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________________ ७३५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये गण्डः ३ * स्वस्य स्वनाशकत्वमांसा शो पूर्ववृत्तित्वं स्वप्रागभावाधिक रणक्षणवृतित्वं, अन्यथा स्वस्मिन् स्वनाशकत्वापतेरिति निरस्तम्, चरमज्ञानादाविवाऽन्यत्राऽपि ज्ञानान्तरस्येव स्वस्य नियमबलायातनाशकत्वस्य प्रामाणिकत्वात् । ॐ गयलता एतेन निरुक्तसम्बन्धस्य पूर्ववृत्तित्वप्रतिपादनेन निरस्तमित्यनेनारयान्वयः । पूर्ववृत्तित्वं पूर्ववृनित्यदप्रतिपाद्यं, स्वप्रागभावाधिकरणक्षणवृत्तित्वं यथा इच्छांनगत्पन्नस ज्ञानस्य यः प्रागभावः तदधिकरणीभूतयः पूर्वक्षणः तद्वृत्तिः इच्छापदार्थः । अतः ज्ञानं स्वप्रागभावाधिकरणवृत्तित्वसम्भवितुमर्हति । यद्यपि स्वप्रागभावाधि करणक्षणवृत्तित्वन्तु व्यवहितपूर्वियादावप्यस्ति तथापि स्वप्रागभावाधिकरणक्षणप्रागभावानधिकरणत्वं सति स्वप्रागभावाधिकरण यः क्षणः तदुद्वृत्नित्वरूपं स्वप्रागभावाधिकरण क्षणवृत्तित्वमित्यत्र तात्पर्य दीपः । अन्यथा = पूर्ववृत्तित्वपदप्रतिपाद्ये प्रागभावाऽप्रवेश स्वस्मिन् ज्ञानादौ स्वनाशकत्वापत्तेः द्वितीयक्षणविशिष्टस्य ज्ञानस्य अधिकरणभूती यः वर्तमानः क्षणः तदव्यवहितपूर्वक्षणं वृनि यत् उत्पद्यमानं स्वं तत्र स्वाधिकररणक्षणाव्यवहित पूर्वेक्षणवृत्तित्वसम्बन्धेन द्वितीयक्षणविशिष्टस्य ज्ञानस्य सन्वेन विशिष्टस्य स्वस्यैव स्वनाशकत्वप्रसङ्गः । का. १५ 111 तन्निरासार्थमाहुः चरमज्ञानादी व अन्यत्राऽपि - अचरमज्ञानादी अपि ज्ञानान्तरस्येव स्वात्तस्वर्तिनः मित्रस्य ज्ञानादेः इव स्वस्य नियमबलायातनाशकत्वस्य श्रीक्तकार्यकारणभावप्राप्तनाशजनकत्वस्य प्रामाणिकत्वात् = प्रमाणसिद्धत्वात् । चरमज्ञानादी यथा द्वितीयक्षणविशिष्टस्य स्वस्ल नाशकत्वं यथा सम्प्रतिपन्नं तदेव अचरमज्ञानशब्दादी द्वितीयक्षणविशिष्टस्य स्वस्य नाशकत्वमपि प्रामाणिकम्, योग्यविभुविशेषगुणं निरुक्तसम्बन्धेन योग्यविशेषगुणस्प नाशकत्वस्यो भयमतसिद्धत्वात् । यथा ज्ञानान्तरं स्वान्यवहितोत्तरोत्पन्नयोग्यविशेषगुणत्वेन स्वपुर्ववर्निज्ञानेच्छादिनाशकं तद्वद् द्वितीयक्षणविशिष्टं स्वमपि तथा । प्रयोगस्त्येवं द्वितीयक्षणविशिष्टमचरमज्ञानादि अव्यवहितपूर्ववर्तिज्ञानादिनाशके उत्तरवर्नियोग्यविशेषगुणत्वात् अल्पवहितांनरवर्तिज्ञानान्तरादिवत् द्वितीयक्षणविशिष्टचरमज्ञानादिव । एतेन स्वस्य स्वनाशकत्वं कथमिति निराकृतम् । C = = नहीं आयेगा, क्योंकि चरमज्ञानादि द्वितीय क्षण में द्वितीयक्षणविशिष्ट बनता है और स्वाधिकरण क्षणाऽव्यवहित पूर्व क्षण में रहने वाले चरम ज्ञानादि में स्वाधिकरणक्षणाऽव्यवहितपूर्व क्षणवृत्तित्वसम्बन्ध से रहता है। वह योग्य विशेष गुण भी है ही । अतः