (छा.उप.३/०४/३) इति छान्दोग्योपनिषदचन्ना, तथा 'ज्यायानाकानात' (श्त.डा. १०/६/३/२) इति शनपथब्राह्मणवचनं, आकाशवत्सर्वगतच नित्य (गोड ३/३) इति गौडपादकारिकाबचनञ्च प्रत्याख्यानानि सप्तविधसमुदानस्वरूपं च सिद्धान्तरत्नाकरावसंयम् ॥१८॥
पद्यपञ्चकन कश्चिनु = ब्रह्माऽद्वैतवादी तु ज्याचष्टं-ननु तथा = नयायिकांनप्रकारण विभुनो भवतः - सिध्यन आत्मनो नानात्वमयुक्तमीक्ष्यते = अनुमीयत नगायिकन । कुत : गौरवात् । नहि चैत्रमंत्रादिभेद-जन्म-मरण-बन्ध - मोक्षादिल्यवहारसङ्गतिः कथं स्यात् । एकस्तिन मुक्त सर्वेप मुक्तिः प्रसज्योत तदभित्रन्यात्, बढेकस्यापि मुक्तिन ल्यात तदभिन्ना. नामपरेषां संसारित्वादित्यादिकं बहु विष्लबते आत्मा दैतमन इत्यादाकायामात्मा द्वैतवादी व्रते-यत् = यस्मात् कारणात व्यवस्थितिः चैत्रमैत्रादिभेद-जन्ममरण-बन्धमोक्षादिव्यवस्था व्योम्न इव नियतं = अवश्यं उपाधिगामिनी भवति । यथैकमेवाकाश बटाद्यवच्छेदकभेदाद्भिद्यते घटाकाशं पटाकामिनि, घटनादो मति घटाकाशविनाश-गि पटाकाशमवतिष्ठते महाप्रलय घटपादिसकलोपाधिविलये निरवच्छिन्नं शुद्धमाकाश भवनि तथैवात्माद्वैतपक्षेपि व्यवस्थोपपद्यते ॥४०॥
जा सकती, क्योंकि वंदनासमुद्रात आदि में आत्मा का परिमाण अपने देह के परिमाण से अधिक होता है, जिसका स्वीकार जैन मनीपी भी करते हैं। अतः 'पत्र यत्र आत्मत्वं तत्र तत्र स्ववारीपरिमाणतुल्यपरिमाणन्वं' . यह व्याप्ति व्यभिचाग्दोपास्त बन जाती है" <-तो यह भी निगधार है, क्योंकि श्रीदारिक देह के बाहर आत्मप्रदेशों की समुदान अवस्था में चिश्मानना होने पर बाहरी आत्मप्रदेशों में सूक्ष्म कार्मणवारीर का हम स्याबादी स्वीकार करते हैं। इसलिए कार्मण शरीर के परिमाण से अधिक आत्मपरिमाण का हम स्वीकार नहीं करते हैं । नर आत्मत्व गरीरपरिमाणत्व का व्यभिचारी कैसे होगा ? हे नैयायिक ! तुम यह मोचो ||
* अनेक वितु आमाओं का स्वीकार नामुमकिन - अदैववादी * विभु एवं अनेक आत्मा का स्वीकार करनेवालं नैयायिक के मन के खिलाफ किसी वेदान्ती का यह कथन है कि → नैयायिकप्रदर्शित गति से विभु = सर्वव्यापी सिद्ध होती हुई आत्मा में नैयायिक विद्वानों के द्वारा नानात्व = अनेकत्व का दर्शन किया जाता है वह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि विभु आत्मा को एक मान पर भी जगत की सर्च व्यवस्था की सानि हो जाती है। जैसे आकाश एक एवं सर्वव्यापक होने पर भी घट, पट आदि उपाधिभेट से घटाकावा. पटाकाश आदि भित्र होते हैं । घट का नाश होने पर घटाकाश का नाश होने पर भी पटाकाश का नाश नहीं होता है। पटाकाश की उत्पत्ति होने पर भी पुनः घटाकाश की उत्पत्ति नहीं होती है। ठीक वैसे ही विभु आत्मा की एक मानन पर भी चैत्र, मंत्र आदि प्रत्यगात्मा में भेद की उपाधिभेद से उपपनि हो सकती है, क्योंकि उपाधिभून जिस अन्तःकरण से अवच्छिन्न बैतन्य में चैत्र का व्यवहार होता है उस उपाधि से भिन्न अन्तःकरणात्मक उपाधि से बह चैतन्य अवभिन्न = विशिष्ट है, जिसमें मैत्र का व्यवहार होता है । चैत्रान्त:करण एवं मैत्रान्तःकरण भित्र होने की वजह चैत्र और मैत्र में भेद का व्यवहार हो सकता है ॥४॥
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* मधुसूदन वावरूनि म गरश्वरप्रतिमनावेदनम ** चैत्रमैत्रकरणे न लभेते पश्य जन्माारणव्यतिहारम् । कामिनीपृथुपयोधररोधोरोधितौ प्रियकराविव भिनौ ॥१०॥ अगसहगमभिदेलिमभावारजायते स्वपरसंव्यवहारः ।
-* जयलता *तथाहि तत्तदन्तःकरणाद्यपाधिभेदन चैत्रमैत्रादिः प्रत्यगात्मा परस्परं भिद्यते । अत एव क्षेत्रमैत्रकरणं = चैत्रीयोबीयान्त:करण जन्ममरणव्यतिहारं = परस्परीयोस्वादन्यायकक्रियाकरणं न लभेते इन है नैयायिक : त्वं पश्य । यतः कामिनीपथुपयोधररोधोरोधिनी = नितम्बिनीविशालवक्षोजारोहावरोहव्यापृता प्रियकरौ = एकस्यैव प्रयतमस्य हस्ती इव = यथा भित्री । यथा पत्युरेकत्व तत्करभेदात् एकस्य करस्य स्तनावरोहण्यापृतत्वंप्यन्य कर नदागेहे या नियमाणो दृश्यने न तु परस्परक्रिया करगलक्षणन्यतिहारभाग्भवति । तथैव ब्रह्मण एकत्वऽप्यन्तःकरणभेदाटेकस्यान्नःकरणस्यानित्यग्रत्वेयन्यस्मिन्नन्तःकरण विलयव्यग्रत्वं न सङ्कीर्ण विरुद्धं बा भवनि । न चैवं ब्रह्मगंयुत्पादच्यापतिः, नदार मधुसूदनसरस्वती अद्वैतसिद्धौ- 'दर्पणस्य मुखमात्रसम्बन्धपि प्रनिमुरचे मालिन्यवत प्रतिबिम्ब जीव संसारः, न चिम्ने ब्रह्मणि, सपाधेः प्रतिविम्वपक्षपानित्वात (अ.सि.पू...७.७) । न चमणि प्रत्ययात्मनि कर्तृत्वं कथमिति वाच्यम, अविद्या-शानदुपपनः । तदुक्तं वाचस्पतिमिश्रेण भामत्यां- 'अन्नःकरणापच्छित्रः प्रत्यगात्मा इदगनिदरूपः चतनः कर्ता भीत कार्यकारणाविद्याद्वयाधारः अहवागरपदं संसार सन्धिम्मानभाजनं जीवात्मा इतरेतराध्यासोपादानः तदुपादानश्च ध्यासः इत्यनादित्वात् बीजावरचन्नेतरतराश्रयत्वमिति (भा.पृ..)तद्विलय एव मुक्तिः । नदुक्तं नैष्कर्म्यसिद्धी सुरेश्वराचार्येण गोकात्म्याप्रति पनि बालानुभव विषा । मधी संसृतबाज नन्नाश मुक्तिरात्मनः ।। || (ने.सि.१/७) इति । अज्ञानाश्रयत्वे-णि मतद्वयं ; संक्षेपशारीरमवार्तिककारण सर्वज्ञात्ममुनिना ज्ञानव्य ब्रह्माश्रितत्वं सुरेश्वराचार्यप्रणीतनैष्कर्म्यसिद्धिव्यावर्णितमुपगतं विश्वरूपाचार्यप्रतिभिरूपपादन प्रकाशात्मयतिनाम्ना विवरणाचार्येण प्रतिपक्षरखण्डनपूर्वक समर्थितं विद्यारण्यस्वामिना विवरणप्रमयसङ्ग्रहे उपोदलितञ्च । मण्डनमिश्रेणा-ज्ञानस्य जीवाश्रयत्वं स्वीकृत भास्कराचार्येण परिष्कृतं भामतीकारेण वाचस्पतिमिणोपहितञ्च । मधुसूदनसरस्वनी तु, पक्षद्वयमद्वैत सिद्धौ सविस्तरं समयते । यथा । चैतमन्त्र तथा ततद्ग्रन्थयो वसेपमित्यलं प्रसङ्गन ॥५॥
आत्भावते स्वपरव्यवहारः कथं ? इत्याशङ्कायां ब्रह्माद्वैनवाद्याह अङ्गसहमभिदलिमभावान् = तनत्त्नुमंगोगमंदसलाचात् । ब्रह्माद्वैत-पि स्वपरसंव्यवहार जायते = उपपद्यते । स्वत्वपरत्यप्रकारका तातिव्यवहारी तनच्छरीरसंयांगभेदमूलौ न चात्मन्यत्तनिमित्ताविति तात्पर्यम् । एवेन जीब - शिवयों दत्र्यवहार सम्भवागि प्रत्याख्यातः. दारीरसंयोगा संयोगायमर लद्रदात् ।
इसीलिये यहाँ यह यांका कि > 'आत्माद्धत पक्ष में तो एक के जन्म में सभी का जन्म और एक की मीन से सभी के मौत की आपनि आयेगी । चैत्र की जन्मक्रिया में मंत्र भी व्याप्त हो जायेगा, क्योंकि चैत्र और मैत्र की भान्मा एक ही है। नव नो चैत्र का जन्म होने पर मैत्र का भी जन्म होने नंगंगा । एव मैत्र जब मीत - मरणक्रिया में ज्यापन हो रहा होगा तब चैत्र भी मरणक्रिया के अनुकूल प्रयत्न करने लगेगा, क्योंकि दोनों की आत्मा अभिन्न है । नय तो मंत्र की मौत होने पर चैत्र का भी निधन हो जायेगा। इस तरह जन्म - मरण में व्यतिहार को = परस्पर की क्रिया में परम्पर की प्रवृत्ति को मान्य करना होगा, जो कि लोकव्यवहार से विरुद्ध है - भी निराकृत हो जाती है, क्योंकि त्रामा
और मैत्रामा अभिन्न होने पर भी चैत्र का अन्नःकरण और मंत्र का अन्तःकरण ठीक उसी तरह भिन्न होते हैं जैसे अपनी प्रिया के विशाल स्ननयुग्म में में एक स्तन पर आगेह करनेवाले भीर दूसरे स्तन पर अवरोह करनेवाले दो हाथ, जो एक ही प्रियतम के हैं, परस्पर भित्र हैं। परस्पर भित्र होने की वजह जैसे वहाँ 'पक डाथ जिस क्रिया को करना है उसी क्रिया को दुसरा कर रहा है या दुसरा हाथ जिम प्रवृत्ति को करता है उमीको दसरा हाथ कर रहा है। ऐसा व्यवहार या प्रतीति नहीं होने से व्यतिहार दांप को अवकाश नहीं है, भले ही दोनों हाथ के स्वामी में अभेद हो ।
और मैत्रात्मा एक ही होने पर भी चैत्रान्तःकरण और मैत्रान्तःकरण परस्पर भिब होने की वजह जब चैत्र का जन्म होता है नब मैत्रान्तःकरण जन्म क्रिया में प्रदत्त नहीं होता है एवं मंत्र का निधन होने पर चैत्रान्तःकरण की उम्म प्रवृति होने की आपत्ति को अवकाश नहीं है ।.||
चैत्रात्मा, मंत्रात्मा, देवदत्तात्मा, यज्ञदत्यत्मा परस्पर अभिब होने पर भी भिन्न भिन्न शरीर का संयोग होने की वजह उनमें स्त्र और पर का व्यवहार जगत में होना है। मनलब कि 'मैं पर से भिन्न हूँ', 'पर मुझ में भिन्न होता है इस
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.: मध्यमस्याद्वादरहरुप रबण्ट्रः ३ . का.२४ * पचपारिकारणानसंगाद: *
आयतेनुमितिः परवृत्तिस्तत्परागृशति लापरपुंसि ॥9॥ अच्छिा रखनुमतितापिाधा माद्याता त्वया । आपाधता हि जत्यत्वावच्छेदकपुरस्कृता ।।
* Murl] - वाचस्पतिमिश्चन्तु अज्ञानविषयाकृत चननामीश्वरः. अज्ञानाश्रयीमूतं च जार' इति व्याच । 'जास्मिंश्च पभज्ञानानान्याञ्जीवना. नात्वम् । प्रतिनीवश्च प्रपञ्चमंद: जीनस्यैव स्वाज्ञानारहितनया जगदपादानल्यात । प्रत्यभिज्ञा चापि मादृदयात् । ईराध्य च | सम्रपञ्चजाचानियाधिष्ठानत्वेन कारणोपचारादिति । अपनत्र चापच्छदकवादः' (सि.चि.१.२२७) इति सिद्धान्तविन्दा म्पटमक्कम ।
अथात्माद्वतनयं तत्परानुनि = तस्मिन चत्र ‘गना हिच्या मधूमधान उनि परामशति सति अपरपुंसि परामागून्य मैत्र परवृत्तिः = चत्रनिः अनामतः तपा-बसावकागितिः अपतेत, ज्ञानान्नानया विरोधादिनि चन : न. भिन्नाश्रयाः ज्ञानाज्ञारपारकविपनापि विराधित्वा दर्शनान । करणाश्रय मज्ञानं कांअपक्षानन विरुध्यत इति चेत् ! न. प्रमाणाभावान, गुरुपान्तरमधुनी च नदयनान्त करणन लापमानन करणभूतन त्रिमिनकामानुमान मिनटीयान्तःकग्णज्ञाननिय - दानादिनि (पं.चिव.ए.) पञ्चपादिकाविवरणकारः । तद भास्करमतापाकरण विद्यारण्यस्वामिनापि विवरणप्रमेयमडग्रह. "आत्माश्रितज्ञानेनान्नाकरणाभितम्या झानस्य विरोधासम्भवात एकस्मिन्नपि विषय दवदननिष्ठज्ञानन यजदत्त नष्टज्ञानस्यानिवृनः । 'अन्यत्र भिन्नाश्रन्ययोरविधि पि करणगतमज्ञानं क्तंगतशानन विमध्यन इनि चेत् ! न. 'यज्ञदनी अन्न करगलयहन्दृष्टयन मुषप्त लीयमानान्त: करणवान' इत्यनुमातरि देवदत्त स्थितनानेन ज्ञाननामिनिकरणमंते सपनयज्ञदत्तान्त:करणे स्थिनस्याज्ञानग्यानिवृत:" (विव....४५) इति ॥५॥
प्रकरणकारस्तु मधुसूदनसरस्वतीमतं पुरस्कृत्योक्ती पनिराकरणार नानाविध्यात्मवादिनयाबिकमतमपटनांद्वानांगक्रमते . माद्यना त्वया नानाविभ्वात्मवादिना नयायिकन अबच्चित्रा = स्नदन्तःकरणावच्छिन्ना अनुमितिम्तु नापाद्या. हि = परमात कारणात आपायना जन्यतावच्छेदकपुरस्कृता भवनानि दोपः । अयं वदान्तिनाऽभिग्रायः शुद्धं ब्रह्म नाचस्वयमगगक्षप्रकाश. स्वरूपमिनि न नरिमन परोक्षामित्यापादनं सम्भवति किन्त तदन्तःकरणावच्छिन्न प्रत्यगात्मनि परीक्षामितवापादनं सम्भ. वति । परं चंबान्तःकरणाबछेदनात्मनि परामर्श सति मैत्रान्त करा वन्दनानुगिनेरारादनं नैव सम्भवति, मत्रान्तःकरणावाच्छन्नानुमिनित्वस्य चत्रान्तःकरणावछिन्नगरामर्शकार्यतानबच्छेदकत्वात. कार्यतानवदकाच्छिन्नस्यानापाद्यत्वात. अन्यथा तिप्रमङ्गान । न हि वृक्षस्यकत्वं जपि शान्वायां कपिरायांगासत्त्वं मूलान्छिन्कपिरयोगी भिवर्तने । चैत्रान्त:करणावनिमत्रानुमितिस्तु भवत्येव तदानींगिति न कनिटीपः । न च बबादमंत्राभिन्नत्ववन खपुष्पा गाभिन्नत्वमिष्टं बनदा खप्यादी नागपि ब्रह्मात्मकत्वं ब्रह्मणा | वा तच्छत्वं प्रसन्न्येन तदनराकर च दनप्रसङ्ग इत्या भयतः पाशारजरिन वाच्यम, सदद्वतस्यवाभ्युपगमात्, आसवनं पक्रियन एवेति मधुसूदनसरस्वती ।।२।। प्रकार का जो स्व-परव्यवहार होता है वह भिन्न भित्र गर्गग्मयोगात्मक उपाधि के भंद से होता है, न कि चैत्रान्मा और मैत्रान्मा आदि के भंट से। इगी नाद आत्माद्वैतमन में इस आपत्ति का भी कि -- "चत्रात्मा और मैत्रात्मा परस्पर अभित्र है तो चैत्र को 'पर्वतो पहिव्यायधूमवान इत्याकारक परामर्श होने पर उनर क्षण में जैम वेत्र को या अनुमति होती है कि 'पर्वती वहिमान' ठीक न ही वह अननिति मंत्र में भी होने लगेगी, क्योंकि चैत्रात्मा और मंत्रात्मा परम्पर अभिन्न ही है और ज्ञान अज्ञान का विरोधी होता है" - अवकाश नहीं है ।'', "||
इसका कारण यह है कि आप बत्रात्मा में अनुमिति होने पर मैत्रात्मा में अनमिति की उत्पनि का आगदन कर रहे हैं । इसका अर्थ यही है कि वैवान्तःकरणावदेन आत्मा में परामर्श होने पर मंत्रान्तःकरणारयेदेन आत्मा में अनुमिनि उत्पन्न होनी चाहिए । अर्थात् मावच्छिन्न = अन्त:करणावच्छिन्न = मैत्रात:करणावच्छिन्न अन्मिति की उत्पनि का आपाटन आपको अभिमत है । मगर नानात्मवाद में मदोन्मत्त आप नैयायिक उक्त मानिन्न अनुमिति का भापादान नहीं कर मरने हैं, क्योंकि वास्तव में आपायता जन्यनावच्छेदक के पुरस्कार में होती है । जिम सामग्री का कार्यतावच्छे टक जिसमें रह गकता हो उमीका आपादन उस मामग्री में हो सकता है। चैत्रात्मा, मैत्रात्मा परम्पर अभिन्न होने पर भी मंत्रान्तःकरणाभित्र अनुमिति का आत्मा में आपादन करना हो तब उसकी मामग्री मंत्रान्तःकरणानि परामर्शज्ञान की आत्मा में उपस्थिति होनी चाहिए । यहाँ ना आपादकविषया वेत्रान्तःकरणावच्छिन्न परामर्श ज्ञान का निर्देश किया गया है तब उसमे कैग मेघान्न करणावच्छिन्न अनुमिनि का आपादन हो सकता है : विद्यमान मामग्री के जन्वना अनपदक स अवधि का आपादन कभी भी नहीं हो सकता, अन्यथा दण्य, चक्र, कुलान आदि होने पर पट का भी आपादन होने लगेगा ।। ||
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मानापानापन-नागाभाग्यसंपादः * बाधबुन्दिरपराधिनी पुनः शश्वदेव न विशेषदर्शिनः । चैत्रवृत्तिकृतभेदतन्दियभितत्प्रतिहतो हि वैवाना ॥१३॥ .
*जयलवा नन्चात्माद्रित रिशंपर्शिनः चैत्रादेः 'अहं मैत्रादप्रमान घटादिप्रमयभिन्न' इनि बाधबुद्धिस्य विरोधिनीत्याशड़कायां नरम गद्य वेदान्ती व्याचट-विशेषदर्शिनः = भंददर्शिनः पुरुषम्य अपराधिनी = अत्य दिप्रमाणरिद्धान्मादविर निरुक्तस्वरू.|| पुनर्न शदेव = सदैव भवति । यतः सा चैत्रवृतिकृतभेदद्धियः = चैत्रान्तःकरणान्छिनचतन्यलक्षणप्रमातृचैतन्यभेद-तदन्तःकग्णवृत्तिलक्षागप्रनेय-चन्य विशिष्टाय। विशेषबुद्धः सकाशात भवति । अत एव चैत्रतत्प्रनिहनी = चैवान्तःकरण -विगेपबुद्धयोविच्छेदे हि सा बाधबुद्धिनिंबतंन इति गिद्धमात्मनी भर्च = निरवच्छिन्नत्वम । अयमात्मावतवादिनी:भिप्रायः अज्ञान विराधि हि ज्ञानं न चनन्यमानं किन्तु अन्तःकरणानप्रतिविम्बितं हि तत प्रमाणाभिधानं चैतन्यम करणान्छिन्नं चतन्य मानचैतन्यम् । विषयाकारा अन्तःकरणनिहि प्रमेयचैतन्यम् । तयोश्च सव्यवहारदशाबा भेदात नाशि टाया विशेषवृद्ध; = भेदबुद्धः बाधबुद्धिर्भवनि । सा च तत्त्वमसि' इत्यादिग्दान्तवाक्यात्पन्नतत्त्वज्ञानद्वारा निर्गतने तदानीमविद्याया विलयन तन्गलकामातचनन्यभेद-प्रमेषचनन्यभेद-प्रमाणचतन्यदा अपि बिलीयन्त । अवनतन्त्र तु अनिसिद्धम । तदनं. छान्दोम्योपनिपदि यथा माम्य । केन मृत्पिण्डेन मर्च मगनयं ज्ञातं स्याद्वाचारम्भणं विजारो मनिकन्येव स्त्यग' (का.प. ६/१/१) इनि । वाचन केवलमस्तीनि आरभ्यन स्किार घटः दागव इति न त वस्तुवन विकागेऽम्ति । नामधेसमात्र धनदनृतं, मृत्तिकत्व सत्यम । एष ब्रह्मणा दृष्टान्न आम्नानः । नत्र अताद याचारम्भमदन दान्तिक :पि ब्रह्मव्यतिरेकेग कार्यजानस्याभाय इति निश्चीपते । दथा घटपटायकामानां महाकाशानन्यत्वं पधा च मृगणिकोदकादीनामुपग़ादिभ्योऽनन्यत्वं दृष्टनष्टम्मरूपत्वात, स्वरूपेणानपाख्यत्वात् एवमस्य प्रमानामयादिधिकारजानस्य ब्रह्मन्यतिरकणाभार इति निश्चयम् । नटतं ब्रह्मसूत्रशाभाये -> 'मृत्तिकेत्येव सत्यमिति प्रकृतिमात्रम्य दृष्टान्ते सत्यत्यानधारणात बाचारम्भणगन्देन च विकारजानस्यानृतत्वाभिधानात् । दान्तिकपि तदात्म्यान सर्व तत्सत्यम' इति च परमकारणपरकस्य सत्यत्वाधारयान, ‘स आत्मा तत्वमसि श्वनकता :' इति च शारीरस्य ब्रह्मभाना दशान । स्वयं प्रसि यतच्छाररस्य ब्रह्मात्मत्वमुपदिश्यते न यत्नान्नासाध्यम । अतश्चद शास्त्रीयं ब्रह्मात्मत्वमवनम्यमानं स्वाभाविक्रस्य मार्गगत्मन्यस्य बाचन सम्पयतं. रज्ज्वादिबुद्धाय इव मोटिवृद्धानाम | बाधिन व शारीरात्मले नदाश्रय: स्गस्नः स्वाभाविको व्यवहारी बाधितो भनि, यत्प्रसिद्धये नानात्वांगापा ब्रह्मणः कल्यंत । दर्शयनि च यत्र त्यस्य सर्वमात्मा भूतत्केन के पश्येत ७.४/1.12.) इत्यादिना ब्रह्मात्मत्वदर्शिनं प्रति समस्तस्य क्रियाकारकफललक्षणस्य व्यवहारस्यामाधम् । न चायं त्र्यवहाराभानावस्थाविशंपनिबद्धोऽभिधीयते इति युक्तं. बनुम, 'तचममी ति ब्रह्मात्मभावस्यानवस्थाविशनिबन्धननन । नम्कदष्टान्तन बान्ताभिसंथस्य बन्धनं सत्याभिसन्धस्य र मानं दर्शयनंकत्वमे - बैंक परमार्थिक दांगति । मिथ्याज्ञानविम्भितञ्च नानान्तम । उमपसत्पत्तायां हि कथं अवहारगाचगापि जन्नग्नताभिसन्ध इत्युच्यत : 'मृत्योः स मृत्यमानानि य ह नाना पट्यांत' (च.४/५/ इन च भेददृष्टिमवपनवनदान' - वि.मू. /१/१४ .भा.) इति ।
पक्षात्मनी विभयतनादिना नामाने निगि नगापिकन किमपि न न पायन । न चम्मलनयाधयण यंगमनापाकरण म्यादिनाम तमतपत्रमा इनि माच्यम, अगिनितिमानमा नयान्नगण ग्रन्दनम्यापि शास्त्रार्थन्यात, दादारदला नाही
-> 'मैत्र, चैत्र आदि प्रमाना एक नहीं है किन मित्र है' पह बाध द्धि हान गे भान्माईत की सिद्धि नहीं हो सकती- गा वहाँ नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि विपदगी की वह विरोधी बाधयुद्धि सदा के लिये नहीं रहती है । क्षेत्र के अन्न:करण की नि के भेद में चैत्र की बुद्धि में मंत्रबुद्धिभिनता रहती है । जब चान्त:करण का विछेर हा जाता है तब अन्तःकरणापजिन चैतन्यग्बम्प प्रमाला काद हो जाता है एवं अन्तःकरणवृति का २द होने पर निप्रतिविपिन चैनन्यान्मर ज्ञान का न हो जाता है। इसी तरह पटाकार भन्नःकम्णवृनिम्बम्प प्रमय रा विलय प्रादि के तिगंधान में हो जाता है। नर प्रमाना गयं प्रयके भेट में होनेवाली भेदद्धि का भी विलय हो जाने में केवल एकमेराद्वितीय निरचच्छिन्न विभ गुद्ध ब्रह्मतन्न रहता है । 'नचमि' इत्यादि उपनिषद क्यों में अविया = अज्ञान का दुरीकरण होता है । नव नित्य, विभ, गुद्ध, एक. ब्रह्मतत्व स्वप्रयागात्मक व्यक्त होता है । यह वेदान्नी मधुसूदन सरस्वती आदि सा मन्नन्य है । इससे अनुगार ना विभु आत्मा का एक मानने पर भी लोकव्यवहार आदि की उपपत्ति हा मलनी है। नर नैयायिक को, जो विभ एन अनेक आत्मा का स्दाकार करता है. इसका गगाधान दना दलंभ हा नायगा ||३||
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का."*म्पाद्वारमार्गकाकासम्मतिताकाकारसवादः
एवं प्रयुजतेऽसिलामा भवति देहयरिमाणः । तमाप्रवृत्तितिजगुणयोमानियमानुरोधेन ।।१४।। तथा च स्तुतिकृत: --> 'यौव यो दृष्टमुणः स तत्र कुम्भादिवनिष्प्रतिपक्षमेतत् । तथापि देहाद बहिरात्मतत्वमतत्त्ववादोपहता: पठन्ति ॥११॥ (अन्य.व्य.e)
-ॐ जरालता *दषद्विपकण्टक इन न्यायन । आत्मायतमतं तु प्रतिक्षेत्र भिन्न' इत्यस्याल्यानं निराकरिष्यन इनि मा त्यग्य ||3|
प्रति आत्मनानात्वराधान्तरक्षार्थमंद्रतमतापवंदाने चालना दहपरिभा गल्लमेनाभ्युपगन्नमहोत नयायिकस्पत्यागन न्यावादी प्राह एवं अम्मिन आत्मविभुल्लपक्ष नानात्मरी कागसम्भव पनि नबानायोगानये प्रामाणिकाः प्रयुञ्जत आत्मा देहपरिमाणो भवनि | तन्मात्रवृत्तिनिजगुणयोगान - देवमात्तिस्वगुणाभिसम्बन्धन 1 कुतः ? या यंत्रच दृष्टगुणः स तव इतिनियमानुरोधेन ॥ ४॥
न चैतन्मूलकामाविरुद्भमित्यादायेन प्रकरणाकर आई - तथा त्र स्तुतिकनः . स्तुतिकारत्वेन प्रसिद्धा मूलतः ॥ श्रीहमचन्द्रमृग्यः अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकायां प्राहः यदुन - यत्रवति -> यत्रैव देश यः = पदार्थः दृष्टगुणः = दृष्टाः प्रत्यक्षादिप्रमाणतोन्नुभूना: गणाः यग्य य तथा म पदार्थः तत्रैव - विवक्षितदश एव. डा. पद्यन इनि क्रिया याहागे गम्यः. पवम्यैवकारस्यावधारणार्थयात्रामसम्बन्धात नत्रः नान्यत्रत्ययोगल्यवच्छतः । अमर्मक दृष्टान्तन दयनि-कुम्भादिवदिति यदिवन । यधः कुम्मादेयत्रैर देशे रूपादयो गण काल बन्तं च तस्याग्नित्वं प्रतायत नान्यत्र । एवमात्मनो १ गुणाः चैतन्यादया दह पर दृश्यन्नं न चहिः । तस्मात् तन्त्रमाण एनामिनि । निष्प्रतिपक्षमतदिति । एतद निष्प्रतिपक्ष - बाधकरहितम, नहि दृष्नुपपन्नं नाम इति न्याबेन । नधापि - एत्रं नि:सपत्नं व्यवस्थित ितचे. अतत्त्ववादोपहताः कृस्तितत्त्ववादन तदभिमनाप्ताभास पविदोपप्रणीतन नामासारूपगारहताः व्यामोहिताः, देहाद् रहिः = शरीरयतिरिक्त पि दशे आत्मतत्वं - आत्मा पठन्ति - शास्त्ररूपतयः प्रणयन्ते - इनि श्रीमणिसरिन्यायालंशः । विस्तरस्नु तत्रत्यः प्रकरणकृता प्रायः सर्व पवात्र पूर्व पद्यत्रणालिकया प्रदर्शितः किञ्चिदनुपदं दयिष्यते च । तथा च स्वदहमात्रच्यापकत्वेन हर्षविषादाद्यनकविवर्तात्मकस्य 'अहं' इति बसंचंदनपत्यक्षरिद्रतादात्मना विभूत्वसाधकवनांपन्यरयमानः सर्व एव हेतुः प्रत्यक्ष. बाधितानन्तरप्रयुक्तत्वन कालात्यवादिष्टः । देवदत्तात्म- देवदनगरीरमात्रब्यापकः तत्रैव व्याज्यापालभ्यभानगुणवान । यो यत्रय ! यात्यापलभ्यमानगणः स नन्गत्रयापकः यथा दबदनम्य गृह पब उपरभ्यमानभाम्वरत्वादिगणः प्रदीपः, देवदनाार एव व्यापागलभ्यमानगणस्तदात्मा इंत । नदाताना हि ज्ञानादयं गगणाः । न च तदह व व्याप्त्योपलभ्यन्त, न परदेह नाप्यन्तगले' (म.त../५.५८२) इति सम्मतिटीकाकारोऽपि व्यनष्ट । विपश्वान पथ उज्य:, दष्टत्वं गावशेषगं हताः प्रामाणिकत्वालाभाय न त हतप्रविष्टम् । तथा चान्मा द्वारानियतनिताक: सीनियनवृनिनाकगणरत्त्यात कुम्भवदिनि लब्धम । नत्र च मान्ये शरीरांनयतपदामाद नमनधक स्वनिताकत्वमा सद्ध्यवामित्वगिद्धः ।
वस्तृतस्तु आत्मा स्वकगंकृतसमनाग्गाहनाक; न्दवन्निभोगवचादित्यत्र तात्पर्यम् । स्वकर्मकृतत्वञ्च स्वर्गनिम्
ब्रह्माद्वैतवादी चेदान्ती के निगकरणार्थ गवं नानात्मनान के उगपादनार्थ यही स्वीकार करना नैयायिक के लिये उचित है कि आत्मा देहपरिमाण है । यहाँ पुर्व जैनाचार्यों में मवर प्रमाण भी पेश किया है कि • आत्मा शगरपरिमाणवाली है, क्योंकि केवल शरीर में दी जान, इछा आदि की पानता होती है. जैसे कि घट । यह एक नियम है कि. जिसके गुण की उपलब्धि पावन्माउंगामचंदन हानी है. सायन्मात्र ही उसका परिमाण होता है । कन्दगीवादिनस्थानविशिष्ट में ही बट के गुण की उपलब्धि होने में घट का परिमाण उतना ही होता है । अन्यथा घट, पर आदि भी आत्मा की भाँति व्यापक । हो जायग ||
असोत त्रातात्रिीशुकासंवाद यहीं ना बात कही गई है वह मूलकार श्रीकलिकालसर्वत के भाशय के विरुद्ध भी नहीं है, क्योंकि स्तनिकाररूप में प्रसिद्धि पानवाले मूलकारधी ने ही अन्ययोगव्यवनलंद द्वात्रिंगिका की नवम कारिका में कहा है कि. . जिसक गुण की जहाँ उपलब्धि होती है. यह पटाथ वहाँ ही होता है-यह वान बिना विरोध के सिद्ध है। जैसे घटादि के रूप. म, गन्ध, स्पर्श आदि गुण जहां उपलब्ध होते हैं वहाँ हा पर आदि विद्यमान होता है, ठीक चा ही आत्मा के ज्ञानादि गुणों की अधि शरीर में ही होने से जान्मा मगरप्रमाण ही है। फिर भी अतत्त्ववाद से जिसकी द्धि विकृत हो गई है मे नयायिक आदि आत्मतत्त्व को देह के बाहर भी सर्वव्यापकविषया) बताते हैं, स्वीकार करते हैं ।। | मूनवारश्री के उन कपन ग भी दहपरिमाणवान आत्मा का समर्थन हाना छ ।
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न्यायखण्डवादः **
नन्वत्र मूलमिला समग्रवृत्ति स्वच्छन्दचन्दनतरी व्यभिचारचारः ।
शाखासु चारुपवनाभ्यवहारलग्नव्यासङ्गसङ्गमभुजङ्गमसङ्गभाजि ||१६|| (अत्रोत्तरम् ) आजीविका ननु तवास्ति किलेयमेव देवाधिदेवसमयाज्ञ ! यदाग्रहोऽसौ । बोधं प्रयोगरचना वचनावतीर्णा स्याद्व्याप्यवृत्तिमिह तु प्रथमं प्रसाध्य ॥५७॥1 जयलता
पितप्रतियांम्पनुयोगभावसम्बन्धाश्रयकृतत्वम्, तेन स्वकर्मक्षयकृत त्रिभागहीनचरमशरीरावगाह्नावस्थितक्षीणसकलक्लेशप्रदेशशालिनि सिद्धं नाव्याप्तिः । तत्समानावगाहनाकत्वञ्च तदवगाहकनभः प्रदेशसङ्ख्या समव्याप्तसङ्ख्याकनभः प्रदेशावगाहनाकत्वमित्यधिकं न्यायखण्डखाये (न्या.खं.खा.गा. ७० पु. ४०८) द्रष्टव्यं बुभुत्सुभिरित्यलं विस्तरेण ॥५५॥
नैयायिकः षट्पञ्चाशत्तमयेन शङ्कते ननु अत्र = 'यो यवमात्रव्यायोपलभ्यमानगुगः स तावन्मात्रेव्यापकः' इति नियमे व्यभिचारचारः = धारालकरालव्यतिरेकव्यभिचारप्रचारः दुर्वार एवं यतः शाखासु चारुपवनाभ्यवहारलग्नव्यामङ्कजङ्गमभुजङ्गमभाजि = प्रवहमानसुरभिमास्तास्वादमग्नासनसञ्चरत्सर्पसंयोगशालिनि स्वच्छन्दचन्दनतरी सुललितविलाससरसचन्दनगाद मूलमिलदग्रसमग्रवृत्ति = व्याप्यवृत्ति सांग्भमिति गम्पते । चन्दनतरोः स्वान्द्रियव्याप्य पलम्यमानगुगलले पि तावदुव्यापकत्वाभावात् । इत्थञ्चावस्थानदेशादन्यत्राऽपि गुणोपलब्धेर्हतुर्व्याभिचारीति योगाशयः ॥ ५६ ॥
=
स्याद्वादी नमपक्षिपति ननु भो ! देवाधिदेवसमयाज्ञ ! जैनेन्द्रराद्धान्तापरिचित ! नैयायिक तब किल इयमंत्र 'यो यावदुपलभ्यमानगुणः स तावदुव्यापक' इति वचनरचना आत्मवैभवसाधनाय आजीविका स्यात्, अन्यथा कथं दूरवर्ति देशानुमीयमानादृष्टाश्रयव्यापकात्मतन्त्रसिद्धि ने स्यात् ? ' तर्हि अस्तु तत एवात्मवैभवसिद्धिरिति चेत ? मेवं वोचः यदाग्रहः = यस्मात् कारणात् कदाग्रह: असी आत्मविमुत्वसिद्धिमनोरथः । कुतः कदाग्रहत्वमस्य सत्स्यति । उच्यते यतः प्रथमं इह सभायां व्याप्यवृत्तिं = स्वाभावाऽसमानाधिकरणं बोधं प्रसाध्य पश्चात् तु 'आत्मा सर्वगतः सर्वत्रीपलभ्यमानगुणत्वात्' इत्येवंस्वरूपा तव प्रयोगरचना वचनावतीर्णा स्यात् । न चैवं सम्भवति कायष्यतिरिक्तदेशे आत्मगुणानां योधादीनां त्वयाऽनङ्गीकारात्
12.
=
7
'यो रात्रैव...' यहाँ व्यभिचार की शंका और निराकरण
नैयायिक : जिसके गुण की जहाँ उपलब्धि होती है वह केवल वहीं होता है - यह नियम व्यभिचारदोपग्रस्त है । इसका कारण यह है कि मूल से लेकर अग्र शाखा पर्यन्त समग्र भाग में रहनेवाली खुशबू चन्दन के वृक्ष में, जिसकी शाखाओं में बहनेवाले मनोहर पवन का आस्वाद लेने में मन बने हुए और चारों ओर घूमते साँप का संगम उपलब्ध होता है, व्यभिचारग्रस्त है । पद्म का तात्पर्य यह है चन्दन की सौरभ केवल चन्दनवृक्ष में ही रहती है फिर भी उसका ज्ञान तो बन्दवृक्ष की शाखा में रहे हुए सर्प को भी होता है। सर्प की प्राणेन्द्रिय में चन्दनसौरभ नहीं होने पर भी वहाँ सुगन्ध की उपलब्धि होती है । इसलिए अपने आश्रय को छोड़ कर गुण की उपलब्धि अन्यत्र नहीं होती है और गुण की उपलब्धि जहाँ होती है उसको छोड़ कर अन्यत्र गुणी नहीं रहता है' यह स्याद्रादिकथन निरस्त हो जाता है। अन्यथा सर्पादि की प्राणेन्द्रिय को भी चन्दनीय सौरभ का आश्रय मानना होगा
स्याद्वादी ओ 1 नैयायिक ! आपने यह क्या बोल दिया कि 'यो यावन्मात्रोपलभ्यमानगुणः स तावव्यापकः ' यह व्याप्ति व्यभिचारदोपग्रस्त है। तुम नैयायिक भी आत्मा में विभुत्व की सिद्धि के लिए यही तो वचन कहते हो कि 'आत्मा व्यापक है क्योंकि उसके गुण की सर्वत्र उपलब्धि होती है ।' यदि उपर्युक्त व्याति व्यभिचारप्राप्त है तब तो तुम उसके बल से कैसे उपर्युक्त अनुमानप्रयोग की रचना को वचननिबद्ध कर सकते हो ? सचमुच तुम देवाधिदेव सर्वज्ञ के सिद्धान्त में अपरिचित हो । इसीलिये यह कदाग्रह रखते हो कि आत्मा विभु है । आत्म में विभुत्व की सिद्धि के लिए तो सबसे पहले आत्मा के गुण ज्ञान को व्याप्यवृत्ति = स्वाभावासमानाधिकरण सिद्ध करना पड़ेगा, बाद में तुम उपर्युक्त अनुमानप्रयोग कर सकते हो कि - 'आत्मा सर्वव्यापक है, क्योंकि उसके गुण की सर्वत्र उपलब्धि होती है' । मगर यह तुम्हारे बस की बात नहीं है, क्योंकि ज्ञानादि को न तो तुम सर्वत्र वृत्ति मानते हो और न तो हम । तब कैसे आत्मा में विभुत्व की सिद्धि हो सकेगी ? दूसरी बात यह है कि आत्मा में विभुत्व की सिद्धि के लिये आपको उपर्युक्त व्याप्ति में व्यभिचार को भी दूर करना पड़ेगा। पहले व्यभिचार को दूर कीजिये, क्योंकि आपने ही व्याभिचार का उद्घान किया है ॥५७॥
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१०६ मध्यमस्पासादरहस्य म्वर ३ का.५१ *कायापा : *
तत्सरावनि दुरध्वनि जातपात: किं कालिकानुपितलोचनगोचरोऽसि । सख्यं भजस्व भगवत्मतमाद्रियस्व स्वीयं हितं रचय ते हितदेशकोऽस्मि ॥१८॥ कलयसि किमिहात्मत्यास्थितच्छेदस्वेदं वयमपि भृशमात्मव्यापकत्वं प्रपन्नाः । न हि महति चिहात्मन्यातसङ्क्रान्तिको यो न खलु न खलु तरिमारित किचित्यमाणम् ||१५||
- जयलावीधरणव न्यायकन्दल्या 'आत्मना दहप्रदेश ज्ञातल्य, नान्यत्र. शरीरस्योपभोगायतनत्वात. अन्यथा नस्य यध्यांत' (न्या.कं.पृ.) इति । ततो वयस्य : प्रतिकूलमेवेदं य न्यभिचारानावनं, त्वयाऽपि तस्य समाधयचात ||७|| ननु मया नयायिकन चन्दनसौरभस्याश्रयाभूताः सूक्ष्मा भागाः तादृशाः स्वीक्रियन्त यं वायुना सुदरमपि यान्ति । ततश्च
= दुर्ग पथि चन्दनसगन्धः जातपातः प्राणदां प्रमः मन अमादादिभिरूपल-पत इति न पूर्वप्रदर्शितन्याप्तिन्यभिचारग्रस्ता इति चत : भा ! नैयायिक : किं त्वं कालिकाकपितली चनगांचराऽसि ! यनल्यं वन प्रचूनः । वायुपनीतसुरभिभागानामन्यत्र गमनस्याकार त्वं सस्यं भजस्व, नदनामस्मत्सम्प्रदायाचार्यण स्याद्वादमश्नयां तदाश्रया हि गन्धादिपवलाः, तपाञ्च वैसिक्या प्रायोगिळ्या वा गत्या गनिमञ्चन तद्पलम्कघ्राणादिदेशं यावदागमनापपनरिति' (अन्य व्य.. स्या.मं..१२८) । 'अस्त्वमाययाः मैत्री क्रिन्चंयपि भवमान्मना:निराकार्यमेव त्वया स्याद्वादिना' इति चत ? अयि ! म नग्धो भव, मंत्रोपलभ्यमानगुणवस्यानन्तरमेव म्बम्पासिद्धत्वमादितं कि विस्मयंत : 'न च बुद्धीच्छादनामतथात गि अदष्टस्य आत्मविषगुणस्र मवंच्यापकत्वं न विरुद्धमिति वाच्यम्, अदृष्ट पा द्गलिकलस्य प्रांगध प्रतिपादितत्वन हेताः स्वरूपःसिद्धत्वमनिर्वायमेव । अन पत्र आत्मा सर्वगतो न भवति सर्वत्र तदगणानपलचरिति भगवन्मनं = जैनदर्शनं चं आद्रियस्व । इत्यं कृत्वा स्वीयं हित = अमिद्धिवाभाटिदोष परिहारं रचय, सत्यं वदामि 'ते = नव हितदेशकोऽस्मि' मा शङ्का कापीः ।।५८।।
नन स्याद्रादिदमानान्युपगम न आत्मविभूत्यग्धिान्तं विलयन इति कथं न: त्ग्या साध मैत्री स्यादित्याशङ्कायां स्याद्वाद नैयायिकमाह किं इह = जनप्र बन्नको लं आत्मनि = बस्मिन आस्थितच्छेदखेदं - प्रतापसिद्धन्नालाप्रहारोग कलयसि = पश्यसि ? खिन्नत्वं जहाहीत्यर्थः । कृतः । इत्याह- वयं याद्वादिनः अपि आत्मव्यापकत्वं = आत्मनः गग्तत्वं भृशं = मुतरां प्रपन्नाः। कथमिति जन : उच्यते दरस्थव्यवहित्स्यूलसूक्ष्मातीनानानतवनमानद्रव्यगुणरायाणं सर्वेषामेव केवल ज्ञानगोचरत्वन ज्ञानम्वरूपम्यात्मनः सन्मककबालज्ञाननिष्पत्रिपयिनानिरूनिविषयतासम्बन्धन सर्वगत्वात् । ल्वया स्वाकृतं
नैयायिक : → "चन्दन के सुरभि सूक्ष्म अश्यर पवन के संचार के मार्ग को, जो अति दुर्गम और दुःसंचार है, प्राप्त कर के सादि की प्राणेन्द्रिय तक पहुंचने पर ही गन्ध की उपलब्धि होती है। अतः अपने आश्रय को छोड़ कर अन्यत्र गुण की उपलब्धि नहीं होती है, यह न्याप्ति अबाधित रही है . ऐसा हम नैयायिक स्वीकार करते हैं। अत: आत्मा में विभुत्व की सिद्धि होने में कोई हरकत नहीं है" -।
जैन :- ओ ! नयायिक ! क्या तुम महाकाली देवी के कुपित लोचन से देखे गये हो ? क्या तुमको यह मालूम नहीं है कि ऐसा तो स्याहारी भी मानत हैं ? नब ना प्याद्वादी के मन में ही तुम्हाग प्रबंश हो जायेगा। ठीक है आप रमा माना और हमसे मैत्री रखो । मगर इस नरह भी आत्मा में विभुत्व की सिद्धि होनेवाली नहीं है, क्योंकि सर्वत्र उपलभ्यमानगुणन्य हेतु आत्मा में नहीं रहने से स्वरूपासिद्धिदास्यरत है. इसलिए 'आत्मा कायपरिमाण द प्रेम जैनमत का ही तुम स्वीकार करा। इसम ही तुम्हाग हिन रहा हुआ है । मैं तुमकां यह सब बात कहता हूँ | तुम्हाग में प्रकरणकार) हितचिन्नक एवं हितोपदेशक है। इसलिए नैयायिक! आत्मा के बारे में जो कुछ जैनदर्शन बनाता है उसका प्रेमपूर्ण तुम स्वीकार करा - यह हमाग उसंदेश है।
जाना(Moll आत्मा विगु है . यातदादी । है नैयायिक ! जनमत का स्वीकार करने पर अपने में आत्माऽविभुत्वस्वीकारात्मक छंद के खेद को क्यों तुम देव रहो हो ? हम म्याद्वाही भी भारमा म निभुल का स्वीकार करते ही हैं। इसका कारण यह है वि. सभी वस्तुओं का कवटतान में प्रतिनिम्न पड़ता है। कंवलज्ञानस्वरूप आत्मा में किसी चीज का प्रतिविम्ब नहीं पड़ता है . ऐमा नहीं है । गवं इन ग्वलु= ) सर्वधा नुच्छ वस्तु नो चिनस्वरूप आत्मा में कभी भी संक्रान्त नहीं होती है । जिसकी मंक्रान्ति = प्रतिबिम्ब केवलज्ञानात्मक आन्मा में अनुपलब्ध हो उमक स्वीकार में दूसरा प्रमाण क्या हो सकता है ? क्या केवलज्ञान से बह कर अन्य कार्ड वस्वान प्राण इस दुनिया में विद्यमान है ? जो केवलज्ञान के अधिपय को अपना विषय बनाये । सभी द्रव्य-गण-पर्याय केवरज्ञान
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टारना : नाना अप्राप्यकारिणि चिहात्मनि सर्वगत्वं गौणं न मुख्यमिति तु प्रवदन्ति सन्तः । धते मता भवताऽपि समस्तदेशसंयोगितामपि समुदतसर्वदर्शी ॥६०॥
अपि च → व्यवहारलयो ब्रूते देहमानत्वमात्मनः ।
- जयलता मतमंयोगित्वरक्षणं विभुन्यं न मङ्कुचिनं सर्गुणादेभिस्तम्या सम्बद्धत्वात, अातादिमूर्तद्रगग्नन्तरम्मुकवच । मन परानं ज्ञानिकसम्बन्धेन गचंद्रन्यगणपयांयसम्बद्धवलक्षणं विभवंद व्यापकमिति तंदन गृहाण, मुश्च च कदाग्रहविषम् । न नवं नाङ्गादिभिगम आत्मनः सम्बद्धत्वं कथं न स्यात् ? जान्नायमानत्वलक्षणवैज्ञानिकसम्बधनात्मनः तत्र वृत्ति वाच्यम, तथापि स्वाताकंकालज्ञाननिरूपिनविषयतासम्बन्धनात्मनस्तत्रावृत्नित्वन नधापादनासम्भवात् । न हि यो न खलु = आसत्पदार्थः म महति चिदात्मनि केवलज्ञानम्वरूपे आन्मनि आनसङ्क्रान्तिकः = माहितस्वाकारः = ज्ञानमामग्रयाहिनविषयतामपस्वाकारः सम्भवति । कृतः ? यतः न खल = नव नास्मिन नरडगादौ किञ्चित्प्रमाणं अस्ति । अदी नानिप्रमङ्गकलङ्कपतकालिगम्भवः स्यादादिमझमे तवनि विचारय ॥१५॥
तहि कम्मातारात्मनो विभुत्वानाकरण ग्यादादिगामायासः ? इति गायिकाशनकायां स्याद्वाद्याह्न - अप्राप्यकारिणि स्वसंयोग-स्वसंगनममघायादिना सम्बन्धन विषयदशमगला जातरि चिदात्मनि = झानस्वम आत्मपदार्थ स्वात्मकज्ञाननिमपिनविषयतासम्बन्धन सर्वगत्वं = सर्थिगामित्वं गीणं = उपचरितं न तु मख्यं = अनुपचरितं इति सन्तः = नीर्थकरादय: प्रवदन्ति । तर्हि स्गाद्वादिदर्शनाभ्यपगम नी हि आत्मविभुत्व सिद्धान्तो भज्यत इत्यार पाहादिना सार्क मित्रतया' इति नैयापिकाशकायां स्याद्वाद्याह भवता नयायिकन मतां = स्वीकृतां समस्तदंशसंयोगितां सर्वमूत्तमयोसिल्वलक्षणां अपि विभुता समुद्धतसर्वदशी = समुद्भातचतुर्वसम्यवर्ती कवली धत्ते = बिर्नि अपि इति मा हताशो भव अस्मन्मित्रतया । न चैवमपि सर्वदा सर्वमूर्तद्रव्यसंयोगिवलक्षण विभुत्वं व्याहतमनति बान्यम्, तादृशस्य तस्य तेकदा त्वन्मनप्यसम्भवात् । न हातीतानापन मूनद्रव्यसंयोग एकदात्मनि सम्भवति । जन- सकलमूर्तद्रलासंबोगितावच्छेदकम्पवचलक्षणमेव विभुत्वं त्वया स्वाकर्तव्यम् । तच लोकाकाशप्रदशतुल्यत्वमिति प्रागुपदर्शिनमन मा रमाद्वादिमंत्री परित्यज, यदि कल्याणमिच्छसि ॥६॥
इत्यच म्यादादाऽचिरोधेन आत्मविभुत्वविषये नैयायिक पनि सौहादंमुपददर्य साम्प्रतं नयमन भेदनात्मपरिमाणमावदान • अपि चेति । आत्मनो देहमानत्वं = स्वदहपरिमाणतुल्पपरिमाण इनि व्यवहारनयो लोकिकोपचारचाहुल्याग्निदृष्टिः ब्रूते ।
के विषय होने से केवलज्ञानस्वरूप आत्मा स्वविपयता सम्बन्ध में वस्तुमात्र में सम्बद्ध होने में ज्ञानात्मना आत्मा को हम स्याद्वादी मर्यव्यापी ही मानते हैं। इसलिए स्याहादी के मन का सन्मान करने पर आत्मा के विश्व का अस्वीकार या अपमिद्धान्त दाप की चिन्ता करना है. नैयापिक ! तुम्हारे लिए उचित नहीं है। इसलिए तुम खुद से जैनेन्द्रसिद्धान्त का आदर-सत्कार. स्वीकार का । इसमें तुम्हारा, हमारा, सब का हित है ।।५५॥
→ “यदि आत्मा ज्ञानान्मना सर्वव्यापी है तब आप न्यावादी उसे कायपरिमाण क्यों मानने हैं और उसमें विभुत्व का १ से लेकर ४५ कारिका नक खण्डन क्यों किया ?" - इस शंका के समाधान में सत्पुरुषों की ओर से यह कहा जाता है कि ज्ञान का विषय जो चीज होती है वह संयोगसम्बन्ध से ज्ञानाश्रय में सम्बद्ध नहीं होती है, क्योंकि सूक्ष्म, व्यवहित, अतीत, अनागत आदि सब चीजों से मुंयक्न हो कर चित्तवरूप : ज्ञानस्वरूप आत्मा उनका भान नहीं करती है किन्तु अपनी काया में रह कर ही अपने से असंयुक्त व्यवहित । अतीत आदि विषयों का अवगाहन करती है । इनलिए जानात्मना आत्मा में जो सर्वगतत्व है वह मुख्य नहीं है, किन्तु गौण है। यहाँ नयायिक का यह कथन कि → 'आप आत्मा में ज्ञानान्मना मर्यगतत्व मान कर भी सर्वमतसंयोगिन्यम्वरूप विश्व का स्वीकार तो नहीं ही करने हैं तब आप स्याद्वादी के साथ हम नैयायिक मित्रता कस व सकते है ? हम तो सर्वमूर्तसंयोगित्वस्वरूप विभुत्व का आत्मा में स्वीकार करते हैं? - इसलिए नामुनासिव है कि आप नैयायिक के सम्मन मदेशसंयोगित्वस्वरूप = सर्वमूर्तसंयुक्तस्वरूप विभुत्व का भी समुद्रात अवस्थाचाले सर्वज्ञ - सर्वदशी अवश्य धारण करते हैं . यह तो हम भी मानते ही हैं । इसलिए हम स्याद्वादी से दोस्ती नोडने की जरूरत नहीं है। नोडे से भी टूट ना यह हमारी जाई ! ॥६॥
यहां इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि ज्यादाद अनकन्य के वक्तव्य में सापेक्ष रह कर वातुस्वरूप का प्रतिपादन
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८०८८ मध्यमस्याद्वाद रहस्ये खण्ड ३ का. १४ * धेताश्वतरोपनिषदादिसंसदः
जैवमाकाशप्रमाणत्वं निश्वाययति निश्चयनयः ॥ ६१॥ सङ्कोच एवं विस्तार : प्रदेशाऽपरिहाणित: । तेन नात्र नये कोऽपि दोष: स्थाव्दादिदेशिते ॥६॥ जीवं प्रदेशं मनुते किलान्त्यप्रदेशवादी पुनरन्त्यमेव । * जयलता
निश्वयः = निश्वयनयस्तु नैवमिति ब्रूते । स हि आत्मन: आकाशप्रमाणत्वं लोकाकाशप्रदेशप्रमितप्रदेशत्वं निश्वाययति । यदि आत्मनो देहमानत्वं स्यात् तर्हि नक्षिकामवधारणीयदहं परित्यज्य हस्तिभवधारणीयशरीरस्वीकारे मक्षिकादेहातिरिक्तभागगवच्छेदन ज्ञानाद्यनुभवो नैव स्वादिति लोकाकाशमुल्यमानत्वमेवात्मनोऽभ्युपेयं, अन्यथा समुद्रातदशायां तस्य लोकन्यापित्वं न स्यादिति निश्चरनयाभिप्रायः ॥ ६२॥
तर्हि किं तत्त्वं ॥ इत्याशंकास्पद
दतक्रमे
ती सदादेशावित्याशयेनाह
विस्तार एव प्रदेशाsपरिहाणितः सङ्कोच उच्यते । अयमादायां द्विरददारीरवृत्त्यात्मप्रदेशविस्तार एवं लोकाकाशप्रदेशप्रमितप्रदेशाऽविनाशनेन द्विरेफशरीरवृत्यात्मप्रदेशसङ्कोचीऽभिचयते । तुल्यन्यायेनोपलक्षणात् द्विरेफभवधारणीयशरीरवृन्यात्मप्रदेशसङ्कांची ह्यात्मप्रदेशाधिक्यपरिहारेण द्विरदाराप्रमाणाकाशप्रदेशसमानावगाहनाकात्मप्रदेशविस्तारो भवति । तेन = शक्त्या आत्मना लोकाकाशप्रदेशप्रमितप्रदेशकत्वं व्यक्त्या तु तचत्कर्मकृतशरीरावणढाकाशप्रदेशसमसत्यप्रदेशत्वमिति निश्वमभ्यवहारयोः सम्यक समन्व यात्मकः स्याद्वादागमो हि परास्तसमस्तकलकपक: प्रमाणतामास्पदीकरोत्येवेति हेतुना स्याद्रादिदेशिते = स्याद्वादानतिक्रान्ताव्यवसायप्रादुर्भूत अत्र = आत्मपरिमाणविचारे नये न कोऽपि दोषः । इत्थमेव 'अणोरणीयान महतो महीयान' (भे. ३) २० महा.ना. ८/३ नारायणोत्तर १) इति वेताश्वतर- महानारायण नारायणोत्तरतापनीयोपनिषदादिवचनमपि मगच्छते । स्याद्वादमहाराजाझील्लङघने तु तस्य मिथ्यात्वमेव नाव व्यक्त्या अपि लोकाकाशव्यापित्वमात्मन इति एकान्ननिश्रयनयस्व मिध्यात्वमंत्र । नैयायिकाभ्युपगतनात्मविभुत्वश्चैतत्स्वरूपमेवेत्यतः तस्य प्रमाणवाधितत्वम् । व्यक्त्येव शक्त्यापि कायमानत्वमंचात्मनः तद्विलये चात्मनी विलय इति तु व्यवहाराभासः । एनमधिकृत्य चावदिदर्शनं प्रवृत्तमिति तस्याऽपि प्रमाणबहिर्भूतत्वमित्यादिकं विभावनीयं सुधीभिः । एतेन 'अणीयान् जीव वाद्रा' (छा.उप. ३/१४/३) इति छान्दोग्योपनिषदुवचनं, "यथा त्रीहियवी वा श्यामाको वा श्यामाकतण्डुलमन्तरात्मन पुरुषो हिरण्यमयः' (शत.ब्रा. १०/६/३/२) इति शतपथब्राह्मणवचनं 'अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषः' (श्र.३ - १३) इति वेताश्वतरोपनिषद्वचनं, 'अणोरणीयान (मा. परि. ९ / २३) इति नारायणपरिखाजकोपनिषदचनं च प्रत्याख्यातानि धनुरदमेव वक्ष्यमाणसिद्धावाच ॥६२॥
श्रीमन्महावीरजिनेन केवलज्ञानस्योत्पादितस्य पोडशवर्षायभूत तदा ऋषभपुराऽपरनाम्नि राजगृहे नगरे गुणशिलंक
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करता है । इसलिए भिन्न भिन्न नयों का क्या वक्तव्य है ? यह जानना अनिवार्य बन जाता है । आत्मपरिमाण के विषय में व्यवहारनय का वक्तव्य ऐसा है कि आत्मा का परिमाण काया के परिमाण के तुल्य है, क्योंकि आत्मगुण की उपलब्धि केवल वहीं होती है। मगर निश्चय नय कहता है कि यह बात ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कायप्रमाण ही आत्मा का स्वीकार करने पर केवली समुद्रात अवस्था में संपूर्ण लोक में उसकी व्यापिता अनुपपन्न बन जाती है । अतः आत्मा को लोकाकाश के प्रदेश के तुल्य प्रदेशवाली माननी चाहिए ऐसा निश्रय निश्रयनय कराता है ।.६१।।
स्यानादी का यह कथन है कि हाथी के शरीर में रहनेवाली आत्मा के प्रदेश का जो विस्तार है वही मक्षिकाशरीर में बिना आत्मप्रदेशविनाश के संकोच कहा जाता है और Heat के शरीर में रहनेवाली आत्मा का जो संकोच है वही बिन्दा आत्म-प्रदेशआधिक्य के विस्तार कहा जाता है, जब वह आत्मा हाथी आदि के शरीर को धारण करती है। इसलिए शक्तिरूप से आत्मा को लोकाकाशप्रदेशप्रमाण कहनेवाला निश्रयनव जैसे प्रामाणिक है ठीक वैसे ही अभिव्यक्तिरूप से आत्मा को कार्यप्रमाण बतानेवाला व्यवहारनय भी प्रामाणिक है । इसलिए सापेक्ष दोनों नय के स्वीकार में कोई दोष नहीं है । यह स्याद्वाद का ऐदम्पर्य है ||5||
आत्मा अणुपरिमाण नहीं है
यहाँ तिप्यगुप्त नामक द्वितीय free का यह कथन है कि
"आत्मा असंत्यप्रदेशात्मक नहीं है किन्तु अन्त्यप्रदेश ही आत्मा है । इसका कारण यह है कि 'जो जिसके होने पर ही होता है वह तदात्मक = तत्स्वरूप सिद्ध प्रमाणप्रसिद्ध होता है - यह अटल नियम है । दृष्टान्त के लिए लिया जा सकता है। जैसे स्थास, कोश, शिवक, कपाल आदि संस्थान
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* आत्मप्रवादाभिधशतपूर्वसंगरः * यद्यत्र सत्येव हि तत्तदात्मसिन्दः स्वसंस्थानमयो घढो यत् ॥६॥
सत्यन्त्यदेश एव हि भवंस्तदात्मा स्मृतस्ततो जीवः ।
तदिदं निजाभिमानाद गमनाहगणवल्गनप्रायम् ॥६॥ यतः, इह भावः किमुत्पत्तिज्ञप्तितित्वमेव वा । आद्ये सा बाधिता द्रव्ये पर्याये सर्वसाक्षिणी ॥६॥ तथाहि → संसारे संसरन्त: सपदि तनुभुतो विधति स्वागदेशान, दीर्घज्वालाजलालज्वलन
-* जयलता - चैत्ये चतुर्दशपूर्विणी वसुनामान प्राचार्याः समागताः तेषां तिष्यगुप्ताभिधानस्य शिष्यस्प आत्मप्रवादपूर्वमधीयानस्य गग भंते ! जीवपएसे जीवत्ति रत्तचं सिया नो इण्डे । एवं दो तिन्नि जाब दस. संबंजा, असंबंजा भंत : जीवापसा जान चि वनचं सिया ? ना एणडे समझे । प्रगपासूणे विणं जीव नी नीचे नि दत्तवं सिया । से केगं अट्टणं : जम्हा गं कसिण पडिपुत्र लोगागासपासतुल्लं जीवे जीव नि बत्तव् सिया. मे नेणं अद्रेणं इत्येवं स्वरूपमालापकं वदत; 'कस्यापि नयस्यदमपि मतं न तु सउँनयानां' रत्येवमनानतः मिथ्यात्योदयाद गी नाष्टविपासा जातः तं स्यद्रयेन प्रकरणकारः प्रदर्शयति- किल अन्त्यप्रदेशवादी = 'चरममात्मप्रदेशमात्मत्वेनोपदिशन हिप्यगुप्ताभिधानी वसुमरिशिष्यः, पुनः अन्त्यं = चरम एच प्रदेशं = आत्भप्रदशं जीवं मन्ते स्म । कस्मानंतोः ? उभ्यते, यत् = यस्मात् कारणात् यत् वस्तु यत्र = यस्मिन सत्येव तत् वस्तु भवति । तद् वस्तु हि = खलु तदात्मसिद्धः = तदात्मकत्वे प्रसिद्धं भवति यथा स्वसंस्थानमयी घटः । स्थागकांश-शिवक-कपालाद्यवस्थायां यटश्यपदेशमननुभवन कम्मग्रीवादिसंस्थानदशायां घटव्यवहारभाग घटः तादृशम्य स्थानमयों भवति ॥२३॥
तथैव एकाधेकप्रदेशानप्रदेशापर्यन्तं जीवन्यपदमननुभवन सत्येव अन्त्यदेश = चरमप्रदेश हि = खलु जीव इतिव्यवहारभाव भवन् जीवः ततः = तम्मात् कारणात तदात्मा = चरमप्रदेशस्वरूपः स्मृतः । गादी पासा नी जीवा नो पासह णो दि । जं तो स जण पुण्णी सब जीवों परसा नि॥२३६।। इति विशेषावश्यकभाष्यगाथां चिता श्रीमलधारिहेमचन्द्रसूरिणा:पि 'यत = यस्मात् एकादयः प्रदेशाग्नावलीचो न भवति, पग मते ! जीवपणसे' इत्याद्यालायक निषिद्धत्वान् । एवं याबदेंकना-पि प्रदर्शन हानो जीवो न भवति, अदाला पके निवास्तित्वात् । तनः = तस्मान् येन केनापि चरमप्रदशन स जीवः परिपूर्णः क्रियते स एव प्रदेशी जीवो न शेषप्रदेशाः एतत्सूत्रालापप्रामाण्यादिति' प्रोक्तम् । तस्माचरम पत्र प्रददो जीयो भवनि । तदिदं अनन्नरल्यावर्णितं निजाभिमानात् = स्वमिथ्याहङ्कारवशात गगनाङ्गणवल्गनायं विदुषामुपहासपात्रं नवनि ॥६४।।
कस्मात् कारणात् ? उच्यते यतः = यस्मात् कारणात् इह = विप्रतिमनिस्थले 'अन्त्यप्रदेशे सत्येव भचस्तदात्मा जीव' इत्यत्र भूधात्वर्थः भावः किं उत्पनिः नतिः वृत्तित्वमेव वा इनि विकल्पवयी त्रिपथगाप्रवाहनयीच जगत्रयीं पवित्रयन्ती चौकत । आये विकल्प कक्षीक्रियमाण सा उनिः मर्वसाक्षिणी द्रव्ये पर्याये ६ बाधिता भवति । यतस्तदा यत्सद्धाय एवं उत्पद्यमानः पदार्थः तत्स्वरूा' इत्यर्थः प्राप्तः । नत्र च बाध एव ।।६।। ___नधाहि संसारे संसरन्तः तनुभृतः = दारागिणः सपदि स्वागदेशान् = स्वाश्यवभूत्प्रदशान सकलान दीर्घजालाजदालज्वल. होने पर घटव्यवहार का भाजन न रनता हुआ घट कम्युग्रीचादिसंस्थान होने पर ही पट कहा जाता है । इसलिए घट कम्बुवादि संस्थानस्वरूप है ॥६॥
ठीक वैसे ही एक, दो, संख्यात आदि प्रदेश होने पर वह जीव नहीं कहा जाता है किन्तु चरमप्रदेश होने पर ही जीव कहलाता है। इसलिए जीव चरमप्रदेशात्मक = अन्त्यप्रदेशस्वरूप ही है। वह चन्म प्रदेश ही जीव है, न कि शेप प्रदेशा-यह सिद्ध होता है" - मगर यह जो कहा गया है, वह अपन मिथ्या अहङ्कार से गगनाङ्गण को नाथ भिड़ने के समान है I
इसका कारण यह है कि -> 'रिप्रतिपनिस्थल में भाव क्या उत्पाद है या ज्ञप्ति में ज्ञान है पा वृत्तित्व = स्थिति ? ये तीन विकल्प उपस्थित होते हैं । इनमें में एक भी विकल्प टीक नाइ संगत नहीं हो पाता है । अतः उपर्युक्त मन्तव्य का स्वीकार नहीं किया जा सकता । वह इस नाह . भाव को उत्पत्तिस्वरूप मानने के प्रथम विकल्प को मान्य करने पर उत्पत्ति द्रव्य पर्व पर्याय में बाधित है, जिसमें सर्व जीव साक्षी है।५॥
देखिये, इस संसार में भटकते हा सशरीरी जीव एक ही काल में अपने अवयवस्वरूप उन प्रदेशों को धारण करते
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११. मध्यभरपाद्वादहस्य खण्डः ३ . का. * तिष्यगुप्ताभिधानानदग्नयनिरास:
परिचितक्षीरनीरातिदेशान । येऽष्ट स्पष्टप्रदेशा लियतमपिहितारतेऽपि मध्या न बन्याः , पूर्वाकारातिवारादिति परिणमते सर्वत: सर्वतप्तः ॥६६॥
नापि कापि नियतं दितीयके ज्ञप्तिरस्ति चरमांशगोचरा । वृत्तिताऽपि घरमेन तत्र वा सर्वदेशगतया घटादिवत् ॥६॥
- जयलता * नपरिचित क्षीरनीरातिदेशान् = महाज्वालान्याप्लान्यभिनमध्यांजलोपगान सर्वतः काध्यमानानिव विभ्रति नचापि ये मध्या अष्ट स्पष्टप्रदेशाः नियतं - अवयं सर्वदव ने अपिहिताः = अनावृताः, कत ! यनस्ते पूर्वाकारातिचारात् = पूर्विलयरिशुद्धपर्यावरणाशात न बन्ध्या = न कभचम्धनयोग्याः भवन्ति । जीवः बल कमांवृतदशाया सर्वतः सर्वतमः भवति । नत्र स्थिरगृद्धप्रदेशाटक मत्येव शेषप्रदेशा उत्क्काभ्यमानत्वनात्यान्न तथा परिभ्रमन्छषपिहिनप्रदशा न स्थिरानावृतप्रदशाएकस्वम्पा इति 'यत्सद्भाव व भवन = उत्पग्रमानः पदार्थ नन्दात्मकः' इन प्रथमो विकल्पः प्रत्यक्षमेव बाध्यने । न हि करकणदर्शनायादा उगादायत सद्भिः ॥१६॥
अस्तु तर्हि द्वितःया विकला एवं न: वारणं यदन यत्सद्भाव एव भवन = झायमानः पदार्थः तदात्मक' इति यथा कम्ब्यावादिमस्थान सत्त्या डायमानो घटः तदात्मकः तव चरम प्रदेश सत्येव यथासूत्रप्रामाण्यन ज्ञायमानी जाबान्त्यप्रदशस्वरूप एवेत्याशङ्कायां प्रकरणकारः प्राइ-नापि द्वितीयक विकल्प व्यावर्णिनस्वरूप चरमांशगोचरा नियतं ज्ञप्निरस्ति । यनी विक्षनः प्रदेगी यथा चम्मत्वेनाभिमतः नथवान्यन्नदशामि चम्मत्वेन ज्ञातमहत्येन विश्चितचरमप्रशतुत्यपरिमाणत्वात् । तथा च नग्मप्रदेशविषयिणी शामिरेवा व्यवरियता सती कथमात्मानं व्यवस्थापयत ? नंत्यर्थः ।
अस्तु तर्हि तृतीय एवं विकलयः त्रिलोचनायलोचनममोतिप्रसङ्गादिदाभग्मकारी नः वारणम । या कानग्राधादि. संस्थानसद्भाव एव भवन = वर्तमानी घटः तादृशसंस्थानगरः नव चरमप्रदेदो सत्ये च भवन = विद्यमानी जीवः तन्मय एवत्याशङ्कायां प्रकरणकारः प्राह. घरमे विकल्प अपि वा कक्षाक्रियमाणं न तत्र = बिनितान्त्यप्रदशे वृत्तिता = जीयविद्यमानता सड़गछतं । यतः मा हि निनाम प्रदोष गता : सर्वदेवागतया वृनितया चिक्षितचरमप्रदा एब बत्तिव्यं न शेषप्रदोष इत्पत्र प्रमाणाभावात, बिनशाम । दृष्टान्नमाइ घटादिवत् गधा घटचिना संकपालगना एकस्मिनंद कागलं
हैं जो लम्बी ज्वालाबाली अग्नि से नप्त पर उबलते हुए श्रीर-नीर की भाँति सतत उर्ध्व अधः दिशा में घूम रहे हैं। मगर तभी भी आत्मा के मध्य में रहे हग आठ शुद्ध आत्मप्रदेश सदा कर्म से अनावृत ही रहते हैं। पूर्व शुद्ध आकार को छोड़ कर वे कर्मबन्धन के अयोग्य होते हैं। आत्मा संसारी अवस्था में चारों ओर में कर्म से संपूर्णनया नप्त होती है। परिज स्थिर प्रदेशाष्टक होने पर ही शेप प्रदेश अविशुद्ध एवं अस्थिरूप से उत्पन्न होने हैं फिर भी वे प्रदेशाष्टकस्वरूप नहीं होने हैं जिसकी वजह 'निसंक होने पर ही होता हुआ पदार्थ तयानक होता है। इस नियम का 'जिमके होने पर ही उत्पन होता हुआ पदार्थ तत्स्वरूप होता है' इस तरह स्वीकार करना बाधिन होता है ॥६॥
यदि आप द्वितीय विकल्प का स्वीकार कर के उपर्युन. नियम का इस तरह अर्थघटन करें कि 'जिसके होने पर ही ज्ञायमान पदार्थ तत्स्वरूप होना है जैसे कम्युग्रीवादिसंस्थान होने पर ही ज्ञायमान घर कम्ग्रीवादिसंस्थानस्वरूप होता है तब भी नियत चरम प्रदेश का ही जीव कहना नामुमकिन बन जायेगा, क्योंकि विक्षित चम्म प्रदेश की भाँनि अन्य प्रदेश को भी चरमत्वन विचलित करने पर जीन ज्ञायमान होने की वजह तब जीव को उस चरमप्रदेशान्तर स्वरूप मानना पड़ेगा । एवं उस चरम प्रदेश में प्राथम्य की विवक्षा करने पर उससे भिन्न घरमादेश के होने पर ही जीव जायमान होने के समय जीव को उस चरमप्रदेशस्वरूप न मान कर अन्दा अलिम प्रदेशात्मक मानना पड़ेगा । मनलब की जीव को निश्रितरूप से किसी एक चरमप्रदेशात्मक नहीं माना जा सकता है, यदि भावपद का अर्थ ज्ञप्ति माना जाय । इस तरह भावपद का निन्न अर्थ मान्य कर के उपर्युक्त नियम का इस तरह स्वीकार करना कि -> 'जिसके होने पर ही जो दृनि = विद्यमान होता है वह पदार्थ तत्स्वरूप होता है, जैस कम्युग्रीवादिसंस्थान होने पर ही रहनेवाला घट कम्युग्रीवादिसंस्थानात्मक होता है - भी गहन नहीं हो सकता है, म्याकि जैसे घट सर्व अवयों में रहता है न कि एक अवयव में, ठीक वैसे ही जीव भी अपने सफल आत्मप्रदेश में, जो लोकाकाशनमाणसंख्यावाने होते हैं. कहना है, न कि किसी एक प्रदेश में । अतःजोद चम्मप्रदेशम्यरूप है. है. यह नहीं माना जा सकता । अन्य प्रदेश में अन्य प्रदेश की अपेक्षा कुछ विशेपता नहीं होती है जिसकी वजह जीव
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*अन्य दागन ने नामांसा * अनात्येभ्यश्च काऽतत्यानां देशानामतिशायिता । पूराणं वोपकारित्वमुत सिदान्तसिध्दता ॥६॥ आध: पक्ष: पक्षमालाक्षीकटाक्षः स्थातुं प्रायो तो सपक्षः क्षमेत । यरमादेवन्यूनतावर्जकत्वं देशेऽन्त्ये चेत् ? किं नु नान्यत्र तुल्यम् ॥६॥ अस्तित्वं नलु तथापि विवक्षापूरस्य परमेऽस्तनिरुक्तः ।। आ: किमत्र न विवक्षणदण्डाबाश्चमीति तव चक्रकचक्रम् ॥७॥
यता * --- न नियन्त्रितुं पार्यन नथैव मप्रदागता जीववृत्तिना गर्नका लगना विवक्षिनचरमनदंश कल्पयितुमहति, अन्यथा स्मिन्नण्यकम्मिन ॥ प्रदेश नत्कल्पनाप्रमहागात प्रदात्या विशेषात् ।।
अथ शेपप्रदेशेभ्यो विवक्षिनामप्रदेशस्य नृल्यपरिमाणत्यप्यस्ति कश्चिदानशया यर जार: नत्र वर्तत नान्यत्रत्यागड़कायामाह- अनन्त्येभ्यश्च प्रदशेभ्यः अन्त्यानां = चरमाणां देशानां = प्रदेशानां काऽतिशायिता ? किं पूरणं उत उपकारित्वं सिद्धान्तसिद्धना वा! इत्यत्रापि पक्षनया प्रवाणगुणत्राव सर्वत्र प्रहनासग़ प्रसगसगति ।६.८॥
अध विवक्षितासारख्ययप्रदेशगदारन्न्यः दशः पूरणमाभिधानानशयशाली इति आद्य: पक्षः म्याक्रियने तहि सपक्ष: = शंघनदयागशिः प्राय: पक्ष्मलाक्षीकटाक्षः स्थातुं नं क्षमत, कतः १ यता बचा विवक्षितान्त्यः प्रददाः 'परणः नर्थककः प्रथमादिप्रदेशः तम्य विवक्षितजीवनदेगशेः पुग्ण एच. एकमपि प्रदेवामन्तरण नस्यापरिपूरित्याशयमाह-यस्मात् कारणान अन्त्ये देशे = प्रदश एतन्यूनतावर्जकत्वं = जीनापरिनिंगाशकवं अभिमतं चेत् ? किं न अन्यत्र = प्रश्रमादिनी न तुल्यम ! ममानगंय । तनः चरमप्रदेश इस प्रथमादिप्रदीप जीनत्यमनिवारितमेव ।।६।।
ननु तथापि शेषप्रदेशपि नन्न्युनताबर्जकत्वमद्भावेऽपि, विवक्षापूरणस्य = विवक्षाविएचभूतस्य पूरणस्य = न्यूननावकत्वस्य चम्म एव अस्तित्वं, कनः ! अन्ननिरुनेः = चम्मपदनिर्वचनात । चरमत्वं हि म्बसमानजातीयाननग्कत्यादिम्वरूपम । अन्यप्रदशानां जीचन्यूनतावणकवेगि तम्य म्बसमानजानीयानरकचेन न विवक्षितन्यूननावजंकत्वमिति विदाषा चरमसः प्राग्यंत्र वैक्षिकपूरणसद्भावनजीवन पनदेवानाम इति चेत् । आः : द्विानहर । किगनं त्वया ? श्रीमनाहावीरचरणदारणं प्रपद्यस्व विचारय च तं वन्दित्दा यदुत किमत्र चरमप्रदेश नीववव करलक्षणघटनिष्पनी विवक्षणदण्डान् = वैनिकपुरणलक्षणदगडात तब चक्रकचक्रं न चम्भ्रमीति ? पूर्वी झावितविकलात्रिकान्तिमरिकल्पस्वीकार बिभावितपक्षत्रिताधम्पक्षस्याकामिद्धि
को करल, बरमप्रदेशवृनि मान कर केवल चरमप्रशस्वरूप माना जाय । सभी प्रदेवा समानपरिमाणवाले हैं ॥६५॥
यदि अन्त्यप्रदेशजीववादी तिप्यगप्त की, जो द्वितीय निलय के स्वरूप में जिनशासन में प्रसिद्ध है, ओर से यह कहा जाय कि -> 'चरम प्रदेश में अन्य अचरमप्रदेवा की अपेक्षा एक ऐसा अतिदाय रहता है जो केवल परम प्रदेवा में ही होता है, न कि अन्य अचरमप्रदेश में । इसलिए जीव चरमप्रशस्वरूप ही है, न कि अचरमप्रदेशस्वरूप' - नो यह वक्तव्य भी अग्ण्यम्दन की भाँनि निष्फल है, क्योंकि वैमा मान्य करने पर यह प्रश्न होता है कि. - अवरम् प्रदेश की अपेक्षा चम्म प्रदेश में रहनेवाला अतिशय क्या (१) पुग्णस्वरूप है " या (D) उपकागत्मक है। पा (३) सिद्धान्तसिद्धत्व = जैनागमप्रसिद्धत्वरूप है ? ॥६६॥ जैसे भापकब्रह्मचर्यवाला आदमी बीकाक्ष के सामने नहीं टिकता है वैसे प्रथम विकल्प को अन्यप्रदेश सहन नहीं कर सकते, क्योंकि प्रथम विकल्प का स्वीकार किया जाय तब उसका अर्थ यह प्राप्त होता है कि आप का चग्मः प्रदेश जीन में न्यूनता का बजक होना है। मगर क्या वैमा पुग्ण अन्य अचम्मपदेवा में रहता नहीं है ! रहना ही है। जैसे विक्षिन एक प्रदेश के चिना संपूर्ण जीव अपुर्ण बन जाता है ठीक वैसे ही अन्य अवरमप्रदेश न रहने पर भी लीय अधूरा ही रहता है । इसलिए जैसे चरमप्रदेश से जीर की परिपूर्ति होती है ठीक वैसे ही अन्य अनरमप्रदेश में भी जीव की पूर्णता होनी न्यायप्राप्त है । नर - 'परमप्रदेश में है। पुग्णनामक अतिशय रहना है, न कि अन्य अचरमप्रदेश में' . यह कहना कम संगत हो सकता है । कथमपि नहीं ।।६।।
- "जी हाँ, चरम प्रदेश की भाँति अपरम प्रददा में भी पुरकन्चनामक अतिशय रहना है. फिर भी विक्षिन पुरण अतिशय ना कंवर चम्म प्रदेश में ही रहता है । इसका सागण यह है कि मय अचम्मपदेश होने पर भी चरमप्रदेश नहीं होने पर जीव पूर्ण नहीं कहलाता है। इस विवक्षा से पुरण अतिशय कंवर चरमप्रदेश में ही रहेंगा" - ओ जना । यह आपने क्या बोल दिया ! अन्यप्रदेशजीवत्ववादाबरूप पट की सिद्धि के लिय चिवक्षात्मक पद की सहायता लेने पर क्या
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८१५ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्ड ३ का १४ * द्वितीयविनयं नादिदुषणम
अन्त्यत्वमव्यवस्थितमनवस्थितवृत्तिजीवदेशानां ।
उपकारण हविमुखे तेन विशेषाग्रहः को वा ? ||७||
ॐ जयलता
प्रयोजनस्वीकृतवैवक्षिकपूरणनियमार्थं पूर्वलाङ्गीकृतान्तिमविकल्पाश्रयणेन निशिततरदुर्धर भारोद्धुरारातिचक्रक्रचक्रनिस्फेटित एवान्त्यप्रदेशजीत्ववाद इति गृहाथी । अव प्रदेr rate free ra: इति पूर्विकल्पकक्षीकारे कुतः चरमप्रदेश एवं जीवस्य वृत्तित्वं । इति पर्यनुयोग पूरणातिशयसद्भावादित्युत्तरदानानन्तरं तत्रैव किं पुरणातिशयः ?' इति चालनायां वैवक्षिकपूरणसद्भावादिति प्रत्यवस्थानं कृते तत्रैव किं वक्षिकयूरणातिशयो नान्यत्र प्रदेश इति प्रश्न तत्रैव जीवस्य वृत्तित्वादिति प्रत्युत्तरप्रदानं स्पष्टमेव चक्रकदूषणमिति नान्न्यप्रदेशजीवत्वमतिः मतिमतां रतिदायिनी ॥७०॥
किञ्च जीवानां येनावृतप्रदेशाष्टकभिन्ना: प्रदेशास्ते सर्वे एवानवस्विता इति न केवल विवक्षितप्रदेशस्य चरमत्वं किन्तु सर्वेषामेव प्रदेशाष्टकव्यतिरिक्तानां प्रदेशानामिति विवक्षितप्रदेश इव शेषप्रदेशेष्वपि पूरणत्वप्राप्त बहु विप्लवेन । तथाहि दोष - | प्रदेशानां विवक्षित प्रदेशमानपूरणत्वेऽन्त्यप्रदेशवत् प्रत्येकं जयत्वात् प्रतिजीवं जीवचहुत्वमसीजीवात्मकं प्राप्नोति । अथवा प्रथम प्रदेशस्यापि अजीवत्वं सर्वथा जीवाभाव: प्रसज्यते । किञ्च यद विश्वकैकस्मिन्नवयं सर्वथा नास्ति तत् सर्वेष्ववेषु समुदितेषु न भवति, प्रत्येकमवृत्तिधर्मस्य समुदायावृत्तित्वनियमात्, अन्यथा रेणुकगराशेरपि तैलमुत्येत तथाच प्रथमादिक एकैकस्मिन् प्रदेशे सर्वधा जीवत्वं नास्ति चेतु । तर्हि प्रथमादिदेशेऽसजीवत्वं परिमाणादिना तुल्ये चरमप्रदेश कथमकस्मादेव समायातम् । न च प्रथमादिप्रदेशे देशतो जीवत्वं चरमे च कात्स्वनिति न दोष इति वाच्यम्, तत्राऽपि देशन एव जीवः कल्पयितुमर्हति तस्यापि प्रदेशात्वात् प्रथमादिप्रदेशयत् । अन्त्यप्रदेश सर्वात्मना जीवसद्भाव यो हेतुः स शेषप्रदेशेष्वपि समान एव, तुल्यधर्मकत्वात् । तथा च जीवबहुत्वप्रसङ्गः पूर्वोक्तः तदवस्थ एवेत्याद्याशयेन प्रकरणकारः प्राह- अनवस्थितवृत्तिजीवदेशानां निरन्तरं ऊर्ध्वमधी गतिशीलानां जीवप्रदेशानां अन्त्यत्वं = परमत्वं अपि अनवस्थितं अनिश्चितम् ततश्च सर्वेषामेवान्त्यत्वप्राप्ती जीवलं प्रसज्येत, नवा विचरप्रदेशऽपि जीवः स्यात प्रदेशत्वात् प्रथमादिप्रदेशवत् । न चविवक्षितचरप्रदेशेऽन्यप्रदेशापेक्षया कविचद्विशेषोऽस्ति । दीपप्रदेशासद्भावे तु विवक्षितचरमप्रदेशोऽपि न जीवन्यूनतावर्जन समर्थ इति केवलस्य तस्य उपकारग्रहविमुखे = उपकारोपलब्धिमुख्यं तेन विवक्षितचरमप्रदेशेन को वा विशेषाग्रहः तद श्रद्धा जीवप्रदेशानां संसारिन्दशायामनवस्थितत्वेन चरत्वस्य दुत्व पूरणायुपकारो नैकस्मिन् प्रदेश ज्ञायेतेत्युपकारज्ञानविमुखे त्वपि तेन चरमप्रदेशेन को विशेषाग्रहः तव यदुत चरम एवं प्रदेशः सर्वात्मना जीवी नत्वचरम इति । तती न पुराभिधाना तिशयस्य सर्वेष्वात्मप्रदेशेषु सतः शेषप्रददीभ्यो ऽन्त्यप्रदेशच्यावर्तकत्वं सम्भवतीति न प्रथमः पक्षः ते हिताय ||७१ ||
=
—
चक्रक दोपस्वरूप चक्र जोर से घूमने नहीं लगेगा ? हम यह भी कह सकते हैं कि अन्तिम प्रदेश होने पर भी शेष प्रथमादि प्रवेश नहीं होने पर जीव पूर्ण नहीं कहलाता है । इस विवक्षा से पूरण अतिशय केवल अन्य प्रथमादि प्रदेश में ही रह सकता है, न कि चरमप्रदेश में तब आप क्या बोलोगे ? आप कहेंगे कि 'जीव चरमप्रदेशरूप होने से हम विवक्षित पूरण अतिशय की कल्पना अन्तिमप्रदेश में ही करते हैं तब तो चक्रक दोष ही आयेगा । इसका कारण यह है कि 'जीव अन्तिमप्रदेशात्मक क्यों है ? इसका जवाब आपने दिया कि 'जीव चरमप्रदेशवृत्ति होने की वजह चरमप्रदेशात्मक है। फिर 'जीव चरमप्रदेशवृत्ति क्यों है ? इस प्रश्न के प्रत्युत्तर में आपने 'पूरणनामक अतिशय चरमप्रदेश में होने की वजह जीव चरप्रदेशति 'हे' ऐसा कहा । बाद में ' पुरणातिशय चरमप्रदेश में ही क्यों रहता है ! इस समस्या के समाधान में आपने यह बताया
कि "विवक्षित पुरण अतिशय चरमप्रदेश में ही रहता है । इसके पश्चात् विवक्षित पूरण अतिशय केवल चरमप्रदेश म ही क्यों होता है ! इस शंका के निराकरणार्थ आपने 'क्योंकि जीव चरमप्रदेश में ही रहता है' ऐसा कहा । तब तो वापस यही प्रश्न उपस्थित होगा कि 'जीव प्रदेश में ही क्यों रहता है ! इस तरह तो प्रश्नों का चक्र घूमता ही गंगा और उससे आपका चरमप्रदेशजीवन्यवादस्वरूप पट टूट जायेगा । इस बात को क्या आप भूल गये ? शांति से सोचिये ॥ ७० ॥
दूसरी बात यह है कि संसारी अवस्था में जीव के प्रदेश उबलते पानी के अवयव की भाँति सतन घूमते रहते हैं । अतः अंत्यत्व भी किसी एक ही जीवप्रदेश में निश्चितरूप से नहीं रह सकेगा । इस परिस्थिति में चरमप्रदेश किसको कहा जाय ? यह निर्णय करना भी मुश्किल बन जायेगा। तय जीन चरमप्रदेश में ही रहता है - यह कहना भी कैसे आसान होगा ? क्योंकि तब कौन प्रदेश जीव में विशेष उपकार करता है जिसकी वजह से चरम मान लिया जाय ! यह निर्णय करने में आप विमुख बन जायेंगे। फिर क्यों देश में दुराग्रह आप रखते हैं ? यह हमारी समझ में नहीं आता है ।।७१ ||
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* जिनगद्रणक्षमाश्नमणवनसंवादः * अभित्तिचित्रार्पित एव भाति दितीयपक्षोऽपि परीक्षकाणां । येनोपकारो हि फलोपधातं युक्तं बहूनां न तदेककस्य ॥७॥ तदुक्तं → 'जुतो य तदुक्यारो देसूणे न उ पएसमेतमि । जह तंतूणमि पडे पडोक्यासे न तंतुम्मि ॥७३॥ (वि.स.भा.२३४७)
जयला * अस्तु तर्हि चरमप्रदशस्योरकारित्वलक्षणातिदाय इत्याशङ्कायामाह-द्वितीयपक्ष: उपकारित्वलक्षणः अपि परीक्षकाण अभित्तिचित्रार्पित एव भाति, येन कारगन उपकारी हि प्रकृतं न फल्लम्बरू भयोग्यत्वं. चन्मदा इव शेषप्रदर्शवपि कारणनवच्छेदकधर्मवत्त्वात्मकम्य तस्य गतत्वना निष्टा पानानव किन्न फलोपधानं - स्याउमाहितीनरलसम्बन्धन 'फरदोत्पादल्यायवमिति स्वीकर्तश्यं । तच्च वहनामेव प्रदेशानां यन न तदेककस्य चरमस्य प्रदेशस्या, गमग्री व कार्यनिका न त्वकं कारणमिति रचनात् । न होकनेव नन्तुना पटो जायने किन्तु स्वकारणालापन । तथैवकन प्रदर्शन वरमगा:चरमेण वा न ज्ञानादिन्दक्षणं कार्यमृत्पाद्यते किन्तु सर्वैरेच जीवप्रदशः सम्भूय एवं . ततः फकोपभागलपकागाधानातिगयनान्येभ्यः प्रदेशभ्यान्न्यः प्रदशी भिद्यत इनि रिकमेव वचः ॥७२।।
अत्रैव जिनभद्रगणिक्षमाश्रमग्गवचनं प्रमाणात . तदनं विशेपावश्यकभाप्य नि शपः जुनो य इति । देशाने जीवप्रदेश सति चरमप्रदर्शन तत्महकारीभूय तदपकारः = ज्ञानादिकलपधानलक्षणोपकारः कर्नु युक्तः न तु ग्मन चरम प्रदेशमाने सति । यथा तन्नून = एकेन तन्तुना हीन = विवक्षितकतन्मुविग्हणान्ताद्यमाने पटे - विवक्षितमदग्न्याकनन्गन्य पटेवपरिनि शेषिकतन्तुना पूर्वतन्तुभिः सम्भय परोपकारः - विक्षिपदजननलक्षणोपकार नविनमहति, न तन्ती स्वतन्त्र सति । नत एकस्मिन्नच चरमप्रदेदा ज्ञानादिफलातानिन्यायलाभिधानं स्वसम्यापरिचयविम्मितम । इनञ्च प्रकृनप्रकरणकाराशयमनुसृत्य व्याख्यानम् अन्ये तु नदवयारी इत्यस्य तदपचारः इत्येवं छायामकुर्वन्ति अंग्रेऽपि परांपचार इति । तक माल पाहिमाद्रसूरिभिः 'उपचासदायक गवान्त्यप्रदशा जाबो न भवनि किन्नु दशान ब जीव जीवं पचारी युग्यत यथा तन्तुभिः कतिपयैरूने पटे पटोपचारो दृश्यते न वकस्मिंस्तन्तुमा' (वि.भा.२३४७ म.वृ.) इति ।।५।।
प्रसड़गन सोपयोगिताद विशेषावश्यकभायगाथातदन्याच्यानांपदर्शन कियत:स्माभिः । अंतोऽवयवान काइ समनकचं ति जइ न सो भिमओ । संयवहाराईए तो नम्मि कास्वविगाह २३.। यदि नाम.न्त्यायपवः समस्तस्याप्यवदिनां यत्साध्य कार्य तन्त्र कराति इत्रनो सौ नाभिमना भवतां कूर-पक्वान्न-वस्त्रादीनां सिन्ध-सुकुमारिकादिसुमखण्ड-स्नत्वादिरूपःत्यो वयो यदि न परितापकग अवतामित्पर्धः, तहिं संन्यवहागुठीत तस्मिन्नन्त्यावयव कुतः किल समस्तावयाविग्रही भक्ताम ? इति ।।२३५१|| प्रमाणयन्नाह . अंतिमतंतू न पड़ी तकजा करणो जहा कुंभी । अह तयभाव वि पड़ा सो किं न बडो खपुप्फ व? ||२५|| अन्त्यतन्तुमा न पटः, तस्य पटर-य कार्य तित्रागादिकं - नत्काय, तस्या:करणं = तत्काकि
___ यदि दूसरे पक्ष का आश्रय लिया जाय कि => 'अचम्म प्रदेश की अपेक्षा चरम प्रदेश में उपकार नामक एक अतिशय रहता है, जिसकी वजह जीव चरमप्रदेशस्वरूप है' -नां यह परीक्षकों को बिना मिनि के चित्रकामनुल्य लगेगा। इसका कारण यह है कि उपकार का अर्थ है फलोपधान यानी स्वाऽव्यवहितात्तात्वसम्बन्ध में फलोत्पादच्याप्यत्व । जिमकी अव्यरहित उत्तर क्षण में कार्य की निप्पत्ति हो वह उपकारक कहा जाता है । मगर ऐसा उपकार अन्य अवरम जीवनदेशों में निरपेक्ष केवल एक चरम प्रदेश नहीं कर सकता है। अनेक कारण होने पर ही कार्य का जन्म होता है. न कि कंवर, कारण से ही। अनः चरम प्रदेश में अचम्म प्रदेवा को अपेक्षा उपकार नामक अतिशय भी नामुमकिन है ॥७२॥
इस विषय में विशेषावश्यक भाग्य में भी कहा गया है कि 'उस ज्ञानादि फल का उपकार आंशिक सामग्रीन्यूनता होने पर या कार्य में आंशिक न्युनता होने पर ही हो सकता है, न कि प्रदेशमात्र = केवल चरम प्रदेश होने पर । जंग एक-दो तन्नु की न्यूनता होने पर एवं बोप सकल नन्नु आदि सामग्री उपस्थित होने पर अवशिष्ट एक-दो तन्तु पटापकार = स्वाश्व्यवहितानरत्वसम्बन्ध सं पटापनि का ज्याप्य बनने में समर्थ होने हैं, न कि केवल एक-दो तन्तु से ही पट की तदुत्तर क्षण में उत्पत्ति होती है। इसलिए एक चरमप्रदेश में ज्ञानादिफलापहितकारणता नहीं मानी जा सकती । अनएच रमप्रदेश में अन्य प्रदेश की अपेक्षा फलोपधात्मक उपकार का स्वीकार कर के उसीम अतिशय का प्रतिपादन कर के जीव को चरमप्रदेशात्मक चताना नामुनासिब है . यह, उपर्युन भाप्यगाथा के अर्थ को शांति में सोचने पर फलित होता है ||३||
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1१४ मध्यमस्वादादरहस्पदण्डः ३ . का.११ * मुक्ताका मनिरासः *
सर्वेषामेव तन्तूनामन्यसंयोगशालिनां । तथात्वमिति नादेयमेकदा तत्पटोदयात् ।।४।। तृतीयपक्षः पुनरक्षराणां कलामपि ज्ञातवता ने माल्यः । व्यवस्थितो यत्समयस्तदाशावल्लीविताले कठिन: कुठार: ॥७॥
- जयलतातस्मादिनि । यधा कुम्भी घटः । बाथ लदभावेऽपि = पदकार्याभावे :पि नन्तुः पट इप्यतं. तर्हि किमित्पनी परे छटः रखपुष्प वा न भवति ? पटकार्या कर्तृत्वस्याइविदापात् ।२३५२|| तथा 'चलं भव्यवहाराभावाआ नत्थि न खपुष्पं व । अनावसंध्ययवा दिनाभावी बानि ।।२३. शनिवाभिमनोऽवयवी अन्त्यावयं नास्ति. उपलचिलक्षणमाप्तस्यानुपलब्धः, व्यवहाराभावाच. खपुणवदिति । अथवा अन्यायमात्रमवयी अवविस पूर्णहतुत्वान इत्यन्न नाबद् दृष्टान्नाभावान माध्यसिद्धिरिति ।।३३।। यदि | नाम नोपलभ्यते नागि ज्याहयते दृष्टान्ताभावार्थ नानमारत, ततः किम् ? इत्याह . 'पञ्चस्व औरणमाणादागमओ या पसिद्धि अत्यागं । सबापमाणविसमाइयं मिछनमंत्री ॥२३५४|| प्रत्यक्षानिप्रमागरथांनां सिद्धिः,नानि च लपक्षसाधकत्वन न प्रवर्तन्ते । अतः सर्वग्रमागविषयातीतं 'भ' भवतामभिमत मिथ्यात्वमयति ।।२३५५।। इति मलधारवृनिः । विस्नग्स्नु भाष्यता बाध्यः ।
___ साम्प्रतं चतुःसनितमपद्यमवसरप्राप्तं व्याम्पायन । सर्वेषामेव तन्तूनां अन्त्यसंयोगशालिना = चरमनन्तर्गयांगवता तथालं - प्रत्यक स्थाव्यवहितोत्तरत्वसम्बन्धेन पटीत्यादन्यायन्यमिनि । न चैवमेकोऽपि तन्तुः चरमतन्तुसंयोगेन पदमृत्यादयेदिति वाच्यम, द्वितन्तुकपटांत्यत्तरिष्टत्वानदानी, शततन्तुकरटोनिस्तु नापाद्या तत्कातावच्छंदकानाक्रान्तत्वात । एतेन शततमतन्तुसंयुनन प्रथमतन्तुना द्वितीयादितन्तुविकलेन शततन्तुरूपटोत्पादापत्ति: पास्ता, तदानी प्रथमतन्तुसंयुक्त तन्नी दाततमत्वस्यैव विरहग दातनन्तुकपटकारणस्य शतनमतन्नुसंयुक्तस्य तन्तारव विरहादिति तु नादयं = न स्यीकतन्यम्. एकदा = युगपत् तत्पटोदयात् = तन्तुसममइयाकपटोत्यादप्रसगात् । प्रधमतन्नोः चरमजन्तुसंयुनाम्य परविज्ञपहेतुत्वं, द्वितश्पतन्तीः चरमसन्तुसंयुनस्य पटान्तरतुत्वमित्येवं बीकार नेकां सर्वेश प्रथगादिनन्ननां चरमतन्तुसंयोगाश्रयाणां सन्चदशायां समकालमेव नत्तताटवादन्छिनानां नानागटाना. मुत्पत्तेः मुरवरगुरुणाऽपि निययित्गशक्यत्वात् । एतेन पूर्वतन्तब एवं नन्त्यन्तरसहकारात्पूर्वपटे मत्येव पटान्तरनार भन्नामिति निरस्तम्, एकदा नानापटोपलम्भस्य बाधितत्वात । यत्तु मुक्तावलीकृना 'मूर्तयोः समानदेशताविगंधात तब पटद्वयाऽसम्भवादिन' (का.११२.मु.पृ.७११) गदितं, तन्न चारू. प्रकाशचनधूमादीनां मूर्नद्रव्यागां समनदेशताया अनिगानेनोपलम्भादिति दिक् ॥७॥
तर्हि सिद्धान्तसिद्धत्वलक्षण एनातिदायोऽस्तु चरमप्रदशस्याचरमप्रदाभ्यं व्यावर्तकत्वग । न च मद्धान्तसिद्धत्वमेवामिद्धमंत्रति वाच्यम्, यतः पूर्शकान्लापकरूप सिद्धान्ने शंषा प्रथमादिप्रदेशा जीवत्वेन निषिद्धा. न पुनरन्यप्रदेशः तस्य तर जीनत्वा नज्ञानात् । अनेन अन्त्यप्रदेशों में जीवः प्रदेवालात, प्रथमादिप्रदशयन इनि प्रत्यास्यातम्, आगम्बाधितत्वादिति निहवाशङ्कायां स्थाद्वदी प्राह- तृतीयपक्षः अष्टषष्ठितम्कारिकाप्रदर्शितः सिद्धान्तसिद्धत्वलक्षणः पुनः अक्षराणां कलामपि ज्ञातवता = यस्मात्कारणात समयः = "जाहा गं कसिणे पहिपुन लोगागामपालतु जाति बत्तव्यं सिआ इत्ययस्वरूप आत्मणवादपृालापकथितः सिद्धान्तः व्यवस्थितः स्न तदाशावाट्टी बिताने = अन्त्यप्रदेशजावत्वरिपयिय्याः निम्यगुप्तामिलापलनाया
यहाँ यह कहा जाय कि → 'प्रत्येक तन्न चरमतन्तुसंयुक्न हो कर पद के जनक होते हैं अर्थात् स्वाऽज्यवहिनीनगत्वमम्बन से पटोत्पाद के व्याप्य होने हैं । सब नन्दुओं में चरमतन्नुसंयांग नभी हो सकता है यदि अचरम सकल तन्तु एवं चरम लन्तु विद्यमान हो । अन्य एक भी तन्तु न होने पर चरमतन्तु संयोग ही विद्यमान तन्तु में नहीं रह सकेगा, क्योंकि नर कोई भी तन्तु चरम नहीं बनता है' - नो यह भी अमंगत है, क्योंकि तब तो एक ही काल में अनेक पटों की उत्पनि होने लगेगी। चग्मतन्तु संयोगविशिष्ट प्रत्येक तन्नु नन् तत् पट के कारण है - यह स्वीकार करने पर यावत् मंज्याक नन्नु होंगे उतनी संख्या में पद की उत्पनि होने लगेगी । तर तो १. तन्तु से १०० पद की उत्पनि हो जायगी, जो व्यवहार से बाधित है । इसलिए वैसा अभ्युपगम नहीं किया जा सकता ॥७॥
६८ वी कारिका में जो तृतीय विकल्प बताया गया था कि > 'अचम्म प्रदेश की अपेक्षा चम्म प्रदेश में सिद्धान्तमिद्धत्व नामक अतिशय रहता है यानी जैनागम ही चम्मप्रदेश में जीवत्व का समर्थन करता है' - वह तो मंस्कृतभाषा की मात्रा आदि को जाननेवाले को भी मान्य नहीं हैं. सकता है, क्योंकि 'कबन्द गक प्रदेश जीव नहीं है ऐसा ही सिद्धान्त जैनशाखों में उपलब्ध होना है। इसलिए शास तो आपकी अन्यप्रदेशा ही जीव है। इस तथ्यहीन मान्यता की सिद्धि की आशास्वरूप जो चेल है उमक विस्तार को काटने के लिए कठिन तीक्ष्ण कुठार समान हो जायेगा । इसलिए तृतीय विकल्प का प्रदर्शन कने पर तो आपकी इज्जन दो कीड़ी की हो जायेगी ।।७५।।
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*विशेषायः यमाय-निगवाद: *
आगमपाठश्चायं → 'एगे भंते । जीवप्पएसे जीवेत्ति वतन्वं सिआ ? यो इगते समत। एवं दो जीवप्पासा, तिणि संखेना, असंखेजा वा जाव एगपएसूणे वि अ णं जीवे यो जीवत्ति वतव्वं सिआ । जम्हा कसिागे पडिपुण्णे लोगामासपासतुल्लप्पएसे जीवेति वत्तव्वं सिआ ।' युक्ततत्, अन्यथा ->
कतिपयसमुदायिभ्रंसविधाभदाभात्कथमिह तव राशिनास्तेि कार्यप्रकाशी । यदि तु चरमदेशे राशिता लाशिता ते मतिरतिगहने नानेन दुष्टाहेण ||७६॥
-%ायलता * विस्तार कठिनः = तीक्ष्णः कुठारः = कुटारसगः ।।७।।
आलापकमेव दर्शयति आगमपाठवायमिति । अस्माभिः पूर्व मलधारनिप्रदर्शिनः पाठो गृहातः । नतः यदि श्रुतं तम्य प्रमाणे तहिं सोऽन्त्यप्रदेशा-
पिजीयत्त्वेन निषिद्ध एच नस्यैकत्वान । तथाहि नवमनं - एगे भन्त ! जांबाये जावनि बनवं सिया ? णो इण? समडे' इति । प्रयोगम्वरम- अन्त्यप्रदशा जीरः एकत्वात, प्रधमाद्यन्यतरप्रदेशवत । सर्वपि परिपूर्णा एव जीवनदशा जीवत्वेन श्रुने प्रता न त्वंक एव चरमप्रदशः। अतः श्रुतग्रामाश्यमिच्छता नक वान्त्यप्रदेशो जीवत्वे - नेश्व्यः । तत:वरमनदेशे शेषप्रददापक्षया सिद्धान्तसिद्धानिशवाश्रयणं तु प्रादायि प्राञ्जलहदगः स्वहस्तेनैव कठिनकुटाग्रहार: बमनारचलतावितान इति मम्यगुनम् । उक्तञ्च विशेषावश्यकभाप्यऽपि नंनु पोचपारी न समनण्ड़ो यसमुनिया ने 3 | सञ्चे समनपइओ मन्चपएसा नहा जीवों ।।२३२१|| तदनिश्चैवम - एकतन्तर्भवनि मनम्नपटोपकारी तमाज्यन्तरेण समस्त पटस्याभावान् । परंस एकस्तन्तः समस्तपटा न भवति, किन्न नेतन्तवः सर्वपि समृदिताः समस्तपन्यपददां लभन्त इति प्रतत्नमव तथा जारप्रदेशापि एको जीवो न भवनि किन्त सर्वे:पि जीवनदयाः संमदिता जीव इति (वि.आ.भा.म.स."
