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१५- मध्यमस्याहादरहस्य खण्टः ६ . का ११ * अपूर्व प्रति यागत्यान्यवनवापाकरणन*
नाप्यन्यद, दुर्वचत्वात् । अथास्यायमों 'यदन्यं प्रति पूर्ववृतिताघटितरूपेण यस्य यं प्रति पूर्ववृत्तिता गृह्यते
-* जयलाता - शब्दविशिष्टशन्दतं गौरवात् । किन्नृपानिरू पिनन्यापतरूपमपादकत्वमगीकृत्य प्रकृतकापानमा पतनवृत्तिन्वानुपपादक प्रकृतकार्यातिरिक्तकार्यनिरूपिन पूर्वनिय. महात्वैव परम प्रकृतकार्य प्रति पूर्वनित्वं गृहाते नरय प्रकृतकार्य प्रत्यन्यथासिद्धन मनि प्रतिपादन तु स्वजन्यत्वसम्बन्धन यादविशिष्टोत्याचा प्रयोग गम कारण मान, माकाशकार्यतावच्छेदक दान विशिष्टशब्दत्वं स्यादिति पावत । शन्दाजन्य मान्दमजयित्वाकाशस्य विशिष्टशन्दननकत्वं नो पपद्यते । अतः कार्यतावच्छदघटकीभूतंवशिष्ट्यप्रतियोगिशन्दनिरूपिरतपूर्ववृत्तित्वं नादृशवशिष्ट्यानुयागिशब्दनिरूपितपूर्वनित्वस्यापपादकं = व्यापकम् । तनो या पूर्वपूर्वनित्यच्याकरवर्ग प्रवृनिन्वं गृहीत्वैव पारस्यापूर्वपूर्वनिवग्रह: वियागरम नापूर्व प्रति द्वितीयान्यथामिद्धत्वं तधेच विवक्षितकार्यनावच्छंटकपटोशष्ट्यानुयागिंशब्दलक्षणप्रकृतकानिरूपितपूर्ववृत्तित्वव्यापक तादृशंवशिष्ट्यप्रतियोगिगन्दनिरूपितपुत्रवृत्तित्वं गृहीत्वंत्र गगनम्यन्यत्वसम्बन्धन झन्दविशिरगदनिरूपिदपूर्ववृनिवग्रहदपि गगनन्य न शब्दविशिष्टशब्दत्वाग्रिनं प्रति द्वितीयान्यथा - सिद्धवं ग्यान, तल्पयोगक्षेमत्वान् । एनेन तन्डागकत्वम् नन्कायकत्वरूपं बोपादकत्वमित्यपि प्रत्युकम्, वादविशिष्टशब्द त्वस्याकाशकार्यतावच्छेदकधापनेः दुर्यारत्वात्। ननो यम्य भाचे सत्युपपाचं नापपद्यन र उपपादक इति द्वितीयकल्पना-पि न मतिमता रतिदायिनी।
यदि वगगनस्य शब्दविशिष्टान्दत्वं न कार्वतावन्टक किन्न विशिष्टवान्दमनि वजात्यमंत्र. अत्यहितान्रत्यसम्बन्धन शब्दशिष्टयं तु कार्यताबन्दकपरिचायकं न तु तयटमिति पूर्वशब्दपूर्ववृत्तित्वं नियमन न गृह्यत इत्युच्यते तदा नितरां तं प्रति गगनरय दिनापास्यापिनत्वा सम्भवः , परजतः तास जात्य कायम गरिखमंत्र बाधकमिति तृतीयान्यधासिद्धत्वमेव तादृावै जात्यावचिननं प्रति गगनगम स्यान्न तु द्वितीयान्यायाचिद्भत्वमिति तु ययम् ।
तृतीयकल्पनायामाह-नाप्यन्यद् = अन्यस्वरूप उपपादकाचं सम्भवति, दुर्वचत्वात् = सना निर्वचना सम्भवात् । न चोत्पादकत्वमेवोपपादकत्वम्. अपूर्व प्रति यामादरम्भासिद्धत्वापत्त: । नतो न प्रकृतकार्यपूर्वनित नुपपादकमन्यनिरूपितपूर्वनित्वं गृहीत्वैव परय प्रकृतकार्ये वृत्तित्वं गृहाने तत् प्रकृतकार्य द्वितीयमन्यधासिमिति परिष्कारः नास्तामञ्चति ।
