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________________ *उपादकत्वनिरूक्तिः * तमोपयादकत्वं न तदभावव्याय्याभावप्रतियोगित्वं, अपूर्वपूर्ववृत्तित्वं विलापि अपूर्वे स्वर्गपूर्ववृत्तित्वात् । नापि तव्याप्यत्वं, एवं हि शब्दविशिष्टं प्रत्याकाशस्य हेतुतापत्तेः । -* गया - गृहीत्वा पूर्व प्रति पूर्ववृत्नित्वं गृह्यत इति नापूर्व प्रति यागादग्न्यधासिद्धत्वप्रसङ्गः । गगनम्य शब्द प्रति पूर्वनित्वं गगतम्य घटं प्रति पूर्ववृत्तित्यानुपपादकमिति गगनस्य घटपूर्वत्तित्यानुपपादक-शान्टपूर्ववृत्तित्वं गृहाल्न घटं प्रति पूर्ववृत्तित्वग्रहादाकाशस्य घटं प्रति नान्पधासिद्धत्वानापत्तिरिति भावः । लिन्तिामण न समीनीनम, सनपाटनम्त्वनियागिन उपपादकचस्याऽनिर्वचनात् । यत उपपादकत्वं किं उपाद्याभायच्यापकाभावप्रतियोगित्वरूप उपपाद्यन्यापकत्वात्मकं अन्यद्वा ? इति कल्पनात्रितयी प्रगणगण्त्राव यंत्राप्रतिहतग्रसरा सरीमरीति ।। आद्याया अयुक्तत्वमाचेदयति नत्र = "प्रकृतकार्यपूर्ववृनित्वानुपपादकपूवृतित्वमन्यं प्रनि गृहान्धव यम्प प्रकृनकार्यप्रयं'नत्वं ज्ञायते तत् प्रकृतकार्य प्रत्यन्यथासिद्धं द्वितीयं' इति लक्षगघटक उपपादकत्वं न तदभावल्याप्याभावप्रतियोगित्वं - उपपाद्याभाषी व्यायो यस्य स उपपाद्याभावव्याप्यः स चामी अभावश्च = उपपाद्या भावव्या'याभारः. नस्य प्रतियोगित्वं उपपादकल्बनिनि ने यामित्यर्थः । प्रकृते उपपा यागादेपूर्व प्रति पूर्वनित नस्योपपादकञ्च यागादेः स्वर्ग प्रति नित्वम् । ततश्चापूर्ननिमाहित पूर्ववृत्तिल्वाभावनिष्ठच्यायत्यनिरूपितव्यापकत्वाश्रयस्यानावस्य प्रतियोगित्वं स्वर्ग पूर्वचित प्राप्तम् । नच व्यभिचारग्रस्तम. यतोऽपूर्वपूर्ववृत्तित्वं विनाऽपि अपूर्वे स्वर्गपूर्ववृत्तित्वान । प्रकृत अपूर्ववृत्तित्याभारस्य व्याप्यत्वं स्वर्गपूर्ववृत्नियामावस्य - व्यापकत्वम् । ततो पूर्वपूर्ववृत्तित्वस्य ब्यापकलं स्यगंपूर्वनित्वस्य च ज्याप्यत्वमिति प्राप्तम् । अपूर्व-पूर्वपूर्वनित्यरूपं व्यापक नास्ति तथापि स्वर्ग पूर्ववृनित्वस्वरूपं व्यायमस्नीति ननभावबनित्वलक्षणयभिचारान्न म्वर्गपूवंति पूर्वनिलाभाचव्यायाभावप्रतियोगित्चमस्ति । नतो नाद्या कल्पना मङ्गता । द्वितीयकल्पनायामाह . नापि तद्व्याप्यत्वं, तद् = उपपाद्यं व्याप्यं यस्य स तथा तद्भावग्नत्य, नदीप न युक्तमित्यर्थः । स्वर्गपूर्ववृत्तित्येपूर्वपूर्वनित्यनिरूपिनव्यापकल्यं स्वर्ग पूर्वनियनिरूपिलव्याप्यत्वञ्चापूर्वपूर्वनित्व इत्यपि न सम्यागत्पर्धः। एवं हि यानिठे ग्वर्गपूर्ववृत्तित्वं पूर्वपूर्वत्तित्वापपादकत्वसम्मंच-पि