तंदन समर्धयति - युक्तधेतदिति । अन्यथा = एकप्रदेशस्याप्यन्त्यस्य करनजीववस्वीकार, त कतिपयसमापिथसवि. अम्भदम्भात् - अल्पप्रदेश प्रदेशिपर्यवसान मपात कथामिह चरमप्रदशादी तव निष्यगुप्तम्य राशिः जीवादिः कार्यप्रकाशी = ज्ञानादिलक्षणार्थक्रियाकारी नास्ति ? अन्यथा कटादि र शृङ्गादि जावयपदेशभाक स्यान, नत्कार्यकारित्वाभावग्या:विशेषादिनि पूर्वमुनमेन । यदि तु चरमदेश = चरम प्रदेश गशिता त्वया स्वकृता तर्हि अनेनाऽतिगहनेन दुराग्रहण नब मनिः । अनिगहनत्वं कमिन चन् ! कथं का मतिनाशने ? किं वा नत्र प्रमाणम् ? इति चेत् ! 'वं भूयनयमयं दस-पासा न वत्धुणा भिन्ना । तेणाम्वत्थुनि मया कसिणं चिय बत्थूमि से । जइ तं पमाणमंच कांसमा जीवो जहावयाराओ। दसे वि सञ्चबुद्धी गरज संसे वितो जीवं ।।२३४-२३४६इति विशेषावश्यकभाष्यगाथे एखात्र प्रमाणल्वन गहाण । तदति - श्चैवम - एभूतनयस्येदं मतं यदन देश-प्रदेशा न वस्तनो भिन्नाः तेन ताववस्तुरूपौ मती । अतो देश-प्रदेशकल्पनारहित कृत्स्नं परिपूर्णमेव वस्तु से = तस्य एवम् भूतनयम्येष्म । नतो यदि नदयम्भूतनयमतं प्रमागं जानासि ल्वं एवं नहि, कुलनः
आप शाखसिद्धत्व की बांग पुकारते हैं, मगर शान क्या कहता है ? यह तो पहले सुनिये । यह रहा वह आत्मप्रवादनामक | पूर्व श्रुत का पाठ जिमका अधं है - "हे भगवन ! एक प्रदेशा जीव कहा जा सकता है ?" इस प्रश्न का जवाय यह है कि 'यह नहीं हो सकता है । यह अर्थ समर्थ = योग्य नहीं है । इस तरह दो जोत्रप्रदेश, जीच के नीन प्रदेश, संख्यात प्रदेश, असंख्यात प्रदेशा यावत एकप्रदेशन्यूनसंख्याक असंख्य प्रदेश को भी जीन नहीं कहा जा सकना 1 सतुस्थिति यह है कि कृत्स्न प्रतिपूर्ण लोकाकाशप्रदेशातुल्यसंख्याक प्रदेशों को ही जीव कहा जा सकता है । इस सिद्धान्त को समझने में ही मालूम हो जाता है कि चरम प्रदेवा का जीन नहीं कहा जा मकना, क्योंकि वह एक है, जैसे कि प्रधम प्रदेश । इसलिग शास को प्रमाण कहना हो नब तो लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं उननी मंख्यावाले जीवप्रदेदा को ही जीव कहना मुनामित्र हो सकता है।
विचार करने पर यह बात पक्किसंगत भी प्रतीत हान है, क्योंकि सभी प्रदेशों में अवयवी आत्मा का विश्राम न मान कर कतिपय प्रदेशों में ही आन्मा का विश्राम ॥ संपूर्णनीव की विद्यमानता माननं का अच्छा डोंग मचाने पर मो समस्पा यह आयेगी कि , 'राशि - संपूर्ण जीव कतिपय प्रदेश में विद्यमान हे तर कनिषय प्रदन ही कार्यप्रकाशी = झानादि कार्य के जनक क्यों होते नहीं हैं जिसका जवाब प्रतिवादी के सामने साई भी न रहेगा । फिर भी यदि चरमप्रदेश में ही गशिता = संपूर्ण चैतन्य माना जाय न तो लगता है कि अत्यन्त गहन इम कदाग्रह से तुम्हारी मति नए हो गई है । अतएव संपूर्ण अवयवों के होने पर ही अवयवी माना जा सकता है . इस आगमिक एच पौक्तिक बात का तुम अपलाप
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१६ मध्यमस्या दादरहस्यं स्त्रण्डः ६ का,११ *मिव धावकेन नियतापनिबोध: *
तथा च स्थितमेतत् भवन् सर्व-स्वदेशेषु घटो यत्तिदात्मक: । . भवन सर्व-स्वदेशेषु तद्वदात्मा तदात्मक: १७७॥ इति । स्यादेतत् -> सर्वेषामेव देशानां जीवत्वं यदि यौक्तिकं । एकेकस्थाऽपि देशस्य हतादापतितं तदा ॥७८॥ न वर्तते यत् प्रत्येक समुदायेऽपि नास्ति तत् । ततोऽन्यथोपपत्व पर्यापिरपि नोचिता ||७ein
-* जसलता परिणी जीवी न वन्स्यप्रदेवामात्र मति पनि पर। अब 'ग्रामो दग्धः, पटो दयः' इत्यादिन्याचादेकदेशपि समस्तवस्तूगचारदन्त्यप्रदशलक्ष दशपि ममस्तनीयवादः तत्र प्रवर्तत ताई दोष दिशादिप्रदेदो उपचारती जीचं प्रतिपद्यस्व. न्यायस्य समानत्व - दाते ।। (वि. आ.भा.म.बृ.पृ. ४५७. ) ||६||
निष्कर्षमाह- तथा च स्थिनमेतन - प्रदर्शनीन्या प्रमाणरिमिदं बदन । सर्व-स्वदेशेषु = सर्वेषु स्वकीयषु अवयवेषु भवन् = उत्पद्यमानः प्रमीयमाणो वनमानश्च घटो यगत तदात्मकः सकलम्बकीयावयवात्मका भवनि न त कतिपयावयवस्वम्प: तहत = नव सर्व-स्वदेशेप = संपूर्णए स्वकीयप प्रदशप भवन - तनत्ययायारिगुहेगात्पद्यमानः प्रमीयमाणा वर्तमान आत्मा तदात्मकः . अखिल-स्वकीयादशातरक न चन्त्यदशात्मक इति ॥७॥ इत्येवं मित्रश्रीश्रावकातिबोधित: तिघ्यगुप्तः पाचनं प्रपन्नः । नन प्रदशत्वाचनदन जीवत्वं मानादिभिः स्याक्रियते न वा : इति द्विपक्षीराक्षसी प्रत्यक्षायामधान रत्यापन निभिः पद पर शकते स्यादतदिति । प्रथम्प गह- सर्वेषामेव देशानां = स्वप्रदेशानां यदि जीवत्वं गौकिकं तदा एकैकस्याऽपि देशस्य = जीवादशस्य हठात जावत्वं आपतितम् । ततश्च प्रत्येक नित्वात प्रतिजीचं जीवबहुत्व. गर हरव्ययजीवात्मकल्वं या प्रसज्यत । किञ्चवमन्त्यप्रदेशजीवत्ववादोऽपि जन्मनात् । अनी न प्रथमः पक्ष: समचतुरमः ।।८।।
द्वितीयपने पर राह यत् प्रत्येकं न वर्ततं तत् समुदायेऽपि नास्ति गधा शुरुणेषु प्रत्येकमसनसमुदाये तैलम् । युपगम्यते चककरिमन प्रदेश नीमन्वं तत्कथं लल्ममुदाय लांकाक नल्यसंन्याकादेशेष जीवत्वं स्यात् । प्रत्येकमवृनिधर्मस्य समुदायबृत्तित्त्वात्यांगादित्यनुपदं त्वयवक्तत्वात ।
नन्चम्माभिः पर्याप्तिसम्वनन जानत्वं लंकाकादानंदशानामन्यःकजीवप्रदेशेष स्वीक्रियते घटापटयोदित्वसहरव्यवदित्या. का वायां पर आइ । ततः = प्रत्यक जीवप्रदेशेषु जीबवायाकग्ट, अन्यथानुपपत्त्येव = 'कसिंगे पडिपुणों लोगागासपागसतुझे नींचे' इति शासवचनान्यधानुपपत्त्यै च गत्यन्तरविरहेण चयः कल्पनाना पर्यामिः = जापत्यपर्याप्तिः अपि नाचिता । घटपटयां:
कर रहे हो ।।७६॥
इस तरह से लेकर ७८ कारिका नक के विचारविमर्श मे यह फलित होता है कि - जैसे अपने अखिल अवयची में रहनेवाला, उत्पन्न होनेवाला घट सकलस्वकीपावनवान्मक होता है, न कि कतिपयस्वावयवात्मक । ठीक वैसे ही अपने निखिल प्रदेशों में रहनेवाली आत्मा भी संपुर्ण स्वकीयप्रदेशस्वरूप ही होती है, न कि अन्त्यप्रदेशात्मक ।।७।।
असांस्यपदेशामक आत्मा के एवीकार में दोषोडातज और जिराकरण पूर्वपक्ष :- आप स्यादाटी जीव को संपूर्णस्वप्रदेशात्मक मानते हो , यह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि यदि सभी आत्मप्रदेशों में आप जीवत्व का स्वीकार गंगे तब तो प्रत्यक जीवप्रदेश में जीवत्व के स्वीकार में एक एक जीवप्रदेश भी जीर हो जायेगा। नब तो अन्य देश को भी बलात्कार मे जीव मानना होगा। इस स्थिति में तिप्यगुप्त विनयी रन जायेगा ॥८॥
यदि आप स्याद्वादी जीव के प्रत्येक प्रदेश में जीवन का स्वीकार नहीं करोगे तब तो निखिल जीवप्रदेशों में भी जीवत्व का स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि प्रत्येक अंश समदायी = अवयव में न रहनेवाला धर्म ममुदाय में नहीं रहना है। क्या पानी के प्रत्येक बिन्द में घी न होने पर सम्द्र में घी आ जाता है। इस स्थिति में लोकाकाशप्रदेशसमसंख्याक जीवप्रदेशों के समूह में भी जीवत्व नामुमकिन हो जायेगा । यहाँ यह शंका कि → 'आगम में जीवप्रदेशों के संपूर्ण सनुदाप में जीवत्व का प्रतिपादन किया है । उसकी अन्यथा = अन्य प्रकार से अनुपपनि = असंगति होने की वजह हम सकल जीवप्रदेशों में जीवत्व की पर्याप्त मान कर स्वपयांप्तिसम्बन्ध सं वहाँ जीवन्ध का स्वीकार करते हैं' -भी इसलिए निराधार हो जाती है कि प्रत्येक अंश में असत् धर्म उसके समुदाय में नहीं रह सकता है। प्रत्येक घट, पटू में समवाय सम्बन्ध
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* आत्मग्यानिसंवादः * कियेवं गौणमेकत्वं प्रसक्तं परमात्मनि । योगस्वेकसंख्याया एकस्मिोव युज्यते ॥८० ॥ उत्तरम्, → तद्गोलाइगूललाइलचापलव्यापभागिदम् । कचिनेदपक्षस्य प्रत्यक्षाऽऽदर्शदर्शनात् ॥6॥
प्रत्येकं समवायन द्वित्वं वर्तन उत्पन उभयोः द्वित्वपयामिः पर्यानिसम्बन्धन द्वित्वञ्च वर्ने । प्रकृने न प्रत्येकं सकलस्वप्रदेशेषु समवायन जीवलस्य स्यावादिना नगकतत्वात निखिलस्वप्रदोष जीवत्वपर्याप्तिनं कल्पयितुं शक्या. अन्यथा युद्गलादिति नत्कल्पनाप्रसङ्गात् । अत एव पानसम्बन्धनाखिलजनप्रदापु नारत्वकल्पनाःपि प्रत्युक्ता, अजीबपि धमास्तिकायादा पर्यापल्या जीवत्वकल्पनाप्रसगात् ।।७।।
किन, एवं = एकस्यापि जीवस्य लोकाकाशनदासमगडल्याफम्वादशात्मकत्व स्वीक्रियमाणे परमात्मनि आत्मत्वावच्छिन्न गौणं = अपक्षाद्भिविशेष विषयत्वरूप एकत्वं प्रसकम् । यध धन-लक्ष-बंदर-बकलादिसमदायात्मक वन भाकर्मकत्वं तथै. बासङ्ग्यात्मप्रदेशात्मके आत्मनि तदुपसर्जनीभूतमंब न लनुपमर्जनी-तमिति प्रत्येत । नर्हि अनुपचरितमे कवं कुन ? इत्या. शङ्कायां पर आह एकसंख्याया = एकत्वसहरख्यायाः योगः - समवायः पुनः एकस्मिन्नेव = अनकानात्मक द्रव्य एय युज्यते - वाईति ॥८॥
अबोनर स्याद्वादी प्राइकन गधन - तदिदम् अनन्तरं पद्यत्र'न, गोलागूललागलचापलब्यापभाग = धनुदीर्घलालवालधितुल्यम । कुतः ? इत्याह - कनिद्रेदपक्षस्य - अवयवावर्याचनाः स्यादनयस्य प्रत्यक्षादर्शदर्शनात = अध्यक्षमेयोपलम्मान । सदकान्तामंद साइख्यमनप्रबंशप्रसङ्गः, तंदकान्तभेदे च नयापिकमतापात:. उभयत्र दोषाः प्रागंचोपदर्शिताः । 'उमानि कपालान्येव घटनया 'परिणतानि' इत्यादेराबलगांपालावरसवाहित्यवात नवंदाभेन मद्धः । नयभेदापेक्षयान्मन्येकत्वबहुत्वं नैव विरुद्धं । अयं भावः सर्वेषु स्वाद प्रत्येक दशता. जावः समास्त, नत्ममुदाय च सर्वात्मन्ग सा वर्तते । अता नककम्प हठात् कात्स्न्येन जीवत्वप्रसङ्गो न वा सकलतत्समूह सर्वात्मना जीया सम्भवः । अवयवे योऽवविनः स्वान्द्रेदात् जीवेऽनुपचरितम. कत्वमपि निरपापम् । सङ्ग्रहनयार्पणपकलनाधारित पि जीवञ्चयवाचत्रिभेदाभेदावष्टितस्याद्वादाविरोधनानेकत्वस्या विरोधात । तदुक्तं प्रकरणकृतव आत्मख्याती "अन्यविनायकान्नभेदे प्रत्येकसमुदायापेक्षायामवयनवृत्तित्वं दुर्निरूपम, न्यभेदाश्रयणे त न काप्यनुपानिः एकत्वेन सड़गृहातम्याविनः स्वव्यत्वेन सड़गृहनियावदववववृत्तित्वसम्भवात् । तत् किम् ? अवययकत्वमपि द्वित्वादिवद् बुद्धिजन्यमेवनि त ? न, एकत्व द्वित्वादीन अनन्तानां सड़च्यापर्यायाणामकरन्यवृत्तीनामेव सतां यथाक्षयोपशम बुद्धिविशेषेण प्रनिनियतानामेव ग्रहणमित्युपगमात् । युक्तञ्चतत् अन्यथा एकत्रैव बटे तप-तहसवतारक्यमित्यादिना द्विवचनप्रयोगस्य
से बिच रहने पर ही घटपटीभय में द्वित्वपयाप्ति रह सकती है एवं पर्याप्तिसम्बन्ध से द्वित्व रह सकता है। मगर आप स्याद्वादी
तो प्रत्येक जीवप्रदेश में समवायसम्बन्ध से जीवन का स्वीकार नहीं करते हैं । तर सकलप्रदेशसमुदाय में जीवत्य की पर्याप्ति | कैसे रह सकेगी ? और उसकी अनुपस्थिति में पर्याप्तिसम्बन्ध से जीवत्व भी वहाँ कैसे रहेगा ? कथमपि नहीं ।।५।।
इसके अतिरिक्त एक अन्य दोप यह आयेगा कि आत्मा को अमरज्यप्रदेशात्मक मानने पर परमात्मा में यानी मभी आत्मा में एकत्व मुख्य नहीं रह सकेगा, किन्तु गौण = अपेक्षाशुद्धिचिशेपविषयत्वस्वरूप एकत्व रहंगा, क्योंकि मुख्य एकत्वसंख्या नो अनेकानात्मक केवल एक द्रव्य में ही रहनी हैं। आत्मा को तो आपने असंख्यप्रदेशात्मक मानी है। इस तरह आत्मा को असंस्थ्य स्वप्रदेशात्मक नहीं मानी जा सकती ॥४॥
उत्तरपक्ष:- जनाब ! जैसे गाय की लम्बी पुनछ अस्थिर होती है वैसे आपका चान्य भी स्याद्रादकेशरी के सामने अस्थिर-चंचल बन जाता है। इसका कारण यह है कि आपने जिन दोपों की संभावना का उद्भावन किया है वे अवयव और अवयवी में सर्वथा भेद मानने पर ही प्रसक्त होते हैं। मगर हम स्याहादी नो अवयत्र और अवयवी में कथंचित भेद मानते हैं, जो कि दर्पण जैसे निर्मल प्रत्यक्ष प्रमाण से ही उपलब्ध होता है । 'ये कपाल ही घटात्मना परिणत हो गये', 'ये तन्तु ही पट बन गये' इत्याकारक अवयव और अवयवी में कश्चिन अभेद का ज्ञान होने से कश्चित् भेद को प्रत्यक्ष अपना विषय बनाता है। अनाव प्रतिअवयव में जीवत्व का हम कथमित स्वीकार करते हैं । अर्थात प्रथम, द्वितीय आदि सर्व प्रदेश में दवातः जीव रहता है और सकल आत्मप्रया में सर्वात्मना जीव रहता है - ऐसा हम मानते हैं । इसलिए
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मयमाहादरहस्य वनः
का.१
ब्रह्मसूत्रायसवाद: *
त वदन्ति ->एक एवात्मा प्रतिशरीरं रजनीकरबिम्बमिव प्रतिसर: सरस्वतीसरवदन्तरलुबिम्बतीति ततमतनिर्दलनाय 'प्रतिक्षेत्रं भिक्ष' इति ।
- III - बहा च करितुरंगरश्रगदातिषु सेनेत्येकवचनप्रयागम्यानुपपत्तेः । अथैकत्र द्वित्वादितत्तद्धाप्रकारकवुद्धिविषयत्वादिकं गंणय द्वित्वादिन्यवहारनिमित्तं न तनतनरिन्दनव पर्याप्पमिति नको द्वामित्याद: प्रसङ्ग इति चत् ? न, उतविपयतामाद्विगंदायकत्र पर्याप्तन्यात, तनधर्मग्रकारतानिरू पितत्वविशिष्ट विषयताया अगि वत्सम्बनधादिभेदेन प्रकारतादाद कराया जमावान. गवेग च यस्य प्रत्येकानतिरिक्तवनकधर्माचन्दन द्विवादिश्यां प्टिसकात, धर्मगतद्विसम्पत्र तयाल्पवछंदकत्वस्वीकार न नत्राग द्वित्वस्य वास्तवस्या भागाद्वगत्वरसत्वादिप्रकारकदिविषयत्वमार्यच गाणस्य वाकार तत्पयर्यान्यवन्छेदकादिगपणनावस्यति वास्तद्वित्वामात्र ज्ञानाकारतच नत्र पर्यवस्व दिति द्रव्यल्पावनिकत्वावदन पांयत्नवनिम्नविवाद: पर्यागत्वावसिद्वित्वादवच्छंदन च इन्कामानिनिकाला गयामि यकिनका नाविला व्य ति ध्येयम् । उक्त पत्र 'दन्चट्टया र अहं. नागदंगणद्या दुये अहं' इत्यादि परमपम । (आ.ख्या .. ४..) ।।८।।
तर्कानुमानशब्दरद्वैतविवक्षया कचित् । निह्नवमतभहन चात्ममानं निरूपितम् ।।२।।
पे तु वेदान्तिनी ब्रह्माद्वैतवादिनी नदन्ति एक नाना, नत नाना, 'तहों कास्मिन मच्छनि पर: किं न गमति इत्यायादाड़कायामाई प्रनिशरीरं प्रत्येक गैर रजनीकर्गचिम्पमित्र प्रतिसर: सरावासरस्वदन्तः अनुविम्बतीनि । यक पाव चन्द्रप्रतिसरोजलं प्रतिबिंबनि सरांजलगनं निशाकरप्रतिबिम्ब जलवृद्धा वर्धत, जलदार द्वसनि. नालयलने चलति. जलभेद न भिद्यत इत्येवं जन्मधर्मानुयायि भवति न तु परमार्थतः इन्द्रासः नयावास्ति । परमार्थता-विकृतमंचकम्पपि मद् ब्रह्म देहान्तः नानात्वेन प्रतिबिचति देहायुपाध्यन्तर्भावाद्भजन इयोपाधिधर्मान वृद्धिसगगनागगनचलनादीन् । तदुक्तं ब्रह्मसूत्रशाभाष्य 'दर्शयनि च श्रुतिः परस्यैव ब्रह्मणो देहादिष्पाधिप्यन्तरनुप्रदशम 'पुरश्च द्विपनः गुरश्चक्रे चतुष्पदः । पुरः २५ पनी भूत्वा पुरः पुरुष आविदान' (बृ.उप.२/५/१८) इति । अनेन जीवनात्मनानाविदय' (छा.-3-) इनि च । तस्माद्युलमतन 'अत एव वोगमा सूर्यकादिवत' (न.स./२/१८) इति । त्र.स.३/२/३१ शां.भा, प्र..१८) । अन पति अस्योपा
एक प्रदेश में बलात्कार से सांत्मना जीवत्व की आपत्ति या सकलप्रदेशसमदाय में अजीवत्व की आपत्ति को अवकाश नहीं है । अवययों से अवयवी यानी सकल प्रदेशों में जीव कचिन भिन्न होने में प्रत्येक जार में मुख्य एकत्व की अनुपपत्ति भी नहीं हो सकती है। म्यादाद चक्रवती के शरण में जानवाल मदा खौफ रहते हैं । समझे ! ॥४॥
लामा1 (pt जि [pititief DJ ये तु. । यहाँ वेदान्तियों का यह कथन है कि - 'आत्मा केवल एक है। जैसे आकाश में चाँद एक होता है फिर भी जैसे सारे जहाँ के प्रत्यक सरोवर में उसका भित्र भिन्न प्रतिबिम्ब पड़ता है एवं कोई प्रतिविम्ब पानी के चलने पर चलता है, पानी के स्थिर होने पर स्थिर रहता है ठीक वैसे ही जगस्वरूप आकाश में सन ब्रह्मस्वरूप कंवल एक चाँट होता है फिर भी अनेक शरीरस्वरूप सरोवर में उस ब्रह्मतन्न का प्रतिबिम्ब पड़ता है एवं शरीर के चलने पर वह चलितम्वरूप ज्ञात होता है एवं स्थिर रहने पर स्थिरस्वरूप । शरीर की वृद्धि में यह बढ़ना हो ऐसा लगता एवं शरीर के क्षीण होने पर यह कृशतया ज्ञायमान होता है। जैसे जलचन्द्र चलने पर भी गगनगत वास्तविय, चन्द्र = बिम्ब ना आकाश में जहाँ होता है वहाँ ही रहता है । जलबन्द्र तरगित होने पर भाकाशचन्द्र तरंगित नहीं होता है। ठीक शरीर के चरन, बठन, घूमने पर भी विशुद्ध ब्रह्मतत्त्व मनो चलता है, न तो बैठता है और न तो घूमता है। बारीर की वृद्धि गर्व हाम होने पर उसकी वृद्धि या हानि नहीं होती है। यहाँ ब्रह्माद्वैतवादी वेदान्ती के मन के जो नर्क है उनका बयान नो हम अभी आत्मविभुत्वनिराकरण के अवसर १०.........३ भोक में कर चुके हैं।'
मगर वेदान्ती के उपर्यत मत के निराकरणार्थ श्रीरादिदेवग्नेि महागज ने प्रमाणनयतत्वालाकालंकार के सूत्र में आत्मा के विशेषणविधया 'प्रतिक्षेत्र भित्र ऐसा ग्रहण किया है। जिसका अर्थ है भान्मा प्रत्येक शरीर में भिन्न होनी है. न कि एक । पूर्वपक्षी बान्नी के गामने सिद्धान्ती'का उत्तरपक्ष यह है कि . यदि चैत्र, मंत्र आदि आत्मा को एक ही मानी जाय तय ता मैत्र जर मी रहा हो तब भी मैत्रशरीर में अवदकतासम्बन्ध में ज्ञान की उत्पनि होने लगेगी, क्योंकि चैत्रीय वगिन्द्रियमनामयोगादिस्वरूप ज्ञानमामग्री भी ममवायत्तम्मन्य से आत्मा में सब रहती है। आत्मा नो एक ही है तब 'चत्रीयत्वगिन्द्रियमनःमयांग आदि ज्ञानमामग्री का आत्मा में अभाव है' मा नहीं कहा जा सकता । यदि यहाँ वदान्नी की ओर
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दागरनिउपन्यासत्या कारणा
तत्पक्षतर्कस्त्वात्मविभुत्वनिराकरणेऽनुपदमेव भावितः ।
सिद्धान्तस्तु → एवं सति सुषुप्तिदशायां मैत्रशरीरेऽवच्छेदकतासम्बन्धेन ज्ञानोत्पत्त्यापतिः चैत्रीयत्वमनोयोगादिरूपाया: समवायेन ज्ञानसामय्या अपि तदानीं सत्त्वात् । न च शरीरनिष्ठपरम्परासम्बन्धेनैव त्वमनोयोगस्य हेतुत्वान्न दोष इति वाच्यम्, तदानीमात्ममानसो* जयलता
निमित्तामपारमार्थिक विशेषचत्तामभिप्रेत्य जलचन्द्रसूर्याद्युपादीयते वेदान्तेषु यथाहावं ज्योतिरात्मा विवस्वानापी भिन्ना बहुकोनुगच्छन्न उपाधिना क्रियते भेदरूपी देवः क्षेत्रेष्वेवमजीत्यगात्मा' इति । तत्पक्षतर्कः = ब्रह्माद्वैतवादिमतन तु आत्मविभुत्वनिराकरणे नवचत्वारिंशत्तमकारिकादितः शान्तिं अनुपमेव भावितः किञ्चिचात्रामा विभावित एव । विस्तरस्तु शाङ्करभाष्याऽद्वैतसिद्धि-तत्त्वप्रदीपिका- सिद्धान्तविन्दु - वेदान्तकल्पलनिकादिभ्यो ऽवसातयः । गीरभयान्नेह प्रतन्यतेऽस्माभिः ।
व्यवस्थितः सिद्धान्तस्तु एवं सति = आत्मनी त्रिभुत्व एकच स्वीक्रियमाणं सति सुष्टुतिदशायां = सुषुप्त्युपधायःकात्ममन:पूर्वसंयोगनाशीत्यनिकाले तदुत्तरं व सुपुप्तिक्षरी आत्ममनी विभागकालोत्पन्नविशेषणज्ञानादिना मंत्र शरीरेऽवच्छेदकतासम्बन्धेन = स्वनिष्ठावच्छेद्यतानिरूपितादकतासंसर्गेण ज्ञानोत्पत्यापत्तिः = ज्ञानोत्पादप्रसङगस्य दुवारेलम चैत्रीयत्वमनोयोगादिरूपायाः चैत्रदशरीरावच्छिन्नस्पर्शनमन:संयोगप्रभृतिस्वरूपायाः समवायेन ज्ञानसामग्र्याः अपि तदानीं आत्मनि सत्त्वात् चैत्रमंत्रादिशरीरलक्षणोपाधिभिरवच्छिन्नस्यात्मनः सर्वगतत्वादेकल्याच । न च ततन्मनः संयोगलेन हेतुत्वान्नार्य दोष इति वाच्यम्, एवं विशिष्यान्नन्नकार्यकारणभावकल्पने महागौरवात् तदपेक्षया नागात्मकल्पनाया एवौचित्याच । न च शरीरनिष्ठपरम्परासम्बन्धेनैव = स्वाश्रयसंयुक्तसंयुक्तत्वसम्बन्धेनैव न त्वात्मनिष्टसमवायसम्वन्धेन त्वमनोयोगस्य हेतुत्वात् = ज्ञानादिकारणत्वात् नायं = सुषुप्तिकालं मैत्रशरीरे ज्ञानोत्यादलक्षणः दोषः तदानी चैत्रीयत्वमनीयांगस्याश्रयीभूतेन मनसा संयुक्तस्येन्द्रियस्य मंत्रशरीरा संयुक्तन, स्वाश्रयसंयुक्तसंयोगसम्बन्धेन मंत्रविद्यमानत्वादिनि वाच्यम्, एवं सति मैत्रसुपुनिदशायां. चैत्रीयत्वमनःसंयोगस्य स्वाश्रयसंयुक्तसंयोगसम्बन्धन मंत्रीवारी सन्येनात्मनः मनः संयुक्तत्वेन चात्ममानसप्रत्यक्षोदयस्य दुर्वास्त्वात् । न हि मैत्रीतः संयोगाश्रयमनः संयुक्तान्नसंयुक्तं न भवनि आत्मन एकत्वाद्विमुवाच । अतो न शरारनिष्ठत्यासत्या | मन:संयोगस्य ज्ञानत्वावच्छिन्नं प्रति कारणत्वं वकुमर्हति । तर्हि कथं सुप्रतिक्षणं मंचशरीरेऽवच्छेदकतासम्बन्धेन ज्ञानीत्यादा. पत्तिर्निराकार्या' ? इति चेत् १ उच्यते तदानीं सुषुप्तिदशायां मैत्रशरीरेऽवच्छेदकतासम्बन्धेन आत्ममानसांत्पत्तिवारणाय
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三
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से यह कहा जाय कि त्वगिन्द्रियमनः संयोग समवायसम्वन्ध से आत्मा में रह कर आत्मा में ज्ञान की उत्पत्ति का कारण नहीं बनता है किन्तु स्वाययसंयुक्तसंयोगस्वरूप परम्परासम्बन्ध से शरीर में रह कर ज्ञान का जनक होता है जब मंत्र सो गया है तब चैत्रीय त्वगिन्द्रियमनुः संयोग के आश्रय मन से संयुक्त इन्द्रिय से संयुक्त चैत्रवारी है, न कि मैत्रदारी | अतः तव त्रीयत्वगिन्द्रियमनः संयोग स्वाश्रयमंयुक्तसंयोगसम्बन्ध से नेत्र शरीर में ही रहेंगा, न कि मैत्रीय शरीर में । अतः मैत्र की सुपुप्तिदशा में क्षेत्रीय यरिन्द्रियमनः संयोग से मंत्री शरीर में अवच्छेदकतासम्बन्ध से ज्ञान की उत्पत्ति का उपर्युक्त दोप नहीं आयेगा तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि त्वगिन्द्रियमनः संयोग को शरीरनिष्ठप्रत्यासत्ति से ज्ञानकारण नहीं माना जा सकता किन्तु आत्मनिष्टप्रत्यासति से ही ज्ञानकारण माना जा सकता है। यदि त्वगिन्द्रियमनः संयोग को आत्मनिष्ठ प्रत्यासत्ति (= समवाय) से ज्ञानकारण न मान कर शरीरनिष्टत्यासति (= स्वाश्रयसंयुक्तरांयोग) से ज्ञान का जनक माना जाय तब तो सुपुमिकाल में आत्मा के मानस प्रत्यक्ष की उत्पत्ति की आपत्ति आयेंगी। इसका कारण यह है कि चैत्रीय त्वगिन्द्रियमनः संयोग स्वाश्रयसंयुक्तसंयोगसम्बन्ध से जैसे चैत्रदारीर में रहता है वैसे मैत्रशरीर में भी रहता है, क्योंकि स्व = चैत्रीय स्वगिन्द्रियमनः संयोग के आश्रय चैत्रीय मन से संयुक्त आत्मा से मंत्रीय शरीर भी संयुक्त ही होता है । आप वेदान्ती तो आत्मा को एक की मानते हैं । इसलिए चैत्रीय शरीर की भाँति मंत्रीय शरीर का आत्मा से जो चैत्रीयत्वमनः संयोगाश्रयमनः संयुक्त है, संयुक होना न्यायाप्त है | आत्मा तो सर्वदा समिति ही रहती है। अतः सुपुषि काल में उक्त सामग्री के बल में मंत्र को आत्मविषयक मानस प्रत्यक्ष होना दुर्निवार ही होगा । हो, उस आपत्ति का निवारण करना हो तब यही कहना मुनासिब होगा कि स्वःसंयोग आत्मनिप्रत्यासत्ति से कारण है । मतलब कि मंत्र को आत्मविषयक मानस प्रत्यक्ष तभी हो सकता है यदि त्वमन:संयोग मंत्रात्मा में रहना हो । जय मैत्र निद्राधीन होता है तब मैत्रीय त्वङ्गमन:संयोग ही नहीं रहना है, क्योंकि तब मन स्वगिन्द्रिय को छोड़ कर पुरीत नाही में चला जाता है। चेत्रीय लक्ष्मनः संयोग तो मैत्रात्मा में नहीं रहता है किन्तु केवल चैत्रात्मा में ही रहता है। इसलिए निद्रादेवी के अधीन क्षेत्र में तब आत्मविषयक मानस प्रत्यक्ष की
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१२. मध्यमस्या दादरहस्य : ३ का,११ * आत्मनिष्टप्रत्यासन्या कारणापपादनग *
त्यत्तिवारणायात्मनिष्तसम्बन्धेनैव हेतुत्वौचित्यात् । चाक्षुषादेश्चक्षुरादिना विषयमनोयोगाद्यभावेनैवाऽनापत्तेः । वस्तुतो विजातीयात्ममनोयोगस्यैवात्मगानसत्वावच्छिन्नं प्रति हेतुत्वकल्पनमुचितम, तस्य
-* जयलवा - = आत्मगौचरमानसप्रत्यक्षात्यालनिवारणकृत वमनोयोगस्य आत्मनिष्ठसम्बन्धेनैव = समयापेनेव हेतुत्वीचित्यात् । चैत्रीयत्वङ्मनः. संयोगस्य समवायेन चैत्रात्मवृत्तित्वं न तु सप्तमंत्रात्ननितम् । अना न सपती त्रस्पात्ममानसदयसम्भवः, सामग्रीविरहान । किन्त्येवं सति नानात्मसिद्धिः परेषां दुर्निवारा, अन्यथा नही पताटवस्थ्यात् । न चात्मनि प्रत्यासत्या त्वङ्गममायांगम्प ज्ञानका. रणव कथं सुषममत्र नात्ममानसोदयग्रसङ्ग ईन वान्चम, तदानी मंत्रात्मनि वड़मनोयोगस्व विरहात. 'यादा मनः म परिहत्य पुरीततिमविशति नन्दा सुपप्तिः' इति वचनात् । चैत्रायवङ्मनोयोगस्य चनात्मनित्वं. न तु नेत्रात्मनिवमिनि न तन्नमङ्गः । न चापं जाग्रदयस्थायां मैत्रे निर्मालिनमंत्र घटवाश्नपप्रसङ्गस्य दुरिल्लाम, मंत्रात्मनि त्वङ्गमनायांगस्य नदानी मत्वादिति वक्तव्यम्, लड़मन:संयोगस्य ज्ञानत्वावच्छिन्न प्रति हतत्त्वपि वाक्षषादी विषयवक्षयोगस्य चमनीयांपादश्च विशिष्य हेतृत्वात, नेत्रगलगिधानदशायां चावपादेः चक्षुरादिना विषयमनोयोगाद्यभावनवाऽनापसेः । न होकस्मादव कारणास्वंतरकारणविकलाकार्यापादानमहतीति पूर्व वा उक्तल्वात् ।
वस्तुतस्तु त्वहमनः संयोगस्य जन्यज्ञान सामान्य कारणनमय नास्ति. नाप्दाभावात्त । न चवं सति नस्या समवायिकारणजन्य. त्वानुपपनिारति वाच्यम्. आत्मविशेषगणं प्रति कलात्ममनः संयोगत्वनाउसमायिकारगतस्वीकारणव नस्याऽप्यसमवायिकारणजन्यल्योपपनेः । अत पय सुषप्तिकाले जीवनयोनियत्नांपपनिरपि सहगछतं किन्तु परात्मनः परेण मन्मा मषुप्तिकाले बयात्मनः च स्वीयमनसा प्रत्यक्षापनिवारणाप परात्मवृत्निवीयमन:संयोगव्यावृनं स्वात्मवृत्निसुषुप्तकालीनस्वीयमन:संयोगञ्याबृनं च वैनात्यमगीकृत्य तत्पुरस्कारेगात्मगन:संगांगरयात्ममान प्रति हतत्वं करप्यांत । अनेनैव सपती ज्ञानांत्यादवारणसम्भने लड़मनायगरप जन्यज्ञानत्वावजिन्न प्रति नकारणत्वमिन्यादान प्रकरणकार आहे - वस्तृत इति । इदच नवीननयायकमतेनोक्तम् । अयमाशायः तेंपाम् । सुषप्त्यव्यवहितप्राककाल ज्ञानोत्पनियदि स्यानदा तत्प्रत्यक्षापनिभिया त्वमनसंयोगस्य हेतुत्वं सम्भवति । सैच तु न युक्तिसिन्दा । नाहि सुषप्त्यनुकुलमनःक्रियया मनसा आत्मनो विभागस्तन आममन:संयोगनाश तत: पुरीनतिरूपाना. देशेन मन:संयोगरूपा सएप्तिसत्पद्यते । एवञ्च सपप्त्यव्याहतपूर्व आत्म्मन संयोगरूपासमवाधिकारणनाशात् तत्क्षणे ज्ञानी.
आपत्ति नहीं दी जा सकती। सामग्रीविरह में आपादन कम हो सकता है । मगर ऐसा मानने पर चैत्रात्मा और मैत्रामा भिन्न सिद्ध हो जायेंगे, जिसका स्वीकार करने में वेदान्ती को जरूर हिचकिचाहद का अनुभव होगा। मगर प्रमाण में और अन्यथानुपपनि के बल गं गिद्ध होनवाली वस्तु का अपटाप करना भी आस्तिक के लिए नामनासिब है । इसलिए अनेक आत्मा का स्वीकार करना वेदान्ती के लिए भी अनिवार्य है। यहां यह शंका नहीं की जा सकती कि -> 'त्वङ्मन:संयोग को आत्मनिष्टप्रत्यारात्ति से ज्ञानमात्र का कारण मानने पर नो जागृत अवस्था में आँखें मूंद कर बैठे हुए मंत्रात्मा में त्वमनःसंयोग रहने के सबब घटचाक्षुप प्रत्यक्ष भाटि की भी आपत्ति आयगी' - इमका कारण यह है कि चाक्षप आदि के प्रति कंवर त्वङ्मनःमयोग कारण नहीं है किन्तु विषय के साथ वक्षु आदि इन्द्रिय का सम्बन्ध एवं चक्षुआरि इन्द्रिय का मन के साथ संयोग भी कारण होता है । आँख मूंद लेने पर मैत्र की वििन्द्रय का घट आदि विषय के साथ संयोग सम्बन्ध ही नहीं है नर अंकल त्वङमन संयोग से घटचाक्षप आदि के ज्ञान की उत्पत्ति का भागदन कैसे हो सकना ? कथमपि नहीं । सामग्री होने पर ही कार्य के जन्म का आपादन किया जा सकता है। इसलिए आत्मनिष्टप्रत्यापत्ति से त्वदमन:संयोग को ज्ञानमात्र का जनक मानना मुनासिब है ।
वरनुता. । वस्तुस्थिति को लक्ष्य में ली जाय नत्र यही मानना संगततर होगा कि आत्मविश्यक मानस प्रत्यक्ष के प्रति विजातीय आत्ममनःसंयोग कारण हैं । निद्रा अवस्था में व्यापक आत्मा का मन के साथ मंयोग होने पर भी वह मंयोग विजातीय = आत्मगोचरमानम्प्रत्यक्षकारणतावच्छेदकधर्माधान नहीं होने से तब मंत्र का आत्मविषयक मानस प्रत्यक्ष की उत्पति का आपादन नहीं किया जा सकता । यदि विजानीय आत्ममन:संयोग को शरीरनिष्ठप्रत्यासत्ति से आत्ममानस का कारण माना जाय तब तो स्पष्ट ही गौरय दोप प्रसक्त होगा, क्योंकि तब कारणतावदक सम्बन्ध माक्षात न हो कर परम्परया अवच्छेदकतामम्बन्ध बनता है एवं अवच्छंदकतासम्बन्ध में ज्ञान आदि के प्रति तादात्म्यसम्बन्ध से शरीर में कारणता का स्वीकार करना अपेक्षित बन जाता है । अत: आत्मा को अनेक मानना एवं शरीरपरिमाण मानना ही पुक्ति संगत प्रतीत होता है ।
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* त्यहमनःप्रत्यासन्या हेतृतानिनकरणम | शरीरनिष्ठसम्बन्धोन हेतुत्वे तु स्फुटमेव गौरवम् ।
किश्चैवं जन्मिनोऽपि स्वतःसिन्दस्वर्गापवर्गशङ्कया यमनियमादी प्रवृतिर्न स्यात्, सिन्दे इच्छाविरहात् । न च तत्तच्छरीरावच्छेदेन सुख-दुःस्वहान्यन्यतरकामलया प्रवर्तते कश्चिद
- जयलता
- त्पत्तेरभावात, असमवायिकारणस्य कार्यसहभाचन हेतुत्वात् । यदि च कार्यनाशजनकना शातियाग्नि एवा समवायिकारणस्य कार्यसहभावन हेतुत्वमिति मन्यते तथापि सपुप्त्यरहितप्राककालांत्यत्रज्ञानव्यक्ते: सुप्किाले प्रत्यक्षापलिभिया न वामन:संयोगस्य कारणत्वम, विजातीयात्मनन:संयोगस्य हेतुत्वस्वीकारणच मुषप्त्यव्यवहितपूर्वक्षणोत्पन्नज्ञानप्रत्यक्षारणात, पुगीतदबच्छेदनात्ममनःसंयोग बैजात्यानमीकारत, वैजात्यस्य परात्ननन:संयोगपुरातत्वच्छिन्नात्ममनःसंयोगव्यावृत्तत्वात् । न च जात्यकल्पन गौरवमिति वाच्यम, आत्ममन:संयोगस्य कारणता कलसव वैजात्यस्य नदवच्छेदकत्वमेव कल्पनीयं त्वङ्मनायोगस्य तु कारणनैव न क्लुप्तति धर्मिकल्पनाता धर्मकल्पनाया लपीपस्वाद वैजात्यमन कल्पनीयम । एतेन बजात्यनात्ममन:संयोगस्य त्वङ्गानीयोगस्य वा हेतुत्वमित्यत्र विनिगमनाचिरह इत्यपि प्रत्युक्तम्, त्वङ्मनः संयोगस्य हेतुत्य चाक्षुषादिसामग्रया: स्पागनादिशतिबन्धकन्वकल्पनागौरवात त्वङ्मन:संयोगस्या अटकतासम्बन्धेन हेतृत्वापक्षया रमयागनान्ममन:संगोगस्य हेतुले ला घबाचति । एतेन झागरनिष्ठप्रत्यासन्या विजातयात्ममन:संयोगस्यात्ममानसत्वावच्छिन्न प्रति हेतुत्वकल्पना प्रत्युक्ता, अवच्छंदकनाया: तनदवच्छेदकम्यरूपायाः कारणतावच्छेदकसम्बन्धेन आत्ममानसत्वावच्छिन्न प्रति हेतुत्वे तु स्फुटमेव गौरवम् । तदपेक्षया आत्मनिष्ठप्रत्यासत्यैव विज्ञानीयात्ममन:संयोगतता कल्पनोचिना, समवायस्याःपथग्भावस्य वैकत्वेन लाघवात् । एतेन शारीरनिष्टपरम्परासम्बन्धन तम्य हेतुत्वकल्पनाऽपि परास्ता, साक्षात्सम्बन्धसत्वे परम्परासम्बन्ध नट्यागात् । नावंदेव देवदत्तभ्रातृतनया देवदत्तधने 'ममाधिकृतिर्ममाधिकृतिः' इति विवदन्त याबद् देवदत्तस्य साक्षादङ्गभून भवति । अस्तु वा नथा. नथापि नसा समीचीना, चैत्रीयविजातीयात्मनन:संयोगा. चत्रीयशरीरावच्छेदनात्ममानसोत्पादावस्थायां मैत्रगरीरावच्छेदनात्ममानसोत्यादापनेः । न च मैत्रशरीरेश्वच्छेदकतासम्बधेन तदुत्पत्तिवारणाय मैत्रशरीरत्वविशिष्टावच्छेदकतासम्बन्धन आत्ममानसत्वावच्छिन्नं प्रति तादात्म्येन मैत्रशरीरत्वेन कारणत्व भ्युपगमान्न दोषः विशेषसामनाविरहादिनि वाच्यम्, तत्च्छरीरस्य विशिष्य हेतुत्वकल्पन महागौरवापातादिति दिक ।
दोषान्तरभावेदयति - किञ्च एवं चैत्र-मैत्राद्यात्मभेदस्वीकारे सति जन्मिनोऽपि = शरीरिणोऽपि स्वतःसिद्धस्वर्गापवर्गशङकया यमनियमादी प्रवृत्तिनं स्यात् । नारद-शकदेवादीनां स्वर्गापवर्गश्रवणेन तदभिन्न स्वात्मनि तत्सिद्धत्वप्रकारको निश्चय एव भवितुमर्हति तथापि तदज्ञानदवायां तादृासंयोऽपि न विरुदः । प्रबन्यभावे हेतुमाह - सिद्धे = सिद्धत्वन ज्ञाते इच्छाविरहात् = कृतिसाध्यत्वप्रकारकच्छाया असम्भवान्. सिद्धन्व-साध्यत्वयाः सहानवस्थानात । सुखल्वेनेच्छां प्रति सुखत्वेन सिद्धत्वनानस्य प्रतिवन्धकत्वात् चिकीपांविरहे प्रयत्न भावः तद्विरहे च यमादी प्रवृत्त्यनुपपनिरित्याशयः ।।
यद्यपि सामानाधिकरण्यन सिद्धत्वज्ञान-पि सामानाधिकरग्येनेच्छाया आनुभविकत्वं कथमन्यका प्राषितस्याऽजानकान्तामग्णस्य
= ब्रह्मादतमत्त में प्रराजाभाव की आपत्ति छ किञ्च । इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि चैत्र, मैत्र, देवदत्त, यज्ञदत्त आदि की आत्मा को एक ही मानने पर तो कोई भी व्यक्ति स्वर्ग या मोक्ष के लिये प्रयत्न ही नहीं करेगी, क्योंकि 'नारद आदि स्वर्ग में गये हैं एवं मुकदवजी आदि मुक्त बने हैं तथा नाग्द, शुकटेवजी और अन्य चैत्र, मंत्र आदि की आत्मा एक ही है, अलग नहीं' यह झान होते ही अपने में चैत्र, मैत्र आदि को स्वर्ग, मोक्ष की प्राप्ति का निश्रय हो जाता है। प्रवृत्ति उसी में होनी है जिसके उद्देश से कृनि हो और कृति = प्रयत्न की निष्पति तब होगी जब उसकी इज्दा हो । मगर जिसमें साध्यत्व का ज्ञान होता है उसीमें कृतिसाभ्यत्वप्रकारक इच्छा हो सकती है । जो सिद्ध है, निप्पन है, प्राप्त है उसमें नो कृतिसाध्यत्व ही नहीं रहना है, क्योंकि उसका विरोधी कृतिसिद्धत्व धर्म वहाँ रहता है. जिसका ज्ञान चैत्र आदि का हो चुका है। इस तरह स्वर्ग, मोक्ष आदि में सिद्धत्यप्रकारक ज्ञान से कृनिसाध्यत्वप्रकारक ज्ञान का प्रतिबन्ध हो जाता है तब कृतिसाध्याचप्रकारक इच्छा कसे उत्पन्न होगी ! और उसके विरह में प्रयत्न भी उत्पत्र नहीं होगा । फलतः स्वर्ग, मोक्ष आदि के लिए कोई भी यमनियम आदि प्रवृति ही नहीं करेगा । यदि किसी अहतवादी नरेश, पंश, हरेश आदि को अपने में स्वतःसिद्ध स्वर्ग एवं मुक्ति का निश्चय न हो तो भी स्वर्गादि में स्वत:सिद्धत्व की शंका होने पर कृतिसाध्यत्वप्रकारक इच्छा = चिकीपो एवं प्रयत्न की उत्पत्ति न होने से यम-नियम आदि में प्रनि न हो सकेगी। यहाँ यह तो नहीं कहा जा सकता कि → 'अपनी
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१२२ मध्यमस्याद्वादरहस्य खात: ३ का.११ * बदाषिकसूत्रसंवादः * विपश्चित, स्वस्मिन् सुख-दुःवहान्यतरमात्रस्यैव काम्यत्वात् ।
अथ कण्टकविन्दचरागस्य चरणावच्छेदेन तत्कामनादर्शनात् स्वशरीरावच्छेदेन तत्कामनाऽप्यविरुदेति चेत् ? तर्हि विशेषदर्शिनस्तव सकलशरीरावच्छे देनैव तत्कामनौचित्यात प्रतिनियतप्रवृत्यनुपपत्तिः । अपि चाहष्ट-फलयो; प्रतिनियरदर्शनानानात्मान एव व्यवतिष्ठन्ते ।
जयलता * नकानाबलोकनादाविच्छा ? मामान्यधर्मावच्छेदन सिद्धत्वधीस्त याबदाश्रयसिद्धत्वधियं विना विपदर्शिनो न सम्भवजि तथाप्या. त्माद्वतनयं त्वात्मत्वावच्छन्दना विजानीयसुखस्वरूपस्वर्ग-कृतनदारवध्वंसात्मकापवर्गसिद्धत्वज्ञानसम्भवान्न यम-नियमासन-प्राणायाम. प्रत्याहार-धागणा-यान-समाधिपनिकी -प्रयत्न-प्रवृत्निसम्मद इति तात्पर्यम् । एतेन स्वरिमन सुखस्य सिद्धत्वेपि ननरीगवच्छेदन तदज्ञानान्न यमादा प्रबन्यनुपरत्तिरिति परास्तम्, यतो न च = नव तत्तच्छरीरावदेन = अवच्छेदकनासम्बन्धेन तनछरीरे, सुख-दुःखहान्यन्यतरकामन्या प्रवर्तते कन्चिद्विपश्चित्, स्वस्मिन्नेव सुख-दुःखहान्यन्यतरमात्रस्य स्वतः काम्यत्वात् । अन्यथा तयोः पुरुषार्थत्वहान्यापन:, 'यज्ञानं सत्त्वत्तिनयेच्यते स पुरुषार्थ' इति तदक्षणात. स्यनित्यनकारिका या ज्ञानजन्या अन्यकामनानर्धानकामना नद्विपयत्वं पुरुषार्थत्वं इति नदधात् । ततश्चाद्वैतमन सुखात्मकस्य दुःखोच्छेदस्वरूपस्य वा मोक्षस्या-पुरुषार्थत्वापत्तिबारवेत्यर्थः ।
बदाम्नी शकते - अथ कण्टकविद्धचरणस्य अविद्रोपदर्शिनः पुरुषस्य चरणावच्छेदेन = अवच्छेदकनया चरणे तत्कामनादर्शनात - सुख-द:खानछेदन्यनरकाममोपालब्धः तदेव स्वशरीरावच्छेदेन अपि अविशेषदर्शिन: पुरुपस्य तत्कामना - सुखदु:खोच्छेदान्यनराभिलाषा अविरुद्धा इनि सङ्गच्छत इति चेत् : तर्हि विशेपदर्शिनः तब वेदान्निनः सकलशरीरावच्छेदेनेव = अनन्छदकतासम्बन्धन चैत्र-मैत्र यन्नदन-दबदनादिनिखिल शरीरप एव तत्कामनीचित्यात = सुख-दु:खाभावान्यनराभिलाषस्य न्याय्यत्वात् न त अवच्छेदलतया स्वशरीर एव, अन्यथा वरिमन्नात्मनि परशरीरावच्छेदन द:खारिष्टत्वापनः । तथा च प्रति नियतप्रवृत्त्यनुपपत्तिः सर्वेषामेव दारारिणां यमादी प्रवृत्तिः स्यान्न वा कस्यचित, अविशेषान् । इत्यञ्चाल्माद्वैत प्रवृत्ती नयत्यमनुपपत्रम ।
अपि च अदृष्ट -फलयोः प्रतिनियमदर्शनात् । धांदीना सामानाधिकरण्यन सुखादिजनकत्वनियमादित्यर्थः । तदुक्तं वैशेषिकसूत्रे 'आत्मान्तरगणानामात्मान्तरेऽकारणत्वान' (वै.मू. ६/१/-) इति । व्याख्यातश्च न्यायकन्दल्यां श्रीधरेण 'आन्मान्नरगुणानां सुखादीनां आत्मान्तरण सुखादिषु कारणत्वाभावात् धमाधर्मायारन्पन्न वर्तमानयोरन्यत्रारम्भकत्यमयुक्तमिनि (प्र.पा.मा.न्या.क.पू.२:०) । नतः नानात्मान एच व्यवतिष्ठन्ते । प्रतिगरी निन्ना एय आत्मानं न लभिन्ना इत्यर्थः ।
आत्मा में स्वर्ग = सुख एवं मुक्ति = दुःखाभाव होने पर भी अपने शरीर में सुख या दुःखाभाव की निप्पत्ति की कामना से यम-नियम आदि में मुमुक्षु की प्रवृत्ति हो मकती है' - यांकि नर दारीर में अवच्छेटकनासम्बन्ध से सुख या दुःखाभाव उत्पन्न करने के लिए किसीकी कामना नहीं होती है। कोई भी मुमुक्षु आदि अपने में ही सुख की प्राप्ति एवं दुःस के धंस की कामना रखता है । इस तरह परमार्थ में स्ववृनित्वेन मुख-दु:खध्वंसान्यतर ही काम्य = कामनाविषय बनना है। यह सिद्ध होने पर स्वशरीरवृत्तिवन मुम्ब या दुःखाच्छेद कैसे काम्य बनेंगे ? क्यमपि नहीं । अत: अनवाद में ना मुम्वाति के लिये यमादि में प्रवृत्ति ही नामुमकिन रन जायेगी ।
अनुष्का शरीरातलंदेन सुखकामना असंभव जथ. । यहाँ यह शंका हो कि. -> 'जब अपने पांव में काँटा भ जाता है नब अपने चग्णावच्छेदेन दानहानि की या मुख की कामना देखी जाती है, न कि अपने में । ठीक इसी तरह अपने शरीरावांछंदन भी दुःखोच्छंद या सुख की कामना हाने में कोई विगंध नहीं है । चैत्रात्मा, मैत्रात्मा, दबदनामा परस्पर अभिन्न होने पर भी चत्रीय, मंत्रीय, देवदत्तीय शरीर में भिन्नता ही है। अतः शरीगवच्छेदेन सुरख की या द:खोच्छेद की कामना का स्वीकार किया जा सकता है। <• तो यह असंगत है। इसका कारण यह है कि सामान्य अवथ लोगों को भले ही चरणावच्छेटेन या स्वारीरावच्छदेन सुवादि की कामना हा मगर आप चान्ती तो बुद्धिमान है. विशंपनी है। 'यत्किंचित वासरावच्छेदेन द:खध्वंस होने पर भी सकलवारीरावच्छंटेन दाम्बोच्छेद नहीं हो पायेगा, अन्य शगरावच्छेदन मेरे में ही दःख रह जायेगा' एसा आपको ज्ञान होने की वजह आपके लिए नो मकलशगरावन ही सुखादि की कामना होनी उचित है । तर नो केवल तुम यम-नियम आदि में प्रनि कगंग नो भी सकल शरीगवच्छेनेन द:ख का अय हो जायेगा । इस परिस्थिति में प्रवृति का नियमन नहीं होगा । चैत्र, मैत्र शरीर
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तदुक्तं 'नानात्मानो व्यवस्थात' इति ।
अन्यथाऽन्यशरीरावच्छिन्नादृष्टस्यान्यशरीरावच्छिन्नफलजनकत्वे कथं नातिप्रसङ्गः ?
