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________________ ... सण्डः ३ . का.११ * मुक्तावलीनभा मञ्जूषाकारादिमनप्रदानम * तमाऽन्यथासिन्दं पथविधम् । तत्र येत सहैव यस्य यं प्रति पूर्ववृत्तित्वं गृह्यते तत्र तत् धम् । न च दण्डत्वादिना दण्डादेर्दण्डादिना दण्डसंयोगादेवाऽन्यथासिन्दिः, पृथगावयव्यतिरेकप्रतियोगिभिनत्वे सति पृधमन्वयव्यतिरेकप्रतियोग्यवच्छिमान्वयव्यतिरेकप्रति * जगलताhinaraurasimum वारणसम्भवेऽनन्यथासिद्धत्वविशेषणवैयर्थ्यमिति वाच्यम, इष्टापतेः, अन्यथासिद्धयनिरूपकधर्मलाभापैव तादृशविदोषणोपादानादिति मुक्तावलीप्रभाकारः । एतनाग्रे स्फुटीभविष्यति । इहान्यथासिद्धिशून्यत्वं न विदोषणम्. अन्यथासिद्धरनुगताया अभावत् किन्तु यत्र यत्रान्यधासिद्धिव्यवहार: तनयक्तित्यामाच. कूटवत्त्वं तनदव्यक्तिभेदकूट्यत्त्वं वा विशेषणम् । न च तन्दुल्यनिभेदकूटस्यैव विशेषणत्वं न्यथामिद्भिनिर्वचनायासंबयर्थ्यमिति । वाच्यम्, तत्तदन्यक्तिपरिचयायैव तन्निर्वचनादिति मुक्तावलीमञ्जूषाकारः । नियतपूर्वत्तित्वमिति नियतपूर्वतिजातीयत्वमित्यर्थः । तेनाऽरण्यस्थदण्डादावपि स्वरूपयोग्यतासम्पनि: नज्जातीयतश्च नियतपूर्वन्ति चन्दकदण्डत्वादिमत्त्वमवेति महादेवः । न च । दण्डवपद् द्रव्यत्वादिकमपि नियतपूर्ववर्तितावच्छेदकमेवेति पटादानामपि घटकारणनापत्तिरिति वाच्यम, नियतापूर्वचर्तितावच्छेदकपदन लघुनियतपूर्ववर्तितावच्छेदकरयाक्तत्वात् । द्रश्यत्वस्य घटनियतपूर्ववर्तितावच्छेदकलन तस्यैव घटकारणतारूपत्वं नन्नद्रव्येषु घरकारणलकल्पनापत्त्या गौरबाद दण्डवादिकमेव साध्विनि रामरुद्रभट्टः । तत्र = निरुजकारणत्व, सप्तम्यधी घटकत्वं, तनः निरुक्तकारणत्वघटकीभूतं अन्यथासिद्धं पञ्चविधम् । मणिकारमते च त्रिविधमन्यथासिद्धमिति ध्येयम् । तत्र = पञ्चविधा न्यथासिद्धत्व येन दण्डादिना सहेब यस्य दण्डरूपादेः यं = घनदिकं प्रति पूर्ववृत्तित्वं गृह्यते = ज्ञायते तत्र = घटादों का तेन दण्डादिना जत् = दण्डरूपादि अन्यथासिद्धं आद्यम । यथा || घटं प्रति दण्डरूपादः । दण्डादिना सहय दण्डरूपादर्घदादिकं प्रति पूर्ववृनिल्ग्रहाद दण्डरूपादिकं घटे प्रत्यन्यधासिद्धम् ।। मुसलगांवकरस्तु- 'दण्डरूपस्य घटम्प्रति न स्वतन्त्रतया पूर्वभाव. किन्तु स्वकारणस्य दण्डस्य पूर्व भावं गृहीलर दण्डरूपस्यापि घटम्प्रति पूर्वभावो गृहात । अतः दण्डरूप घटातानः पूर्वक्षण सनणि अन्यथासिद्धमेरेत्याह । नन्येवं सति घट प्रति दण्डादेरपि दण्डत्यादिना:न्यथासिद्धत्वप्रमङ्गः दण्डत्वादिना रहन दण्डादेर्घटादिकं प्रति पूर्ववृत्तित्वग्रहात ।। एवं दण्डादिना सहबदण्डसंयोगादघंटादिकं