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८९८ मध्यमस्पद्वादरहस्ये गण्ड: ३ का. १९
रामद्र नृसिंहमतद्यांत्तनम
किस यागादे: स्वर्ग प्रति पूर्ववृतित्वं गृहीत्वैताऽपूर्व प्रति पूर्ववृत्तित्वग्रहात्तं प्रति तस्यान्यथासिद्धिवारणाय 'अन्यं प्रति पूर्ववृत्तित्वानुपपादकं यस्य पूर्ववृतित्वं गृह्यते' इति वाच्यम् ।
* जयलता
तवमिति वाच्यम्, तथा सति स्वावच्छेदकत्वस्य स्वस्मिन्कल्पनापत्तेः । न चेदं वृक्तं अवच्छेद्यावच्छेदकभावस्य भेदनियतत्वात् । न च पृथिवीजल जीवास्वात्मदिकालमनोद्रव्यान्यतगत्वावच्भिवतियोगिताकभेदविशिष्टद्रव्यत्व- निकालात्मभिन्नविभुद्रव्यत्वादिना का शरदशक्यतावच्छेदकत्वीपगमं गौरवमिति वाच्यम्, तथापि अखण्डी राधिस्वरूपस्याकाशत्वस्य तत्त्वं बाधकाभावात् । ततो नोकलक्षीन गगनस्य घटादावन्यथासिद्धत्वोपपादनसम्भवः । गगने बढापेक्षयाऽन्यथासिद्धलक्षणाव्याप्तिमुपदश्यं यागे पूर्वपक्षादन्यथासिद्धलक्षणातिव्यामिमावेदयति किचेति । यागादे: 'स्वर्गकामां यजेत' इत्यादिविधिना स्वर्गं प्रति पूर्ववृत्तित्वं गृहीत्वैच गृहीतकारणत्वान्चानुपपत्त्या चिरविनष्टस्य यागादेः व्यापारत्वेन अपूर्वकल्पनात् अन्यं प्रति पूर्ववृनित्यं गृहीत्वैव अपूर्व प्रति पूर्ववृत्तित्वग्रहात् । ततश्च स्वर्गपूर्ववृत्तित्वरितस्वर्गजनकलेन यागादः अपूर्वं प्रत्यन्यथासिद्धत्वापत्तिरेव । अतः तं = अपूर्व प्रति तस्य = यागादे: अन्यथासिद्धिवारणाय 'अन्यं प्रति पूर्ववृत्तित्वानुपपादकं यस्य पूर्ववृत्तित्वं गृह्यते तं प्रति तद् द्वितीयमन्यथासिद्धं इति द्वितीयान्यवासिद्धिलक्षणं वाच्यम् तथा चनापूर्वं प्रति यागादेरन्यथासिद्धत्वम् । पूर्ववृत्तित्वानुपपादकमित्यत्र पूर्ववृतित्वं स्वनिष्ठत्वेन विशेषणीयम्, अन्यथा शब्द जनकण्डादिव्यापारं प्रति शब्दकारणत्वेन गगनस्यान्यथासिद्धत्वं न स्यात्, तस्य कृतिनिप्रशब्दपर्ववृतित्वघटकत्वात् । स्वनिष्ठत्वोक्ती चोकव्यापारस्य कृतिनिष्ठशब्दपूर्ववृत्तित्वोपपादकत्वेऽपि आकाशनिष्ठशब्दपूर्ववृतित्वानुपपादकत्वात तं प्रत्यपि भवति गगनमन्यथासिद्धमिति रामरुद्रभट्टः (मु.रा.पू. २१५) ।
"यागत्वञ्च 'नस्य इदं भवत्वि त्याकारकदेवतीश्यकत्वप्रकारक स्वस्वत्वध्वंसविशिष्टद्रव्यविशेष्यकलावं, देवीदयकत्वञ्च देवतानिरूपितवत्ववत्वं देवतायावशब्दविशेषरूपत्वं स्वरूपसम्बन्धविशेषरूपं नदिति (सु.प्र.पू.०४४) नृसिंहशास्त्री |