'एकसन्तान एव फलजननान्नायं' इति चेत् ? किमैक्यमत्र सन्ताने एकजातीयत्वं वा पूर्वापरभावापन्नत्वं वा ? दद्यमपीदमतिप्रसक्तम्, अन्यसन्तानत्वेनाऽभिमतानामपि तथात्वात् । * जयलता
तदुक्तं नानात्मानी व्यवस्थान इति । व्याख्यातञ्च न्यायकन्दलीकारेण नानात्मानो व्यवस्थात इति सूत्रेणात्मनानात्वप्रतिपादनाद बहुत्वसंख्या सिद्धेत्यर्थ: 1 अथ कसे व्यवस्था : नाना मेदभाविनां ज्ञानसुखादीनां अप्रतिसन्धानम् । ऐकात्म्ये हि यथा बाल्यावस्थायामनुभूतं वृद्धावस्थायामनुसन्धीयते मम सुखमासीन्मम दुःखमासीदिति । एवं देहान्तरानुभूतमप्यनुसन्धीयन, अनुभविकत्वात् । न चैवमस्ति । अतः प्रतिशरीरं नानात्मानः । यथा सर्वत्रैकस्याकाशस्य श्री कर्णशष्कुल्पायुपाधिभेदा दीपलब्धिव्यवस्था तथात्मकत्वेऽपि देहभेदादनुभवादित्यवस्थेति चेत ? विषमोऽयमुपन्यासः प्रतिपुरुषं व्यवस्थिताभ्यां धर्माधर्माभ्यां उपगृहीतानां शब्दोपलब्धिहेतुनां कर्णशष्कुलीनां व्यवस्थानाद्युक्ता तदधिष्ठाननियमेन शब्दग्रहणव्यवस्था । ऐकात्म्ये तु धर्माधर्मयारव्यवस्थानाच्छरीरव्यवस्थाभावे कि कृता सुख-दुःखात्यन्निव्यवस्था मनस्तसम्बन्धस्यापि साधारणत्वात् । (न्या.कं. पू. २१० ) इति । साम्प्रतं तु वैशेषिकसूत्रं व्यवस्थातो नाना' (वै.सु. ३/२/२०) इत्येवमुपलभ्यते
विपक्षाधमाह अन्यथा नानात्माऽनभ्युपगमे, अन्यशरीरावच्छिन्नादृष्टस्य चैत्रदारीरावच्छिन्नादृष्टस्य अन्यारीरावच्छिन्नफलजनकर देवदत्तशरीरावच्छिन्नसुखादिकारणले कथं नातिप्रसङ्गः १ उपलक्षणात् चैत्रानुभूतस्य देवदनस्मृतत्वादिप्रसङ्गोऽपि द्रष्टव्यः ।
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ननु बालशरीरानुभूतस्य वृद्धशरीरावच्छेदेन रमरण नैवं स्यात्, बालशरीराद वृद्धशरीरस्य भिन्नत्वात् । न च शरीरभेदेऽपि शरीरिण एकवेन नानुभवस्मरणयो: वैयधिकरण्यमिति वाच्यम् एवं सति ब्रह्माद्वैतनयेऽपि एकसन्ताने शरीरसन्नाने एव चैत्रशरीरावच्छिन्ना: दृष्टेन फलजननात् सुखादिकार्योत्पादनातु नायं अनुपदोक्तातिप्रसङ्गगलक्षणां दोष इत्यपि तुल्यमिति चेत् न, यतः किं ऐक्यं ऐस्यपदप्रतिपायं अत्र चैत्रशरीरादी सन्ताने एकजातीयत्वं सजातीयत्वं वा पूर्वापरभावापन्नत्वं वा ? इति कल्पनोभयी समुपतिष्ठते । द्वयमपीदमतिप्रसक्तम्, अन्यसन्तानत्वेन = देवदत्तशरीरसन्तानान्तरविधया अभिमतानां अपि तथात्वात् शरीरत्वेन रूपेण सजातीयत्वात् पूर्वपरभावापन्नत्वात् । न हि चैत्रशरीर मैत्रदाररयो: पूर्वापरत्वं आदि को बुखार होने पर तुम दवा खाने लगोगे, देवदन को ठंड लगने पर तुम काश्मीरी साल से अपने को आच्छादित करने के लिए प्रवृत्त हो जाओगे | इस तरह अद्वैतवाद में प्रवृत्ति के नयत्य का उच्छेद हो जायेगा ।
अष्ट- फल में कार्यकारणभाव से आत्मा अनेक है
L
* न्यायकन्दलीसंवादः
=
-
=
इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि अदृष्ट यानी धर्म-अधर्म और सुख-दुःख के बीच कार्यकारणभाव होता है । धर्म से सुख उत्पन्न होता है और अधर्म से दुःख - यह सर्वमान्य है । सुख उसीको मिलता है जिसमें पुण्य धर्म हो और दुःख उसीको प्राप्त होता है जिसमें अधर्म पाप हो । मगर आत्मा को एक मानने पर तो चैत्र पाप करेगा और मैत्र धर्म करेगा तो भी चैत्र को सुख की प्राप्ति एवं मैत्र को दुःख की प्राप्ति हो जायेगी, क्योंकि चैत्रात्मा और मैत्रात्मा परस्पर अभिन्न हैं । मगर ऐसा नहीं होता है। इसीसे सिद्ध होता है कि आत्मा एक नहीं है किन्तु अनेक हैं । इसलिए तो अन्यत्र भी कहा गया है कि 'व्यवस्था से आत्मा अनेक हैं' व्यवस्था का मतलब है भिन्न व्यक्ति के अदृष्ट से भिन्न व्यक्ति को फल न मिलना, भिन्न व्यक्ति से अनुभूत वस्तु का अन्य को स्मरण न होना इत्यादि । यदि आत्मा को अनेक न मानी जाय तब तो अन्य शरीरावच्छेदेन अदृष्ट होने पर अन्य शरीरावच्छेदेन मुखादि फल उत्पन्न होने का अतिप्रसंग आयेगा, क्योंकि आत्मा तो दोनों की एक ही है ।
ॐ सन्तान में ऐक्य कल्पना अप्रामाणिक क
=
एकसं यदि वेदान्ती की ओर से कहा जाय कि
'चैत्र-मैत्र शरीर अलग अलग होने पर भी चैत्रीय शरीर की जो परम्परा चलती है वह एकसन्तान है एवं मैत्रीय बालशरीर, युवाशरीर, वृद्धशरीर की जो परम्परा चलती वह भी एक सन्तान है जो चैत्रीयशरीरसंतान से भिन्न है । अतः चैत्रसरीर से जन्य अदृष्ट से मैत्रशरीर में सुखादि फल की उत्पत्ति का कोई अनिष्ट प्रसङ्ग नहीं आयेगा, क्योंकि अदृष्ट एक ही सन्तान में सुखादि फल को उत्पन्न करना है तो यह भी
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८२४ मध्यमादरहस्यं स्वदः ३. का. ११ * ब्रह्मविन्दुपनिषदादिमतापाकरणम्
तथा च भिन्नात्मवाद एव सामानाधिकरण्येनाऽदृष्टफलयोर्हेतुहेतुमद्भावो युज्यते ।
ॐ गयलता
परंण नाभ्युपगम्यत इति । ततश्च यथानुभवितुंरकत्वेन बाल्यावस्थायामनुभूतं वृद्धावस्था समय एवं देहान्तरानुभूतमपि स्मर्यत, अनुभवितुरेकत्वात्, अनुभवाचच्छेदकशरीरभिन्नत्वं तूभयत्रैव स्मृत्यवच्छेदक विश्वयाऽभिमते शरीरेऽस्त्येव । तथा च भिन्नात्मवाद एव सामानाधिकरण्येन स्वसमानाधिकरणत्वसम्बन्धेनेव अदृष्टफल्यो : उपलक्षणात् अनुभव स्मरणयोश्च हेतु- हेतुमद्भावो युज्यते, न स्वात्मान |
एतेन एक एवं हि भूतात्मा भूने भूते व्यवस्थितः । एकथा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ।। (.चि. १२) इति ब्रह्मबिन्दूपनिपद्भचनम्, 'आत्मैवेदं सर्व' (का. १/२/५/२) इति छान्दोग्योपनिषद्वचनम् 'नेह नानास्ति किञ्चन' (बृ.उप. *४/४२०) इति बृहदारण्यकोपनिषद्वचनम्, 'ब्रह्मैव सर्व (मु.उप. २ / २ / ११) इति मुण्डकोपनिषद्वचनम्, मनसैवेदमातत्र्यं नेह नानास्ति किञ्चन । मृत्योः स मृत्युमाप्नोति नानं पश्यति ॥ (क. ४/१४) इति कठोपनिषद्वचनम्, 'आत्मा या इदमेक एवाग्र आसीन (एं. १ / १) ऐतरेयोपनिषद्वचनञ्च प्रत्याख्यातानि ।
सोपयोगित्वात् स्याद्वादरत्नाकर प्रदर्शन। नक्त श्रीवादिदेवसूरिभिः तत्र प्रतिक्षेत्रं भिन्न' इत्यमुना पुनर्विशेषणेनात्माद्वैतवादिदर्शनं निरस्यते । दृष्टेष्टबाधितत्वात् । तथाहि संसारिणस्तावदात्मन एकत्वे जननमरणकारणादिप्रतिनियम नोपपद्यते ।। तद खल्वेकस्मिन् जायमाने सर्व एव जायेरन म्रियमाणे म्रियेरन, अन्धादी नेकस्मिन् सर्व एवान्धादयः । विचित्तंते वैकस्मिन् सर्व एव विचित्ताः स्युरिति प्रतिनियमानुत्पत्तिः प्रतिक्षेत्रं तु पुरुषभेदे युज्यत एवं जननादिप्रतिनियमः । न चैकस्यापि पुरुषस्य दशपधान मेदाज्जननीतिनियमः इति युक्तम् पाणिस्तनायुपधानभेदेनापि जननादिप्रतिनियमापत्तेः । न हि पाणी छिन् स्तनादी महत्यवयवं जाते सुवनिर्मृना जाता वा भवतीति । किञ्च संसार्यात्मन एकत्वस्वीकृतावेकस्मिन शरीर व्याप्रियमाणे सर्वायपि शरीराणि सारिन । नानात्वापगमे पुनस्तस्य नायं दीपः । ननु जनन - नरगादिप्रतिनियमः समस्तऽपि भ्रान्त एवेति चेन ? न, भवत इव सर्वस्य तद्भ्रान्तत्वनिश्वासक्तेः । ममैव तनिश्चयस्तदविद्याप्रक्षयादिति चेत् ? न, सर्वस्य तदविद्याप्रक्षयप्रसङ्गात् अन्यथा त्वनी प्रसक्तिर्विरुद्धधर्माध्यासात् । ममावियप्रक्षयो नान्यामिति अप्यविद्याविलसितमेवेति चेत् १ तहिं सर्वोऽप्येवं प्रतिपद्येत । तत्रैवेत्थं प्रतिपत्तों परेषामप्रतिपन्नी तु न कदाचित्रिरुद्धधर्माध्यासान्मुच्यसे । तथा च प्रत्यात्मदृष्टेनात्मभेदेन
T
तोऽयं संसात्मकत्ववादः । तथेष्टेनापि प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावादिनेति प्रागेव प्रदर्शितम् । तथा मुक्तात्मनोपेकले मोक्षसाधनाभ्यासवैफल्यं परंमात्मनोऽन्यस्य नुक्तस्याऽसम्भवात् सम्भव मुक्तानेकत्वसिद्धिः । यो यः संसारी निर्वाति स स परमात्मन्येकत्र लीयत इत्ययुक्तम्, तस्य विकारित्वप्रात्यानित्यत्वप्रसङ्गात् । तथा च कुतस्तदेकत्वप्रवाद इत्यसापि दृष्टेष्टबाधितः । नवविद्या नानात्माभिमानः इति चेन् नैवन् यतः स्वयमविद्या न तावत्परमात्मनः, तस्य मुक्तत्वेनाऽविद्यासम्पर्कनुपपने: । नापि जीवात्मनानविद्या, तं हि परमात्मनः सकाशादन्येऽनन्ये वा ? यद्यन्ये तदात्माद्वैतविरोधः । अधानत्यं नहिं असंगत है, क्योंकि सन्तान में रहनेवाला एकत्व क्या है ? इसका सम्यक निर्वाचन नहीं हो सकता है । यदि ऐक्य का अर्थ यह किया जाय कि 'संतानस्य ऐक्य एकजातीयत्व स्वरूप है अर्थात् चैत्र के बालशरीर, युवाशरीर, बृजशरीर में एक अनुगत जाति रहती है जिसकी वजह वह एकसन्तान कहा जाता है तो यह अतिप्रसक्त बन जायेगा, क्योंकि अद्वैतभन में आत्मा एक ही होने की वजह एक ही चैत्र के बाल, युवा आदि शरीर में जैसे एक जाति रहती है ठीक वैसे ही मंत्रीय शरीर आदि भी त्रात्मा के ही होने की वजह उनमें भी वह जाति अवश्य रहेगी जो चैत्रीय शरीर में रहती है। तब तो चैत्रशरीरावच्छिन अदृष्ट से मैत्रशरीरावच्छिक सुखादिस्वरूप फल की उत्पत्ति की आपत्ति दुर्निवार बन जायेगी, क्योंकि विवक्षित ऐक्य शरीर में विद्यमान है। यदि संतानगन ऐक्य का अर्थ यह किया जाय कि 'पूर्वापरभावापचत्व ही संतानगत ऐक्य हे तो यह भी अतिप्रसक्त ही होगा, क्योंकि जैसे चैत्रीय बालदह और चैत्रीय वृद्धशरीर में पूर्वोत्तरभावापनत्व रहता है ठीक वैसे ही ज्येष्ठ चैत्र के देह की अपेक्षा मैत्र की काया में पूर्वापरभावापचत्व पूर्वोत्तरकालीन्नभावत्व रहता ही है तब तो वापस चैत्रशरीरावच्छिन्न अदृष्ट से मैत्रशरीरावलि फल के उत्पाद का अनिष्ट प्रसन्न ज्यों का त्यों बना रहेगा । इसलिए यहीं मानना ठीक है कि चैत्र आत्मा और मैत्र आत्मा आदि परस्पर भिन्न हैं । तभी इस नियम का सकेगा कि जो अदृष्ट को उत्पन्न करता है उसीको सुखादि फल की प्राप्ति होती है, न कि अन्य को करण्यसम्बन्ध में अदृष्ट और सुखादि के बीच कार्य कारणभाव के मुताबिक भी आत्माएँ अनेक हैं
अच्छी तरह निर्वाह हो
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इस तरह सामानाधि
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यह सिद्ध होता है ।
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* मुक्तावलीकृन्मतनिराकरणम्
'पुत्रकृतगया श्रादादिजन्याऽदृष्टस्य परम्परासम्बन्धेन पितृनिष्ठफलजनकत्वं दृष्टमित्यन्यत्रापि तथोपपत्स्यत' इति चेत् ? न, स्फुटगौरवेणाऽनभ्युपगमात् ।
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ॐ जयलचा -
कथं तेषां संसारः स्यात् ? नित्यमुक्तपरमात्मनी पृथग्भूतत्वात् । तन्नाविद्यावशायानात्माभिनान इत्युपपन्नम् । यदायुच्यते यथेकमाकाशं बटाद्यवच्छेदकभेदाद्भिटाका पटाकाशमिति तयेकमेवात्मतत्त्वं देहस्वरूपावच्छेदकमेवाद्भियं न तु तत्त्वत इति । नदरि न्यायाह्यम् । न हि स्याद्धादिमते व्योमाणि सर्वैकरूपमस्ति, तस्य सावयवत्वेन कथञ्चिनानास्वभावस्य प्रसाधितत्वात् । कि घटनिवृत्तावेत्र घटाकाशं मुक्तं भवत्येवं देहनिवृत्तावेव नदवच्छिन्नः पुमान् मुक्तः स्यादित्येवमसिद्धी मोक्षः प्रसक्तः । ततश्च मोक्षशास्त्रं व्यर्थम् । देहनिवृत्तावयविद्यासंस्कारस्तत्कृतोऽस्ति ततस्तदवन्निस्यात्मप्रदेशस्यैव संसार इति चेत न, विकल्पानुपपत्तेः । स हि देहकृतः संस्कारः किं देहवत्परिच्छिन्नदेशः किञ्चाकाशव्यापक इति ? प्राच्ये पक्षं चित्रकूट स्पेन देहेन स्वावच्छिन्न एवात्मप्रदेशे कृतः संस्कारस्तत्रैव जन्मान्तरं जनयेत. सुख-दु:खायुपगोगो-पि तत्रैव स्यादन्यप्रदेशस्य तत्संस्कारेणावच्छिन्नत्वात् । अथ गत्या संस्कारः प्रदेशान्तरमप्यवच्छिनत सेवन, अविद्यासंस्कारस्य निष्क्रियत्वेन गमनानुपपत्तेः । कि संस्कारी मुक्तमपि देशं गत्वाऽवच्छिन्द्यात् तदवच्छेदेन च मुक्तस्य पुनः संसारित्वप्रसङ्गः । तत्रैव स्थितः प्रदेशान्तरेऽपि स्वकार्यं संस्कारः करोतीति चेत । एवमपि मुक्तप्रदेशेऽपि कुर्यादिति स एवं प्रसङ्गः | अधाकाशवव्यापकः संस्कारस्तेन सर्वे:प्यात्मप्रदेशा व्याप्ता इति न कश्चित् प्रदेश मुक्तः स्यात् । तस्मात्र सर्वदेहयेक एवात्मेति । एतेन तप्ताय: पिण्डानिका इवात्मतत्त्वाज्जीवात्मानोऽसङ्ख्याता उत्पद्यन्ते । तेषां संगर- मोक्ष ज्ञानादिव्यवस्थेति समुद्रादुदकवत्त एवं निःसरन्ति पुनस्तत्रैव लीयन्त इति परेषां वचः प्रलापनात्रतया स्थितनवसेयम् । उत्ननील्या संसारिणि मुक्तं चात्मन्यनेकत्वस्य प्रसाधितत्वात् (प्र.न. त.७/७६ - स्या.र. पू. १०००) इत्यादिकम् । विस्तरस्तत एवागः ।
ननु यः कर्ता म फलभोक्ता' इति नियमः न सार्वत्रिकः किन्तु बहुस्थलेषु तथासम्भवाभिप्रायक एवं । अत एवोक्तं “शाखदर्शितं फलं अनुष्ठानकर्तरीत्युत्सर्ग' इति । सार्वत्रिकले तु पितृप्रतिः कर्तृनित्याभावात् तस्याः श्राद्धफलत्वं न स्थात् । न हि व्यधिकरणयां: कार्यकारणभावः सम्भवति । किन्तु पुत्रकृतगया श्राद्धादिजन्यादृष्टस्य पुत्रकृतेन गयातीर्थीयश्राद्धब्रह्मकपालश्राद्धादिना जन्यस्य पुत्रसमवेतस्यादृष्टस्य परम्परासम्बन्धेन पितॄनिष्ठफलजनकत्वं पितृसमंवतसुखविशेषात्मकप्रीनिकारणत्वं दृष्टम् 'गयायां पिण्डदानञ्च पितृप्रीतिकरं भवेदिति वचनेन गयाश्राद्धस्य पितृतु सिंहेतुत्वप्रतिपादनात् । इति ताः अन्यत्रापि आत्माद्वैतमतेऽपि तथोपपत्स्यते चैवधिकरण्येन परस्परासम्बन्धेनेति यावत् एकशरीरसन्ताने अदृष्ट फलयोः हेतुहेतुमद्भाची युज्यते इति चेत् न, स्फुटगीरयेण = कारणतावच्छेदकसम्बन्धादिगौरवेण परम्परासन्बन्धनादृष्टफलयोः जन्यजनकभावस्य अनभ्युपगमात् मन्मते त्वपृथग्भावस्थानाभिषिक्तेन सम्यायस्यैव फलजनकता च्छेदकसम्बन्धत्वं सम्भवति । त्वन्मते च परम्परासम्बन्धः स्वाश्रयपितृत्वं न सम्भवति भवान्तरीय पितुरपि तत्फलला प्रसङ्गात् । न च स्वाश्रयतदुद्भवपितृत्वमपि तथा अदृष्टाश्रस्यात्मनः नित्यत्वेन प्रोक्तसम्बन्धद्वयस्यासम्भवात् । नच स्वाश्रयावशरीरनिरूपितपितृत्त्वस्य तथात्वमिति वाच्यम समवायापेक्षया नस्य गुरुतरत्वान् मुक्तपितृकपुरुषानुष्ठित्तनाशश्राद्धे व्यभिचाराच । एतेन गया श्राद्धादाविवदेदयन्नसम्बन्धेनैव फलजनकत्वस्य क्वचित्कल्पनादिति (का. १५० पु.पु. ८२३) मुक्तावलीकारवचनं प्रत्याख्यातम्, पितॄणां मुक्तले स्वरवर्गादिफलकल्पने नानाकार्यकारणभावगौरवात् वस्तुतो वेदानामप्रमागत्याच । ततः चैत्रशरीरसन्ताने परम्पर सम्बन्धेनाऽदृष्टस्य सुखादिजनकल्व
=
गया श्राद्ध पितृतृप्ति नामुमकिन
यदि वेदान्ती की ओर से यह कहा जाय कि -> 'अदृष्ट सामानाधिकरण्य= स्वसमवायसम्बन्ध से ही फल को उत्पन्न करता है, ऐसा मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसका कारण यह है कि गयातीर्थ में पुत्र श्राद्ध करता है जिससे पुत्र में अदृष्ट उत्पन्न होता है और वह स्वर्गस्थ पिता में प्रीति तृप्ति को उत्पन्न करता है । अदृष्ट समवायसम्बन्ध से पुत्र में रहने पर भी मृत पिता में सुखविशेष को परम्परासम्बन्ध से उत्पन्न करता है, न कि सामानाधिकरण्य सम्बन्ध से। यहाँ जैसे परम्परासम्बन्ध से फलजनकत्व को मान्य किया जाता है ठीक वैसे ही परम्परा सम्बन्ध से चैत्रीय बालशरीरस्थ अदृष्ट भी मंत्रीय वृद्ध शरीर में फल को उत्पन्न कर सकता है। इसलिए आत्माद्वैत का स्वीकार करने पर भी कोई दोष नहीं है' तो यह भी असंगत है, क्योंकि साक्षात्सम्बन्ध को छोड कर परम्परा सम्बन्ध से कार्यकारणभाव के स्वीकार में स्पष्ट गौरव होने से यह मान्य नहीं किया जाता है । इसलिए समवाय सम्बन्ध से ही अदृष्ट और फल के बीच हेतुहेतुमद्भाव का स्वीकार करना मुनासिब है, जिसके फलस्वरूप
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१५६ मध्यमस्याद्वादरहस्य रवण्टः-३ का.११
अनेकान्तव्यवम्यासंवादः * योगादीनामपोद्गलिकाऽदृष्टवादं समूलमुन्मूलयितुं 'पोहलिकाऽदृष्टवानिति । यथा चास्य पौलिकत्वं तथोपपादितं प्रागेव ।
एवात्मनः चैतन्यादिधर्मयांगभणनाद वदान्तिनां निर्मकत्ववादोऽपि परास्त: । न हि मनसो ज्ञान-सुख-दुःखाद्याश्रयत्वमात्मनश्चाऽनिर्वचनीयज्ञाजाधंतरयोग इति युक्तम् । अहं जानामी'त्यादिप्रतीत्या तर साक्षाज्ज्ञानादिमत्त्वस्यैव युक्तत्वात,
-* मयता * ममुस्तमिति, स्थितम् ।
योगादीनां = योग-वैशेषिक-गित-वेदयादि-गणक- सांख्य-दीवादीनां अपीद्गलिकाऽदृष्टवाद आत्मगुण-वासना-मायाप्रधान-परिणाम - शक्त्यादिरूपाउदष्टमतं समलमन्मूलयितं पौद्रालिकाऽदष्टवानिति एवं श्रीवादिदेवसरिभिरुक्तम । यथा चार अदष्टस्य पौद्रलिकत्वं तथोपपादितं प्रागंब वीतरागस्तांत्राटनप्रकाशवनायकारिकाव्याख्याने (प्रथमखण्ड - पृ.१५६) इति नेह पुनः प्रतन्यते । अदृष्टस्यात्मगण-वासना-माया-प्रधान - परिणाम -शाक्त्यादिरूपताप्रतिक्षेपपूर्वक पीडलिकत्वं विस्तस्त: स्याद्वादरलाकरे व्यवस्थित बुभुत्सुभिः प्रोक्तसूत्रव्याख्यायां दृश्यम् ।
एवं च 'चैतन्यस्वरूप इत्यादिरूपण सूत्रेण च चैतन्यादिधर्मयोगभणनात् = आत्मनि चतन्य-कर्तत्व-भोक्तृत्वादिधर्मसम्बन्धप्रतिपादनात वेदान्तिनां ब्रह्माद्वैतवादिनां ब्रह्मगि निर्धर्मकत्ववादः धर्मत्यावच्छिन्नप्रतियोगिताकात्यन्नाभावप्रन्यादः अपि परास्तः ।
ननु तान्त:करगमध्यस्यतेऽहमिनि रम्ज्यामिन सर्पः कैवलरय नस्य साक्षिभास्यत्वात. तनत्कार्याकारपरिणतस्यैव साक्षिणा भानमित्यहमाकारेण परिणतग्य तस्याध्यासंध्यमहङ्कारध्यास इति गायतं । अयञ्च न सोपाधिक उपाधरभावान 'अहमज्ञ' इति वहड़कार -जानयारकचैतन्याध्यासात दग्धृत्वायमारकवह्निसम्बन्धादया दहता तिवत । नचान्तःकरणं स्मृतिप्रमाणवृत्तिसड़कल्पविकल्पाईवृत्त्याकारण परिणतं चिनवृद्धिमना-हकारच्यचहियते । इदमेवात्मनादात्म्यनाध्यस्थमानमात्मनि सुख-दु:स्वादिस्वधर्माध्यास उपाधिः, स्फटिक जपाकसमामच लीहित्यानभास । नती वस्तुगत्या स्वभिन्न धर्मशून्यन्वलक्षणं निधर्मकल्वं ब्रह्मणि निरपायमेवेत्याशङ्गकायां प्रकरणकार आह - न हि मनसो ज्ञान-सुख-दुःखायाश्रयत्वं आत्मनश्वाऽनिर्वचनीयज्ञानायंतरयोग इति कल्पयितुं युस्तम् 'अहं जानामी' त्यादिप्रतीत्या तत्र = आत्मनि साक्षात् = अनौपाधिकसम्बन्धेनैव ज्ञानादिमत्त्वस्य युक्तत्वान्, अन्यथा 'मन्मनी जानाति न त्वई' इति प्रतीतिप्रसङ्गात् । किञ्च ताचिक ब्रह्मण्यनिर्वचनीयज्ञानादिकल्पनमपि युक्तिबाहाम् । नक्तं प्रकरणकृतव अनेकान्त व्यवस्थाप्रकरणे “शुद्धब्रह्मगि शक्यसम्बन्धरूपा बोध्यसम्बन्धरूपा या लक्षणापि न सगच्छते, तात्विकऽर्थे-निर्वचनीयसंसर्गस्य सक्त्यसहत्वात् । न च देवदनव्यक्ताविशसण्टब्रह्मगि तात्पर्यसम्बन्धी अनेक आत्मा का स्वीकार अवश्य करना होगा । इस तरह आन्नाऽद्वनवादी वेदान्नी के मत का निरसन पूर्ण हुआ ।
योग - नैयायिक आदि विद्वान अदृप को अपौद्रालिक मानते हैं । अतः उनके मन के प्रतिश्नपार्थ प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार के सप्तम परिच्छेद के .६ में सूत्र में आत्मा के सप्तमविशेषणविधया 'पीद्गलिकाऽदएचान ऐसा श्रीवादिदेवसूरीश्वरजी ने कधन किया है । अदृष्ट, जिसे जैन कर्म कहते हैं, पांगलिक है, न कि आत्मगुणस्वरूप - इस विषय का प्रतिपादन तो पहले ही तीसरी कारिका के निरूपण में हो चुका है (देखिये प्रथम खण्ड पू.१५४१ । इसलिए पुनः उसी बात को दोहराकर समझान की यहाँ आवश्यकता नहीं है।
आमा निर्धति नहीं है वं च. । इस तरह सूत्र में 'आत्मा चैतन्यस्वरूर है' अर्थात् चैतन्य धर्म का आत्मा में सम्बन्ध है . एना कहने से वेदान्ती. की यह मान्यना कि . 'आत्मा निधमंक = धर्मशून्य है' भी परास्त हो जाती है, क्योंकि चैनन्य नामक धर्म का आत्मा में अस्तित्व है । यहाँ यह तो नहीं कहा जा सकता कि => 'आत्मा नो निर्धर्मक है । ज्ञान, सुख, दुःख आदि तो मन का धर्म है । इसलिए आत्मा को अनिर्चनीय झानादि के साथ योग नहीं होता है क्योंकि लोगों को 'मम ममो जानाति' ऐसी प्रतीनि नहीं होती है किन्तु 'अहं जानामि' ऐसी प्रतीति होती है । इसके अनुसार नो आत्मा में ही साक्षात् ज्ञान, मुख आदि का सम्बन्ध सिद्ध होता है । अत: मन में साक्षात = समन्याय सम्बन्ध से ज्ञान आरि का स्वीकार कर के आत्मा में परम्परा सम्बन्ध से ज्ञानादि की कल्पना करना संगत नहीं है । दुसरी बात यह है कि ज्ञान, सुख, दुःख आदि परस्पर भिन्न धर्म हैं । एक ही आत्मा में ज्ञान, सुख आदि के भेद से भिन्नता का स्वीकार आवश्यक
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* ब्रह्मणां निर्धर्मकत्वखण्डनम्
८२.७
ज्ञानसुखादिभेदेनैकत्राने कात्मतापतेव
अथ नित्यज्ञानसुखादीनामभेद एव । अत एव 'नित्यं विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' ( तै.आ.) इति अत्राऽभेदोक्तिः सङ्गता, नित्यज्ञानसुखादीनां तु चिताश्रयत्वमेवेति नायं दोष इति चेत् ! तन, कथचिद्भेदाऽभावे 'विज्ञानमानन्दमित्यस्य 'घटो घट' इतिवनिराकाइक्षत्वापतेः । आनन्दत्वविज्ञानत्वयोर्भेदे च निर्धर्मकत्वस्य दूरप्रोषितत्वात् ।
बैंजयला
पदानां सङ्गच्छते तथाऽनविते ऽर्थे तात्पर्यानुपपत्तेः तात्पयनिथाधिगमं चान्योन्याश्रयः प्रत्यक्षादखण्डानुभवस्त्वनुभव कलहग्रस्त इति न किञ्चिदेतत् (अने. व्य. पू. २६) इति ।
नन्वस्तु ब्रह्मण्येव विज्ञानलुखाद्यभिसंबन्धः किन्तु स न भेदनियतः किन्त्वमेदनियत इति न तत्र स्वभिन्नधर्मशून्यत्वलक्षणं निर्धर्मकत्वं व्याहृतमित्याशङ्कायामाह ज्ञानसुखादिभेदेन एकत्र ब्रह्मणि अनेकात्मतापतेः ज्ञानसुखादेः परस्परं भिन्नत्वेन ज्ञानादिस्वरूपस्य ब्रह्मणां नानात्वमनिवार्यमेव, अन्यथा ज्ञान- सुखादीनामभेदापत्तेः ।
वेदान्तीष्टापल्या शङ्कते - अथ नित्यज्ञान-सुखादीनां अभेद इट एवं
तत्र प्रमाणं ? इन्याह अत एव = नित्य-विज्ञानसुखादीनां परस्परमभिन्नत्वादेव, 'नित्यं विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' इत्यन्त्राऽभेदोक्तिः सङ्गता, समानविभक्तिकविशेषणविशेष्ययीः तादात्म्यनियतत्वात् । एवं ब्रह्माणि ज्ञानत्वादिधर्मयांगान्निर्धर्मकत्वं व्याहन्येतेत्याशङ्कायामाह नित्यसुखादीनां तु चित्ताश्रयत्वमेवेति न अयं निर्धर्मब्रह्मसिद्धान्नव्याकोपलक्षणो दोष इति चेत् न विज्ञान-सुखयोः कथचिद्भेदाभाव सर्वभादे 'विज्ञानमानन्द' इत्यस्य वाक्यांशस्य 'घटी घट' इतिवन्निराकाङ्क्षत्वापत्तेः शाब्दबोधाजनकत्वापत्तेः । उत्तरपदार्थस्य पूर्वपदेनैवोक्नत्वेन तत्र पौनश्क्त्वमित्यपि वदन्ति ।
-
C
ननु नित्यविज्ञानानन्दयोरभेदेऽपि ज्ञानत्वानन्दत्वया मैदाना भेदान्वयाऽसम्भव: 'नाली पद' इतिवत् अन्वयानुयोगिप्रतियोगिनार्विरूपपस्थितत्वादित्याशङ्कायामाह् स्याद्वादी आनन्दत्व-विज्ञानत्वयो: भेदं च स्वातिरिक्तधर्मशून्यवलक्षणस्य निर्धर्मकत्वस्य | दूरप्रोपितत्वात् = विलयापत्तेः आनन्द - विज्ञानादिस्वरूपे ब्रह्मणि स्वस्मात परस्परतश्च भिन्नयो: सुखत्व-ज्ञानत्वयो: स्वीकारापातात् । एवञ्च ब्रह्मणि नानात्वमपि दुर्निवारम् । एतेन तत्र मिध्यात्वाभावोऽधिकरणात्मकः सत्यत्वं दुःखाभावः सादृशाः सुखं, अज्ञाना
है । तब तो एक में अनेकात्मकता की आपत्ति आयेगी। एक ही व्यक्ति ज्ञानात्मक एवं सुखात्मक नहीं हो सकती है। अथ । यदि यहाँ यह शंका हो कि नित्य ज्ञान, नित्य सुख आदि वस्तुतः परस्पर अभि ही हैं। अतः एक ही आत्मा नित्यविज्ञानस्वरूप एवं नित्यसुखस्वरूप हो सकती है । इसीलिए तो 'नित्यं विज्ञानं आनन्दं ब्रह्म' इत्यादि श्रुति में ब्रह्मतत्त्व का नित्य विज्ञान और नित्य सुख के साथ अभेद का प्रतिपादन भी संगत हो सकता है । यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि नित्य सुख, नित्य विज्ञान आदि का आश्रय तो चित्त यानी अंतःकरण ही है । इसलिए ब्रह्म = आत्मा में निर्धर्मकत्व की हानि भी नहीं होगी तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि विज्ञान और आनन्द में कथंचित् भी भेद न हो तब तो जैसे 'घटो घट: यह वाक्य निगकांन हो जाता है ठीक वैसे ही 'विज्ञानमानन्दं' यह वचन भी निराकांक्ष हो जायेगा, क्योंकि आनन्दपद से जिसका बोध करना है उसका बोध तो विज्ञानपद से ही हो गया है तब उन दोनों में परस्पर अन्वय भी कैसे हो सकेगा ? अधिक में पुनरूपित दोष की आपत्ति आयेगी। यदि यहीं ऐसा कहा जाय 'विज्ञान और आनन्द तो एक ही है, मगर उसमें रहनेवाले विज्ञानत्व और आनन्दल धर्म परस्पर भिन्न हैं । अतः विज्ञान और आनन्द की विरूप उपस्थिति 'विज्ञानमानन्द' इस वाक्य से होने की वजह विज्ञान और आनन्द में परस्पर अभेद अन्वय हो सकता है। इसलिए निराकांत्व की वाच्य में प्रसक्ति नहीं होगी तो तो ब्रह्म में निर्भक की ही हानि हो जायेंगी, क्योंकि 'ब्रह्म विज्ञानस्वरूप एवं आनन्दस्वरूप है एवं उनमें रहनेवाला विज्ञानत्य धर्म और आनन्दत्व धर्म परस्पर भिन्न है' ऐसा स्वीकार करने पर तो सिद्ध हो जायेगा कि विज्ञानत्व और आनन्दख धर्म का विज्ञानादिस्वरूप ब्रह्म आश्रय है। अब निर्धर्मकत्व को अवकाश कहाँ ? वह तो परदेश में चायेगा। निर्धर्मत्व का देशनिकाल (= ब्रह्मनिकाल) हो जाने से विज्ञानत्व एवं आनन्दत्वरूप भिन्न धर्म का आश्रय होने की वजह अह में भी भेद नानात्व की सिद्धि हो जायेगी । तव तो मातसिद्धान्त भी धराशायी हो जायगा। मतलब कि 'आत्मा अनेक है यह सिद्ध होता है। उपर्युक्त विचार से आत्मा नास्विक चीज है - यह सिद्ध होता है ।
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८२८ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड: का. ११ * जनतर्क- निशीथपीठिकाचूर्ण तैत्तिरीयारण्यकसंवादः
इत्थम्भूतश्चायं स्वोपार्जिततथाविधकर्मयोगेन परलोकमुपसर्पति, ज्ञानदर्शनचारित्रप्रकर्षेण निर्मूलकाषंकषिततिः शेषदोषविसरः पुनः परमानन्दं विन्दति इति ।
ॐ जयलता है
भावश्च तादृशं विज्ञानमित्यरि प्रत्याख्यातम्, मिध्यात्वाभावे सत्यत्वोपचारे मानाभावात गौरवाच ।
'अ ' सच्चिदानन्दरूपं ब्रह्म' इति श्रुत्या सदद्वैतं चिदानन्दकरसमेव सिध्यतीति चेत् । तर्हि सत्त्व- चित्त्यानन्दत्वब्रह्मत्वरूपधर्मचतुष्टययोगान्निर्धर्मकत्वव्याघातः । 'सदाघात्नकनपि निकल्पकदृष्ट्येकमेन स्यादिति चेत् ? तर्हि सर्वात्मकमपि तदेकरूपं किं न स्यात् ? एक विज्ञानेन सर्वविज्ञानप्रतिज्ञानादतीतानागतानामपि द्रन्पार्थत्या श्रीव्याविगानात् । इत्थं हि जो ए जागइ सी सवं जाएगड इति पारमेश्वरवचनानुसारिताऽपि सन्च्छत इत्यधिकं जैनतर्फे वसेयम् ।
इत्थम्भूतः = अनुपदोक्तसप्तविशेषणविशिष्टः चायं आत्मा स्वोपार्जिततथाविधकर्मयोगेन = स्वीयमिध्यादर्शनाविरति कपाययोगप्रमादपञ्चको त्पादित भवान्तराक्षेपकशुभाशुगायुष्कादिकर्मसाचियेन परलोकं देवनारकतिर्यग्ग्ररभवान्यतरगति उपसर्पति= गच्छति । परलोकसिद्धिस्तु विशेषावश्यकभाप्य गणधरवाद - धर्मसङ्ग्रहण्यादिनां विस्तरतोऽवसेया । कर्मणामणाधिकत्वेन उत्कर्षापकर्षशालित्वेन चोपायविशेषादात्यन्तिको च्छेदोऽप्यनुमीयते । तदेवाह ज्ञानदर्शनचारित्रप्रकर्षेण निर्मूलकाकपितनिःशेषदोपविसरः = आत्यन्तिकैकान्तिकसकलदोषोच्छेद: जीवः पुनः परमानन्दं = मकलसांसारिकमुखातिशापि दुःखलेशाः सम्प्रक्नाक्षय| सुखविशेषं विन्दते लभत इति । तदुक्तं श्रीउमास्वातिभिः सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्रणि मोक्षमार्ग (त.सू. १ / १) इति यद्यपि कृत्स्नकर्मक्षय एव मो:' इत्येव स्वदर्शन प्रसिद्धं तथापि इष्टसाधनताज्ञानस्य प्रवर्तकत्वात् तत्र काम्यतासम्पादनार्थ 'परमानंद' इत्युक्तिर्न विरुद्ध । वस्तुतस्तु कृत्सनकर्मक्षयां न मोक्षः किन्तु मोक्षकाराणं यथोक्तं निशीथपीठिकाचूर्णी कृत्स्नकर्मक्षपात मोक्षः (गा.४६५ १.१५७१ इति । मोक्षस्तु कृत्स्नकर्मक्षयजन्य- परमानन्दस्वरूप एव । यथा चैतत्स्वरूपं तथा न्यायालीकवृत्ती भानुमत्यभिधानायां विस्तरां वक्ष्यामः । प्रकृते काम्यतावच्छेदकं तु विजातीयसुखत्वमेव । न च तत्र मानाभाव इति वाच्यम, आगमस्यैव मानत्वात्, अन्यथा तवापि कथं 'नित्यं विज्ञानं उगनन्दं ब्रह्म' इति तैत्तिरीयकारण्यकवचनं सत्रच्छेत उपराक्ष सुखमात्यकिं पर दुसितीन्द्रियम् । तं व मोक्षं विजानीयाद दुष्प्राप्यमकृतात्मभिः' ।। इति । न च सुखन्वा - वच्छेदेन शरीरादीनां कारणत्वात्तान विना कथं मुक्ती सुखमिति वाच्यम्, एवं सति तवेश्वरेऽपि ज्ञानादिकं न सिध्यंत, ज्ञानत्वाद्यवच्छेदेनात्ममनी योग शरीरादीनां कारणत्वावधारणात् । न च शरारादेः जन्यात्मविशेषगुणत्वावच्छिन्नं प्रत्येव हेतुत्वान्नायं दोष इति वाच्यम्, ध्वंसप्रतियोगित्वरूपस्य जन्यत्वस्येश्वज्ञानादेखि मुक्तिकालीनज्ञानसुखादेरपि व्यावृत्तत्वात् । अनेन अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रियं न स्पृशत' इति मुक्ती सुखागावसिद्धि: द्विवेनोपस्थितयां: प्रियाप्रिययोः प्रत्येकं निषेधान्ववादिति निरस्तम्, प्रियाप्रियोभयत्वावच्छिन्नाभावस्वरात्र विषयत्वात्. द्वित्वस्याख्यातार्थान्विताभावप्रतियोगिगामितयैवोपपत्तेः । न च तत्र कारणान्तरकल्पने गौरवम्, आगममूलत्वात् । न च जन्यभावस्य सतां ध्वंस आवश्यक इति वाच्यम्, अभावस्यैव भावस्यापि कस्यचिदुत्यनस्याप्यविनाशसम्भवात् जन्यभावत्वेन नाशहेतुत्वे मानाभावात नाशकारणानां नायनिष्ठतया एव हेतुतया दोषाभावात् । किञ्च जन्यभावत्वेन नाशहेतुत्वेऽपि कथं मुक्ती सुखादिध्वंसः । तव प्रतियोगितया योग्यात्यविशेषगुणनाशं प्रति एकाधिकराण्यावच्छिन्नस्वपूर्ववृत्तितासम्बन्धेन योग्यविशेषगुणत्वेन हेतुत्वात मुक्ती तदनन्तरं विशेषगुणान्तरानुत्पल्या पूर्वविशेषगुणनाशा: योगादिति ठिक ।
नैयायिकास्तु अपविशेषगुप्पोच्छेदरूपा मुक्तिरिति वदन्ति तन्न विशेषगुणांचंद्रत्वस्यानिष्टतावच्छेदकत्वेन कस्यापि पुरुषस्य तत्र प्रवृत्त्यन।पत्तेः । न च दुःखध्वंसत्यमेव काग्यतावकेदकमिति वाच्यगु समनियता भावानामैक्सन तदानींतनसुख
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ॐ परलोक-गुक्ति को विि
इत्थं । इस तरह आत्मा है, आत्मा कर्म (= धर्म-अधर्म) की कर्ता है एवं उनके फल सुखादि की भोक्ता है यह सिद्ध होने से समस्या यह उपस्थित होती है कि जिसने इस लोक में बहुत बुरे पाप किये हैं, मैकड़ों की हत्या की है उनको क्या एक ही फाँसी की सजा मिलने से उनके सब पाप कर्म नष्ट हो सकते हैं ? तब तो एक खून की सजा एवं हजारों हत्या की सजा एक बन जाने से भारी अन्याय हो जायेगा । अतः बचे हुए कर्म की राजा (= फल ) उसे कहाँ मिलेगी ?' - मगर विचार करने से यह मालूम पड़ता है कि कोई ऐसा स्थान अवश्य कहाँ भी होगा जहाँ शेप बुरे कर्मों के फल का वह पुरुष अनुभव करेगा । उस स्थान का शास्त्रकारों ने नरक नाम से हमें परिचय कराया है। एवं उत्कृष्ट पुण्य के फल का भोग जहाँ होता है उस स्थान का नाम है स्वर्ग । मतलब कि तथाविध अपने कर्म के सम्बन्ध से जीव परलोक में जाता है यह सिद्ध होता है। मतलब कि परलोक भी सचमुच है ही । जब सम्यक ज्ञानदर्शन एवं चारित्र के प्रकर्ष से जीव अपने कर्मों की जंजीरों को संपूर्ण तोड़ देता है, सब दोपों को चूरचूर कर देता है तब क्षीणदीपत्राला
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* मुक्तिस्वरूपमीमांसा * युक्तचैतत् ज्ञानकर्मणोः समुच्चित्य मोक्षकारणत्वात् । लालु इदमसिब्दम, योगनिरोधरूपकर्मण एव साक्षादेतुत्वात, तत्वज्ञानस्य तु पूर्वमपि
- -- जालना sinariansar दु:खध्वंसयारक्याद् दु:खध्वंसे सुखध्वसत्वरूपानिष्टतावच्छेदकज्ञानस्य प्रवृनिप्रतिबन्धकत्वात् ।
कश्चित्तु विशिष्टदुःखसाधनध्वंस व मुक्तिरिति. तन्न, प्रायश्चित्तादावपि दुःखं मा भूदित्युद्दिश्यत्र प्रवृत्तेवु:खानुत्पादस्पत्र । प्रपोजनत्वात् । न च तस्या साध्यत्वं, योगक्षेमसाधारगजन्यतायाः प्रागभावेऽपि सत्त्वात् ।
आत्यन्तिकदुःस्वप्रागभावो मोक्षस्तस्य प्रतियोगिजनकाधर्मनाशमुखेन कृतिसाध्यत्वादित्यतिमन्दम्, प्रागभावस्य प्रनियोगिजनकत्वनियमेन मुक्तस्य पुनरावृत्तिप्रसगात् । सहिकारिविरहेण दुःखानुत्पादे तस्योत्तरावधिविधुरत्वनात्यन्ताभावत्वप्रसड़गात् ।
अपरे तु दुःखेनात्यन्तविमुक्तश्चरति श्रुतिबलेन दुःखात्यन्ताभाव एव मुक्तिः दुःखसाधनध्वंस एव स्वनिदुःखस्यात्य. नाभावसम्बन्धः स च साध्य एवेन्याहुः । तन्न, दु:खसाधनध्वंसस्य दुःखात्यन्ताभावसम्बकत्वं मानाभावान् ।
दु:खध्वंसस्ताम एव मुक्तिरित्वपि न, स्तोमस्य कथमप्यसाध्यत्वात् ।
त्रिदण्डिनस्त्यानन्दमयपरमात्मनि जीवात्मल्या मोक्ष इत्याहः । नत्र लयो यद्येकादोन्द्रियसूक्ष्ममात्रावम्धिनपञ्चभूतात्मलिकशरीरापगमस्तदा नामकर्मक्षय एव स इति कर्मक्षयरूपमोक्षबादिकक्षाप्रवेश: । यदि चोपाधिशरीरनाश औराधिकजीवनाशास्तदा तेन रूपेणाकाम्यत्वादपुरुषार्थत्वम्।
सुगतास्तु अनुपप्लवा चिनसन्ततिरपवर्ग इत्याहुः नदसत् अन्वयिद्रव्याभाचे बद्धमुक्तव्यवस्थानुपपतेः. सन्तानमा वान - वत्वात्, अतिशयाधायकत्वेनाभिमतादेव सहकारिचक्रान् कार्योत्तपत्तावकान्तक्षणभिंदेलिमचित्तसन्तती मानाभावान ।
स्वातन्त्र्यं मक्तिरित्यन्ये । तेषां स्वातन्त्र्यं यदि कमनिवृत्तिस्तदा सिद्धान्त एव । प्रकृतिनद्विकारांपधानचिलये पुरुषस्य स्वरूपेश्वस्थान मुक्तिरिति साङख्याः । जतिन चारुतया चकास्ति, स्वरूपावस्थानस्यात्मस्वरूपस्या साध्यत्वात, प्रकृत्यादिप्रक्रियायां मानाभाचाच ।
अग्रिमचित्तानुत्पाद पूर्ववित्तनिवृत्तिः मुक्तिरित्यन्ये तदपि न सम्यक, अग्रिमविनानुत्पादस्य प्रागभावरूपस्या साध्यत्वात, चित्तनिवृत्तेरनुद्देश्यत्वाच्च ।
आत्महानं मुक्तिरिति लोकायनिकाः, तन्न. वीतरागजन्माउदर्शनन्यायेन नित्यतया सिद्धस्यात्मन: सर्वथा हातुमशक्यत्वात्, आत्महानस्पानुद्देश्यत्वाच्च । नित्यनिरतिशयसुखाभिव्यक्ति: मुक्तिरिति तीतातिताः, तत्रेति नैयायिकादयः, नित्यसुरवे मानाभावादित्यधिकं न्यायालोके दृश्यम । यथा चैतत्तत्वं तथा चिर्षिततट्टीकायां वक्ष्यामः ।
इदन्त्ववधेयम् - सूक्ष्मणुसूत्रनपार्पणया नित्यसुखाभिव्यक्तिक्षणस्वरूपो मोक्षः, व्यवहारनयनाधान्ये नित्यसुखस्वरूपः सः । प्रमाणार्पणया तु द्रव्यपर्यायोभयस्वरूप एवं स इति व्यक्तं लघुस्याद्वादरइस्यादी ।
प्रकृतं प्रस्तुमः - युक्तश्चैतत् = ज्ञानदर्शनचारित्रप्रकर्षहेतुकपरमानन्दप्राप्तिप्रतिपादनं पुक्तिसङ्गतमेव, ज्ञानकर्मणोः समुच्चित्य मोक्षकारणत्वादिति । सम्यग्दर्शनस्य सम्यग्ज्ञननवाक्षपात, तत्सहचारित्वाच न पृथगुपादानमिति न दोषः ।
क्रियावादी शकते - नन इदं = सम्यग्ज्ञानक्रिययोः समुचित्य मोक्षहेतत्वं असिद्धम् = प्रमाणाऽप्रसिद्धम्, योगनिरोधरूपकर्मणः = शैलेदयवस्थाचरमसमयभारियांगत्रिककृत्स्ननिरोधरूपाया: क्रियाया एव साक्षाद्धेतुत्वात = अविलम्बेन स्टोनरत्वसामानाधिकरण्याभयसम्बन्धेन मोक्षजनकत्वात, तत्त्वज्ञानस्य : केरलज्ञानलक्षणस्य सम्यग्ज्ञानस्य त योगनिरोधात पूर्वमपि
वह जीव परमानन्द को प्राप्त करता है. जिसे मोक्ष कहते हैं । सम्पग् ज्ञानादि से कृत्स्नकर्मक्षय होना युक्तिसंगत भी है, क्योंकि ज्ञान एवं क्रिया दोनों मिल कर मोक्ष के हेतु हैं। न नो अकेले ज्ञान से कभी मोक्ष होता है और न तो केवल क्रिया (झानशून्य) से । क्या अकेले आटे से रोटी बनेगी' या कंबल पानी से बनेगी ? नहीं । पानी और आटा मिल कर ही रोटी बनती है। ठीक वैसे ही ज्ञान एवं कर्म = सदनुष्ठान भी परस्पर मिलिन हो कर ही मोक्ष के कारण बन सकते हैं।
ननु. । यहाँ यह शंका हो कि -> 'ज्ञान और क्रिया दोनों मिल कर दी मुक्ति के कारण बनते हैं, यह बात प्रमाण से असिद्ध है, क्योंकि योगनिरोधस्वरूप क्रिया ही मुक्ति का साक्षात्कारण है। तत्त्वज्ञान = केवलज्ञान नो पहले १. दृश्पनां दिव्यदर्शनट्रस्ट प्रकाशित भानुमतीरीका-प्रीतिदापिनीच्याज्योपते ब्यापालोके पृष्ठ-१०/२२ .
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८३० मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः ३ . का..१
*नयापदंशसंचाई: * सत्त्वादिति चे ? 1, न हि समकालोत्पतिकत्वेन समुच्चयोऽपि तु परस्परसहकारमाण । अधिक मत्कृत-जानकांसमुच्चयवादे ।
-* जयलता * सत्त्वात् योगनिरोधे एव उपक्षीणत्वन मोक्षं प्रत्यन्यायासिद्धत्वादिति चेत् ? न, न हि प्रक्रने समकालोत्पनिकत्वेन ज्ञानकर्मणा: समुच्चयः विवक्षितः अपि तु परस्परसहकारमात्रेण एव । तच्च द्वयोरग्यविशेष पवेति समुच्चित्य त्योः मक्षिकारणत्वमत्र्याइन्मेव । अब सांपयोगित्वात् ज्ञाननयक्रियानययो: विप्रतिपनिप्रदर्शनपूर्व स्थितपक्ष: नयोपदेशश्नाकैरव दयते । तदक्तं नत्र प्रकरणकारणव -> क्रियानयः क्रियां ब्रूते, ज्ञानं ज्ञाननयः पुनः । मोक्षस्य कारणं तच भूयस्यो मुक्तयो द्वयोः ॥१६९। क्रियेव फलटा पुंसां न ज्ञानं फलदं मतं । पतरसीमक्ष्यभोगज्ञो न ज्ञानात मुस्विता भवंत ॥१|| ज्ञानमेव शिवस्याच्या मिध्या-संस्कारनाशनात् । क्रियामात्र त्वमव्यानामपि ना दुलम भवत् ।।१३। नण्डलस्य यथा चर्म यथा नाम्रस्य कालिका | नदयति क्रियया पुत्र : पुरुषस्य तथा मलः ।।१३२।। बटरश्च नपस्वी च शूरचायकृतव्रगः । मद्यपा व सती चति राजन्न आयाम्यहम ।।१३३|| ज्ञानयन शीलहानश्च त्यागवान धनसङ्ग्रही । गुण्यान भग्यहीनश्च राज अझ्याम्यहम् ।।१४५|| इति युक्तिवशात्पाहरूभयोस्तुल्यकताम् । मन्वेश्याहानं देवादः क्रियायुग्ज्ञानम्ति ।।१३५|| ज्ञानं नुम्यं गुणस्थान क्षायांपशामकं भवत् । अपक्षत फलं पष्टगुणस्थानजसंयमम | ११३६॥ प्रायः सम्भवतः सर्वगन्धुि ज्ञानदर्शने । तन्त्रमादो न कर्तव्यो ज्ञान चारित्रवर्जिन ।।१३७ क्षायिक कंबलझानमा मुक्तिं ददानि न । नायनावि विद्याबन्छ लेश्यां शुद्धसंघमः ।।१३८।। व्यवहारे नपोज्ञानसंयमा मुक्निहेतवः । एक: शब्दर्जुमूत्र संयमो मोक्षकारणम् ।।१३५|| सङ्ग्रहम्न नयः प्राह गांव मकनः सदाशिवः । अनाभिभ्रमात्कण्ठवर्णन्यायाक्रिया पुन: ॥१४०|| अनन्तमर्जितं ज्ञानं त्यानाशानन्तविममाः । न चिनं कलयाप्यात्मा हानीमुदाधिकाऽपि वा ॥१४१॥ धावन्तोऽपि नया: सर्वे स्युर्भाचे कृतविश्नमाः । चारित्रगणलीनः स्यादिनि सर्वनयाश्रितः ||१५२
अधिकं तु मत्कृतज्ञानकर्मसमुचयवाद इति । तदुक्तं प्रकरणकृता नयामृनतरङ्गिण्या . "अन्न ज्ञानकम्मसमभगवाद स्वपरसमयविचार: कश्चिशिव्यत । तत्र मुमुकम्मल्यापारतन्त्रं तत्त्वज्ञानवृत्ति न ति विप्रतिपनः, विधिकाटिम्दयनाचार्याणां निषेधकोटिर्भास्करीयाणां, तत्र भास्करीयाणामयमाशय: - तीविशेषस्नान महादान-पम-नियमादिकम्र्मणां नि:श्रेयसकारणत्वं तावच्छन्दवलादेवानगम्यते, तत्त्वज्ञानव्यापारकचं तु तेषां नि: श्रेयसे जनवितव्य न नाबन्छब्द एवं चायापनि, तब तस्यौदासीन - त्यात् । न च साक्षात् साधननाव्या(वि): साधनता प्रतीत: परम्पराघटकव्यापारमविषाकृत्य न घटत इत्यपूर्ववाच्यतान्यायन शब्द एव वस्तुनः तत्त्वज्ञानव्यापारकनां बोधयितुं प्रगल्भत इति शङ्कापदं हदि निधयं, सामान्य शब्दान्यतमविशेषबाधेन त्यति. ॥ न तु विशेषान्तरम्पादिसितमपि विशिष्य बोधयनीति स्वभावात दष्टान्तस्यैवासम्प्रतिगनः । न च कर्मणामाशातरविनाशिन व्यापारो वश्यं स्वीकरणीयस्तत्र दृष्टेन नत्वज्ञानेने योगपनावदृष्टकल्पनाया अन्याय्यत्वात् , लायसहकृतानुपपनिरब नन्वज्ञानन्यापारकत्वे मानमिति यान्यं, तन्यज्ञानग्यापि व्यवहितलन तत्रापि कर्मणांन्दरद्वारावश्यकत्वात श्रेयसे द्वारद्वयकल्पने गौरवात, नि:श्रेयगे कर्मणामदृष्टद्वारा हतुत्वं तत्त्वज्ञानोत्पयनन्तग्मपि यमनियमाद्यनुष्ठानं स्यात् इति चन ? स्यादव, नदानीमपि मनुभाया अधिकारस्याक्षतेः, न च तचज्ञाननेच मोक्षजनकत्वान प्राथमिकतचन्नानादेव मोक्षोपपना क कानदानमिति शनीयं, "नित्यनमिनिकरव, कवाणी दरितक्षयम् । ज्ञानं च विमानीकर्वन्नम्यासेन तु पाचयेत् ॥ अभ्यायान पविज्ञान: कैवयं लभते नरः' इत्यादिपुराणेषु तदम्यासश्रवणात, श्रुनियत्र विपक्षबाधकतया प्रमाणमस्ते नथाहि "अन्य नमः प्रविशन्ति य
१६ यै गुणस्थानक पर भी होता है फिर भी तब मक्ति की प्राप्ति नहीं होती है किन्तु योगनिरोधात्मक क्रिया में ही १४ में गुणस्थानक के अन में मोक्ष की प्राति होती है। मतलब कि ज्ञान ता क्रिया को उत्पन्न कर केही चरितार्थ हो जाता है। अन; मोक्ष के प्रति ज्ञान को भी बाण मान लेने की आवश्यकता नहीं है किन्तु केवल क्रिया को ही मोक्ष का हेतु कहना ठीक है' -।
न. । तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ज्ञान और क्रिया समचिन हो कर मोक्ष को उत्पन्न करते हैं . इसका अर्थ यह नहीं है कि ज्ञान और क्रिया एक ही काल में उत्पन्न हो कर मुक्ति के कारण बनते हैं। उसका मतलब तो यह है कि ज्ञान एवं क्रिया परस्पर के सहकार से मुक्ति को उत्पन्न करते हैं । ज्ञाननिरपेक्ष क्रिया से या क्रियानिपक्ष ज्ञान से कर्ममक्ति नहीं होती है किन्तु मापेक्ष ऐसी क्रिया और ज्ञान से मक्ति होती है। परस्पर के सहकारी होने की वजह दोनों में सांपक्षता है। इस विषय में यहाँ जो कुछ कहा गया है वह नगण्य है । इस विषय का बड़ा विस्तार ता प्रकरणकारकृत ज्ञानकर्मममुच्चयबाट ग्रन्य में ज्ञातव्य है । आनन्द बी बात है कि मापन कार में यह बाट नयापदेवाटीका में संपूर्णतया उपलब्ध होता है ।
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*जानकर्मसमुच्चयवादे गाता- विष्णुपुराणादिसंबादः *
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* जायलाता अविद्यामुपासते ततां भूय इव ने तमो य उ विद्यायां रताः'' अस्या अर्थ; अविद्या कर्म तदुपासते ज्ञानत्यागेन तत्रासन्ता भवन्ति यं ते अन्धं तमः प्रविशन्ति संसारान मुच्यन्ते. तेन केवलकोपासनं न जन्मादिविच्छेदः, ये च विद्यायां रताः विद्या तत्त्वज्ञानं नन्मात्रासक्ना: "" इत्यज्ययं चकारार्थ ते भृयो निशयनान्धं तमः प्रविशन्ति, नित्याकरणे प्रत्यवायम्य बहुलत्वात । नन "मोक्षाश्रमश्चतों वै यो भिक्षा: परिकीर्तितः" इत्यागमाञ्चतांश्रमिणानेवमाश अधिकार:. तन च सन्न्यस्य सर्चकमाणि" इनि स्मृते: कर्ममानत्यागात क समुच्चयः क वा अकरण प्रत्यवायः इति चेत् ? न, यानि कम्मांण्युपमीतमात्रकर्तव्यत्वेन विहिनानि ततपरित्यागस्याशाखीयत्वात, सङ्कोच मान भावात, निषिद्धानि काम्पनि र बन्धहतत्वात् धनमूलानि च धनत्यागादव त्यज्यन्ते, इत्यनावदेव मन्न्यामपदार्थत्वात्, नथा च गीतावचनं "काम्यानां कर्मणां न्यासं, सन्न्यासं कश्यो बिदः। नियतस्य तु, सन्न्यास:, कम्मगा नापपद्यते ॥शा माहत्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ॥ इति साक्षात् समुच्चयप्रतिपादिकापि श्रुतिः "विद्यां चाविद्यां च प्रस्तद्धदाभयं सह । अविद्यया मृत्यू ता| विद्ययाऽमृतमभुने" || अनाविद्या = कर्म विद्या न तत्वज्ञानं तुल्यबद यो वेद प्राप्नोतीति पूर्वांधिः, वदति प्रयोगान "विदल लाम'' इति धानो: छान्दसत्वेन भाकरीयदर्शितत्वात, "नमंच विदित्वा निमृत्यूमेति नान्यः पन्धा वियतः याय" इति वाक्यं तु एवकारस्य विदित्वेत्यनन्तरं योजनात्तत्त्वज्ञानस्याप्यपदर्गसामग्रीनिवेझनियमपर, न त वाक्यान्नरावलतकारणताककर्मयुदामनगर, समच्चये चान्यन्यपि भूयामि वचनानि सन्ति, तथा च गीताबचनं "रंच स्वं कर्मण्यभिरतः संमिन्द्रं लभते नरः । स्वकर्मणा नमभ्ययं सिद्धि विन्दति मानवः ||१||" विष्णुपुगणेप्युक्तं - 'सम्मानमाप्तये यत्नः कर्तव्यः पणिहतैनरः । तत्राप्तिहेतुर्विज्ञानं कर्म चोले महामन : ||१|| हारीतः "उभाभ्यामपि पक्षाभ्यां यथा खे पक्षिणां गनिः । तथैव ज्ञानकामभ्यां प्राप्यन ब्रह्म दशाश्वतं ।।१॥'' श्रुतिश्च 'सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा सम्यगज्ञानेन ब्रह्मचर्येण च" इति एतन्मूलकमब परिज्ञानाद्भवेन्मुक्निरेनदालक्षगं परं । काय (य) कलशभयाचब कर्म नेच्छन्ति पण्डिताः ||३|| ज्ञानं प्रधानं नकमहानं. कर्म प्रधानं न तवद्भिहीनं । तस्मादद्योरेव भवत्यसिद्भिर्न ह्येकपक्षी विहगः प्रयाति ।।'' इत्यादि ।। न च काम्यनिषिद्धनैमित्तिकाभ्यां कम्मभ्यां न समञ्चय : त्योस्त्यागात, न निमित्तकनित्यन, एककशा व्यभिचारात्. साकल्यनासम्भवात, नापि यत्याश्रमविहितन, "न्यायागतधनस्तचज्ञाननिष्ठोऽतिधिप्रियः । श्राद्भकृत सत्यवादी च गृहस्थोऽपि विमुच्यत ।।१।।" इत्यागमेन गृहरम्धस्यापि मोक्षश्रवणात इत्युपपनिविरोधादेव न समुच्चय इति वाच्यम । यत्राश्रमे यानि मोक्षहेतुनया विहितानि तव तदामित्वज्ञानम्य समुच्चयो पपन:, न च कर्मणां परम्परयभिचारान्नि:श्रेयस च स्वर्गद्वैचित्र्याभायान्न तन प्रति कारणत्वमिति वान्यं, स्वाभाविकचिोपचिरह-पि प्रतियं गिनंदन विशेषस्य नि:श्रेयमयविरोधात, तसत्पुरुषायममक्षविहितकर्मत्वेन तनत्पुरुषायविजातीयह:खध्वंसे हेनुत्त्वसम्भवात. अवश्यञ्चाभाव कार्य प्रतियोगिभेदेन विशपायुप्रयः, कथमन्यधा आश्रयनाश-पाकयो: रूपकारणत्वमिति, न च ज्ञानस्य विहितत्वाददृष्टजनकन्वेनादृष्टस्यैव प्राधान्यं, न च रागाद्यभावाद्योगिनोऽदृष्टोतात्त्यसम्भवः, मुक्निविरोध्यापूर्वोत्पत्तावेव रागादे: सहकारित्वान, नातैव मोक्षफलकविध्यनुपपानपरिहारादिति वाच्यम् । शुकादितत्त्वज्ञानसाध्यतया क्लृप्तेन मिथ्याज्ञानध्वसन दृष्टेनवोपपनावदृष्टकल्पना योगत, अन्यधा भेषजादिष्वपि नत्कलपनापत्तेः. एवञ्च विहितत्वं तत्रत्र व्यभिचारीति द्रष्टव्यम् । न वावधातवनियमादृष्टकल्पना. तत्र वैतुष्य( ? गुण्य)न्यान्यधापि सम्भवेन सा, अत्र तु मिथ्याज्ञानस्य निवृत्तेरन्यथा सम्भव इनि विशेषात् ।
नन्यत्रापि बिरोधिगुणान्तरस्पनरपि मिथ्याज्ञानवसः सम्भवति, न च मिथ्याज्ञानपद तद्वासनापर, तन्वज्ञानानध्वंसस्य - वाझाकारात, तस्य चान्यधा असम्भव गवति वाच्यं, अचिकित्यरोगादिता पस्यापि गम्भवात् । न चतरवासनानारा:पि नन: संसारबासनाया अनाश इति याय, सामान्यावच्छेदन पाक्षिकग्राप्तरेव नियममूलदान, अन्यथा अपूर्वीयबाहिविशेष नवनिर्भेदाप्राम: तत्रापि नियमादृष्टानुपपनिरिति चेत् ? न, झस्यपरिवर्जनपाक्षिकप्राप्त नियममूलत्वान्, यथा "त्रीहीनवहन्ति'' इत्यत्र पक्षे प्राप्तस्य नखनिर्भदादः दाक्येन परिवर्जनेनाभिवानी नयम्यत 'अबहन्नव्या एव. न ननिर्भतच्या' इति, नवमत्र, तत्त्वज्ञान व मिथ्याज्ञानं निवर्तयन्न विरोधिगणरोगादिनति शस्य प्रतिनतुं तस्यापुस्पतन्त्रत्वात् । अत एव प्रोक्षिात जीवधातत्वन(ने) श्रवणजन्यनत्त्वज्ञानल्चेन नियमादृष्टहेतुत्वौच्यामिति निरस्तम्, प्रोक्षणाद: प्रधानाङ्गल्येन प्रधानापूर्वफलकादृष्टजनकत्वात्तत्र तथानिसम्मवदन्यत्र प्रधानस्यैव दृष्टफलत्वेन तथा बन्नुमशक्यत्वात् । किञ्च अत्र विजातीयतत्त्वज्ञानत्वेनेय दृटद्वारा मुनिहेतुत्वान्न श्रेयसी
ना, तन बजात्यनेन हतत्व तदवभिन्न प्राक्षाहतताक्नी कृष्णल प्राक्षगबाधापनः । न चाहन्त व्यग्नोक्षणत्वनाश्यदृष्टहेतुत्वानत्रापि नियमादृष्टं कल्पनीयं, दृष्टार्थस्यैव नियमादृष्टार्थस्य सिद्धान्तितत्वादित्यन्यत्र विस्तरः ।
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८३२ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड ३ का. ११
* उदयनानुसारिमतयोतनम्
ॐ जयलता
उदयनानुसारिणस्तु अनुत्पतत्त्वज्ञानस्य ज्ञानार्थिनस्तत्प्रतिबन्धकन्दुरितनिवृतिद्वारा प्रायश्चित्तवदारादुपकारकं कर्म स नित्योप कारकं च तत्त्वज्ञाने, उत्रनतत्त्वज्ञानस्य त्वन्तरलब्धदृष्टे : कारीरिसमाप्तिवदारन्धाग्निसं पालनं लोकसङ्ग्रहार्थं यद्यपि लोकसङ्ग्र न प्रयोजनं सुखदुःखाभावात्साधनेतरत्वात् तथापि लोकानां नित्यत्वेन यद् ज्ञानं तत्परित्यागार्थं (तत्प्रपालनार्थं ) तत्तद्दुः खयोगेन कर्मनाशार्थं वा तत् इदमेव च द्वारि द्वारयोः कम्र्म्म-तत्त्वज्ञानयोः कारणत्वं तुल्यकक्षतया समुच्चयों नेष्ट इत्यनेन विवक्ष्यते । यद्यपि च तीर्थविशेषस्नानादीनां तत्वज्ञानव्यापारकत्वं न शाब्दं, तथापि तीर्थविशेषस्नानादीनि तत्त्वज्ञानद्वारकाणि मोक्षजनककर्मत्वात यमादिवत् इत्यनुमानात्तथात्वसिद्धिः । न च योगत्वम उपाधिः कथ्यति भगवानिहान्तकाले भवनयकातरतारकं प्रबोधम्' इत्यादिपुराणात 'रुद्रस्तारकं ब्रह्म व्याचष्ट' इति श्रुतेश्व काशीप्रमागादेस्तत्त्वज्ञानव्यापारकत्वसिद्धी तंत्र साध्याव्यापकत्वादित्याहुः |
स्वतन्त्रास्तु तत्त्वज्ञानं प्रत्यत्वपक्षे कर्म्मणामपूर्वद्वारा जनकत्व दुरितध्वंसकल्पनाती लघुत्वान् । वस्तुतः कर्म्मणां निःश्रेयसहेतुत्वे तज्जन्यनिः श्रेयसजनकतया तत्वज्ञानस्य कम्मंस्यापारत्वं वाच्यम्, तदेव तु न युक्तं "न कर्म्मणा न प्रजया धनेस' 'नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय" (ता.उप.३/८६/१५) । नास्त्यकृतः कृतेन' (मुण्ड, १/२/१२) कर्म्मणा वध्यते जन्तुर्विद्यया च विमुच्यते । तस्मात् कम्मं न कुर्वन्ति यतयः पारदर्शिनः " || ९ || इत्यादिश्रुतिस्मृतिशतेन निषेधात् कर्म्मजन्यत्वाभावाच 'तपसा कल्म हन्ति अविद्या मृत्युं तीर्त्वा ततस्तु तं पश्यति निष्कलं ध्यायमानः कषाय पक्तिः कर्मभ्यः ॥" इत्यादिभिस्तत्त्वज्ञानात्यनिप्रतिबन्धकद्दुरितनिवृत्यैवान्यथासिद्धेः प्रदर्शनात् । न च विविदिषन्ति यज्ञेन", "सर्व कम्मो खिल
ज्ञाने परिसमाप्यते" (भ.गी.४ / २५) इत्यादिभिः कर्मजन्यताऽपि प्रतीयत इति वाच्यं सा हि न अपूर्वद्वारा प्रतिबन्धकदुरितानुच्छेद अपूर्वसहस्रस्यापि अकिञ्चित्करत्वात, तदुच्छेदन तज्जनने तु प्रमान्तराबधुतकारणभावेन प्रतिबन्धका भावनैवान्यथासिद्धेः । न चैवं यागादेरण्यपूर्वेणान्यवासिद्धिः स्यात् तस्य यागकारणताग्र हो सरकल्यत्वनोपजीव्या परिपन्धित्वात् इह तु प्रतिबन्धका भावस्य कार्य्यमानं कार (ग) तायाः प्रावावधारणादिति विशेषात् । अत एव मङ्गल कारयोः प्रतिबन्धकदुरितनिवृत्तिमात्रफलकत्वं दृष्टिसमाप्ती तु स्वकारणादेवेति सिद्धान्तः । किञ्च क्रम्मं कारणताग्रहानुपजीवनेन लौकिकान्वयव्यतिरेकावधृतमिथ्याज्ञाननिवर्त (न) भावसम्भावितस्य मोक्षसाधनत्वस्य "ज्ञानादेव तु केवल्यम्" "तरति शोकमात्मवित्" "ब्रह्मविदाप्नोति परं (तैत्ति. २/१/१ + भस्मजा. २/७) “ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति" इत्यादिश्रुतिस्मृतिशनेन तत्त्वज्ञानस्येष्टतया ग्रहणात्तदेव मोक्षसाधनम् कर्माणि तु तत्रैवान्यथासिद्धानीत्युक्तम्, यथा च न तत्रापि व्यापारस्तथोक्तमेव । अत एवार्थाविवोवपर्य्यन्तताऽध्ययनविधेः न तु तेन कत्वनुष्ठानेन स्वर्गादिफलकत्वमिति सम्प्रदायः । न च तत्त्वज्ञानस्य कर्म्मणां निःश्रेयस्प्रागभावव्याप्यप्रागभावप्रतियोगित्वरूपतदनुकूलताबोधने एव तात्पयर्व्यात् (गंभ) श्रुत्यन्तरसिद्धेऽन्यधासिद्धत्वे तदनन्यथासिद्धताया बोधयितुमशक्यत्वात् तावतैव श्रुतेः कर्मप्रवृत्तिपरतरनिर्वाहादित्याहुः ।
अत्र वयं वदामः मोक्षस्तावत्पुरुषार्थत्वाद्दुःखसाधनभ्वंस एव न तु दुःखध्वंसः उत्पन्नानुत्पन्नविवेकेन तदृध्वंसस्यासाध्यत्वात, तत्र च ज्ञान- कम्र्म्मणोः वैजात्येन मुमुक्षुविहितत्वादिना वा हेतुत्वं तुल्यमेवेत्येकतरपक्षपाती न श्रेयान, ज्ञाने केवलज्ञानत्वरूपस्य कम्मणि च यधाख्यातचारित्रस्वरूपस्य वैजात्यस्य कल्पनायाः क्षायिकस्थले क्षायोपशनिकस्थले च तदनुकूलतामात्रस्य द्वयोस्तुल्ययोगक्षेमत्वादिति । एतेन कारणोच्छेदक्रमेण कार्योच्छेदान्मुक्तिरिति ज्ञानं कर्म्मसहकारि ( त्वं ) मिथ्याज्ञानोन्मूलने, कम्र्म्म विनाकृतस्यैव यस्प दिमोहादी हेतुत्वावधारणादिति निरस्तं मिथ्याज्ञाननाशेऽपि विरोधिगुणमात्रस्य हेतुत्वान्मध्याज्ञानप्रागभावाऽसहवृत्तिमिथ्याज्ञानध्वंसे च हेतुताया लोकप्रमाणविषयत्वेन ज्ञानकर्मणोर्द्वयोरेव कल्पनाचित्यात् । वस्तुतः अर्थसमाज सिद्धत्वानवच्छिपिन हेतुता, किं तु सामान्यावच्छिन्नध्वंसनये कर्म्मवावच्छिन्नध्वंसे तत्सम ( ? या ) यावत्कन्मक्षयसमनियत क्षायिकसुखत्वावच्छिन्ने वेति न कस्यापि न्यूनत्वं पराभिमतद्वारस्थाने एव फलाभिषेकात् एकपुरष्कारणान्यनिराकरणवचनं च तत्तदर्थवाद एवेति न कर्म्मकारणताबोधकवचनेऽनुकूलत्वमात्रं अर्थः कारणलाशक्तपदस्यानुकूलत्वे लक्षणायां गौरवात्, अन्यथासिद्धिचतुष्टयराहित्यगर्भत्वेन तत्र लाघवमिति दृष्टिदाने च विधिप्रत्य (य) मात्रार्थी पीष्टानुकूलत्वमात्रमेव स्यादिति यागादेष्यपूर्वेणान्यथासिद्धिः स्वात् यागादिकारणताग्रहमनुपजीव्यैव तत्रापूर्वकल्पनादिति न किञ्चिदत्तत् । यदपि प्रतिबन्धकनिवृत्यैवान्यथासिद्धः कर्म्मणांन तत्त्वज्ञाने न वा तदुद्वारा मुक्ती हेतुत्वमित्युक्त्तं, तदपि न युक्तं, प्रतिबन्धकत्वस्य विशिष्य विश्रामेण तदभावत्वेन कार्यमात्रे नुगतहेतुताया अयोगात प्रतिबन्धकविशेषनिवृत्तिहेतुतायाश्च कर्मकारणताग्रहीत्तरकल्पनीयत्वेन तदन्यथासिद्ध्चनापादकत्वात् । किञ्च प्रतिबन्धकनिवृत्त्यान्यथासिद्धत्वेन कम्र्म्मणोऽहेतुत्वं वत्ती तत्त्वज्ञानस्य सुतरां तथात्वं स्यात् न ह्युत्पन्नकेवलज्ञाना अपि भवो - पग्राहिकचतुष्टयं प्रतिबन्धकमनिवर्तयित्वा सद्य एव मुक्तिनासादयन्ति इति मुक्तिप्रतिबन्धककम्मैनिवर्तकत्वेन तत्त्वज्ञानस्य
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* सिद्धसेनदिवाकरवचननात्पर्याविष्करणम *
* जयलता - कुतो नान्यथासिद्भिः १ अथ कर्मणो भोगनाश्यत्वेन ज्ञानस्य तदनाशकत्वानान्यथासिद्धिः, न हि भोगस्तत्त्वज्ञानव्यापारः, तथाऽश्रवणात. सेन बिनापि कर्मण एव तदुताश्च । न च वासुदेवादीनां कायन्यूहश्रवणातत्त्वज्ञानन कायन्यूहमुत्पाद्य भागद्वारा कर्मक्षय इत्यपि साम्प्रतम्, तप:प्रभावादेव तत्त्वज्ञानानुत्पादऽपि कायव्हसम्भवान, भोगजननार्थ कर्मभिरवयं तत्कायंनिष्पादनमिति न तत्र तत्त्वज्ञानोपयोगः, योगपद्यं च कायानां नजनककर्मस्वभावात तपःप्रभावाद्वेनि । न च "ताचंदवास्य चिरं पावन्न विमोक्षोऽथ सम्पत्स्यते कैवल्येन'' इति श्रुती तावदेवास्य उत्पन्न्तत्त्वज्ञानस्य चिरं विलम्बो यावन्नोत्पन्नकर्मणा विमोक्षः । अध सम्पत्स्यते कैवल्येन भोगेना(न)क्षपयित्वेति शेषः इति व्याज्यानाद्भोगस्य तत्वज्ञानाच्यागारत्वं युक्तमेव । न व शेषदाने मानाभावः सत्यपि ज्ञाने कविस्थाने क्लप्तसामान्यस्य भीगम्यंत्र नामाकत्वेनानेपादिति वाच्यं तत्त्वज्ञाने सति तत्वज्ञानदशायां न मोक्षः किं तु तदपि म्रक्षण इत्यर्थनाप्युपपत्तेरिति चेत् ? मैचं, कर्नगा भोगनाश्यत्वेऽपि ज्ञानस्य कर्मनाशकत्वं, भौगम्य तत्त्वज्ञाना(न)च्यापारत्वात, न च तन्त्रज्ञानं विनापि भागेन कर्मना व्यभिचार:, कर्मणागभावासयत्तिकर्मनाशे युगपद्भांग या व्यभिचाराभावादिति मणिकतैयाक्नवत. अस्मसिद्धान्तेऽपि नागार्थिप्रवृत्ती नाश्यनिश्रयविधयेव केवलज्ञानस्य कर्महताचमनपायं । तदुक्तं नियुक्त्ती समुद्घाताधिकार "पाऊण यणिज्ज अइबहुअं आऊरं च थोवागं । कम्म पडिलेह बचंति जिणा समुग्घायं" ।। अत्र क्त्वा प्रत्ययचलादेव नियतपौर्चा पर्यस्याधीचानन्यथासिद्भत्वस्य प्रतीत: कारणत्वलामः । अन्यदप्याभोगवीर्यस्यैव केवलिन; कर्मक्षयहेतुत्वादाभोगान्धिनवीय्यत्वेनेच वार्यान्विताभोगत्वेनागि हेतुत्वादुक्त्तार्थसिद्धिः ।
__यत्पुन; - "दोषपक्निमंतिज्ञानादकिञ्चिदपि केवलात् । तम:प्रचपनिःशेषविशुद्भिफलमेव तत् ॥ (सिद्धमेनसूरकृतद्वात्रिंदिशकाप्रकरणम-१९/१४)" इत्याज्ञानरकाफिश्चिकर भले सोषलांकन पकापिक्षया, न तु मानां भवोपग्राहिणां क्षपणरूपकार्यमाश्रित्य, तत्तद्व्यापारस्य तदा जागरूकत्वात् । यदि च स्वरूपशुद्धिग्राहकनयन केवलज्ञानम्य निर्मापारत्व स्वीक्रियते तदा यथारख्यातचारित्रात्मकक्रियाया अपि तथात्वमेवाभ्युपगन्तं युक्तं, समुद्घानादिना कर्मवएणव्यापारस्य योगविशेषेणैव वक्त्तुं शक्यत्वात् ।।१।। मुक्तिबन्धहेतुविवेन फलशुद्धिग्राहकनयेन तन्न चारित्रहतुत्वा। १ ता)भ्युपगम्यमानो(? ना) ज्ञानहनुतामपि न ब्याहन्ति ||२|| अनन्त (र)कारणग्राहकनयेन तब चारित्रमेव हंतरिति चेन, न, उत्पन्नावनन्तरत्वस्य यधाज्यातचारित्रापेक्षया केवलज्ञान एव सम्भवात, व्यापारानन्तर्यस्य च कल्प्यमानस्योभयत्राप्यचिनिगमात् ।।३।। एतेनाक्षेपककारणग्राहकनयेन "जम्हा दसणनाणा' इत्यादिवचनाचारित्रमंत्र मुक्तिहेतुरित्यपि निरस्तं, आक्षेपकत्वं हि "स्वेतरसकलकारपसमवधाननियतसमवधानकत्वं'. | तच यधाख्यात इव केवलज्ञानेश्पीत्यविशेषात, आयोपशमदशायानप्यनुनबन्धकादिचारित्रव्यावृत्तजानिविशेषवतश्चारित्रस्येव विषयप्रतिभासात्मपरिणामज्ञानोदुवंभावितत्वज्ञानस्याक्षेपकत्वाविझषात ॥१॥ मुख्यैकशेषनयेन चारित्रमेवोत्कृष्यत इति चेत ? न, तत्र मुख्यत्वस्यैव चिनिगन्तुमशक्यत्वात् ।।५|| पुमर्थग्राहकनयन क्रियायामंव मुख्यत्वं विनिगम्यत इति चेत् ? न. परमभावग्राहकनयेन ज्ञान एवं तद्विनिगमनायाः सुवचत्वात् ''जं सम्मति पासहा तं मोणं ति पासहा'' इत्यादिवचनात् ||६|७कारकसम्यकत्वशरीरनिर्वाहकत्वनयेन चारित्रमेवोत्कृयत इति चेतन, "जं अन्नाणी कम्मं खबई: इत्यादिवचनार मन्यक्रियाशीरनिर्वाहकल्वनयेन ज्ञानेन्प्युत्कर्षस्य वक्त्तुं शक्यत्वान ।।८||५|| पलेन "णिन्यायस्स चरणस्सुवघाए नागदंसपणवहावि'' इत्यादिरचनात ज्ञाननाशच्याप्यनाशप्रतियोगित्वग्राहकशुद्धनयेन ज्ञानातिशयस्याप्यदुर्वचत्वात् ॥१०|| व्यापारग्राधान्यग्राहकक्रियानयेन चारित्राकर्ष इत्युक्नावपि दर्शनप्रधानग्राहकज्ञानतयेन ज्ञानोत्कर्ष: स्वच एवं ॥शशा दृष्टान्ती चात्र पाइग्वन्धी तयोरन्यतरस्याकिश्चित्करत्वेन संयोगपक्ष एवं श्रेयान् । न च कुर्वद्रूपत्वनये शैलेश्यन्तक्षप्गभाविचारित्रनेव मुक्तिरूपफलोपधायकत्वेन विशिष्यत इत्यपि शनीचं, | कुर्वपक्षणस्य सहकारिसमवधाननियतत्वन तत्कालीनज्ञानपास्यापि मुक्तिहेतुत्वात् । पक्षात्युनोत्पनिपक्षे बीजपाध: पबनादीनामंत्रत्रोपादानत्वेनान्यत्र च निमित्तत्वेम हेतुत्वमिति चारित्रक्षणस्य नुकनावुपादानत्वन हेतुत्वात् विशेष इत्यप्यसाम्प्रनं, ज्ञानादिसंचलितमुक्तिक्षणे संबलितक्षणस्यैव हेतुत्वात्तचातन्यावृत्या शक्तिविशेषादिना चेत्यन्यदतत, कथं तर्हि "सहजसुआगं पण निवागं संजमो वेत्र'' इति नियुक्तिवचनश्रद्धानवतां तेषां कुर्वद्रूपक्षणावगाहित्वात नत्र चैकान्नस्यानुपदमंच निरस्तत्वादित्याशनीय, एकैकस्य शतभेदत्वेनाक्षेपककारणत्वरूपस्थूलापेक्षयैव तदेकान्ताभिधानापपने: । अत एव शैलेश्यन्तक्षणभाविधमहतुत्वमिति विशुद्धैवम्भूनाभिप्रायेणैवास्माभिस्तत्र तत्र समर्थित्म् ।
___ यत्तु मिथ्याशी मिथ्याज्ञानोन्मूलनद्वारा तत्वज्ञानमंत्र मुक्तिहेतुरिति मन्यन्ते ते मिथ्याज्ञानोन्मूलनेऽपि तत्तन्मन:प्रणिधानरूपाया; क्रियाया हेतुत्वं कथं न पश्यन्ति, मिथ्याज्ञानवासनोन्मूलनत एवं कर्मनिरपेक्षं तत्वज्ञानं हेतुरिति चेत् ? तीदृष्टपरिकल्पनमन्त | मिथ्याज्ञानवासनायाः स्मृत्येकनाश्यत्वात् तत्त्वज्ञानस्य तन्नाशकाया लंके दृष्टत्वात्, अदृष्टकल्पने वाऽऽगमानुसारेण ज्ञानदत |
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८.३४ मध्यमस्याद्वादरहस्ये सदः ३
का. १५ * ज्ञान कर्मणोर्मुक्ती तुल्यदेव हेतुता
नन्वत्र किं कारणत्वमिति चेत् ? नियतान्वयव्यतिरेकव्यङ्ग्यः परिणामविशेष इत्यवेहि ।
ॐ जयलता बै
कर्म्मणोऽपि मलदायद्वारा मुक्तिहेतुत्वकल्पनमेव ज्यायः तथा वाभ्यधादासुरोऽपि वासिष्ठे "तन्दुलस्य पथा च यथा ताम्रस्य कालिका । नश्यति क्रियया पुत्र ! पुरुषस्य तथा नले" ||१|| इत्यादि । किञ्च विहितत्वेन गुण्यपापक्षयान्यतरहेतुत्वव्यामस्तत्त्वज्ञानस्य कर्म्मतुल्यत्वं । न च चिकित्सादावेव व्यभिचारः समुविदितले त्यामी व्यभिचाराभानादिति पृष्टिशुद्धयनुबन्धद्वारा ज्ञानकर्म्मणीर्मुक्त तुल्यवदेव हेतुतया समुच्चयपक्ष एक अनाविल इति सिद्धम (जयी टीका, पृ.९७ /१०२)
ननु निखिलेषु लौकिकेष्वलौकिकेषु च कर्मादिषु तत्तत्फलस्य कारणत्वं निर्णयन्त एवं सन्तः प्रवर्तन्ने न तु तदपलपन्तः । तत्र किं नाम कारणत्वमभिप्रेतं यदवच्छेदकावच्छिन्नसमुदाय: सामग्रीति श्रोच्यते मनीषिभिः ? न तावत् तत्तत्फला व्यवहितपूर्वसम्म रासभादावतिप्रसङ्गात् । नापि नदगावप्रयोजकीभूताभावप्रतियोगित्वं तत् यतः प्रयोजकत्वं हि न व्यापकत्वम् घटारम्भकसंयोगादिकं प्रत्यपि घटादेर्जनकत्वापत्तेः । नाऽपि स्वरूपसम्बन्धविशेषः प्रमाणाभावात् । दण्डाभावयुक्ती घटाभाव इत्यादिप्रतीती दण्डाभावप्रतियोगिजन्यप्रतियोगिकत्वादिलक्षणस्य दण्डाभावप्रयुक्तत्वस्य यदाभावेऽवगाहनातू, अन्यथावस्यकतया स्वरूपसम्बन्धविशेषमेव कारणत्वं किमिति न ब्रूपे ? न चात्र निर्भर: कर्तव्यः । स हि स्वरूपसम्बन्धविशेषी न कारणस्वरूपः तत्तदवच्छेदकी भूतभर्मस्वरू वा, तन्मात्रग्रहेऽपि कारणत्वात्ययात् दण्डः कारणमित्यादिसहप्रयोगानुपपतेश्च ।
=
कव प्रकृतहेतुग्रहे स्वहेतुत्वग्राहकापेक्षायामात्माश्रयोऽन्यहेतुत्वग्राहकापेक्षायां च परस्पराश्रय इति समुचितज्ञानक्रिययोः मोक्षकारणत्वाभिधानमयुक्तमित्याशयेन शङ्कते ननु अत्र = ज्ञान - कर्मणोः समुचित्य मोक्षकारणत्वप्रतिपादने किं कारणत्वं कारणत्वपदप्रतिपाद्यमिति चेत् ? उच्यते, नियतान्वयव्यतिरेकव्यङ्ग्यः परिणामविशेष एव कारणत्वपदार्थ इत्यदेहि । न च स्वाश्रयादिप्रसङ्गः यतः समूहान्वयव्यतिरेकाभ्यां समूह कारणत्वग्रहे तदिनरगृहीततत्कार्यं कारण नाकसमूहसन्ये यदुव्यतिरेकेऽवश्यं कार्यव्यतिरेकस्तावत्समूहसत्त्वं तत्सत्त्वं चावश्यं तत्कार्य सत्त्वमित्यन्वयव्यतिरेकयोर्ग्रहस्य विशिष्य तत्कारणत्वग्राहकत्वे दोषाभावात् ।
यत्तु स्व-स्वन्यायाऽभिन्नासु पावतीषु व्यक्तिषु सतीषु सव्यापारयवच्छिन्नाधिकरणक्षणोत्तरक्षरी यादवच्छिन्नाधिकरणत्वं तावतीषु व्यक्तिषु सतीष्वेव सव्यापारयदवच्छिन्नानधिकरणक्षणांतरक्षणं यदवचित्रानधिकरणत्वं तदयन्त्रितं प्रति तदेव जनकत्वम, आकाशाभाकाले रासभादेर्घदादानुभयसत्त्वान सतीष्येवेत्यन्तम् । इत्थञ्च यावतां सत्त्वं रासभाधिकरण क्षणोत्तरक्षणे घटसत्त्वं तावतां सत्त्वं तं विना घटासत्त्वं नास्तीति नातिप्रसङ्गः । घटसत्त्वकालीनचावदृश्यतिनिविष्टदण्डादिसत्वकालेऽसन्नरयाऽसम्भवात् भिन्नास्त्रित्यन्तम् । न च मङ्गलाभावरूपविघ्नहेतुमति मङ्गलतदुच्याप्येतरयावदविघ्नहेतुसमवधानकाले मङ्गलमन्वस्यासम्भवात् स्वाभावभिन्नास्वित्यपि विशेषणीयमिति वक्तव्यम्, स्व-स्वव्याप्यंतरयावदुव्यक्तिसत्त्वं मङ्गलाचे विघ्नप्रागभावाभावस्य सत्त्वेन तदविशेषणानीचित्यात् । नत्र स्वस्वस्याप्येतरयावदविघ्नहेतुत्वेन निवेश इति, तन चारु, यावतां सच्चे दण्डसचे घटत्वं तावतां सत्त्वे दण्डासत्त्वे घटासत्त्वस्यासम्भवान् घटप्राक्कालोत्पत्तिकानामुदासीनानन्तसंयोग-विभाग- ततदङ्कुरा दीनामन्यदाऽभावान्, वाक्तपदस्येच्च्छी गृहीत यावत्परत्वे रासभातिप्रसङ्गात् चक्रादिवाबत्सवे रामसत्वं दण्डसमधाने घटत्वात्तदभावसमवधानं घटासत्त्वान । तस्माद् यादृशसमूहसत्त्वं सव्यापारयत्सत्त्वेऽग्रिमक्षणेऽवश्यं कार्यं तादृशसमूहसत्त्वं सव्यापारयद्व्यतिरके चावश्यं
कारणतास्वरूपविचार
यहाँ यह शंका हो सकती है कि 'समुचित = परस्परसहकारी ज्ञान एवं क्रिया में मोक्ष की कारणता का प्रतिपादन किया गया मगर वह कारणता किस्वरूप है ? इसका निरूपण तो नहीं किया गया है। अतः कारणता का क्या स्वरूप है? यह बताइए' <- इसके समाधानार्थ प्रकरणकार श्रीमद कहते हैं कि कारणता परिणामविशेषस्वरूप है। कारणों में रहा हुआ वह कारणतास्वरूप परिणामविशेष नियत अन्वय एवं व्यतिरेक से ज्ञात होता है। जैसे दण्ड, चक्र, कुलालादि के होने पर भी कपाल के न होने पर घट उत्पन्न नहीं होता है और कपाल के आने पर अवश्य घटोत्पाद होता है । इस अन्वयव्यतिरेक से मालूम हो जाता है कि कपाल में कोई ऐसा परिणाम अवश्य होना चाहिए जिसकी वजह शेष कारणों की उपस्थिति होने पर भी कपालशुन्यदशा में घट का जन्म नहीं होता है और कपाल के होने पर वहाँ घट की निप्पति होती है । यदि कपाल में तंतुआदि की भाँति घट कार्य की अपेक्षा कोई परिणामविशेष न हो तो क्यों कपाल के अन्वयव्यतिरेक का अनुसरण घटोत्पाद करता है । कपाल में परिणामविशेष न होने पर भी यदि घटजन्म उसके अन्वयव्यतिरेक का अनुसरण करे तो तन्तु आदि के अन्वयव्यतिरेक का उमे अनुसरण करना चाहिए । नगर ऐसा नहीं होता है । इसीसे निश्चित
