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________________ * त्यहमनःप्रत्यासन्या हेतृतानिनकरणम | शरीरनिष्ठसम्बन्धोन हेतुत्वे तु स्फुटमेव गौरवम् । किश्चैवं जन्मिनोऽपि स्वतःसिन्दस्वर्गापवर्गशङ्कया यमनियमादी प्रवृतिर्न स्यात्, सिन्दे इच्छाविरहात् । न च तत्तच्छरीरावच्छेदेन सुख-दुःस्वहान्यन्यतरकामलया प्रवर्तते कश्चिद - जयलता - त्पत्तेरभावात, असमवायिकारणस्य कार्यसहभाचन हेतुत्वात् । यदि च कार्यनाशजनकना शातियाग्नि एवा समवायिकारणस्य कार्यसहभावन हेतुत्वमिति मन्यते तथापि सपुप्त्यरहितप्राककालांत्यत्रज्ञानव्यक्ते: सुप्किाले प्रत्यक्षापलिभिया न वामन:संयोगस्य कारणत्वम, विजातीयात्मनन:संयोगस्य हेतुत्वस्वीकारणच मुषप्त्यव्यवहितपूर्वक्षणोत्पन्नज्ञानप्रत्यक्षारणात, पुगीतदबच्छेदनात्ममनःसंयोग बैजात्यानमीकारत, वैजात्यस्य परात्ननन:संयोगपुरातत्वच्छिन्नात्ममनःसंयोगव्यावृत्तत्वात् । न च जात्यकल्पन गौरवमिति वाच्यम, आत्ममन:संयोगस्य कारणता कलसव वैजात्यस्य नदवच्छेदकत्वमेव कल्पनीयं त्वङ्मनायोगस्य तु कारणनैव न क्लुप्तति धर्मिकल्पनाता धर्मकल्पनाया लपीपस्वाद वैजात्यमन कल्पनीयम । एतेन बजात्यनात्ममन:संयोगस्य त्वङ्गानीयोगस्य वा हेतुत्वमित्यत्र विनिगमनाचिरह इत्यपि प्रत्युक्तम्, त्वङ्मनः संयोगस्य हेतुत्य चाक्षुषादिसामग्रया: स्पागनादिशतिबन्धकन्वकल्पनागौरवात त्वङ्मन:संयोगस्या अटकतासम्बन्धेन हेतृत्वापक्षया रमयागनान्ममन:संगोगस्य हेतुले ला घबाचति । एतेन झागरनिष्ठप्रत्यासन्या विजातयात्ममन:संयोगस्यात्ममानसत्वावच्छिन्न प्रति हेतुत्वकल्पना प्रत्युक्ता, अवच्छंदकनाया: तनदवच्छेदकम्यरूपायाः कारणतावच्छेदकसम्बन्धेन आत्ममानसत्वावच्छिन्न प्रति हेतुत्वे तु स्फुटमेव गौरवम् । तदपेक्षया आत्मनिष्ठप्रत्यासत्यैव विज्ञानीयात्ममन:संयोगतता कल्पनोचिना, समवायस्याःपथग्भावस्य वैकत्वेन लाघवात् । एतेन शारीरनिष्टपरम्परासम्बन्धन तम्य हेतुत्वकल्पनाऽपि परास्ता, साक्षात्सम्बन्धसत्वे परम्परासम्बन्ध नट्यागात् । नावंदेव देवदत्तभ्रातृतनया देवदत्तधने 'ममाधिकृतिर्ममाधिकृतिः' इति विवदन्त याबद् देवदत्तस्य साक्षादङ्गभून भवति । अस्तु वा नथा. नथापि नसा समीचीना, चैत्रीयविजातीयात्मनन:संयोगा. चत्रीयशरीरावच्छेदनात्ममानसोत्पादावस्थायां मैत्रगरीरावच्छेदनात्ममानसोत्यादापनेः । न च मैत्रशरीरेश्वच्छेदकतासम्बधेन तदुत्पत्तिवारणाय मैत्रशरीरत्वविशिष्टावच्छेदकतासम्बन्धन आत्ममानसत्वावच्छिन्नं प्रति तादात्म्येन मैत्रशरीरत्वेन कारणत्व भ्युपगमान्न दोषः विशेषसामनाविरहादिनि वाच्यम्, तत्च्छरीरस्य विशिष्य हेतुत्वकल्पन महागौरवापातादिति