नि पूर्ववृत्तित्वग्रहाद् दण्डसंयोगादरपिदण्डादिना चटं प्रत्यन्यथासिद्भत्वमापद्यत । न वा दण्डादिना दण्डरूपादेरपि घटं प्रत्यन्यथासिद्धत्वं स्यात्, अविशेषादित्याशङ्कामपाकर्तुमुपक्रमते - न चेति । शङकाग्रन्थो विभावित एव । समादधते - पृधगन्वयव्यतिरेकप्रतियोगिभिन्नत्वं सति = स्वातन्त्र्येण तत्कार्यनिरूपितान्वयन्यतिरकनिरूपिन मानमरद्रमः । अन्वय-व्यतिरंक अपने कारण दण्ट को लेकर ही बन पाता है । इसलिये दण्डरूप घट के प्रति अन्यथासिद्ध हो जाता है। दण्टरूप को दण्ड में कभी भी या नहीं किया जा सकता है। अन्वय का अर्थ है स्वकाल में अपने अधिकरण में कार्य का होना । व्यतिरेक का अर्थ है अपने अभाव के अधिकरण में कार्य का न होना ।। आध अन्यथासिन परिषात स्वरूप न च दण्ड, । यहाँ इस शंका का कि → 'जैसे दण्ड से दण्डरूप घट के प्रति अन्यधासिद्ध बताया गया है ठीक वैसे ही दण्डत्वादि से दण्ड एवं दण्ड में दण्डसंयोग भी घट के प्रति अन्यधासिद्ध बन जायंगे, क्योंकि जैसे घट के प्रति दण्टरूप का अन्वय-व्यतिरेक दण्ड को लेकर ही बन पात है ठीक पैसे घट के प्रति दण्ड का अन्वय-व्यतिरेक दण्डत्व को लेकर ही मुमकिन है एवं दण्डसंयोग का अन्चय-व्यतिरेक अपने कारण दण्ड को लेकर ही हो सकता है - समाधान यह है कि यहाँ प्रथम अन्यथासिद्धविधया वह विवक्षित है जो प्रधक अन्य व्यतिरेक के प्रतियोगी से भिन्न होने हुए पृथक अन्य व्यतिरेक के प्रतियोगी - कारण से अवच्छिन्न अन्नय-व्यतिरेक का प्रतियोगी हो । अत्र घट के प्रति दण्डसंयोग को घर से अन्यधासिद्ध नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि दण्ड के होने हा भी दण्डसंशंग के व्यतिग्क से घटोत्पत्ति का ब्यनिक प्रसिद्ध होने से दण्डसंयोग पृथक अन्वय-व्यतिरेक के प्रतियोगी से भिन नहीं है, अपितु पृथक अन्वय-व्यतिरेक का प्रतियोगी ही है । इस तरह स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धन दण्डत्यादि होने पर दण्डादि का व्यतिरेक ही असिद्ध होने से एथगन्चयन्यतिरेक के प्रतियोगी से विशिष्ट अन्चय-व्यतिरेक का प्रतियोगित्व दण्डादि में नहीं रहेगा। इस तरह विशेषणाभावप्रयुक्त विशिधाभाव से दण्डसंयोग आदि में अन्यथासिद्धत्व की आपत्ति का परिहार हो जाता है । एवं रिशेप्याभाषप्रयुक्त विशिष्टाभाव से दण्डादि में घट की अपेक्षा दण्डत्वादि से अन्यथासिद्धृत्व का निवारण हो जाता है। इसलिए प्रथगनयन्यतिका प्रतियोगित्व सति भगन्ज्यव्यतिरेकप्रतियोगिविशिष्ट अन्वय
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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