प्रकृते यागादेः स्वर्गं प्रति पूर्ववृत्तित्वं यागादरपूर्व प्रति पूर्ववृत्तित्वोपपादकमिति यागादेरपूर्वपूर्ववृतित्वोग सदक- स्वर्गपूर्ववृत्तित्वं अतः आकावानिष्ट शब्दसमवायिकारणता के अचच्छेदकधर्मविधवा पृथिवी आदि अष्टद्रव्यान्यद्रव्यत्व का ही स्वीकार करना मुनासिव है । इस तरह पृथिवी, जल आदि आदयों से भिन्न द्रव्यत्वेन आकाश में घटपूर्ववृत्तिता का मान मानने में कोई दिक्कत नहीं है। इस स्थिति में तो शब्द के प्रति पूर्ववृत्तिता = कारणता का भान माने बिना भी पद के प्रति पूर्ववृत्तिता: = कारणता का ज्ञान गगन में माना जा सकता है। इसलिए उपर्युक्त द्वितीय अन्यथासिद्ध के लक्षण से पदादि के प्रति गगन को अन्यथासिद्ध नहीं कहा जा सकता ।
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किञ्च । इसके अतिरिक्त यह बात भी विचारणीय है कि अन्य के प्रति पूर्ववृतित्व का भान मान कर प्रकृत कार्य के प्रति जिसमें पूर्ववृत्तिता का भान हो उसे प्रकृत कार्य के प्रति अन्यथासिद्ध मानने पर तो याग (यज्ञ) आदि भी अपूर्व (पुण्य) के प्रति अन्यथासिद्ध बन जायेगा, क्योंकि याग में स्वर्गजनकता का, जो कि स्वनियतपूर्ववृतिता से घटित है, ज्ञान कर के ही अपूर्व के प्रति पूर्ववृत्तिता का भान माना जाता है । आशय यह है कि 'स्वर्गकामो यजेत' इत्यादि वेदवचन से याग में स्वर्गकारणता का भान होने के बाद ही स्वर्गकामनावाला पुरुष याग में प्रवृत्त होता है । मगर याग तो क्रियाविशेषस्वरूप होने से क्षणिक है । याग करने के बाद बड़े दिनों के बाद वर्ग प्राप्त होता है । जब स्वर्गप्राप्ति होती है तब याग तो चिरपूर्वकाल में विनष्ट होता है। अनः स्वर्ग के प्रति याग में वेदबोधित कारणता की अन्यथानुपपत्ति के बल पर अपूर्व नामक व्यापार की बीच में कल्पना की जाती है। मगर अपूर्व के प्रति जाग में पूर्ववृत्तिता का भान याग में स्वर्गपूर्ववृत्तिलाघटितकारणता के ज्ञान के बाद ही होता है । अतः उपर्युक्त द्वितीय अन्यथासिद्ध के लक्षण के अनुसार बाग अपूर्व के प्रति अन्यथासिद्ध सिद्ध हो जाने की आपनि आयेगी । इस तरह द्वितीय अन्यभासिद्ध के लक्षण में उपर्युक्त अव्याप्ति एवं अतिव्याप्ति शेष प्रसक्त होते हैं । द्वितीय अन्यथासिद्ध के लक्षण में परिष्कार मांसा
उपर्युक्त दोष के निवारणार्थ द्वितीय अन्यथासिद्ध के लक्षण का इस स्वरूप में स्वीकार करना चाहिए कि अन्य के प्रति पूर्ववनिता के अनुपपादक पूर्ववृत्तित्व का जिसमें ज्ञान हो वह प्रकृत कार्य के प्रति अन्यथासिद्ध है । याग में अपूर्वपूर्ववृनिता का भात स्वर्ग के प्रति याग की इस पूर्ववृत्तिता के ज्ञान के बाद होता है, जो पूर्ववनिता अपूर्व के प्रति याग की पूर्ववृत्तिता = कारणता की उपपादक है, न कि अनुपपादक । याग में स्वर्गकारणता (स्वर्गपूर्ववृनिता) ही यागजन्य अपूर्वनामक व्यापार की पूर्ववृतिना = कारणता की समर्थक है । यदि याग में स्वर्गपूर्ववृत्तितापटित कारणता न हो तब तो याग में अपूर्व के प्रति पूर्ववृचिता कारणता ही उपपन्न न हो सकेगी। इस तरह अपूर्व के प्रति याग की पूर्ववृनिता की उपपादक स्वर्गपूर्ववृत्तिता