दिक । दोषान्तरभावेदयति - किञ्च एवं चैत्र-मैत्राद्यात्मभेदस्वीकारे सति जन्मिनोऽपि = शरीरिणोऽपि स्वतःसिद्धस्वर्गापवर्गशङकया यमनियमादी प्रवृत्तिनं स्यात् । नारद-शकदेवादीनां स्वर्गापवर्गश्रवणेन तदभिन्न स्वात्मनि तत्सिद्धत्वप्रकारको निश्चय एव भवितुमर्हति तथापि तदज्ञानदवायां तादृासंयोऽपि न विरुदः । प्रबन्यभावे हेतुमाह - सिद्धे = सिद्धत्वन ज्ञाते इच्छाविरहात् = कृतिसाध्यत्वप्रकारकच्छाया असम्भवान्. सिद्धन्व-साध्यत्वयाः सहानवस्थानात । सुखल्वेनेच्छां प्रति सुखत्वेन सिद्धत्वनानस्य प्रतिवन्धकत्वात् चिकीपांविरहे प्रयत्न भावः तद्विरहे च यमादी प्रवृत्त्यनुपपनिरित्याशयः ।। यद्यपि सामानाधिकरण्यन सिद्धत्वज्ञान-पि सामानाधिकरग्येनेच्छाया आनुभविकत्वं कथमन्यका प्राषितस्याऽजानकान्तामग्णस्य = ब्रह्मादतमत्त में प्रराजाभाव की आपत्ति छ किञ्च । इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि चैत्र, मैत्र, देवदत्त, यज्ञदत्त आदि की आत्मा को एक ही मानने पर तो कोई भी व्यक्ति स्वर्ग या मोक्ष के लिये प्रयत्न ही नहीं करेगी, क्योंकि 'नारद आदि स्वर्ग में गये हैं एवं मुकदवजी आदि मुक्त बने हैं तथा नाग्द, शुकटेवजी और अन्य चैत्र, मंत्र आदि की आत्मा एक ही है, अलग नहीं' यह झान होते ही अपने में चैत्र, मैत्र आदि को स्वर्ग, मोक्ष की प्राप्ति का निश्रय हो जाता है। प्रवृत्ति उसी में होनी है जिसके उद्देश से कृनि हो और कृति = प्रयत्न की निष्पति तब होगी जब उसकी इज्दा हो । मगर जिसमें साध्यत्व का ज्ञान होता है उसीमें कृतिसाभ्यत्वप्रकारक इच्छा हो सकती है । जो सिद्ध है, निप्पन है, प्राप्त है उसमें नो कृतिसाध्यत्व ही नहीं रहना है, क्योंकि उसका विरोधी कृतिसिद्धत्व धर्म वहाँ रहता है. जिसका ज्ञान चैत्र आदि का हो चुका है। इस तरह स्वर्ग, मोक्ष आदि में सिद्धत्यप्रकारक ज्ञान से कृनिसाध्यत्वप्रकारक ज्ञान का प्रतिबन्ध हो जाता है तब कृतिसाध्याचप्रकारक इच्छा कसे उत्पन्न होगी ! और उसके विरह में प्रयत्न भी उत्पत्र नहीं होगा । फलतः स्वर्ग, मोक्ष आदि के लिए कोई भी यमनियम आदि प्रवृति ही नहीं करेगा । यदि किसी अहतवादी नरेश, पंश, हरेश आदि को अपने में स्वतःसिद्ध स्वर्ग एवं मुक्ति का निश्चय न हो तो भी स्वर्गादि में स्वत:सिद्धत्व की शंका होने पर कृतिसाध्यत्वप्रकारक इच्छा = चिकीपो एवं प्रयत्न की उत्पत्ति न होने से यम-नियम आदि में प्रनि न हो सकेगी। यहाँ यह तो नहीं कहा जा सकता कि → 'अपनी
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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