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अन्तसहस्रीतात्पर्यविवरण जनतर्फसंवादः *
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अन्ये तु
अनन्यथासिदनियतपूर्ववृत्तित्वं तत् ।
ॐ जयलला कै
कार्यत्र्यतिरेकस्तत्तस्त्र कारणमित्येवं योगक्षेमसाधारणस्य कारणत्वस्य लक्षणं वाच्यम् । भवति हि चक्रादिसमूह समापारदण्डसत्त्वेऽग्रिमक्षणं घटसत्त्वं सत्र्यापारदण्डव्यतिरेके चटव्यतिरेक इति । इत्थञ्च समृहान्वयव्यतिरेकग्रहानन्तरं प्रत्येकान्वयव्यतिरेकग्रहस्य प्रत्येककारणता ग्राहकत्वं नाप्रामाणिकं न वा नियतान्वयव्यतिरेकव्यङ्ग्यस्य परिणामविशेषस्य कारणतात्वमप्रामाणिकमिति व्यक्तमेव अष्टसहस्रीतात्पर्यविवरणे । न चातिरिक्तस्य परिणामविशेषलक्षणस्य कारणत्वस्याऽसिद्धिरिति वाच्यम् इष्टसाधनत्वादिज्ञानकारणतावच्छेदकतयाऽतिरिक्तस्यैव कारणत्वस्य सिद्धेरिति व्यक्तमेव जैनतर्क ।
1
अन्ये = नैयायिकाः तु, 'बदन्ती' त्यनेनास्याऽनुसंहितापटेनान्वयः । अनन्यथासिद्धनियतपूर्ववृनित्वं = अन्यथासिद्भिद्युन्नत्वं सति नित्वं सति पूर्ववर्तित्वं तत् कारणत्वम् । दण्डत्वादिवारणायान्यधासिद्धिशून्यले सनीति टत्वावच्छिन्ननिरूपितान्यत्र क्लृप्त्याद्यन्यथासिद्धिशून्य तद्वारमै तिव्याप्तिवारणाय नियतेति । घटस्य घटत्वानिरूपितान्यत्रक्लुत्याद्यन्यथासिद्धिशून्यतया घटत्वावच्छिन्ननिरूपितव्यापकत्ववत्तया च घटत्वेन स्वस्य स्वकारणत्वापत्तिवारणास पूर्ववृत्तीति । अत्र संयोग घटं प्रति दण्डस्य न हेतुना, भूतलादावपि संयोगेन घटत्वेन तत्र संयोगेन दण्डाभावान् किन्तु संयोगसम्बन्धावच्छिन्नोत्पत्त्यवच्छेदकतासम्बन्धेन । तथा च तत्सम्बन्धन कार्याधिकरणनिष्ठात्यन्ताभावाऽप्रतियोगितघटितं घटकारणत्वं दण्डस्य वाच्यम् । तदपि न सम्भवति, घटोत्स त्युत्तरकालावच्छेदेन तेन सम्बन्धेन पदाधिकरणं दण्डाभावसत्त्वात् । अतः कार्याधिकरणवृत्त्यभावे कार्याध्यवहितप्राकालावच्छेद्यत्वमपि निवेशनीयम् । न च तथापि कार्याधिकरणे चक्रे दण्डाभावस्य कालिकसम्बन्धन वर्तमानतया दण्डं व्याप्तिरिति वाच्यम्. वर्तमानत्वस्याऽभावीयदैशिकविशेषणता सम्बन्धावच्छिन्नवृत्तित्वस्य विवक्षणात् । न चैवं सम्बन्धान्तरारच्छिन्नप्रतियोगिताकदण्डाभाचस्प तेन सम्बन्धेन चक्रे सत्त्वादव्याप्तितदवस्थ्यमिति वाच्यम् प्रतियोगितायां कारणतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नत्वनिवेशात् । न च तथापि दण्डादः विशिष्टाभावी भयाभावमादायाऽव्याप्तिरिति वाच्यम् अप्रतियोगित्वशब्देन प्रतियोगितानवच्छेदकधर्मवत्त्वविवक्षणात् । न चैवं सति पृथक पूर्ववृत्तित्वविशेषणं व्यर्थमिति वाच्यम् इष्टापनेः एतादृशव्यापकत्वलाभायच तदुपादानात् । तथा च संयोगसम्बन्धावच्छिन्नोत्पत्त्यवच्छेदकत्वसम्बन्धेन घटत्वावच्छिन्नाधिकरणे घटा व्यवहितप्राकुकालावच्छेदेन देशिकविशेषणतासम्बन्धेन वर्तमानी योऽभावः तादृशाभावीय कारणतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगितानवच्छेदकधर्मवत्त्वं दण्डनिष्टकारणत्वमिति फलितम् ।
★ नन्वेवमपि तादृशप्रमेयत्वरूपधर्ममादाय रासभादेः कारणत्वापत्तिः, रासभादेः तादृशप्रमेयत्वरूपधर्मवत्त्वेऽपि तेषामन्यथासिद्धत्वाभावात् हेतुतापनिरिति चेन, अन्यथासिद्ध्यनिरूपकत्वेनाऽपि धर्मस्य विशेषणीयत्वात् संयत्व द्रव्यत्वादीनां दण्डत्वयापकधर्मत्वन पामन्यथासिद्ध निरूपकत्वात् । न चैवमपि रासभत्वादीनामपि अन्यथासिद्ध्यनिरूपकत्वादेव तेन रूपेण रासभादीनां कारणत्वापत्तिहो जाता है कि घट की अपेक्षा कपाल में जरूर कोई परिणामविशेष रहता है । वही घटकारणतापद से व्यवहर्तव्य है । यह स्याद्धादियों का सिद्धान्त है ।
* नैयायिकांमत काढणता एवं अन्यथासिशि का निस्पण
अन्य । यहाँ नैयायिकों का यह कथन है कि कारणता दूसरा कुछ नहीं है किन्तु अनन्यासिद्धनियतपूर्ववृत्तिता ही कारणता है । जैसे कि घट के प्रति दण्ड अनन्यथासिद्ध एवं नियत पूर्ववर्ती होने से aur घटकारण कहा जाता है । यदि अनन्यभासिद्धत्व का कारणता के शरीर में निवेश न किया जाय तब तो दण्डरूप, दण्डत्य, आकाश आदि में भी घटकारणता के स्वीकार की आपनि आयेगी, क्योंकि वे भी नियमेन घटोत्गादपूर्ववर्ती हैं। उसके निवारणार्थ अनन्यथासिद्ध ऐसा कहा गया है। कार्यात्पत्ति से अव्यवहित पूर्ववर्तिना तो कदाचित आनेवाले सभ (भा) में भी हो सकती है तो उसे भी घटोत्पत्ति में कारण कहना होगा। अतः इस अतिव्यानि के निवारणार्थ 'नियत' ऐसा कहा गया है। यदि पूर्ववर्ती न कहा जाय तब तो अनुत्पत्र या मृत कुलालादि में भी साम्प्रत काल में उत्पन्न होनेवाले घर की कारणता का व्यवहार होने की आयेगी । अतः तत्रिवारणार्थं पूर्ववर्ती ऐसा कहा गया है। अतः अन्यथामिद्धिशून्यत्वे सति नियतले सति कार्याव्यवहितपूर्ववृत्तिता की ही कारणता कहना संगत है। यहाँ 'अन्यासिद्धिशुन्यले सति' ऐसा जो कहा गया है उसके घटक अन्यथासिद्ध के पाँच प्रकार है । उसमें पहला अन्यथासिद्ध वह है जो येन सह कार्य पूर्ववृत्तित्वग्रह का आश्रय हो । जिसका किसीके साथ ही कार्य के प्रति पूर्ववृतित्व हो, न कि स्वतंत्र वह प्रथम अन्यथासिद्ध है। अर्थात किसी कार्य के प्रति जिस वस्तु का अन्नप एवं व्यतिरेक स्वतन्त्ररूप में नहीं बन सकता है, अपितु कारण को लेकर ही जिसके अन्वयव्यतिरेक का निश्व जिस कार्य के प्रति किया जाय उस कार्य के प्रति यह वस्तु अन्यथासिद्ध है । जैसे घट के प्रति रूप घट के प्रति दण्डरूप का
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... सण्डः ३ . का.११ * मुक्तावलीनभा मञ्जूषाकारादिमनप्रदानम *
तमाऽन्यथासिन्दं पथविधम् । तत्र येत सहैव यस्य यं प्रति पूर्ववृत्तित्वं गृह्यते तत्र तत् धम् । न च दण्डत्वादिना दण्डादेर्दण्डादिना दण्डसंयोगादेवाऽन्यथासिन्दिः, पृथगावयव्यतिरेकप्रतियोगिभिनत्वे सति पृधमन्वयव्यतिरेकप्रतियोग्यवच्छिमान्वयव्यतिरेकप्रति
* जगलताhinaraurasimum वारणसम्भवेऽनन्यथासिद्धत्वविशेषणवैयर्थ्यमिति वाच्यम, इष्टापतेः, अन्यथासिद्धयनिरूपकधर्मलाभापैव तादृशविदोषणोपादानादिति मुक्तावलीप्रभाकारः । एतनाग्रे स्फुटीभविष्यति ।
इहान्यथासिद्धिशून्यत्वं न विदोषणम्. अन्यथासिद्धरनुगताया अभावत् किन्तु यत्र यत्रान्यधासिद्धिव्यवहार: तनयक्तित्यामाच. कूटवत्त्वं तनदव्यक्तिभेदकूट्यत्त्वं वा विशेषणम् । न च तन्दुल्यनिभेदकूटस्यैव विशेषणत्वं न्यथामिद्भिनिर्वचनायासंबयर्थ्यमिति । वाच्यम्, तत्तदन्यक्तिपरिचयायैव तन्निर्वचनादिति मुक्तावलीमञ्जूषाकारः । नियतपूर्वत्तित्वमिति नियतपूर्वतिजातीयत्वमित्यर्थः । तेनाऽरण्यस्थदण्डादावपि स्वरूपयोग्यतासम्पनि: नज्जातीयतश्च नियतपूर्वन्ति चन्दकदण्डत्वादिमत्त्वमवेति महादेवः । न च । दण्डवपद् द्रव्यत्वादिकमपि नियतपूर्ववर्तितावच्छेदकमेवेति पटादानामपि घटकारणनापत्तिरिति वाच्यम, नियतापूर्वचर्तितावच्छेदकपदन लघुनियतपूर्ववर्तितावच्छेदकरयाक्तत्वात् । द्रश्यत्वस्य घटनियतपूर्ववर्तितावच्छेदकलन तस्यैव घटकारणतारूपत्वं नन्नद्रव्येषु घरकारणलकल्पनापत्त्या गौरबाद दण्डवादिकमेव साध्विनि रामरुद्रभट्टः ।
तत्र = निरुजकारणत्व, सप्तम्यधी घटकत्वं, तनः निरुक्तकारणत्वघटकीभूतं अन्यथासिद्धं पञ्चविधम् । मणिकारमते च त्रिविधमन्यथासिद्धमिति ध्येयम् । तत्र = पञ्चविधा न्यथासिद्धत्व येन दण्डादिना सहेब यस्य दण्डरूपादेः यं = घनदिकं प्रति पूर्ववृत्तित्वं गृह्यते = ज्ञायते तत्र = घटादों का तेन दण्डादिना जत् = दण्डरूपादि अन्यथासिद्धं आद्यम । यथा || घटं प्रति दण्डरूपादः । दण्डादिना सहय दण्डरूपादर्घदादिकं प्रति पूर्ववृनिल्ग्रहाद दण्डरूपादिकं घटे प्रत्यन्यधासिद्धम् ।।
मुसलगांवकरस्तु- 'दण्डरूपस्य घटम्प्रति न स्वतन्त्रतया पूर्वभाव. किन्तु स्वकारणस्य दण्डस्य पूर्व भावं गृहीलर दण्डरूपस्यापि घटम्प्रति पूर्वभावो गृहात । अतः दण्डरूप घटातानः पूर्वक्षण सनणि अन्यथासिद्धमेरेत्याह ।
नन्येवं सति घट प्रति दण्डादेरपि दण्डत्यादिना:न्यथासिद्धत्वप्रमङ्गः दण्डत्वादिना रहन दण्डादेर्घटादिकं प्रति पूर्ववृत्तित्वग्रहात ।। एवं दण्डादिना सहबदण्डसंयोगादघंटादिकं नि पूर्ववृत्तित्वग्रहाद् दण्डसंयोगादरपिदण्डादिना चटं प्रत्यन्यथासिद्भत्वमापद्यत । न वा दण्डादिना दण्डरूपादेरपि घटं प्रत्यन्यथासिद्धत्वं स्यात्, अविशेषादित्याशङ्कामपाकर्तुमुपक्रमते - न चेति । शङकाग्रन्थो विभावित एव । समादधते - पृधगन्वयव्यतिरेकप्रतियोगिभिन्नत्वं सति = स्वातन्त्र्येण तत्कार्यनिरूपितान्वयन्यतिरकनिरूपिन
मानमरद्रमः ।
अन्वय-व्यतिरंक अपने कारण दण्ट को लेकर ही बन पाता है । इसलिये दण्डरूप घट के प्रति अन्यथासिद्ध हो जाता है। दण्टरूप को दण्ड में कभी भी या नहीं किया जा सकता है। अन्वय का अर्थ है स्वकाल में अपने अधिकरण में कार्य का होना । व्यतिरेक का अर्थ है अपने अभाव के अधिकरण में कार्य का न होना ।।
आध अन्यथासिन परिषात स्वरूप न च दण्ड, । यहाँ इस शंका का कि → 'जैसे दण्ड से दण्डरूप घट के प्रति अन्यधासिद्ध बताया गया है ठीक वैसे ही दण्डत्वादि से दण्ड एवं दण्ड में दण्डसंयोग भी घट के प्रति अन्यधासिद्ध बन जायंगे, क्योंकि जैसे घट के प्रति दण्टरूप का अन्वय-व्यतिरेक दण्ड को लेकर ही बन पात है ठीक पैसे घट के प्रति दण्ड का अन्वय-व्यतिरेक दण्डत्व को लेकर ही मुमकिन है एवं दण्डसंयोग का अन्चय-व्यतिरेक अपने कारण दण्ड को लेकर ही हो सकता है - समाधान यह है कि यहाँ प्रथम अन्यथासिद्धविधया वह विवक्षित है जो प्रधक अन्य व्यतिरेक के प्रतियोगी से भिन्न होने हुए पृथक अन्य व्यतिरेक के प्रतियोगी - कारण से अवच्छिन्न अन्नय-व्यतिरेक का प्रतियोगी हो । अत्र घट के प्रति दण्डसंयोग को घर से अन्यधासिद्ध नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि दण्ड के होने हा भी दण्डसंशंग के व्यतिग्क से घटोत्पत्ति का ब्यनिक प्रसिद्ध होने से दण्डसंयोग पृथक अन्वय-व्यतिरेक के प्रतियोगी से भिन नहीं है, अपितु पृथक अन्वय-व्यतिरेक का प्रतियोगी ही है । इस तरह स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धन दण्डत्यादि होने पर दण्डादि का व्यतिरेक ही असिद्ध होने से एथगन्चयन्यतिरेक के प्रतियोगी से विशिष्ट अन्चय-व्यतिरेक का प्रतियोगित्व दण्डादि में नहीं रहेगा। इस तरह विशेषणाभावप्रयुक्त विशिधाभाव से दण्डसंयोग आदि में अन्यथासिद्धत्व की आपत्ति का परिहार हो जाता है । एवं रिशेप्याभाषप्रयुक्त विशिष्टाभाव से दण्डादि में घट की अपेक्षा दण्डत्वादि से अन्यथासिद्धृत्व का निवारण हो जाता है। इसलिए प्रथगनयन्यतिका प्रतियोगित्व सति भगन्ज्यव्यतिरेकप्रतियोगिविशिष्ट अन्वय
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* कपालनाक्षुष चन:संपांगायथासिद्धत्वबारणम* योगित्वस्य विवक्षितत्वात् ।
नन्वत्र स्वान्वयव्यतिरेकाऽव्यापकत्वस्य पृथपदार्थत्वे सत्यन्तवैययम, दण्डान्वयव्यतिरेकयोर्दण्डसंयोगान्वयव्यतिरेकव्यापकत्वात् । नहि दाहसंयोगे सति दण्डव्यतिरेकेण कार्यव्यतिरेकः सम्भवी । न च चक्षुःकपालादिना तत्संयोगस्यान्यथासिन्दिवारणार्थ तत्;
-* जयलता *प्रतियोगिताशुन्यत्वे सति, पृथगन्वयव्यतिरेक्पनियोग्यवजिन्नान्वयन्यतिरेकप्रतियोगित्वस्य = तत्कार्यनिलगितस्वतन्त्रान्वयन्यनिरकनिरूपितप्रतियोगिताश्रयविशिष्टान्वयव्यतिरेकनिरूपितस्य प्रतियोगित्वस्य विवक्षितत्वात् । कार्योत्पादं प्रत पृधान्वययनेरका:प्रतियोगित्ले सति यः पृथगन्चयन्यनिरेकप्रतियोगिनियन्त्रितान्वयव्यतिरकप्रतियोगी स तत्कार्य प्रते प्रथमान्यधासिद्ध इत्यर्थः । तन दण्डत्वादिना दण्डादनान्यधासिद्धिः न बादण्डसंयोगादर्दण्डत्वर्गदना; सत्यपि दण्डादौ बिना दण्डसंयोगादिना घटादिलक्षणकार्यव्यतिरेकात्तस्य पृथगन्वयादिमत्त्वात् । न वै दण्डादरपि पधगन्वयव्यतिरप्रतियागित्वादव दण्डल्यादिना:न्यथासिद्धिः येन 'पृथगन्दय - व्यतिरकप्रतियांगा ति व्यर्धम. स्याश्रयसंबोगन ति दण्डत्वादी दण्डादिन्यतिरका सिद्धदण्डादरतथाल्चात् । नतो विशेष्याभावप्रयुक्तविशिष्टाभावान्न दण्डादेरन्यधारिसद्धत्वं. विशेषणाभारणयुक्तविशिष्ट्राभायान्न दण्डसंयोगादेरन्यथा सिद्भिरिति भावः ।
एवं स्थित कश्चिच्छते- नन्विति अग्रे चदित्यनेनास्यान्वयः । अत्र = आद्यान्वधासिद्धिलक्षण, स्वान्वयन्यनिरेका व्यापकत्वस्य नदन्वयव्यतिरेकानियतान्वयव्यतिरेकझालित्वस्य, पृथकपदार्थले विवक्षिते तु सत्यन्तवय = पृथगन्वययतिरकातियोग्यवच्छिन्नान्वयन्यतिरेकप्रतियोगित्वेनैव ययोक्तोपपादनसम्भवात् प्रथगन्वयन्यनिरेकातियोगिभिन्नत्यं सतीत्यस्य निष्फलत्यम, दण्डान्वयन्यतिरेकयोः दण्डसंयोगान्वयन्यतिरेकन्यापकत्वात् । यत्र समवायन दण्डसंयोगस्तत्र संगोगन दण्डः कार्यान्पादश्च । यत्र च समवायावच्छिन्नप्रतियोगिताकदण्डपयोगाभाबस्तत्र संयोगावच्छिन्नप्रतियोगिताकद दाभाय: कार्यात्पादानावश्च इत्येवम प्रयन्यनिरेकयोः दर्शनन तादृशव्याप्यव्यापकभावलाभात् । न हि दण्डसंयोगे सति दण्डव्यतिरेकेण कार्यव्यतिरेकः सम्भवी । दाव्यति- | रेक दण्डसंयोगस्यैवाउसम्भवात. व्यापकानावस्य व्याप्याभावसाधकत्वात् । इत्यञ्च दण्डसंयोगादी दण्डादिन्यतिरेकाद् घटादिश्यतिरकासिद्धेदण्डान्वयव्यतिरेकयोर्दण्डसंयोगान्वयव्यतिरकाव्यापकत्याभावात् पृधगन्वयव्यतिरेकप्रनियोग्यनियन्त्रितान्दयन्यतिरकप्रतियोगितया दण्डसंयोगादरनन्यथासिद्धी पृथगन्वयव्यतिरेकप्रतियोगिभिन्नत्वस्य वैफल्यमंति सिद्धन् ।
न च चक्षुःकपालादिना तत्संयोगस्य = चक्षुःकपालसंयोगस्य, कपालचाक्षुषं प्रति अन्यधासिद्धिदारणार्थ तत् = व्यतिरेक की प्रतियोगितास्वरूप प्रथम अन्ययासिद्धि फलित होनी है।
अन्य शासिद्धि के विश्लेषण की व्यर्थता की शंका एवं उसका निरसन * पूर्वपक्ष :- नन्वत्र. । प्रधम भन्ययामिद्धि के लक्षण में निषिष्ट पृषकपदार्थ को यदि अपने अन्य-न्यतिरेक की व्यापकता | के अभावस्वरूप माना जाय तब तो पृथक अन्वय-व्यतिरेक के प्रतियोगी से भिबन्ध पर्यन्त जो विशेषण प्रथम अन्यथासिन के लक्षण में प्रविए है वह व्यर्थ हो जायेगा, क्योंकि पृथगन्वय-व्यनिरंक के प्रतियोगी से अरच्छिन्न = नियन्त्रित अन्नयव्यतिरेक की प्रतियोगितास्वरूप विडोप्यांश का ग्रहण करने से है दरडादि से दण्डसंयोगादि में घट के प्रति अन्यथासिद्धत्व का परिहार हो सकता है । टण्डसंयोग के अन्वय एवं न्यतिरेक के व्यापक हैं दण्ड के अन्वय-व्यतिरेक । दण्डसंयोग के होने पर अवश्य दण्ड होता है और घट की निप्पनि भी होती है । एवं दण्ड की अनुपस्थिति में दण्डसंयोग का भी अवश्य व्यतिरेक होता है और घटानुत्पत्ति रहती है। कभी भी दण्डसंयोग के होने पर टण्ड के व्यक्तिरेव = अभाव में कार्य घट का अभाव (व्यतिरक) नहीं हो सकता है, क्योंकि दण्डसंयोग की उपस्थिति में दण्ड का व्यतिरेक ही नामुमकिन है । मतलब यह है कि पृथकशन्द व्यवहार में स्वतन्त्र अर्थ में प्रसिद्ध है। अर्थात् जिसका होना या न होना अन्य किसीक हाने और न होने पर अवलम्बित नहीं हो उसके अन्नयन्यतिरेक में स्व - कारण के अन्चय-व्यतिरेक की अव्यापकतास्वरूप पृधकत्व रहेगा - यह अर्थ मान्य करने पर विशंप्य अंत में ही दण्ड, दण्डसंयोग आदि में अन्यधासिद्धत्व का वरण हो जाता है; क्योंकि दण्ड, दण्टसंयोग आदि के अन्चय-व्यतिरेक में विवक्षित पृथकत्व = कारणान्ययव्यतिरेकऽव्यापकत्व नहीं होने में पृथगन्वयल्यतिरेक प्रतियोगिनियन्त्रितान्वयव्यतिरकप्रतियोगिता नहीं रहती है ।
न च च । यहाँ यह कहना कि → "चक्षुकपालादि में चक्षुकपालमयंग की चाक्षुष प्रत्यक्ष के प्रति अन्यधामिति के वारण के लिए 'पृधगन्वयतिरेकप्रतियोगिभिन्नत्वं सति' इस विशेषण का अन्यथामिद्ध के लक्षण में प्रवेश करना अनिवार्य
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१३.. मायमस्याद्वादरहस्य खण्टः १ कः, ११ * पृथक्पटाप्रकाशनम् * । तथापि दारूपादावव्याप्त्यनुदारात, दण्डत्वादित इव दण्डरूयादितो दण्डादेः पृथमन्वयाधभावात् । न त तज्ज्ञान विना ज्ञायमानत्वस्य तदर्थत्वान्नायं दोषः, दण्डरूपज्ञान विजेत
-* जयाता - पृधगन्ध्यव्यतिरकप्रतियोगिभिन्नत्वापादानं सार्थक, वचःकपालमयोग सत्यपि क्षुःकपालादिनाशकाले तव्यतिरेके कार्यव्यतिरकाबनुःकपालादेः पृथगन्वयादिमन्वाचन कपालसंयोगे प्रधगन्वयव्यतिरेकप्रतियोगिताकपालनियन्त्रितान्ययाव्यनिग्कानियोगिनाया: सत्त्वात् । तन्निश च न कपालचाल प्रति चमकपालसंगांगस्यान्यधासिद्धत्वप्नसङ्गः, नस्य पृथगन्वययतिरकप्रतियोगित्वम विशेषणाभावप्रयत्कविशिष्ट धाश्रयत्वादिति वाच्यम, तथापि = चक्षुःपादादिना नसंयोगान्पासिट्रिनिगकरणाय नपादानस्य सार्थकत:पि, घटे प्रति दण्टरूपाटी अन्याप्त्यनद्धारात् - प्रथमान्यधासिद्धिलक्षणा व्यासंबंडलंपायिनत्वात् । तन ननादा हेतुमाइ, - दण्डन्यादित इव दण्डरूपादितः दण्डादः पृथगन्चयायभावात् । न हे टण्डरूपादी सति दन्यतिरकण घटात्यादयनिरकः सम्भवति । अती दण्टाद्यन्वय -व्यतिक्रिया: दण्डरूपायन्नयन्यतिरकन्यापकलेन निरुक्त पृथक्त्वविरहेण पृधगन्श्यव्यतिरेकानियांगित्यं दण्टादी न सम्भवनि । नती दण्डरूपादी पृथगन्धयन्यतिरेकानियोगिनिन्नवलक्षणल्य विशेषगांशस्य सत्त्वपि पृथगन्वयत्र्यनिरकनिरूपितप्रतियोगवविशिष्टदण्डायन्यत्र्यतिरकप्रतियोगित्वस्य विशेश्यांशस्याऽसत्त्वेन नाद्यान्यबासिद्धलक्षणसम्भवः । यद्यपि दण्डर पादौ दण्डायनगव्यतिरकप्रतियोगित्तमरत्येव किन्तु दण्डादी निरुक्तरीत्या प्रथगन्यपव्यतिरकप्रतियागिन् नाम्नानि दण्डरूपादौ पृथगन्चयन्यतिरकप्रतियोगिनियन्त्रितान्वयव्यतिरकप्रतियोगितम्या:सन्चम् । तता निकाधान्यथासिद्धलक्षणस्य दण्डरुपादावव्याप्तिर्दुबारति ननुवादितात्पर्यनिति ध्येयम ।
न च तज्ज्ञानं विना ज्ञायमानत्वस्य तदर्थत्वात = पृधयपदार्थत्यात नायं दण्डरूपादावन्न्यथासिद्धवाव्याप्तिलक्षण: दोपः, नजानबिरहप्रयुक्त ज्ञानविषयत्वामाधानाश्रयत्वं प्रधवपदप्रतिपाद्यमिति भावः । दण्डान्वयत्कियां: एथक्त्वसङ्गतिः कथं ? उच्यत.
है, क्योंकि वैसा न कहने पर तो चक्षुकपालमयोग होने पर भी चक्षु या कपाल के नाश की उत्पनि क्षण में चक्षु या कपार के न्यनिरक से कपालचाक्षुष का व्यतिरंक = अनुत्पाद होने से चच एवं कपालमयोग में भी पृधगम्बयव्यतिरेकप्रतियोगी चक्षुःकपाल से नियन्त्रित अन्वय-व्यतिरेक की प्रतियोगिता रहती है। इस तरह चक्षुकपालसंयोग में प्रसक्त अन्यधासिद्धत्व का परिहार तभी हो सकता है यदि 'पृधगन्वयन्यतिरकप्रतियोगिभिन्नत्वस्वरूप विंधण का प्रथम अन्यपासिद्ध के लक्षण में निवेश किया जाप, क्योंकि चक्षु एवं कपाल के होने पर भी यक्षुकपारसंयोग के व्यतिरेक में वपालबाभुपात्मक कार्य का व्यतिरेक = अनुत्पाद प्रसिद्ध होने से पृधगन्वयन्यनिग्वातियोगिभिन्नत्व चचकपालसंयोग में नहीं रहना है 1 चक्षुकपालसंयोग भी पृथगन्वयन्यनिरक का प्रतियोगी ही है। इस तरह कपालचाक्षुष प्रत्यक्षात्मक कार्य के प्रति चक्षु या कपाल भाटि से चक्षुकपालसंयांग में अन्यथासिद्धत्व की आपत्ति के निवारणार्थ आद्य अन्यथासिद्ध के लक्षण में पृथगन्वयव्यतिरेकप्रतियोगिभिन्नत्य का विशेषणविधया निवेश करना आवश्यक है . यह फलित होना है" - भी ठीक नहीं है. क्योंकि चक्षुकपालमयोग में अन्यथासिद्धत्व के परिहागधं भले ही पृथगन्वयन्यतिरकप्रतियोगिभेद का प्रथम अन्यथामिन के शरीर में निवेश किया जाय फिर भी घट के प्रति दण्डार आदि में अन्यभासिद्ध के लक्षण की अन्याप्ति का परिहार हो सकता नहीं है। इसका कारण यह है कि जम दण्डादि का पृथक अन्वय-व्यतिरेक दण्इत्व को छोड़ कर हो सकता नहीं है ठीक वैसे ही दण्डरूपादि को छोड़ कर भी हो सकता नहीं है। पृधगन्नयव्यतिरकप्रतियोगिभिन्नत्य इण्डरूनादि में होने पर भी दण्डादि के अन्वय-व्यतिरक में दण्डपान्वषयतिरेकाऽव्यापकत्व नहीं होने मे दण्डादि में पृथगन्वयन्यनिरकप्रतियोगित्व ही नहीं होने की वजह पृथगन्वयन्यतिरऋतियागि गस दण्डादि से नियन्विन अन्वय-व्यनिक की प्रतियोगिता दण्डरूपादि में रहनी नहीं है । विशेष्याभाचप्रयुक्त निशियाभार टण्डरूपाटि में मुलभ हान की वजह दण्डरूपादि घट के प्रति अन्यथा सद्ध बन मफत नहीं हैं।
न च त. । यदि उक्त अच्याप्ति के निवारणा यह कहा जाय कि - "पृथकाट का अर्थ है, उसके ज्ञान के बिना जायमानत्व। मतलब कि अन्य किसीक ज्ञान के बिना जिसके अन्याय-व्यतिरेक का ज्ञान हो सक वे अन्वय-व्यतिरेक पृथगनयन्यतिरकशब्द में ग्राहा है। अब तो दण्ड के अन्चय-न्यतिरक में पृथगन्वयन्यतिरकन्व के अभाव की अपत्ति को अवकाश नहीं है, क्योंकि दण्टरूप के ज्ञान के दिन ही दण्ड के अन्वय एवं व्यतिरेक का ज्ञान हो सकता है। यह कोई गजाता नहीं है कि दण्डरूप का ज्ञान न होने पर दण्ड के अन्चय-व्यतिरेक का ज्ञान न हो। इस तरह दण्डान्वयव्यतिरंक पृधगन्वयन्यनिकस्वम्प सिद्ध हो जाने की बजह पृधगन्वय-न्यतिरंकप्रतियोगिभिन्न टपटरूप में पृथगन्वयव्यतिरेकातियांगी = दप से नियन्त्रित अन्वय-व्यनिक की प्रतियोगिता भी रहती है । अतः देण्टुरूप में अन्यथासिद्ध के लक्षण की अव्याप्ति को अवकावा नहीं
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* फकिकालान्पयंद्यातनम * लाडान्वय-व्यतिरेकयोायमानत्वादिति वाच्यम्, एवं सति दण्डज्ञानं विनाऽज्ञायमानान्वयव्यतिरेकप्रतियोगिलो दण्डसंयोगस्यात्यथासिन्दावारणादिति चेत् ?
अत्र वन्ते- प्रधाएधक्पदस्य स्वान्वयघटकाsuस्तित्वार्थकत्वामायंदोषः दण्डरूपाद्यत्व यस्य दण्डान्वयघटकसम्बन्धघदितत्वात ।
- जापाTI - दण्डरूपज्ञानं विनैव दण्रान्चयव्यनिरकयाः ज्ञायमानत्वात् । नना दण्डान्वयव्यतिरेक्यांः पचक्यानगायात् 'प्रथगन्वयम्यनिरकप्रतियोगिभिन्न दण्टापादी प्रधगन्चयन्यतिकनियागितामन्धिनान्वयव्यतिरकनियागिन्यस्या-ग्रन्यवान दण्डरूपादौ प्रथमान्यथागिद्धलक्षणाव्याप्तिगिनि वाच्यमः एवं गति - तदग्रहप्रयुक्काज्ञापमान वा-यस्य पृथपदाधव सनि दण्डज्ञानं विनाऽज्ञायमानान्वयव्यतिरकप्रतियोगिनः दण्डसंयोगस्य घटप्रति अन्यथासियवारणात् । दण्डसंयोग पृथगन्वयन्यनिरकवतियोगिभिन्नत्वस्य दण्ड. संथागं विनर नायमानान्धयांतरकप्रतिवागिण्डनियन्त्रितान्यतिरकप्रतियागित्वस्य च सन्चात् : तन एक सान्यता पारन्युतिः ।
यस्तुतस्तु विनापि दण्डादिज्ञान र पत्यादिना दाम्पादी घाटिपूर्वनिवग्रहसम्भवाइपचादिना दण्डरू पाद: प्रकागावप्रसड़ाः। प्रत्यक्षा ग्रहे नियमाकी च दृष्णकादिकं प्रति परमायादिना तद्पदग्न्यासिद्धत्वाना पतिः । नियमा-विवक्षायां न वैपरीत्पपि स्यादिति फकिकानापम ।
अत्र सिद्धान्निनो नमायिका बदन्ति- प्रथमपृथपदस्य = पृथगन्धयन्यतिकप्रतिमानिमित्वमित्यत्र गृहातल्य पृथक्पदम्य. स्वान्वयघटकाटितन्वार्थकत्लान अयं दण्डपादागद्यान्यथासिद्धलक्षणा ब्यामिलक्षागी दोपः । ततश्च स्वान्चमघटका टिनान्चयत्यतिर कातियोगिभिन्नन्य सनानि विशेषणार्थः । उता न दण्डरूपादावच्याप्त्यनदार: दररूपाद्यन्वयस्य दाद्यन्नपघटकसम्बन्धघटितत्यान नागदे बायपापितसम्बन्धन = दण्डदित परम्पगसम्बन्धनवान्यन्यतिकातियोगित्वान दण्टरू पाद: दण्डान्वयघटकटतमम्वन्धान्छिलान्चयन्यनिरकप्रतियोगिचन दण्डान्वयषटका टिनान्चदन्यतिरेकप्रतियागिभिन्नत्वातच्यवानाधान्यथामिद्धरमेश्नगा च्याप्तिप्रसङ्गः । दण्डादस्तु दण्डरूपादितः नान्यथा महत्व देशान्वयस्य दण्डरूपाधवपघटकनसमवागावाटतत्वात् । दण्डादः स्वजन्यच्या पारसमाधना-वयव्यतिरमप्रतियोगित्वमिति नन स्वाश्रयत्वन दण्डनिवेशान्न चटकारणत्वासनः नय घटं प्रति नियनपूर्वनियपि अनन्यासिद्धत्वविहेण विशेषणाभाषप्रयुनविशिष्भावात । है । निशंपण एवं विशेप्य के होने पर विशिष्ट के अभाव का कहना नामुमकिन है" - तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि तब तो दण्डसंयोग में अन्यथासिद्धि की आपनि आयेगी, जिसका कारण नहीं हो सकेगा। देखिये. दर के ज्ञान के बिना दण्टसंयोग के अन्चय एवं व्यनिक का ज्ञान नहीं हो सकता है। अतः दण्डसंयोगान्वयन्यतिरक में पृथक्त्व नहीं रह सकता । नब तो टण्डसंयोग में पृथगन्वयव्यतिरेकप्रतियोगिभिन्नत्व, जो आद अन्यथामिद्ध के लक्षण का विशेषण अंश है, रह जायेगा एवं पृथगन्नयन्यतिरेवतियोगी दण्दु स अवच्चिन = नियन्त्रित अन्वय व्यतिरेक की प्रतियोगिता भी उपाइसंयोग में रहती है। इस तरह विशेषण एवं विशंप्य अंश दण्डसंयोग में रह जाने की वजह दण्डसंयोग भी घट के प्रति अन्पयासिद्ध बन जायगा । इसलिए प्रथम अन्यथासिद्ध का प्रदर्शित लक्षण निर्दोष नहीं है . यह सिद्ध होना है।
प्रयतपदाचीनपचन - यायिक उनरपक्ष:- अत्र बद. । जनाब 1 हीरे की परख तो जोहगे ही जाने । पृथकूपदार्थ का संगन स्वरूप ना हम नयायिक ही जानते हैं। आद्य अन्यथासिद्ध के लक्षण के विशेपण अंश में जो प्रधक पद है उसका अर्थ है स्वान्चयघटकार्याटनत्य । अतः पृथगन्नयन्यनिरेकानियोगिभिवत्व का अर्थ होगा स्वान्वयघटकाटिनान्वयव्यतिरेकप्रतियोगिभेद । ऐसा अर्थ घटन करने पर घट के प्रति दण्डरूप आदि में अन्धासिद्धत्व के लक्षण की अव्याप्ति नहीं आयेगी, क्योंकि दण्टरूप आदि का अन्नय दण्डादि के अन्नय के घटक सम्बन्ध से घटित होने से दररूपादि में दण्डाटि के अन्यय के घटक मे पटिन अन्चय-यनिक की प्रतियोगिता रहती है। अतएव दण्डरूप आदि में प्रथक = दण्टान्वयघटका_टन अन्य-व्यतिरेक के प्रतियोगि का भंट रह जान से आद्य अन्यथासिद्ध का विशंपणांश अबाधित है। पूर्वोक्त रीति में प्रधगन्नयन्यतिरकप्रतियोगि दण्ड से अपनि अन्वय. व्यनिरक की प्रतियोगितास्वरूप विशेष्य अंश तो दण्डरूपाटे में रहता ही है । अत्तः घट के प्रति दण्दरूप को अन्यथासिद्ध मानने में कोई क्षति नहीं है । दण्ड स्वजन्यच्यापारवत्वसम्बन्ध से पद की उत्पन्न करता है जब कि. दण्डरूप का घटकारण मानने पर स्वाश्रयजन्यच्यापारसम्बन्ध को कारपणनावच्छेदवासम्बन्ध मानना होगा । इस तरह दण्डपानि के अन्वय में स्याश्रयविधया दण्ड का गृहण करना आवश्यक बनता है । अतापत्र दण्टरूपादन घट के प्रति नियतपूर्वनिता होने पर भी कारणना नहीं
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.:: मध्यमण्याद्वादरहस्ये गण्टः ३ . का.११ * सम्बन्धमा कारण भदः *
का चैवं स्वजन्यव्यापारसम्बन्धेन दण्डस्य हेतुत्वात् दण्डसंयोगस्य तेन तथात्वं न. स्यादिति वाच्यम, स्वत्वघटितजन्यताभेदेन सम्बन्धभेदात् । वस्तुत: पृथगित्यादेः तदन्वयादिभिधान्वयादिमत्वार्थकत्वेऽपि न क्षतिः । निरुक्तरूपेण
-* लयलवा *न च एवं - नदन्वयघटकाटिताचपन्यतिरकप्रतियोगिभिन्नत्वस्य धगन्चयन्यनिरकप्रतियोगिभेदत्व स्वीक्रियमाणं सति व प्रनि स्वजन्यच्यापारसम्बन्धेन = स्वनिप्रजनकतानिरूपितजन्यत्व वेशिष्टभ्रमणात्मकन्यापारबच्चसंसर्गेण दण्डस्य = दण्दुत्वा - पछिन्नम्य हेतुत्यान् दण्डसंयोगस्य नेन = स्वजन्यन्यागारसम्बन्धन तथात्वं = घटतत्वं न स्यान, नम्प दण्डान्वयघटकापटितान्वयत्र्यनिरकनिरूपिनातियोगिताश्रयत्वन दण्डान्वयघटकाम् घटितान्दा.यतिकप्रतियोगिभिन्नत्वं सनि उथगन्नयन्पनिरकप्रतियागिदाण्डा. वच्छिन्नान्वयव्यतिरेकप्रतियोगित्वादिति विशेषणाभावप्रयुक्तविशिष्टकारणत्वाभावस्य तत्र सत्यादिति वाच्यम्; स्वत्वघटितजन्यताभेदन | सम्बन्धभेदात = दार-तत्संयोगकारणतावच्छेदकसम्बन्धभेदान् । अयं भाषः दण्डः संयोगेन चक्रममणं प्रति कारणं दण्डसंयोगस्तु समदायेन । नतः चक्रममणस्वरूपे व्यापार या दण्डनिष्ठ- मयोगसम्बन्धावन्नित्रजनकनानिरूपिता जन्यदा ततो भिन्नत्र दाद. संयोगनिष्ठ - समवायसम्बन्धावनिकन जनकतानिरूपिता जन्यता। अत पय यट प्रति दण्डस्य स्वनिपसंयोगसम्बन्धावच्छिन्नजनकता
नापिन जन्यत्व निशिटल्यागारबत्त्यसम्बन्धन कारणत्वं दण्डमयागस्य च स्वनिष्ठसमवायसम्बन्धावन्छिन्नजनकता निरूपितजन्ययविशिष्ट. || व्यापारवच्चसम्बन्धन कारणत्वम् । जनश्च दण्टसंयोगान्वयस्य न दादान्वयघटकदिनत्वन । अत एव दण्डसंयोगे दण्डान्वयबटकार
बोटवान्कमब्यतिरेकप्रतियोगित्तमव्याहतम । नती न दण्डसंयोगे पृथगन्वयन्यतिरकप्रतियोगिभिन्नत्वम । इत्थञ्च विशेषणाभावप्रयुक्त. विशिष्टान्यधासिद्धलक्षणविरहेण न बरं प्रति दण्डसंयोगण्याद्यान्यथामिद्धत्वप्रसड़गः । एतेन दण्डसंयोगस्य स्वजन्मव्यापारसम्बन्धन पटहेतुर्व न स्पादिति प्रन्युक्तमः शब्दाभेदे प्यधभेदन अनन्यवासिद्धत्वस्यीकरीत्याउगायात ।
नन्वत्र प्रथमप्रधपदम्य नदन्चयघटकाटितत्वार्थकत्वं द्वितीयायवादस्य च तदन्वयन्यतिरका:व्यापकत्वार्थकत्वनिन्यननगमेन | गौरवमित्याशङ्कायामाह - वस्तुत इति । पृथगित्यादः संपूर्णस्य प्रथमान्यथासिद्धलक्षणस्य तदन्वयादिभिमान्चयादिमत्त्वार्थकत्वेऽपि = तदन्वयन्यतिरेकभिन्नान्वयन्यतिरकत्वन्नार्थकतानिन क्षतिः = न दण्डरूपादावाद्यान्यथासिद्धलक्षणाच्याप्तिः । निरुक्तरूपेण
6 सकती है . यह फलित होता है।
न , । यहाँ इस हांका का कि -> 'पृधपद को स्वान्वयघटकापदितत्वार्थक मानने पर लो दण्डसंयोग घट का सारण न बन सकेगा, क्योंकि दण्ड घट के प्रति स्वजन्यन्यापारसम्बन्ध से कारण है, पर्व दण्डसंयोग भी स्वजन्यच्यापारसम्बन्ध में दी पट का कारण है मगा स्वजन्पच्यापारसम्बन्ध से दपसंयोग कारण नहीं हो सकेगा, क्योंकि तब दपरान्त्रयघटक से गटन सम्बन्ध से ही दण्डसग में अन्य व्यतिरेक की प्रतियोगिता प्राप्त होने से दण्डसंयोग में दण्डान्वयघटकाटित अन्वयव्यतिरेक के प्रतियोगी का भेद एवं पृथगन्वयन्यनिक प्रतियोगि नण्ड में नियन्त्रित अन्चय-व्यतिरेक की प्रतियोगिता रह जाने म प्रथम अन्यथासिद्ध का लक्षण रह जायगा । नम तो दण्ड सं ठण्डरूप की भाँति रण्डसंयोग को भी घट के प्रति अन्यभासिद्ध मानना पडेगा - समाधान यह है कि स्वत्वटित जन्यता के मंद से सम्बन्ध बदल जाता है । आशय यह है कि स्वबिलक्षणसंशंगसम्बन्ध से दण्ड चक्र में भ्रमणस्वरूप व्यापार को उत्पन्न करता है जब कि दण्डसंशंगविशेष समवायसम्बन्ध से चक्र में रह कर प्रमिस्वरूप व्यापार को उत्पन्न करता है। अत: अमणस्वरूप व्यापार में रहनवाली दण्डजन्यता एवं दण्डसंयोगजन्यता भिन्न बनने की वजह स्वजन्यत्वरिशियन्यापारात्मक सम्बन्ध भी बदल जाता है। मतलर कि एक ही सम्बन्ध से दण्ड एवं हाइसंयोग चक्रममण के जनक नहीं है । अतः जन्यता के भंट से उगम पदित वह सम्बन्ध भिन्न हो जाने से इण्डान्चय के घटक से दण्डसंयोगान्वय घटित बनत नदी है। इसलिए दण्डान्वयघटकटितान्चयव्यतिरेक की प्रतियोगिता दण्डसंयोग में न्ह मकती नहीं है । तब तो दण्डान्वयघटकाऽघटित अन्नय-व्यतिरेक की प्रतियोगिता दण्डसंयोग में रह जाने से पृथगन्नयज्यनिरेकप्रतियोगिभिन्नता दण्डसंयोग में न रहेगी। इस तरह विशेषणश के विरह से प्रयुक्त विशिशाभाव दण्डसंयोग में रह जाने से आद्य अन्यथासिद्ध के लक्षण की दण्डसंयोग में प्रवृनि न हो सकेगी। अतएव अनन्ययासिद्धत्व एवं घटनियनपूर्ववृतित्व दण्डमयोग में अपाधित रहने से दण्डसंयोग में थट के प्रति कारणता निगराध है . यह सिद्ध होता है।
बस्नुतः । मगर वस्तुस्थिति को लक्ष्य में ली जाय तब पृथगित्यादि जो प्रथम अन्यथासिद्ध का लक्षण बनाया गया है उसका अर्थ यही फलित होता है कि इसके कारण के अन्वय-व्यतिरेक से भित्र अन्चय-व्यतिरेक की प्रतियोगिता का आधय आप अन्यथामिद्ध है । दण्डरूप आदि का अन्वर-व्यतिक स्वाश्रयन्यन्यापार सम्बन्ध से है। जब कि दण्ड आदि का अन्वयव्यतिरेक स्वजन्यव्यापारसम्बन्ध में है। मतलब कि दण्डादि एवं दण्टरूप आदि के अन्वय-व्यतिरेक भिन्न है । अतः दण्डात्मक
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* नीलकण्टादिमताप्रकाशनम * दण्डरूयाद्यन्वयस्य दण्डाधज्वयभिन्नत्वात् ।
टोन = पृथगन्वयव्यतिरेकवता यस्य = तद्रहितस्येति यथाश्रुत एव वाच्यम् । साहित्यच पूर्ववृत्तित्वग्रहे विशेष्यतया विशेष्यतावच्छेदकतया वेत्साहः ।
-* जयलता *= दण्डस्य स्वजन्यव्यापारबत्त्वसम्बन्धनान्वयः दण्डरूपस्य च स्वाथयजन्न्यब्यापारसम्बन्धनान्वयः इति प्रोक्तप्रकारेण दण्डपाचन्दयस्य उपलक्षणाद् दण्डपादिव्यतिरेकस्य च दण्डायन्नभिन्नत्वात, उपलक्षगान् दण्डादिन्य तिरेकभिन्नत्वात् न दण्डरू पादावच्याप्तिः ॥
केचित्तु = येन सहव यस्य यं प्रति पूर्वत्तित्वं गृहात नत्र नदाद्यनित्यत्र बेन = पृथगन्वयन्यतिरेकवता यस्य = तद्रहितस्य = गन्वयन्यतिरकर हितस्य इति यथाअन एर वाच्यम् । लक्षणघटकं साहित्यं च दण्डादिना दाण्डरू पादः पूर्वनित्वग्रहे विशेष्यतया विशेष्यतावच्छेदकतया बेनि । 'दण्डमाहित दण्ड रूपं घटपूर्ववर्ती त्याकारक 'दण्डरूपसहितो दण्डो घटपूर्ववृत्तिः' इत्याकारके या कार्यपूर्ववृत्तित्वप्रकारके ज्ञान विशेष्यविधया विशध्यतावच्छन्द्रकधिया वा दण्डरूपे दण्डसाहित्यभानानगर घट प्रत्यन्यथासिद्धत्वमिति भावः । नेन , दण्डत्वादिना दण्डादः न वा दण्डादिना दण्डसंयोगादेरन्यथासिद्धिरिति आहुः
नीलकण्टस्तु येन तन्तुना सहैव यस्य नन्तुरूपस्य यं परं प्रति पुतित्वमवगम्यत पटे प्रति तनन्तुरूप तन तन्तुनार न्यथासिद्धमित्यर्थः । महितत्वमेकज्ञानविषयत्वं चौथ्यम् । तन्तुरूपस्य 'पटपूर्ववृतित्वज्ञाने तिनसतात्तन्तुरूपवनच विषयत्ता वान्या । नथा च तन्तुरूपमन्यथासिद्धमिति। एवं तन्तुत्वस्य पूर्ववृतित्वज्ञानमपि तन्तुधिषयकमबनि नदन्यथासिमिनि भावः । अत्र येनेत्यस्य स्वतन्त्रान्वयव्यतिरेकझालिनेति यस्यत्यस्य च स्वतन्त्रान्वयन्यतिरकशन्यस्येनि विशेषणं बोध्यम् । वेन नन्तोग्नन्यथासिद्धिः ना तन्तुसंयोगस्य नन्तुना न्यथामिद्धिति (ता.सं.नी.प्र.पू.२३१) इत्याह ।
नृसिंहप्रकाशिकाकारस्तु - पेन सह बति यद्धटितधर्मावच्छिन्न पदविच्छिन्न क्षेत्यर्थः । यस्पति यनिमित्यर्थः । ये प्रति पूर्वनियमिति यत्कार्यनियतपूर्वतित्वमिन्यर्थः । यद्धटितन्यत्र यत्पदं प्रकृतकार्यनिरूपितसाक्षा सम्बन्धाघटितान्चययतिरकशालिपरम । एबध लादशान्वयव्यनिरंकशालिटिततद्धर्मावन्छिन्तकार्यानरूपितनियतपर्ववत्तित्वाश्रय तत्कायनिरूपिलान्यचासिद्धवामित्येको । यद्भावच्छिन्नं यनिष्ठयन्निरूपित-पूर्ववृत्तित्वम् । यनिष्ठपत्रिरूपिनियत पूर्वनितावच्छेदको यो धर्म इत्यर्थः । तथा च तत्कार्यनिरूपितनियतपूर्वनिनावच्छेदकत्वं तत्कानिमितान्यासिद्धलमित्यारायः । 'प्रथम द्वितीय च स्वतन्वान्चयव्यतिरेकन्यत्वं विदापर्णायम । नेन घटं प्रति कपालसंयोगस्य कपालघटितकपाटमयागन्यावच्छिन्ननियतपूर्ववृत्तिताश्रयत्वेऽपि कपालस्य तादृशानियतपूर्ववृनितावदकताश्रयत्वेऽपि च कपालसंयोगस्य कपालस्य नान्यधासिद्धवप्रसङ्ग (न.सं.न.म.प्र.२३१) इत्याह ।। घटकारण के अन्चय-व्यतिरक से भित्र अन्चय-व्यतिक की प्रतियोगिता दण्डरूप आदि में होने की वजह घट के प्रति दण्डम्प आदि में अन्यथासिद्धि निरागाध है।
प्रथम ज्यात लक्षण में अज्य मत प केचि, । यहाँ कुछ विद्वानों का यह मन्तव्य है कि 'येन सहए यस्य यं प्रात्त पूर्ववृतित्वं गृहाते तत्र तन आयं अन्यथासिद्धम्' इस लक्षण में 'येन' पद का अर्थ है 'पृथगन्वयव्यतिरकवता' यानी स्वतन्त्र अन्चय-यतिरेकपाले जिस (कारण) से । तथा | 'यस्य' पन का अर्थ है 'नद्रहितस्य' अर्थात् स्वतन्त्र अन्वय-व्यतिरेक सं शून्य जिसका । इस तरह यथाश्रुन लक्षण का ग्रहण करने पर भी कोई दोष नहीं है । नब प्रथम अन्ययासिद्ध का लक्षण इस तरह बनेगा कि स्वतन्त्र अन्वय व्यतिरेकवाले जिस (कारण) के साथ ही स्वतंत्र अन्स्य व्यतिरेकरहित जिस वस्तु में कार्य के प्रति पूर्ववृनिना का भान हो बह पृधगन्वयन्यतिरेकान्य वस्तु उस कार्य के प्रति अन्यथासिद्ध है। जैसे स्वतन्त्र अन्वयन्यतिरेकपाले दण्ड के साथ ही स्वतन्त्रान्वयन्यतिरेकशून्य दण्डरूप की घट के प्रति पूर्वनिता का ज्ञान मुमकिन होने से दण्डरूप घट के प्रति अन्यबासिद्ध है। दण्डसंयोग पृथगन्वयव्यतिरेकान्य नहीं होने की वजह उसमें गण्ड के द्वाग घट के प्रति अन्यथामिद्धन्च की आपनि नहीं आयेगी । यहाँ 'येन सहव' तेसा जो कहा है उसमें सहपदार्थ साहित्य कार्यपूर्ववृत्तित्वप्रकारक ज्ञान में विशेष्यविधया या विशेप्यतावच्छेदकविधया ग्राख है। 'दण्डरूपं दण्डसहित घटपूर्ववर्ती' इस ज्ञान में दण्डरूप का विशष्यरूपण भान होता है । अतः दण्ड के साहित्य का दण्ड के विशेष्यविश्या पाइप में भान होने से पररूप घट के प्रति अन्यथासिद्ध फलिन होता है । अथवा 'दण्डरूपसहितो दण्डो घटपूर्ववर्ती' इस पूर्वनित्यप्रकारक ज्ञान के विशेप्यभूत दाद में साहित्य वा भान होता है एवं विशेप्यतावचंदकविधया दण्डरूप का भान होता है। अतः पूर्ववृत्तिज्ञान के विशेप्यतावच्छेदकविधया दण्दुरूप में साहित्य रहने से दण्डरूप घट के
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१४२ मध्यमव्याद्वादहस्य खण्डः ३ का १९ * मुक्तावली प्रभा विजयादिकृतदर्शनम *
nect रूपत्वादिनी दाडरूपादेः कुतोऽन्यथासिदिति चेत् ? 'पूर्ववृत्तित्वाम'त्यस्याऽन्वयव्यतिरेकित्वमित्यर्थात् । न ह्यतिप्रसक्तेन रूपत्वादिनाऽन्वय-व्यतिरेक: सम्भवतीत्रोके । तच्चिन्त्यमित्यारे -> रूपत्वादिनाऽपि स्वाश्रयेत्यादिसम्बन्धेलान्वयळ्यतिरेकसाभवात् ।।
-* भयतना मुक्तावलीकारस्तु - 'बाय स्वातन्त्र्यण न्यायव्यतिरेको न स्तः किन्तु कारणमादायवान्चयन्यनिरेकी महान तदन्यवासद्धं यथा दण्डरूपमिति' (का, ११. म...२१२) इत्युकावन् । तत्र च प्रभाकार: कारणपदस्य स्वतन्त्रान्चबव्यतिरेकशामिपरतयः तद्भवछिन्ननिरूपितसाक्षात्सम्बन्धावछिन्नान्वयभ्यनिरंकशान्निस्तियविच्छिन्नतत्कायनिरूग्निनियनपूर्वनितश्रयत्वं तत्कानिकपितान्यधासिद्धमिति' ब्याचष्टे । .. ......... .
महादेवस्तु - 'स्वातन्त्र्येण नत्कार्यनिम्तपतान्वयव्यतिकिदान्यत्वं सति तन्कार्यकारणान्दिनस्वनिष्ठतत्कार्यनिरूपिनियतपूर्वनित्वग्रहविशेष्यनाकं यत् तत् नत्कार्य प्रत्यन्यथासिमित्यर्थः। कपालसंयोग घटावोत्यादिपर्ववत्तित्वग्रहनिष्यनायाः कपाल संयोगनिष्ठायाः कपालावच्छिन्नत्वात कंगालसंयाने निव्या निवारणाय सत्यन्तम् । दण्डात्वादिगरणाय विवामिनि' न्यारत्र्यातवान
गदाथरस्तु कारणतावाद ‘काग्मान्तरेण सह यदूपावभिन्नस्य यादहकार्य प्रति पूर्ववर्तित्वमगत नपान्छिन् नाशकार्य प्रत्यन्यथासिद्भम. यथा घटादिकं प्रति दण्ड पत्वाद्यच्छिन्नं दण्डसमवहित चक्रत्वाद्यच्छिन्नञ्च' इति न्यावष्ट ।
ननु अत्र = आधान्यथासिद्भलक्षण रूपत्वादिना दण्डरूपादेः घटं प्रति कृतोऽन्यथासिद्धिः स्यात. विनापि दण्डादिनान रूपत्वादिना दण्डरूपादा घरपूर्ववृत्नित्वादिग्रहसम्मवात इति चंन ? तब वदन्ति - येन गहब यस्य यं प्रति पूर्वनित गृहात | नत्र नदाद्यमिति नक्षगघटकस्य 'पूर्ववृनिवमित्यस्य अन्बपन्यतिरकिन्वमित्यर्थात् अन्वयव्यतिरेकग्रनियांगित्वमित्यादिति यावत् । ततश्च पन सहव यद्पावच्छिन्त्रस्य यं प्रति अन्चयल्यगिकतं गृहाते तत्र तद्रगावच्छिन्नं प्रथममित्यर्थी नभ्यते । दण्डझपादः घटादिकं प्रति दण्डरूपत्यादिना अन्वयल्यतिकिवं ग्राह्यं न तु रूपवन, अतिप्रमतत्यान ! न हानिप्रसन्न रूपत्यादिना दण्डझपादः घटे प्रति अन्यन्यनिरकः सम्भवति। समन्वय घटोत्यादान्वयन्यतिरेकप्रतियोगितावन्दकले नन्नेषु बटीयपीय-दण्डीयम्पादिपु घटकारणत्वकल्पनापन्या गौरवात दण्टुरूपयादिकमेव लविति ग्रहात दण्डरूपत्वना नधाचे दण्ड पत्यावन्निस्य दण्डान्वयव्यतिरेकभिन्नन्वयन्यतिरकारतियोगिन घटे प्रत्यन्पथामिद्धन्यसिद्भया घटकारणत्याज्यात विशेषणाभाक्प्रयुक्तविशिष्टाभावाश्रयत्वादिति एक ।
तचिन्त्यमिति अपर दन्ति- रूपत्यादिनाऽपि दण्डरूपादेः घटे पनि स्वाश्रयेत्यादिसम्बन्धन = म्याश्रयजन्यच्यापारसम्बन्धन प्रनि अन्यथामिद्ध मिद्ध होता है . ऐसा कुछ विद्वानों का कहना है ।
रूपापेन दण्डरूप में कारणता की शंकाएपरिहार नन्वत्र, । यहाँ इस शंका का कि → "यदि 'येन सहर यस्य पूर्ववृत्तिच...' म रूप में आय अन्ययामिद्ध का लक्षण बनाया जाय तर तो रूपचन दण्डरूप में घट कारणता की आपत्ति आयगी, क्योंकि इण्टरूप का दण्डम्पयन भान करना हो नभी दण्ड के साथ ही दण्डरूप का ज्ञान हो सकता है । मगर रूपत्वेन दण्डरूप का भान करना हो तब दण्ड के साथ ही उसका भान हो . यह नियम नहीं हो सकता, क्योंकि दण्ट का उसमें प्रवा ही नहीं होता है । नब ना रिना दण्ड के रूपवन दंडरूप में घटपूर्वनिता का भान हो जाने से रूपत्वेन दण्डरूप घट के प्रति अन्यथासिद्ध नहीं बन सकेगा" <-समाधान यह है कि प्रथम अन्यथासिद्ध के लक्षण में जो पूर्ववृनित्वपद है उसका अर्थ है कार्योत्पादान्वयन्यतिरेकप्रतियोगित्व। अर्थात् जिस धर्म से जिसमें कार्योत्पाद के अन्वय पर्व व्यतिरंक की प्रतियोगिता । तब लक्षण यह प्राप्त होगा कि जिस कारण के साथ ही जिस धर्म से जिसमें कार्य की उत्पत्ति के अन्यय-व्यतिरेक की प्रतियोगिता का भान हो यह उस कार्य के प्रति अन्यभासिद्ध है। दण्डरूप में घटोत्पाद के अन्य-न्यतिरक की प्रतियोगिता का भान रूपवन नहीं किन्तु दण्डरूपत्वेन हो होता है, क्योंकि रूपन्य तो दण्डप को छोड़ कर घटरूप. पटरूप आदि में भी रहता है, जिसमें घट के अन्वय-व्यतिरेक निरूपित प्रतियोगिता किसीका मान्य नहीं है। अन्वय-व्यनिग्कानियोगिनापच्छेदक धर्म नो अन्चय-न्यनिक निरूपिन प्रतियोगिना मे अतिरिक्तवृत्ति नहीं होना चाहिए । इमलिए दण्डपल्पन ही दण्डरूप में नाइश अन्वय-व्यतिरेक की प्रतियोगिता का भान मानना होगा । मगर तब तो टण्ड का भी अवश्य भान हो जायेगा, क्योंकि दादरूपन्न का शानिक घटक दण्ड है और घटक के भान के बिना घटित का भान कभी भी नहीं होता है । इमलिए रूपत्वेन दारूप में घट के प्रति अनन्यधासिद्धन्व की आपत्ति का अवकाश नहीं है . ऐसा कछ विद्वानों का कथन है।
नि । मगर यह कथन विचारणीय है, न कि चिना विचार के स्वीकार्य है - एसी अपर मनीपियों की गय है।
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*अनिप्रसकधर्मणाप कारण बाधविचार: किन्तु 'अन्या क्लुप्ते'त्यादिनैव तेन रूपेणान्यधासिन्दिः । नि:कृष्टे तत्रैव तत्सम्बाधापेक्षया लाघवकृतावश्यकत्वस्याऽप्रवेशेऽपि कारणाल्पत्वकृतलाघवस्य प्रवेशात् ।
-* जयललता *अन्वयव्यतिरेकसम्भवात = अन्ययव्यतिरकप्रतियागित्वभानसम्भवान्, अन्यथा प्रथम, जलवे स्नेहममवायिकारणनावच्छेदकता गृहीत्वा जन्यजलसे जन्यम्नेहत्वावन्छिन्त्रसमवायिकारणतावच्छेदकत्वप्रतिपादनमपि दिलाध्येत । इत्थं प्रथमं कदाचिदानप्रसक्तर्मणाःपि कारणत्वग्रहस्यानपलपनीयत्वात् 'पूर्ववृत्तिन्वपदस्यान्चपनिरकप्रतियोगित्वार्थकस्वरवीकारऽपि न रूपन्न दण्डरूपादौ घटकारणत्ववारणसम्भवः किन्तु 'अन्यत्र क्लृप्त 'त्याटिनेव तृतीयाचासिद्धलक्षणेन तेन रूपेण = रूपत्वेन दरदरूपांडः घट पनि अन्यथा. सिद्धिः । दारं चिनव रूपत्वम दण्डरूपादः वरं प्रनि अन्ययव्यतिरकनियांगित्वग्रहण प्रथमान्यथासिद्धलक्षणानाक्रान्नन्वपि अन्यत्र कलप्तनियतपूर्ववर्तिनः दण्डादेव घटलक्षणकार्यसम्भवे तत्सहभूतत्वेन दण्डरूपादस्तनीयान्यधासिद्धत्वाकान्तलेन घटकारणत्या - नापातात, अनन्यवासिद्धत्वलक्षगचिरहप्रयुक्तानन्यथासिद्धत्वविशिनियनपूर्ववृत्तित्वप्रतियागिकाभावाश्रयत्वान् ।
ननु वक्ष्यमाणतृतीयान्यथासिद्धलक्षण निष्क सम्बन्धर्मिनलावयकृतावस्यकत्वस्य न प्रवेशा येन दण्डरूपस्य स्वाश्रयजन्य - व्यापारसम्बन्धनान्वयव्यतिरकप्रतियागिन्यान स्वजन्यन्यापारसम्बन्धापछिकान्ववन्यतिरकप्रतियोगिदण्डापक्षया नावश्यकत्वं स्यादिति न घटं प्रति रूपत्वेन दण्डरूपस्य तृतीयान्यथासिद्धलक्षणाक्रान्तत्यम । नापि प्रदर्शितरीत्या प्रथमान्यथासिद्धलक्षण क्रान्तत्वम् । नापि वक्ष्यमाद्वितीयाग्रन्पधासिद्धिलक्षणकलितत्वम् । ततश्च घरं प्रनि रूपवन दण्डरूपस्या-नन्यथासिद्धत्वमपरिहार्यम्, विशेषाभावकटस्य सामान्याभावस वक्त्यादिमाशड़कायां नैयायिका व्याचक्षत- निःकृष्टे - पर्यवसिते तत्रैव = तृतीयान्यधासिद्धलक्षण पव. तत्सम्बन्धापेक्षया लाघवकृतावश्यकत्वस्य = तत्सम्बन्धकृतलाययप्रयुक्तापदयकत्वस्य अप्रवेशाप = अघटकल्यःपि कारणाल्पत्वकृतलाघवस्य प्रवेशात = यक्ष्यमागतृतीया पथसिद्धलक्षणघटकत्वात् वदं प्रति पल्मन दारू पम्य कारणले ददायघटीय-पीयादिम्गेषु घटकारणचकल्पनापत्त्या करणवाइल्येन म.पत्वेनानावत्यकल्लान्नायान्वयामिगत्वमेर घटं प्रति रूपवन मपेण दण्डकपस्य । न च रूपत्वन कारणवकल्पन कार पाहल्या पन्या दरम्पत्वेनैव दादरूपम्य पटं प्रनि कारणल्वमस्त्विति
उनका यह कथन है कि , रूपन्च भले ही दण्डरूप को छोड़कर घटरूप, पटरूप आदि में भी रहने से अतिप्रमक हो मगर यह कोई नियम नहीं है कि अतिरिक्तवृनि धर्म स कारणता अवच्छिन्न नहीं ही होती है । अतिप्रसक धर्म से भी कदाचित कारणता का स्वीकार तो जलबजाति में स्नहसमवापिकारणतावदकत्व के प्रथम भान को मान्य करनेवाले नयायिकों ने किय ही है । तब तो पूर्ववृत्तिवपद का कार्योत्दान्वयतिरेकप्रतियोगिल अथं करने पर भी रूपत्वेन दण्डरूप में घर के प्रति कारणतः की आपत्ति का निवारण नहीं किया जा सकता, क्योंकि दण्ड के साथ ही दण्डरूप में पटपूर्ववृनिता = घटोत्पादान्वयव्यनि
प्रतियोगिता का भान हो - यह असिद्ध है । तब ना घट के प्रति टपररूप में अनन्यथासिद्धत्व का निवारण प्रथम अन्वयासिद्ध के लक्षण से कैसे हो सकेगा ? फिन्त विचार करने पर यहाँ यही मानना संगन प्रतीत होता है कि दण्डरूप में भले ही प्रथम अन्यथामिद का लक्षण न रहता हो मगर 'अन्यत्र कलम...' इत्यादि वक्ष्यमाण तृतीय अन्यथासिद्ध का लक्षण म्ह जाने में दण्टरूप में बद के प्रति अन्ययासिद्धि निगवाथ है। अवध्ययलप्त नियन पूर्ववनी दण्ड से ही घट = कार्य की उत्पनि मुकिन हाने से तत्सहभ्न दररूप तृतीय अन्यशगिद्ध बनता है। इसलिए नपरूप में तृतीय अन्यथासिद्ध के लक्षण से ही घटकारणत का निराकरण किया जा सकता है, न कि प्रथम अन्यधासिद्ध के रक्षण में . यह फलित होता है।
नि:कर । पदि यहाँ यह शंका हो कि - 'घद के प्रति रूपवन दण्डरूप में कारणता का वारण तृतीय अन्नधामिद के लक्षण से करना संगत नहीं है, क्योंकि परिष्कृत तृतीयान्यधासिद्धलक्षण में सम्बन्ध की अपेक्षा लाघस्कृत आवश्यकता का निवेश नहीं किया गया है । इसलिए दण्डरूप को स्वाश्रयजन्यन्यापारसम्बन्ध से घटावी मानन की अपेक्षा इण्ट को स्वजन्यन्यापारसम्बन्ध में घटपूर्ववर्ती मानना जावश्यक होने में दण्डकप अनावश्यक है, ऐसा नहीं कहा जा सकता । अतः रूपत्वेन दण्डप में अनन्यभागिद्धव की आपति वा परिहार नहीं हो सकना' - नां यह ठीक नहीं है, क्योंचि तुतीय अन्यबासिद्ध के लक्षण में सम्पन्न की अपेक्षा लापवत आवश्यकन्व का भल निपंश न हो नगर कारणाल्पत्वलाधवकृत आवश्यकत का तो निनश किया गया ही है। रूपत्वेन दण्डरूप में घटकानणना का स्वीकार करने पर दण्डरूष की भांनि घटरूप, पटरूप, पवरूप आदि में भी घटकापणना को मान्य करना पड़ेगा. जिसकी वजह कारणाहुल्यप्रसन होना है। इसकी अपेक्षा दण्ड का ही कारण मानन में कारणामलापक्रन आवश्यकल दण्ट में रहता है । अनः रूपलेन टण्डरूप में अनावश्यकता सिद्ध
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८४४ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड ३ का ४१ * परिष्कृतप्रधमान्यथासिद्धलक्षणम्
अत्र कदाचिद् दण्डेन सहाऽपि चक्रादेः पूर्ववृतित्वग्रहसम्भवादन्यथासिद्ध्यापत्तेः 'येन सहवे 'त्यत्रैवकारः । तथा च तज्ज्ञानव्यतिरेकप्रयुक्तव्यतिरेकप्रतियोगिग्रहविषयपूर्व वृत्तित्वकत्वमर्थः । अतो नेश्वरज्ञानमादायाऽतिप्रसङ्गः । यथोक्तविवक्षायां तु नायमादेयः । ॐ गयलता के
वक्तव्यम्, तथा सति प्रथमान्यथासिद्धलक्षणाक्रान्तत्वस्य पूर्वमेवोक्तत्वात् । इत्थञ्च दण्डरूपस्य रूपत्वेन तथात्वें तृतीयान्यथासिद्धत्वं दण्डरूपत्वेन तथात्वे चाद्यान्यधासिद्ध प्रकारान्तरस्य त्वसम्भव इति न घटं प्रति दण्डरूपस्य कारणत्वापत्तिः, विशेषणाभावप्रयुक्तविशिष्टाभावादिति निगूढो नैयायिकाशयः ।
ननु प्रथमान्यश्रासिद्धलक्षणे एवकाराऽनिवेशेऽपि निरुक्तरीत्या दण्डरूपस्यान्यथासिद्धत्वोपपत्तेः व्यर्थः निवेश इत्याशङ्कायां गौतमीया आहुः - अत्र = प्रथमान्यधासिद्धलक्षणे कदाचित् दण्डेन सहाऽपि चक्रादः पूर्ववृत्तित्वग्रहसम्भवात् = घटोत्पादपूर्ववृत्तित्वभानसम्भवात्, बदं प्रति चक्रादेः अन्यथासिद्ध्यापत्तेः = प्रथमान्यधासिद्धलक्षणराहुविलोकितत्वप्रसङ्गात् 'येन सदैव' इत्यत्र एवकारः निवेशितः । न हि दण्डसहितं चक्रादि चटनियतपूर्ववर्ति' इति ज्ञानस्यापलापः कर्तुं शक्यते । ततश्चाबकारनिवेश आवश्यक इति फलितम् । ततो निष्कर्ष मावेदयन्ति तथा म तज्ज्ञानव्यतिरेकप्रयुक्तव्यतिरेकप्रतियोगिग्रहविषयपूर्ववृतित्वकत्वं प्रथमान्यथासिद्धलक्षणस्य अर्थः । तद्विपवकस्य ज्ञानस्य व्यतिरेकेण अभावेन प्रयुक्तो यो व्यतिरेकः कार्यत्यन्यव्यवहितपूर्ववृत्तित्वं यस्मिन स
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पूर्ववृत्तित्वविषयकज्ञानाभावः तस्य प्रतियोगिनी ज्ञानस्य विषयः पूर्ववृत्तित्वं तथा तद्भावः तत्त्वम् । तत्पदेन कारणस्य सत्पदेन चान्यथासिद्धस्योपादानं कार्यम् । तथाहि दण्डज्ञानाभावप्रयुक्ती यो घटत्पाद पूर्ववृत्तित्वविषयकज्ञानाभावः तत्प्रतियोगिज्ञानविषयीभूतं घटपूर्ववृत्तित्वं यस्मिन् स इण्डरूपादिस्तथा । तद्भावस्तत्त्वं च दण्डरूप एव । न हि दण्डज्ञानं विना दण्डरूपे घटपूर्ववृतित्वज्ञानं सम्भवति । दण्डज्ञानं विनाऽपि चक्रादीघटोत्पादपूर्ववृत्तित्वग्रहसम्भवात्तस्य न दण्डज्ञानव्यतिरेकप्रयुक्ताभावप्रतियां गिज्ञानविषयघटीत्यादपूर्ववृनित्वकत्वमिति नान्यथासिद्धत्वं घरं प्रतीति ध्येयम् ।
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एतेन युत्पन्नस्य ईश्वरज्ञानेन सहैव दण्डादेः वयं प्रति पूर्वनित्वं गृह्यत इति घटं प्रति दण्डादेरन्यथासिद्धत्वापत्तिरिति प्रत्युक्तम् इत्याशयेनाहुः अतो नेश्वरज्ञानमादाय दण्डादी प्रथमन्यथासिद्धलक्षणस्य अतिप्रसङ्गः ईशज्ञानस्य नित्यत्वेन तद्व्यतिरेकस्यैवाऽसम्भवेन महेश्वरज्ञानव्यतिरेकप्रयुक्ताभावप्रतियोगिज्ञानविषयत्वकत्वस्यैव दण्डादावसम्भवात् ।
यथोक्तविवक्षायां = तदन्वयव्यतिरेकभिन्नान्वयव्यतिरेकप्रतियोगिनिष्ठपूववृत्विकत्वविवक्षायां तु न अयं एवकार: प्रथमान्वधासिद्धलक्षण आदेयः प्रयोजनविरहात् ग्रंथोकेनैव दीपवारणसम्भवात् ।
हो जाने से तृतीय अन्यथासिद्ध के लक्षण की प्रवृत्ति निराबाध है। यदि दण्डरूपत्वेन रूप को घटकारण माना जाय तब तो पूर्वोक्त रीति के अनुसार प्रथम अन्यधामिद्ध के लक्षण की प्रवृत्ति होगी । इसलिए इण्डरूप में घटकारणता के स्वीकार की आपत्ति को कोई अवकाश नहीं है ।
शत्र । यहाँ इस बात को भी ध्यान में रखना जरूरी है कि प्रथम अन्यथासिद्ध के लक्षr में यदि कार का प्रवेश न किया जाय तब तो येन सह यस्य यं प्रति पूर्ववृत्तित्वं गृह्यते नत्र तत् आर्य अन्यथासिद्धं ऐसा लक्षण प्राप्त होने से कदाचित चक्र आदि भी घट के प्रति अन्यधासिद्ध बन जायेंगे, क्योंकि कभी दण्ड के साथ चक्र आदि में भी घटोत्पादपूर्ववनिता का ज्ञान मुमकिन है | अतः तन्निवारणार्थ एवकार का ग्रहण किया गया है कि 'पेन सहव' इत्यादि । चक्र में घटोत्पादपूर्ववृत्तिला का ज्ञान उपद्र के साथ ही हो, दण्ड के बिना न हो ऐसा नहीं होने से दण्ड में चक्र आदि में अन्यथासिद्धत्व की आपत्ति निरवकाश है । मतलब कि इस तरह प्रथम अन्यथासिद्ध का लक्षण यह पर्यवसित होता है कि जिसके ज्ञान के व्यतिरेक = अभाव से प्रयुक्त ऐसे अमुकपदार्थविपयकज्ञानाभाव = व्यतिरेक के प्रतियोगी ज्ञान के विषय अमुक पदार्थ में कार्य पूर्ववृतित्व होना । जैसे दण्डज्ञान के अभाव से प्रयुक्त दण्डरूपविपयकज्ञानाभाव के प्रतियोगी दण्डरूपविषयक ज्ञान के विषय दण्डरूप में घटपूर्ववृत्तिता रहने से दण्डरूप घट के प्रति अन्यथासिद्ध है। मगर चक्र में घटोत्पादपूर्ववृत्तिता का ज्ञान दण्डज्ञान के विग्ड में नहीं होना है - ऐसा नहीं है। मतलब कि दण्डज्ञानाभावप्रयुक्त अभाव के प्रतियोगी ज्ञाने का विषय चक्रनिष्ट घटपूर्ववृत्तिता नहीं होने से घट के प्रति चक्र को अन्यथासिद्ध नहीं कहा जा सकता । इसीलिए यहाँ इस शंका का भी कि 'ईश्वर के ज्ञान के बिना व्युत्पन्न पुरुष को दण्डादि में घटपूर्ववृतिता का भान नहीं होता है. क्योंकि ईश्वर का निन्य ज्ञान कार्यमात्र के प्रति कारण है । अतः ईश्वरज्ञान को लेकर दण्ड आदि भी घट के प्रति अन्यथासिद्ध बन जायेगा < निराकरण हो जाता है, क्योंकि ईश्वरज्ञान नित्य होने से उसका व्यतिरेक ही व्युत्पत्र को नामुमकिन है । तब दण्ड में घटपूर्ववृत्तित्व के
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*रामरूदमतप्रकाशन अन्यं प्रति पूर्ववृत्तित्वे ज्ञात एव यं प्रति यस्य पूर्ववृत्तित्वं गृह्यते तत्र तद हिलीयम्,
-* जयलाता * - रामद्रस्त 'कारणान्नराऽघटितसम्बन्धन नियतान्चयन्यतिरेकान्यत्वे अनि येन मह पूर्वनावः तदन्यथासद्भूम । दण्डरूपव्याप्तिवारणाय सत्पन्नम् । सत्यन्तमानौती चक्षपा-पि वाक्षणं प्रनि अन्यथासिद्धिः स्यात, तातियोगिकर्मयोगस्य चाक्षषं प्रति कारणत्वन तताम्बन्धनैव चक्षुषः कारणत्वात् । अनः विशेष्यदलमिति (न.सं.रा.प्र.२३३) व्याचले ।
इतरान्वयन्यनिरंकशालि यत्तदन्यथासिमिनि त परे । स्वेतरान्चयन्यतिरेकप्रयुकान्वयव्यतिरेकशालि यननन्यथासिद्धमित्यपि कश्चित् ।।
तत्कार्यकारणाघटितसम्बन्धावचिदन्ननियतपूर्वनिताइन्यत्व सनि नियतपूर्ववृत्तित्वमन्यथासिद्धत्वन् । घटं प्रत्यनियतपदार्धाना कारणताघटकशिपोनर रलवान सरणान्चालित रूपपरिचापकधर्मवत्वमावश्यकमती नियनपूर्वदनिवनिवेश इत्यपरे ।
____ अवसरसङ्गनिकलितं द्वितीयान्यथा सिद्धलक्षगमायदयात - अन्यं प्रति पूर्ववृत्तित्व = प्रकृतकायनिरिक्त कार्यनिरूपिनवृत्तित्व, अन्यपदस्य प्रकृतकाभिन्नकार्यपरत्वात् । ज्ञात एव = ज्ञानविपर्य सत्येच, नाशपूर्ववृतित्वज्ञानानन्तरमेवनि यावत । यं पनि यस्य पूर्ववृत्तित्वं गृह्यने = यनिरूपितयनिष्ठभूमि छानविषयतादित्यर्थः, तादापूनित्यज्ञानं भवतीति यावत् । तथा चान्यपूर्ववृतित्वज्ञानस्य प्रकृत-कार्यपूर्ववृत्तित्वज्ञानहेनुत्वलाभानु तादृशकार्यकारणभावबालादन्यपूर्वनित्वम्य प्रकृतववृत्तितावच्छेदकल्लसिद्धिः । एवञ्च प्रकृतकार्यातिरिक्तकार्यनिरूपितनियतपूर्ववृत्तिवर्घाटनधर्मावच्छिन्नप्रकृतकार्यनिरूपिननियतपूर्वनिताश्रयत्वं प्रकृतकार्य
सिद्धत्वमिति फलितमिति भावः । एतादशान्यथासिद्धमदाहरति - यथा घटादावाकाशमिति । दमन्दं प्रति पूर्व वृनिले ज्ञाते एव यदादिकं प्रति गगनस्य पूर्वनिग्रहान तत्र घटादी आकाशस्य द्वितीयान्यभागिद्धत्वम् । अयमाायं. बिना काशत्वज्ञानादाकाशं घटपूर्ववृत्तीतिज्ञानासम्भवादाकाशत्वस्य घटादिपूर्ववृत्तितावच्छेदकल्वसिदिनुभवबलादायाता । आकाशत्वञ्च न जातिः, न्यक्करभेदात्, स्वाश्रयनिष्ठरवाश्रय प्रतियोगिक भेदाभावादिति यावत् । किन्तु शन्दसम्बायिकारणत्वं हि तंत् । तच्च शब्दपूर्ववृत्तित्वटितमिनि शब्दसमवायिकारणत्वस्वरूपाकाहात्वेनाकावास्य घटपूर्ववृत्तित्वग्रहादाकाशस्य प्रकृनघटादिस्वरूपकार्यभिन्नशब्दस्वरूपकार्यपूर्ववृत्तित्वघटितशब्दसमवायिकारणत्वरूपानात्वावच्छिन्नघटादिरूपकार्यनिरूपितनियतपूर्ववृत्तिताश्यत्वरूप द्वितीयान्यज्ञान का अभाव ईश्वरज्ञानाभावप्रयुक्त कैसे हो सकेगा ? कथमपि नहीं । इसलिए ईश्वरज्ञानविरहप्रयुक्त अभाव के प्रतियोगी ज्ञान के विषय दण्डनिष्ठ थटपूर्ववृत्तिता ही नामुमकिन होने से टएर में ईश्वरज्ञान को ले कर अन्यथासिद्धत्व को आपत्ति आ सकती नहीं है। यदि पूर्वोक्त 'यदन्वय व्यतिरेकभिन्नान्वयव्यतिरेक की प्रतियोगिता के आश्रय में कार्यपूर्ववृत्तित्व का ज्ञान होना' एसी विवक्षा में प्रथम अन्यधासिद्ध के लक्षण की प्ररूपणा की जय नर इस लक्षण के शरीर में पत्रकार के निवेश की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि तब बिना एवकर प्रयोग के भी किसी दोप की संभावना नहीं रहती है । इस तरह प्रथम अन्यथासिद्ध के लक्षण का निरूपण पूर्ण हः ।
दितीय अन्यथासिल गग प्रतिपादन अन्य । अब कारणशरीर के घटक अन्यथासिद्ध के द्वितीयभेद का प्रकरणकार नैयायिकमतानुसार निरूपण कर रहे हैं। किसी अन्य कार्य के प्रति जिसके पूर्ववृत्तित्व (=कारणची का ज्ञान करने के पश्चात् दी जिस कार्य के प्रति उसके पूर्ववृतित्व (=कारणत्व) का ग्रहण किया जाता है वह उस कार्य के प्रति अन्यथासिद्ध होता है जैसे घर के प्रति आकाश आकाया नित्य एवं व्यापक है । अतः वह कार्यमात्र के प्रति नियत पूर्ववृत्ति है। एवं घट के प्रति भी निपनपूर्ववृत्तित्वरूप कारणत्व आकाश में मिट्ट ही है। परन्तु घट के प्रति आकाश को आकाशवेन रूपेण कारण मानना होगा। मगर आकारात्व क्या वस्तु है ? यह पूछने पर कहना होगा कि शब्दसमवापिकारणत्व । इसका कारण यह है कि शन्द जन्यगुण होने की बजह द्रव्यहेतुक ही होगा। यहाँ यह नहीं कहा जा सकता कि -> 'शब्द भले ही जन्यगुण ही मगर द्रव्यहतुक न हो तो क्या बिगड़ा !' <- क्योंकि जन्यणमात्र के प्रति द्रव्य समवायिकारण होता है । यदि गन्द में जन्यगुणत्व के होते हुए भी द्रव्यसमनायिकारणकत्व को न माना जाय तब नो जन्यगण एवं द्रव्य के बीच प्रसिद्ध उपर्युक्त कार्य-कारणभाव का भंग हो जायेगा । इस विपक्षबाधक तर्क की सहायता से एवं शब्द के प्रति घटादि में निवतपूर्ववृतिता न होने से आकाश में ही शब्दसमवायिकारणत्व की सिद्धि होगी । शब्दसमरापिकारणत्वरूप आकाशत्व धर्म से आकाश को घटपूर्ववर्ती मानने पर
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१४६ मध्यमस्याद्वादहस्य स्वण्टः : का..१ * नृसिंहमताऽवेदनम *
यथा घटादावाकाशम् । तस्य 'शब्दो द्रव्यहेतुको गुणत्वादि'त्यनुमानात्कार्यकारणभावलक्षणानुकूलतर्कसधीचीनासिध्यत: शब्दपूर्ववृत्तित्वं गृहीत्वैव घटादिपूर्ववृत्तित्वग्रहात् । शब्दस्य 'घटान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वास पूर्वान्यथासिन्दयन्त वशका । संयोगादौ तु द्रव्यत्वेन
-* जयलता - थागिद्धत्वमिति तर्कसङ्ग्रह नृसिंहीयकार: (त.सं..) :
अथ शब्दा द्रव्याश्रिती गुणल्यादेत्यनुमानालन्दाश्रयत्वेनापस्थित आकाशे विनाणि शब्दपूर्वनित्गृहं घनादिपूर्ववृतित्वग्रहसम्भव इति चेन् ? नैवम् गुणस्य साश्रयकत्व व्याप्ती विपक्षबाधकतांगावस्य पूर्वमुक्तत्वाद. शन्नो द्रन्यहतको जन्मगुणत्वादिल्या. || अनुमानादव कार्यकारणभावभड्गप्रसालणविपक्षबाधकतकंप्रयुक्तात्तत्मिद्भरित्याशयनाह - तस्य = आकादाय ‘शनो द्रव्यहेतुक गुणत्वात् - जन्यगणत्वान' इत्यनुमानात् कार्यकारणभावलक्षणानुहलतर्कसधीचीनात सिध्यतः = स्वात्मलाभं लभतः शब्दपूर्ववृत्तित्वं गृहीत्वैव = विज्ञायैव घटादिपूर्ववृत्तित्वग्रहान् । यदि शब्द जन्यगुणत्व सत्यपि द्रव्यहतुकात्वं न स्यात्स्यादेव | तहि जन्यगुण-द्रव्ययाः कार्यकारणभावभङ्ग इति विपक्षबाधकतर्कसहकारगांतानुमानाल्क्लुप्तपृथिव्याटिद्रव्यग्रनियागिकान्यवन्यनिरे -
काननुविधायिनि शब्द आकाशसमवायिकारणकत्वसिद्धिः । ततः कन्दसमवायिकारणवनवाकाशस्य घटादिपूर्ववृनित्वग्रहादन्यथासिद्धत्वं घटादिनिरूपिनमनणग्रपन । .. . . . ... ___कश्चित्तु - ‘शब्दा द्रन्यजन्या जन्यगुणत्वादित्यनुमित्यात्मक-कार्यकारणभावग्रहरूपानुकूलतसहकृतेनैव गन्दो इळ्याश्रिता गुणन्वादि'त्यनुमानन शब्दाश्रयत्वं गगने गृहीत्वा तेन रूपेण घदपूर्ववृनित्वं ग्राह्यम् । तथा च सन्दपूर्ववृतित्वं गृहीत्वैव गगनस्य वटपूर्ववृत्निवग्रहाद् बनिरूपिनान्यथासिदत्वमनपाय नि व्याचष्टे ।
पतन सदाश्रयत्वनान्यथासिद्धत्वमानवति किमनन द्वितीयान्यवासिनिर्वचनंतति प्रत्युक्तम् इन्दस्य घटादिकं प्रनि पृधगन्धपतिरकनिगगित्वशून्यतया तेन प्राक्तनान्यथासिद्धयंचत्वादिन्यादायेनाह . शब्दस्य = शब्दत्वावच्छिन्नस्य घटान्वयन्यनिरकाननुविधायित्वात्र पूर्वान्यधासिद्धयन्तर्भावशङ्का ।
न च घटाकाशसंशंग-विभागादाबाकाशस्यान्पधा सिद्धवप्रसङ्गा दुर्वारः; शब्दसमवाधिकारगत्वनराकास्य घटाकाशगंयोग - विभागादिकं प्रति वृत्तित्वग्रह शब्दपूर्वानत्वटितधर्मावचित्रकारणांनिरूपितघटाकाशसंगंगादिनिष्ठकार्यताश्रयनिरूपितनियत - पूर्ववृत्तित्वाश्रयत्यादिति वाच्यम्, संयोगादी = घटाकाशसंयोग-विभागादिकं प्रति तु गगनस्य द्रव्यत्वेन पूर्ववृजित्वग्रहसम्भरात् । . 'शाद के प्रति आकावा पूर्ववर्ती = कारण है . यह ज्ञान हो ही जाता है । इस रीति में आकाश में वाद के प्रति पूर्वनिता = कारणता का निश्चय कर के ही घटादि कार्य के प्रति उसमें पूर्ववृत्तिता = कारणना का हम निश्रय कर पाते हैं। ऐसी स्थिति में शब्द के प्रति ही आकाश को कारण माना जाता है और घटादि के प्रति उसे अन्यथासिद्ध ही कहा जाता है।
शब्दस्य. । यहाँ इम शंका का कि -> 'दाद के प्रति पुनिता का घट के साथ ही आकाश में ज्ञान होने से 'येन सहव...' इत्यादि प्रधम अन्यथामिद्ध के लक्षण की आकाश में प्रवृत्ति होने की वजह आकाश का अन्नभाव आद्य अन्यथासिद्ध में हो जायेगा' - समाधान यह है कि शब्द के प्रति घट नियत पूर्नवृत्ति नहीं होने से शब्द पद के अन्वय न्यनिक का अनुसरण करता नहीं है तब घट का ज्ञान कर के ही आकाश में शन्द के प्रनि पुर्ववृनिता के भान का प्रामाणिक नियम कैसे बनाया जा सकता है? इससे सिद्ध होता है कि प्रथम अन्यथासिद्ध के लक्षण की आकाश में प्रवृत्ति नहीं होती है। तदर्थ द्वितीय अन्यधामिद्ध का स्वीकार आवश्यक बन जाता है। अतः आकाश का प्रथम अन्यथासिद्ध में अन्नांव अप्रामाणिक है , यह निश्विन होना है।
गंयांगादा. । यहाँ यह शंका करना भी कि. -> 'आकाश वान्द का कारण होने की वजह शब्दहतुत्वेन रूपेण ही आकाश की घट के प्रति पूर्ववृत्ति माना जाय तब हो जैसे आकाश पद के प्रति अन्यधासिद्ध है दीक वैसे ही मंयोग, विभाग आदि के प्रति भी आकाश अन्यथासिद्ध हो जायेगा, कोकि घटाकाशमयोग आदि के प्रति भी आकाश को दहेनुत्यस्वरूप आकाशव धर्म से ही कारण मानना होगा, जिससे आकार में शब्द के प्रति पूर्वनिना = कारणता का भान कर के ही बटाकाशगंयांग आदि के प्रति पूर्ववृत्तिना = कारणना का भान सिद्ध होता है - नामुनासिब है, क्योंकि बदाकारासंयोग आदि के प्रति ना आकाश द्रव्यवन रूपेण पूर्ववृनि बन सकता है । यह जरूरी नहीं है कि आकाश को गदहेतुत्वेन डी घटाकाशसंपांग आदि के प्रति पूर्वनि माना जाय । नब तो शब्द के प्रति पूर्ववृत्तिता का भान किये बिना भी आकाश
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* गदायरमनप्रकाशनम * पूर्ववृत्तित्वग्रहसम्भवाझाल्यथासिन्दिः ।
अप्रेद चितत्यम् → शब्दपूर्ववृतित्वग्रहं विनाऽपि (शब्दादेः) आकाशस्य घटादिपूर्ववृत्तित्वग्रहःसाभवी, अष्टद्रव्याऽन्यद्रव्यत्वादिनाऽप्याऽऽकाशपदशतिग्रहसम्मवात् । कथमन्यथा राम शब्दसमवारिकारणताग्रहः ?
