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________________ ७३. मध्यमस्याद्वाररहस्ये खण्डः ३ . का. * अस्वरवीनाडावनम स्यादितत् - योग्यविभुविशेषगुणनाशं प्रति स्वोत्तरोत्यनयोग्यविशेषगुणत्वेन हेतुत्वं न । युक्तमिति वेत् ? कति → प्रतियोगितया योग्यविभूविशेषगुणनाशत्वावच्छिन्नं प्रत्येकाधि -* गयलता - साम्प्रदायिका इत्यनेनाऽस्वरसः प्रदर्शितः । तद्वाजश्वैवम - विजातीयशब्दनाशं प्रति स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्धन शब्दनाशन्वेन हेतुत्वे शन्दाजनकस्याउ द्यब्दस्य नाशो न केनापि स्यात, नदश्यवाहितीनराब्दस्यापि विरहात । वस्तुतस्तु प्रतियोगितासम्बन्धेन योग्यविभुविशेषगुणनाशं प्रति स्वाव्यवहितपूर्ववर्तित्वस्वसामानाधिकरण्याभ्यसम्बन्धेन योग्यविशेषगुणर कारणत्वे चरमशब्दस्य द्वितीयक्षणविशिष्टस्य सतः स्वनाशकत्वमेवोचितम । एतेन सुषुप्तिप्राककालानज्ञाननाशाध मनःसंयोगस्य ज्ञानादिनाशकत्वकल्पनापत्तिरपि परास्ता, सुषुप्तिप्राक्कालीनडानस्यैव द्वितीयक्षणविशिष्टग्य स्वनाशकत्वसम्भवात यतः तज्ञानसामानाधिकरण्यं तज्ज्ञानेऽपि वर्तन एवं स्वाव्यवहितपूर्ववृत्तित्वमपि स्वस्मिन्नबाधितम् । ततश्चाऽस्मदुक्सप्रकारणव शिरोमणिनपानुयायिमतं दुयितव्यमिति विभावनायम् । दाते . स्यादेतदिति । चंदित्यन्तः शङ्काग्रन्धः | योग्यविभुचिशेषगणनाशं = प्रतियोगितासम्बन्धावच्छिन्नकार्यतावच्छेदकयोग्यविभुविशेषगुणप्रतियोगिकनाशत्वावच्छिन्न प्रति स्वोत्तरोत्पन्नयोग्यविशेषगुणत्वेन हेतुत्वं न युक्तम्, चैत्रज्ञानोत्तरीत्पन्नमैत्रज्ञानस्यापि चैत्रज्ञाननाशकनापन: न च स्वसामानाधिकरण्यसम्बन्धस्य कारणतावच्छेदकसंसर्गवन नोक्त दोय इति बाच्यम्, तथापि सुषुप्त्यादिचिरपूर्वकालीनज्ञानाद: सुषुप्तिप्र मृत्युत्तरकालीनव्यवहितज्ञानादिनादयत्व पनः । न च स्वाव्यवहितातरोत्पन्नयोग्यविशेषगणत्वस्य योग्यविभुबिशेषगणनादकतावच्छेदकत्वान्न दोष इति वक्तव्यम्, तथापि ज्ञानादिनाशस्य स्वप्रतियोगितासम्बन्धन ज्ञानादी जायमानत्वंन तत्र चोक्तसम्बन्धेन नाशकविरहण ज्ञानाद्यनाशप्रसङ्गात् । न च वैयधिकरण्यनिरासार्थ कार्यतावच्छेदकसम्बन्ध: स्वप्रतियोगित्वं न तु स्वरूपसंसर्ग इति वाच्यम्, तथाप्यनन्तकार्यकारणभावकल्पनापनेः यतः स्वा:व्यवहितोनरत्वं स्वोत्तरविशेषगुगानुत्तरत्वे सति स्वीजरत्वम् । अब न नन्नस्य ननम्तन तनद्व्यक्तिविश्रान्त एव कार्यकारणभाव || इति तसव्यक्तिनाशं प्रति तत्तद्व्यक्तित्वेनैव कारणता युक्ता । तथा चानन्तकार्यकारणभावापत्त्या महागौरचमिति चेत् ? अत्र = निरुक्तकार्यकारणभावस्थले, वदन्नि नैयायिका: → प्रतियोगितया = स्वनिरूपित्तप्रतियोगितासम्बन्धेन, योग्यविभुविशेषगुणनाशत्वावच्छिन्नमिति । अन्न कार्यतावच्छेदकसम्बन्धधर्मयोः प्रदर्शनं कृतम । कारणनावच्छेदकसम्बन्ध काधिकरण्यनिवेदशान शब्दादिना यधिकरणानां ज्ञानच्छादीनां नाशः । स्वाव्यवहितपूर्ववृतित्वसम्बन्धनिशाब नहानाटीना. मुत्पत्तिकाले वर्तमान पत् तत्पूर्वक्षणोत्पनेच्छादि तेन ज्ञानादः स्वोत्पनिद्वितीपक्षणं नाशापत्तिः । योग्यविशेषगुणत्वस्य तर न तो ज्ञानादि में चतुःक्षणस्यापिता की आपत्ति होगी और न तो शब्द में भणचतुप्कस्थायित्व की सिद्धि होगी . यह न्यायसम्प्रदायानुरोधी हम प्राचीन नैयायिकों का वक्तव्य है । म योग्यविमुविशेषगुण में स्तोत्तरवर्तिगुणजाश्यता की मीमांसा स्याद. । यहाँ यह शत हो सकती है कि -> 'ज्ञान, दान्द आदि को क्षणिक मानने का मूल कारण है योग्य चिभुविशेषगुण का नाश स्वोत्तरवती योग्य विशेषगुण से होने की मान्यता । मगर यह मान्यता ही अप्रामाणिक है, क्योंकि ।। यह अनेक दोरों से दूर होने से अप्रामाणिक है। वह इस तरह-शन्दात्मक योग्य विभुविशेषगुण का भी स्वोत्तर उत्पन्न ज्ञानादि योग्यविशेषगुण से नाश हो जायगा । तथा चिरकाल पहले उत्पत्र ज्ञानादि का भी अतिव्यवहित ज्ञानादि से, जो स्वानर उत्पन्न योग्य विशेषगुण है, नाश हा जापगा। एवं नाशकारणतावोदक स्वोत्तरोत्पन्नयोग्यविशेषगुणत्व होने सं यानी अननुगत स्वत्व से घटित होने से प्रस्तुत कार्यकारणभार तत् तत् व्यक्तित्वरूप से = रिशेपरूप से पर्यवसिन होगा, जिसके फल में अनन्त कार्यकारणभाव के स्वीकार का महागीरव उपस्थित होगा-इत्यादि । इसलिए योग्यविभुविशेषगुणनाशकतावच्छेदक स्वोनरात्पन्न योग्यविदोपगुणत्व नहीं हो सकता है। अतएव शब्द, ज्ञान आदि में स्थूल क्षणिकता का स्वीकार भी नामुनासिब हैमगर यह इसलिए निराधार है कि हम नैयायिक कार्यकारणभाव का स्वीकार उपयुक्त रीति से नहीं करते हैं किन्तु अन्य प्रकार में करते हैं । वह इस तरह कि प्रतियोगिता सम्बन्ध से योग्यविभुवितोपगुणनाशत्वावच्छिन्न के प्रति ऐकाधिकरण्यअवचित्र स्वाऽव्यवहितपूर्ववृत्तित्व सम्बन्ध से योग्यविदोषगुणत्वावच्छिन्न कारण है। कार्यतावच्छेदकसम्बन्ध प्रतियोगिता है। कारणतावच्छेदकसम्बन्ध वारीर में ऐकाधिकरण्य का निवेश करने से शब्द का ज्ञानादि से, जो स्वाऽव्यवहितानगत्पन्न योग्यविशेषगुण है, नाश होने का प्रसङ्ग नहीं होगा, क्योंकि शब्दव्यधिकरण होने की बजह ज्ञान आदि ऐकाधिकरण्य = सामानाधिकरण्य से अवञ्चिन - विशिष्ट ऐसे स्वाऽव्यवहितपूर्ववृत्तित्वसम्बन्ध से शब्द में, जो प्रतियोगितया इन्दनाशात्मक कार्य के अधिकरणविधवा अभिमत
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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