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________________ ७५२ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्ड ३ . का.११ * वाणायां दादः' इतिप्रनीतिविचार:* 'घटसाधनतादिज्ञानेन दण्डादौ प्रवृत्तेर्घटादिव्यज्यत्ववादो ज युक्त' इति चेत् ? तर्हि ॥ शब्दसाधनताज्ञानेन कण्ठताल्वाद्यशिघातादी प्रवृत्तेः शब्दव्यङ्ग्यत्ववादोऽपि किं न तथेति एकं सीव्यतोऽपरणच्युतिः । एतच 'शब्द उत्पा' इत्यादिप्रतीतो शब्दपदं शब्दाभिव्यक्तिपरमित्यापास्तग, 'वीणापो शब्द' इत्यादिशातीदोस्तथा ग्रामयितुमशक्यत्वात् । - जयला *ननु घटसाधनतादिज्ञाने = घटत्वावच्छिन्नकारणताज्ञानेन दण्डादी प्रवृत्तेः दण्डादिकार्यतायचंदकं समवायन घटत्वमेव न तु घटप्रत्यक्षमिति घटादिव्यङ्ग्यत्ववादो न युक्तः इति चेत् ? तर्हि तुल्ययुक्त्या शब्दसाधननाशानन = शब्दत्वच्छिन्न कार्यतानिरूपितकारणताज्ञानेन कण्ठताल्वायभिधातादी प्रवृत्तः तत्कार्यतावनडेदकमपि सनमायेन शब्दत्वमेव न तु शब्दप्रत्यक्षत्वादिकं इति शब्दव्यङ्ग्यलवादोऽपि किं न तथा ? नितरामयुक्त इत्यर्थः इति = हेनो: एकं सीव्यतः = वटादिव्यङग्यत्वापनिमपसारवतः अपरप्रच्युतिः = शब्दव्यङ्ग्यत्वव्यानि समागता ।। एवन = शन्दव्यङ्ग्यत्वशंद सत्कार्यबादापातेन तनिराकरण शन्दव्यङ्ग्यत्वहानश्च, अपास्तमित्यननास्पान्ययः । 'शन उत्पन्न' इत्यादिप्रतीती शब्दपदं शब्दाभिव्यक्तिपरं = शब्दपदरम्य शब्दप्रत्यक्षे रक्षणंत्यदगीकारान 'शब्दसाक्षात्कार उत्पन्न' इत्यर्धकत्वस्वीकारान्न शब्दनित्यत्वव्याहनिरिलि मामांसकाकूतमपि अपास्तम्, तुल्ययुक्त्या 'घट उत्पन्न' इत्यादिप्रनीती घटापदं घटाभिव्यक्तिपरमित्यागीकारेण घटापदस्य घरमाक्षात्कार लक्षणया 'घटसाक्षात्कारः स्वाधिकरणक्षणसानधिकरणक्षणसम्बन्धप्रतियोगी' इत्पर्धकत्वस्वीकारेण घटादेगणि नित्यत्वं सुवचं स्यात् । ___ अस्तु वा शब्दपदस्य शब्दाभिन्यक्ती लक्षगा तथापि 'वीणायां शब्द उत्पन्न इत्यादिप्रतीतः उपपादयितुमशक्यत्वान् । न हि वीणानि शब्दप्रत्यक्ष आद्यक्षणमाम्बन्धप्रतियोगि' इत्यर्धस्याबाधितत्वम, दादप्रत्यक्षस्यात्ममात्रवृनित्वात् । अनेन 'वीणायां शन्द उत्पन्न' इत्यस्य वीणावृत्ति: य: शब्दस्तलाक्षात्कार आरक्षणसम्बन्धात्मकोत्पत्तिानियोगी' इत्यर्थकत्वकल्पनापि परास्ता, मीमांसकमने-गि शब्दस्याकाशवृनित्वात् वायुवृनित्वाद्वा । अत एव स्वगीचरसाक्षात्कारजनकल्लसम्बन्धन शब्दरण वीणावृनित्वकल्पनाऽपि प्रत्याख्याता, दादपदस्प साझाइनत्वेन शब्दप्रत्यक्षपरकत्वानुपपनश्च, अन्यथा 'कपाले घट उत्पन्न यही सारख्यों के मत्कार्यबाट का तात्पर्य है, जिसका प्रतिपादन एवं खण्डन हम नैयायिका ने पहले ही कर दिया है दिग्विये प्रथम खण्ड पृ.