नयलता न हि शन्दममयायिकारणत्वेनवाकादास्य संयोगादिपूर्ववनिनग्रहमा धक किश्चिदस्तीति गगनस्य संयोगादी नान्यथामिद्धिः = न द्वितीयान्यथासिद्धत्वप्रमङ्गः । अन गवाधारबन कालदिशः कार्यसामान्यहेतुत्वं निणत्युहम. बिनापि कालिकददिकापरत्वादिपूर्वचर्तिलग्रहमाधारत्वेन कालिकंदशिकपरत्वापरत्वादी पूर्व जिल्वग्रहसम्भवात । न चैवं विभुत्वनाकारास्यापि कार्यसामान्यहतलं स्यादिति बान्यम, आन्मयन्यापकबिभत्वनान्यधसिद्धल्याटिति दिक ।
गदाधरस्तु कारणतावादे - 'अन्य प्रति पूर्ववर्नित्वं ज्ञात न यदगावच्छिन्नस्य प्रकृतकार्य प्रति पूर्ववर्तिताग्रहातपावच्छिन्नं नतकार्य प्रत्यन्यधामिद्धम, यथा ज्ञानादिकं प्रत्याकाशत्गच्छिन्नम् । तत्र हि झान्दादिसमवाचिकारणतयाऽकाशादिसिद्धाय सम्य ज्ञानादिगाननिय गहीनामिति नत्र मान्दादिपूर्ववर्तिनाग्रहांपेक्षा । यथा वः धादिकं प्रति कुलालपितृत्वावच्छिन्नं, कुत्रालपितृत्वादेः कलालादिपूर्ववर्निनाघटितवानदन्छिन्नस्य पदादिपूर्वक निवग्रह कुलालादिपूर्ववर्तित्वग्रहस्यागतवान् । अपूर्यादिगुर्ववर्तित्वमगृहीत्वापिसागत्वावधि स्वादिपूर्ववर्तित्वग्रहसम्भवादपूर्यद्वारा न यागत्वाद्यबचित्ररय स्वादिकार्य प्रन्यन्यामिद्धत्वम् । एतादृशस्थान १५ च्या पारेण व्यापारिणा नान्यथासिद्धिः । कुलालादिपितृत्वाद्यवन्छिन्नस्य कुलालादिल्यापारकत्वनम्भोऽपि अन्यथामिदिरव' (वा.वा.का.बा. पृ.२०) इत्युक्तवान् ।।
अत्रेदं चिन्न्यम् - शब्दपूर्ववृत्तित्वग्रहं बिनापि आकाशस्य घटादिपूर्ववृन्नित्वग्रहः सम्भवी । अत्र भूलादर्श 'विनापी त्यनन्तरं शान्दारिरीन अधिकः पाठः सम्पानायात इति प्रतिभानि । आकाशन्य शब्दपूर्ववृत्नित्वसहमृत बटादि नित्वग्रहमुपपादयति - अपद्रव्यान्यद्रव्यत्वादिनापि आकाशपदशक्तिग्रहमम्भवादिति । कथं अन्यथा - अश्रयान्पद्रव्यत्यादिनाकाटाभानानाकार तत्र शब्दसमवापिकारणताग्रहः स्यात् ' धर्मितारन्छेदकानिये तत्र काग्णताग्रहागावात. निरनिरन्तकारणताया असम्भवात । न च कवचस्यैव शब्दसमराम्पिकारपनानच्छदकत्वमिनि चाच्यम बहनो कर्णानां विनिगमकामविन कारणतावच्छेदका गौरवात्. कर्णानामसार्वकालिकत्वाचन विशेषपदार्थस्य तथामिति वाच्यम्, नदसिद्धः पूर्वम कत्याल । न च हान्दममवाधिकारणत्ययंत्र में घटाकावासंयोग आदि के प्रति पूर्वनिता= कारणना का भान हो सकता है। ऐसी स्थिति में आकाश को घटाकाशमयोग आदि के प्रति अन्यधासिद्ध नहीं माना जा सकता है, क्योंकि घट आकाशसंयोग आदि की अपेक्षा द्वितीय अन्यथासिद्ध के लक्षण की प्रवृति ही आकाश में हो सकती नहीं है।
द्वितीय अन्यथासिर के लक्षण में अन्याय एवं अतिप्याति अंबंन । द्वितीय अन्यथामिद्ध के उपर्युक्त लक्षण में यह बात मांचने योग्य है कि घट के प्रति पूर्ववृत्तिता का भाकाश में शब्दसमवायिकारणत्व का भान नान का ही भान हो . यह कोई नियम नहीं है । आकाश में झन्दसमवायिकारणता का भान माने बिना भी घटादि के प्रति पूर्वनिता का गगन में ज्ञान मुमकिन है। यहाँ यह शंका करने की कोई जरूरत नहीं है कि -> 'आकाश को आका वात्वेन घटपूर्ववृत्ति मानने पर तो द्वितीय अन्यथासिद्ध के लक्षण की प्रवृनि मुमकिन ही है, क्योंकि आकाशत्व शब्दसमनायिकारणत्वस्वरूप है। आकाशपद की शक्ति का ज्ञान शनसमाधिकारणत्वेन ही हो सकता है, क्योंकि वह आकाशपद का शक्यतावच्छेदक है' - इसका कारण यह है कि आकारपट की शक्ति का ज्ञान अदगमचायिकारणत्वेन न मान कर अपद्रव्यान्यद्रव्यत्वेन भी माना जा सकता है।
यहाँ यह शंका कि ---> 'आकाशपद के शस्यनावटकविधया अष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्यय का स्वीकार न कर के शब्दममवायिकारणव को मान्य किया जाय तो क्या दाप है?' -भी निगधार है, क्योंकि नब तो आकाश में पालसम्बायिकाग्णता का ज्ञान ही न हो गकेगा । देखिय, शब्द का कारणता आकाश में रहती है, उस कारणता का अवच्छेदक ( भेददर्शक = भेटक) कार्ड धर्म तो मानना ही होगा । वह कीन मा धर्म हांगा ? यह जिज्ञासा होने पर 'बह धर्म आकाशत्व = गन्दसमवापिकारणता है', यह कहें तब वादसमचायिकाग्णतास्वरूप आकागत्व और उममें अवय आकामानिम शब्दसमवापिकारणता एक ही बन जायेंगे। ऐसी स्थिति में दोनों का भंट नहीं समझा जा सकेगा। नच ता गगन में शब्दकारणता का ज्ञान ही नामुमकिन बन जायेगा।
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८९८ मध्यमस्पद्वादरहस्ये गण्ड: ३ का. १९
रामद्र नृसिंहमतद्यांत्तनम
किस यागादे: स्वर्ग प्रति पूर्ववृतित्वं गृहीत्वैताऽपूर्व प्रति पूर्ववृत्तित्वग्रहात्तं प्रति तस्यान्यथासिद्धिवारणाय 'अन्यं प्रति पूर्ववृत्तित्वानुपपादकं यस्य पूर्ववृतित्वं गृह्यते' इति वाच्यम् ।
* जयलता
तवमिति वाच्यम्, तथा सति स्वावच्छेदकत्वस्य स्वस्मिन्कल्पनापत्तेः । न चेदं वृक्तं अवच्छेद्यावच्छेदकभावस्य भेदनियतत्वात् । न च पृथिवीजल जीवास्वात्मदिकालमनोद्रव्यान्यतगत्वावच्भिवतियोगिताकभेदविशिष्टद्रव्यत्व- निकालात्मभिन्नविभुद्रव्यत्वादिना का शरदशक्यतावच्छेदकत्वीपगमं गौरवमिति वाच्यम्, तथापि अखण्डी राधिस्वरूपस्याकाशत्वस्य तत्त्वं बाधकाभावात् । ततो नोकलक्षीन गगनस्य घटादावन्यथासिद्धत्वोपपादनसम्भवः । गगने बढापेक्षयाऽन्यथासिद्धलक्षणाव्याप्तिमुपदश्यं यागे पूर्वपक्षादन्यथासिद्धलक्षणातिव्यामिमावेदयति किचेति । यागादे: 'स्वर्गकामां यजेत' इत्यादिविधिना स्वर्गं प्रति पूर्ववृत्तित्वं गृहीत्वैच गृहीतकारणत्वान्चानुपपत्त्या चिरविनष्टस्य यागादेः व्यापारत्वेन अपूर्वकल्पनात् अन्यं प्रति पूर्ववृनित्यं गृहीत्वैव अपूर्व प्रति पूर्ववृत्तित्वग्रहात् । ततश्च स्वर्गपूर्ववृत्तित्वरितस्वर्गजनकलेन यागादः अपूर्वं प्रत्यन्यथासिद्धत्वापत्तिरेव । अतः तं = अपूर्व प्रति तस्य = यागादे: अन्यथासिद्धिवारणाय 'अन्यं प्रति पूर्ववृत्तित्वानुपपादकं यस्य पूर्ववृत्तित्वं गृह्यते तं प्रति तद् द्वितीयमन्यथासिद्धं इति द्वितीयान्यवासिद्धिलक्षणं वाच्यम् तथा चनापूर्वं प्रति यागादेरन्यथासिद्धत्वम् । पूर्ववृत्तित्वानुपपादकमित्यत्र पूर्ववृतित्वं स्वनिष्ठत्वेन विशेषणीयम्, अन्यथा शब्द जनकण्डादिव्यापारं प्रति शब्दकारणत्वेन गगनस्यान्यथासिद्धत्वं न स्यात्, तस्य कृतिनिप्रशब्दपर्ववृतित्वघटकत्वात् । स्वनिष्ठत्वोक्ती चोकव्यापारस्य कृतिनिष्ठशब्दपूर्ववृत्तित्वोपपादकत्वेऽपि आकाशनिष्ठशब्दपूर्ववृतित्वानुपपादकत्वात तं प्रत्यपि भवति गगनमन्यथासिद्धमिति रामरुद्रभट्टः (मु.रा.पू. २१५) ।
"यागत्वञ्च 'नस्य इदं भवत्वि त्याकारकदेवतीश्यकत्वप्रकारक स्वस्वत्वध्वंसविशिष्टद्रव्यविशेष्यकलावं, देवीदयकत्वञ्च देवतानिरूपितवत्ववत्वं देवतायावशब्दविशेषरूपत्वं स्वरूपसम्बन्धविशेषरूपं नदिति (सु.प्र.पू.०४४) नृसिंहशास्त्री |
प्रकृते यागादेः स्वर्गं प्रति पूर्ववृत्तित्वं यागादरपूर्व प्रति पूर्ववृत्तित्वोपपादकमिति यागादेरपूर्वपूर्ववृतित्वोग सदक- स्वर्गपूर्ववृत्तित्वं अतः आकावानिष्ट शब्दसमवायिकारणता के अचच्छेदकधर्मविधवा पृथिवी आदि अष्टद्रव्यान्यद्रव्यत्व का ही स्वीकार करना मुनासिव है । इस तरह पृथिवी, जल आदि आदयों से भिन्न द्रव्यत्वेन आकाश में घटपूर्ववृत्तिता का मान मानने में कोई दिक्कत नहीं है। इस स्थिति में तो शब्द के प्रति पूर्ववृत्तिता = कारणता का भान माने बिना भी पद के प्रति पूर्ववृत्तिता: = कारणता का ज्ञान गगन में माना जा सकता है। इसलिए उपर्युक्त द्वितीय अन्यथासिद्ध के लक्षण से पदादि के प्रति गगन को अन्यथासिद्ध नहीं कहा जा सकता ।
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किञ्च । इसके अतिरिक्त यह बात भी विचारणीय है कि अन्य के प्रति पूर्ववृतित्व का भान मान कर प्रकृत कार्य के प्रति जिसमें पूर्ववृत्तिता का भान हो उसे प्रकृत कार्य के प्रति अन्यथासिद्ध मानने पर तो याग (यज्ञ) आदि भी अपूर्व (पुण्य) के प्रति अन्यथासिद्ध बन जायेगा, क्योंकि याग में स्वर्गजनकता का, जो कि स्वनियतपूर्ववृतिता से घटित है, ज्ञान कर के ही अपूर्व के प्रति पूर्ववृत्तिता का भान माना जाता है । आशय यह है कि 'स्वर्गकामो यजेत' इत्यादि वेदवचन से याग में स्वर्गकारणता का भान होने के बाद ही स्वर्गकामनावाला पुरुष याग में प्रवृत्त होता है । मगर याग तो क्रियाविशेषस्वरूप होने से क्षणिक है । याग करने के बाद बड़े दिनों के बाद वर्ग प्राप्त होता है । जब स्वर्गप्राप्ति होती है तब याग तो चिरपूर्वकाल में विनष्ट होता है। अनः स्वर्ग के प्रति याग में वेदबोधित कारणता की अन्यथानुपपत्ति के बल पर अपूर्व नामक व्यापार की बीच में कल्पना की जाती है। मगर अपूर्व के प्रति जाग में पूर्ववृत्तिता का भान याग में स्वर्गपूर्ववृत्तिलाघटितकारणता के ज्ञान के बाद ही होता है । अतः उपर्युक्त द्वितीय अन्यथासिद्ध के लक्षण के अनुसार बाग अपूर्व के प्रति अन्यथासिद्ध सिद्ध हो जाने की आपनि आयेगी । इस तरह द्वितीय अन्यभासिद्ध के लक्षण में उपर्युक्त अव्याप्ति एवं अतिव्याप्ति शेष प्रसक्त होते हैं । द्वितीय अन्यथासिद्ध के लक्षण में परिष्कार मांसा
उपर्युक्त दोष के निवारणार्थ द्वितीय अन्यथासिद्ध के लक्षण का इस स्वरूप में स्वीकार करना चाहिए कि अन्य के प्रति पूर्ववनिता के अनुपपादक पूर्ववृत्तित्व का जिसमें ज्ञान हो वह प्रकृत कार्य के प्रति अन्यथासिद्ध है । याग में अपूर्वपूर्ववृनिता का भात स्वर्ग के प्रति याग की इस पूर्ववृत्तिता के ज्ञान के बाद होता है, जो पूर्ववनिता अपूर्व के प्रति याग की पूर्ववृत्तिता = कारणता की उपपादक है, न कि अनुपपादक । याग में स्वर्गकारणता (स्वर्गपूर्ववृनिता) ही यागजन्य अपूर्वनामक व्यापार की पूर्ववृतिना = कारणता की समर्थक है । यदि याग में स्वर्गपूर्ववृत्तितापटित कारणता न हो तब तो याग में अपूर्व के प्रति पूर्ववृचिता कारणता ही उपपन्न न हो सकेगी। इस तरह अपूर्व के प्रति याग की पूर्ववृनिता की उपपादक स्वर्गपूर्ववृत्तिता
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*उपादकत्वनिरूक्तिः * तमोपयादकत्वं न तदभावव्याय्याभावप्रतियोगित्वं, अपूर्वपूर्ववृत्तित्वं विलापि अपूर्वे स्वर्गपूर्ववृत्तित्वात् । नापि तव्याप्यत्वं, एवं हि शब्दविशिष्टं प्रत्याकाशस्य हेतुतापत्तेः ।
-* गया - गृहीत्वा पूर्व प्रति पूर्ववृत्नित्वं गृह्यत इति नापूर्व प्रति यागादग्न्यधासिद्धत्वप्रसङ्गः । गगनम्य शब्द प्रति पूर्वनित्वं गगतम्य घटं प्रति पूर्ववृत्तित्यानुपपादकमिति गगनस्य घटपूर्वत्तित्यानुपपादक-शान्टपूर्ववृत्तित्वं गृहाल्न घटं प्रति पूर्ववृत्तित्वग्रहादाकाशस्य घटं प्रति नान्पधासिद्धत्वानापत्तिरिति भावः ।
लिन्तिामण न समीनीनम, सनपाटनम्त्वनियागिन उपपादकचस्याऽनिर्वचनात् । यत उपपादकत्वं किं उपाद्याभायच्यापकाभावप्रतियोगित्वरूप उपपाद्यन्यापकत्वात्मकं अन्यद्वा ? इति कल्पनात्रितयी प्रगणगण्त्राव यंत्राप्रतिहतग्रसरा सरीमरीति ।। आद्याया अयुक्तत्वमाचेदयति नत्र = "प्रकृतकार्यपूर्ववृनित्वानुपपादकपूवृतित्वमन्यं प्रनि गृहान्धव यम्प प्रकृनकार्यप्रयं'नत्वं ज्ञायते तत् प्रकृतकार्य प्रत्यन्यथासिद्धं द्वितीयं' इति लक्षगघटक उपपादकत्वं न तदभावल्याप्याभावप्रतियोगित्वं - उपपाद्याभाषी व्यायो यस्य स उपपाद्याभावव्याप्यः स चामी अभावश्च = उपपाद्या भावव्या'याभारः. नस्य प्रतियोगित्वं उपपादकल्बनिनि ने यामित्यर्थः । प्रकृते उपपा यागादेपूर्व प्रति पूर्वनित नस्योपपादकञ्च यागादेः स्वर्ग प्रति नित्वम् । ततश्चापूर्ननिमाहित पूर्ववृत्तिल्वाभावनिष्ठच्यायत्यनिरूपितव्यापकत्वाश्रयस्यानावस्य प्रतियोगित्वं स्वर्ग पूर्वचित प्राप्तम् । नच व्यभिचारग्रस्तम. यतोऽपूर्वपूर्ववृत्तित्वं विनाऽपि अपूर्वे स्वर्गपूर्ववृत्तित्वान । प्रकृत अपूर्ववृत्तित्याभारस्य व्याप्यत्वं स्वर्गपूर्ववृत्नियामावस्य - व्यापकत्वम् । ततो पूर्वपूर्ववृत्तित्वस्य ब्यापकलं स्यगंपूर्वनित्वस्य च ज्याप्यत्वमिति प्राप्तम् । अपूर्व-पूर्वपूर्वनित्यरूपं व्यापक नास्ति तथापि स्वर्ग पूर्ववृनित्वस्वरूपं व्यायमस्नीति ननभावबनित्वलक्षणयभिचारान्न म्वर्गपूवंति पूर्वनिलाभाचव्यायाभावप्रतियोगित्चमस्ति । नतो नाद्या कल्पना मङ्गता ।
द्वितीयकल्पनायामाह . नापि तद्व्याप्यत्वं, तद् = उपपाद्यं व्याप्यं यस्य स तथा तद्भावग्नत्य, नदीप न युक्तमित्यर्थः । स्वर्गपूर्ववृत्तित्येपूर्वपूर्वनित्यनिरूपिनव्यापकल्यं स्वर्ग पूर्वनियनिरूपिलव्याप्यत्वञ्चापूर्वपूर्वनित्व इत्यपि न सम्यागत्पर्धः। एवं हि यानिठे ग्वर्गपूर्ववृत्तित्वं पूर्वपूर्वत्तित्वापपादकत्वसम्मंच-पि शन्दविशिष्टं झाब्दं प्रति अन्यरहितानरत्वसम्बन्धन शशिष्टशब्द. त्यावच्छिन्नं प्रीति यावत्, आकाशस्य हेत्तापनः । अयं भाव आकाशस्य कायंतामन्दकं शब्दत्वमेव, नतु जन्यतासम्बन्धेन का याग में ज्ञान होने के पश्चान् ही याग में अपूर्वपूर्ववृनिता का भान होने पर भी याग अपूर्व के प्रति अन्यथामिद्ध नहीं है - यह फलित होना है। आकाश में शब्दकारणता (शब्दपूर्ववृनिता) आकाशनिष्ठ घटपूर्ववृत्तिता की उपपादक नहीं है, किन्तु अनुपपादक है । अतः घट के प्रति आकाश की पूर्ववृत्तिता की अनुपपादक शब्दपूर्ववृत्तिना का गगन में भान होने के बाद ही गगन में घटपूर्ववृत्तिना का भान होने की वजह आकाश बट के प्रति अन्ययासिद्ध है, . यह सुचित होता है । अतः आकाश में घट की अपेक्षा अन्यथामिद्धत्य की अव्याप्ति का एवं याग में अपूर्व की अपेक्षा अन्यधासिद्धत्व की अनित्र्याप्ति का निराकरण हो जाता है।
उपपादप निराण नागpिali) तरी । मगर उपर्युक बान भी विचार करने पर अमंगन प्रतीन हानी है। इसका कारण यह है कि द्वितीय अन्यधासित के घटक उपपादकत्व का सम्बर निचन नहीं हो सकता है। (2) यदि यह कहा जाय कि - "उगायाभाच निस अभाव का व्याप्य है उस अभाव की प्रतियोगिता ही उपपादकत्व है - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि तब स्वर्गपूर्ववृत्तित्व अपूर्वपूर्ववृनित्व का उपपादक न बन सकेगा । यह इस तरह- उपर्युक्त उपपादकल्पनिर्वचन के अनुसार अपूर्वपूर्ववृतित्वाभाव होगा न्याय और स्वर्गपूर्ववृत्नित्वाभाव बनेगा व्यापक । अर्थात् अपूर्वपूर्वतिय व्यापक वनगा और स्वर्गपूर्ववृत्तिच उसका व्याप्य होगा। इससे यह अर्थ प्राप्त होता है कि जहाँ जहाँ स्वर्गपूर्ववृतित्व रहता होगा वहाँ वहाँ अपूर्वपूर्ववृत्तित्व अवश्य रहता होगा। यानी अपूर्वपूर्ववृत्तित्व को छोड़ कर स्वर्गपूर्ववृत्तित्व कहाँ भी नहीं रहेगा। मगर यात स्थिति इससे विपरीत है । अपूर्व = पुण्य में अपूर्वपूर्ववृतित्व नहीं रहता है फिर भी स्वर्गपूर्ववृत्तित्व रहता है। अन्य अपूर्व की उत्पत्ति अपूर्व से नहीं होती है, किन्तु याग में होती है । अत: अपूर्व में स्वर्गपूर्ववृत्तिन्त्र पूर्वपूर्ववृत्तिता का व्यभिचारी वन नायगा । इसलिए उपपाटयान्न का उपर्युक्त निर्वचन असंगन है।
यदि मा कहा जाय कि -> 'उपपारा जिसका व्याप्य हो वह उपपादक है यानी उपपाय की व्यापकता = उपपादकत्व । इसका सरल भाषा में इस तरह कह सकते हैं कि जिसके बिना उपपाद्य अर्थ की उपपत्ति न हो सके वह उपपादक कहा
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१५- मध्यमस्याहादरहस्य खण्टः ६ . का ११ * अपूर्व प्रति यागत्यान्यवनवापाकरणन*
नाप्यन्यद, दुर्वचत्वात् । अथास्यायमों 'यदन्यं प्रति पूर्ववृतिताघटितरूपेण यस्य यं प्रति पूर्ववृत्तिता गृह्यते
-* जयलाता - शब्दविशिष्टशन्दतं गौरवात् । किन्नृपानिरू पिनन्यापतरूपमपादकत्वमगीकृत्य प्रकृतकापानमा पतनवृत्तिन्वानुपपादक प्रकृतकार्यातिरिक्तकार्यनिरूपिन पूर्वनिय. महात्वैव परम प्रकृतकार्य प्रति पूर्वनित्वं गृहाते नरय प्रकृतकार्य प्रत्यन्यथासिद्धन मनि प्रतिपादन तु स्वजन्यत्वसम्बन्धन यादविशिष्टोत्याचा प्रयोग गम कारण मान, माकाशकार्यतावच्छेदक दान विशिष्टशब्दत्वं स्यादिति पावत । शन्दाजन्य मान्दमजयित्वाकाशस्य विशिष्टशन्दननकत्वं नो पपद्यते । अतः कार्यतावच्छदघटकीभूतंवशिष्ट्यप्रतियोगिशन्दनिरूपिरतपूर्ववृत्तित्वं नादृशवशिष्ट्यानुयागिशब्दनिरूपितपूर्वनित्वस्यापपादकं = व्यापकम् । तनो या पूर्वपूर्वनित्यच्याकरवर्ग प्रवृनिन्वं गृहीत्वैव पारस्यापूर्वपूर्वनिवग्रह: वियागरम नापूर्व प्रति द्वितीयान्यथामिद्धत्वं तधेच विवक्षितकार्यनावच्छंटकपटोशष्ट्यानुयागिंशब्दलक्षणप्रकृतकानिरूपितपूर्ववृत्तित्वव्यापक तादृशंवशिष्ट्यप्रतियोगिगन्दनिरूपितपुत्रवृत्तित्वं गृहीत्वंत्र गगनम्यन्यत्वसम्बन्धन झन्दविशिरगदनिरूपिदपूर्ववृनिवग्रहदपि गगनन्य न शब्दविशिष्टशब्दत्वाग्रिनं प्रति द्वितीयान्यथा - सिद्धवं ग्यान, तल्पयोगक्षेमत्वान् । एनेन तन्डागकत्वम् नन्कायकत्वरूपं बोपादकत्वमित्यपि प्रत्युकम्, वादविशिष्टशब्द त्वस्याकाशकार्यतावच्छेदकधापनेः दुर्यारत्वात्। ननो यम्य भाचे सत्युपपाचं नापपद्यन र उपपादक इति द्वितीयकल्पना-पि न मतिमता रतिदायिनी।
यदि वगगनस्य शब्दविशिष्टान्दत्वं न कार्वतावन्टक किन्न विशिष्टवान्दमनि वजात्यमंत्र. अत्यहितान्रत्यसम्बन्धन शब्दशिष्टयं तु कार्यताबन्दकपरिचायकं न तु तयटमिति पूर्वशब्दपूर्ववृत्तित्वं नियमन न गृह्यत इत्युच्यते तदा नितरां तं प्रति गगनरय दिनापास्यापिनत्वा सम्भवः , परजतः तास जात्य कायम गरिखमंत्र बाधकमिति तृतीयान्यधासिद्धत्वमेव तादृावै जात्यावचिननं प्रति गगनगम स्यान्न तु द्वितीयान्यायाचिद्भत्वमिति तु ययम् ।
तृतीयकल्पनायामाह-नाप्यन्यद् = अन्यस्वरूप उपपादकाचं सम्भवति, दुर्वचत्वात् = सना निर्वचना सम्भवात् । न चोत्पादकत्वमेवोपपादकत्वम्. अपूर्व प्रति यामादरम्भासिद्धत्वापत्त: । नतो न प्रकृतकार्यपूर्वनित नुपपादकमन्यनिरूपितपूर्वनित्वं गृहीत्वैव परय प्रकृतकार्ये वृत्तित्वं गृहाने तत् प्रकृतकार्य द्वितीयमन्यधासिमिति परिष्कारः नास्तामञ्चति ।
तृतीयं द्वितीयान्यधासिद्धलक्षणमाक्षिपनि । अथेति । अयं = अनुपदं वक्ष्यमाणः अस्य = प्रांताद्वितीयान्यधासिद्धलक्षगस्य जाना है। - तो यह भी असंगत है, क्योंकि तब स्वर्गपूर्ववृतित्व में अपूर्वपूर्ववृत्ति की उपपादकना = ब्यापकना उपपन्न हो जाने पर भी शब्द्धजन्य शब्द = स्वजन्यत्वसम्बन्ध से वादविशिष्टशब्द के प्रति भी आकाश कारण बन जायेगा अर्थान आकाश का कार्यतावदक गब्दविशिष्ट शब्दल्द भी हो जायेगा । आकाश में वन्द (A) के प्रति पूर्ववृत्तित्व का ज्ञान करने के बाद शब्दविशिष्ट वान्द (B) के प्रति पूर्ववृतित्व का भान होता है, मगर कार्यतावच्छेदक शब्दविशिएशन्दत्व के घटक वैशिष्ट्य के प्रतियोगी शब्द (A) के प्रति पूर्ववृत्तित्व वैशिष्ट्य के अनुयागो दाब्द (B) के प्रति पुर्ववृत्तित्व का उपपादक = व्यापक है। पूर्व शब्द (A) का पूर्ववृत्तित्व आकाश में न होने पर विशट शन्द (B) का पूर्वनिन्द कभी नहीं रहता है । अतः पूर्वशन्न (A) का पूर्ववृतित्व विशिएशन्द {B की पूर्वनिता का अनुपपादक = अव्यापक नहीं है । इसलिए विशिएगद्धनिरूपिन पुवृत्तित्व के अनुपपादक पूर्वशन्द (A) पूर्ववृत्तित्व का ज्ञान कर के ही आकाश में विशिष्ट शब्द (B) के प्रति पूर्ववृत्तिता का ज्ञान नहीं होता है किन्तु विशिष्टशब्द (.) के पूर्ववृत्तित्व के उपपादक से पूर्वशन्न (A) निरूपित पूर्ववृत्तिन्त्र का ज्ञान कर के ही
आकाश में विशिष्टवाद (B) के प्रति पूर्वमृत्तिब का ज्ञान होना है। इसलिए इन्दरिशिप्रशन्नत्वनि के प्रति आकाश में कारणता की आपत्ति आयेगी। वास्तविकता यह है, कि आकामा बाब्दन्यावचिन्न का कारण है. न कि शब्दविशिष्टशब्दवारचिन्न का । अर्थात् गगन का कार्यताबज्छेदक शब्दत्व है न कि शन्दजिशिष्टशदत्य । इस ऐप की बदौलत द्वितीय अन्यथासिद्ध के लक्षण के घटक उपपादकत्व का द्वितीय निर्वचन भी असंगत है - यह निश्चित होना है। उपपादकत्व को अन्य किसी स्वरूप नो नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसका सम्यक निरूपण करना है। दर्वच है। इस तरह द्वितीय अन्यभासिद्ध के घटक. उपपादकत्व का ममीचीन निर्वचन नामुमकिन हान के सबब उपर्युक्त नि में तादृश लक्षण को मान्यता नहीं दी जा सकती ।
Ak: दिलीय शासित तीरा लागी दोष * अथा. । यदि नैयापिक की ओर से द्वितीय अन्यभामिन के लक्षण का पैसा प्रतिपादन किया जाय कि -> 'जिस
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महादेव नृसिंहपकाशिकान्म तनिग्गरः
M.P
तत्र तद्न्यथासिद्धमिति । नन्वेवं तस्याऽष्टद्रव्यात्यद्रव्यत्वादिनाऽन्यथासिद्धिः कुतः ? 'अवश्यक्युप्मेत्यादित' इति चेत् ? आकाशत्वेनाऽपि तत एव साऽस्तु ।
* जयलता है
अर्थः । तथाहि यदन्यं = यस्मात् प्रकृतकायांत् अतिरिक्तं कार्यं प्रति पुर्ववृत्तिनाघटितरूपेण एव यस्य = : यद्रूपावच्छिन्नम्य यं = प्रकृतकार्यं प्रति पूर्ववृत्तिता गृह्यते तत्र प्रकृतकार्य तत् द्वितीयं अन्यथासिद्धम् । शब्दं प्रति पूर्ववनिताघटितरूपेणाकाशस्व घटं प्रति पूर्ववृत्तितागृहात इति पानी गगनमन्यथासिद्धम् । पूर्वशब्दं प्रति पूर्ववृत्विरितरूपेणैवाकाशस्य शब्दविशिष्टश प्रति पूर्ववृत्तिता गृहात इति शब्दविशिष्टशत्वावच्छिने गगनमन्यथासिद्धम् । न च स्वर्गपूर्ववृत्तित्वदितस्वर्गजनकत्वेन रूपेण यागस्पाऽपूर्वं प्रति पूर्ववृत्तित्वग्रहादपूर्वं प्रति यागस्यान्यथासिद्धत्वापत्तिरिति वाच्यम्, स्वगंजनकलेन यागस्यापूर्वी प्रत्यन्यथासिद्धत्वेऽपि यागत्वेन हेतुलेऽन्यथासिद्धयभावादिति महादेवः
=
प्रकरणकारः तपस्तयितुमाक्षिपति ननु एवं अन्यपूर्ववृत्तित्ववदितरूपेण यस्य प्रकृतकार्य प्रति पूर्ववृनिता गु तस्य प्रकृतकार्यऽन्यथासिद्धत्वमस्य स्वजन यागस्या पूर्व प्रत्यन्यथासिद्धत्व यावनान्यवासिद्धत्वाभावप्रतिपादन गगनस्य शब्दसमवायिकारणत्वेन रूपेण घटादिकं प्रत्यन्यथासिद्धत्वेऽपि तस्य आकाशस्य अष्टद्रव्यान्यद्रव्यत्वादिना रूपेण बटादिकं प्रति पूर्ववृनित्यग्रहे ध्यादिकं प्रति अन्यथासिद्धिः कुतः सम्भवेत् । अन्यथाऽर्धजस्तापातात् ।
परं प्रत्युत्तरयन्ति अवश्यक्तेत्यादितः अनुपदमेव वक्ष्यमाणत्तृतीयान्यथासिद्धलक्षणाक्रान्तत्वादव गमनस्याष्टद्रव्यान्यद्रव्यत्वादिना घटादिकं तदादिसम्भवं तत्सहभृतत्वेन गगनस्याऽन्यद्रवत्वेन तृतीयान्यथासिद्धत्वमिति चेत् ?
प्रकरणकारः प्रतिबन्धा प्राह- आकाशत्वेनाऽपि छान्दसमवायिकारणत्वंनाऽपि ततः = अवस्यक्लुमत्यादित एवं सा अन्यथासिद्धिः अस्तु शब्दसमवायिकारणत्वेनापि गगनस्य वदादिकं प्रत्यत्वात । इत्थच तृतीयान्यथासिद्धत्वेन गतार्थत्वादेव तदतिरिक्तत्वेन प्रकृतान्यवासिद्धत्वक नमन्याय्यमिति ध्वन्यते । एतेन च प्रति कुलालस्य कुलाल पितृलेन द्वितीयान्यथासिद्धत्व मिति तर्कसङ्ग्रहनृसिंहयप्रकाशिकाकारवचनं (त.सं.नृ.प्र.३.२३२) निरस्तम् तृतीयान्यथासिद्धव कुलालपितृत्वनाऽन्यथासिद्धपपत्तेः ।
-
वस्तुतीऽभ्यं प्रति पूर्ववृत्तित्वग्रहनियती में प्रति श्रद्धमविद्धिनस्य पूर्ववृतिग्रहस्तं प्रतिद्धर्मावच्छिन्नस्य द्वितीयान्यथासिद्धत्वमित्वार्थः । चागादे: विजातीयसुखहेतुतया विहितत्वेनापूर्वं प्रत्यन्यभासिद्धत्येऽपि यागत्वादिना हेतुत्वं नित्यूहम् । आकाशख्यापिपदादी शब्दजनकत्वेनंतदन्यथासिद्धत्वं शब्दाश्रयत्वेन त्वन्यन्त्र क्लमेत्यादिनैव न चैचं मनगव्यापारक श्रवणत्व- श्रतिजनकत्यादिन। ज्नकत्वानुपपत्तिरिति वाच्यम् अन्यं प्रति पूर्ववृत्तित्वज्ञात एवं फलाननुगुणमन्यं प्रतीति वाच्यतादित्यपि कश्चित् ।
कार्य से अन्य कार्य के प्रति पूर्ववृत्तिरूप से जिसमें जिस कार्य के प्रति पूर्ववृत्तिता का भान हो वह उस कार्य के प्रति द्वितीय अन्यथासिद्ध है । जैसे आकाशवेन दान्दपूर्ववृत्तित्वघटितशब्दसमवायिकारणत्वेन रूपेण आकाश में पद के प्रति पूर्ववृत्तिता का ज्ञान होने से घट के प्रति गगन द्वितीय अन्यथासिद्ध है तो यह भी संगत नहीं है, क्योंकि पद के प्रति शब्दरामवायिकारणत्वेन आकाश में पूर्ववृतित्व का ज्ञान होने से आकाश में घट के प्रति द्वितीय अन्यथासिद्धि का उपपादन करने पर भी अष्टद्रव्यान्यद्रयत्वादिरूपेण आकाश में घट के प्रति पूर्ववृतित्व का ज्ञान होने पर घट के प्रति गगन को आप नैयायिक कैसे अन्यधासिद्ध कह सकोगे ? यह कोई नियम नहीं है कि घट के प्रति पूर्ववृतित्व का गगन में शब्दसमवायिकारणत्वेन = आकाडान ही भान हो, न कि अद्रव्यान्यद्रयत्वेन 1 इसलिए अप्याययत्वेन रूपेण गगन में घटादि के प्रति कारणता की आपत्ति दुबार बन जायेगी । यहाँ नैयायिक की ओर से यह तो नहीं कहा जा सकता कि गगन में अष्टद्रव्यान्यद्रव्यत्वेन रूपेण अन्यथासिद्धि द्वितीय अन्यथासिद्ध के लक्षण से भले ही सिद्ध न हो किन्तु अवश्यवलुप्त.... इत्यादिरूप से बक्ष्यमाण तृतीय अन्यथासिद्ध के लक्षण से आक्रान्त होने की वजह गगन में अपद्रव्यान्यद्रव्यत्वेन रूपेण तृतीय अन्यत्वासिद्धि तां समांकन ही है । इसलिए गगन में अष्टद्रव्यान्यद्रव्यत्येन रूपेण पदकारणता की आपत्ति को अवकाश नहीं है" इसका कारण यह है कि इस तरह अन्ततोगत्या गगन में घट के प्रति तृतीय अन्यधामिद्धि का प्रतिपादन करना ही है तो फिल अद्रव्यान्यन्यन्तेन रूपेण ही क्यों तृतीय अन्यधासिद्धि गगन में मानी जाय ? आकाशवेन = शब्दसमवायिकारणत्वेन रूपेण भी गगन में घट के प्रति तृतीय अन्यथासिद्धि क्यों न मानी जाय ? मतलब कि द्वितीय अन्यवासिद्ध का अन्तर्भाव तृतीय अन्यथासिद्ध में ही हो जाने की वजह अतिरिक्त द्वितीय अन्यथासिद्ध का प्रतिपादन करना असंगत है । अब यहाँ यह भी
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... मध्यमम्यादानहाये रखर: 2 . का दीपितिकार खिहप्रकाशिकाकृन्मनविद्यानन्म *
अन्यत्र क्लुप्तलियतपूर्ववर्तिन एव कार्यसम्भवे तत्सहभूतं ततीयम् । यथा पाकजगन्धं प्रति रूपप्रागभावादि, यथा वा तन्दटादी तदासभादि । दण्डादिना चक्रादेर्मियोऽन्यथासिन्दिव्युदासाय 'कार्यसम्भवेत्युक्तम् । तथा चात्र ज्ञानज्ञाप्यत्वस्य पक्षम्यर्थत्वात् दण्डमात्रस्य
- गयलता दीधितिकृतस्तु • फलाननुगणं अन्यं प्रीति न बक्तव्यम् । अत एवं परामर्शजनकल्बन तद्व्यामिज्ञानानां न कारणत्वम. एतदन्यथासिद्धरिति वदन्ति ।
तृतीयमन्यथासिद्धमाहुः - अन्यत्र = प्रकृतकार्ययजातीयप्रकृतकार्यभिन्न, सप्तम्यर्धा निरूपितत्वम, तस्य पदार्थैकदेशपूर्वनितायामन्चयः। क्लृप्तनियतपूर्ववर्तिनः - प्रमाणपगिद्ध-नियत पूर्ववृनितानयान एच कार्यसम्भव = प्रकृतकार्यस्याप्युतानिनिहि.. नत्सहभूतं - क्लृप्तनियनपूर्वनिसहभूतं तृतीयं अन्यथामिद्धम । तथा च प्रकृतकायंसजातीयप्रकृतकायभिन्नकार्यनिरूपितप्रामाणिकनियनपूर्वनित्नान्यत्वं नत्कार्यसजातीयनिरु पलान्यधासिद्धत्वमिति फलितार्थः । उदाहरति ययेति । चिजातीयतेजःसंयांगजन्यगन्धसजानीय प्रति रूपवागभावादि तृतीयनन्यथासिद्ध मति दोषः । गन्ध उत्पन्यत्र क्लसपूर्ववर्तिताकगन्धप्रागभान नत्सहभृतं रूपप्रागभायादि पाकजगन्ध' प्रत्ययथासिमित्यर्थः । अयं भाव; पाकापादियदृष्टयोत्पत्त्याधिकरण तदुत्पनः प्रापादिप्रागभावचतुष्टयसत्वेऽपि यादृशपुष्पादी कदाचिद्रूपान्तरं नोपलब्ध किन्तु गन्धान्तरमेव, नत्र तादृशगन्धोत्पत्य. त्र्यवहितप्राकमाले रूपप्रागभावसत्त्वं मानाभावात गन्धप्रागभावस्यैव क्लृप्सनियतपूर्वनिताकतया नव प्रकृतगन्धस्याप्युत्पनिसम्भवे प्रकृतगन्धसजातीये रूपागभाग न्यधासिद्ध इति ननिहप्रकाशिकाकारः ।
उदाहरणान्तरगाह- यथा वा तटादाविति । यर्धाप संयोगादिसम्नन्धन रामभविलम्बे-पि घटविलम्बाभावात् 'यटकारणत्वं कुत्र?' इति जिनासायां धर्म दण्डादय एवं पनिष्ठन्न न रासनः । अन उपस्थिति कृतलायवादयस्यक्लनियनवनिमः दण्डादिभिरेव घटसम्भव गसभरय यथामिद्धत्यं तचापि घटत्वान्छिनकारणतायां राससस्यान्यधासिलयपपादनमनावश्यकं, नियनपूर्ववृत्तित्वदलनब नदारणात् किन्तु ननघटव्यक्तित्वावच्छिन्न कारणतायामेव, नत्रापि न सर्वत्र विशेषकररणनात्या, विना गस भमुत्पत्र घटे प्रति नस्य नियतपूनियाभावादिव बारणात् । किन्तु यत्र घटव्यक्ती रामभस्य पूर्वपतित्वमस्ति नल्यत्तिनिरूपितकारणतायामेव तद्रामभस्थायथासिद्धत्वं बनन्यमिति 'घटादी रास मादी त्यनुक्त्वा तवादी तद्रासभादीत्युक्तम् । यद्धदे प्रति यद्रासभस्य पूर्वनित्तमरित तत्रापि तयटजातीयं प्रति सिद्धकारणभापदण्दादिभिव नव्यक्तरपि सम्भवे तद्रासभस्यान्यथासिद्धत्वमिति । एतदनुसृत्यैव ला के दासीगर्दभन्यायः प्रवृत्तः । घटोत्पनी शिरसि मृतिकामानानवती दासी तथा तदानयनकारी गर्दभश्च न काम किन्तु मृत्तिकब. अन्यथासिद्धिान्यत्वान. मृत्तिकाहर्ग दाग तदानयनकारी गर्दभश्चान्यथासिद्भा. उपायान्तरेणापि मृतिका नयनस्य सुकरत्वात् । ___अन्यत्र कहानियतपूर्ववर्निसहभूतं गत्लनृतीपमन्यायिभित्युको तु अन्यत्र तयटादी क्लूमनियनपूर्ववनिनी दण्डाद: सहभूतं चकादि घरं प्रति अन्यथासिद स्यादिति दण्डादिना चक्रांदः मिथः = परस्परं अन्यथासिद्धिन्युदासाय 'कार्यसम्भव' इत्युक्तम् । न हि चक्रादिकं विहाय दण्डादेव घावनिः मम्भवति । नना न चक्रांदण्डादिना दण्डादेश्चक्रादिना वा घट प्रत्यन्यथासिद्धत्प्रसङ्गः। नथा च भत्र = लूप्सनिमनपर्ववर्निन' इत्यत्र ज्ञानज्ञाप्यत्वस्य पञ्चम्यर्थयात् दण्डमानस्य = कवरस्य
जान लीजिय कि तृतीय अन्यथासिद्ध का स्वरूप क्या है ? देखिय,
तृतीय शासित मा प्रतिपाल अन्य । प्रस्तुत कार्य में भिन्न एवं तन्मजातीय अन्य कार्य के प्रति क्ला एवं नियम से पूर्व रहनेवाले में ही प्रस्तुन कार्य की उत्पत्ति मुमकिन हो तो क्लूप्तनियतपूर्ववृत्ति का महसुन जो हो वह प्रस्तुत कार्य के प्रति तृतीय अन्यपामिल है। जैसे अपाकज गन्ध के प्रति क्लुप्त नियतपूर्ववती गन्यप्रागभाव में ही पाकज गन्ध की उत्पनि ममकिन होने में तामहभूत = गन्धप्रागभाव से ही पाकन गन्ध की उत्पत्ति मुमकिन होने में तत्महभूत = गन्धप्रागभावभिन्न रूपमागभाव पाकन गन्ध के प्रति नृतीय अन्यथामिद्ध है । इस तरह घटवियोप के प्रति गमविशप पूर्ववृनि होने पर भी अन्य घट (गसविरहकालीनोत्पनिक) के प्रति कदप्त पर्व निरम में पूर्ववृनि दर, चक्र, कुराल आदि में ही घटविशेष की उत्पनि मुमकिन होने से दण्डाटिमहभून = दण्डादिभित्र गमभनिदोष (गया) घविशप के प्रति तृतीय अन्यथासिद्ध कहा जाता है । यदि तृतीय अन्यथा सिद्ध के लक्षण में करल इतना ही कहा जाय कि - 'अन्यत्र क्लास एवं नियम से पूर्ववती का महभूत तृतीय अन्यथासिद्ध है'. तब ना
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*पाञ्चाविभवत्वविद्यातना * घटोत्पत्त्यव्याप्यत्वात्तनिरास: ।
नन्तत्रापि गन्धपागभावमास्य नपाकजगन्धोत्पतिव्याप्यत्वं तस्य रूपमभावाविला. भतत्वात । एतेल पथमन्वयव्यतिरेकसाहित्य सोतं अन्यत्र क्लानियतपर्वर्तिताकसहभूत
-* जयलता - दण्डस्य चक्रादिशून्यरप घटोत्पत्यव्याप्यत्वात् तमिरासः = चक्रादेरन्यथासिद्भत्यनिराकरणम् । यद्यपि 'पञ्चाय अवधिमन्त्रपनि - योगित्व-जन्यत्व -स्वकर्तृकोचारणाधनत्व-निरूपितत्व-ज्ञानज्ञाप्यत्व-तदांपेक्षात्व- पर्यन्ताराभादशोऽस्तिथापि प्रकृत जानकाप्यचमर्थ उपादेयः । यथा 'बहिमान धूमादित्यत्र धूमज्ञानज्ञाप्यवहिनानिति बोधस्तथा घटजातीयं प्रति क्लुप्तनियनपूर्ववृनिदण्डमात्रज्ञानज्ञाप्यघटोत्पनिरित्यर्थः प्राप्तः । स च बाधितः. दण्डमात्रय घटोत्पत्त्यव्या'यत्वेन दण्डमात्रज्ञानज्ञाप्यत्वस्य घटोत्यादेवपयोगात । अत एव दण्डादिना चक्रादः गिधाऽन्यथासिद्धिपकरणमित्यर्धः ।
पाकजगन्धस्थलेऽपि रूपमागभावः कथं न क्लप्तनियतापूर्वनिः ? गन्धादीनां चतुर्णामयकदाद्यन्या प्रागभाव चतश्यस्या नियतपूर्ववृत्तिवादित्याशयेन शत नन्विति । अस्य च समाधानमग्ने 'अत्राहः' इत्यनेन वक्ष्यतीति रमतंत्र्यम् । अत्र = तृतीया - न्यथा सिद्धलक्षण अपि गन्धप्रागभावमात्रस्य न पाकजगन्धोत्पत्तिच्याप्यत्वं येन गन्धप्रागभावमात्रज्ञानज्ञाप्या पाक जगन्धोतात: स्पात । तब इतमाह-तस्य = गन्धप्रागभावस्य रूपप्रागभावाविनाभूतत्वात् " रूपप्रायभावच्याप्यत्वात् । यत्र यत्र गन्धप्पागनाव: तत्र तत्र रूपप्रागभाव इति नियमादित्यर्थः। म्बन्यायच्या कम्य स्वच्याप्यत्यनियमन गन्धम् पप्रागभाषामभयोदेय पाकजगन्दील्पनिच्याप्यत्वान्न गाकजगन्धं प्रति रूग्रागभावग्य तु यान्पधामिद्धत्वसम्भव इति नन्वाश्यः ।
एतेन = गन्धप्रागभावस्य सपनागभावव्याप्यन्यन, अस्य निरस्न इत्यनेनान्चयः । पञ्चम्यर्थहनुवप्रचनात्माश्रयग्रगतः प्रकृत 'पृथगन्वयव्यतिरेकाहित्ये = स्वतन्त्रान्वयव्य निम्नशून्यत्ये सति अन्यत्र लुमनियतपूर्ववर्तिताकसहभूतं यन तनृतीयमन्यथासिद्धं, नदज्ञानप्रयुक्काज्ञातत्लादिविरहरूपं पृथक्त्वं ग्राटाम् । तदघंट कलमनियत्तगुबंबर्तिताकदादिसहनूतन्य गसगर पृथगचय
दण्डादि में चक्रादि भी अन्यबासिद्ध बन जायंग, पांकि पदनातीय के प्रति कतृप्त दण्डादि कारण से चक्रादि अन्य हैं । एवं चक्रादि से दण्डादि भी तृतीय अन्यथासिद्ध बन जायगे, क्योंकि घटजातीय के प्रति कलाः नियतपूर्ववृत्ति चक्रादि में दण्डादि अन्य है। इस आपनि के वारणार्थ 'कार्यसन्भव' ऐगा तृतीय अन्यथानिद्ध के वारीर में कहा गया है। अर्थात अन्यत्र क्लृप्तनियन पूर्ववर्ती से कार्य की संभावना हो तो उसका महभून तृतीय अन्यधासिद्ध है । घटजातीय के प्रति क्लृप्त केवल दण्ड से घर कार्य की उत्पत्ति नामुमकिन है । अतान पंचमी का अर्थ ज्ञानज्ञाप्यत्व होने पर केवल दण्डज्ञानज्ञाप्य घटोत्पनि यहाँ नामुमकिन बनती है, क्योंकि केवल दण्ट में घटोत्पाद की व्यामि नहीं है । इसलिए केवल दण्ड से चक्रादि में नृतीय अन्यथासिद्धन्द की आपत्ति का निरास हो जाता है।
* पाकगगन पे रूपuTHIमें ज्यशादित की ipl * पुर्वपक्ष :- नन्च, । यहाँ पंचमी विभकि का ज्ञानज्ञाप्यत्व अर्थ अन्य कार्य के प्रति कटप्पनियतपूर्ववर्ती का, जिमचे ज्ञान से कार्योत्पत्ति ज्ञाप्य है, सहभूत प्रकृत कार्य के प्रनि तृतीय अन्यथामिद्ध है - दोसा अर्थ करने पर नो पाकज गन्ध के प्रति रूपागभाव गन्धपागभाव में नृतीय अन्यथासिद्ध नहीं हो सकेगा । इसका कारण यह है कि पाकन गन्ध के पनि क्लुमनियतपूर्ववर्ती गन्धप्रागभाव ही केवल गन्यापान का व्याप्य नहीं है किन्नु रूपप्रागभाव भी पाकज गन्धो पनि का व्याप्य है, क्योंकि रूपयागभान का गन्धप्रागभाव च्याप्य है । जहाँ जहाँ गन्धप्रागभाव रहना है वहाँ नहीं रूप का भी प्रारभाव अवश्य रहता है । अत: कवल गन्धप्रागभाव में यानी रूपप्रागभावशून्य गन्धप्रागभाव में पाकज गन्ध की न्यायता नहीं है। अनः रुपनागभावान्य गन्धप्रागभाव के ज्ञान में पार.जगन्धोत्यांच की ज्ञप्ति (जाप्यता) नामुमकिन है। इसलिए गन्धप्रागभाव की भांति संपप्रागभाव का भी कलमनियतपूर्ववर्ती पद में गृहण हो जायेगा। तब ना पाकज गन्य के प्रति गन्धप्रागभाव से रूपप्रागभाग नृतीय अन्यथामिद्ध नहीं हो सकेगा, क्योंकि वह क्लुप्तनियतपूर्ववर्ती में मित्र - सहभूत नहीं है।
पतेन. । अतएव यहाँ यह वचन कि → 'जिमका प्रधगान्ययव्यतिरेक अप्राप्त हो और जो कप्तनिस्तपूर्वनिमत हो वह प्रकृत कार्य के प्रति अन्यधापित है। जैसे नघट के प्रति गसभविशेष, क्योंकि पृथगन्वयतिग्क का प्रतियोगी गधा नहीं बनता है' -भी निरस्त हो जाता है, चूंचि गभग्रानभाव की भांति रूपप्रागभाव का भी प्रधगन्चयन्यतिरंक मिलता | है । जर, में गन्धशागभार को जार का भी उत्पनिक्षणादन - परागभाव रहता है । रुपागभार में प्रधगन्धयतिंरक
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११ प्रति रूपप्रागभावस्यान्यथासिद्धत्वविचा
मि'त्यर्थोऽपि निरस्तः, गन्धप्रागभावस्येव रूपप्रागभावस्यापि पृथगन्वयादिमत्त्वात् । पृथमित्यादिना स्वावच्छेदकानवच्छिन्नेत्यादिविवक्षणमपि निरस्तम्; मन्धत्वावच्छेदेनाउप्युभयोरन्वयव्यतिरेकसम्भवात् ।
अत्राहुः 'अन्यत्र क्लुप्ते' त्यस्य 'अवश्यक्लृप्ते 'त्यर्थ: । अवश्यक्लृप्तश्चात्र गन्धप्रागभाव ॐ गयलता ॐ
रेकशून्यत्वेन तृतीयान्यथासिद्धत्वं इत्यर्थोऽपि निरस्तः पाकज्जगन्धं प्रति क्लृहनियतपूर्ववर्तिनां गन्धप्रागभावस्येव तं प्रति क्लुप्त नियतपूर्ववर्तिनो रूपप्रागभावस्यापि पृथगन्वयादिमत्त्वात् स्वनरज्ञानविरहयुक्ताज्ञातत्वशून्यान्वयव्यतिरेकप्रतियोगित्वात विशेषणाभावप्रयुक्तविशिष्टाभावान्न रूपप्रागभावस्य पाकजेगन्धं प्रति तृतीयान्यथासिद्धत्वं स्यादिति । न च स्वातन्त्र्यस्वरूपं पृथक्त्वनुपा देयमिति वाच्यम्, गन्धप्रागभावं विद्ययाऽपि जलादात्तिक्षणावच्छेदन रूपप्रागभावस्य सत्वेन स्वतन्त्रान्वयव्यतिरेकप्रतियोगित्वस्य रूपप्रासगावेनपायात् । ततः शरान्धे रूपप्रागभावस्य कारणत्वापत्तिरिवेति नन्वाशयः ।
एबव = परकजगन्त्रं प्रति रूपप्रागभावस्य पृथगन्वयव्यतिरेकप्रतियोगित्वप्रतिपादनेन च निरस्तमित्यनेनास्थान्वयः । पृथगित्यादिना स्वावच्छेदकानवच्छिन्नेत्यादिविवक्षणमपि । ततश्च पृथगन्वयव्यतिरेकराहित्ये सत्यन्यत्र क्लृप्तनियतपूर्ववर्तिताकसहभूतं तृतीयमित्यस्य स्वावच्छेदकानवच्छिन्नान्वयव्यतिरेकशून्यत्वं सन्यन्यत्र क्लृप्तनियतपूर्ववर्तिताकसहभूतं यत्नतृतीयमन्यथासिद्धमित्यर्थः प्राप्तः । यथा तद्भटत्वानवच्छिन्नान्वयव्यतिरेकशून्यस्य तटं प्रति क्लृप्तनियतपूर्ववर्तिनासहभूतस्य तद्रासभस्य ततेऽन्यथासिद्धत्वमित्यादिविवक्षणमपि निरस्तम्, गन्धत्वावच्छेदेनापि उभयोः = गन्धरूपप्रागभावयोः अन्वयव्यतिरेकसम्भवात् पाकजगन्धत्वानवच्छिन्नान्वयव्यतिरेकशून्यभिन्नस्य पाकजगन्धं प्रति क्लृप्तनियतपूर्ववर्तिताकगन्धप्रागभावसह भूतस्य रूपप्रागभावस्य पाक्रजगन्धत्वावच्छिन्ने तृतीयान्यधासिद्धत्वानायनेस्तदवस्थत्वात् ।
तथापि पाकजगन्धं प्रति गन्धप्रागभावेन रूपप्रागभावस्य तृतीयान्यवासिद्धत्वस्वीकार तु अवयवसनियतपूर्ववर्तितांकन पाकजरूपप्रागभावेन गन्धोत्पनिसम्भवे रूपप्रागभावेनैव गन्धप्रागभावस्य कुतो नान्यधासिद्धिः स्यात् तुल्ययोगक्षेमत्वात् । एतेन अपाकजस्थले सन्धं प्रति गन्धप्रागभावस्यैव हेतुता क्लृप्ता न तु रूपप्रागभावस्येति न रूपप्रागभावेन गन्धप्रागभावः पाकज| गन्धेऽन्यथासिद्ध इति निरस्तम्, अपाकजगन्थस्थलेऽपि गन्धं प्रति रूपप्रागभावस्यैव हेतुता क्मा न तु गन्धप्रागभावस्येति | न गन्धप्रागभावेन रूपप्रागभावः पाकजगन्धेऽन्यथासिद्ध इत्यस्यापि सुवत्वात् । किञ्चानेकद्रव्यत्वादन्यत्र महत्त्वस्य क्लृप्तनियतपूर्व वाभावेन तस्य प्रत्यक्षे महत्त्वेनान्यथासिद्धत्वं न स्यादित्यपि कश्चित् ।
नव्यनैयायिका अत्राहु: तृतीयान्यथासिद्धलक्षणपदकस्य 'अन्यत्र क्लृप्ते' त्यस्य 'अवश्यक्लृप्त' इत्यर्थः । ततश्च अवश्यक्त
की प्रतियोगिता होने से रूपप्रागभाव में पृथगन्वयव्यतिरेकशून्यत्व विशेषण नहीं रहना है। अतएव विशेषणविशिष्ट तृतीयान्यथानिद्धिलक्षण की भी रूपप्रागभाव में प्रवृत्ति नहीं होने से पाकज गन्ध के प्रति रूपप्रागभाव की कारणता की आपत्ति का परिहार नहीं किया जा सकता |
एवञ्च । अतएव यहाँ यह वक्तव्य भी कि पृथक् का अर्थ है स्वावच्छेदकानवच्छिन्न । अर्थात स्वावच्छेदकानवच्छिन्न अन्वयव्यतिरेक की प्रतियोगिता से रहित होते हुए जो चलृप्तनियतपूर्ववृनिसहभूत हो वह प्रकृत कार्य के प्रति अन्यथासिद्ध है। जैसे तदुघट के प्रति पूर्ववृत्ति तद्रासभ में कार्यतावच्छेदकत्वानयच्छित्र अन्वयव्यतिरेक की प्रतियोगिता नहीं होने से एवं क्लृप्तनियतपूर्ववृत्तिदण्डादि के सहभुत होने से तद्रासभ (विशेष गंधा) तदुद्घट के प्रति तृतीय अन्यथासिद्ध है' निरस्त हो जाता है, क्योंकि गन्धप्रागभाव एवं रूपप्रागभाव में रान्यत्याचच्छेदेन भी अन्वय एवं व्यतिरेक की प्रतियोगिता मुमकिन है । गन्ध की उत्पत्ति जहाँ होती है वहाँ गन्धप्रागभाव और रूपप्रागभाव दोनों पूर्व क्षणावच्छेदेन अवश्य विद्यमान ही होते हैं। अतः पाकजगन्थत्व से. जो विवक्षित कार्यतावच्छेदक है. अनवच्छिन्न अन्वयव्यतिरेक की प्रतियोगिता भी रूपप्रागभाव में मुमकिन होने में पाकजगन्धवानवच्छिन अन्वयव्यतिरेक प्रतियोगिता का अनाथय न होने की वजह रूपप्रागभाव में पाकज गन्ध के प्रति तृतीय अन्यथासिद्धत्व का उपपादन नहीं किया जा सकता ।
या तृतीय अन्यथासिद्ध के लक्षण का परिष्कार
उत्तरपश्न :- अत्राहुः | आपका यह वाणीविलास ठीक नहीं है, क्योंकि 'अन्यत्र क्लुप्त' का अर्थ है अवश्यक्लृप्त यानी लघु । तब तृतीय अन्यथासिद्ध का लक्षण यह प्राप्त होगा कि लघुनियतपूर्ववर्ती से ही कार्य की उत्पति सम्भव हो तो तत्मभूत
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* रामरुद्रभट्ट नृसिंहशस्त्रिमताऽवेदनम्
एव, गन्धरूपस्य प्रतियोगिनः उपस्थितत्वेन त्वरितोपस्थितिकत्वलाघवात् ।
नन्वत्र सहभाव: स्वबहिर्भावेन वाच्यः, अन्यथा स्वेनैव स्वान्यथासिदयापत्तेः । तथा
Male
* जयला कै
नियतपूर्ववर्तिताकसहभूतं तृतीयमन्यथासिद्धमि' नि प्राप्तम् । तथापि पाकजगन्धे रूपाभावस्य कथं गन्धप्रागभावेन तृतीयान्यथासिद्धत्वमित्याशङ्कायामाहुः अवश्यक्लृप्तश्च अत्र = पाकजगन्धं गन्धप्रागभाव एवं गन्धरूपस्य गन्धात्मकस्य प्रतियोगिनः = गन्धप्रागभावप्रतियोगिन उपस्थितत्वेन ज्ञातत्वेन त्वरितोपस्थितिकत्वलाघवात् । रूपप्रागभावप्रतियोगिनां रूपस्यानुपस्थितत्वेनोपस्थितिकृत गौरवान्न रूपप्रागभावस्य पाकजगन्ध प्रति अवश्यक्लृप्तत्वमिति तृतीयान्यथासिद्धत्वम् । अग्रपि गन्धरूपथः समानकालो त्यत्तिकत्वेन गन्धरूपप्रागभावयोः तुल्यमबश्यक्त्वं तथापि अभावज्ञाने प्रतियोगिज्ञानस्य कारणत्वेन गन्धरूपकार्योपस्थित्यनन्तरं गन्धप्रात भावस्यैव शीघ्रमुपस्थितिः सम्भवति न तु रूपप्रागभावस्य तदुपस्थित रूपज्ञानसापेक्षत्वादित्युपस्थितिलाघवेन गन्धं प्रति गन्धप्रागभाव एव नियतपूर्ववर्तित्वेनावस्यक्लृप्तः । पाकजगन्धरूप कार्यापस्थित्यनन्तरं तु गन्धरूपप्रागभावयोर्युगपदेवीपस्थितिः सम्भवति, रूपपरावर्तकतेज संयोगस्यैव पाकपदार्थतया रूपोपस्थितस्यावस्यकत्वात् । तथा चापाकजस्थले गन्धं प्रति अवश्यक्लृप्तनियतपूर्ववर्तिना गन्धप्रागभावेनैव पाकजगन्धीत्पत्तिसम्भव तं प्रति रूपप्रागभावी - ऽन्यथासिद्ध:' (मु.रा.पू. २१९) इति रामरुद्रः ।
अवश्यक्त्वञ्चाच लघुत्वम् । तथा च लघुनियतपूर्ववर्तिनः कार्यसम्भवे तत्महभूतमन्यथासिद्धमिति फलिनम् । लघुत्वश्चात्रोपस्थितिकृतं शरीरकृतं च तत्र प्रथमं गन्धं प्रति रूपप्रागभावापेक्षया गन्धप्रागभाव गन्धात्मकप्रतियोगिज्ञानसत्वे शीघ्रं तदुप स्थितरिति पूर्वमुक्तमेव । द्वितीयञ्चनिकद्रव्यसमवेतत्वापेक्षा महत्त्वं । तत्र हि महत्त्वमवश्यवलुप्तं तेनानेकद्रव्यत्वमन्यथ सिद्धम् । न च वैपरीत्ये किं विनिगमकमिति वाच्यम्, महत्वत्वजातेः कारणतावच्छेदकत्वं लाघवात् । अत्रानेकद्रव्यत्वं नानेकद्रव्यसमवेतत्वं, तस्य केऽपि सत्वेन यणुकप्रत्यक्षापनः । नापि समवेतसमवेतद्रव्यत्वं, आत्मप्रत्यक्षानुपपत्तेः ॥ अणुभिव्यत्वं तदित्यपि न, अशुभिन्नद्रव्यत्वं द्रव्यत्वविशिष्टागुत्वं वेत्पन्नाऽविनिंगमेन कार्यकारणभावद्वयापत्तेः द्रव्यत्वाशुभिन्नत्वयरिकसम्बन्धेन वृत्तित्वाप्रसिद्ध्या उभयत्वावच्छिन्नस्य स्वरूपासम्भवाच । किन्तु महत्त्व द्रवत्वोभयत्वावच्छिन्नं तदिति बोध्यमिति ( मु.प्र. पू. २१९) नृसिंहः । न चैवं तृतीयं सम्बन्धकृतं लाघवमादाय दण्डादिनाऽवश्यकत्वेन दण्डरूपादेरित एवान्यथासिद्धी प्रथमान्यश्वासिद्धिवैयर्थ्यमिति वाच्यम्, सम्बन्धलाघवकूनावश्यकत्वस्यात्राऽप्रवेशादिति प्रथमान्यथासिद्धिनिरूपण एवोक्तत्वात् । अत एव तृतीयं दण्डत्वदण्डरूपाद्यपेक्षया दण्डे, स्वाश्रयदण्डसंयोगादिघटितपरम्पराया गुरुत्वादिति महादेववचनं प्रत्युक्तम्, अत्र वक्ष्यमाणचतुर्धान्यथासिद्धपूर्वा तप्रथमान्यधासिद्धवैयर्थ्यापत्तेः ।
=
I
-
कन्चिच्छङ्कृतं ननु इति । चेदित्यनेनास्यान्चयः । अत्र = तृतीयान्यथासिद्धलक्षणवरे, अवश्यवलृप्तनियतपूर्ववर्तिनः सहभावः स्ववहिर्भावेन = लघुनियतपूर्ववृत्तिव्यतिरेकेण वाच्यः = स्वीकार्य:, अन्यथा = स्वावह्निभविनापि लघुनियतपूर्ववृनिसह भावीपगमे, स्वेनैव डादिनैव स्वान्यथासिद्धयापत्तेः = स्वस्य दण्डादेः तृतीयान्यथासिद्धत्वप्रसङ्गात् । न हि स्वस्मिन स्वसहभूतत्वं न वर्तत इति कचिद दृष्टं श्रुतं वा । बटं प्रति लघुनियतपूर्ववृत्तिदण्डादिसहभूतस्य दण्डदः तृतीयान्यथासिद्धत्वापनिरित्यर्थः । ततश्च स्वचभिविनय सहभूतत्वमुपादेयम् । तथा च लघुनियतपूर्ववृत्तित एव कार्योत्पत्तिसम्भव तद्भिन्नं तत्र तृतीयमन्यथासिद्धमित्यर्थः प्रकृत कार्य के प्रति अन्यधामिद्ध है । पाकज गन्ध के प्रति अवश्यक्लृप्त गन्धप्रागभाव ही है, क्योंकि गन्धप्रागभाव का प्रतियोगी गन्ध उपस्थित ज्ञात होने से गन्धप्रागभाव के ज्ञान में उपस्थितिकृत लाभच है । 'गन्ध के प्रति कौन कारण है ! इस प्रश्न के प्रत्युत्तर में रूपप्रागभाव को कारण नहीं बताया जा सकता, क्योंकि रूपप्रागभाव का प्रतियोगी रूप अनुपस्थित है। इसलिए रूपप्रागभाव की पाकजगन्ध का कारण मानने में उपस्थितिकृत गौरव है। जब कि रूप की अपेक्षा प्रतियोगिस्वरूप गन्ध की शीघ्र उपस्थिति होने से गन्धप्रागभाव को ही पाकजगन्ध का कारण माना जा सकता है। उससे रूपप्रागभाव अन्यघासिद्ध हो जाता है ।
नन्वत्र । यहाँ यह शंका होने का अवकाश है कि लघुनियतपूर्ववर्ती का सहभाव जिस तृतीय अन्यथासिद्ध में विवक्षित है वह सहभाव स्वबहिर्भाव से यानी लघुनियतपूर्ववर्ती से भिन्नत्वेन ही कहना पडेगा अर्थात् लघुनियतपूर्ववृत्ति से भिन्न तृतीय अन्यथासिद्ध है। अगर ऐसा न कहा जाय तब तो अपने से ही अपने में तृतीय अन्यथासिद्धि की आपत्ति आयेगी । जैसे घट के प्रति लघुनियतपूर्ववृनि दण्डादि से ही घटोत्पत्ति मुमकिन होने से दण्डादि का सहभूत वही दण्डादि घट के प्रति अन्यथासिद्ध बन जायेगा अपना सहभाव = मवृत्तित्व अपने में रहता ही है। इसलिए स्वहिर्भाव से सहभाव की विवक्षा
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2.६ मध्यमरपादादरहस्ये खण्डः . का.११ * तृतीयान्यधारिद्धः परिष्कृतारक्षणम * | च कारणाल्पत्वलाघवेन व्यापकधर्मावच्छिन्नस्य स्वस्यैव व्याप्यधर्मावच्छिन कथमन्यथा
सिन्तिरिति चेत् ? ल, 'स्वाबहिविनाऽपि अवश्यक्लुप्सनियतपूर्ववृत्तितावच्छेदकावच्छिन्नसहभावनिरूपकतावच्छेदकरूपेणान्यथासिद्धिरित्यत्र तात्पर्ये दोषानवकाशात् ।
- जयता * प्रामः । करणाल्पत्वलाघवेनति मूलाई हाउः नत्र छ. 'कारणालाललायन सिद्धः पाठः प्रतिभाति, अन्यत्रापि सदैव नपलम्भात् । लभानकाशः ननुवादी सम्प्रतं दोषमाविर्भावयति - व्यापकधर्माचचिन्नस्य = तत्कारणनातिरिक्तवृत्तिधर्मावच्छिन्नस्य, स्वस्यैव व्याप्यधर्मारच्छिन्नेन = तत्कारगतासमनिपत धर्मावच्छिन्न कथं अन्यथासिद्धिः = तृतीयान्पधासिद्धत्वम् । अयं भावः दाइत्ववत इत्यत्वादिकमपि जातिरूपतया स्वरूपता लघु पनियतपूर्वस्तिावच्छेदकमेव किन्तु दम्पत्वस्य पदनियतपूर्ववृत्तिता. बच्छेदकत्वनानन्तपु दण्डघटादिषु द्रव्यः घटकाराणन्वकल्पनापन्या कारणबाहुल्यम । दण्डत्यस्प घनियनपूर्ववृत्तिनावच्छेदकले च कारणत्वकल्पनापल्या कारणबाइल्पभ् । दण्डत्वस्य घनियनपूर्वनिनावचंदकन्ये च कागणापत्वलाघचम । अनो व्यापकधर्मग दमदनावच्छिन्नस्य दरस्य घटं प्रति दण्डवलक्षणच्याप्यधर्मावजिनेनान्यथासिद्भिरिति सर्वसम्मत न्यायवालमर्यादा । परन्तु ज्युनियनपूर्ववृत्तिभिन्नस्य तृतीयान्यथासिद्धत्वस्वीकार द्रश्यत्वावच्छिन्स्य दण्डस्य दण्डत्वावचिन्नेनान्यधामिद्भिर्न स्यात् लयुनियनपूर्वबर्तितावादकदण्डल्लाबन्निभिन्नत्वस्य द्रव्यत्वावछिन्न दण्डे विग्हान । ननः घटं प्रति व्यत्वेन दण्डस्यान्यवासिद्धिः दण्डवेन वामन्यथासिद्धिरिति प्रसिद्धप्रामाणिकव्यवहारोपपर्निन स्वान यदि सहभावः स्वबहिबिन स्वीक्रियत स्वाध्यहिभविन सहभावविवक्षणे व स्वयंच स्रेनान्यथासिद्धत्व प्रसज्यतेत्युभयतः पाशारजुरिति नन्चाशनः । ____नैयायिक: ननिराकरोति -नेति । स्वावहिवन = अवयवटुप्तनियतपूर्ववृत्तिव्यतिरेकअन्यत्वेन पहभावविवक्षायां अपि अवश्यक्लप्तनियतपूर्वनितावच्छेदकावचिन्नसहभावनिम्पकतावच्छेदकरूपण - लपनियतपूनित्यावच्छेदकावन्नित्य या महभाव तन्निरूपकताया अवच्छेदकधर्मेण तृतीय अन्यधामिद्धिः इत्पत्र तात्पर्य टोपानवकाशात् = व्यापकधांवभिन्नभ्य न्यायधर्मावच्छिन्नान्यथासिद्धत्वप्रसङ्गापारम्भबान । घर पनि लपनियतपूर्वनिताबच्छेदकेन दण्डवनायन्छिन्त्रस्य यो दण्डनिष्ठः साभारः तन्त्रिरूपकताया अबन्छन्दकत्वं द्रव्यत्यादी न तु दण्डन्च एब, निगका इशादमधानपपनः । नतो बदं प्रति व्यतन करनी आवश्यक है । नच लक्षण यह प्राप्त होगा कि लघुनियतपूर्ववृत्ति से ही कार्यसम्भव होने पर उनपसे भिन्न नृतीयअन्यधासिद्ध है। अथांत लघुनियतपूर्ववृत्ति और तत्सहभूत में परम्पर भेद होना आवश्यक है। मगर ऐसा कहने पर कारणाल्पत्यलाधर हनु से व्यापकचारदिन की व्याप्यधर्मापनि से अन्यथासिद्धि हानी. जो कि प्रसिद्ध एवं प्रामाणिक है, नामुमकिन हो नायगी । आशय यह है कि घट के प्रति लयूनियनपूवृनि दश्ट को दण्इत्येन कारण माना जाता है न कि दव्यत्वेन, क्योंकि द्रव्यन्वन घटकारणता का स्वीकार करने पर रण्ड की भाँति घट, पट, मठ आदि अनन्त द्रव्यों में घटकारणता के स्वीकार की आपत्ति आयेगी, जिसमें कारणबाहुल्य की कल्पना का गौरव है। इसकी अपेक्षा दण्डवन घटकारणता का स्वीकार करने में कारणापत्यकृत लाधन है, क्योंकि तब दण्ड को छोड़ कर घट, पट, मठ आदि में घटकारणता की कल्पना का गौरव प्रमन नहीं होना है। दण्डत्व की अपेक्षा व्यत्व व्यापक - अधिकदेशनि धर्म है, जब कि द्रव्यय की अपेक्षा दण्डत्व च्याप्य = न्यूनदेशवृनि धर्म है। इसलिए घट के प्रति दण्ड दन्यत्वेन अन्यथासिद्ध कहा जाता है और दण्डवन अनन्यवासिद्ध कहा जाता है । यह वस्तुस्थिति है । मगर लघुनियनपूर्ववृत्ति से भित्र में ही अन्यथामिद्धि का स्वीकार किया जाय तर तो दण्ड में व्यत्वेन अन्यथासिनि नामुमकिन बन जायेगी, क्योंकि लघुनियतपूर्वनि दण्ड से भिन्नत्व द्रव्यत्वावच्छिन्न दण्ड में नहीं है। तर घर के प्रति अभ्यत्वावच्छिन्न में दण्डत्वावचिन ने अन्यधानिद्धि का समर्थन नहीं हो सकेगः' - ।
सामात IISA से भी मुमpिot ने. न्या. । मगर इसके समाधानार्थ नव्य नैयायिकों की ओर से यह कहा जाता है कि अवश्यम्लुप्तनिपतपूर्ववृनि का बहिर्भाव किये बिना भी सहभाव का तृतीय अन्यथासिद्ध में स्वीकार करने में कोई दीप नहीं है। मगर फिर भी व्यापकधर्मावच्छिन्न की न्यायधर्मावनि से अन्यपासिद्धि होने में कोई असंगति नहीं होगी, क्योंकि तुताय अन्यथासिद्धि का लक्षण यह बनाया जा सकता है कि अवग्यक्लप्सनियतपूर्ववृत्तितावच्छेदक ( = लघुनियतपूर्वनितावच्छंदक) से अवच्छिन्न के महभाव के निरूपकतारच्छेदकधर्मेण नृनीयाऽन्यवासिद्धि होती है । घट की अपेक्षा अवाएक्लृप्तनियतपूर्ववृतितावाछेदक धर्म दण्डव है । दण्डत्वावच्छिन्न का सहभाच यद्यपि दण्ड में भी है नथापि सहभाव की निरूपकता का अवच्छेदक धर्म दण्डन्य नहीं है, किम्न द्रव्यमादि है। स्वावच्छित्रसहभाव की निरूपकता का अवच्छंटक धर्म स्व नहीं होता है, अन्यया निराकांक्ष शन्द बांध होना ही नामुमकिन
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* गदाधराक्तिप्रदर्शनम * | न चैवं दाडचक्रादेर्मियोऽन्यथासिन्दिः; चक्रत्वादिनापि नियतपूर्ववर्तिताया आवश्यकत्वात् ।
नतु तदघटादौ तद्रासभस्यापि कुतो नावश्यकत्वमिति चेत् ? घटत्वावच्छिन्नं प्रति क्लुप्तनियतपूर्ववर्तिसमाजादेव तत्सम्भवे तत्समनियत इव तावश्यकल्पनालुदयात् ।
-* जयलता *दण्डस्पान्यथासिद्धत्वमनपायमेव । ततो न व्यापकभापनिने ब्दागधर्मालमियान्यधासिहल्गरम्भ्यः । तद्नं गदाघरेण . 'प्रकृतकार्य प्रति यद्धर्मव्याप्यधर्मस्यागुरो. कारणनावच्छेदकचसम्भवस्तदवच्छिन्नं च प्रकृतकार्यन्यथासिद्धम, यधा घटादा द्रव्यत्वाद्यवच्छिन्नम, घटादिप्रनकार्यजनकतावन्दकञ्च तण्डत्वादे, तस्य द्रव्यत्तच्याप्यन्चात् । न च एवं = निरुक्तरीत्या द्रव्यत्वस्यान्यामिद्धिनिरूपकतावच्छेदकत्यापपादन, त दण्डचक्रादेः मियोऽन्यथासिद्धिः प्रसज्यंत. चक्रवस्य दण्डत्त्वावन्नमहभावनिरूपकतावच्छेदकत्वात् दाइल्यस्य च चक्रत्वावच्छिन्नसहभानिरूपकताबच्छदकत्वान्, दण्डादेः कादिभि पद सम्भूयेव घटजनकलादिति वनव्यम्, चक्रत्वादिनाऽपि नियनपूर्ववर्तिताया आवश्यकत्वान् = अवश्यक्रमत्वात् उपनियन पूर्वनिनावचंद्रकले न केवल दण्डवस्य ग्रहणं किन्तु दण्डन-चक्रत्व-नीवरलादीनामब. अन्यथा केवलादव दण्डाद घटोत्पादापनः । तत: चक्रत्वादे घटं प्रति लघुनियतपूर्ववृत्तितावच्छेदकावच्छिन्नदन नसत्सहभानिरूपकतावच्छेदकत्वम् । अता न चक्रत्यादिना न्यथामिद्धत्यामङ्गः:
नन् विना रासभमृत्पन्नं घट प्रत्यस्तु नस्य नियतपूर्ववृत्तित्वाभावादेवान्यधासिद्धत्वं किन्तु यत्र घटत्यतो रासनम्य पूर्वनित्वमस्ति नदुग्पनिकारणतायां नद्रासभस्य कुतो नानन्यथा सिद्धत्वमित्याशयेन शतं कश्चित् - नन् तद्घटादी = नद्रामभोजर. कालीननिशिष्टघटादिकं प्रति पूर्ववर्तिनः तद्रासभस्यापि नद्रासनत्वेन कुतः = कम्मा तो: नावश्यकत्वं = नायग्यक्लप्तत्वं ? इति चेत् ! उन्यने, घटत्वावच्छिन्नं प्रनि क्लुननियतपूर्ववर्तिसमाजादेव दण्डचक्रचीवरकुलालादिकारणकलापादेव तत्सम्भवे = गसमीनरकालीनघटोतात्तिनिर्वाह तत्समनियते = तटव्यक्तिसमनियन दण्डरूपादा इव तत्र - तद्रासमें अवश्यकल्पनानुदयात = अश्यक्लूमत्वामानात् । तद्रासभरय मुनिकानयन एवोपक्षीणनम्, न तु नघटोत्पादनं च्या प्रयामणत्वन् । मुनिकानपन्न
हो जायेगा । इस तरह द्रव्यत्वन दण्ड में घट के प्रति अन्यथासिद्धत्य की अनुपपनि नहीं है, भले ही इन्यत्त्वावच्छिन्न दण्ड से दपइन्यावनि अभिन्न हो ।
Ea usicनादि जो नियतपूर्वdिic[ra न चैवं. । यहाँ यह शंका हो कि –> 'अवश्यक्लमनियतपूर्ववृत्तितावच्छेदकावच्छिन्न के महभाव = साहित्य की निरूपकता का अवच्छेदक धर्म अन्यथासिद्धिनिरूपकतावच्छेदक है. यह स्वीकार करने पर ना दण्ड में चक्रादि भी घट के प्रति अन्यधासिद्ध बन जायेंगे, क्योंकि दण्डवारश्टिन के सहभाव की निरूपकता, जो चक्रादि में रही है, का अवच्छंटक चक्रत्वादि धर्म में अचन्जिन = विशिष्ट चक्रादि है। चक्रादि भी दण्ड का सहभूत ही होता है 1 एवं जब अवश्यक्तृप्तनियनपुर्ववृजितावच्छंदधर्मविधया चक्रत्व का उपादान किया जाय तब घट के प्रति दण्डादि अन्वयागिद्ध बन जायंगे, क्योंकि चक्रत्यावचित्र के सहभाव की निरूपकना का, जो दण्टादि में रही है, अवच्छेदक दण्डवादि धर्म से अवभिन्न = विशिष्ट दण्डादि है । दण्डादि भी चक्र का सहभून ही होता है। इस तरह दण्ड-चक्रादि में परस्पर से ही परस्पर में अन्यथासिद्धत्व की आपनि आयगी' <-- तो इसका समाधान केवल यही है कि जैसे दण्डन्य अवश्यक्त नियतपूर्ववृत्तिता का अवच्छेदक है ठीक वैसे ही चक्रत्व आदि भी अवश्यक्लुप्त नियतपूर्ववृत्तिना का नियामक है । अतः अवश्य-क्लप्सनियतपूर्ववृत्तितावच्छेदवावचिन केवल दण्ड नहीं है, बल्कि चक्र-चीवर-कुल्लालादि भी है। दण्ड-चक्र-चीवर-कुलालादि के सहभाव की निरूपकना की, जो रासभादि में रहती है, अवन्दकना रामभत्वादि में ही आपेगी, जिससे रामभाडि ही घट के प्रति दण्ड-चक्र-चीवर्गाद ने भन्यथासिद्ध होगा । जस गमभादि का अवश्यक्लप्सनियतपूर्वनितावच्छेदकावचिठन से पहिभाव होता है वैम चक्रादि का रहिआंच नहीं होता है। इसलिए दण्ड से चक्रादि में या चक्रादि में दण्डादि में घट के प्रति अन्यामिद्धत्व की आपत्ति को अवकाश नहीं है।
हद में भी द्रास यासह नन. । यहाँ इस शंका के वि → 'घट सामान्य के प्रति गसभ को अन्यथासिद्ध कहना ठीक है मगर घटविशेष, जो गमभोत्तरकालीन है, के प्रति गसविशेष, जो पटविशेपोत्पत्तिपूर्वक्षणावच्छेदन विद्यमान है, क्यों आवश्यक नहीं होगा?' <- समाधानार्थ यह कहा जा सकता है कि असामान्य के प्रति क्लुप्तनियतपूर्ववती दण्ड, चक्र, चीवर, कुलालादि के समुदाय से ही, जिसकी उत्पत्ति के अव्यवहितपूर्वक्षण में गसभ रहता है उस घटविशेप की, उत्पत्ति मुमकिन होने से न्द्रामभ में
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१८५८ मध्यमस्वाद्वादहरू खण्ड: ३ का. ११
* कारणतावादमंत्राः *
यमादायैव यस्यान्वयव्यतिरेको गृह्येते तेन तदन्यथासिद्धमिति चतुर्थम् । यथा दण्डादिना दण्डत्वादि । न चाद्ये एवास्यान्तर्भाव: दण्डादेः दण्डत्वादित: पृथगन्वयाद्यभावात्; यमवच्छेदकीकृत्य यस्यावच्छेद्यस्यान्वयव्यतिरेक गृहस्तेनाऽवच्छेद्येन तस्यावच्छेदकस्यान्यथासिद्धिरित्य
* जयलवा *
तु दास्यादितोऽपि सम्भवति । न च दास्यादेरपि तदुद्घटादावावश्यकत्वम्, तद्घटजातीयं प्रति क्लृप्तकारणभावदण्डादिभिरेव तद्घटस्यापि सम्भवेन तत्राऽप्यवश्यक्लृप्तत्वाज्ञानात् । तदुक्तं गदाधरेणापि कारणतावादे अवस्यक्लृप्तनियतपूर्ववर्तिन एवं कार्यसम्भवे तत्सहभूतं यदूधर्मावच्छिनं तद्धर्मावच्छिन्नमपि तत्रान्यथासिद्धं यथा पात्रजगन्धादी रूपादिप्रागभावः । तत्र हि सुरभ्यसुरभि - मदवयवारब्धघटादौ पाकजगन्धप्रागभाववति रूपादिप्रागभाववति गन्धोत्पादवारणाय तत्प्रागभावस्य तन्नियतपूर्ववर्तित्वस्य कल्पनादिति (बा.वा.का.वा.उ.२०३) |
यं दण्डत्त्वादिकं आदाय = गृहीत्वा एव यस्य दण्डः घटं प्रति अन्वयव्यतिरेकी अन्वयव्यतिरेकातियोगित्वं गृह्येते तेन दण्डादिना तदन्यथासिद्धं = दण्डत्वादि अन्यथासिद्धं चतुर्थम् । यथा दण्डादिना दण्डत्वादि । दण्डादरखण्डीपाविजातिव्यतिरिक्तत्वेन किञ्चित्प्रकारेणैव तस्य बटं प्रति अन्वयव्यतिरेकप्रतियोगित्वज्ञानसम्भवः । स च प्रकारीभूतो धर्मो दण्डवादिकः । दण्डत्वादिकं ज्ञात्वैव घटं प्रति दण्डस्यान्वयव्यतिरेकग्रहसम्भवात् घटं प्रति दण्डादिना दण्डत्यादिरन्यथासिद्धः ।
-
=
ननु आये अन्यथासिद्धे एव अस्य चतुर्थान्यथासिद्धस्य समावेशः क्रियतां किं तत्पार्थस्य तदुपदेशेन ? दण्डादिना सहैव दण्डत्वस्य घटं प्रति पूर्ववृत्विग्रहात् कुतः ? उच्यते दण्डत्वत्वं हि दण्डेतरावृत्तित्वे सति सकलदण्डवृत्तित्वस्वरूपम् । दण्डत्वत्वेनैव दण्डत्वस्य घटं प्रति पूर्ववृत्तित्वग्रहसम्भवं दण्डादिना सहैव दण्डवान्वयव्यतिरेकयोः सिद्धेः । न हि घटकवहिर्भावन घटितान्वयव्यतिरेकी गृह्येते इति प्रथमातिरेकेणैतत्रिरूपण अर्धमित्याशयमपाकर्तुं नैयायिका उपक्रमन्ते न चेति । तन्निराने हेतुमाहु: दण्डादेः दण्डवादितः पृथगन्वयाद्यभावात् दण्डत्वादिविनिर्मोकणान्वयव्यतिरेकप्रतियोगित्वग्रहासम्भवात् । यथा दण्डरूपादिकमविज्ञायापि दण्डादे घटं प्रति अन्वयव्यतिरेकप्रतियोगित्वग्रहः सम्भवति तथा दण्डत्वादिकमनवबुध्य दण्डः घटं प्रत्यन्वयव्यतिरेकप्रतियोगित्वज्ञानं नैव सम्भवतीति विशेषान्नास्यादिमान्यधासिद्धे समावेदाः सम्भवति । निरुफलक्षणादिदमवगन्तुं यं अवच्छेदकीकृत्य कारणतावच्छेदकं कृत्वा यस्य = अवच्छेयस्य अन्वयव्यतिरेकग्रहः = न शक्यत इत्यत आहुः अन्वयव्यतिरेकनिरूपित प्रतियोगित्वज्ञानं भवति तत्र तेन अच्छेन तस्य = अवच्छेदकस्य चतुर्थी अन्यथासिद्धिरित्यर्थात्
=
-
=
1
उस घट की अपेक्षा अवश्यवलृप्तत्व का भान नहीं होता है । जैसे दण्ड- चक्रादि के समतियत दण्ड, चक्रत्वादि में, जो घटनियतपूर्ववृत्ति हैं, पट की अपेक्षा अवश्यकतत्व का भान नहीं होता है ठीक वैसे यह भी ज्ञातव्य है । इस तरह तृतीय अन्यथासिद्ध का निरूपण पूर्ण हुआ । अब चतुर्ध अन्यथासिद्ध का निरूपण हो रहा है ।
ॐ चतुर्थ अन्यथासिद
या । अन्य किसीको लेकर ही कार्य के प्रति जिसका अन्वयव्यतिरेक ज्ञात हो वह प्रकृत कार्य के प्रति अन्य से चतुर्ध अन्यथासिद्ध होता है । अर्थात् किसी कार्य के प्रति जिसका अन्वय तथा व्यतिरेक स्वतन्त्ररूप से नहीं बन पाता, अपितु अन्य ( = अपने आश्रय प्रकृतकार्यकारण) को लेकर ही जिसके अन्वयव्यतिरेक का निश्रप जिस कार्य के प्रति किया जाय उस कार्य के प्रति वह वस्तु अपने आश्रय से अन्यथासिद्ध है, जैसे घट के प्रति दण्डादि में दत्त्वादि अन्यथासिद्ध | है । यट के प्रति दण्ड का अन्वयव्यतिरेक दण्डत्व को लेकर ही बन पाता है, क्योंकि इण्डत्वेन रूपेण ही cs को कारण माना जा सकता है। इस तरह दण्ड के अन्वयव्यतिरेक का ज्ञान इण्डत्व को लेकर ही हो सकता है । इसलिए घट के प्रति दण्डत्व ण्ड के द्वारा चतुर्थ अन्यथासिद्ध बनता है । यहाँ इस शंका का कि 'चतुथं अन्यथासिद्ध दण्डादि का प्रथम अन्यथासिद्ध ause आदि में ही अन्तर्भाव क्यों नहीं किया जाता है ? - समाधान यह है कि दण्ड आदि को aण्डत्वादि से कभी भी पृथक कर के घट के प्रति अन्वयव्यतिरेक का ज्ञान नहीं हो सकता है। अखण्ड उपाधि एवं जाति अतिरिक्त होने की वजह दण्ड का किञ्चिद्धमंत्रकारेण ही भान हो सकता है। इसलिए दण्ड का अन्वयव्यतिरेक दण्डत्वेन ही होगा । जब कि दण्डरूप के बिना भी दण्ड के अन्वयव्यतिरेक का ज्ञान हो सकता है। अतः जिसकी अवच्छेदक बना कर के उससे अवच्छेय का अन्वयव्यतिरेक ज्ञात होता है वहाँ अवच्छेद्य से अवच्छेदक अन्यथासिद्ध बनता है - अपटन करने पर किसी दोष का अवकाश नहीं है। दण्डव दण्ड का अवच्छेदक है और दण्ड उससे अवच्छंग है । अतः
ऐसा
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* दण्डत्वेन दण्डन्यथासिद्धिनिरास: * ति । न तह प्रथमान्तविः, तत्र दण्डादिनाऽवच्छेदकेन दण्डरूपादेवच्छेद्यस्यैवान्यधासिन्दः ।
ननु दण्डत्वत्वस्य दण्डघटितत्वातस्यावच्छेदकत्वे दण्डस्याप्यवच्छेदकत्वात् दण्डत्वेनैव दण्डस्य कुतो नाल्यधासिद्धिरिति चेत् ?