द्वितीयक्षणविशिष्ट चरमज्ञानादि ही प्रथमक्षणविशिष्ट चरमज्ञानादि का नाश्य के तृतीय क्षण में, नाश कर सकता है । मतलब चरम ज्ञानादि का नाशक चरम ज्ञानादि डी है । एतन. । यहाँ अन्य नैयायिक विद्वानों का यह मत है कि > स्वपूर्ववर्तितापद का अर्थ है स्वप्रागभावाधिकरणक्षणवृत्तित्व | जैसे स्व = नाशक द्वितीयक्षणोत्पन्न ज्ञानादि, उसके प्रागभाव का अधिकरण क्षण है प्रथम क्षण, उसमें वृत्ति है प्रथमक्षणोत्पन ज्ञानादि । अतः स्वप्रागभावाधिकरण क्षणवृत्तित्वसम्बन्ध से द्वितीयक्षणोत्पन्न ज्ञानादि प्रथमक्षणोत्पन्न ज्ञानादि में रह कर नाश्यतृतीयक्षण में उसका नाश करेगा । यदि स्वपूर्ववृत्तितापदार्थ में प्रागभाव का निवेश न किया जाय तब तो स्व में स्वनाशकता की आपत्ति आयेगी । वह इस तरह प्रथम क्षण में उत्पन्न इच्छा द्वितीय क्षण में द्वितीयक्षण से विशिष्ट बनती है और वह स्वाधिकरणक्षण द्वितीयक्षण से अव्यवहित पूर्व क्षण = प्रथम क्षण में वृत्ति रहने वाली इच्छा में, जो स्वात्मक = नाशकात्मक = नाशकाsभिन्न है, स्वाधिकरण क्षणावहितपूर्वक्षणवृत्तित्वसम्बन्ध से रह जायेगी । वह योग्य विशेषगुण तो है ही । अतः द्वितीयक्षणविशिष्ट इच्छा ही प्रथमक्षणविशिष्ट इच्छा की नाशक बनने की आपत्ति आयेगी। मगर अपने में अपना नाशकत्व तो अभिमत नहीं है । इसलिये पूर्ववृतित्व का अर्थ प्रागभावघटित करना चाहिए । तब इस प्रसंग को अवकाश नहीं है, क्योंकि प्रथम ritrea इच्छा का अधिकरण क्षण द्वितीयसमयविशिष्ट इच्छा = स्व के प्रागभाव का अधिकरण नहीं है'ा = चरम | मगर यह कमन असंगत प्रतीत होना है। इसका कारण यह है कि चरमज्ञान चरम शब्द आदि का जो योग्य विभुविशेषगुण है, नाशक सो उपर्युक्त रीति से द्वितीयसमयविशिष्ट चरमज्ञान आदि ही है यह सिद्ध हो चुका है। स्व में स्वनाशकता जब चरमज्ञानादि में मिद्ध ही है तब अचरम ज्ञान, अचरम इच्छा आदि के नाशकविधया नाय का ही स्वीकार करने में क्या बाधा है ? जैसे प्रथमसमयोत्पन्न अचरम इच्छा के द्वितीय क्षण में उत्पन्न होने वाला ज्ञान योग्य विशेषगुण हैं एवं स्वसामानाधिकरण्य-स्वाऽव्यवहितपूर्ववृत्तित्वसम्बन्ध से प्रथमसमयोत्पल इच्छा में रह कर उसके तृतीय क्षण में उसका नावाक | बनता है ठीक वैसे ही द्वितीयक्षणविशिष्ट इच्छा, जो प्रथम क्षण में उत्पन्न हुई है, भी योग्यविशेषगुण है एवं स्वसामानाधिकरण्यावच्छिनस्वाऽव्यवहितपूर्ववृत्तित्वसम्बन्ध से प्रथमक्षणोत्पन इच्छा स्व में रह कर तृतीय क्षण में अपनी नाशक हो सकती है । दोनों में प्रमाणसिद्ध कार्यकारणभाव तो समान ही है । प्रमाणसिद्ध वस्तु का अपलाप कैसे किया जा सकता है ! यह मानना
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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