तृतीयं द्वितीयान्यधासिद्धलक्षणमाक्षिपनि । अथेति । अयं = अनुपदं वक्ष्यमाणः अस्य = प्रांताद्वितीयान्यधासिद्धलक्षगस्य जाना है। - तो यह भी असंगत है, क्योंकि तब स्वर्गपूर्ववृतित्व में अपूर्वपूर्ववृत्ति की उपपादकना = ब्यापकना उपपन्न हो जाने पर भी शब्द्धजन्य शब्द = स्वजन्यत्वसम्बन्ध से वादविशिष्टशब्द के प्रति भी आकाश कारण बन जायेगा अर्थान आकाश का कार्यतावदक गब्दविशिष्ट शब्दल्द भी हो जायेगा । आकाश में वन्द (A) के प्रति पूर्ववृत्तित्व का ज्ञान करने के बाद शब्दविशिष्ट वान्द (B) के प्रति पूर्ववृतित्व का भान होता है, मगर कार्यतावच्छेदक शब्दविशिएशन्दत्व के घटक वैशिष्ट्य के प्रतियोगी शब्द (A) के प्रति पूर्ववृत्तित्व वैशिष्ट्य के अनुयागो दाब्द (B) के प्रति पुर्ववृत्तित्व का उपपादक = व्यापक है। पूर्व शब्द (A) का पूर्ववृत्तित्व आकाश में न होने पर विशट शन्द (B) का पूर्वनिन्द कभी नहीं रहता है । अतः पूर्वशन्न (A) का पूर्ववृतित्व विशिएशन्द {B की पूर्वनिता का अनुपपादक = अव्यापक नहीं है । इसलिए विशिएगद्धनिरूपिन पुवृत्तित्व के अनुपपादक पूर्वशन्द (A) पूर्ववृत्तित्व का ज्ञान कर के ही आकाश में विशिष्ट शब्द (B) के प्रति पूर्ववृत्तिता का ज्ञान नहीं होता है किन्तु विशिष्टशब्द (.) के पूर्ववृत्तित्व के उपपादक से पूर्वशन्न (A) निरूपित पूर्ववृत्तिन्त्र का ज्ञान कर के ही
आकाश में विशिष्टवाद (B) के प्रति पूर्वमृत्तिब का ज्ञान होना है। इसलिए इन्दरिशिप्रशन्नत्वनि के प्रति आकाश में कारणता की आपत्ति आयेगी। वास्तविकता यह है, कि आकामा बाब्दन्यावचिन्न का कारण है. न कि शब्दविशिष्टशब्दवारचिन्न का । अर्थात् गगन का कार्यताबज्छेदक शब्दत्व है न कि शन्दजिशिष्टशदत्य । इस ऐप की बदौलत द्वितीय अन्यथासिद्ध के लक्षण के घटक उपपादकत्व का द्वितीय निर्वचन भी असंगत है - यह निश्चित होना है। उपपादकत्व को अन्य किसी स्वरूप नो नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसका सम्यक निरूपण करना है। दर्वच है। इस तरह द्वितीय अन्यभासिद्ध के घटक. उपपादकत्व का ममीचीन निर्वचन नामुमकिन हान के सबब उपर्युक्त नि में तादृश लक्षण को मान्यता नहीं दी जा सकती ।
Ak: दिलीय शासित तीरा लागी दोष * अथा. । यदि नैयापिक की ओर से द्वितीय अन्यभामिन के लक्षण का पैसा प्रतिपादन किया जाय कि -> 'जिस