-* जयलवा * घटकारणनावच्छेदकं हि दण्डत्वाति, न तु दण्डरूपत्वादि । दण्डत्वादिकमवच्छेदकीकृत्य दण्डादेरन्नयन्यतिरकप्रतियोगित्वज्ञानाद दण्डादिना दण्डत्वादेः यट प्रति चतुर्थान्यधामिद्धत्वम् । यद्यपि दण्डत्व द्यवच्छंद्यत्वं दण्टादिनिष्ठकारणनामामेव, न तु दण्डादा, धर्मिणोऽनिम्प्यत्वान् तथापि प्रकृनयन्छे द्यत्वं न सीमाकरणात्मकमभिप्रेतं किन्तु विशिष्टत्वम्पमिति न दंषः । न चैवं दण्डाददण्डरूपादिविशिष्टत्वेन दण्डागांदरपि चतन्यथासिद्धत्वप्रसङ्ग इति वाच्यम, दण्डरूपादेः घटकारणतानवच्छेदकत्वनैव तदसम्भवान् ।
ननु मास्तु चतुर्थस्य प्रथमे:न्तर्भावः कन्नु प्रकृत एवाद्यय समावेशः कुतो न क्रिमने ? न च दण्डरूपस्य घटकारणनाबच्छेदकल्वाभाचन नथात्वासम्भवोऽनुपदमेचीक्त इति वाच्यम्, सङ्काचकरणे मानाभावेन अवच्छेदकत्वादरूप कारणतावच्छंदकत्वार्थपरत्वाच्योगात शक्तिप्राप्तविशेषणत्वार्थ कल्वीचित्यात दाण्डरूपस्यापि दण्डविशेषणत्वं बाधकाभावादित्यभिप्रायमपहातयितमपक्षिएन्ति - न वा इह = चतुधांन्यासिद प्रथमान्तर्भावः = आदिमान्यथासिद्धस्य समावेशः सम्भवति । अत्र दोषमपदर्शयन्ति - तत्र = प्रथमान्यधासिद्धस्थले दण्डादिना अबच्छेदकन = प्रकृतवच्छेदकीभूतन दण्डाविशेषणेन दण्डरूपादेः अवच्छेदस्य = प्रकारीभूतदण्डनिरूपितविशेष्यनावतः एव अन्यथासिद्धेः। प्रकृत त्ववच्छचनाचच्छदकस्यान्यथासिद्विरिति विशेषः । यता घर प्रनि दण्डरूपस्य नियतपूर्ववृत्तित्वीपगमे अवच्छेद्यं = विशेष्य दण्डरूमच्यात तच स्वसमवतत्वसम्बन्धन दण्डात्मकविशेषणविशिष्टमिति दण्डस्यावच्छेदकना प्राप्ता । ततः दण्डमवच्छेदकीकृत्म = विदोषणीकृत्यावच्छेद्यस्य = विशेष्यस्य दण्डरूपस्य घटं प्रति अन्वयव्य. तिरेकम्पनियोगित्वग्रहणात अबछयन दण्डरूपेणावछन्दकस्य दण्डस्य घटं प्रति प्रकृतान्यधासिद्भत्यापनिर्दवारच स्यात् । न चैतदभिमतम् । अतो दण्डरूपस्य घटं प्रति अन्यथासिद्भत्वोपपादनकृने चतुर्थान्यथासिद्ध नादिमान्यथासिद्धान्तभावः ऋतुमर्हतीनि एतदतिरकेण तत्प्रदर्शनस्य न्याय्यत्वमवति नैयायिकाशयः ।।
कश्चिन्छकते . ननु दण्डत्वत्वस्य दण्डत गनित्व सति साकल्टपत्तित्त्वात्मकन्या दण्यटितत्वेन तस्य = दण्इन्च त्वस्य अवच्छंदकाचे = विशेष्यभृतदनिरूपितप्रकारतावच्छेदकत्वे दण्डस्यापि भवजनेदकत्वात् घटं प्रति दण्डत्वेनैव दण्डस्य कुतो नान्यथासिद्धिः? अयं भावोट प्रति दण्डस्य पूर्ववृनित्ये यधा दण्डलमवन्छेदकं भवति तथा दण्डत्वस्थ नियनपूर्ववृतित्वे दण्डत्वत्वमयच्छेदकं भवति । नतश्च दण्डत्वमवच्छेदकीकृत्य दण्डस्यावच्छेद्यस्यान्वयन्यतिरेकग्रहाद दाडन यधान्यथासिदत्व दण्टत्वस्यानुपदमेवोक्तं तथैव दण्डत्वत्वमवच्छेदकीकृत्य दण्डत्वस्यवच्छेद्यम्यान्चयन्यतिरेकग्रहाद् अवाळे छन दण्डत्वनावहंदकरय दण्डस्य घटं प्रत्यन्यथासिद्धत्वमापद्येत, अवच्छेदकारीरबटकस्याप्यवच्छंदकत्वात् । न हि प्रकारतावच्छेदकस्य प्रकारत्वा पगमे केषामपि विप्रतिपत्तिरस्ति । ततो दण्डस्यान्यथासिद्धत्वापत्तिस्तदवस्थ्य अनिरिक्तचतुर्थान्यधासिद्धाकार पाति खण्डिनेऽपि दण्डस्वरूप अवोध से उसका अवच्छेदक दण्डत्व घट के प्रनि अन्यथासिद्ध होता है । यहाँ यह भी नहीं कहा जा सकता है कि -> 'चतुर्ध अन्यथामिद्ध का प्रथम अन्यभासिद्ध में समावेश मत हो लेकिन चतुर्थ अन्यथामिद्ध में प्रथम अन्यधागिद्ध का समावेश करना तो उचित ही है क्योंकि यदि प्रथम अन्यथासिद्ध का चतुर्थ अन्यथासिद्ध में ममाश किया जाय नव नो दण्टरूप से दण्ड ही अन्यधासिद्ध बन जायगा । इसका कारण यह है कि दपद्ध दण्टुरूप का अवच्छेदक = विशेषण है, और दृष्टुरूप उसका अवच्छेद = विशेष्य है । दण्डप का अन्वय-व्यतिरेक दण्ड के पुरस्कार से ही मुमकिन है । जब कि प्रधम अन्यथासिद्ध के लक्षणानुसार दण्ड, जो यहाँ अपच्छेदक बनता है, उससे देडरूप की, जो यहाँ अचच्छेग है, अन्यधासिद्धि होती है । इसलिए चतुर्थ अन्यमासिद्ध में प्रभम् अन्यथामिद्ध का समावेश नहीं किया जा सकना - यह फलित होता है।
दण्डत्व ६usi Heसिकीका ननु . । यहाँ यह शंका हो सकती है कि → 'घट के प्रति दण्ड का दण्डान कारण मानने पर जसे दण्डव अवच्छेदक बनता है वैसे दाइत्व को नियतपूर्ववृनि मानने पर दण्डवत्व अवच्छेदक होता है। मगर दण्मृत्वत्व तो दण्डेनगऽवृनिन सनि सकलदण्डवृत्तित्वस्वरूप होने से टण्ड से घटिन है। तब तो दण्ा भी अवदय बन जायेगा और दण्डपटित दण्डत्वाव की. अपेक्षा दण्डल अवच्छंद्य बन जायेगा। तर तो अवच्छंय दण्डन्स से अपञ्टय दर में चतुर्थ अन्यपासिद्धत्य की आपत्ति मह फाई खड़ी रहगी" ।
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८६० मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः ३ का. १६
** गदाधरमतोपदर्शनम् *
'यं पृथगन्वयव्यतिरेकशून्यमित्यस्य विवक्षितत्वात् । अत एव विनिगमनाविरहस्थले नान्यथासिद्धि: ।
'स्वजन्यस्य यं प्रति पूर्ववृत्तित्वं गृहीत्वैव स्वस्थ तत्त्वग्रहस्तत्र स्वमन्यथासिद्धम्' (4) * नयलता है
इहिले न शान्ता वासनेति न्यायापातः इति नन्वाशयः ।
नैयायिकाः समादधते 'यं' = पृथगन्वयव्यतिरेकशून्यं' इत्यस्यार्थस्य विवक्षितत्वात् । ततश्च पृथगन्वयव्यतिरेकशून्यं यमवच्छेदकीकृत्य यस्यावच्छेद्यस्यान्वयव्यतिरेकप्रतियोगित्वग्रहस्तेनावयेन तस्यावोदकस्य चतुर्थाऽन्यथासिद्धिरित्यर्थः फलितः । पृथक्त्वञ्चान्याघटितत्वस्वरूपमुपादेयम् । एवश्व न दण्डवेन दण्डस्य घटं प्रति चतुर्थाऽन्यथासिद्धिः । दण्डत्वस्य घटं प्रत्यन्वयव्यति रेकग्रहसम्भवी दंडादेववनयच्छेदक कृतीति दस्तक प्रामं अच्छेदकतावच्छेदकस्याऽयवच्छेदकत्मत् किन्तु अन्यादितान्वयव्यतिरेकशून्यत्वं दण्डे नास्ति, दण्डान्वयव्यतिरेकयोर्दण्डतरा घटितत्वात् । ततः पृथगन्वयव्यतिरेकयोस्तु दण्डघटितत्वेनाऽन्याऽघटितत्वलक्षणपृथक्त्व शाल्यन्वयव्यतिरेकप्रतियोगित्वशून्यत्वस्य दण्डवं सत्त्वात् प्रधगन्वयव्यतिरेकशून्यस्यावच्छेदकस्य दण्डत्वस्यावच्छेद्येन दण्डेन पदं प्रति चत॒र्धान्यधासिद्धत्वोपपत्तिः । अत एव = चतुर्थान्यथासिद्धत्वेनाभिमतावच्छेदकस्य पृथगन्वयव्यतिरेकशून्यत्वविशेषणदेव विनिगमनाविरहस्थलं नान्यथासिद्धिः । घटं प्रति दण्डस्यान्यथासिद्धत्वं दण्डसंयोगस्य वा ? इत्पत्राविनिगमें नैकस्याप्यन्यथासिद्धत्वम् । अन्यथा दण्डीकृत्य दण्डसंयोगस्य घटं प्रति अन्वयव्यतिरेकग्रादवच्छेदन दण्डसंयोगं नावच्छेदकस्य दण्डस्यान्यथासिद्धिः चतुर्धा प्रसज्येत । पृथगन्वयव्यतिरेकराहित्यस्यावछेदकविशेषणत्वापगमे तु न दण्डसंयोगेनावच्छेद्येन दण्डस्य चतुर्थान्यथासिद्धत्वप्रसङ्गः, दण्डस्य स्वंतराज्घटितान्वयव्यतिरेक प्रतियोगित्वेन निरुक्तावच्छेदकत्वविरहात् । न च दण्डसंयोगस्य दण्डवदितान्वयव्यतिरेकप्रतियोगित्वेन पृथगन्वयव्यतिरेकनिरूपित प्रतियोगित्वशून्यत्वेन दण्डेनान्यथासिद्धत्वापत्तिरिति वाच्यम्, दण्डसंयोगस्य पृथगन्वयव्यतिरेकप्रतियोगित्वशून्यत्वेऽपि नमवच्छेदकीकृत्य दण्डस्य घटे प्रत्यन्वयत्र्यतिरेकाग्रहान्न तस्य दण्डेनान्यथासिद्धत्वसम्भवः । इत्थश्च न विशेषणाभावप्रयुक्तविशिष्टावच्छेदकत्वविरहात् दण्डस्य उण्डसंयोगनान्यथासिद्धि:, न वा विशेष्यावच्छेदकत्वाभावप्रयुक्तविशिष्टविरह दण्डसंयोगस्य दण्डेनान्यथासिद्धिः । इत्थञ्च न दण्डादेर्मधो ऽन्यथासिद्धिरिति भावनीयम् ।
गदाधरस्तु येन रूपेण परवृद्वाकार्यं प्रति पूर्ववर्तित्वमवगम्यतं तादृशकार्य प्रति तद्रूपमन्यथासिद्धम, यथा घटादिकं प्रति दण्डत्वादिकमिति प्रोक्तवान ।
चतुर्थमन्यधासिद्धं निरूप्य साम्प्रतं पञ्चमान्यधासिद्धं नैयायिका प्रदर्शयन्ति स्वजन्यस्य स्वनिरूपितजन्यनाश्रयस्य
चतुर्थ अन्यथासिद्ध के लक्षण में परिष्कार
यं पू. । मगर इसके समाधानार्थ यह कहा जा सकता है कि पृथगन्वयव्यतिरेकशून्य जिसको अवच्छेदक बना कर जिस अवच्छेद्य के अन्वयव्यतिरेक का ज्ञान होता है उस अच्छे से अच्छेदक प्रकृत कार्य के प्रति चतुर्थ अन्यथासिद्ध होता है। - ऐसा अर्थघटन करने में किसी दोष का अवकाश नहीं है। पृथकू का मतलब है अन्य से अघटित । चतुर्थान्यथासिद्धात्मक भवच्छेदक अन्याऽघटितान्वयव्यतिरेक की प्रतियोगिता से शून्य होना चाहिए। जैसे दण्डव दण्ड का निरुक्त अदक बन सकता है वैसे दण्ड दण्डत्व का निरुक्त अवच्छेदक नहीं बन सकता है, क्योंकि जैसे घट के प्रति दण्डत्व का अन्वयव्यतिरेक अपने आश्रय दण्ड से घटित होता है वैसे घट के प्रति दण्ड का अन्वयव्यतिरेक अन्य किसीसे घटित नहीं होता है। अतः पृथगन्वयव्यतिरेकप्रतियोगिताशून्यता में रहती है, न कि दण्ड में । दण्ड में निरुक्त अवच्छेदकता नामुमकिन होने से अच्छे दण्ड से दण्ड में अन्यथामिद्धि की आपत्ति को अवकाश नहीं है। वच्छेदक के विशेषणविधया पृथगन्वयव्यतिरेकप्रतियोगिताशून्यत्व का ग्रहण करने की वजह ही तो जहाँ परस्पर में कारणत्व का विनिंगमय कोई नहीं मिलता है वहाँ एक से दूसरे की या द्वितीय में प्रथम की अन्ययासिद्धि नहीं होती है। जैसे घट के प्रति दण्ड को कारण माना जाय या उण्डसंयोग को ? यहाँ कोई विनिगमक नहीं होने से अच्छे दण्ड से अच्छे दण्डसंयोग को अन्यथासिद्ध नहीं कहा जा सकता, क्योंकि दण्ड का अन्वयव्यतिरेक अन्य से घटित नहीं होने से पृथगन्वयव्यतिरेकप्रतियोगिता शुन्यतास्वरूप अवच्छेदकविशेषण दण्डसंयोगावच्छेदकविधया सम्मत दण्ड में नहीं रहता है । इस तरह दण्डादि से चक्रादि में या चक्रादि से दण्डादि में अन्यथामिद्धि की आपत्ति को अवकाश नहीं है । इस तरह संक्षेप से चतुर्ध अन्यथा सिद्ध का निरूपण पूर्ण हुआ । अब चरम एवं पंचम अन्यथासिद्ध का निरूपण हो रहा है । सुनिये, * कुलालपिता पथम अन्यथासिद
नवज । अपने से जन्य में प्रकृत कार्य के प्रति पूर्ववृत्तित्व का ज्ञान होने पर ही अपने में प्रकृत कार्य के प्रति पूर्ववृत्वि
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तचिंतागपासनादः यथा घटं प्रति कुलालेन तत्यिता । साक्षादहेतोस्तस्य कुलाले घटजनकत्वे ज्ञात एव तदारा तस्य पूर्वभावग्रहात् ।
अथैवं स्वजन्यशमि प्रति घटजनकत्वं गृहीत्वैव तदन्दारा दण्डे घदपूर्ववृत्तित्ववहाद दण्डोऽपि तया तत्रान्यथासिष्टयेत, अन्यथा कुलालेन कुलालपिताऽपि न तथा स्यात, तुल्ययोगक्षेमत्वादिति चेत् ? 'अन्यं प्रति पूर्ववृतिताघटितरूपेण व्दितीयेनैव कुलालपितुरन्यथासिन्दिः ।
-* गयलता *यं = प्रकृतकार्य प्रति पूर्ववृत्तित्वं = अवश्यक्लृप्तनियतपूर्ववृत्तित्वं गृहीत्वैव स्वस्य तत्त्वग्रहः = प्रकृतकार्य प्रति पूर्ववृत्तित्वबंध: तत्र = प्रकृतकार्ये स्वं = स्वपदप्रतिषाचं अन्यथासिद्धं इनि 'पञ्चमम् । अत्रौदाहरति - यथा घटं प्रति कुलालेन तत्पिता = कुलालपिना पञ्चमाऽन्यथासिद्धः । न च कुलालस्य बटं प्रति अवश्यक्तृप्तनियतपूर्ववृत्तित्वमज्ञाचा कथं न कुलालपिनुः घटं प्रति पूर्ववृत्नित्वं गृह्यते ? इति वाच्यम्, व्यवहितपूर्वकालवृत्तित्वेन साक्षात् = स्वाव्यवहितीनरत्वसम्बन्धन अहेताः = स्तुत्वन्यरस्य तस्य = कुलालपितुः कुलाले घटजनकत्वे ज्ञात एव = घटजनकन्वं गृहात्वैव, तद्वारा = स्वजन्यद्वारा तस्य = कुलालपितुः घटं प्रति पूर्वभावग्रहात् = पूर्ववृत्तित्वभानसम्भवात् । न चैवमपूर्वण यागम्य विणात यसरवम्बरू, स्वर्ग प्रत्यतदन्यथामिद्धतापत्तिः साक्षादहतो: यागरगापूर्वे स्वर्गजनकत्वं गृहीत्वैव नदद्वारा नस्य स्टग प्रति पूर्वभावग्रहादिति वाच्यम, अपूर्व स्वर्गजनकत्वमविज्ञायाधि विहितत्वन यागस्य स्वर्गजनकत्वज्ञानसम्भव नाथकाभावात । वस्तुतः यागस्य स्वगजनकत्वं ज्ञात्वेबापूर्वस्य तथात्व. ग्रह इति नापूर्वेण यागस्यान्यथासिद्धिः । तदुक्तं गङ्गेशेन - 'यत्र जन्यस्य पूर्वभावं ज्ञात्या जनकस्य तद्ग्रहस्तत्र जन्यन जनकमन्यथासिद्धम् । यत्र तु जनकस्य पूर्वभावं ज्ञात्वा जन्यस्त तद्ग्रहस्तत्र तद्वारा जनकत्वं यागस्येवा-पूर्वद्वारा' (ल.चिं.) इति ।
अघ एवं = जन्यस्य पूर्ववृनित्वं ज्ञात्वैव जनलस्प नद्वारा पूर्वमित्वग्रहे जनकस्यान्यथासिद्धत्वमित्येवं प्रतिपादने. स्वजन्यभमि प्रति दण्डस्य घटजनकत्वं गृहीत्वैव तद्धारा = स्वजन्यभ्रमिद्वारा दण्ड घटपूर्ववृनित्वग्रहात् साक्षादहेतुः दण्डाऽपि तया = स्वजन्यभ्रम्या तत्र = घंटे अन्यथासिध्येन = अन्चार प्रसज्येत । अन्यधा = स्वजन्यस्य कार्यपूर्ववृत्तित्वं गृहात्वंव स्वस्य कार्यपूर्ववृनित्वज्ञानेऽपि दण्डो स्वजन्यभ्रनिद्वारा नान्यथासिद्ध इत्य इगाकारे तु कुलालेन = स्वजन्यकुलालद्वारा कुलालपिताऽपि घटं प्रति न तथा = अन्यथासिद्धः स्यात्, युक्तरुभयत्रैव तुल्ययोगक्षेमत्वान अन्यथाऽर्थशरप्रसङ्गादिति चेत् ?
अत्रोच्यत 'अन्य प्रति पूर्ववृत्तिताघटितरूपेण यस्ट यं प्रति पूर्ववृत्तिता गृहान तत्र तदन्यथासिद्धमिति द्वितीयन : पूर्वोक्तेन द्वितीयान्यथासिद्धलक्षणेन एच घटं प्रति कुलालपितुः अन्यथासिद्धिः । राधा काशस्य शब्दजनकत्वन घटं प्रति पूर्ववृत्तित्वग्रहाद् घटं प्रति द्वितीयान्यथासिद्भत्वं तथा कुलालपितुः कुलालजनकत्वेन घटं प्रति पूर्ववृत्तित्वज्ञानाद घटं प्रति द्वितो. का ज्ञान हो तो प्रकृत कार्य के प्रति अपने में पाम अन्यथामिद्धत्व होता है । जैसे कि घट के प्रति कुलाल से कुलालपिना. अन्यथासिद्ध होता है । कुलालपिता नो साक्षात घट का हेतु नहीं हो सकता है । इसलिए कुलाल के द्वारा कुलालपिना को घट के प्रति पूर्ववर्ती मानना होगा। मगर जब तक कुलाल में घटजनकत्व का, जो घटनियतपूर्ववृत्तिता से घटित है, ज्ञान न हो तब तक कुलाल के द्वारा कुलालपिता में एटपूर्ववृत्तिता का ज्ञान नहीं हो सकता है । इसलिए कुलालपिता घट के प्रति कुलालद्वारा पश्चम अन्यथासिद्ध सिद्ध होता है। यहाँ यह नहीं कहा जा सकता कि → 'यटि अपने कार्य में किसीके प्रति पूर्ववृत्तिता का ज्ञान होने के बाद ही अपने में किसी कार्य के प्रति पूर्ववृत्तिता का ज्ञान हो तब अपने में पचम अन्यथामिद्धत्व आयेगा, इस नियम का स्वीकार करने पर तो दण्ड भी घट के प्रति अन्पयासिद्ध बन जायेगा, क्योंकि दण्डजन्य मिक्रिया में घट के प्रति पूर्ववृत्तिव का ज्ञान होने पर ही दण्ड में घट के प्रति पूर्ववृत्तित्व का भान होता है। फिर भी दण्ड को दण्डजन्य भ्रमिक्रिया के द्वारा अन्यथासिद्ध न माना जाय तब तो घट के प्रति फुलालपिता भी कुलाल से अन्यथासिद्ध न हो सकेगा, क्योंकि दोनों पक्ष में आक्षेप और समाधान तो नुल्य ही है ।
यह कथन अयुक्त होने का कारण यह है कि घट के प्रति कुलालपिता द्वितीय अन्यबासिद्ध के परिप्त लक्षण में द्वितीय अन्यधासिद्ध हो जाता है। यहाँ यह कहा गया था कि • 'अन्य प्रति पूर्ववृनिनाटिनरूपेण जिसकी पूर्वनिता का प्रकृत कार्य के प्रति ज्ञान हो वह प्रकृन कार्य के प्रति अन्यधासिद्ध है । कुलारपिता में कुलानापतृत्वेन घटपूर्वनिता का ज्ञान होने से कुलालपिता घर के प्रति अन्यथासिद्ध होता है । कुलालपितृत्व तो कुलालात्मक अन्य कार्य के प्रति पूर्वलिन से घटित ही है - इसमें तो कोई संदेह ही नहीं है। दण्ड में तो दण्डत्वेन घटकारणता का भान होने से दण्ट घट के प्रति अन्यधासिद्ध नहीं है।
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८६२ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड: का. ११ गाधर विश्वनाथ रघुनाथ महादेवादिमतद्योतनम
न चैवं दृढदण्डत्वेनाऽपि हेतुत्वं न स्यादिति वाच्यम्, इष्टत्वात् । क्वचिद् दण्डाद् घटानुत्पादस्य पाव्यतिरेकादिति कृतः ।
ॐ नायलता
यान्यथासिद्धत्वमेव दण्डस्य तु न भ्रमिजनकत्वेन घटं प्रति पूर्ववृत्तित्वं गृह्यते किन्तु दण्डत्वेनैवति न घटं प्रति अन्यथासिद्धत्वन । पञ्चान्यथासिद्धवादिगदाधरमतेऽपि आकाश कुलालजनकयोः समानमेवान्यथासिद्धत्वमिति तु प्रागेोपदर्शितम् 1
कुलालत्वेन तु कुलालपितुरपि घटकारणत्वमेव । तदुक्तं मुक्तावलीकृता 'तस्य हि कुलालपितृलेन घटं प्रति जनकत्वे न्यासिद्धि:, कुलालत्वेन रूपेण जनकत्वं त्विष्टापत्तिः, कुलालमात्रस्य धर्म प्रति जनकत्वात' (का. २० मु.पू. २१८ । इति । न च एवं = दण्डस्य दण्डवेन वटजनकत्वस्वीकारे, दण्ड घटं प्रति दृढदण्डत्वेन = भ्रमिजनकल्वलक्षणदन अपि हेतुत्वं न स्यादिति वाच्यम्, इष्टत्वात् दण्डत्वापेक्षया गुरुत्वेन तत्रावश्यकल्पनानुदयात् न च दण्डवस्य घटकारणतावच्छेदकत्वं | त्वदण्डादा घट उत्पद्येतेति वाच्यम्, क्वचिद् दण्डाद् घटानुत्पादस्य व्यापारव्यतिरेकप्रयुक्तत्वात् = अम्रिस्वरूपद्वाराऽभावन प्रयोज्यत्वात् चक्रमसमधान्महाचक्रसहिताद् दण्डाद्धानुत्पत्ती तथैव वाच्यत्वात् सामग्रीकल्प कार्यात्यादापादनस्याःयुक्तत्वादिति दीधितिकृतः ।
कुलालपितुर्न द्वितीयान्यथासिद्धत्वं तत्र फलाननुगुणं प्रतीति वाच्यत्वादित्यपि कश्चित् ।
विश्वनाथस्तु 'यत्कार्यजनकं प्रति यस्य पूर्ववृनित्वं गृहीत्व यस्य यत्कार्य प्रति पूर्वनित्वं गृह्यते तस्य तत्कार्य प्रत्यन्यथासिद्धत्वं यथा कुलालपितुर्घटं प्रति' (का. २५ मु. पू. २१८) इत्याह 1
तृतीयचतुर्भ्योरभेदात्पञ्चम्पाश्च द्वितीयस्यामंत्रान्तर्भावाविधैवान्यथासिद्धिरिति केचित् ।
विश्वनाथ महादेवप्रभृतयश्च एतेषु पञ्चष्वन्यथासिद्धेषु अवश्पक्लृप्ते' त्यादिवादय: तेनैव परेषां चरितार्थत्वात् । तथाहि दण्डादिभिरंवावश्यक्लृप्तनियतपूर्ववनिभिरय कार्यसम्भव दण्डत्य- दण्डरूपाकाश-रामभकुलालजनकादयोऽन्यथासिद्धाः । न च वैपरीत्यं किं विनिगमकमिति वाच्यम्, दण्डत्वादेः कारणले दण्डघटितपरम्परावा: सम्बन्धन्वकलपने गौरवात् सम्बन्धकृतलाघवस्यापि तत्र प्रविष्टत्वात् । एवमन्येषामपि चरितार्थत्वमनेनैव सम्भवतीति व्याचक्रुः ।
वस्तुतस्तु नियतपूर्ववर्तितावच्छेदकयद्धमविच्छेदेन यादृशकार्यं प्रति नकारणत्वव्यवहारः प्रामाणिकानां तद्रूपावच्छिनमंत्र तादृशकार्येऽन्यथासिद्धम् । तेन शब्दादिपूर्ववर्तित्वमगृहीत्वा शब्दसमवायित्वादिनाकाशादी ज्ञानादिपूर्ववर्तित्वग्रहम्भवेऽपि पूर्वसंयोगनाशादिपूर्ववर्तित्वमगृहीत्वापि विभागत्वावच्छिन्नस्यान्तरसंयोगादिपूर्ववर्तिताग्रहसम्भवेऽपि च तत्र तेषामन्यथासिद्धत्वमेव । अत एव लघुधर्ममनियतगुरुधमविच्छिन्न प्रतिबन्धका भावनिष्ठतदूव्यक्तित्वावच्छिन्नस्य च न कारणत्वं तद्भूमावच्छिन्नस्य निरुक्तान्यथासिद्धत्वात् । अधिकभेदनिवेशाद् गौरववारणाय नियतपूर्ववर्तिनावच्छेदकत्वं धर्माविशेषणम् । तच न कारणनाशरीरघटकं ** दण्डवेन पटकारणता अस्वीकार्य दैधितिकार
नवं । यह इस शंका का कि
यदि दण्ड को दण्डवेन, जो अन्य कार्य के प्रति पूर्ववृतिता से घटित नहीं है, घटकारण मानने पर तो भ्रमिजनकत्व स्वरूप दृढत्वेन रूपेण घटकारण नहीं माना जा सकेगा, अन्यथा दण्ड़ में भी कुलालपिता की भाँति द्वितीय अन्यथासिद्धत्व की आपत्ति आयेगी' - ममाधान यह है कि यह तो इट है । दण्ड केवल दण्डवेन ही घट का कारण है न कि दण्डवेन, क्योंकि तब कारणतावच्छेदक धर्म में गौरव असक्त होता है । यहाँ यह नहीं कहा जा सकता कि > 'दण्ड में दण्डत्वेन घटकारणता का स्वीकार करने पर तो अदृढ चक्रअिजनक दण्ड में भी घटकारणता के स्वीकार की आपत्ति आयेगी, क्योंकि उसमें भी उण्डत्व तो रहता है। मगर कभी भी अट दण्ड से घट की निप्पन नहीं होती है, किन्तु इदण्ड से ही इसका कारण यह है कि अदृड दण्ड में भी टकारणता तो रहती ही है। मगर घंट की उत्पत्ति अड्ड दण्ड से न होने का कारण यह है कि तब कारणीभूत चक्रभ्रमणस्वरूप व्यापार का अभाव होता है। मतलब कि बद की अनुत्पत्ति अनिष्ट घटकारणत्वाभाव से प्रयुक्त नहीं है, किन्तु व्यापाभावप्रयुक्त है । कार्य का जन्म अपने किसी एक कारण की भी अनुपस्थिति में नहीं होना है यह तो सर्वमान्य है । इसलिए दण्डवत ही दंड में घटकारणता का स्वीकार करना मुनासिब है । तब दण्ड में द्वितीय यह दीधितिकार रघुनाथ शिरोमणि का वक्तव्य है । इस तरह पाँच अन्यथासिद्ध का भेद कारणताशरीर में प्रदिष्ट है ।
रहेगा
=
अन्यथासिद्धि की आपनि को अवकाश नहीं अन्यधामिद्ध का निरूपण पूर्ण हुआ । इन
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* गदाधरोक्तिप्रदर्शनम
विनन्यथासिद्धत्वमन्यथासिद्धभेदः इति द्रव्यत्वादिनाऽन्यथासिद्धस्य कपालस्य कथं घटहेतुत्वमिति चेत् ? न, अन्यथासिदिनिरूपकतानवच्छेदक-नियतपूर्ववृत्तितावच्छेदकरूपवत्त्वं तात्पर्यात् । अनवच्छेदकत्वञ्चावच्छेदकत्वपर्याप्त्यनधिकरणत्वम्, तेन नान्यथासिदिनिरूपकतावच्छेदककपालत्वाऽभिभेतत्कपालत्वेनैतद्धरं प्रत्यन्यथासिद्धिः ।
नयलता *
60
किन्तु भेदप्रतियोगिपरिचायकमात्रमिति गदाधरः
ननु एतावता कारणताशरीरघटकीभूतं अनन्यथासिद्धत्वं अन्यथासिद्धभेद इति फलितम् । किन्त्वेवं सति द्रव्यत्वादिना घ प्रति अन्यथासिद्धस्य कपालस्य कथं घटहेतुत्वं स्यात्, अन्योन्याभावस्य व्याप्यवृत्तित्वात् स्वप्रतियोगितावच्छेदकविरोधित्वाच इति चेत् ? न, अन्यथासिद्धनियतपूर्ववृत्तित्वस्य अन्यथासिद्धिनिरूपकतानवच्छेदक-नियतपूर्ववृत्तितावच्छेदकरूपवत्त्वे तात्पर्यात् । अन्यथासिद्धिनिरूपकनाया अनवकं यत् नियतपूर्ववृचितावच्छेदकं रूपं तद्वत्त्वमेव कारणमित्यर्थः । रासमनिष्ठाया अन्यथासिद्धः ।नरूपकत्वस्यावच्छेदकं द्रव्यत्त- पृथिवीत्व- सत्तादिकं तदनवन्छेटकं च कपालत्वं घटनियनपूर्ववृत्तित्तावच्छेदकत्वस्य सच्चात् कपालत्यवत्त्वलक्षणं घटकारणत्वं कालेऽनपायमेत्र, उपधेयसाङ्कर्येऽप्युपाध्यां रसायांत् ।
ननु नियतपूर्ववृत्तितावच्छेदकं यद्रूपं तस्यान्यथासिद्धिनिरूपकतानवच्छेदकत्ववि त्वदुघ प्रत्येतत्कपालनार हेतुता न स्यात् एतटं प्रति कपालत्वस्यान्यथासिद्धिनिरूपकतावच्छेदकत्वात् एतत्कपालत्वस्य च ततोऽव्यतिरेकेण तस्याप्यन्यथासिद्धिनिरूपकतावच्छेदकत्वादेव । तत एतदनियतपूर्ववनितावच्छेदकीभूतस्यैतत्कपालत्वस्यान्यथासिद्धनिरूपकतानवच्छेदकत्वविरहीतद्धरं प्रत्येतत्कपालवेनान्यधासिद्धिदुवरिवेत्याशङ्कायां नैयायिका व्याचक्षते अनवच्छेदकत्वञ्च = अनवच्छेदकत्वपदप्रतिपाद्यञ्च प्रकृतं अवच्छेदकत्वपर्याप्त्यनधिकरणत्वं पर्याप्तिसम्बन्धनावच्छेदकत्वस्याधिकरणत्वाभावः न त्ववच्छेदकमित्रत्वम् । ततश्च पर्याया अन्यथामिद्धिनिरूपकतासा अवच्छेदकत्वस्यानधिकरणं यद्रूपं नियतपूर्ववृत्तिताया अबच्छेदकं तन्वं कारणत्वमिति फन्दितोऽर्थः । विशिष्टस्य शुद्धानतिरेकनये एतत्कपालत्वस्य कमालत्वान्नित्वंऽपि एतद्यदान्यधासिद्धिनिरूपकतावच्छेदकत्वपर्या न्यविकरणत्वविरहेण निरुक्तानवच्छेदकत्वसत्त्वामैतत्कालत्वेनैतदुष्टं प्रत्यन्यथासिद्धत्वापत्तिरित्याहुः तेन निरुक्तानवच्छेदकत्वविवक्षणेन, न अन्यधासिद्धिनिरूपकतावच्छेदककपालत्वाभिनैतत्कपालत्वेन एतटापेक्षा अन्यधासिद्धितिरूपकतावच्छेदकीभूतकपालल्यानतिरिक्तेन एतत्कपालत्वेन रूपेणैतत्कपालस्य एतद्घटं एतत्कपालाव्यवहितोत्तरधनं प्रति अन्यधासिद्धिः एतत्कपालत्वस्य एतदनियतपूर्ववृत्तितावच्छेदकत्वेऽपि निरुक्तरीत्या अन्यथासिद्धिभिरूपकतावच्छेदकत्वपर्याप्त्यधिकरणत्वाभावेन निरुक्ता
=
-
८६३
=
नैयायिकमतानुसार परिष्कृत कारणता का स्वरूप
नन् । यहाँ यह शंका हो कि उपर्युक्त निरूपण के अनुसार कारणताशरीरघटक अनन्यासिद्धत्व का अर्थ अन्यथासिद्धभेद सिद्ध होता है । मगर ऐसा मानने पर कपाल घट का कारण नहीं हो सकेगा, क्योंकि कपाल भी इव्यत्वेन घट के प्रति अन्यथासिद्ध होने से अन्यथासिद्धभिन्न नहीं है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि कारणता को अनन्यथासिद्धनियतपूर्ववृत्तित्वस्वरूप कहने का तात्पर्य यह है कि कारणत्व अन्यथासिद्धि की निरूपकता के अनवच्छेदक ऐसे कार्यनियतपूर्ववृत्तितावच्छेदकधर्म स्वरूप है । घट की अपेक्षा कपाल में जो अन्यथासिद्धि रहती है उसकी निरूपकता कपाल में होने पर भी अन्यथासिद्धि की निरूपकता का अवच्छेदक धर्म द्रव्यत्वादि है, न कि कपालव । कपालत्व तो कपालनिष्ठ अन्ययासिद्धि की निरूपकता का अनवच्छेदक एवं घटनियतपूर्ववृत्तिता का अवच्छेदक है। इसलिए कपालनिष्ट घटकारणता कपालत्ववत्त्वस्वरूप फलित होती है। इस घटकारणता की आश्रयता कपाल में होने से 'घटकारण कपाल है इस प्रसिद्ध प्रामाणिक व्यवहार का अपलाप होता नहीं है ।
क अनपच्छेदकत्व का निर्वचन
अन्न । यहाँ इस शंका का कि यदि नियतपूर्ववृनितावच्छेदक धर्म, जो अन्यधासिद्धिनिरूपकता का अनवच्छेदक हो, महत्त्व को कारणता मानने पर तो एक्ट के प्रति एतत्कपालत्वेन अन्यथासिद्धत्व की आपत्ति आयेगी, क्योंकि एतद्दात्मक कार्य के प्रति अन्यधासिद्धिनरूपकता का अच्छे कपाल है और कपालत्व में एतत्कपालत्य अभिच होने की वजह एतत्कपालत्व भी अन्यधासिद्धिनिरूपकतावच्छेदक बन जाता है । अन्यधासिद्धिनिरूपकताच्छेदकभिन्नत्व न होने की वजह अन्यथासिद्धिनिरूपकताअनवच्छेदक-नियतपूर्ववृत्तितावच्छेदकधर्मवत्त्वात्मक एतद्वटकारण एतत्कपाल में कथमपि संगत नहीं हो सकेगा । अतः अव्याप्ति द्रोप प्रसक्त होता है' - समाधान यह है कि अनवच्छेदकत्व यहाँ अवच्छेदकभिन्नत्वात्मक बिंबचित नहीं है, किन्तु अवच्छेदकत्व -
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८६४ मध्यमस्या दादरहस्ये वण्डः ३ . का..? यापकताद्वयगर्भककारणतावाद:*
अनुपधायकहेतुसाधारण्याय 'अवच्छेदके'त्यादि। धूमादी रासभादेहेतुत्ववारणाय 'नियतपूर्ववृत्तीति।धूमत्वाधाश्रया यावन्त: प्रत्येकं तत्तदव्यवहितप्राक्कालावच्छेदेन तत्तदधिकरणे विशेष
-* जयतता - न्यथासिद्भिनिरूपकनावच्छेदकत्वविरहात् । न चैनस्कपालत्ववत कपालल्यस्याप्येतटा न्यधासिद्धत्वनिरूपकतानवच्छेदकत्वमेवेति वाच्यम्, तथा सति कपालत्ववत: नल्कपालादपि पनवटांतत्त्यापतेः ।
नन्यन्यथासिद्धिनिरूपकतापर्याप्त्यधिकरण-निरतपूर्ववनित्वस्येव कारणतान्त्रमस्तु क्रिमवच्छेदकपदनिवेशेन ? इत्यादाइकायामाहुः अनुपधायकहेतुसाधारण्याय = धूमादिस्वरूपायंग्यकारणसङ्ग्रहाय 'अवच्छेडक' त्यादि = अवच्छेदकरूपबत्त्वोगदानम् । अन्यथा धूमदिलक्षणफलोत्पनियायनलादाबंब निरूक्तकारणत्वं स्यान, न तु फलोत्पत्त्यव्यायानलादी तदन्यवहितोत्तरकाल भूमाभावेन धमनियतपूर्ववृनित्यस्य तत्र विरद्वात् । न च अन्यथासिद्धिनिरूपकतानबच्छेदककात्तिरवृनिताचच्छंदकरूपयन कारणत्वनित्यवान्यतां किं पूर्वक्तित्वचशनिबंशनात वाच्यम, नथा मति धमध्वंसे धमकारणत्वापनः । न चान्यवहितोत्तरवनिवेशान्नायं दोष इति वाच्यम्. धूगकारणत्वस्य भूमप्रागभावेऽव्यानेः धुमप्रागभावध्यंसे तित्र्याप्तेश्च । न चास्तु पूर्ववृत्तित्वन्विशः किन्न नियतपदं नातिप्रयोजनमिति वाच्यम्, धूमाटी = धूमादिकार्य प्रति रासभादेः हेतुत्ववारणाय 'नियतपूर्ववृत्ती' ति पदस्यापि सार्थकल्यात, नियमतोऽव्यवहितपूर्वकालवृत्तीत्यर्थ: । नेनन व्यवहितानलादरिदानीं धूमजनकत्वापत्तिः न च इमान्यवहितपूर्वकाल क्वचिद्रासमादरपि सत्संदेतासभाद्यन्यावर्तकं इति वाच्यम्, तद्रासमत्वादिना रासभादिव्यावर्तकत्वेनास्य सफन्दत्त्वात, गसमत्वादिना त्व स्थासिझेरवाऽहतुत्वान् । न च तद्रासभल्लादिनापि तत पचाहतुत्वमिति वक्तव्यम्, सद्भूमादिकं प्रनि तद्विद्भदिकालतद्रासनादेः तत्कागासहभृतत्वेन याक्तान्यधासिद्धयभावात. विशेष्यभागमाफल्याय नियतपूर्वनितावच्छेदकेन पन कारणत्वाऽव्यवहारस्तपणे . वान्ययासिद्धयांच्यत्वाच । यद दैशिकव्यापकतावच्छेदकत्वमपि नियनपूर्ववृनिनावच्छेदकाविशेषणं, इत्थञ्च दैशिकव्यापकताशालितजयूमदेमिधाहेनत्यवारणाय कालकव्यापकत्वनिवेशः । अत एव देशक कालिकव्यापकताद्वयगर्भनकमेव कारणत्वमिति वदन्ति ।
वस्नुसस्तु धूमत्वाद्याश्रया याचन्नः प्रत्येकं तनदव्यवहितपर्वकालापदेन = तत्तत्कात्यिस्यव्यय हेतपूर्वभागावन्दन तराधिकरणे = तत्चत्कार्यनिरूपिन-कार्यतावच्छेदकसम्बन्धावदिनाधेयतानिरूपिताधिकरणतावच्छिन्ने विशेपणतया वर्तमानश्य
पर्याज्यनधिकरणत्वात्मक अभिमत है। पनघट की अपेक्षा अन्यथासिद्धिनिरूपकनावच्छेदक कपालत्व से भिनत्व भले ही एतत्कपालत्व में न हो, मगर अन्यमासिविनिरूपकतावच्छेदकत्वपर्याप्ति का अनधिकरणव नो रतत्कपालत्व में रहता ही है, क्योंकि तपदान्यधा-सिद्धिनिरूपकताचच्छेदकत्व केवल एतत्कपालत्व में पर्याप्त नहीं है। इसलिए एतन्कपालन्वेन एतद्घट के प्रति अन्यथासिद्धव की आपनि नहीं है . यह फलित होता है । यदि कंबल अन्ययासिद्धिअनिरूपकन्ये सति नियतपूर्व-वृतित्व को ही कारणत्व माना जाय नर तो धूम को अयवहितोनरक्षण में उत्पन्न न करेनवाले = अनुपधायक हेतु अथांत स्वरूपयोग्य कारण अनि में भूमकारणता न रह सकेगी, क्योंकि उस अग्नि के उत्तर क्षण में धूम उन्पत्र नहीं होने की वजह उस अग्नि में कार्यनियतपूर्ववृत्सित्व नहीं रहता है । फलानुपधायक हेतु के संग्रहार्थ अवछेदक का ग्रहण कर के उपर्युक्त कारणतास्वरूप का निर्वचन करना जरूरी है। तब कार्योत्यत्त्यन्याय अग्नि आदि हेतु में कारणता की अनुपपत्ति नहीं होगी, क्योंकि फलानुपधायक अग्नि में नियतपूर्ववृत्तित्व न होने पर भी वह धमनियतपूर्वनिअग्रिसजातीय होने की वजह नियत-पूर्ववृत्तिनावच्छेदक धर्म अग्नित्व हो अनि में रहता ही है। अत: उसमें धूमकारणता की असंगति = अनुपपनि अव्याप्ति नहीं है । पति केवल अन्यथासिद्धिनिरूपकतानवच्छेदक-पूर्ववृनितावच्छेदकरूपवत्त्व का कारणत्व कहा जाय तब तो धूम के प्रति रासभ आदि भी हेतु बन जायेंगे । मगर रासभ धूम के प्रति नियमन अव्यरहितपूर्ववर्ती नहीं है। इसलिए उसमें धूमादिकारणत्व के परिहागर्थ नियतपूर्ववृत्तित्व का ग्रहण किया गया है। नच रासभ में धूमादि की कारणना की आपनि को अवकाश नहीं रहता है ।
परिवार कारणत्वलक्षण -यायिक धूमन्या. । मगर वास्तविकता को लक्ष्य में ली जाय तच नैयायिक की ओर से कारणना का यह स्वरूप कहा जाता है कि कार्यतावच्छेदकीभूत घूमन्वादि के जितने भी आश्रय = अधिकरण धूम हैं उनमें से प्रत्येक की अव्यवहितपूर्वक्षणावच्छेदेन उनके = धूमादि के अधिकरण में स्वरूपसम्बन्ध - विशेणनाविशेषसम्बन्ध से जो अभाव रहता है उस अभाव की कारणतावच्छंटक तत् तत् सम्बन्ध से अवच्छिन प्रतियोगिता का अनवोदक जो धर्म है नहत्त्व ही विवक्षित कारपना है . यह निहितार्थ है । जैसे धूमयावच्छिन सकल धूम में से प्रत्येक धूम के आश्रय पर्वत, चत्वर, महानस आदि में रहनेवाला रासभअभाव घटाभाव, पदाभाव आदि होगा, जो संयोग आदि तत् ततं कारणतावच्छेदक सम्बन्ध से अवच्छिन्न प्रतियोगिता का निरूपक
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* जगदीशनकालकारमतप्रकाशनम् * णतया वर्तमानस्याऽभावस्य कारणतावच्छेदकतत्तत्सम्बन्धावच्छिन्नाभावप्रतियोगितानवच्छेदकरूपवत्त्वं तदिति मुकुलितार्थः । तेन कालतो नियतपूर्ववर्तिनोऽपि रासभादेयंदासः सुघटः ।।
* गयलता = अभावीयविशेषणताविशेषसम्बन्धावच्छिन्नवृत्तित्ववत: अभावस्य कारणतावच्छेदकतनत्सम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगितानवच्छेदकरूपवत्वं = कारणतावच्छेदकीभूतत्त्तत्सम्बन्धावच्छिना या प्रतियोगिता नदनवच्छेदकधर्मवत्वं एव तत् = करणत्वं इति मुकुलितार्थः = निहितार्थः । तेन = कार्याधिकरणवृत्त्यभावप्रतियोगिताया: कारणतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्नत्वप्रतिपादनेन. कालत; = कालिकत्रिदोषणतादिशेषसम्बन्धेन नियतपूर्ववर्तिनः = कार्योत्पादाब्यवहितपूर्वक्षणान्छेदेन नियमेन वर्तिनः अपि रासभादेः ब्युदासः = धूमादिकारणत्वव्यवच्छेदः सुघटः = सुबचः संयोगादिसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक-रासभाभावादे: धूमाद्यधिकरण विशेषणताविशेषसम्बन्धेन वर्तमानत्वात रासभत्त्वादः प्रतियोगितानवच्छेदकत्वासम्भवात् । तदनुक्ती तु गम्भादेरपि कारणत्वापत्तिः, कार्यधूमाधिकरणे रासभादेः कालिन नर्तमानमा निगडापाव पानी यो विनष्टघटाग्रभावः तन्प्रतियोगितानवच्छेदकत्वस्य रास भत्यादी सन्चेन तद्वत्वन ग़सभादः धूमादिकारणत्वापनिर्दुवारब स्यात् ।
तदुक्न जगदीशतर्कालङ्कारेण कारणताबादे 'यदवच्छिन्नं प्रति यादृशसंसर्गेण नियताब्यवहितपूर्ववर्तितावच्छेदक यदन्यधासिद्धयनिरूपकं रूपं तद्वत्त्वमेव तदवच्छिन प्रति तादृशसंसर्ग करणत्वम् । तत्र पयपि घटत्वावच्छिन्नसामान्यस्याऽन्यवहितपूर्वत्वमप्रसिद्ध, घटसामान्यप्रागभाबाधिकरणसमयप्रागभावानधिकरणत्वे सति घटनागभावाधिकरणकाललरूपस्प तस्य क्वचिदव्यसन्चात : प्रसिद्धं या न कारणवस्य निर्वाहक, महाप्रलयकालीनतत्तद्दण्डत्वादिनापि घटत्वावच्छिन्नं प्रति हेतुत्वासनाच्यावर्तकत्वात् । अत एव यत्किञ्चिद्घटाव्यवहितपूर्वत्वमपि दुर्निवश्यम्, घटसामान्य प्रत्यपि नत्कपालत्वेन हेतुतापन:. तद्धावच्छिन्नमकलकार्याव्यवहितपूर्ववर्तिस्वावच्छिन्नवनाकधर्मस्यैवाः न्यथामिद्धयनिरूपकत्वदलन मारणीयत्वात, अन्यथा तन्मात्रस्यैव सम्यक्त्व व्यवहितपूर्वबर्तिताक्कंदकत्वांशवयोपनेः । न च तद्धर्मविशिष्टम्य पावतः प्रत्येका व्यवहितग्राकालावच्छेदेन तत्प्रत्यकस्याधिकरण वर्तमानस्याभावस्य यावनः प्रत्येकान्यवहितप्राकालावच्छेदन तत्प्रत्येकल्याधिकरण वर्तमानस्याभावस्य यत्सम्बन्धावच्छिनप्रतियोगितानवच्छेदका यो धर्मः नगच्चमंद तद्भर्मावन्छिन्नं प्रति तत्सम्बन्धन कारणत्यनित्यपि साप्रतन घटत्यावच्छिन्न प्रति तादात्म्येन कपालल्वादिना हेतुतापामच्याप्तिप्रसङ्गात् । बटाव्यवहितप्राकलायच्छेद्यस्य कपालादी तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्या प्रसिद्धत्वात, अन्योन्याभावमात्रस्यैव देो व्याप्यवृत्तित्वात् तथापि तदविष्टिा यावन्तः देतात्येकाधिकरणदेशावच्छेदन नत्प्रत्येकाव्याहतप्राक्काले वर्तमानस्य तत्सम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावल्य प्रतियोगितानवच्छंदकत्वमेव नामांवच्छिन्नं प्रति तत्सम्बन्धन नियनान्यदिनपूर्ववर्तितावच्छेदकत्वं विवक्षितम्, घटाव्यवहितप्राकले तदधिकरणाभूतलपालाद्यवन्डेद्यस्य पटादिभेदस्यत्र सुलभत्वात् । निरक्तप्रत्येकाधिकरणत्वश्च देशस्य कार्यतावनोदकसम्बन्धेनव ग्राह्यम् । अनः सम्बन्धान्तरे यत्कार्यम्याधिकम् तादादेवावच्छेदन कार्यस्प प्राकाले कारणाभावस्य सत्त्वे-पि न क्षतिः । वस्तुनः तद्भावच्छिन्नस्य यावत: प्रत्येक धिकरणदेशावच्छेदन नन्प्रत्येकाच्यवहितप्राकालवृत्ति स्वविशिष्टप्रतियोगिकनादृशसम्बन्धवनाकान्यधासिद्धयनिरूपकधर्मबचं तद्ध मावच्छिन्नं प्रति तानुदासम्बन्धन कारणत्वं वाच्यं, उक्तापेक्षया लाघबान । म चैवमपि तनव्या क्तिस्थलीयकार्यकारणभावस्य प्राच्यैरस्वीकारान, कार्यतावच्छेदकभेदन कारणत्वस्य विभिन्नतया तादृशस्थले यावत्त्वस्यानुपादेयत्वाच्च, शन्देक्यस्याकिश्चित्करल्यात् ।'
ननु कार्यतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्न-कार्यतावच्छेदकावच्छिन्नाधेयतानिरूपिताधिकरणनाश्रयनिरूपित-विशेषणताविशेषसम्ब
है । उसकी प्रतियोगिता का अवच्छेदक धर्म है रासभत्व, घटत्व, पटत्व आदि और अनवच्छेदक है अमिव । अनः तादृया अमित्ववत्त ही धूमकारणत्ता है । इस तरह कार्याधिकरण में कार्यअव्यवहितपूर्वक्षणावच्छेदेन रहनेवाले अभाव की कारणतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन प्रतियोगिता का अनवोदक जो धर्म हो तद्धर्मबत्त्वस्वरूप कारणता फलित होती है । इस तरह कार्याधिकरणवृत्ति अभाव का कारणतावच्छेदकसम्बन्धावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकत्व विशेषण लगाने का लाभ यह है कि कार्य की उत्पनि के अव्यवहितप्राकक्षणावछंदन कार्याधिकरण में कालिकसम्बन्ध से गया आदि रहने पर भी कार्याधिकरण में रहनेवाले अभाव की प्रतियोगिता के अनवच्छेदक धर्मस्वरूप कारणता की आपत्ति रामभादि में नहीं आयेगी, क्योंकि धूमादि कार्य की उत्पत्ति के अन्यवहितप्राक्षणाबच्छेदन धूमाधिकरण में संयोगादि सम्बन्ध से, जो कारणतावच्छंदकसम्बन्धविधया अभिमत है, रासादि नियमतः नहीं होने की बजह अन्यचहितप्राकृक्षणावच्छेदेन कायांधिकरणवृति अभाव की प्रतियोगिता का भवच्छेदक गसमत्वादि ही बनना है। अन्न: तादृश अभाव की प्रतियोगिता के अनवच्छेदक धर्मवत्त्वस्यरूप कारणता की आपत्ति रामभादि में नहीं आयेगी ।
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८६६ मध्यमस्याद्वादर ०१:३
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उदयनाचार्यमनादनम
न चैवं धूमं प्रति वहन्यभावस्य हेतुतापति:, धूमाधिकरणे वह्रिरूपतदभावस्य विशेषणतयाऽवृत्तेरिति वाच्यम्, विशेषणतयापि तस्य तत्र वृत्तेः, 'वहन्यभावो नास्ती'ति प्रतीतेस्तयैव निर्वाहात् ।
ॐ जयलता ॐ
भावच्छिन्नवृत्तिताक- निरुक्तसंसर्गकार्यांच्यावहिताक्षणावच्छिन्नात्यन्ताभावप्रतियोगितानवच्छेदकरूपवत्त्वं कार्यतावच्छेदकावच्छि प्रति तादृशसम्बन्धेन कारणत्वमित्यभ्युपगमे तू धूमत्वावच्छिन्नं प्रति हेरिव वन्यभावस्यापि कारणत्वं प्रसज्यते धूमत्वावच्छिन्नल्यादाव्यवहितप्राकुक्षणावच्छेदेन सनवायेन धूमाधिकरणेषु धूमावयवेषु संयोगेन पर्वतादिषु विशेषणताविशेपसम्बन्धेन बर्तमानस्य कारणतावच्छेदकसम्बन्धावच्छ्त्रिप्रतियोगिताकस्य बटाभावादेः प्रतियोगिताया अनवकेदकत्वस्य वहन्यभावले सत्त्वात् । न च तस्य बह्निस्वरूपत्वमेव नाभ्युपगम्यत इति वाच्यम्, तदा तत्र बहुभावाज्ञानात् वहन्यभावव्यवहाराच तस्य वह्निरूपताया अनिरा कार्यत्वात् । तदुक्तं न्यायकुसुमाञ्जली उदयनेन 'अभावविरहात्मत्वं वस्तुनः प्रतियोगिता' । (न्या. कु. ३/२) इति । न चा व्यवहितप्राकृक्षणावच्छेदेन धूमाधिकरणे वह्निस्वरूपां वहन्यभावाभावो विशेषताविशेषसम्बन्धेन वर्तत । ततो वहन्यभावत्वं दावाप्रतियोगितानवच्छेदकत्वासत्त्वाद धूमकारणत्वापत्तिरित्याशङ्काम कर्तुं नैयायिका उपक्षिपन्ति न चेति वाच्यमित्यनेनास्यान्चयः । एवं = निरुक्ताभांचे विशेषणताविशेषसम्बन्धावच्छिन्नवृत्तित्वस्य विशेषणविश्रया निवेश, कार्य धूमं = धूमत्वावच्छिन्नं प्रति वर वन्यभावस्य अपि हेतुतापत्तिः, अव्यवहित] कुक्षणावच्छेदेन धूमाधिकरणे बहिरूपतदभावस्य = वह्निस्वरूपस्य प्रतियोगि काभावाभावस्य विशेषणतया स्वनिष्ठविशेष्यतानिरूपितधूमाधिकरणत्वावच्छिन्नविदीषणतासम्बन्धेन अवृत्तः
=
=
असत्वात् इति वाच्यम् ।
=
नैयायिक समादधते विशेषणतया स्ववृत्न्तित्रिदोष्पतानिरूपित्तविशेषणताविशेषसम्बन्धन अपि तस्य = वहन्यभावाभावस्य तत्र - धूमाधिकरणं वृत्तेः सत्त्वात् । यथा घटयति भूतले पाभावाधिकरणको घटाभाव: पटाभावत्वेन रूपेण स्वनिरूपित भूतलल्वावच्छिन्न- विशेषणताविशेषसम्बन्धेन वर्तन घटाभावत्वेन रूपेण तु कालिकविशेषणतासम्बन्धेन तथैव अव्यवहितप्राकक्षणावच्छेदेन धूमाधिकरणे वहन्यभावाभावः वह्नित्वेन रूपेण संयोगेन सन्नपि वहन्यभावाभावत्वेन रूपेण तु स्वनिष्ठविशेष्यतानिरूपितधूमाधिकरणत्वावच्छिन्नविशेषणतासम्बन्धेनैव वर्तते। कुतः ? उच्यते धूमधिकरणं हन्यभावो नास्तीति प्रतीतः तथैव निरुक्तविशेषणतयैव निर्वाहात, नास्तित्वावगाहिप्रतीतः संसर्गविधव विशेषणताविशेषस्यैव विषयीकरणात् अन्यथा भूतले घटनास्तीति प्रतीतेरपि विशेषणताविशेषसंसर्गकत्वं न स्यात् । अत्यन्ताभावाभावस्य सप्तपदार्थत्वनयं तु सुतरां विशेषणता* अनलाभावागाव स्वरूपसम्बन्ध से रहता है- जैयायिक
=
=
यहाँ यह शंका कि
न कार्याव्यवहितप्राकक्षणावच्छेदेन कार्याधिकरण में विशेषणताविशेषसम्बन्धात्मक स्वरूपसम्बन्ध से रहनेराले अभाव की प्रतियोगिता के अनवच्छेदक को ही कारणता मानी जाय तब तो धूमात्मक कार्य के प्रति जैसे वह कारण है ठीक वैसे ही ह्नि का अभाव भी कारण बन जायेगा, क्योंकि अव्यवहितप्राकक्षणावच्छेदन धूमाधिकरण में विशेषणता विशेषात्मक स्वरूपसम्बन्ध से रहनेवाले अभाव में घटाभाव, पटाभाव आदि, जिनकी प्रतियोगिता का अनवच्छेदक अभावत्व है । श्रमानिकरण में विशेषणनाविशेपसम्बन्ध से रहनेवाले अभाव की प्रतियोगिता का अवच्छेदक अभवत्य त हो सकता है यदि वहाँ विशेषणताविशेपसम्बन्ध से बहिअभावाभाव रहता हो । मगर यह नामुमकिन है, क्योंकि अभाव का अभाव तो स्वरूप ही है, क्योंकि अत्यन्ताभाव का अभाव प्रथम अभाव के प्रतियोगिस्वरूप होता है यह नियम है । वह्निस्वरूप अभावाभाव तो धूमाधिकरण में संयोगसम्बन्ध से रहता है, न कि विशेषणताविशेपसम्बन्ध से । अतः अव्यवहितप्राकृक्षणावच्छेदेन वह्निभावत्वधर्मवत्त्वस्वरूप धूमकारणता वह्निअभाव में भी रहने लगेगी, जो किसीको भी इष्ट नहीं है।
त्रि । इसलिये निराधार है कि अच्यवहितप्राक्षणावच्छेदेन धूमाधिकरण में वह्निअभाव अभाव विशेषणनाविशेषसम्बन्ध से भी रहता ही है । इसीलिए तो तब वहाँ यह प्रतीति होती है कि 'यहाँ वह्निअभाव नहीं है'। विशेषणताविशेष को सम्बन्ध बनाने पर ही तो उपर्युक्त नास्तित्वावगाही प्रतीति की उपपनि हो सकती है। मास्तित्वावगाही होने पर भी उक्त प्रतीति को विशेषणताविशेषसम्बन्ध की अनवगाही मानी जाय तब तो 'भूतले घटो नास्ति' इत्यादि प्रतीति भी विशेषणताविशेषात्मक स्वरूपसम्बन्ध को अपना विषय नहीं बनाएंगी मगर वस्तुस्थिति यह है कि भाव में रहनेवाली विशेष्यता से निरूपित विशेषणता उक्त प्रतीति से भूतल में प्रतीत होने की वजह स्वनिष्ठविशेष्यतानिरूपित भूतलत्वावच्छिन्नविशेषणता सम्बन्ध से ही घटाभाव भूतल में रहता है। इस तरह अव्यवहित प्राकृक्षणाचच्छेदेन धूमाधिकरण में विशेषणताविशेपसम्बन्ध से वृत्ति वृद्धिअभाव अभाव
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* भावाभावस्य पनियागिपनाविचार * का सैवं नीलादौ नीलाभावादेर्हेतुत्वं न स्यात् नीलप्राक्काले नीलाधिकरणे सम्बन्धान्तरण तदभावनीलस्यापि विशेषणतयैव वृत्तेरिति वाच्यम्, प्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धस्यैव विशेषणता
- जयलता वच्छेदकल्यान्न तादापनियोगिनानवच्छेदकरूपवत्वलक्षणं धूमकारणत्वं बहन्यभाव आपादयितुमर्हतीति गीतमायादयः ।
न च एवं = विषाणताविशेषसम्बन्धाच्छिन्नवृनिवस्य नादशाभावविवाषणल्वस्वीकार, समवायन नीलादी गमवायन नीलाद: प्रतिबन्धकल्पना प्रतिबन्धकाभान्विधया नीलाभावादः तत्त्वं न स्यात, नालप्राकृकाल - नालोत्पादाव्यवहितपूर्वक्षणावच्छेदन नीलाधिकरणे = नीलरूपात्मककापांधिकरणतयाऽभिमते अनालघटादा स्वनिरूपिनपटत्वावच्छिन्नविशेषगनया नालरूपाभावस्य विरक्षण सम्बन्धान्तरण = स्वायपटवाजिनविशेषनागम्ब न तदभावनीलस्यापि = निरुक्तन्यधिकरणसम्बन्धापत्रिनीलामात्रनिष्ठप्रतियोगिनानिरूपकाभावस्वरूपस्य नालस्यापि नालामावाभावत्वेन रूपेण विशेपणतया - स्वनिरूपिननीलघनिष्ठविदाषणतासम्ब-न्धन वनमानस्व नीलल्लादिमीण विशेषणतया - कालिकावशेषणनया एवं वृत्तेः = वृत्तित्वात इति वाच्यम्, प्रतियोगितावच्छंदकसम्बन्धस्य - प्रतियोगिनिष्ठस्यानावावगंधित बदलसम्बन्धस्य एवं विशेषणतात्वात = विशेषगतापदप्रतिपाद्यत्वात् । प्रकृते नीलरूपवत्यपि मण्यादी नालाभागनरूपितपरत्वावच्छिन्नविशेषानतानम्बन्धन नीलाभावस्य सन्चानतम्याक्तप्रतियोगितावच्दकसम्बन्धत्वसम्भवः । नापि कालिकविशेषणतासम्बन्धम्य प्रतियोगिनिष्ठस्वाभावनिराधिनावच्छेदकसम्बन्धत्वसम्भवः प्रतियोगिमयपि कालिक विशेषतावन्छिन्त्रतदभावमचात । किन्तु नीलप्राकाले नीलाधिकरणविधयाऽभिमते घंटे स्वनिरूपिनघटत्वावचिन्त्रविदोषणनाविशेषसम्बन्धन नीलाभाववनि एतत्सम्बन्धावन्छिनातियोगिताक-नीलाभावाभावविग्हादेतस्यैव प्रतियोगिनावच्छेदकसम्बन्धत्तम् । नेन नीलाभावाभावस्य नदा तत्रा सच्चान्न नीलाभावत्वस्य कार्योत्यादान्यवहितपूर्वक्षणावच्छेदन कार्याधिकणनिरूपित - निरुक्तसंसगां. वन्छिन्ननिताकाभावप्रतियोगिता चच्छेदलत्वमिति समवायेन नालं प्रति न नीलाभारस्य कारणत्वानुपपत्तिः । न च प्रतियोगिनिष्टस्वाभावविरोधितावच्छेदकसम्बन्धयव कथं विशेषगतात्वं ' इति शङ्कनीयम. तेन = विरोधितावच्छेदकसम्बन्धन एव तदभावाभावव्यवहारात, तदभावाऽज्ञानाच । घटवति भूतल “किमत्र निरूपितगतलनिष्ठविशेषतासम्बन्धेन घाटा भाची स्ति ?' इनि पर्यनुयोगे अनेन सम्बन्धन घटाभागात्र नास्ता त्यच व्यवहारात । एव तत्र र बटम्बक.पी गायने नान्त्रिकः । प्रथमाभावप्रतियोगिकाभााग्यप्रतियोगिताया यन सम्बन्धनायन्त्रित्वदायां द्वितीयाभावस्य प्रधमाभावनियांगिम्यरूपत्वमुपपयंत नम्प तत्र विवक्षिनप्रतियोगिताबदकसम्बन्धत्वं बाध्यन् । म च प्रधमत्यन्ना भावग्य भावप्रतियोगिकन्ये विशेषणतानिशेषम्यरूप: तस्याभाव - प्रतियोगिकल्वं यथायथं समवायादिस्वरू: । अन एव समवायसम्बन्धारच्छिन्नघदाभावनिष्टप्रतियोगितानिस्पका भावस्य न घटस्व
की प्रतियोगिता का अवादक वहिअभावच हो जाने की बजह तादृशअभाप्रतियोगितानवच्छेदकधर्मवत्त्वस्वरूप धूमकारणना वहिअभाव में रह जाने की अनिष्ट आपनि नहीं आयेंगी - यह पलित होता है।
नीलके प्रति नीलामी करपात का समर्थन न च ना. । यहाँ इस शंका का कि -- 'समवाय सम्बन्ध में नील रूप की उत्पत्ति में समवाय सम्बन्ध में नील रूप प्रनिरन्धक होने से नील रूप के पनि प्रनिबन्धकाभाविधया नीलरूपाभाव में कारणता नैयायिकसम्प्रदायमान्य है । मगर उपर्युक्त कारणना के स्वीकारपक्ष में नील के प्रनि नीलाभाव में करणता न हो सकेगी, क्योंकि नीलरूप की उत्पनि के प्राक्क्षणावच्छेदन नील रूप के अधिकरणविषय अभिमत घट आदि में नीलरूपाभाव घर्टीयधिशेषणनास्वरूप म्वरूपसम्बन्ध में होने पर भी पटीयविशेषणता सम्बन्ध से नहीं होने में समयायसम्बन्धावच्छिन्न-नाररूपाभानिपनियागिताकाभाव विशेषणनाविशेष. सम्बन्ध में रहता है । कार्याधिकरण में विशेपणनावापसम्बन्ध मे गहनेवाल नीलाभावाभाव की प्रतियोगिता का अनदक नीलाभावत्व बनता है। अतः नीलाभाव में तादृशाभावप्रतियोगितानवच्छेदकधर्मवत्वस्वरूप नीलकारणता न रह सकेगी'-समाधान यह है कि कार्याधिकरण में जिस विशेषणतासम्बन्ध में अभाब का रहना अभिमत है वह प्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धात्मक ही ग्राह्य है, न कि अन्य सम्बन्धात्मकः । प्रतियोगिता का अर्थ है विगंधिता । नियोगी अपने अभाय का जिस सम्बन्ध में विगंधी हो वह प्रतियोगितावदक मम्बन्ध हो सकता है। यहाँ नालापादात्यहितपूर्वक्षणावच्छंदन नीलाधिकरणविधया अभिमन अनील पद में पदनिप्रविशंपणनासम्बन्ध से अवच्छिन्न प्रतियोगिता का निरूपक नीलाभागभार कालिकरिशेपणतादि सम्बन्ध में होने पर भी बढ़ सम्बन्ध प्रतियोगितावदक नहीं हो सकता है, क्योंकि उक्त सम्बन्ध में दोनों एकत्र रह सकते हैं। विधिता अवच्छेदकसम्बन्ध नो घटवृनिविपणताविपसम्बन्ध हो मकना है, क्योंकि त नालाभार मालाभावाभावस्वरूप बन सकता
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१६८ मध्यमस्यादाइरहस्य खण्डः ३ . का.१६ * अनुसन्धानप्रारम्भः* त्वात, तेनैव तदभावाभावव्यवहारात, 'घटोऽस्ती'ति प्रतीते: 'घटाभावो नास्तीति प्रतीतो। विशेषणतात्वावच्छिन्नसांसर्गिकविषयतयैव विशेषात् ।
धाऽव्यवहितत्वांशत्यागेन ततत्कालावच्छेदेनेत्येवोच्यतां इति वाच्यम्, अव्यवहितपूर्वसमयावच्छेदेन कार्यवति यदभावो ज्ञायते तत्र कारणताबुन्दयनुदयेन तन्निवेशादिति वर्माते !