११५/१२६)। यहाँ बचाव के लिए मीमांसक की ओर से यह कहा जाय कि -> 'सांख्य का सत्कार्यबाट यानी घटादिम्पपयत्ववाद अयुक्त है. स्याकि लोगों की दण्डादि में घटसाधननादिप्रकारक ज्ञान से प्रवृत्ति होती है, न कि घटज्ञानसाधनतादिप्रकारक ज्ञान से 1 दण्डादि में घटसाधननादि का ज्ञान यही बताता है कि घटादि दण्डादि से जन्य है, न कि घटज्ञानादि' -तो यह कथन मीमांसक मन में भी समान रीति से लागू होगा कि लोगों की कनतालुअभियात आदि में शन्नसाधननादिप्रकारक ज्ञान में प्रवृत्ति होती है, न कि शब्दज्ञानसाधनतादिप्रकारक ज्ञान से । कण्ठतालुअभिघात आदि में झन्दसाधननादि का ज्ञान यही सिद्ध करता है कि ककार, गकार आदि शन्द कण्डतालुअभिघातादि में जन्य है, न कि ककारादिशब्दज्ञान । अन: शन्दव्यङ्ग्यत्वाद भी घटादिज्यङ्ग्यत्ववाद की भाँति अप्रामाणिक हो जायेगा। अत: पटादिन्यङ्ग्यात्ववादापति = सत्कार्यवादप्रसङ्ग दूर करने का प्रयत्न करने पर वन्दव्यङ्ग्यत्ववाद भी टूट पड़ेगा। यह मीमांसकमन में दुमग टोप है। इसलिये मीमांसक का यह कथन कि -> "सब लोगों को जो प्रनीति होती है कि 'शन उत्पन्न हुआ' उनमें शनपद शन्दाभिव्यक्तिपरक होता है यानो वादपद की शन्दज्ञान में रक्षणा होती है, जिससे उपर्युक्त वाक्य का अर्थ यह प्राप्त होगा कि 'शन्टज्ञान उत्पन्न हुआ' । अतः शब्द में नित्यत्व या व्यङ्ग्यत्व मानने में कोई दोष नहीं है" - भी निरस्त हो जाता है, क्योंकि तुल्य युक्ति से यह कहा जा सकता है कि , 'घट उत्पन्नः' इत्यादि प्रतीति में भी घटपन घटाभिव्यक्तिपरक होना है अर्थात् घटपद की घटज्ञान में लक्षणा होती है, जिससे उपर्युक्त प्रतीति का अर्थ होगा 'घटज्ञान उत्पन्न हुआ है। नब तो बटादि के व्यङ्ग्यत्व सिद्ध होने की वजह पुनः सत्कार्यबाद की आपत्ति आयेगी और उसको हटाने की लिए जो युक्ति मीमांसक की ओर से पेश की जायगी उसीसे शब्दव्यङ्ग्यत्वबाद भी धराशायी हो जायगा । इसके अतिरिक्त मीमांसकमत में यह दोप अधिक है कि शब्दपद की शन्दाभिव्यक्ति अर्थ में लक्षणा करने पर 'वीणायां शन्द इत्पन्नः' इस प्रतीति की उपपनि कथमपि न हो सकेगी, क्योंकि शब्दाभिव्यक्ति अर्थ में शब्द की लक्षणा मानने पर 'वीणा में वान्दज्ञान उत्पन्न हुआ यह अर्थ प्राप्त होगा, जो बाधित है । ज्ञान तो आत्मा में रहना है, न कि चीणा आदि में 1 अत: 'शब्द उत्पन्नः' इस प्रतीति की संगति करने पर 'वीणायां शब्द उत्पनः' यह प्रतीति अनुपात्र बन जायेगी । 'इतो व्याघ्र इतस्तटी' । इसन्दिप मानना
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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