शन्दविशिष्टं झाब्दं प्रति अन्यरहितानरत्वसम्बन्धन शशिष्टशब्द. त्यावच्छिन्नं प्रीति यावत्, आकाशस्य हेत्तापनः । अयं भाव आकाशस्य कायंतामन्दकं शब्दत्वमेव, नतु जन्यतासम्बन्धेन का याग में ज्ञान होने के पश्चान् ही याग में अपूर्वपूर्ववृनिता का भान होने पर भी याग अपूर्व के प्रति अन्यथामिद्ध नहीं है - यह फलित होना है। आकाश में शब्दकारणता (शब्दपूर्ववृनिता) आकाशनिष्ठ घटपूर्ववृत्तिता की उपपादक नहीं है, किन्तु अनुपपादक है । अतः घट के प्रति आकाश की पूर्ववृत्तिता की अनुपपादक शब्दपूर्ववृत्तिना का गगन में भान होने के बाद ही गगन में घटपूर्ववृत्तिना का भान होने की वजह आकाश बट के प्रति अन्ययासिद्ध है, . यह सुचित होता है । अतः आकाश में घट की अपेक्षा अन्यथामिद्धत्य की अव्याप्ति का एवं याग में अपूर्व की अपेक्षा अन्यधासिद्धत्व की अनित्र्याप्ति का निराकरण हो जाता है। उपपादप निराण नागpिali) तरी । मगर उपर्युक बान भी विचार करने पर अमंगन प्रतीन हानी है। इसका कारण यह है कि द्वितीय अन्यधासित के घटक उपपादकत्व का सम्बर निचन नहीं हो सकता है। (2) यदि यह कहा जाय कि - "उगायाभाच निस अभाव का व्याप्य है उस अभाव की प्रतियोगिता ही उपपादकत्व है - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि तब स्वर्गपूर्ववृत्तित्व अपूर्वपूर्ववृनित्व का उपपादक न बन सकेगा । यह इस तरह- उपर्युक्त उपपादकल्पनिर्वचन के अनुसार अपूर्वपूर्ववृतित्वाभाव होगा न्याय और स्वर्गपूर्ववृत्नित्वाभाव बनेगा व्यापक । अर्थात् अपूर्वपूर्वतिय व्यापक वनगा और स्वर्गपूर्ववृत्तिच उसका व्याप्य होगा। इससे यह अर्थ प्राप्त होता है कि जहाँ जहाँ स्वर्गपूर्ववृतित्व रहता होगा वहाँ वहाँ अपूर्वपूर्ववृत्तित्व अवश्य रहता होगा। यानी अपूर्वपूर्ववृत्तित्व को छोड़ कर स्वर्गपूर्ववृत्तित्व कहाँ भी नहीं रहेगा। मगर यात स्थिति इससे विपरीत है । अपूर्व = पुण्य में अपूर्वपूर्ववृतित्व नहीं रहता है फिर भी स्वर्गपूर्ववृत्तित्व रहता है। अन्य अपूर्व की उत्पत्ति अपूर्व से नहीं होती है, किन्तु याग में होती है । अत: अपूर्व में स्वर्गपूर्ववृत्तिन्त्र पूर्वपूर्ववृत्तिता का व्यभिचारी वन नायगा । इसलिए उपपाटयान्न का उपर्युक्त निर्वचन असंगन है। यदि मा कहा जाय कि -> 'उपपारा जिसका व्याप्य हो वह उपपादक है यानी उपपाय की व्यापकता = उपपादकत्व । इसका सरल भाषा में इस तरह कह सकते हैं कि जिसके बिना उपपाद्य अर्थ की उपपत्ति न हो सके वह उपपादक कहा
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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