गोव्यते - यत्तावद 'येन सह' इत्यादिकमुक्तं तदयुक्तम्, येन पृथमन्वयादिमता यस्य तद्रहितस्येत्युक्तौ नियमादिप्रवेशवैफल्यात,
-* जयावा *रूपत्वं भवति । न च घटान्वन्ताभावाभारस्य घटस्वरूपत्वं तदवगाहितीन्यो: सर्वथाऽविशेष पवेति वाच्यम्'घटोऽस्ती'ति प्रतीतः 'घटाभावो नास्तीति प्रनीती विशेपणनात्यावच्छिन्नसांसर्गिकविषयतयेव विशेषात् = भंदात् । 'घटोस्तीति प्रनीतिः संयोगवाद्यवछिन्नसांसर्गिकविषयतावगाहिती 'घटाभावी नास्तीति प्रतीतिस्त विशेषणतात्वावन्त्रिसंसर्गतारज्यविषयतावगाहिनातीयस्नियार्विशेषः । ___ एतावत्पर्यन्तमेव महामहोपाध्यायप्रणीतं मध्यमपरिमाणम्याद्रादरहस्यप्रकरणमुपलभ्यने । सम्प्रतं तदनुसन्धानं विद्रियते
न च प्रकृतकारणतालक्षण अव्यरहितत्वांशत्यागेन = अव्यवहितत्वभाविनिकिण, तनत्राककालावच्छेदेन = तत्तत्कार्योत्पत्तिपूर्वक्षणावच्छेदन इत्येवोच्यतां अव्यबहितत्वीपादानेनालमिति वाव्यम्, अव्यवहितपूर्वसमयावच्छेदेन = तत्चत्कार्योत्पादाव्यवहितपूर्नसमये कार्यवति = कार्यतावच्छेदकसम्बन्धन कार्याधिकरणविधयाऽभिमते यदभावः = सद्भमांवच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावः ज्ञायते तत्र - तद्धर्मावच्छिन्ने कारणताबुद्ध्यनुदयन = तनत्कार्यनिरूपितकारणलज्ञानासम्भवेन तनिवेशात् = गव्यवहितत्वप्रवेशात् अव्याहतपूर्वसमयावच्छदेन कार्याधिकरणे वृत्तित्त्वस्यैव व्यतिरेकव्यभिचारपदार्थत्वात्, व्यभिचारज्ञानस्य निरुक्तकारणलचिराधित्वादिति वदन्ति ।
उत्तरपक्षयति । अत्रोच्यते । यत्तावद् 'येन सह इत्यादिकं = येन सहैव यस्य यं पनि पूर्वन्त्विं गृह्यते तत्र नदाद्यमन्यथासिद्धमिति उक्तं = यथाश्रुतं तदयुक्तम्, दण्डन्यादिना दण्डादः दण्डादिना दण्डसंयोगादेर्वा घटं प्रत्यन्यथासिद्धत्वापत्नः। तन्निवारणार्थं 'येन = पृथगन्वयादिमता यस्य = सद्रहितस्य = पृथगन्वयव्यतिरेकशून्यस्य इत्युक्ती नियमादिप्रवेशवैफल्यात् है। मगर घटनिविशेषणताविशेषस्वरूपसम्बन्ध से तो नीलोत्पत्तिप्राक्क्षणावच्छेदेन घट में नीलाभाव ही रहता है, न कि उपर्युक्तसम्बन्यावच्छिन प्रतियोगिताक नीलाभावामाव । इसलिए नीलाभावत्व तादृशकार्याधिकरणवृत्ति अभाव की प्रतियोगिता का अनयच्छदक ही बनेगा । भतः नाशप्रतियोगितानवच्छेदक धर्नवस्वस्वरूप नीलकारणता नीलरूपप्रतियोगिकात्यन्ताभाव में निरागाध रहती है । अभावीयप्रतियोगिताचच्छेदक सम्बन्ध से ही तदभाव के अभाव का व्यवहार होता है । जैसे घटसंयुक्त भूतल में 'क्या यहाँ स्वरूपसम्बन्ध से घटाभाव है ?' इस प्रश्न के जवाब में यही व्यवहार होता है कि 'यहाँ स्वरूप-सम्बन्ध से घटाभाव नहीं है। यह स्वरूपसम्बन्ध दुसग कुछ न हो का स्वनिमपिनभूतलत्वावचिनविशेषणताविशेष ही है। हाँ इतनी विशेषता जरूर है कि. 'भूतले घटोऽस्ति' इस प्रतीति में मंयोगत्वावचित्र संसर्गनानामक विषयता का उल्लेख होता है जब कि 'भूनले घदो नास्ति' इस प्रतीति में विशंपणनावावचिन्न संसगताख्य विषयता का भान होता है। सर्वथा ऐक्य दोनों में नहीं है।
यहाँ यह शंका करने की कोई जरूरत नहीं है कि > 'कारणता के शरीर में अव्यवहिनत्व अंश का प्रवेश किये चिना 'नन तत् कालावच्छेदन' का ही निवेश क्यों न किया ?' -- क्योंकि कार्यतावच्छेडकसम्बन्ध से कार्य के अधिकरण में अव्यवहितपूर्वसमयावच्छेदेन जो अविद्यमान होता है उसमें कारणना का ज्ञान ही नहीं होता है। जिसकी अव्यवहितपूर्वक्षण में उपस्थिति न हो फिर भी कार्य उत्पन्न हो जाय तब उसे उस कार्य का कारण कहने का दामाहस कौन करेगा ? अतः कारणता के शरीर में अव्यवहितन्य अंश का निवेश भी आवश्यक है . यह नैयापिकों का मत है।
नैयायिकसंगतकारणता प्रसंगा । स्यादादी 3e भना । मगर इसके प्रतिवाद में स्यादाटी का यह कथन है कि कारणता के शरीर में प्रविष्ट भेद के प्रनियोगी अन्यथासिद्ध ५ इतः परं मूलादर्शपत्रं रिक्तमय । इतोऽग्रे मध्यमस्याहारहस्यानुसन्धानं एकादशकारिकाविवरणपर्यन्नमस्माभिरस्मिन् पुस्नक मुद्रितम् । द्वादशकारिकाविवरणं तु लघुस्याद्वादरहस्यगतमवारमाभिः मुद्रितमिति विज्ञवाचकवर्गेणाऽवधातव्यम् ।
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* दिनकरयवृत्तिखण्डनम् *
पृथगन्वयादिमतेत्यादेरनुगतानतिप्रसक्तस्य दुर्वच-त्वाच्च ।
ॐ जयलता कै
कारणतालक्षणघटकपूर्ववृत्तित्वविशेषणीभूतनैयत्यादिप्रवेशस्य वैयर्थ्यापत्तेः । न चास्तु तस्य तत्यरिचायकत्वमेवेति वाच्यम, तथापि 'पृथगन्वयादिमते' त्यादेः अनुगतानतिप्रसक्तस्य दुर्वचत्वात् । तथाहि समवायेन घटं प्रति स्वसंयुक्तसंयोगसम्बन्धेन नियतपूर्ववृत्ती दण्डेऽतिव्याप्तिः । संयोगेन घटं प्रति संयोगेन दण्डस्य पूर्ववृत्तित्वस्वीकारेण तद्दोषवारणेऽपि दण्डरूपेऽतिव्याप्तिः, समवायेन घटं प्रति दण्डाद्यघटितकालिकसम्बन्धेन नियतपूर्ववृतिदाया दण्डरूपेऽतिव्यासि:, समवायेन घटं प्रति दण्डाद्यघटितकालिकसम्बन्धेन नियतपूर्ववृत्तिताया दण्डरूपे सत्त्वात् ।
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८६९.
यन्तु महादेवेन स्वातन्त्र्येण तत्कार्यनिरूपितान्वयव्यतिरेकशून्यत्वे सति नत्कार्यकारणावच्छिन्नस्वनिष्ठतत्कार्यनिरूपित नियतपूर्ववृत्तित्वग्रहविशेष्यताकं यत्तत्तत्कार्यं प्रत्यन्यथासिद्धगित्यर्थः । कपालसंयोगी बदनियतपूर्ववृत्तिरित्यादिग्रहविदोष्यतायाः कपालसंयोगनिष्ठाया: कपालावच्छिन्नत्वात् कपालसंयोगे ऽतिव्याप्तिवारणाय सत्यन्तं दण्डत्वादिवारणाय विशेष्यमिति गदितं (मु. दिनकरीय.) तन चारु, तथापि 'दण्डत्वं घटनियतपूर्ववृत्ती त्यादिग्रविशेष्यताया दण्डत्वनिष्ठाया दण्डत्वत्वघटकदण्डावच्छिन्नत्वानपायात्। विशेष्यतावच्छेदकतापर्याप्तिनिवेशे दण्डरूपं घटनियतपूर्ववृत्तीति पूर्ववृत्तित्वग्रहविशेष्यतावच्छेदकतायाः रूपत्वान्तर्भाविन पर्याप्तत्वादसम्भवापत्तेः कपालसंयोग घटनियतपूर्ववृत्तिरित्यादिग्रहविशेष्यतावच्छेदकतायाः कपालपर्यासत्वाभावेन कपालसंभोगवारकसत्यन्तवैयर्थ्यापतेश्व । दण्डीयं घटनियतपूर्ववृत्ति कपालीयो घटनियतपूर्ववन्निरित्यादिग्रहतिदशेष्यतावच्छेदकनामादाय तदुभयोपपादने दण्डीयं घटनियतपूर्ववृत्तीत्याकारकदण्डत्वविशेष्यकग्रह विशेष्यतावच्छेदकतामादाय दण्डरूपेऽतिव्याप्तिर्दुवरा ।
अथ ग्रहनिवेशनं स्वरूपाख्यानमात्रं, लक्षणं तु तत्कार्यकारणावच्छिन्न नियत पूर्ववृत्तित्वमेव । दण्डत्वनिष्ठनियतपूर्ववृत्तितावच्छेदकं | दण्डत्वनिष्ठत व्यक्तित्वमेव न तु दण्डत्वत्वं गौरवादिति चेत् ? अत्र पृच्छामः कुतो न दण्डत्वं नियतपूर्ववृत्तितावच्छेदकमिति ? तद्यदि कार्याव्यवहितप्राकूक्षणावच्छेदेन कार्याधिकरणवृत्तितावच्छेदकत्वरूपं तदा गुणकर्मान्यत्वविशिष्टसत्तात्वस्य सत्तात्वापेक्षया | गुरुत्वेऽपि यथा द्रव्यवृत्तितावच्छेदकत्वं तथा दण्डत्वत्वस्य गुरुत्वेऽपि दण्डत्वं घटोत्पादनियतपूर्ववृत्ति' इति प्रतीत्या तदवच्छेदकत्वं | दुर्वारम । यदि व कार्यांव्यवहितप्राक्क्षणावच्छेदेन कार्यानधिकरणवृत्त्यभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वरूपं तदा सुतराम् । न च 'कार्याधिकरणताप्रयोजकाधिकरणतानिरूपकतावच्छेदकत्वं सति कार्याभावप्रयोजकाभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वरूपनियतपूर्ववृत्तितावच्छेदकत्वं न दण्डत्वत्वेऽभ्युपेयते गौरवात् प्रयोजकत्वञ्च स्वरूपसम्बन्धविशेष एवेति वाच्यम् तर्हि दण्डरूपत्वविशिष्टनिरूपितपरम्परासम्बन्धावच्छिन्नाधिकरणतायां घटाधिकरणताप्रयोजकत्वं तत्सम्बन्धावच्छिन्नदण्डरूपत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताका भाव घटाभावप्रयोजकप्रामाणिक लाघवेन दण्डाधिकरणत्व दण्डाभावयांस्तत्समनियतयोरेव प्रयोजकत्वस्वीकारसम्भवादिति दण्डरूपादावसम्भवः । अर्थतदर्थमेव ग्रहनिवेशनं कृतं ग्रहश्व सम्भावनारूपां विवक्षितः । सम्भाव्यमानमपि तादृशान्वयच्यतिरेकवत्त्वं दण्डव तद्व्यक्तित्वेनैव सम्भाव्यते लाघवात्, न तु दण्डत्वत्वेन गौरवात् । दण्डरूने तु दण्डरूपत्वेन सम्भाव्यते न तु रूपत्वेनातिप्रसङ्गादिति चेत् १ किमियं सम्भावना महासती प्रमात्मिका उत भ्रमणमासाधारणी वाराङ्गना । इति पक्षोभय । आये दण्डरूपेऽपि न तत्सम्भवः तत्र तादृशान्वयव्यतिरेकयोरभावात् । द्वितीये दण्डत्वेऽपि दण्डत्वत्वेन सम्भावना केन चारणीया ? इत्यलं अनावश्यकदण्डववारणसम्भवासम्भवविचारेण
का जो निर्वाचन नैयायिक की ओर से किया गया है वह समीचीन नहीं है। देखिये प्रथम अन्यथासिद्ध के प्रतिपादन में नैयायिक ने कहा था कि 'जिसके साथ ही जिसमें कार्य के प्रति पूर्ववृत्तित्व का भान होता है वह उस कार्य के प्रति प्रथम अन्यथासिद्ध है' (देखिये पृ. ८३६) - मगर वह अयुक्त है, क्योंकि यथाश्रुत इस अर्थ का स्वीकार करने पर दंडसंयोगादि भी दण्डादि से प्रथम अन्यथासिद्ध होने की आपत्ति आती है । दण्ड के साथ ही दण्डसंयोगादि की घट के प्रति पूर्ववृनिता ज्ञात होती है। यदि येन = पृथगन्वयादिमता' और 'यस्य = शुभगन्चयादिरहितस्य' ऐसा परिष्कार किया जाय तब पूर्वोक्त रीति से ( देखिये पृ. ८२६) दण्डादि से दण्डसंयोगादि में प्रथम अन्यथासिद्धत्व की आपत्ति तो चली जायेगी मगर तब कारणता के शरीर में प्रविष्ट पूर्ववृत्तित्व के विशेषण नैयत्य आदि के वैयर्थ्य की आपत्ति आयेगी। दूसरी बात यह है कि पृथगन्वयादि का अनुगत्त एवं अनतिप्रसक्त निर्वाचन भी हो सकता नहीं है । अननुगत एवं अतिप्रसक्त होने की वजह आय अन्यथासिद्ध में पृथगन्वयादि का निवेश हो सकता नहीं हैं ।
ईश्वरज्ञानादि में घटादि के प्रति अज्यथासिद्धत्व की आपत्ति
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८५ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः ३ - का.११ * द्वितीयान्यधासिद्धिनिरालः *
अन्यं प्रती'त्यादिकमध्ययुक्तम, ईश्वरज्ञानादेः क्षित्यादिपूर्ववृत्तित्वेन गृहीतस्यैव घटादिपूर्ववृत्तित्वग्रहाद घटादावन्यथासिन्दयापत्तेः । न त महेश्वरज्ञानादेः क्षित्यादिपूर्ववृतित्वमहादेव कार्यमा तन्देतुत्वसिन्दिरिति वाध्ययम्, तथापि शब्दसाक्षात्कारे गगनस्यान्यथासिन्दत्वायत्तेः । ता च इन्द्रियत्वेन ता हेतुत्वग्रहाददोष इति वक्तव्यम्, तथापि श्रावणत्वावच्छिन्ने श्रोत्रत्वेनाऽहेतुत्वासमात् ।
* जयलता द्वितीयान्यथासिद्धमपाकरोति . 'अन्यं प्रती' त्यादिकं = अन्य प्रति पूर्ववृत्तित्वे ज्ञान एवं यं प्रनि यस्य पूर्वानत्वं गृह्यते तत्र तद् द्विीपमन्यधासिद्धमिति अपि अयुक्तम् । अस्या युक्तत्वे तिव्याप्तिदोषमाह - ईअरज्ञानादेरिति नित्वज्ञानच्छादेः क्षित्यादिपूर्ववृत्तित्वेन - अस्मदाद्यजन्यक्षित्पादिपूर्ववृनित्वघटितत्वेन गृहीतस्य = नित्यादि सकर्तृकं कार्यत्वाद् घटवदित्यननानुमितस्य, एव घटादिपूर्ववृत्तित्वग्रहाद् आकाशादरित्र घटादी कार्य अन्यथासिद्ध्यापनेः = द्वितीयान्यधासिद्धत्वप्रसङ्गात् ।
न च महेश्वरज्ञानादेः क्षित्यादिपूर्ववृत्तित्वग्रहादेव = क्षित्यादिपूर्ववृत्तित्वादनकारणत्वग्राहकमाणादव कार्यमात्रे = कार्यत्वावच्छिन्न प्रति तद्धेतुत्वसिद्धिः = त्रिलोचनद्रानाद: बटादिनियतपूर्वदृत्तित्व टिनकारणत्वसिद्धिः यद्रास्तु क्षित्यादिहेतुत्वेन पावनीपतिज्ञानादे: घटादिकं प्रत्यन्यधासिद्धत्वेऽपि नित्यज्ञानत्वादिना कारणत्वं इति वाच्यम्, तथापि निरुक्तरीत्या इंशज्ञानादे: घटादावन्यथासिद्धिवारणसम्भवेऽपि शब्दसाक्षात्कार गगनस्य कर्णशकुल्पवच्छिन्नाकाशत्वेन रूपेण अन्यधासिद्धत्वापत्तेः = द्वितीयान्यथासिद्धत्वप्रसङ्गात् । आकाशत्वस्य शब्दसमचायिकारणत्वस्वरूपतया शब्दसाक्षात्कारातिरिक्तकार्य प्रति पूर्वदृजित्वपटिनरूपेणाकाशस्य सान्दप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नं प्रति पूर्ववृनित्वग्रहान घटत्वाद्यवच्छिन्नं प्रतीच शब्दप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नं प्रत्यपि द्वितीयान्यवासिद्ध त्वप्रसङ्गस्य दुरित्वात् । न चाष्टद्रव्यान्यद्रव्यत्वेन अन्यकार्यनिरूपितपूर्ववृनित्वघटितरूपेणाकाशम्य शब्दसाक्षात्कार हेतुत्वमिति शकनीयम्, तेनैव रूपेणाकाशम्य घटादिजनकत्वापनेः । न च इन्द्रियत्वेन रूपेण तत्र = श्रीवात्मके आकाशे शब्दप्रत्यक्षत्वावधि प्रति हेतुत्वग्रहात् ' - पूर्वनित्वभानात् अदोपः = द्रतीयान्यधासिद्धत्वकलङ्गाना पातः, प्रत्यक्षत्वावच्छिन्ने इन्द्रियतनव हेतुत्वात, यद्विशेषया; कार्यकारणभाव: असति बाधक स तत्सानान्ययारपीति न्यायान इति वम्तव्यम्, तथापि = कर्णदाकुल्पवच्छिन्नाकाशे न्यनिरूपितपूर्ववृत्तित्वाघटितन इन्द्रियत्वेन रूपेण दाब्दप्रत्यक्षत्वावच्छिन्न प्रति कारणत्वांपपादनापि, श्रावणत्वावच्छिन्ने ओत्रत्वेन = कर्णशष्कुल्यवच्छिनाकाशत्वेन रूपेण अहेतुत्वप्रसङ्गत् - द्वितीयान्यथासिद्धत्वापातात् । न हि श्रावणलवच्छिन्नं प्रति श्रोत्रस्येन्द्रियत्वेन कारणत्वं सम्भवति, अनिप्रसङ्गात् । कर्णशकुल्यवयित्राकारलं तु अन्यपूर्ववृनिवघटितम् । अता न
अन्यं. । इस तरह द्वितीय अन्यथासिद्ध का 'अन्य के प्रति पूर्ववृत्तिता ज्ञात होने पर ही जिसकी प्रकृतकार्यपूर्वनिता ज्ञात होती है वह प्रकृत कार्य के प्रति द्वितीय अन्यथासिद्ध है (देखियं पृ.८४५) इल्याकारक लक्षण भी असंगन है, क्योंकि तब नो महेश्वरज्ञान आदि भी घटादि कार्य के प्रति द्वितीय अन्यथासिद्ध बन जायेंगे । इसका कारण यह है कि 'सियादिक सकर्तृक कार्यन्वात्' इत्याकारक अनुमान से नैयायिकमतानुसार ईश्वर की सिद्धि होने में ईश्वरज्ञान आदि में क्षिति आदि के प्रति पूर्ववृत्तिता का ज्ञान होने के बाद ही उसमें घटादि कार्य के प्रति पूर्वनिता जात होती है। यदि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि -- ईश्वरज्ञानादि में क्षित्यादि के प्रति पूर्ववृत्तिता का ज्ञान होने में ही कार्यमात्र के प्रति कारणता का उसमें निश्चय हो जाता है। इसलिए घटादि के प्रति ईश्वरज्ञानादि में अन्यधासिद्धत्य की आपत्ति नहीं आयेगी' <तो भी आकाश शब्दसाक्षात्कार के प्रति द्वितीय अन्यथासिद्ध बन जायेगा, क्योंकि शब्द के प्रति पूर्ववृनिता का ज्ञान होने के बाद ही शब्दसाक्षात्कार के प्रति आकाश में शब्दसाक्षात्कारपूर्ववृत्तित्व का ज्ञान होना है। आशय यह है कि कर्णशकुल्यवन्छिन्न आकाश ही नैयायिकमतानुसार श्रोत्रेन्द्रिय है और बह शन्दप्रत्यक्ष के प्रति कारण है, जैसे कि रूपप्रत्यक्ष के प्रति चक्षु । शब्दप्रत्यक्ष के प्रति श्रोत्रत्वेन पूर्ववृत्तिता का ज्ञान होने पर आकाश में शब्दपूर्वतित्व का ज्ञान हो ही जाता है, पोकि श्रोत्रत्व = कर्णशप्कुल्यवञ्चिन्नाकाशत्व = कर्णाकुल्यवच्छिन्नशब्दसमवाधिकारणत्व = कर्णशकुल्यवच्छिन - शन्दनिरूपितान्यथासिद्धिशुन्यनियतपूर्ववृत्तित्व होने से शब्दसाक्षात्कार के प्रनि श्रोत्रत्वेन श्रोत्र को कारण मानने पर शब्द के प्रति पूर्ववृत्तित्व का ज्ञान हो ही जाता है । इसलिए, वान्दप्रत्यक्ष के प्रति आकाश में द्वितीयान्यथासिद्धत्व की आपनि का चारण नहीं हो सकता ।
र यातणप्रत्यक्ष से प्रति दितीयान्यथासिदत्वापनि म न च इ. । यटि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि -> शन्दप्रत्यक्ष के प्रति आकाश श्रोत्रत्वेन कारण नहीं है किन्तु इन्द्रियत्वेन कारण है, क्योंकि प्रत्यक्षत्वावच्छित्रकारणतानिरूपित कार्यता का अवच्छेदक इन्द्रियत्व है, न कि श्रोत्रत्व ।
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*म अपाकाग्मनिरासः * 'अवश्यक्तृप्ते'त्यादिकमपि न समीचीनम्, आवश्यकत्वस्य दुर्वचत्वात् ।
-* जयलता * श्रावणत्वावच्छिन्ने श्रोत्रल्येन हेतुत्वग्रहसम्भवः । न च श्रावणत्वावच्छिन्नकारणताशरीरे शब्दपूर्ववृतित्वातिरिक्तपूर्ववृनिवभेद एव नियतपूर्ववृत्तिताबन्छंदकविशेषणमिति वाच्यम् , घटत्वावच्छिन्न कारणताशरीरेऽपि विनिगमनाविरहेण तथानिवेशे घटादाबाकाशस्य कारणतापत्तेः। न च तस्य नत्राकारणत्वादेव घटत्वावच्छिन्नकारणताशरीरे न तथानिवेशादर इति वाच्यम, परम्पराश्यप्रसङ्गात गौरवाच । एतेन 'पावभीतिकं झगरमितिश्रुत्या दारीरं प्रत्याकाशम्य कारणताबोधनाच्छरीरत्ववन्छिनकारणताशरीरे शब्दपूर्ववृनित्वातिरिक्तपूर्ववृनित्वघटितधर्मभेद एव नियतपूर्ववृत्तितावन्डेदकधर्मविशेषणमिति मञ्जूषाकारवचनं निरस्तम् । बस्तुतस्तु 'पद्विशेषयो...' इनिन्याय मानाभावेन शब्दसाक्षात्कारत्वावच्छिन्नं प्रति नेन्द्रियत्वेन रूपेणापि गगनस्य हेतुत्वग्रहः सम्भवति इति तु ध्येयम् ।
तृतीयन्यथामिद्भमपाकरोनि - अवश्यक्लृप्तेत्यादिकं = 'अबश्यक्लृप्तनियतपूर्ववर्तिन एव कार्यसम्भवे तत्सहभूतं अन्यथासिद्ध तृतीय इदि अपि न समीतीनग, आनागकन्जमा - दण्डत्व-दण्डरूपादिव्यावृनावश्यकत्वस्य पूर्वोक्तरीत्या दुर्वचत्वात् । न ज कार्यान्वयव्यतिरेकायोजकान्चययतिरेकप्रतियोगित्वमेवावश्यकत्वमिति वाच्यम्, कार्यान्वये तव्यतिरके च कारणान्चयन्यतिरेकयोरिव कारणतावच्छेदकान्वयव्यतिरेकयोरपि तत्प्रयोजकतायाः सिद्धान्तसिद्धतया तच्छून्यत्वस्य दण्डत्वे दुरुपपादत्वात् । प्रतियन्ति हि लोका: 'तन्नो कपालत्वाभायान्न घट' इति । एवं पत्र चक्रे वस्त्वन्तरं संयोज्य प्रवृत्ती बदमुत्पादयितुं न शक्नोति पश्चात्तत्य मन्यते एतस्य दण्टत्वाभावान्न मुत्पिण्टे घटोत्पत्तिरिति ।
किञ्च दण्डरूपसनायाः कुतो न घटसनाप्रयोजकत्वं कृतो वा नदभावस्य न तदभावप्रयोजकत्वम् ? 'दण्डापेक्षया दण्डरूपस्य गुरुत्वादिति चेत् । तर्हि कपालापेक्षया गुरोः कपालस्योगस्य चक्रापेक्षया गुरोः चक्रभ्रमणादेरपि यावन्वयव्यतिरेकी तयोग्प्रयोजकत्वापत्तिः। न च सत्यपि कपाल कपालस्योगबिलम्चे घटविलम्यः सत्यपे चक्रे चक्रभ्रमणविलम्बे घटविलम्ब इति तयोरचयञ्यतिरेको तथेति वाच्यम्, एवं सति कपालसंयोगे न कपालविलम्बाद् घटविलम्बः सति चक्रभ्रमगे न चक्रविलम्बाद घटविलम्ब इति कपालचक्रयोरपि अन्वयञ्चतिरेकी न तथा स्याताम् । न व कपाल-चक्रपोस्स्वतन्त्रान्वयव्यतिरेकशन्यत्वेऽपि सत्कार्यकारणावच्छिन्नेत्यादिविशेषणेन तयोरन्यथा सिद्धत्ववारणसम्भव इति वाच्यम, दण्डवचक्रं घटनियतपूर्ववृत्ति, चक्रवान कपालो घटनियनपूर्वनिरित्यादिप्रतीत्या नहिशेषणस्यापि तत्र सत्त्वात् । न च कारणान्चयत्र्यतिरकयोः कार्यान्वयन्यतिरेकायोजकतया कपालचक्रान्वयव्यतिरकयोस्तधात्वमिनि वाच्यम्, एवं दण्डरूपस्य कारणत्वाभावमनिश्चित्य कथं तदन्वयव्यतिरकयोरप्रयोजकत्वनिश्चप: स्यात् तत्रभवतां भवताम ? न चोक्तान्यथासिद्धत्वादेव हि स्त्र कारणत्वाभावो निश्चय इति वाच्यम्, परस्पराश्रयप्रसङ्गात् ।
- अथ पत्र दयौरकतरस्यान्वयव्यतिरेकयोः प्रयोजन्यारुपपति: नत्र लघोरव सा स्वीक्रियते न गुरोरतो न दण्डपान्वयन्यनिरे - कयोः घटान्वयव्यतिरेकायोजकत्वनिश्चय इति चेत् ? एबमपि चक्रक्रपालयो: कारणता मनिश्चित्य तदन्दयत्र्यतिरेकयो: प्रयोजकता दुर्जेया तामनिश्चित्य च तयोः कारणति परस्पराश्ररता । चक्रसंयोगापेक्षया चक्रस्य लघुत्वेन तदन्वयत्र्य तिरेकयोः प्रयोजकत्वनिश्चय इस तरह शन्दप्रत्यक्ष के प्रति आकाश में श्रोत्रत्वेन द्वितीय अन्यथासिद्धि होने पर भी इन्द्रियत्वेन कारणता का ज्ञान हो सकता है' तो भी प्रावणस्वापच्छिन के प्रति श्रोत्रत्वेन अकारणता की आपत्ति आयेगी । आशय यह है कि प्रत्यक्षत्वेन कार्यता का स्वीकार करने पर इन्द्रियत्वेन कारणता का प्रतिपादन किया जा सकता है। मगर श्रावणत्वेन कार्यता का स्वीकार किया जाय तब इन्द्रियत्वेन कारणता मान्य होती नहीं है, क्योंकि वह अतिरिकवृत्तिं धर्म है। किन्तु श्रोत्रत्वेन ही कारणता मान्य की जाती है . यह सर्वमान्य है। मगर नैयायिक मतानुसार श्रीवत्व उपर्युक्त गति से शन्दपूर्ववृतितापदित होने की वजह श्रावणलावच्छिन्त्र के प्रति श्रोत्र में श्रोत्रत्वेन पूर्ववृत्तिता का ज्ञान नभी हो सकता है यदि शन्द के प्रति उसमें पूर्ववृनिता का ज्ञान हो । अतः श्रावणत्वावच्छिन्न के प्रति श्रोत्रत्वेन अन्यथासिद्धत्व की आरति अपरिहार्य बन जायेगी । इसलिए द्वितीय अन्यथासिद्ध का नयायिकसम्मन लक्षण भी असंगत है . यह फलित होता है।
इस तरह तृतीय अन्यथासिद्ध का 'अवश्यक्तृप्तनियतपूर्ववृत्ति से ही प्रकृत कार्योत्पाद मुमकिन होने पर तत्सइभूत प्रकृत कार्य के प्रति तृतीय अन्यथासिद्ध है' (देखिये पृष्ठ ८५) यह लक्षण भी असंगत है, क्योंकि उसके घटकीभूत आवश्यकत्व का समीचीन निर्वचन ही नामुमकिन है। किमको आवश्यक कहा जाय और किसको अनावश्यक कहा जाय ? इसका यथार्थ निर्णय नहीं किया जा सकता 1 दण्डादि को आवश्यक और दण्डत्वादि को अनावश्यक कहने में कोई तर्क नहीं है। इस तरह तृतीय अन्यथासिद्ध का लक्षण भी निर्दोष नहीं है 1 चतुर्घ और पंचम अन्ययासिद्ध का खंडन करने की तो कोई आवश्यकता ही नहीं है, क्योंकि तृतीय और चतुर्थ अन्यथासिद्ध अभित्र होने से तृतीय अन्यथासिद्ध के निरास से ही चतुर्थ अन्यथासिद्ध
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६.७२ मध्यमस्पाद्वादरहस्ये खण्डः ३ . का.१६ * दिनकर्गीयवृत्तिनिरासः
अथान्यथासिन्दयनिरूपकनियतपूर्ववर्तिताकरूपवत्वं हेतुत्वम् । तान्यथासिन्दयनिरूपकत्वञ्च येन नियतपूर्ववर्तितावच्छेदकेन कारणत्वं न व्यवहियते ततदेदसमूहः कारणतायां निविशते तावदन्यतमत्वावच्छिमप्रतियोगिताकः एक एव भेदो वा इति चेत् ? न, उक्तभेदसमूह प्रतियोगिकोटावदासीनप्रवेशाप्रवेशाभ्यां विनिगमनाविरहात,
-* जयलता - चक्रसंयोगान्चयन्यतिरेकयोः न बटान्वयव्यतिरेकप्रयोजकत्वं स्यादित्ति न किश्चिदेतत् ।
तृतीय-चतुर्धान्यथासिद्धत्वयोः नैयायिकमनेऽभेदात् तृतीयापाकरणेनैव चतुर्थस्यापि निराकरणमवगन्तव्यम् । पञ्चमस्य तु द्वितीये समावेशात् द्वितीयनिरासेनेच तस्यापि प्रत्यारख्यातत्वम् । इत्थश्च नान्यथासिद्धत्वलक्षणं सङ्गतिमङ्गति ।
यत्तु दिनकरीयवृत्ती 'इतरान्वयव्यतिरेकप्रयुक्तान्वयव्यतिरेकशालित्वं दण्डत्व-दण्डरूप-साधारणमनुगतमन्यथासिद्धं भवतीति गदितं तदसत् यतो यदि तत्र यदितरान्वयव्यतिरेकप्रयुक्तत्वं नव्याप्यत्वं तदा दण्डान्वयव्यतिरेकयो: दण्डादयवान्वयव्यतिरेकच्याप्यत्वाद् दण्ड तिव्याप्तिः; स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धन नौलन्वयन्यातेरकया: समक्तत्वसम्बन्धेन नीलबिशिष्टान्वयन्यतिरेकन्यायत्वानीले तिव्याप्तिश्व । अत एव न तळ्यापकत्वमपि, दण्डनालयोरतिव्याप्तितादवस्थ्यात् ।
नैयायिकः शकते - अथेति । चेदित्यनेनास्यान्वयः । अन्यथासिड्यनिरूपकनियतपूर्ववर्तिताकरूपवत्त्वं हेतुत्वं = हेतुत्वपदप्रतिपाद्यम् । न चान्यधासिध्यनिरूपकधर्माणामननुगतलेन कारणताननगम इति वान्यम, यतस्तत्र अन्पथ च = हि येन नियतपूर्ववर्तिताबछेदकेन कारणत्वं प्रामाणिकैः न व्यवड़ियते तननेदसमूहः = तत्तद्धर्मभेदकूटः कारणतायां = कारणताशरीरे निविशते तावदन्यतमत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताकः = तत्तद्धर्मान्यतनप्रतियोगिन्क्र: एक एच भेदो वा कारणतायां निविशते । एतेन तत्तद्धर्मप्रतियोगिकभेदकूटावेशप्रयुक्तगौरवं परिहतम् । इति = अस्मात्कारणात, एकस्यैव भेदस्य तदघटकलात इति यावत्, कारगताशरीरे नाननुगमदोषः । यथा अन्यधासिद्धिनरूपकद्रव्यत्वभेद पृथिवील्यभेदादिकूटविशिष्टं तादृशद्रव्यत्वपृथिवीत्वाद्यन्यतमत्वावच्छिन्नभेदविशिष्टं वा पद दण्डवं तद्वत्वमेव दण्डे घटकारणत्वमित्यर्थः । तत्रिराकरोति नेति । कारणत्वस्य निरुक्तरूपत्वे यद्यपि तद्भटकान्यथासिद्धिनिरूपकधर्मभेदकूटस्य तावदन्यतमत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताकभेदप्रतियोगिनां च प्रातिस्विकरूपेण युगसहस्रेणापि ज्ञातुमशक्यतया कारणत्वस्य दुर्जेयत्वापनिः । न च तादृशभेदकूटविशिष्टविशेषणताविशेषसम्बन्धेन निरुक्तनियतपूर्ववर्तितावच्छेदकतावत्त्वमेव कारणताशगैरे निवेशनीयं, तथा व सम्बन्धज्ञानस्य विशिष्टबुद्धाचहेतुतयाऽनुपस्थितानमेव भेदानां सम्बन्धबटकतया भानसम्भव इति वाच्यम्, तत्तद्भेदकूटवत्त्वस्य कार्यप्रतियोगिकत्वाभावेन भेदकूटविशिष्टत्वेन विशेणताविशेषस्य सम्बन्धत्वे मानाभावात् । एवमन्दधासिद्भिनिरूपका ये पे धस्तित्तद्धेदकूटस्यापि तत्र सत्त्वात् । न चात् एव तावदन्यतमत्वावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकस्यैकस्यैव भेदस्य तत्र प्रवेशान्न दोष इति वाच्यम्, प्रवृत्तिकारणताशरीरे तादृशधर्मभेदस्य प्रयोजनचिरहेणानिवेशनीयत्वादित्यादिदोषाः तथापि स्फुटत्वात्तानुपेक्ष्य दोषान्तरमाह - उक्तभेदसमूहे = अन्यथासिद्धिनिरूपकधर्मभेदकूटे प्रतियोगिकोटौ उदासीनप्रवेशाप्रवेशाभ्यां = निष्प्रयोजनधर्मनिवेशानिवेशभ्यां पूर्वोक्तरीत्या विनिगमनाविरहात् । निरस्त हो जाता है एवं पंचम अन्ययासिद्ध और द्वितीय अन्यथासिद्ध में अभेद्र होने के सरन द्वितीय अन्यथासिद्ध के लक्षण मे खण्डन से ही पंचम अन्यथासिद्ध के लक्षण का प्रत्याख्यान हो जाता है। पञ्चम का द्वितीय में और चतुर्थ का तृतीय में समावेश होने के सबर ही तो तत्त्वचिन्तामणिकार ने सिर्फ तीन अन्यथासिद्धि का निरूपण किया है। इस तरह अन्यथासिद्धि का सम्यग् निर्वचन नामुमकिन होने की बजह कारणता का नैयायिकसंमन लक्षण भी असंगत सिद्ध होता है ।
कारणत्वलक्षण में भेदकर, या अस्वाभाव का निरोश जामुमकिन अथा. यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जा सकता है कि → 'अन्यथा सिद्धि का अनिरूपक ऐसा जो नियतपूर्वनिता का अवच्छेदक धर्म है तादृशधर्मवत्त्व ही कारणता है। कार्यनियतपूर्ववृतितावच्छेदकधर्म के विशेषणीभूत अन्यपासिद्धि अनिरूपकत्व का अर्थ है जिस नियतपूर्ववर्तितावटकरूप से कारणता का व्यवहार नहीं होता है नत्तद् धर्मों के भेद का समूह या तावदन्यतमत्वाव. शिमप्रतियोगिताक एक भेद । जैसे घट के प्रति दण्ड में व्यत्वेन पृथ्वीत्व आदि रूपेण, जो घटनियतपूर्ववृत्तितापच्छेदक हो सकता है, कारणत्व का व्यवहार होता नहीं है। अतः द्रव्यत्वभेद, पृथ्वीवभेद आदि के समूह का या द्रव्यत्व-पृथ्वीत्वादि अन्यतमत्वारच्छिनप्रतियोगिताक एक भेद का कार्यनिपतपूर्वनितावोदकधर्मविशेषणविधया कारणताशरीर में निवेश किया जाता है। घटनियतपूर्ववृत्तितावच्छेदक दण्डत्व में व्यत्वभेद, पृथ्वीवभेद आदि का समूह या द्रव्यत्व-पृथ्वीत्वाचन्यतमत्वावच्छिनप्रतियोगिताक || एक भेद रहता है । इसलिए दण्ड में तादृश दण्डत्ववच ही घटनिरूपित कारणता है। इस तरह कारणताशरीर में निरुक्त रीति
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* जगदीशमतनिरासः *
प्रतियोग्यविशेषिताऽखण्डभेदाभ्युपगमे च सर्वत्राऽखण्डाभाववत एवाखण्डाभावस्यैव वा हेतुत्वं स्यादिति बहु विप्लवेत ।
किञ्चैवं विशेष्यभागोऽपि व्यर्थत्वमाप्नुयात्कारणभेदस्यैवाखण्डस्य कारणतालक्षणत्वसम्भवात् । तस्मादिष्टसाधनत्वादिज्ञानकारणतावच्छेदकतयाऽतिरिक्तमेव परिणामविशेषरूपं नियतान्वयव्यतिरेकज्ञानव्यङ्ग्यं कारणत्वमभ्युपगन्तव्यम् ।
एतेन दण्डत्वादिकमेव कारणत्वं तस्यैव घटादिकार्यसम्बन्धितया ग्रहेऽनन्यथासिदेत्यादेॐ जयलता है
न चात एव तावदन्यतमभेदस्वाऽखण्डस्याभावत्वेनैव हेतुत्वमभ्युपगम्यत इति वाच्यम्, प्रतियोग्यविशेषिताऽखण्डाभावसचे प्रमाणाभावात् प्रतियोग्यविशेषिताऽखण्डभेदाभ्युपगमे च सर्वत्र एवं अखण्डाभाववतः = अखण्डाभावाधिकरणस्य एव हेतुत्वं स्यात् । ततोऽपि लाघवात् अखण्डाभावस्यैव वा हेतुत्वं स्यात् । वस्तुतः प्रतियोग्यविशेषितरूपेणाखण्डानावानां जनकतायामिय जनकतावच्छेदकतामामप्यन्यथासिद्धत्वम् । अन्यथा तावद्दण्डगगनाद्यन्यतमत्वलक्षणाखण्डभेदव्यक्तिमत्त्वेनापि जनकनापातादित्यपि
बदन्ति ।
यत्तु जगदीशेन 'गन्धादिकं प्रति गन्धत्वाद्यवच्छिन्नप्रतियोगिताका भावस्येव रूपरसगन्धान्यतमत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताका भावस्याखण्डस्य तद्व्यक्तित्वेन हेतुत्वं, अन्यथा रूपादिकमिव शब्दबुद्धयादिकमन्तर्भाव्य पञ्चतुःपञ्चकान्यतमत्वं तदवच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावव्यक्तीनामप्यखण्डतदूव्यक्तित्वेन गन्धादिहेतुतायामनन्तकार्यकारणभावापत्तेः । न चैवं गन्धत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताका भावस्यापि तद्व्यक्तित्वेन गन्धहेतुत्वं न स्यात्, इष्टत्वादिति कारणतावादेऽभिहितम्, तन्न चारुतया चकास्ति एवं सति विशेषकार्यकारणभावस्योच्छेदापत्तेः जन्यभावत्व - द्रव्यत्वाभ्यामेव कार्यकारणभावविश्रामात् ।
अत्रैव दोषान्तरमाह किञ्च एवं तद्व्यक्तित्वेनाऽखण्डाभावस्यैव कारणत्वस्वीकारे अनन्यासिद्ध नियतपूर्ववृत्तित्वं कारणत्वमित्यत्र विशेष्यभागः नियतपूर्ववृत्तित्वांश: व्यर्थत्वं = नैष्फल्यं आप्नुयात् । कुतः ? अनन्यथासिद्धत्वस्य = अन्यथासिद्धभेदस्य अकारणभेदस्य = यावदकारणभेदस्य एवं अखण्डस्य कारणतालक्षणत्वसम्भवात् तस्यानतिप्रसक्तानुगतत्वात् ।
-
-
८७३
=
निगमयति तस्मात् इष्टसाधनत्वादिज्ञानकारणतावच्छेदकतया 'स्वर्गकामां यजत' इत्यादी विधिप्रत्ययार्थेष्टसाधनत्वकृतिसाध्यत्वादिगोचरज्ञानकारणतावच्छेदकविधया अतिरिक्तमेव कारणात्कथञ्चित्पृथग्भूतं परिणामविशेषरूपं नियतान्वयव्यतिरेकव्यङ्ग्यं कारणत्वं = कारणत्वपदप्रतिपाद्यं अभ्युपगन्तव्यम्
=
युक्तचैतत् यतो घटादिकारणताया: कारणीभूतदण्डादिस्वरूपत्वं तेन समं तस्याधाराधेयभावानुपपत्तिः । अभेदेपि तदभ्युपगमें 'दण्डी घटकारणवानि' त्यादिप्रतीत्यापत्तेः । दण्डत्वादिस्वरूपत्वे च संप्रतियोगित्वानुपपत्तिः, जाते: निष्प्रतियांगिकत्वात्, दण्डत्वाद्यवच्छिन्नत्वानुपपत्तिश्च अभेदेऽवच्छेद्यावच्छेदकभावविरहात् । अभेदेऽपि तदङ्गीकारे दण्डवेन घटकारणत्वमितिवत् दण्डवेन दण्डत्वमित्यादिप्रतीत्यापत्तेः । एतेन दण्डत्वादिकमेव कारणतावच्छेदकस्वरूपं कारणत्वं, तस्य = cusic: एव घटादिकार्यसम्बन्धितया ग्रहे अनन्यथासिद्धेत्यादेः = अनन्यथ सिद्धनियतपूर्ववर्तिताकत्वस्प व्यञ्जकत्वं = तज्ज्ञानजनकत्वं तस्य च कारणसे मेदकूट या तादृश एक भेद का निवेश करने की वजह अननुगम आदि दोष को भी अवकाश नहीं रहता है। न त । मगर यह तैयायिकवक्तन्य भी असंगत है । इसका कारण यह है कि कारणतालक्षण में निरुक्त भेदकूट का निवेश किया जाय तब भेदकूट की प्रतियोगिकोटि में उदासीन का प्रवेश किया जाय या नहीं ? इस विषय में कोई विनिगमक नहीं है। अतः भेदप्रतियोगी का निश्चय करना मुश्किल बन जाता है । प्रतियोगी का निर्णय न होने पर भेदकूट का निश्चय भी कैसे हो सकेगा ? अतः भेदकूट का निवेश नहीं किया जा सकता। यदि इसी दोष की वजह भेदकूट का प्रवेश न कर के प्रतियोगि अविशेषित अखण्डाभाव हो हेतु बन जायेंगा तब तो भारी अव्यवस्था हो जायेगी । इस परिस्थिति में दण्ड, चक्र आदि को घटकारण कहना मुश्किल हो जायेगा । दूसरी बात यह है कि इस तरह तो कारणतावारीर का विशेष्यांश भी निरर्थक हो जायेगा, क्योंकि अखण्ड अकारणभेद को ही कारणता का लक्षण कहा जा सकता है। इसलिए यही मुनासिब है कि इष्टसाधनताज्ञान के कारणतावच्छेदकविधया अतिरिक्त परिणामविशेषस्वरूप कारणता का ही स्वीकार किया जाप, जो नियत अन्वय और व्यतिरेक से व्यंग्य होता है एवं सर्व कारण में अनुगत होता है ।
पक्षधरमिश्रमतनिकन्दन
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८:५४ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः ३ . का.११ * पक्षधरमिश्रमतनिराकरणम् **
यजकत्वमिति पक्षधरीमियमतं निरस्तम्, एवं हि दण्डत्वादेः स्वरूपतो निरखधित्वे कार्यापेक्षया च सावधित्वे शबलवस्त्वभ्युपगमणसहादिति । लेकालव्यवस्थायां विस्तरो ज्ञातव्यम् ।।
-* गया
- तात्वेन यदादिप्रतियोगिकत्वात, जाते: म्हात एव निष्प्रतिभागिकत्वोपगमात् कारणतातनावच्छंद्यता स्वरूपनश्चावच्छेदकता; अभेदेऽपि भित्ररूपेणावच्छेद्यावच्छेदकभावोपगमे क्षतिविरहादिति पक्षधरमियमतं निरस्तमः एवं हि प्रदर्शितरीत्या दण्इत्दादेः कारणतावच्छेदकस्य कारणनात्वे स्वीकृते सति जाते: स्वरूपती निरवधित्वे = निष्प्रतियोगिकत्वे. कार्यांपेक्षया सावधित्व = कारगतात्वन कार्यप्रतियोगिकत्चे शबलवस्त्वभ्युपगमप्रसङ्गात् । एतटाकरणकाररचितायां अनेकान्तव्यवस्थायां जैनतापराभिधानायां 'व्यवहारे सावधित्वं स्वरूपतस्तु निरवधित्वमिति नायं दोष इति चेत् ? न. चवह्नन्याविशेषे व्यवहाराविशेषात्. अन्यथा केवलभूतलज्ञानादेव प्रतियोगिज्ञानादिनाऽभावव्यबहारसमर्थको मीमांसक एव विजयत । किश्चैवं घटबद्दण्डत्ववान दण्ड' इति ज्ञानात् दण्डी बटकारणमिति व्यवहारापतिः, अनन्यधासिद्धेत्यादिज्ञानजनिततादशज्ञानत्वेन नाझव्यवहारहेतुत्वे व गौरवं घटकारणतात्वेन तज्ज्ञानस्योक्तव्यवहारहतत्वे च कारणतात्वमधिकमभ्युपगन्तव्यं स्यात् । किञ्चै दण्डत्वादिस्वरूपाया दण्डादिनिधकारणताया अनुगतत्वोक्तावपि घटसमवेतनाशादिकार्यनिरूपितघरनाशादिकारणतापाः कथमनुगतत्वं ? घटनाशत्वस्यानुगतस्याभावात् ।। तत्राग्यखण्डोपाधिनानुगमस्वीकारे व्यक्तीनामेव कश्चिदनुगतत्वं स्वीक्रियता, एकस्यैव वस्तुनो व्यावृमिहदयपेक्षया व्यावृत्ततस्यानुवृत्तिबुद्यपेक्षया चानुगतत्वस्य सम्भवात् । विषयभेदं विना बुद्धिभेदी नापपद्यत इति चेत् । कारणत्व-कार्यत्वयोरपि नुल्यमेतत् ॥ तस्मास्यज्यतां बाऽतिरिक्तसामान्यविशेषवादः स्वीक्रियतां वा कारणत्वकार्यत्वादिकमण्यतिरिक्तमिति दुरुनर प्रतिबन्दिनी' (अ.व्य.प्र. १७) इत्यादिको विस्नरी ज्ञातव्यः ।
किञ्च कारणत्वस्यानन्यथापिनियतपूर्वनितायछंदकधर्मबन्न प्रतिबन्धकाभावस्य तनदव्यक्तित्वन हेतुत्वापतिरिति महागारबम । न च कारणत्वस्यानिरिक्तत्वे दण्डत्यादेः घटानिनियतपूर्वनिनानबछेदकत्वगरपि ताप्यण घटादिजनकत्वस्यापि प्रत्ययापत्तिरिति वाच्यम, तादयण कारणनग्रहे तपर्मिक-पटादिनियतपूर्वनितावच्छेदकत्वनिश्चयस्य हेतल्यान । न चैबमावश्यकतया तदेवास्तु कारणत्वमिति वाच्यम्, घटादिकार्यस्वानुपस्थित्तावपि 'दण्डः कारणं न वा ? दण्डः कारणं' इत्यादिप्रनीत्यनुरोधेनैवातिरिक्तस्य तस्योपयत्वान् । एतेन कारणत्वस्यातिरिक्तले दण्डादौ सर्वदा तत्प्रत्यक्षापनिः । न चानन्यथासिद्धतं सात्यादिधर्मस्तदव्यञ्जकः इति वाच्यम्. नादृवाधर्मज्ञानरयावक्ष्यकल्वे तस्यैव कारणताग्रहरूपत्वौचित्यादिति मुक्तावलीप्रकाशकारवचनं निरस्तम्, गोत्यादिजातेएयेवमुच्छेदप्रसताच । न हि सस्नलालककल्रविषणाद्यज्ञानशापां 'अयं गौः' इत्येवं गोत्वप्रकारकं ज्ञानं भवितुमर्हति । अतांश्चयवसंस्थानज्ञानस्यावश्यकत्वे तस्यैव गोत्वादिज्ञानरूपौचित्यात अतिरिक्तं गोत्वं न सिध्येत ।।
कार्यान्वयव्यतिरेककालपूर्वकालान्चयन्यतिरेकशालित्वं कारणत्वमिनि कश्चिन् । नदान, आत्मादी सुखादिकारणं प्रागभावाप- || व्यतिरेकासंभवनाव्याप्त्यापत्तेः ।
अनन्यधासिद्धनियतपूर्ववृत्तित्वं कारणत्वनिति यथाश्रुनं त्वसमीचीनम, विशेषणविशध्यभात्र विनिगमनाचिरहेगोभयोस्नथावं गौरवादिति दिक् ।
पतन, । कारणता के विषय में पक्षधरमिश्र का यह कथन है कि -> 'दण्ड आदि में रहनेवाला दण्डत्त्व आदि ही घटकारणना है । अन्पचासिद्धनियतपूर्ववृत्तिता तो घटादिकार्यसम्बन्धिविधया उमीकी व्यंजक है । मतलब यह है कि दण्डत्वानि जातिस्वरूप है और जाति स्वरूपतः निष्प्रतियोगिक होती है। फिर भी कारणतान्वेन रूपेण दण्टत्वादि जाति घटादिकायप्रतियोगिक होती है । इसलिए कार्यसम्बन्धिविधया दण्डत्यादि का व्यंजक अनन्ययासिनियतपूर्ववृत्तित्व हो सकता है । अतएव केवल दण्ड को देख कर घटनियतपूर्ववृतिता का दण्ड में भान न होने पर दण्ड में घटकारणता का भान नहीं हो सकता है - मगर यह कथन भी सर्वकारणानुगत एवं अतिरिक्त परिणामविशेषात्मक कारणता के स्वीकार से निरस्त हो जाता है। दूसरी बात यह है कि इस तरह दण्डत्व मादि को स्वरूपतः निरवधि और घटादि कार्य की अपक्षा सावधिक मानने पर नो शबल वस्तु के स्वीकार की नैयायिकमत में आपत्ति आयेगी। मतलब कि नब अनिच्छा से भी स्याद्वाद का स्वीकार नैयायिकमत में प्रसक होगा । यहाँ जो कहा गया है वह तो नगण्य है। इस विषय का विस्तार से निरूपण तो प्रकरणकार से रचित अनेकान्तव्यवस्था में प्राप्य है . ऐसी यहाँ सूचना मिलती है।
ज्यूजतापोष जामुमणि
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* अध्यात्मापनिषदादिसंबादः प्रभाकरादयो मीमांसकास्तु प्रायशोऽनेकान्तवादात्स्वयमेव न पराहमुखा इति न तेषां पृथक्सम्मत्यनुक्त्या न्यूनत्वम् । वेदान्तिनोऽपि ब्रह्मणो बन्दत्वाबदत्वमाचक्षाणा व्यवहारे च भहमतानुपातिनो न स्यादादपराहमुखा इति न तेषामपि पृथक्सम्मत्यजुक्त्या न्यूनत्वमित्यवधेयम् 1990
* जयलता - ननु मीमांसकादीनां पार्थस्पेण स्याद्वाद सम्मन्यदर्शनात्स्याद्वादस्य सार्चतान्त्रिकत्वं न स्यादित्याशङ्कायामाह - प्रभाकरादयः मीमांसका इति । त्रिपुटीप्रत्यक्षवादी प्रभाकरमिश्री गुर्वपराभिधानोऽनमितेः मितिमातृभागे प्रत्यक्षत्वं मेयांशे च पराक्षचं वदन्नानकान्तं प्रतिक्षिपति 1 कमारिलभट्ट-मरारिमिश्री मीमांसको वस्तुनो जातिव्यक्त्युभयात्मकत्वं प्रतिपादयन्तो न स्वाद्वादमपक्षिपन्तः । वयोऽप्येत मीमांसकाः प्रायशोऽनेकान्तवादात्स्वयमेव न पराङ्मुखा इति न तेषां पृथक्सम्मत्यनुक्त्या न्यूनत्वम् । तदुक्तं श्रीप्रभानन्दसूरिणापि साक्षेपीत्तरम् - 'ननु ताधागतादीनामुपपत्त्या साम्मत्यं चार्वाकस्य तु वराकस्योपेक्षामुपक्षिप्तवान् । तदन भीमांसामांसलमतेर्मीमांसकस्य किमिति कामपि चर्चा नाकरांदाचार्यः ? उच्यते, समम्तमतविक्षेपण स्वयमच प्रकारान्तरेणाकान्तमतं प्रतिष्ठमानं तं प्रति प्रतिपत्त्युपपत्तिः पिष्टमेव पिनष्टाति नास्ति पर्यनुयोगावसरः । ततः सिद्धं सर्वमनसम्मतमनेकान्तम' (बो.वि.पृ. ९८) इति । वेदान्तिनोऽपि ब्रह्मणः वद्धस्वावद्धत्वमाचक्षाणाः = परमार्थनाऽबद्धत्वं व्यवहारण च बद्धत्वमिप्ति बदन्तः व्यवहारे च भट्टमतानुयायिनः 'व्यवहारे भाट्टमतमि ति वचनात स्याद्वादापसड़मुख- कुमारिलानुयायित्वेन तेऽपि बाहुल्येन न स्यादादपराङ्मुखा इति तेपामपि = वंदान्तिनामपि पृधरसम्मत्यनुक्त्या न न्यूनत्त्वम् । तदुक्तं प्रकरणकृनैव अध्यात्मोपनिपदि 'प्रत्यक्षं मितिमात्रा मेयांशे तद्विलक्षणम । गुरुनि बदन्त्रक मानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ।। जातिव्यक्त्यात्मकं वस्त वदन्ननुभवोचितम् । भट्टो वाऽपि मुरारिर्वा नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ।। अबद्धं परमार्थेन बद्धं च व्यवहारतः त्रुवाणो ब्रह्म वेदान्ती नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥ वाणा भिन्नभिन्नान्नियभेदव्यपेक्षय 1 प्रतिक्षिपयनों वेदाः स्याद्वादं सार्वतान्त्रिकम् ।। (अ. उप. १/१८-५ इत्युपलक्षणमुपनिषदादीनाम तेषामपि स्थाद्वादसायकत्वात् । तथाहि 'सच त्यच्चाभवत् । निरुक्तश्चानिरुक्तञ्च । निलयनं चानिलयन च । विज्ञानं चाविज्ञानं च । सत्यं चासन्यं च सत्यमभवत् (ते. उप. २/६) इति तैत्तिरीयोपनिपचनस्य . "तस्यव स्पात्पदवित्तं विदित्वा न लिप्यते कर्मणा पापनति । (न. उप. ४/५/२३) इति बहदारण्यकोपनिषद्वचनस्य त्वमेव सदसदात्मक: त्वमेव सदसद्धिलक्षणः' (वि.म. १/२) इति त्रिपाद्विभुतिमहानारायणोपनिषद्वचनस्य, 'सोन्हं नित्यानित्यो व्यकाव्यको ब्रह्माऽहं' (अ.उप.१) अयर्वशिरउपनिषदचनस्य 'मुक्तिहानाऽस्मि मुका-स्मि मंक्षहीनो सम्यहं सदा' (म.उप. ३/२२) इति मैत्रेय्युपनिपतचनस्य, 'न बहि:प्रज्ञं नान्तःप्रज्ञं नो भयतः प्रज्ञं नाप्रज्ञं न प्रज्ञानघन' (श्री.रा. उप. १) इति श्रीरामोत्तरतापिन्युपनिपचनस्य, 'अस्य सत्वमसत्वश्च दर्शयति सिद्धत्वासिद्धत्वाभ्यां स्वतन्त्रास्वतन्त्रत्वेन' (न.उप. ९) नृसिंहोत्तरतापनीयोपनिपद्वचनस्य, बन्धमोक्षस्वरूपात्मा बन्धमाक्षविवर्जितः । द्वैताद्वैतस्वरूपात्मा द्वैताद्वैतविर्जितः ।।४-६६॥ इति तेजोबिन्दपनिपद्वचनस्य, दिवा न पूजयेद्विष्णु, रात्री नैव प्रपूजयेत् । सततं पूजयद् विष्णु दिवारात्री न पूजयेत् ।।१---|| शाण्डिल्योपनिषद्वचनस्य, 'शुद्ध सदसतामध्ये पद बुद्धयाऽवलम्ब्य च । सबायाभ्यन्तरं दृश्यं मा गृहाण विमुञ्च वा' ।।५-१७२।। इति महोपनिषद्वचनस्य,
प्रभा. । यहाँ यह शंका हो सकती है कि - "मुलकार श्रीमद् हेमचन्द्ररिजी महाराजा ने चौद्ध-नैयाविक वैशेपिक - सांख्य की अनेकान्तबाद में सम्मति दी और नास्तिक की सम्मति की उपेक्षा की है, वह तो ठीक है। मगर प्रभाकर आदि मीमांसकों की और वदान्ती की स्याबाद में संमति का प्रदर्शन करना तो रह ही गया । इसलिए यहाँ न्यूनता दोष उपस्थित होता है' - मगर वह संगत नहीं है, क्योंकि प्रमिति-प्रमान अंदा में सब ज्ञान को प्रत्यक्ष एवं मयांश में अनुमिति आदि को परोक्ष माननेवाला मीमांसक प्रभाकरमिश्र एवं वस्तु को जाति व्यक्ति उभयात्मक माननेवाला मीमांसकमूर्धन्य कुमारिलभट्ट तथा मुगरिमिश्र तो अनेकान्तबाद से स्वयं ही पराङ्मुख नहीं है । इसलिए उनकी पृषक सम्मति दिखाने की कोई आवश्यकता नहीं है । अतएव मीमांसकों की म्यादाद में स्वतंत्र सम्मति न बताने पर भी न्यूनता दोष नहीं है । इस तरह वेदान्ती भी ब्रह्मतत्व को परमार्थ से अबद्ध एवं व्यवहार से गडू मानते है नया व्यवहार में कुमारितभट्ट के, जो स्पाहादसन्मुख है, मत का म्वीकार करते हैं । अतएव वे भी स्वयमेच स्थाबाद के सन्मुख हैं। इसलिए वेदान्ती की भी पृथक् सम्मनि न बनाने पर भी न्यूनना दोप की आपत्ति नहीं है। इस बात पर ध्यान देना चाहिए । इस तरह ११ वी कारिका की व्याख्या समाम होती है ॥१३॥
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८.७६ मध्यमस्याद्रादरहस्पे सपनः ३ - का.. सम्पावोनिमाविम्वादः * इत्यामनेकान्तवादं परेषामपि सम्मत्या प्रमाणयित्वा सम्प्रति वस्तुस्वरूपमाहुः →तेनेति।
तेनोत्पादव्ययस्थेमसंभिन्नं गोरसादिवान् । त्वदुपज्ञ कृतधियः प्रपन्ना वस्तु वस्तुसत् ||१२||
-* जयलता - 'तदा मुक्तो न मुक्तश्च' ||३१|| इति पाशुपतब्रह्मोपनिपवचनम्य, 'उचक्षुर्विश्वतश्चक्षुरकर्गो विश्वतः कर्णोऽपादो विश्वतः पादोऽ. | पाणिः विश्वतः पाणिः । (भ.जा.२) इति भस्मजालोपनिषबचनस्य, नैव चिन्त्यं न चाचिन्त्यं नाचिन्त्यं चिन्त्यमेव च ।।५-६।। इति त्रिपुरातापिन्युपनिषदचनस्य च स्याद्वादसाधकत्वं स्फुटमेव । स्याद्वादानभ्युपगमे हि - इदमझानं समष्टिव्यष्टपभिप्रायणकमनेकमिति - (चे.सा.) इति वेदान्तसारवचनमप्यनुपपन्नं स्यात् । व्यवहारे ब्रह्मणो नानात्वं परमार्धतो ह्येकत्वमित्यभ्युपगमोऽपि तेषामनकान्तानुपातित्वमेव व्यक्ति । ततश्च सिद्धं सार्वपार्षदत्वं स्याद्वादस्येत्यलं विस्तरेण ||१||
द्वादशकारिकामवतारयति । इत्थमिति । सोपयोगित्वात्प्रथममत्र प्रभानन्दसूरिविवरणनुपदश्यते- 'हे भगवन् ! तेन कारणेन कृतधियः = कृतिनः त्वत्प्ररूपितमेव वस्तु वस्तुबुद्ध्या सत् = 'पारमार्थिकमिति पाक्न, प्रपन्नाः = अङ्गीकृतवन्तः । कधम्भूतं वस्त्वित्याह - उत्पादन्ययस्थेमसम्भिन्नं = उत्पादविनाशस्थितिसम्भवस्वभावम् । को भावः ? उत्पादादयः समुदिताः | सत्त्वं गमयन्ति, सत एव तद्भावात । न हि सर्वधाप्यसतस्तुरगङ्गादः केनचिदप्याकारणानुपाव्यायमानस्योत्पादादयो भवितुमर्हन्ति, तस्मादुत्पादादिमत्वं सत्त्वम । यदवच वाचकमुख्यः 'उत्पादन्यपत्रौव्ययुकं (वस्तु) सत्' । पा वा विगमइ वा धुवेइ वा' इति स्थितम् । तत्र द्रव्यपर्यायात्मकमिति भणनेन द्रव्यैकान्तपर्यायकान्तवादिपरिकल्पितविश्यब्युदासः । आत्मग्रहणेन चात्यन्तव्यतिरिक्तद्रव्यपर्यायवादिकणादयोगाभ्युपगतवस्तुनिरासः । यतः श्रीसिद्धसैनः (सम्मतित) दोहिं वि नाहिं नीर्य सत्यमुलूगण नह वि । मिन्छनं जं सर्वसयप्पहाणनगेण अनुननिरविक्खा ॥ (सं.त.३/४९) इति ।
अर्थत्यमाचक्षीथा: "न द्रव्यपर्यायात्मकं परमार्थसत् एकान्तनित्यानित्यवस्तुवदनक्रियाकारित्वात् । तेन च किम् ? यतोऽक्रियार्थी सर्वोऽपि विपश्चित । एतच्चार्थक्रियाकारित्वं नित्यानित्यात्मकेपि न घटासण्टमारोहते यतः 'प्रल 'भवेदोषः द्वयाभाव कथं न सः ? । तस्मादत्पादव्ययस्थममहिमाउनर्थक्रियाकारेत्वेन न वस्तुनि वास्तबी" इति चेत ! न
र्बोत्तराकारपरिहारस्वीकारस्थितिलक्षगपरिणामेनास्य नित्यानित्यात्मकस्य वस्तुनोऽर्थक्रियोपपतेः, यतोऽस्मन्मते न कूटस्थनित्यस्वरूप| द्रव्यरूपं बस्तु नाप्येकान्तानित्यपर्यायरूपं, नोनयरूपं वस्तु येन पक्षद्वयभाविदोषावकाशशङ्का किन्तु स्थित्युत्पादश्ययात्मकं शबलं
जात्यन्तरमंत्र वस्तु । तेन तत्तत्सहकारिमविधाने क्रमेण युगपदा तां तामर्थक्रियां कुर्वत्सहकारिकृतामुपकारपरम्परामुपजीवच जैन| मतानुसारिभिरनुधियते । ततः सिद्धमुत्पत्तिव्ययग्रीव्ययुक्तमर्थक्रिपाकारि वस्तु ।
ननु कथं वस्तुन्येकसामयिकमन्योन्यविरुद्धं परिकल्पयितुं न्याय्यमित्याशङ्कायां वदन्ति सूरयः गोरसादिवदिति । यथा गोरसे स्थायिनि पूर्वदग्धपरिणामविनाशोत्तरदधिभावोत्यादौ सम्भवन्तौ प्रत्यक्षादिप्रमाणबलेनोपलब्धौ, तौ च कथमहोतुं पार्येते ! पदुक्तं 'पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिन्नतः । अगोरसन्नतो नोभे तस्माद्बस्तु बयात्नकन् । १।। तथा 'घदमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पतिस्थितिष्वलम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थां जनो याति संतकम् ।। यथा चैकस्या अङ्गले: स्थायिन्याः पूर्वस्थितिसरलभावाभावो चक्रनासम्भवश्च । एवं त्रिभुवनभवनादरविवरवर्तिपदार्थसाथै उत्पादव्ययध्रौव्यभावं पश्यन्तु शेमुषीमुख्याः । ततः सिद्धं त्रयात्मकं बस्तुतत्त्वम् । तथा च प्रयोगः विवादास्पद वस्तु नित्यानित्य - सत्त्वासत्व-सामान्यविदोषाभिल्लाप्यानभिलाप्यात्मकं तथैवाऽस्खलत्प्रत्ययन प्रतीयमानत्वान । यद् यथैवा स्वलत्प्रत्ययेन प्रतीयमानं तनथैव दुष्टम, गधा घटी घटरूपतया प्रतीयमानो घट व न पटः । तथव चास्खलत्प्रत्ययेन प्रतीपमानं वस्तु । तस्मान् नित्यानित्याद्यात्मकम् । न चात्र स्वरूपासिद्धो हेतुः, तथैवास्खलत्यत्ययेन प्रतीयमानत्वस्य सर्वत्र वस्तुनि तिष्ठमानत्वात् । न हि स्वरूप-पररूपाभ्यां भागभावात्मकत्वेन द्रव्यपर्यायरूपादिभिः नित्यानित्या
चरण कारिका की व्याख्या. इत्य । इस तरह १ से १५ कारिका पर्यन्त परमतनिराकरणपूर्वक एवं परवादियों की भी सम्मतिपूर्वक अनेकान्तवाद को प्रामाणिक = सातान्त्रिक सिद्ध कर के अर मूलकार श्रीमद् गीतरागस्तोत्र के अष्टम प्रकाश की चरम कारिका मे वस्तुस्वरूप को बताते हैं । कारिका का सामान्य अर्थ निम्नोक्त है।
हे वीतराग ! इस कारण से प्रेक्षावान लोग आपसे स्वीकृत पारमार्थिक वस्तु का, जो उत्पाद-व्यय-प्रीव्यसंमिलित है, |स्वीकार करते हैं, जैसे कि गोरसादि ॥१२॥
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८७७
*प्रभानन्दमूरि विदालराजसूरिवचनसंबादः * तेल = प्रागुक्तयुक्त्या परेषामपि सम्मत्या च कहिया: = सत्परीक्षादक्षाः त्तदुपझं = | त्वदशीकृतमेव कस्तुसल सस िवरुन प्रसन्नाः = अधीकृतवन्तः । कीदृशं वस्तु ? उत्पादव्ययधौव्यसम्भेिसमेतत्रितयस्वभावमित्यर्थः । अयं भावः द्रव्यस्थोत्पादोच्छेदनोव्यक्यपरिणामः स्वभावस्तथा च पारमर्ष 'उपोइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा' ति । यथैव हि द्रव्यवास्तुनः सामस्त्यनेकस्यापि विष्कम्भकमप्रवृत्तिवर्तिन: सूक्ष्मांशाः प्रदेशास्त
* जयलता * द्यात्मकत्वैश्च सर्वस्मिन् पदार्थे प्रतिभासः कस्यचिदसिद्धः । तत एव न सन्दिग्वासिद्धोऽपि । न खल्बवाधरूपत्तया प्रतीयमानस्य वस्तुनः सन्दिग्धत्वं नाम । नापि बिरुद्धः, विरुद्धार्थसंसाधकत्वाभावात् । न ह्येकान्तेऽपि तथैवाऽस्खलत्प्रत्ययप्रतीयमानत्वमास्ते येन विरुद्धं स्यात् । नापि पक्षस्य प्रत्यक्षादिबाधा, येन हतारकिश्चित्करत्वं स्यात् । नापि दृष्टान्तस्य साध्यविकलता साधनदिकलता वा । न खलु घटे नित्यानित्याचात्मकत्वं तथैवास्खलत्प्रतीयमनलं वाऽसिद्धम् । तस्मादनव प्रयोगयोगमपश्रुत्य किमित्यनेकान्तो नानुमन्यन्ते ? (वी.स्तो. ८/१२ प्र.वि.) इति ।
___ श्रीविशालराजत्रिः 'हे वीतराग ! तेन कारणेन ये केचन कृतचियो ज्ञातार: त्वदुपज्ञं त्वपैव प्रधम्मुपदिष्टं वस्तु सत् = परमार्थरूपं प्रपन्नाः - कक्षाकृतवन्तः । वस्तु किंविशिष्टम् ! उत्पादव्ययस्थमसम्भिनं = उत्पत्तिक्षयस्थित्तामिश्रं, किंवत् ? गोरसादिवत् । यथा गोरसं दुग्धतया विनश्यद् दधितयोत्पद्यमानं गोरसतया तिष्ठत्येव' (वी.सो, ८/१२ अ.पृ.९२) इति ब्याचक्रे ।
साम्प्रत द्वादशकारिकाया लघुपरिमाणस्याद्वादरहस्याभिधानन्याख्या विद्रियते - तेन = प्रागक्तयुक्त्या = सर्वधा परस्पराउसम्पृक्तनित्यत्वानित्यत्वसामान्यविशेषाभिलाप्यत्वानभिलाप्यत्वनिराकरणकरणपूर्वक पूर्वोक्ततर्कवृन्दसाचिन्येन परेषां ताथागतनैयायिक-वैशेषिक-साङ्ख्य-वेदान्ति-मीमांसकादीनां अपि सम्मत्या = सम्मतत्वेन च कृतधियः = सत्परीक्षादक्षाः = सम्यग्वस्तुस्वरूपपरीक्षणप्रवणप्रज्ञादालिनः हे वीतरान ! त्वदुपज्ञं = त्वदङ्गीकृतं = स्वसमीचीनस्वरूपप्रकाशकत्वसम्बन्धन त्वत्स्थं वस्तुसत् = पारमार्थिक = तात्त्विकं वस्तु = सकलवस्तुजातं प्रपना = अङ्गीकृतवन्तः = स्वविषयकसम्मतिदातृत्वसम्बन्धेन पारमार्थिकवस्तुस्तोमवन्तः ।।
नन केवलालोकशालिप्रकाशित की वस्त ? इत्यानाडकायां श्रीहमचन्द्रसरयो बदन्ति उत्पादव्ययस्थमसम्भिन्नं = उत्पादल्ययधीज्यसम्भिनं = एतत्वितयस्वभावं = निष्यत्तिनशानिष्पत्तिनाशस्वभाव न त खण्डशोऽवस्थितरक्तत्वकृष्णत्वशालिगुआफलमिव परस्परानाश्लिष्ट-सम्भव-संहार-स्थितिमत् इत्यर्थः । तदेव जमर्थयति महानहोपाध्यायः - अयं भावः द्रव्यस्य = द्रव्यत्वावच्छिन्नस्य उत्पादोच्छेदध्रौव्यैक्यपरिणामः स्वभावः । घटमौलिसुवर्णार्थी सन् प्रत्येकं सौवर्णघट-मुकुट-सुवर्णान्यभिलपन । एकदा तन्नाशोत्पादस्थितिषु सतीषु शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं सहेतुकं याति । तदैव हि घटार्थिनो घटनाशाच्छोकः, मुकुटार्थिनस्तु तदुत्पादाटामोदः सुवर्णार्थिनस्तु पूर्वनाशापूर्वोत्पादाभवान्न कोको न बा प्रमोदः किन्तु माध्यस्थ्यमिति दृश्यते । इदई द्रव्यस्य निष्पत्तिनाशस्थैर्यात्मकत्वं विनाऽनुपपन्नम् । घटनाशकाले किरिटोत्पादानङ्गीकारे तदर्थिनः प्रमोदानुपपत्तेः, घटादिविवर्तातिरिक्तसुवर्णद्रव्यानभ्युपगमे च सुवर्णार्थिनो माध्यस्थ्यानुपपत्तेः । तदुक्तं शास्ववार्तासमुच्चये 'घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ।।७-॥ इति । तथा च पारमर्ष 'उपनेह वा विगमेड़ वा धुचेइ वा' त्ति । ततो यदेव विनष्टं शिवकत्वेन तदेवोत्पन्नं मृद्रव्यं घटत्वेनावस्थितश्च मृत्त्वेनेति त्रयात्मक द्रव्यं सदैवेति व्यवस्थितम् । अस्तु द्रव्याणां त्रितयात्मकत्वं परिणामानां तु त्रितयात्मकत्वं कथं ! इत्याशङ्कायामाहुः यधैव हि द्रव्यवास्तुनः वसन्ति गुणा अस्मिन् = वास्तु द्रव्यश्च तद् वास्तु च = द्रव्यवास्तु नस्य, सामस्त्येन = कात्स्न्पेन एकस्यापि विष्कम्भक्रमप्रवृत्तिवर्तिनः = दैशिक
तेन = प्रा. । महोपाध्यायजी चरम कारिका की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि पूर्वोक्त युक्ति एवं एकान्तवादिओं की सम्मति से सम्यकपरीक्षा में निपुण मनुष्य हे वीतराग ! आपस स्वीकृत पारमार्थिक वस्तु का ही स्वीकार करते हैं। मापसे स्वीकृत वस्तु उत्पाद-व्यय-प्रौव्यसम्भित्र यानी उत्पाद-व्यय-प्रौव्यस्वभाववाली है । मतलप यह है कि उत्पाद व्ययध्रौव्यैक्यपरिणाम ही द्रव्य का स्वभाव है । इस विषय में परम ऋषियों का वचन भी कि 'वस्तु उत्पन्न होती है, नष्ट होती हैं और स्थिर भी रहती है' साक्षी है।
प्रदेश एवं परिणाम में वितयात्मकता यथै, । जिसमें गुणों का वास होता है उसे वास्तु कहते हैं। वह द्रव्य हो होता है। द्रव्यवास्तु सामस्त्येन = सर्वात्मना
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८.७८ मध्यमस्पानादरहस्ये खण्डः ३ . का.५५ विष्कम्भकम प्रबाहक्रमस्वरूपविद्योतनम *
थैव हि द्रव्यवृत्ते: सामस्त्येनैकस्या अपि प्रवाहकमग्रवृतिवर्तिनः सूक्ष्मांशा: परिणामाः । यथा | च प्रदेशानां परस्परख्यतिरेकनिबन्धी विधA (धा परिणामानां परस्परख्यतिरेकनि|बन्धन: प्रवाहकमोऽपि । यथैव च ते प्रदेशा; स्वस्थाने स्वरूप-पूर्वरूपाभ्यामुत्पनोच्छमत्वा
त्सर्वत्र परस्परानुस्यूतिसूभितकवास्तुतयानुत्याप्रलीनत्वाच्चोत्यत्तिव्ययधौव्यत्रितयात्मकमात्मानं | बिशति तथैव ते परिणामा: स्वावसरे स्वरूप-पररूपाभ्यामुत्पनोच्छत्वात्सर्वत्र परस्परानुस्यूतिसूरितैकग्रवाहतयाऽनुत्पमप्रलीनत्वाच्चोत्यत्तिव्ययधौव्यत्रितयात्मकमात्मानं बिभति ।
-* गयला * क्रमेण प्रवृत्तिशालिनोऽन्चयिनः सूक्ष्मांचाः = अविभाज्यभागाः स्कन्धद्रव्यसम्बद्धाः सन्तः प्रदेशा इति भण्यन्त नधैव हि द्रव्य. वृत्तेः = एकद्रव्यानुयोगिकविच्छिन्नान्वयसन्ततः सामस्त्येन = समूहापेक्ष्या एकस्या अपि प्रवाहक्रमप्रवृत्तिवर्तिनः = कालिकक्रमेणान्वयशालिनः सूक्ष्मांशाः परिणामा इनि भण्यन्ते । यथा च एकस्मिन् द्रव्यवास्तुलक्षणेऽधिकरपेऽन्वयिनामपि प्रदेशानां | परस्परब्यतिरेकनिवन्धनः = सन्योन्याभावनिमित्तक व विष्कम्भक्रमः = दैशिकक्रमः तथा एकस्यामेय निरुक्तद्रन्यवृत्ती अन्च पिनामपि परिणामानां परस्परन्यतिरेकनिबन्धनः = इतरेतराभावप्रयुक्तः प्रचाहक्रमोऽपि = कालेकक्रमोऽपि । यथा सिंहपश्चानन-चनकेसरि-मृगारि-पशुपतीनां परम्पराऽभिन्नानां दैशिकक्रमण विद्यमानत्वं न सम्भवति तथंकद्रव्यप्रदेशानां मिया भेदे सति देशिक्क्रमेण वृत्तित्वं न सम्भवति । अतः प्रदेशानां विष्कम्भक्रमप्रवृत्तिवर्तिनां अन्योन्याभावोऽनिराकार्य एव, विष्कम्मक्रमप्रवृत्तिवृनित्वस्य तदन्याप्यत्वात् । एवमेवातीतानागतवर्तमानकालीनानां परिणामानां मिथोडभेदे कालिकक्रमेण प्रवतमानत्वं न सम्भवति, पूर्व तेषां तनत्प्रवृत्तिसमर्थत्वे कृत्स्नप्रवृत्तीनां पूर्वमंत्र सम्भवेन तदुत्तरकालमर्थक्रियाकारित्वाभावेनासत्त्वापत्तेः । पूर्व तेषामसमर्थत्वे पश्चाच्च समर्थत्व सिद्ध एव तेषां मिधा भेदः । अत: कालिकक्रमण प्रवृतिशालिनां परिणामानां मिधा भेदोऽनाबिल एवं ।
यधैव च ते = विष्कम्भक्रमप्रवृत्तिवर्निनः प्रदेशाः स्वस्थाने = स्वीयदेशिकाधिकरणतावच्छन्दकावच्छेदन स्वदेश स्वरूप| पररूपाभ्यां उत्पनीच्छन्नत्वात् = स्वरूपेणोत्पन्नत्वात् पररूपण व विनष्टत्यात त्या सर्वत्र = स्वीयदैगिका नवच्छेदकोभयावच्छेदन परस्परानुस्यूतित्रितेकवास्तुतयः = इतरेतरानुबंधलक्षणसूत्रग्रथितकवास्तुत्वन अनुत्पन्नालीनत्वाच = अजातत्वादध्वस्तत्वाच्च उत्पत्ति-व्यय-प्रीव्यत्रिनयात्मकमात्मानं चिभ्रति । तेषां प्रदेशानां सर्वत्राञ्चयविनि नेतरेतरानुगमसूत्रितकवास्तुतात्पनत्वं विनष्टत्वं वेति तदपेक्षया स्थैर्य न बाधितुं शक्यम्, तेषां स्वदेदो एव निरुक्तरूपणोत्पन्नत्वाद् विनष्टत्वाच्च । एकवास्तुत्वञ्चोतसादविनिपातप्रतियोगितानवच्छेदकमेव । पथारपेक्षाभेदन तेषां त्रितयात्मकत्वमनपायमंच नर्थव ते = प्रवाहक्रमप्रवृत्ति. वर्तिनः परिणामा अपि स्वावसरे = स्वकाले स्वरूपपररूपाभ्यामुत्पन्नाच्छन्नत्वात् स्वरूपणोपजातत्यान्पररूपेण च विलीनत्वात् सर्वत्र सर्वदा = सर्वकाले परस्परानुस्यूतिसूत्रितैकप्रवाहतया = मिथो नुवृत्तिलक्षणसूत्रगुम्फितद्रव्यान्योगिकाविच्छिन्नान्चयसन्तानतया, अनुत्पन्न प्रलीनत्वाच = उत्पादविनाशाप्रतियोगित्वच उत्पत्तिव्ययध्रौव्यत्रितयात्मक आत्मानं विभ्रति। निरुक्तकप्रवाहतया एक होने पर भी देशिक क्रम से प्रवृत्ति में रहनेवाले उसके अनेक सूक्ष्म अंश होते हैं, जिन्हें प्रदेश कहते हैं । अवयवी में अनेक अवयव एक काल में युगपत् रहने पर भी देश की अपेक्षा क्रम से ही रहते हैं एवं प्रवृत्ति करते हैं। ठीक इसी तरह द्रव्यवृत्ति = एकद्रव्यान्वयसंतान भी सर्वात्मना एक होने पर भी प्रवाहक्रम = कालिकक्रम में प्रवृत्ति में रहनेवाले उसके अनेक सूक्ष्म अंश होते हैं, जिन्हें परिणाम कहते हैं। जैसे एक ही आत्मान्वयसंतान के मनुष्य, देव, नारक आदि परिणाम काल की अपेक्षा से क्रमिक प्रवर्तमान होते हैं। जैसे परस्पर भिम होने की वजह एक द्रव्य के प्रदेशों में विष्कम्भक्रम - ! दैशिकक्रम होता है ठीक वैसे ही परस्परभेद होने की वजह एक अन्य के परिणामों में प्रवाहक्रम = कालिकक्रम होता है। जैसे परस्पर भित्र प्रदेश स्वदेश में स्वरूप से उत्पन होते हैं एवं पूर्वरूप - पूर्वावस्था से निवृत्त होते हैं मगर सर्वत्र = सर्वदेश में = संपूर्ण द्रव्यवास्तु में परस्परानुवेधस्वरूप सूत्र से ग्रधित एकद्रव्यवास्तुविधया न तो वे उत्पत्र होते हैं और न तो वे निवृत्त होते है अर्थात् भून होते हैं। इस तरह वन्य के प्रदेश उत्पाद-व्यय-प्रीव्यत्रितयात्मकता को धारण करने हैं। ठीक इसी तरह पूर्वोक्त परिणाम भी अपने काल में स्वरूप से उत्पन होते हैं एवं पररूप से विनष्ट होते हैं. मगर सर्वत्र सर्वदा परस्परानुवृतिस्वरूप एक सूत्र से गुम्फित एक प्रवाहात्मना सदा विद्यमान होने से न तो उत्पन होते हैं और न तो विनष्ट होते हैं। इस तरह प्रक द्रव्य के परिणाम भी उत्पाद-व्यय-धौन्यत्रितधात्मकता को धारण करते हैं। पूर्वप्रदेश का उच्छेदन ही वास्तु का सीमान्त है और वही उत्तरोत्पादात्मक = उत्तर प्रदेश की उत्पत्तिस्वरूप है तथा वही परस्परानुवेधात्मक सूत्र
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1.७०
* वास्तुसीमान्त तिसीमान्तस्वरूपप्रकाशनन * यथैव च य एवं पूर्वप्रदेशोच्छेदनात्मको वास्तुसीमान्तः स एव हि तदुत्तरोत्पादात्मकः, स एव च परस्परानुस्यूतिसूचितैकवास्तुतया तदुभयात्मक इति तथैवात्रापि य एवं पूर्वपरिणामोच्छेदनात्मको वृतिसीमान्तः स एव तदुत्तरोत्यादात्मकः, स एव च परस्परानुस्यूतिसूप्रितेकवृतितथा तदुभयात्मक इति । दृष्टान्तोऽत्र मुक्कादाम । यथा दीर्धे लम्बे मुक्कादामनि सर्वेष्वपि स्वधामसूत्रकसत्सु मुक्ताफलेषु उत्तरोत्तरेषु धामसूतरोतरमुक्ताफलानामुदयनात, पूर्वेषां पूर्वेषाद्यानुदयनात् सर्वत्रापि परस्परानुस्यूतिसूत्रकसूत्रस्थावस्थानाच्च लक्षण्यं प्रसिध्दं तथात्रापि ध्येयमिति। अत्र निश्चयत: प्रदेशादीनामुत्पत्तिनाशसम्भवेऽपि व्यवहारतः परिणामानामेव तो । यदव
-* जयलता हैतेषां परिणामानां पूर्व पश्चाच्च सत्त्वात्स्थैर्य प्रातिस्विकरूपेण पश्चादुत्पन्नत्वाद्विनष्टत्वाच्चोत्पादव्ययप्रतियोगित्वमिनि नितयात्मकन्वमनपायमेव परिणामानाम् ।
यथैव च य एवं पूर्वप्रदेशोच्छेदनात्मकः वास्तुसीमान्तः स एव हि तदुत्तरोत्पादात्मक स एव च परस्परानुस्यूतिसूत्रितैकवास्तुतया नदुभयात्मक इति । नधाहि य एब शिवकलक्षणपूर्वप्रदेशोच्छेदात्मकः मृदद्रव्यलक्षणवास्तुध्वंसः स एव हि घटलक्षणतदुत्तरीत्पादात्मकः स एव च शिवकघटान्योन्यानुवेधलक्षणसूत्रसूत्रितमृद्रव्यात्मकैकबास्तुत्वेन शिवकघटोभयात्मक इति भण्यने । तथैवात्रापि य एव पूर्वपरिणामच्छेदनात्मको वृतिसीमानः = एकद्रव्यानुयोगिकाविच्छिन्नान्वयसन्तानविश्रामः स एव हि तदुत्तरोत्पादात्मकः = स्वानरपरिणामनिष्यनिकरूपः, स एव च परस्परानुस्यूतिसूत्रितेकवृत्तितया = अन्यंन्यानुवृत्तिलक्षण. | सूत्रग्रथितै काचाहात्मना तभयात्मकः = पूर्वोत्तरपरिणामोभयस्वरूप इति । दृष्टान्तोऽत्र मुक्तादाम = मुक्काबली । यथा दीर्चे लम्बे मुक्तादामनि सर्वेप्वपि स्वधामसूत्रकसत्सु = स्वाश्रयीभूतगुणवृत्तिषु मुक्ताफलेषु सत्सु उत्तरोत्तरेषु धामसु जपादिसमय उत्तरोत्तरमुक्ताफलानामुदयनात् = उत्तरवर्ततेमुक्काकला गमात्, पूर्वेषां पूर्वेषां च उत्तरोनरेषु धामसु अनुदयनात् = अनागमात् सर्वत्राऽपि मुक्तादामनि परस्परानुस्यूतिसूत्रकसूत्रस्यावस्थानाच = इतरेतरानवत्तिलक्षणस्य गुणस्य = दवरकस्य सत्त्वाच लक्षण्यं = उदयानुदयाच - स्थानलक्षणं प्रसिद्धम् । अयं भावो जपादिषु मुक्ताफलपरावर्तनसमये नत्तत्स्वदेशसूत्रस्थिताना. मुत्तरोत्तरमुनाफलानामग्रे गमनं भवति पूर्विलमुक्ताफलानाञ्च स्वस्थानादधोगमनं भवति सूत्रं तु अवस्थितमेव तथाऽत्रापि = प्रदेशेषु परिणामेषु चापि उत्पाद-व्यय-श्रौव्यात्मकं त्रैलक्ष्ण्यमनपायम् । पूर्वपरिणामनाशोत्तरपरिणामोत्पादयोः परिणामात्मना परिणामावस्थानाविनाभावित्वात् । अत्र यद्यपि स्वधामसूत्रस्थितानामुनरवर्तिनां पूर्विलानाञ्च मुक्ताफलानामेकंदैव मुक्तादामनि अवस्थानमाबालगोपालप्रसिद्धं, न चैवं शिवककपालघटानां पूर्वोनरकालभाविनामेकदैकत्र मृद्रव्येऽवस्थानं दृष्टचरं नधापि यया मुक्ताफलानां पूर्वोत्तरदेशावस्थितानां विवक्षितस्थाने आगमानागमयो: दृष्टत्वम् नथैदात्र प्रदेशादीमां विवक्षितकाले एकत्र उदयविला| यो प्रसिद्धत्वमित्यादिसूचनार्थ ध्येयमित्युक्तम् ।
अत्र = जैनप्रवचने निश्चयतः = निश्वयनयमाश्रित्य, प्रदेशादीनां = प्रदेशपरिणामानां उत्पत्तिनाशसम्भवेऽपि व्यवहारतः = व्यवहारनयमाश्रित्य, परिणामानामेव ती = उत्पादत्र्ययौ न त प्रदेशानाम रक्तश्यामयोरुत्पादविनाशदशायामपि 'स
से ग्रधिन एकद्रव्यवास्तुविधया पूर्वोत्नरोभयात्मक है। जैसे मृत्पिण्होछेदात्मक मृदन्यात्मकचास्तुध्वंस ही घटोत्पादात्मक है और वही मृत्पिण्ड-घटान्योन्यानुवेधात्मक सूत्र से ग्रथित मृद्रव्यात्मक एकवास्तुविधया मृत्पिण्डयटोभयात्मक कहा जाता है। ठीक वैसे ही यहाँ पूर्वपरिणामोच्छेदात्मक वृतिसीमान्न = एकदव्यान्वयसंतानोच्छेद ही तदुत्नरपरिणामोत्पादात्मक है और वही परस्परानुवेधात्मक सूत्र से ग्रथित एकद्रन्यान्वयसन्तानविधया पूर्वोतरोभयपरिणामात्मक होता है। यह गान मोतिओं की माला के दृष्टान्त मे स्पष्ट हो जायेगी । बह इस तरह-दीर्घ एवं लम्बी मोतिओं की माला में सभी मोती अपने आश्रयभूत सूत्र में विद्यमान होते हुए भी जप करने के समय उत्तर उत्तर आश्रयभूत सूत्रस्थान में मोतिओं का उदय होता है एवं पूर्व पूर्व मोतिओं का उस स्थान में उदय नहीं होता है, क्योंकि वे मोती उस स्थान को छोड़ कर आगे चलते हैं। फिर भी एक सूत्र - दोरी में वे परस्पर अनुवृन होने से एक दोरी में रहने ही हैं। मतलब कि मूल दोरी में सर मोती अपस्थित होने की अपेक्षा ध्रुव है फिर भी दोरी में तत् तत् स्थान के स्वीकार एवं त्याग की अपेक्षा उनके उदय-अनुदय भी होते हैं । जैसे वहाँ त्रितयात्मकता प्रसिद्ध है ठीक वैसे ही यहाँ भी प्रदेश और परिणामों में एवं उनसे अभिन्न द्रव्यवास्तु और द्रल्पवृत्ति = द्रव्यान्वयसंतान में भी उत्पादन्यपध्रौव्यात्मकता को संगति करने पर ध्यान देना चाहिए ।
अत्र, । यद्यपि निश्चयनय से तो प्रदेश एवं परिणामों की भी उत्पत्ति एवं विपत्ति मुमकिन है। फिर भी व्यवहारनय
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.: मध्यमस्याद्वादरहरूपे स्खण्डः ३ . का.१२ अष्टसहसी-प्रवचनसारसंवादः *
च्छेदेन च धोव्यं तदवच्छेदेन तु नोत्पतिनाशी, अन्यथा सकसपत्ते: । उत्पादव्यययोर्द्रव्यत्वं तु स्वावलम्बितपर्यायावलम्बनत्वाद बोध्यम् । उत्पाद-स्थिति-भवाश्च न परस्परं सर्वथा भिना: कुम्भसर्ग-मृत्पिण्डसंहार-मृत्तिकास्थितीनामैक्येनैवानुभवनात् ।
----* जयलता है एवायमिति लौकिकप्रतीतिप्रसिद्धेः । न च प्रदेशानामन्त्यानां निरवयवत्वात्कयं उत्पादविनाशौ ? इति चाच्यम्, प्रयोगजनितयो| रेकत्विकविनसाजनितयोःचोत्पादविनाशयोस्तवाऽसम्भवेऽपि सम्दयाजनितनसिकोत्पादस्य अन्तरगमनलक्षणस्वाभाविकविनाशस्य चावस्थाविशेषात्सम्भदे बाधकाभावात् ।
नन्देवं स्थित्यादीनां प्रदेशादिभ्यो भेदे स्थितिरबोन्यत्तिविनाशी, विनाश एवोत्पत्तिस्थिती, उत्पत्तिरेव च विनाशस्थिती इति प्राप्तम्, एकस्मादभिन्नानां स्थित्यादीनां भेदासम्भवात् । तथा च कथं त्रिलक्षणता स्यान् ! इत्याशङ्कायामाह- यदवच्छेदेन | श्रीव्यं तदवच्छेदेन एव तु नोत्पतिविनाशौ,यथा मदद्रव्यत्वावच्छेदन स्थर्य घटत्वावच्छेदेनोत्पादः मत्पिण अन्यथा = एकावच्छेदेनैव त्रयाणामुपगमे, तेषां निरुक्तरीत्या सापत्तेः = अभेदप्रसङ्गादित्यर्थः ।
ननुत्पादादीनामपि परिणामत्वेनोत्पादव्यपधाव्यात्मकत्वं वाच्यम् । तच्च कथं तत्र स्यात् ? अनवस्थापातादिति चेत् नैवम्, तत्र तद्वतः कथञ्चिदभेदोपगमे स्थित्यादीनां स्थितिरेवोत्पद्यते सामर्थ्याद्विन्दयति च, विनाश एव तिष्ठनि सामर्थ्यादुत्पद्यते च, उत्पनिरेव नश्यति, सामात्तिष्ठतीति च ज्ञायते, त्रिलक्षणायदेशादभित्रानां स्थित्यादीनां त्रिलक्षणल्वसिद्धेः । तथा च स्थितिरेव स्थास्यति उत्पत्स्यते विनक्ष्यति सामर्थ्यात् स्थता उत्पन्ना विनष्टेति गम्यते विनाश एवं स्थास्याने उत्पत्स्यते विनक्ष्यति स्थित उत्पन्नो विन्ष्ट इति च गम्यते । उत्पत्तिरेव उत्पत्स्यते विनश्यति स्थास्यतीति न कुतश्चिदुपरमति सत्पत्रा विनष्टा स्थितेति गम्यते । स्थित्याद्याश्रयस्य वस्तुनोनाद्यनन्तत्वाद् अनुपरमसिद्धः स्थित्यादिपर्यायाण कलत्रयापेक्षिणामनुपरमसिद्भिः, अन्यथा तस्यातल्लक्षणत्वप्रसङ्गात्, सत्चविरोधात । एतेन जीवादि वस्तु तिष्ठति स्थितं स्थास्यति, विनश्यति विनष्टं विनश्यति, | उत्पद्यते उत्पन्न उत्पत्स्यते चेति प्रदर्शित, कथश्चित तदभित्रस्थित्यादीनामन्यधा स्थास्यतीत्यादिब्यवस्थानुपपत्तेरिति अष्टसहनीकारः ।
ननु तथाप्युत्पादव्यययोव्यात्मकत्वं कथं स्यात् तयोर्द्रव्यपरिणामत्वादिति चेत् ? उच्यते उत्पादन्यययोज्यत्वं तु स्वावलम्बितपर्यायावलम्बनत्वाद् बोध्यम् । स्वपदेनोत्पादव्यययोर्ग्रहणम् । ताभ्यामवलम्बिता ये पर्याया एतत्कालीनत्वादयः तेषां अवलम्बनत्वात् = आश्रयत्वात् । पर्यायाश्रयत्वस्यैव द्रव्यलक्षणत्वात् । 'एतत्कालीन उत्पाद', 'एतद्रव्यप्रतियोगिको व्यय' इत्यादिप्रतीतेः एतत्कालीनत्वैतद्रव्यप्रतियोगिकत्वादिपर्यायाश्रयत्वमुत्पादव्यययोरपि निराबाथमेव ।
इदन्तु ध्येयं - उत्पादस्थितिभङ्गाश्च न परस्परं सर्वथा भिना एव, कुम्भसर्ग-मृत्पिण्डसंहार-मृत्तिकास्थितीनां ऐक्येन = अभेदेन अनुभवात् 'कुम्भोत्पाद एव मुत्पिण्डसंहारः तादेव च मृत्तिकास्थिति रित्यनुभवात, तेषां त्रयाणां समनियतत्वात् । तदुक्तं प्रवचनसारे कुन्दकुन्दाचार्येणापि 'ण भवो भंगविहीणो भंगो वा गत्य संभवविहीणो । उप्पादो देय भंगो ण विणा | धोब्चेण अत्येण ॥१-८॥नच सर्वधवाऽभेदः, यतः प्रयोऽप्युत्पादादयो भिन्नरूपावच्छेदेन भित्रकालाः घटोत्पादसमये घटविनाशस्य घटविनाशसमये घटोत्पादस्य, तदुत्पादविनाशयोरुत्पत्तिविनाशानच्छित्रकालसम्बन्धरूपायाः तस्थितेः घटविनाशविशिष्टघटरूपमृत्स्थित्योर्चा विरोधात् । तथा प्रत्येकमपि देश-कात्स्न्याभ्यां भिन्नकालता, उत्पद्यमानस्यापि पटस्य देशेनोत्पन्नत्वात् देशेन चोटा
से परिणामों की ही उत्पनि और विपनि होती है . यह ध्यातव्य है । इस तरह यह भी यहाँ ख्याल में रखना जरूरी
न = जिसकी अपेक्षा धौन्य होता है उसी अवदेन उत्पाद और नाम नहीं होते हैं। यदि जिसकी अपेक्षा स्थैर्य हो उसीकी अपेक्षा उत्पाद-ज्यय को मान्य किया जाय तर तो उत्पाद व्यय एवं प्रौन्य में सांकर्य = अमेद की आपत्ति आयेगी । यद्यपि उत्पाद-व्यय इन्पपरिणामात्मक है फिर भी उनमें द्वन्यात्मकता का इन्कार नहीं किया जा सकता, क्योंकि चे उत्पाद एवं व्यय में आश्रित एतत्कालिकत्व आदि पर्यायों के आभय होते हैं। पर्यायाधयत्व ही तो द्रव्य का लक्षण है।
. * उत्पाद-व्यय-गौप्य में कचिदमेद * उत्पाद. । यहाँ इस रात का ख्याल रखना चाहिए कि उत्पाद-व्यप-धौन्य भी परस्पर सर्वथा भित्र नहीं है, क्योंकि घट की उत्पत्ति, मृत्पिण्ड के नाश एवं मृतिका द्रव्य के ध्रीव्य में परस्पर ऐक्य का ही अनुभव होता है । घटोत्पाद से मिन मृत्पिण्डध्वंस या मृत्तिकास्थैर्य की उपलब्धि नहीं होती है एवं मृत्पिण्डध्वंस को छोड़ कर घटोत्पाद या मिट्टी के ध्रौव्य की ज्ञप्ति नहीं होती है एवं मिट्टी की स्थिति के बिना अतिरिक्त घटजन्म और मृत्पिण्डविलप का ज्ञान नहीं होता है ।
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*स्याद्वादकल्पलता सम्मतितर्कवृत्तिसंवादः द्रव्यस्य स्थितिकाल एव च पर्यायाणामुत्पत्तिनाशसम्भवान क्षणभेदोऽपीति परमसमयामृतास्वादोद्वारः । ___ इत्थश्च सर्वेषामेव द्रव्याणां एकस्वभावत्वेऽम्ययं कश्चिदविशेषो यदिह प्रगलजीवद्रव्ये एव परपरिणामाद वैचित्र्यमनुभवत: । भवन्ति हि यथा परमाणवः स्निग्धपक्षत्वादिविशेषेण परस्परमेकीभवन्तो व्दयणुक-त्र्यणुकादिसमानजातीयद्रव्यपर्यायभाजो रागन्देषादिप्रवृत्तिपार
* जयलता * | स्यमानत्वात् प्ररन्धेन चोत्पद्यमानत्वात् । बिगच्छतोऽपि देशेन विगतत्त्वात् देशेन च विगमिष्यत्वात् प्रबन्धेन च विगच्छत्त्वान् । तिष्ठतोऽपि देशेन स्थितत्वात देशेन च स्थास्यत्वात प्रबन्धेन च तिष्ठन्वादिति । एकस्वरूपत्वाद द्रव्यादर्धान्तरभूतादी कालाश्चैते विशिष्टाः सन्तो मित्रप्रतियोगिविशिष्टा वा कुशूलनाश-घटोत्पाद-मृत्स्थितीनामेककालत्यादिति ततोऽनर्थान्तरभूता अपीति । एवञ्चोत्पादादित्रयेण त्रैकाल्येन भेदाभेदाभ्यां भङ्गसन्ततिद्रव्यस्य भावनीया सूक्ष्मधिया, त्र्यात्मक-त्रिकालात्मकतयाऽनन्तपर्यायात्मकत्वादेकवस्तुनः (शा.वा. ७-१) इति व्यक्तं स्याद्वादकल्पलयाप्ताम् ।
तदेवाह-द्रव्यस्य स्थितिकाले एच च पर्यायाणामुत्पनिनाशसम्भवान क्षणभेदोऽपि उत्पत्ति-व्यय-धोब्याणां त्रयाणां इति परमसमयामृतास्वादोद्गारः । यथैकैकमपि उत्पन्नादिकालत्रयेण त्रैकाल्यं प्रतिपद्यते तथा विगच्छदादिकालनयेणाऽपि उत्पादादिरेककः त्रैकाल्यं प्रतिपद्यते। तथाहि • यथा यद् यदैवोत्पद्यते तत्तदेवोत्पन्नमुत्पत्स्यते च । यद् यदैवोत्पन्नं तत्तदैवोल्पद्यते उत्पत्स्यते च । यद् यदैवोत्यत्स्यते तत्तदेवोत्पद्यत उत्पन्नञ्च । तथा तदेव यदतपद्यते तत्तदैव विगतं विगच्छद् विगमिष्यच्च । तथा यदेव यदैवोत्पत्रं तदेव तदैव विगतं विगच्छद विगमिष्यच । तथा यदेव यदैवोत्पत्स्यते तदेव तदैव विगतं विगच्छद् विगमिष्यच्च । एवं विगमोऽपि त्रिकाल उत्पादादिना दर्शनीयः । तथा स्थित्यापि त्रिकाल एव सप्रपश्च: दर्शनीयः । एवं स्थितिरपि उत्पाद-विनाशाभ्यां सप्रपञ्चाभ्यामेकैकाभ्यां त्रिकाला प्रदर्शनीयेति द्रव्यमन्योन्यात्मकतथाभूतकालनयात्मकोत्पाद-विनाश-स्थित्यात्मकमिति सम्मतितर्कटीकाकारः ।
ननु तथापि गगनादीनां कथं त्रैलक्षण्यं घटाकोटीमाटोकेत ? उच्यते, ताबद् आकाइ धर्माधर्माणामवगाह-गति-स्थित्याधारत्वं नतदनाधारत्वस्वभावप्राक्तनावस्थाध्वंसमन्तरेण सम्भवति । प्रयोग-विमसात्मकमूर्तिमद्न्यानारब्धत्वन गगनधर्माधर्मास्तिकयानां अवगाहकगन्तृस्थातृद्रव्यसन्निधानतोऽवगाह-गति-स्थितिक्रियात्पन्नेरनियमेन स्यात्परप्रत्यय:, मूर्तिमदमूर्तिमदवयवद्रव्यद्वयोत्पाद्यत्वादव - गानादीनां वैनसिक उत्पादः स्यादैकत्विक: स्यादनकत्विकश्च । आकाशत्वादिना उत्पादश्ययाऽप्रतियोगित्वाद् प्रौव्यम् । ततः सिद्धं तेषां त्रैलक्षण्यम् ।
इत्यश्च निरुक्तयुक्त्या सर्वेषामेव द्रव्याणां उत्पादत्र्ययध्रौव्यात्नके एकस्वभावत्वे अपि अस्ति अयं कश्चित् चिशेपः वैलक्षण्यं यत् = यस्मात् कारणात् इह = जगति पुगलजीवद्रव्ये एव परपरिणामाद् वैचित्र्यमनुभवतः । तदेव समर्थयति - भवन्ति हि यथा परमाणवः स्निग्धरूक्षत्वादिविशेषेण । तदुक्तं 'गिद्धस्स णिद्रेण दुराहिएण लुक्खस्स लुक्खेण दुराहिएण । गिद्धस्स लुक्षेण उ एड बंधी जहणबजे विसमे समे वा' ।।इति । परस्परमेकीभवन्तः = अन्योन्यानुबेधमाश्नयन्तः व्यणुकत्र्यणुकादिसमानजातीयद्रव्यपर्यायभाज इति।
इदमत्रावधेयम् - परमाणुकारणनाबादिन: सौगत-नैयायिक-स्याद्वादिनः । तत्र सौगतनैयायिकाश्च परमाणन अपरिणामिनो
वस्तुतः दून्य की स्थिति अवस्था में ही पर्यायों की उत्पत्ति और नाश का सम्भव होने से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य में क्षणमेव = कालभेद भी नहीं है, जिसकी वजह कालभेद से तीनों में सर्वथा भेद की सिद्धि हो सके . यह परम जैनाममस्वरूप अमृत के आस्वाद का रम्य उदार है।
मा विशेष द्रव्य में विशेष का प्रदर्शन इत्थश्च । उपर्युक्त विचारसरणी से यह फलित होता है कि सब द्रव्य उत्पाद-ज्यय-प्रौव्य त्रितपस्वभाववाला है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्रलास्तिकाप, जीवास्तिकाय एवं काल - इन छ द्रव्यों में एक स्वभाव होने पर भी उनमें कुछ विशेषता भी जरूर है, जिसकी वजह पुद्गलबन्य एवं जीवच्य ही परपरिणाम से वैचित्र्य का अनुभव करते हैं, न कि धर्मास्तिकाय आदि चार द्रव्य । जैसे कि स्निग्ध-रूक्षत्वादिविशेप से परस्पर एक = संमिलित बनते हुए परमाणु ही व्यणुक,
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१४२ मध्पमस्याडादरहस्ये खण्डः ३ . का.२ * परमाणुकारणताचार्दित्रतयमतभेदोपदनम् * तळयेणात्मानश्वासमानजातीयद्रव्यपर्यायभाज इति न ह्येवमाकाशादय इति दिक् ।
नन्वेकस्मिन् समये विरुदोत्पत्यादिधर्मसमावेश: कथं ? इत्याशङ्कायां दृष्टान्तमाहुः - गोरसादिवासिति । यथाहि गोरसे स्थायिनि पूर्वदुग्धपरिणामविनाशोत्तरदधिपरिणामोत्पादौ प्रत्यक्षप्रमाणसिन्दत्वाम विरान्दो, तदुक्तं ‘पयोव्रती न दध्यत्ति' (शा.स. ७-३) इत्यादि, तथे
* मयतता* मन्यन्ते । बौद्धमते परमाणूनां समुदाय एवं घटायः न तु तेषां पारणामरूपः । नैयायिकमने घटादिर्न परमाणुसमूहस्वरूपों नापि परमाणुपरिणामरूपः किन्तु परमाणुद्वयात इयणुकरूपोऽव्यवी जायते । स च म्बाब्यवररमाणद्धिकादत्यन्तं भिन्नः । एवं विभिः द्वयगुकैः त्र्यणुकस्वरूपोऽवयवी चतुर्भिः त्र्यणुकैश्च चतुरणकस्वरूपोऽचयपी उत्पद्यते। परमाणुकारणताबादमदगीकुर्वन्तोऽपि स्याद्वादिनः परमाणूनां परिणामरूपः द्वयणकादिर्घटादिश्चावयत्री कयश्चित्स्यावयवापृथग्भूत इनि मन्यन्ने । अतो जनाः परिणामवादिनः सौगतयोगवैशेषिकास्तु न परिणामवादिनः । साङ्ख्ययोगवेदान्तिनः तु न परमाणुकारणतावादिनः, परमाणूनामेवास्वीकारात् । प्रकृतरेव परिणामभूतं जगदिति सांख्यानां योगानाञ्च मतम् वेदान्तिनस्तु सात्र्यसम्मतां प्रकृतिमपहाय तत्स्थाने मायामभिषेचयन्ति । सैब माया अविद्या, अज्ञानं इति निगडते तैः । नन्मते मायाया एव परिणामभूतं जगत, यतो माया परिणामिकारणम् । यत्र स्वरूपे विकारो भवति तादृशां कारण रिणामि उपादानग, यथा दुग्धं दनः । यत्र स्वरूप विकारो न भवति तत्कारणं चिव”पादानमुच्यते यथा रज्जुः सर्पस्यति वंदान्तिनः ।।
ननु पूर्वमन्धकारवादे भवद्भिरेव तमःपरमाशूनां प्रकशात्मना परिणामः प्रत्यपादीति कथमत्र ‘समानजातीये'त्युक्तमिति चेत् ? नैवम् द्रव्यत्त्वसाक्षाव्याप्यजातिरूपेणैव समानजातीयत्वस्यात्राभीप्सितत्वात् । द्रव्यत्वसाक्षाद्व्याप्यजातवच्छेदन नियतपर्याया. रम्भवादः तदवान्तरजात्यवच्छेदेन चानियतपर्यायारम्वाद इत्यत्राप्यनेकान्तस्य लब्धप्रसरत्वात् । अत एवानुपदं वक्ष्यमाणाऽसमानजातीयद्रव्यपर्यायोत्पादकथनमपि न विरुद्धम्।।
जीवद्रव्ये परपरिणामाद् चैचित्र्यमुपदर्शयति - राग-द्वेपादिप्रवृत्तिपारतन्त्र्येण आत्मानश्च असमानजातीयवल्यपर्यायभाजः द्रव्यत्वसामान्याष्यजीवत्वब्याप्यनरत्य-देवत्वादिवैजात्पशालिद्रव्यपर्यायवन्तः भवन्ति इति । न ह्येवमाकाशादयः स्निग्धलक्षादिपरिणामविशेषादन्यस्माद्वा समानासमानजानीयद्रव्यपर्यायशालिनो भवन्ति । स च विशेषः आकाशधर्मादिभेदी वा जीवपुद्गलमात्रवृनिवजात्यं वा सांवच्छिन्त्रपरिमाणयत्त्वं वा सम्बन्धविदोषेण रूपादिमन्चं वा स्वातन्त्र्येण गन्तृत्वादिकं वा अन्यो वा कश्चिदिति बहुश्रुने यो:वगन्तव्यमित्यादिसूचनार्थ दिगियक्तिः। मुग्धः शकते - नन्विति । स्थायिनि = दग्धदध्यवस्थाच्यापिनि । शास्त्रवातासमुच्चयसंवादमाह-पयोब्रतीति । पयोबती
पयोऽति दधिन्नतः । अगोरसन्नतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् । इति संघर्णा कारिका । पयोवतः = क्षीरभोजनननः ।। न दध्यन्ति = न दधि भुड़ते। यदि च दनः परस एकान्ताभेदः स्यात्तदा तस्य दधि भुजतोऽपि न बत्भत स्यात् । तथा || दधिन्नतः = दधिभोजनव्रतः न पयः = दुग्ध अनि । पयसो दघ्न एकान्नाभेदे च तद् भुञ्जतो न दधिभाजनबतभङ्गः स्यात् ।। ततो दविषयसोः कथञ्चिद्भेदः । तथा अगोरसब्रतः = आरनालादिभोजनव्रतः उभ = दुग्धधिनी नाति इति गोरसभावन |
ध्यणुक, चतुरणुक आदि सजातीय द्रव्य • पर्यायों को धारण करते हैं.। इसी तरह राग-द्वेप आदि प्रवृत्ति के पारतन्त्र्य से आत्माएं भी नर, नारक, तियेच आदि असमानजातीय द्रन्पपर्याय को धारण करती हैं। मगर आकाश, काल आदि द्रव्य | परपरिणाम से चैचित्र्य को धारण नहीं करते हैं। इस विषय में बहुत कहा जा सकता है । यह कथन तो एक दिग्दर्शन है। इस बात की सूचना देने के लिए श्रीमद्जी ने यहाँ दिक पद का प्रयोग किया है।
गोरसाहसान्त से त्रैलदाण्यासिन्द्रि नन्. । 'उत्पाद, व्यय और धीज्य तो परस्पर विरुद्ध हैं । अतः एक ही काल में एक द्रव्य में उनका ममावेश कैसे हो सकता है ?' इस प्रश्न के निराकरणा मूलवार श्रीमद्जी गोरसादि के दृष्टान्त को बताते हैं। वह इस तरह . गोरस स्यापी द्रव्य है फिर भी उसी में पूर्व के दुग्धपरिणाम का विना एवं उत्तर दधिपरिणाम का उत्पाद प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध होने से स्थैर्य, उत्पाद और विनाश परस्पर विरुद्ध नहीं है । 'गोरसात्मना स्थिर द्रश्य ही दुग्धात्मना नष्ट हुआ और दधिरूप से उत्पन्न हुआ' - यह प्रतीति तो सार्बजनीन है। इसलिए नो मुरिपुरन्दर श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराज ने कहा है कि-> जिसको केवल दूधभोजनव्रत है, वह दधि नहीं स्वाता है और जिसको दथिभोजनव्रत है वह दुग्धपान नहीं करता है। इसमें फलित होता है कि दुग्ध और दधि में परस्पर भेद है । अन्यथा दुग्धभोजनव्रती नहीं का भी भक्षण कर ले तब उसे पाप
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* स्याद्वादकल्परताव्याख्यालंशः * हापि द्रव्ये सर्वदा स्थायिनि पूर्वपरिणामोच्छेदोत्तरपरिणामोत्पादौ प्रतीतिबलादेव न विरुदाविति || भात इति श्रेयः श्री: ॥५॥
* जयलता. . द्वयोरभेदः; अन्यथा कृतगारसप्रत्याख्यानस्य दुग्धायकैकभोजने:पि न व्रतमङ्गः स्यादिति । तस्मात् = द्रव्यपर्यायोभयात्मकत्वात त्रयात्मकं = उत्पादव्ययधोव्यापृथग्भूतं वस्तु इति स्याद्वादकल्पलतान्याख्यालेशः।
निगमपति - तथा इहापि = दान्तिक पि द्रव्ये सर्वदा स्थायिनि द्रव्यत्वस्य ध्वंसप्रतियोगितानवच्छेदकत्वात्, पूर्वपरिणामांच्छेदोत्तरपरिणामोत्पादौ प्रतीतिबलादेव न विरुद्धी अस्खलत्सार्वजनीनस्वरसवाहिप्रत्यक्षस्यानपलपनीयत्वात् इति भावः । यथा चैतत्तत्त्वं तथा पूर्वमनेको विभावितमचेत्यलं विस्तरंगनि शम् ||१२||
इस जयलताकृत्प्रशस्तिः तपागच्छे श्रीसगुणगणमणिश्रेणिनिधयः तप:श्रीन्यायाम्भानिधय उचिताचारविधयः । स्वभक्तच्छापूर्त्तिचिदशतरवा बुद्धिगुरवः समुद्भूताः श्रीमद्विजयिविजयानन्दगुरवः ॥१॥ श्रीसंघे ददतां विद्यासौख्यकल्याणसम्पदः । पट्टपद्माकरे तेषां जातः कमलसूरिराट् ॥२॥
तत्पगगने जातो वीरविजयवाचकः । चन्द्रवद्गोविलासैः कुवलयवोधतत्परः ॥३॥ तत्यगगनदिनमशिरजनिष्ट जनेष्टदानदेवमणिः । श्रीविजयदानमुनिमगिरनुगुणाधरितरजनिमणिः ॥४. रत्नाकरादिवतस्मात् शिष्यरत्नं बभूव सत् । वीशी पे हि नो मन्ये यद्गुणवर्णने प्रभुः ।।५।। सौभाग्याद्भुतवैभवो भवमहाम्भोराशिकुम्नीश्वः । तन्पढें गुस्प्रेमसूरिंगणभृन्नन्यादविद्यापहः ||६||
दाक्षिण्यैकनिधिळधान्न सहजे देहे-प्यहो मूर्छितं कारुण्यामृतवारिधिर्विनिदधे गुप्तौ स्वकीयं मनः । शान्तात्माऽनुचरं चिरस्य विनिजग्राहन्द्रियाणां गणं, यो विज्ञातसमस्तदस्तुरभवत् तुल्यश्च हेमाश्मनोः ॥७|| कालिमकृति कलिकाले कालेऽभूत् कालिमा मनाग नास्य । प्रत्युत स एव येन स्वयशस्सुधया शुचीचक्रे ||८||
मनसि घनविवेकस्नेहसंसेकदीतो द्युतिनतनुत यस्प ज्ञानरूपः प्रदीपः । असमतमतमांसि ध्वंसपत्रासाऽसौ न खलु मलिमसं स्वं किन्तु कुत्रापि चक्रे ||२|| वर्ण्यते किमतः तस्य श्रीसिद्धान्तमहोदधेः । माहात्म्यं यत्करस्पर्शान् संसारी संयमी भवेत् ॥१०॥
तत्रोदियाप तमसामवसायहेतुर्निस्तारक्युतिभरी भुवनप्रकाशः । गच्छाधिषी भुवनभानुगणी नमस्यपादा नवार्क इव सहितकञ्चित्तः ।।११।।
नैयायिकानामुपकारकाणां तपस्विनां कीर्तिमतां कवीनाम् ।
अव्यपकानां सुधियां च मध्ये दध सदा यः प्रधमत्वमेव ||१२|| सुरगुरुसमा प्रेक्षा गिरश्च अवस: सुधा, अधरितधरं धैर्य यस्य क्षमानुऋतक्षमा ।
शमदमवनः पाताल प्राविशद्भवलं यशः शशिज्यकरं नाभूत्कस्याद्भुताय मुन्प्रिभोः ||१३|| न लगेगा और दधिभोजनव्रती दुग्ध का आस्वाद को नर भी उसे पाप न लगेगा । मगर ऐसा नहीं है। इससे दुध और दही में भेद सिद्ध होता है। मगर जिसने गोरस का प्रत्याख्यान किया है वह न तो दूध को पीता है और न तो दही को खाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि दुग्ध और दधि में गोरसात्मना अभंद रहता है। केवल दुध ही गोरस हो तब तो दधिभक्षण करने पर भी गोरसप्रत्याख्यानी को पाप न लगना चाहिए और केवल इधि ही गोरस हो तर तो दुग्धपान करने पर भी गोरसप्रत्याख्यानी को पापकर्मचन्ध नहीं होना चाहिए । मगर ऐसा होता नहीं है । गोरसप्रत्याख्यानी राहे दूधपान करे या दधिमक्षण करे मगर उसे पापकर्मबन्ध होता है । इसोसे सिद्ध होता है कि दूध और दही गोरसात्मना परस्पर अमित्र भी हैं। मतलब कि दधि का उत्पाद, दुग्धविनाश एवं गोरसस्थैर्य परस्पर एक काल में एक द्रव्य में विरुद्ध नहीं है . यह सिद्ध होता है। जैसे इस दृष्टान्त में उत्पाद-व्यप-ध्रौव्य त्रितयात्मकता की सिद्धि होती है ठीक वैसे ही यहाँ सर्वदा स्थायी द्रग्य में पूर्वकालीन परिणाम का नाश और उत्तरपरिणाम का जन्म भी प्रतीति के बल से ही परस्पर विरुद्ध नहीं है। इसकी शांति से भावना करनी चाहिए ॥१॥
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८८४ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड: ३ का १२
* जवलताकृत्प्रदास्तिः
इति महामहोपाध्याय - यशोविजयगणिवरविरचितं स्यादादरहस्यम् (मध्यमपरिमाणम्) श्रीरस्तु सङ्घस्य ।
ॐ गयलता
इष्टफलादिसिद्धान्ताः सम्यक्शास्त्रानुसारतः । स्थापिता येन स जीयात् बर्धमानतपोनिधिः ||१४|| भव्यान्सार्धं कुटुम्बैः बहुश उपकृत कर्मोऽबोधययो वाग्मी तर्कज्ञवैयाकरणगणमणिः पीतसिद्धान्तसिन्धुः । यत्रामामानधाभाधरितमुखरवैतण्डिका आशु नेशः, स्नतॄणां सादराणां विदलयति विपद् यः प्रदत्ते हि भवन् ||१५|| तत्पद्वे गुणरत्नरोणगिरिर्गाम्भीर्यपाधोनिधिः तुङ्गत्वानुकृतश्रमाधरपतिः साम्ये च तारापतिः सम्यग्रनविशुद्धसंग्रमशमः स्वाचारचर्यानिधिः दान्तो नो जयघोषसूरितान्निः सङ्गचूडामणिः ||१६|| आबाल्याश्चिन्तकः बाल्यकाले पित्रा सहैव यः । दीक्षां गृहीतवान् नैव च स्पृष्टवान् विकारिताम् ||१७ कण्ठस्थच्छेदशास्त्रादिः नव्यकर्मादिशास्त्रकृत् । दिक्पटशास्त्रमीमांसकः सर्वशास्त्रवित् ||१८|| ब्रूमः किं तस्य माहात्म्यं यत्सहवासतो जनैः । मादृशा अपि मूर्खा गण्यन्ते पती प्रमावताम् || १९ श तच्छिष्यों राजते प्राज्ञः विजय: जयसुन्दरः । येन मेधाविना प्राप्ताः स्तोककैरेव वत्सरैः ||२०|| न्यायकर्मादिसाहित्यसिद्धान्तोदन्त तटाः । मह्यं प्रदत्तवान् न्यायशास्त्रशिक्षामनाविलाम् ॥२१॥ पदार्थाः प्रकटा पद्वत्प्रसादाच्चन्द्रसूर्ययोः । भवन्ति प्राणिनां नित्यमेतयोर्मे तथा किल ||२२|| कालस्य पदन्यास सामर्थ्यं नम साम्प्रतम् । विजृम्भतेऽत्र सामर्थ्यमेतयोरिति मे मतिः ||२३|| एतयोरनुरागाद् वचनात्प्रसादतश्च मे । द्वितीयेयं कृतिः प्रारब्धा पूर्णा च तथैव हि ||२४|| दर्थिनां यत्प्रेरणयेकदा । जातं वार्षिकदानं तस्मै हेमसूरये नमः ||२५|| पञ्चविंशतिभिः सार्धं प्रब्रजितः स मे गुरुः । विजय: विश्वकल्याणः पुण्यशाली प्रभावकः || २६ ॥ प्रसन्नास्याय सौम्याय चैत्योद्धारोद्यताय हि । भुवन भानुसूरीशशिष्याय गुरवे नमः ||२७|| तच्छ्रेिष्येण मयेमां जयलतां कुर्वता सता । श्रीमृत्युञ्जय सिद्धपाख्ये तरसी साधिते मुदा ||२८|| ग्रन्थेऽस्मिन् जटिला ग्रन्थयः प्रायः प्रतिवाक्यगाः । तथापि गुरुभक्त्या प्रसादाच शारदाकृतः ॥२९॥ सुबोधेऽस्मिन मया शाखाणि शतशोऽवगाह्य वै । जयलतापदार्थेदम्पर्यार्थकलिता कृता ||३०|| गजगत्यभ्रराशिप्रमिते (२०४८) विक्रमवत्सरे । कार्त्तिके हुबलीपुर्यां राकापां पूर्णतमगात् ।। ३२ ।। टीकेयं शोधिता तर्करत्नैः श्रीजयसुन्दरैः । पुण्यरत्नादिभिश्वाध्यात्मतपोज्ञानशालिभिः ||३२|| कृतिरियं सदा नन्द्याच्छ्रयशोविजयस्य हि । अनया लभतां लोको विषयविजयश्रियम् ॥३३॥
1
ग्रन्धाग्रम् - २३०००
इति महामहोपाध्याय - यशोविजयगणिवर्यविरचित मध्यमस्याद्वादरहस्यप्रकरणस्योपरि मुनियशोविजयकृत्तजयलता टीका
समाप्ता
कल्याणमस्तु
तृतीयः भागः संपूर्ण : ग्रन्थश्च सटीकः समाप्तः |
इस तरह न्यायविशारद न्यायाचार्य महनीय महोपाध्याय यशोविजयजी गणिवर्यश्री से विरचित (मध्यम) स्याद्वादरहस्य ग्रन्थ की सुविशाल गच्छाधिपति वर्धमानत्तपोनिधि, न्यायविशारद आचार्यदेव श्रीमद्विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराजा के शिष्य शासनप्रभावक मुनिराजश्री विश्वकल्याणविजयजी महाराजा के शिष्य मुनि यशोविजय से रचित रमणीया (हिन्दी) व्याख्या सानन्द संपूर्ण हुई ।
श्रीरस्तु श्रमण संघस्य हुबलि कार्तिक पूर्णिमा वि.स. २०४८
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MG
परिशिष्ट-१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये स्पष्टीकृता अर्थविशेषाा: १. अवगाहना हि न संयोगदानमुपग्रहो वान्यसाधारणत्वात् किन्त्वाधारत्वपर्यायः __ आभिमुख्येन ग्रहणं मुख्यत्वं, तद्विपरीतत्वमुपसर्जनत्वम्
उपयोगश्वोपलिप्सोराभोगकरणं इति विशेषावश्यकवृत्तौ ४. एकशेषस्थले तु वस्तुतः पदान्तरस्मरणमेव कल्प्यम्
२८७ ५. एकदोभयतात्पर्यग्रहे एकपदादेकदोभयबोधास्वारस्यनिर्वाहाय 'सकृदुच्चरिते' त्यादिनियमो युक्तः २१६ ६. ऋजुसूत्रनये उपादेयक्षण एवोपादानप्रध्वंसः ७. क्षयश्चात्राकर्मक्षये) स्वसमानाधिकरणतज्जातीयपर्यायप्रागभावासमानकालीनस्तत्पर्यायध्वंसो. न तु ४५५
सर्वथाभावः कृतस्य-कुम्भकारादिप्रयत्नस्य नाश:= उपधानाव्याप्यत्वम, अकृतस्य = कुम्भकारादिप्रयत्ना भावस्य१११
आगमः= अनुपधानाव्याप्यत्वम् ९. तत्तदर्थस्वरूपपरिणामपरिणतपदबोध्यतावच्छेदकरूपवत्वंतत् (अनभिलाप्यत्वम् १०. मोहक्षोभविहीनो ह्यात्मनः परिणामः शुद्धः स एव हि चारित्र्यशब्दवाच्यः ११. न चैवं मोक्षेऽ प्यनुजिघृक्षापत्तिः जिननामकर्मोदयसाचिव्यादेव तत्प्रवृत्तेः १२. नन्वत्र किं कारणत्वमिति चेत् नियतान्वयव्यतिरेकव्यंग्यः परिणामविशेषः ।
८३४ १३. योग्यताविशेषश्च तदंशे ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमः १४. व्यवहारनये तु घटोत्तरकालवर्त्तिमृदादिस्वद्रव्वं घटप्रध्वंसः १५. वस्तुतः सामान्यत एक' चक्षुषजन्नी योग्यताऽ परा च तमःसंयुक्तचाक्षुषजननी
३५२ १६. विधिमुखप्रत्ययवेद्यत्वं सत्त्वं, निषेधमुखप्रत्ययवेद्यत्वं चासत्त्वम् १७. द्वयं न विरुद्धं = न परस्परानधिकरणाधिकरणम्
४६५ १८. प्राच्यादिविभागेन कथश्चिद्विभित्रा प्राच्यप्रतिभ्योभयाधारत्वेन कथाञ्चिदेका चाकाशात्मिकैव दिगिति । ६९३ १९. समनियताभावस्त्वेक एव । २०. स्वभावो हि स्वद्रव्यगुणपर्यायानुगतं स्वरूपास्तित्वम्
१७८ २१. 'सर्वे सर्वार्थवाचका' इत्यभ्युपगमेनैकया शक्त्याप्येकपदस्यानेकार्थबोधकत्वात्
२९७ २२. साहश्यं न तद्भित्रत्वे सति तद्गतभूयोधर्मवत्त्वं, किन्तु तद्वृत्तिधर्मेकधर्मवत्त्वम्। २३. एकत्वं च संग्रहनयार्पणार्पितबुद्धिविशेषविषयत्वम्। २४. संकेतो हि तपश्चरणदानप्रतिपक्षमावनावज्ञानवरणक्षयोपशमभिव्यञ्जकतयोपयुज्यते न तु
शब्दार्थसम्बन्धतया। २५. भगवतां मोहाभिव्यक्तचैतन्यविशेषरूपाया इच्छाया असत्त्वेपि
तदनभिव्यक्तचैतन्यविशेषरूपानुजिघृक्षादिसत्त्वमविरुद्धम् ।
..
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८८६
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परिशिष्ट-२ मध्यमस्याद्वादरहस्ये निर्दिष्टा ग्रन्थविशेषा:
१९८, ५२९ ८. ज्ञानकर्मसमुच्चयवादः
६१७
८७४
अध्यात्ममतपरीक्षा
अनुमानखण्डः (त.चिं.) अनेकान्तव्यवस्था
अष्टसहस्त्री
आकरः (स्याद्वादरत्नाकरः)
गुणस्थानकक्रमारोहः चित्ररूपप्रकाशः
अष्टसहस्त्रीकारः (विद्यानन्दः)
उच्छृङ्खलाः
उदयनः
ऋजवः
एकदेशी
५.
६.
७.
८.
गङ्गेशः
९. ग्रन्थिकाः
१०. चार्वाकः
११. जरनैयायिकाः
कन्दलीकारः (श्रीकण्ठः)
कापिलमतम्
परिशिष्ट - ३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये निर्दिष्टा नामविशेषाः
१२. तथागतः १३. तौतातिकैकदेशी
१४. दिगम्बराः
१५. दीधितिकृत् १६. नवीनः
१७. नव्यचार्वाकः
१८. नव्यनैयायिकः
७६३
२२.९६, २९८. ६४९
११७
4468
१९. नव्यमतानुयायी
२०. नूतननैयायिकः
२१. नैयायिकः
२२. नैयायिकैकदेशी
२३. पक्षधर मिश्रः
न्यायवादार्थाः
९.
१०. पदार्थमाला
११. विशेषावश्यकवृत्तिः
८९, ४५८, ४८१,५२५
९२. २४५.४३५.८६२
२९२.३९३,
६३८, ६५५
७३, ७५४
९३,४९८.६२१
१२. श्रीपूज्यलेखः
१३. सप्तभङ्गीतरङ्गिणी
१४. स्तुतिः
२६८ २४. प्रगल्भः
३४६
१०२
१०४,५८४
१५७ ५८५
४०७
७०१
७२१
६८. १७४
८७४
२८. भट्ट्टाः
२९. भवदेवः
६३४
३०. मणिकृत् ३१. मीमांसकः
३५
६६७ ३२. यशोविजयः ६३५ ३३. यौक्तिकाः
७०५
३४. यौगाः
५४६
३५. रामभद्रसार्वभौमः
३५०
३६. लोकायत्तिकः
३७. वर्धमानः
३८. वैशेषिकः
३९. शिरोमणिनयानुयायी
४०. सांख्यः
२५. प्राञ्च
२६. प्राभाकराः
२७. बौद्धः
४१. साम्प्रदायिकाः
४२. स्तुतिकृतः
४३. स्याद्वादी
१३९,५६४,६५५
४४. स्वतन्त्राः
४५. हेमसूरिः
७१४
५८
९३.२९९
२२९
مام
३६६
४७, ४८६, ६७५,६९७
३६३ ५४६
७६२,७७० २४८
११.८८, १७०,६१०
७१० १६०
८७
९.४,१२६,७७०
५५.८ ६३५
३८४,५०४ ५४९
७२३
१११, १२७,६३४७६०७७०
७२९,७५२
७३७
७३६
३८९
१. १६०
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--------------------------------------------------------------------------
________________
८८७
४७०
२८
६
३
८७६
परिशिष्ट-४ मध्यमस्याद्वादरहस्ये ग्रन्थान्तरादुघृतानां संवादानां सूचिः अमा.नोना
२७. तो भासइ सन्चन्नु २. अण्णं घडाउ रूवं (श्रीपूज्यलेख)
२८. न भवो भंगविहिणो (प्र. सा. २.८) अत्यन्तासत्यपि ज्ञानं
२९. नाणस्स सव्वस्स (उत्तरा. ३२.२) १९७ (खं.खं. खा. १.१)
३०. नानात्मानो व्यवस्थातः
८.२३ ४. अनन्ते शुद्धसम्यकत्व (गु. क्र. १३०)
३१. नित्यं विज्ञानं आनन्दं (तै.आ.) १६२, ८२७ असदकरणादुपादान (सां.का.९)
३२. नित्यं सत्त्वमसत्त्वं (प्र.वा. ३.३४) आनन्दं ब्रह्मणो रूपं
३३. पन्नवणिज्जाणं पुष (वि.आ.भा. १४१) ५१८ ७. आया सामाइए
१९८
३४. पत्रवणिज्जा भावा (वि.आ.भा. १४१) ५१४ ८. इह विविधलक्खणाणं (प्र. सा. २.५) ४८३
३५. पयोवती न (शा.वा. ७.३) ९. उपयोगचोपलिप्सो (वि. आ. वृ.) उपाधयो (स्या.मं. २४.३५९)
३६. पविभत्तपदेसत्तं (प्र.सा. २.१४) ११. उपाधिभेदोपहितं (अन्ययो. व्य. २४) ६१०
३७. पुढे सुगेइ सदं (आ.नि.५) १२. उवत्रेइ वा
३८. पूर्वापरपरिणाम (प्र.न. ५.५)
४८० १३. एकत्र वस्तुनि (प्र.न. ४.१४) २२९
३९. प्रमाणप्रतिपन्न (प्र.न.त. ४.४४)
२८२ १४. एकत्र वृत्तौ हि (शंखे पा. स्तोत्र-४८) ४०. मुखे पुच्छे च ।इति.हा. ९६) ५९९,६०६ १५. एगे भंसे जीवप्पएसे (आत्मप्रवाद)
४१. यौव यो दृष्ट (अन्य व्यव. ९, ८०४ १६. एतस्य चाक्षरस्य (बृ. आर. ३,८.९)
४२. यथा हि प्रेर्यते १७. एवंविधं सहावे (प. सा. २.१९)
४३. रूवं पुग पासइ (आ.नि. ५) १८. कयमाणे कडे
विकल्पयोनयः १९. केवलवित्रेयस्थे (बृक.भा. ५८)
४५. विसेढी पुण सदं (आ.नि. ६) २०. चैतन्यस्वरूपः (प्र. व. १.५६) ७५६ ४६. वीतरागजन्मादर्शनात् (न्या. सू.) २१. जम्हा य मोअगुच्चारणमि
४७. संविदेव हि भगवती (बृ. क. मा. ५९)
४८. सबंधयारउज्जोआ (उत्तरा.) २२, जुत्तो य तदुवयारो (वि. आ. भा. २३४७)
४९. सद्दच्वं सच्च गुणो (प्र. सा. २.५) २३. ठाणनिसेज्ज (प्र. सा. १.४४) ५२६
५०. सब्मावो हि सहावे । (प्र. सा. २.५) ४८१ २४. तत्र सचेतसा
६१७ ५१. साधु चन्द्रमसि (का, प्र. ७.७८.८) २५. तस्मात्र बध्यते (सां.का.६२) ७७६ ५२. सिद्धिः स्याद्वादात् (सि. २. १.१.२) ७३७ २६. तेषां मोहः (न्या. सू. ४.१.६)
५३. सिद्धे नो चरित्ती
SXC .
.
५२०
८.gov०००
०
८१३
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--------------------------------------------------------------------------
________________
भावः स
४१
॥
परिशिष्ट-५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये दर्शितानां न्यायानां सूचिः १. एके.सीव्यतोऽपरप्रच्युतिः
यदिशेषयोः कार्य-कारणभावःस २. एकत्र द्वयम्
१३९.४८१
तत्सामान्ययोरपि ३. तद्धेतोरस्तु कि तेन
७. विशिष्टवाचकानां पदानां
१७३ ४. घर्मिकल्पनातो धर्मकल्पना लघीयसी ६८८ विशेषणवाचकपदसमवधाने सति
विशेष्यार्थ-मात्रपरत्वम् प्रत्ययानां प्रकृत्यान्वितस्वार्थबोध- ४६७ कत्वम्
सकृदुच्चरितः शब्दः सकृदेवार्थ २८५,२९६. गमयति
२२७
८.
४४८
परिशिष्ट-६ जयलता में खंडित किये गये ग्रंथ एवं मत की सूचि अनेकान्तवादनिरास १०६ | २४. दीधिति
१४३५.६८९ अत्रम्भमत
| २५. देवराजमत अर्थसंग्रह
| २६. नारदपरिव्राजकोपनिषत् ४ अष्टसहसी . .. २५८, १५ २९. नारायणपरिवाजकोपनिषत्
८.०८. ऐतरेयोपनिषत् ८२४ २८. न्यायकणिका
४५१ कठोपनिषत् ८२४ २९. न्यायकन्दली
१२२, ४०५.७१६ ७. कल्पतरुपरिमल
३०. न्यायतात्पर्यटीका कान्टमत
३१. न्यायभाष्य कारणतावाद (जगदीश)
३२. न्यायभूषण
२१,७३,८४.११३.११४, १०. कारिकावली
६८५
१७७,१८०,२३४,२३६,२७२
२३. न्यायमञ्जरीसार ११. किरणावली (उदयनाचार्यकृत) ३७५, ७५३ २. गौडपादकारिका
३४. न्यायरलमाला १३. छान्दोग्योपनिषत्
३५. न्यायरत्नाकर
७०३ ८००,८०८, ८२४ १४. जागदीशीव्यधिकरणदीपिका
३६. न्यायसिद्धान्तदीप (शशधरशर्मा) ३८० २५५
३७. पक्षधरमिश्रमत १५. तत्त्वचिन्तामणि
४०८ १२,१६,३५,३६,५१.
३८. प्रमाणवार्त्तिकालङ्कर १६. तत्त्वचिन्तामणि आलोकटीका
३९. प्रवचनसार
२१३. ५२९ १७. तत्त्वसंग्रह
२३५, ५४० ४०. प्रवचनसारतात्पर्यवृत्ति १८. तत्त्वसंग्रहदीपिका १०० ४१. प्रशस्तपादभाष्य
१०.६९५ १९. तत्त्वसंग्रहपञ्जिका
४२. बृहदारण्यकोपनिषत् ४४०, ४४२,८२४ २०. तत्त्वार्थराजवार्तिक
१०४ ४३. ब्रह्मबिन्दूपनिषत् २१. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ५२५.५.३० ४४. ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्य १०, २२५, २३४, २६४ २२. तर्कसंग्रहनृसिंहप्रकाशिका ८५१ ४५. भवदेवमत २३. त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषत् ४४८ . मथुरानाथमत
३४८
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________________
१२
४७. माध्यमकवृत्ति
विधिविवेक
४५५ ४८. माध्यमिककारिका ६१३ | ६४. वेदान्तकल्पतरु
२२३ ४९. मीमांसान्यायप्रकाश
४५१ । ६५. व्यधिकरणप्रकरण ५०. मीमांसापरिभाषा
६. व्युत्पतिवाद
७६,२१४ ५१. मीमांसासारसंग्रह
४५१ | ६७. व्योमवती ५२. मुक्तावली २९.२०६८८.०१. ६८. सरायमाझग
१००.८०८ ६४७.६८८.७००,७५९.८१४.८२५
६९. शिवादित्यमत ५३. मुक्तावलीकिरणावली
७०, शेषानन्तमत
४०८ ५४. मुक्तावलीदिनकरीयवृत्नि ३१,७२,३२६,३७०,
५०८,६४८.६८८.
७१. श्लोकवार्तिक ४५१, ४५२, ४५५.६९८ ७३२,७३५.८७२ ७२. श्वेताश्वतरोपनिषत्
४८,८०८ ५५. मुक्तावलीप्रकाश
८७४
७३, सप्तभङ्गीतरङ्गिणी (विमलदासकृत) २६९ ५६. मुक्तावलीप्रभा (नृसिंहशाली) ३०९.३२६,
७४. सांख्यकारिका २११.७७३.७७४
५०८.५९१,६९३ ५७. मुक्तावलीमञ्जूषा ३१,३०९, ६९५.७९७,
७५. सांख्यतत्त्वकौमुदी
१२३.१२८ ७०३,७३२,८७१ ७६. सांख्यतत्त्वकौमुदी किरणावली ५८.. मुक्तावलीमयूख
३८५
७७. सामान्यनिरुक्तिदीधिति ५९. मुक्तावलीरामरुद्रीयवृत्ति ३७०, ४३५, ४३७,
७८. सिद्धान्तलक्षणदीधिति
३६९ (दिनकरीयतरङ्गिणी) ११.५१२,६६४
७९. स्याद्वादध्वान्तमार्तण्ड
४२७ ६०. मुण्डकोपनिषत्
४४८,८२४
८c. हिरियन्नामत ६१. योगसूत्र
८१. हेगलमत ६२. रेल्महोल्टसमत
१८२
Neer
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--------------------------------------------------------------------------
________________
१०३
६८६
परिशिष्ट-७ जयलता में निर्दिष्ट साक्षी ग्रंथ की सूचि अथर्वशिरउपनिषत्
८७५ ३१. कारणतावाद (गदाधरकृत) ८४२, ८४७, ८५७. २. अद्वैतसिद्धि
८५८.८.६०.८६३
३२. कारणतावाद (जगदीशकृत, ३. अध्यात्मदिति
३३. कारिकावली
४१७ अध्यात्ममतपरीक्षा १९८,२०९, ५२९
३४. काव्यप्रकाश
४५१, ४८६ ५. अध्यात्मोपनिषत्
५१३,८७५ ३५. काव्यानुशासन
४८६ ६. अनुयोगद्वारसूत्र
३६. काशिका
७८.२८७ ७. अनेकान्तजयपताकावृत्ति
७८,५३६
३७. किरणावली (उदयनकृत) ८. अनेकान्तव्यवस्था (जैनतक) ३००.८२६.
८३५,८७४ ३८. खण्डनखण्डखाद्य
५१,४२१ अन्धकारभाववाद
३९. गुणस्थानकक्रमारोह १०. अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका १६६.२०१, ४०. गौडपादभाष्य
१११.७७२ ३००, ६१०,७५९,८०४ ४१. चित्ररूपप्रकाश
५७०,५८४ ११. अन्वीक्षानयतत्त्वबोध
१७२
४२. छान्दोग्योपनिषत् १२. अभिधानचिन्तामणि
१६३, ८०३, ८.०८.८१८ ३३९
४३. जीवविचार १३. अमरकोश
३२.२९०,४०८
४४. जीवाजीवाभिगम १४, अमृतनादोपनिषत्
४५. जैनतर्क
८.२८,८३५ १५. अवच्छेदकत्वनिरुक्तिदीधिति २४०, २७७
४६. ज्ञानकर्मसमुच्चयवाद
८३० १६. अष्टसहस्री
७०९, ८३५.८८० ४७. ज्ञानाबन्दु
५२४,७६८ १७. अष्टसहस्रीतात्पर्यविवरण १३९.२०७,२२७, २४९,२२७,३००,४५०,४५४ ४८. तत्त्वचिन्तामणि
३५,४२,८४,८८.८९.
३१७.६८०.८२७,८५६ १८. आत्मख्याति ७८५,७९९.८००,८१७
४९. तत्त्वचिन्तामणिआलोक १९. आत्मतत्त्वविवेक
५०. तत्त्वचिन्तामणिदीधितिप्रकाश २४८ २०. आत्मतत्त्वविवेकवृत्ति
१५२
५१. तत्त्वप्रदीपिका २१. आत्मप्रवाद
८०८ ५२. तत्त्ववैशारदी
१०६.१४५ २२. आप्तमीमांसा ३.१५५.१९९. २५६, ७६२
५३. तत्त्वसंग्रह २३. आवश्यकनियुक्ति ५२४, ५२८,६१७.
६९३.८३३
५४. तत्त्वसंग्रहपञ्जिका २४. आवश्यकनियुक्तिदीपिका ६.२९ ५५. तत्त्वार्थटीका १०५.३९.९.५२४.५२९.६८५,६९० २५. आवश्यकनियुक्तिहारिभद्रीयवृत्ति ७२.६९२.६९३ ५६. तत्त्वार्थभाष्य २६. इतिहासोपनिषत्
५७. तत्त्वार्थराजवार्तिक
११.३.६८५ २७. उत्पादादिसिद्धिवृत्ति १३९, २३६, ४६०,५३९
५८. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १९. २३४,६८५ २८. ऋग्वेद
२३४ ५९. तत्त्वार्थसूत्र
३०५,७४६.८.२८,८७७ २९. कर्मग्रन्थ (चतुर्थ)
०. तर्कसंग्रहनीलकण्ठीयवृत्ति ३०. कल्याणकन्दली
१२८
१८
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--------------------------------------------------------------------------
________________
८२१
६८०
४७८
६१. तर्कसंग्रहनृसिंहीयवृति
८४६ ६२. तर्कसंग्रहरामरुद्रीयवृत्ति ६०७.८४५ ६३. तर्कसंग्रहनृसिंहीयप्रकाशिका ८५२ ६४. तेजोबिन्दूपनिषत्
८७५ ६५. तैत्तरीयब्राह्मण
१३१ ६६. तैत्तिरीयोपनिषत् १०.७५४,७५५.७९२,
८२२,८२६,८७० ६७. त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषत् ८७५ ६८. त्रिपुरातापिन्युपनिषत्
८७६ ६९. दशवैकालिकनियुक्ति
७५७ ७०. दीधिति ५३३,७४६,७४८,८५२,८६२ ७१. देवीभागवत
७६० ७२. द्वात्रिंशिकाप्रकरण (सिद्धतेनसूरिकृत) ८३२ ७३. द्वादशारनयचक्र
२२९.६९८ ४. धर्मसंग्रहाणीति
६.८२८ ७५. ध्यानशतक
६२८ ७६, नन्दीसूत्र ७७. नयचक्रसार ७८. नयरहस्य
४६० ७९. नयामृततरङ्गिणी ८०. नयोपदेश १७१. १८४, २३१,३००.५६९.८३० ८१. नारायणोत्तरतापनीयोपनिषत् ८०८ ८२. निशीथपीठिकाचूर्णि
८२२ ८३. नृसिंहोत्तरतापनीयोपनिषत् ८४. नैष्कर्म्यसिद्धि ८५. न्यायकणिका १३१,२२४.४००५२२ ८६. न्यायकन्दली १३१.८०६.८२२.८२३ ८७. न्यायकुसुमाञ्जलि ८८. न्यायखण्डखाद्य
५३३.७९८,८००,८०५ ८९. न्यायप्रभा ९०. न्यायभाष्य
६५६,७३७ ९१. न्यायमाला ९२. न्यायसंग्रह
२५८ ९३. न्यायसिद्धान्तमञ्जरी-शब्दखण्डवृत्ति ४५२
२०४ २१
९४. न्यायसूत्र
५२, ४६७,६५६,७५०.७६१ ९५. न्यायसूत्रवैदिकवृत्ति ९६. न्यायालोक ९७. न्यायावतारवृत्ति ९८. पञ्चदशी ९९. पञ्चपादिकाविवरण १००. परामर्शगादधरी १०१. परीक्षामुख १०२. पाणिनिसूत्र
७८.७९,१६४,१६६,
२६०,२८६,७३७७५८ १०३. पतञ्जलमहाभाष्य (व्याकरण) ७१,७५४ १०४. पतञ्जलयोगभाष्य १०५. पारमात्मिकोपनिषद्वृत्ति १०६. पाशुपतब्रह्मोपनिषत्
८७७ १०७. प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कार१६,१४१,२२९.२३६.
२३४,२८.२.२८३.२९९,३०१,४८०,
६३४,६३६,६४८,७५६,७७०,७७४ १०८ प्रमाणमीमांसा १०९. प्रमाणवार्तिक
२८, ४४८.५४७ ११०. प्रमाणवार्त्तिकालङ्कार
५४७ १११. प्रमारहस्य
१३९ ११२. प्रमेयकम्लमार्तण्ड ११३. प्रवचनसार २३,९२,१०८,१३०,१८०,१९२,
१९६,२१२,४३३,४८१.५२४,५२९,८८७ ११४. प्रवचनसारतत्त्वप्रदीपिका २३,९२,१०८.१३०,
१३१.२०९.२५६,४८१,४८३५२६ ११५. प्रवचनसारतात्पर्यवृत्ति ९२.१०८.१३०,
२५६,४८२,४८४ ११६. बृहत्कल्पभाष्य ५१३.५१८.५२३,६३२ ११७. बृहत्कल्पभाष्यवृत्ति ५२४. ५१८,५२२, ५२३३ ११८. बृहत्संहिता
७७६ ११९. बृहत्स्याद्वादरहस्य
७,४१३ १२०. बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र
१८० १२१. बृहदारण्यकोपनिषत
७५८,७५९,७७०,
८०३ ८१८.८७५ १२२. बृहद्र्व्य संग्रहः
७५६
८३०
१४८
३
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--------------------------------------------------------------------------
________________
८९२
माज
८०८
१२३. बौद्धतर्कभाषा १२४. ब्रह्मवैवर्त
७६० १२५. ब्रह्मसूत्रभास्करभाष्य
१४५ १२६. ब्रह्मबिन्दूपनिषत्
२३५ १२७. ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्य ७५८,७५९,८०३,८१.८.८१९ १२८. ब्रह्मानन्द १२९. ब्रहासूत्र
८१८ १३०. भगवतीसूत्र (व्याख्याप्राप्ति) १९५, ४७५ १३१. भगवद्गीता .... २५४९३६, .६६ १३२. भस्मजाबालोपनिषत् ५८,८३२, ८७६ १३३. भानुमती (न्यायालोकटीका) ૮૨૮ १३४. भामती
८०१ १३५. भावप्रकाश
४५९ १३६. भाषारहस्यविवरणम्
६३४,६९२ १३७. मनःप्रकरणम्
७३९ १३८. महानारायणोपनिषत् १३९. महोपनिषत्
२३४,८७५ १४०. माठरवृत्ति १४१. मीमांसाकुतूहल १४२. मुक्तावली ३८८,४८७,८४२,८६२ १४३. मुक्तावलीदिनकरीयवृत्ति ३८८,४८५,४८७. (महादेव)
५०९.८३६,८४२ १४४. मुक्तावलीकिरणावली १४५. मुक्तावलीप्रभा १४,४१.१८१,३८८,४१३.
५०९,७३६,७८२,८३६,८४२,८४८ १४६. मुक्तावलीमञ्जूषा (पट्टाभिराम) ९४,४२,५८७ १४७. मुक्तावलीरामरुद्रीयवृत्ति ४८५.४८७५०९,७३१,
८३६,८४८८५५ १४८. मुण्डकोपनिषत् १४९. मैत्रेय्युपनिषत्
(५५,२३५ १५०. मोक्षरत्ना
१०६,२३३,६३४,६९५ १५१. योगचूडामण्युपनिषत् १५२. योगबिन्दु
४५५ १५३. योगशास्त्र
२१०,४४३,७९०
२५४. योगसूत्र
५४७,७६० १५५. रत्नाकरावतारिका १४०.१९४,२०८.२३०.
२३३,२६७.२८२,२९९,४८०,६९७ १५६. राजमार्तण्ड
१०६ १५७, लघीयस्त्रयतात्पर्यवृत्ति १५८. लघुस्याद्वादरहस्य २.२८.२९१,४००.४७२.
५०८,५२३.५५३,५५५,
५८६.६५०,८२९,८७६ १५९. वाक्यपदीय
२२२, ५२१ १६०. वाक्यपदीयवृत्ति १६१. वादमाला
५८४ १६२. वाशिष्ठ
८३४ १६३. विधिविवेक
१३१,४४७ १६४. विवरणप्रमेयसंग्रह
८०१,८०२ १६५. विशेषवाद (वादसंग्रह) १६६. विशेषावश्यकभाष्य ७.२५.१२८.४३४,
४५०,५१२५२१.५२२.५२३.५२८,
५५५.६१७,८०९,८६३,८१५,८२८ १६७. विशेषावश्यकभाष्यवृत्ति १४१,५१४.५२२,
५२४,८०९,८१३,८१४ १६८. विष्णुपुराण
८३१ १६९, वीतरागस्तोत्र
१४५, २०० १७०. वीतरागस्तोत्रविवरण ३०,१४५,१७७ १८६,
१९९,२०१,२१७,४६१,४६२.५४६,
५४९.६३५,६५३.८७५,८७६ १७१. वीतरागस्तोत्रान्चूर्गि ३०,१४७,१७७.१८६.
२००,२०१.२१७,५४६,८७६ १७२. वेदान्तकल्पलतिका
८१९ १७३. वेदान्तसार
८७७ १७४. वैशेषिकसूत्र
८२२, ८२३ १७५. वैशेषिकसूत्रभाष्य
२५५ १७६. वैशेषिकसूत्रवैदिकवृत्ति १७७. वैशेषिकसूत्रोपस्कार १७८. व्यधिकरण १७९, व्यधिकरणदीधिति १८०. व्यवहारभाष्यवृत्ति १८१. व्यवहारसूत्रभाष्य
३६६
८३२
१३१
७७०
२४१, २४८
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२९२
७३६
१८२. व्युत्पत्तिवाद ३४.१६७,१७०,२५३,२५.९ २०४. सामान्यलक्षणाकाशिकानन्दिवृत्ति १८३. शकुन्तलानाटक
२०५. सामान्य लक्षणागादाधरी १८४, शक्तिवाद '४८२ २०६. सिद्धहेमबृहद्वृत्ति
७३७ १८५. शरीरकारणतावाद ६३८ २०७. सिद्धहेमलघुन्यास
२८६,७३७ १८६. शाण्डिल्योपनिषत् ८७५ २०८. सिद्धहेमलधुवृत्ति
७०.२१३.७५७ १८७. शाबरभाष्य
७२० २०९. सिद्धहेमशब्दानुशासन ४०.५१,७९.१०२.१३२,
१६५.२०८,२११.२१३.७३७,७५७ १८८. शास्त्रदीपिका
१०६.१४५,१६० २१०. सिद्धान्तबिन्दु
८०२,८१९ १८९. शास्ववार्तासमुच्चय १०६, २०४,२७८,८७७.८८२
२११. सिद्धान्तलक्षणदीधिति १९०. श्रीरामोत्तरतापिन्युपनिषत्
२१२. सिद्धान्तलक्षणदीधितिजागदीशीवृत्ति ३७२ १९१. श्लोकवार्तिक ४०.६७.१७५,३५३,६३६.७२३
२१३. सुबालोपनिषत् १९२. श्वेताश्वतरोपनिषत्
४४२.८०८.८३२ १९३. संक्षेपशारीरकवार्त्तिक
२०४ २१४. सूत्रकृताङ्ग ८०१
१२४
२१५. सूत्रकृताङ्गवृत्ति १९४. सप्तभङ्गीतरङ्गिणी १४०.२३०,२५४
२१६. स्याद्वादकल्पलता ८४,१८६,२८४.३००, १९५. सप्तभङ्गीनयप्रदीप
३००
४५०,४५९,५२८.५२९.५६१.६१६, १९६. सम्मतितर्क
१३,८७७
६३४.६९८,७१०,७९८,८८१.८८३ १९७. सम्मतितर्कवृत्ति (वादमहार्णव) ८१,१२४,
२१७. स्याद्वादमञ्जरी ४,६२०.६२४,७५८,७८८, १४०.१७७,२०४.२११.२३४,२३६.
८०४८०६ ४२०,४३६.६१७,७८१.८०४८८१ २१८. स्याद्वादरलाकरः २३.५८.१९४,२०६.२११. १९८. सर्वज्ञसिद्धि
२३०२९९,३९९,४९८.६१६,६३४,६४९,
६५०६८५.६९८.७३७,७३९.७४१, १९९. सांख्यकारिका १११,७६०.७७०,७७२
७७६,७७७,७८६,७९४.८२४ २००. सांख्यतत्त्वकौमुदी
११२.११६
२१९. स्वरूपसम्बोधन २०१. सांख्यतत्त्वकौमुदीकिरणावली २८ २२०. हलायुधकोश ६४,२६३,२९२.२९६ २०२. सांख्यसूत्र ७६४.७७० | २२१. हारीतस्मृति
८३१ २०३. सामान्यनिरुक्तिदीधिति
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________________
२१९
८.२२
४५१
३६६
परिशिष्ट-८ जयलता में निर्दिष्ट नामविशेष अकलङ्कदेव
११२. २०१.६८५ .. ३१.. ज्ञानश्री अक्षपाद ६.६ ३२. तिष्यगुप्त
८०८,८०९.८१६ अप्पयदीक्षित
३३. तौतातित ४. अभयदेवसूरि
८१.१४० ३४. त्रिदण्डी अमृतचन्द्र २३.२४,८९,९२,१०८. ३५. दिगम्बर (अशाम्बर)
१७८ १३०,१३१,१९.२.२०१.२५६,४८१ ३६. दिनकरभट्ट
३७०,७३५ आनन्दानुभवाचार्य
३७. देवेन्द्रसूरि आपदेव
३८. धर्मकीर्ति
२८,१०६, ४४८.६१६ ईश्वरकृष्ण १११.२२१,७६०.७७०,७७२
३९. नयोदयविजय
३९५ उदयनाचार्य ५६,७८ १००, ५३६,६७३,
४०. नागार्जुन
७५२,७५३,८३२.८६६ १०. उमास्वातिजी (वाचकमुख्य) ६, ८.६१९.
४१. नीलकण्ठ
६०२ ८२८.८७६ ४२. नृसिंहशास्त्री १४,४२,१८१.३२६,३८६. ११. कमलशील १२८.१४६
४१३,४२७५०८५०९.५११, १२. कमलाकरभट्ट
६९३,७३६.७८२,८८६
४३. रेमिचन्द्र १३. कान्ट ६८६
४२.३६०,४८७
४४. पट्टाभिरामशास्त्री १४. कुन्दकुन्दस्वामी २३,८९,९२,१०८.१३०,
६९५,७२५,७३६ ४८२,५२६.८८० ४५. पतञ्जलि
७९,४५६ १५. कुमारिलभट्ट ४०,६७, ११५,३५०, ४५१, ४५२, ६३६,६९८ ४६. परमेनाइडीझ
१४५ १६. कृष्णवल्लभ
४८ ४७. पाणिनि १७. क्षेमकीर्तिसूरि ५१४,५२३ ४८. पार्थसारथिमित्र
४५१,७०३ १८. गनेश उपाध्याय (मणिकार) १२, ३५.७५, ८६. ४९. पार्थसारमिश्र
१०६ ३६९,८६६
प्रकाशात्मयति (विवरणाचार्य) ८०१ । गदाधर
७६,१६७.१७०,२१३.२१४, २५९,४५२,७४०,८४७,८.५.२,८६२,
५१. प्रज्ञाकरगुप्त ८६३,८६५,८६७ ५२. प्रभाकर
८७५ २०. गर्ग
५३. प्रभाचन्द्र
१४८ २१. चन्द्रकीर्ति
५४. प्रभानन्दसूरि ३०.१४६.१७७.१८६.१०९. २२. चन्द्रसूरि
२०१,४६१,६५३.८७५, ८७६ २३. चन्द्रसेनसूरि
४६० ५५. बुलर
६८६ २४. जगदीश
२४८.८७२ ५६. ब्रह्मदेव
७५६ २५. जयघोषसूरीश्वर
१९७
५७. भगीरथठक्कुर २६. जयदेवमिश्र
१२,४९,५२, ३६९
५८. भट्टशङ्का २७. जयसेन ८९,९२.१०८, १३०, २५६, ४८२
५९. भद्रबाहुस्वामी
५२८.६१३ २८. जितारि
१०६
६०. भईहरि २९. जिनभद्रगणी
५१२.६२८.८१३ ६१. भवानन्द
२४८ ३०. जेकोबि
६८६ ६२. भासर्वज्ञ
२१.८४.११३११४.१७७. १८०,२३५.२७२.६८६
७७६
१३२
५२१
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________________
८०१
५८५
६३. भास्कराचार्य .. ..८.२
१६२३५८.१४१.२३०,
२८.३.७३९,७७०७७६,७८६, ६४. भोज १०६,४८६
७१४,८२४,८२६ ६५. मण्डनमिश्र
१३१, ४४७, ८७२ | ९७. विद्यानन्द ६६. मथुरानाथ
३४८,७५२ | ९८. विद्यानन्द ६७. मधुसूदनसरस्वती ७६८,८०१.८०२ | ९९. विद्याण्यस्वामी १२, १४५,८०१.८०२ ६८. मम्मट ४८६ १००. विमलदास
२३०,२५४,२६९ ६९. मलधारिहेमचन्द्रसूरि
१०१. विशात्नराजसूरि ८,३०,१४७,१७४७,१८६, ५२२,८००.८१३
२००.२०१८.७६ ७०. मलयगिरिसूरि
१०२. विश्वनाथपञ्चाननभट्ट २५८.७००, ८.६२ ७१, मल्लवादिसूरि
२२२ १०३, विश्वरूपाचार्य ७२. मल्लिषेणसूरि ६१०.७८८,८०४ १०४. व्योमशिट
९.४०७ ७३. महादेवभट्ट ३२६३८८,४८७.५०८. १०५. शङ्करमिश्र
4०९,७३२,८३६,८६२ ७४. माणिक्यनन्दी
१०६. शङ्कराचार्य
१०६.२३४.७५८. ४७८ ७५. माणिक्यशेखरसूरि
१०७. शान्तरक्षित
१२९.२३५४५२५४०
६२८ ७६. मित्रत्री
१०८. शिरोमणिभट्टाचार्यानुयायी ८२६
१०९, शिवादित्यमित्र ७७. मुसलगांवकर
३१७ ७८. मोक्षाकरगुप्त
१४७ ११०. श्रीकृष्णयज्वा
४५१ ७९. रघुनाथशिरोमणि १२, २४८, ४३५.६८६, ७२३
१११. श्राधर
१३१, ८७७.८२२
११२. श्रीनिवासाचार्य ८०. रत्नकोशकार
६६३ ८१. रत्नप्रभसूरि
११३. संघदासगणी २०८.२३०,२९९.६५७
६३२ ८२. रत्नशेखरसूरि
११४. समन्तभद्रस्वामी १९७
१५५, २५६, ६८०. १५... ८३. रसेल
११५. सर्वज्ञात्ममुनि
८०५ ६८६ ८४. रामप्रपन्नाचार्य
११६. सिद्धर्षिगणी
११७. सिद्धसेन दिवाकर ८५. रामरुद्रभट्टः ३७०,४३५,४३५,४८५,४८७, ५०९.५११,६०७६६४,७३१.८४५
११८. सिद्धसेनगणी ८६. रामानुज
११९, सुदर्शनाचार्य ८७. रुद्रट
४८६ १२०. सुरेश्वराचार्य रेल्महोल्टस
१२९ १२१. सूर्यनारायण लौकायतिक
१२२. सोमिल ९०. लौगाक्षिभास्कर
४५६ १२३. हरिप्रसादस्वामी ९१. वराहमिहिर
७७६ १२४, हरिभद्रसूर
२,२७८.५२२.६५२ ९२. वर्धमान उपाध्याय
१७२, ४०६ (याकिनीमहत्तरासूनु) ८०८.८०१
१२५. हर्ष १४. वाचस्पतिमिश्र ७३.१०६,११६,२३१.
१२६. हर्षवर्धनोपाध्याय
१४० १४५२२४,४००,४५१५२१,८०५
१२७. हेमचन्द्रसूरीश्वर २.३.२३.१४५.१६७. २५. वात्स्यायन
६५६
२१९,४८६५३०५४६,५४९. ९६. वादिदेवसूरि
६१०,७३७,७०० | १२८, हेलाराज
१०६
४७५
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________________ 541 2055 201 9. अहा 451 775 36 236 145 160 160 141 R M m2 mu परिशिष्ट-९ जयलताकाररचित श्लोक की सचि अत एव नित्यं 236 | 40, नरसिंहादयो भावा अतो हि तेऽ पि 236 | 41. नानात्मत्वं न अघोज्वलनमग्ने 5 | 42., नानाले म्यान .. अनारब्धेऽष्टमे 1 | 43. नृसिंहभागानुस्यूत अनेकान्तात्मक 1 | 44, न्यायविशारदं नौमि अभव्यमोक्षसञ्जाते 45. पठन्ति बहवो न्यायं अलीकवाचालतया 46. पश्य पश्य सुदूरं 8. अवच्छेदकभेदेन 5.41 47. पार्श्वनाथं प्रणम्य अहो महान् प्रमादः 48. प्रतिभटः कुरङ्ग 10. आत्माविभुत्वमुक्तं 49. प्रत्यक्षतः प्रमीयेते 11. उदयव्ययधर्माणः प्राचां प्रलपितं 12. उपनिषदनेकान्तस्य 51. फल-फलवतोः स्या 13. एकमित्युच्यते तद्धि 541 52. भृष्टबीउसमुत्पन्न 14. एतेनैव प्रकारेण 53. भो ! विस्मरणशीलत्वं 15. कथञ्चिच्चैव 54. भो !साधूक्तं त्वयैव 16. कथञ्चिदनुवृत्तस्य 55. भो! साधूक्ता 17. कयञ्चिदणुसन्दोह 56. मीमांसक ! समुत्तिष्ठ 18. कूर्मरोम्णा गजे मद्र्व्यं हि घटत्वेन 19. क्षीरं विहाय | 58. मेरुरागत्य पत्रे 20. खरो गजगति यदि वरविघाताय 21. गगने नीलिमा 6 | 60. रज्जुसण 22. ज्ञानावृत्तिक्षयप्राप्त | 61. लुण्टिते वेश्मनि 23. ज्वालाग्निमण्डले | 62, बन्ध्यापुत्रीकटाक्षे 24. ज्वालावहिरनु 63. विद्वांसो यदि मम 25. तं नौमि हेमसूरिं 64. विधान-प्रतिषेधौ हि 26. तक्रं क्षीरं 65. विविधार्थक्रिया 27. ततो निरन्बयो ध्वंसः 236 | 66. व्यवहारानुरे धेन 28. तर्कानुमान शशशृङ्गेण नागेन्द्रो 29. तस्मात्रर्हति 236 | 68. श्रेयसेऽस्तु 30. तां नौमि शारदां नित्यं काश्मीर 69. सत्कार्यवादमेकान्तं 31. तां नौमि शारदां नित्यं यत्प्रसादा 634 70. सद्योजाता तु 32. तृणानलस्तथा 71. सर्वज्ञोदितहेतु 33. द्रव्यात्मनानुगामित्वं 541 72. सर्वथानित्यता 34. द्रव्यात्मनेक 73. सुरभि व्योमपुष्यं 35. धर्मातिरेके तधर्म 75 74. स्कन्धन्यस्त 36. धीभावो हि वने 75. स्यादविकारि हि 37. न चोपलभ्यरूपस्य 236 76. स्वभावाभेद 38. नदीवेगस्स्थिरः 77. हावेरिमण्डन नत्वा 39. नरशृङ्गेण नष्ट 236 721 4x9 699 233 235 635