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________________ * स्फोटाचारः * अत्र सारिकानुयाटियतः → शब्दस्य व्यङ्ग्यत्वे श्रावणजनकतावच्छेदिका जाति: पवनसंयोग इवात्ममनोयोगे श्रोत्रमनोयोगादी वा विनिममनाविरहेण कल्पनीया स्यात् । किश्चैवं घटादेरपि व्यग्यत्वसम्भवेन सत्कार्यवादापत्या साइख्यमतप्रवेशः । -* जयलता - बिनराशशालिप्रतीते: कादिविषयकत्वं प्रत्यभिज्ञायाश्च ककाराद्यमियज्यमानस्फोटो विषय | स्फुट्यने ज्ञाप्यतेऽर्थी नननि व्युतान्या अर्थस्मारको नित्यः शन्दविशेषः । पदस्फोट-वाक्यस्फोटभेदात् द्विविधः स्फोटः । 'पदज्ञाप्यस्फोटः 'पदस्फोटः, वाक्पज्ञाप्यस्फोटी हि वाक्यस्फोटः । वृत्त्या अर्धस्मारकत्वं स्फोटस्यैव 'पदवाक्ययोः स्फोटज्ञापकत्वात्परम्परथा अर्थस्मारकत्वमित्याह । ___ अपरे तु 'सोऽयं' इत्यादिप्रत्यभिज्ञावलान् वनांनां नित्यत्वं 'उत्पन्नः ककारो बिनष्टः ककार:' इत्यादिपताते: ककारादिव्यञ्जकध्वनिविषयकत्वं, ध्वनरव श्रोत्रग्राह्यलान, उत्पादविनाशशालित्वाच्चति प्रतिपादयन्ति । सर्वथानित्यता शब्दस्थले इत्थं प्रचक्षते । सर्वे मीमांसकास्तन्नेत्याहुनैयायिका. खलु ||१|| अत्र = मदनित्यत्वा नित्यत्ववेप्रतिपत्तिस्थले नैयायिकान्यायिनः = प्राची नैयायिका: बदन्ति - दाब्दस्य व्यायव = निमिनविशेषजन्यज्ञानविण्यत्वे सनि निमिनविशेषजन्योत्पादाप्रतियोगित्वे वाक्रियमाणे श्रावणजनकतावच्छेटिका = लोकिकश्रावणप्रत्यक्षनिष्ठकार्यतानिरूपितकरणतावच्छेदिका जाति: मीमांसकाभिमत पवनसंयोगे = विजाायनिमित्तवायुसंग डब आत्ममनोयोगे - विजानीयात्मन:संयोगे श्रोत्रमनोयोगादौ वा = कर्णमन:संयोगादी वा, आदिपदेन विजानीयशब्दोत्र. संयोगकालदिगादिग्रहणं, विनिगमनाविरहेण कल्पनीया स्यात, शब्दज्ञाननिमिनकारणतायाः त सर्वत्रा:विशेषात । संयंत्रा:- विशेषेण तत्कल्पने महागौरवं, अन्यथा त्वर्धजरतीयप्रसङ्ग इत्युभयनः पाझारज्जुः । किञ्च, एवं = स्वाश्रय किरविषविराम कात्वाद: यातायपचनसंमोगादिकार्यतावच्छेदकत्वं, उत्पादकमामग्रया व्यञ्जकत्वस्वीकार इति यावत् । घटादेर पे ज्यङ्ग्यत्वसम्भवन घटायुत्पादकररामग्रया अपि तुल्ययुक्त्या व्यकत्वम्म्भवन पदार्थमावग्य नित्यवसिद्भा सत्कार्यवादापत्त्या - कारणनिष्ठात्यन्नाभावाप्रतियोगिविषयकशानजनकत्वलक्षणसत्कार्यवादप्रसङ्गेन सांख्यमतप्रवेशः मीमांसकानां दुर्वारः । अतिसुक्ष्मंश्किया ग्राहकविश्रामे च गतं घटादिना बाझ्यतयेच, ततो योगाचारमनप्रबंशापातः | अनः ककारभप्रकारक-गकारविशेष्यक, कवात्यन्ताभावप्रकारक-गकारविदोप्यक श्रावण प्रत्यक्ष की उपपनि भी हो सकती है। प्रिय वाचकवर्ग ! हम भली भाँति समझ सकते हैं कि भिन्न भिन्न मीमांमक मनीपी अलग अलग पहलू से गन्द्र में नित्यत्व-व्यङ्ग्यत्व का ही समर्थन करते हैं । पद्धति चाहे विचित्र-चिभित्र हो, उसका लक्ष्य एक ही है . शन्दनियन्वसमर्थन। शन में नित्यत्व का स्थापन करने में मीमांसक अच्छी तरह सफल रहे हैं। अब भीमारक्रमन के खिलाफ नैयायिकवक्तव्य को गौर से सुनियेगा। EASE राज्य है - यायिक अब नं. इनि । नयायिक मनापियों का वक्तव्य यह है कि यदि शब्द को जन्य न मान कर व्यङ्ग्य माना जाय अर्थात् नित्य शब्द की निमित्त विशेष से अभिव्यक्ति = श्रारण प्रत्यक्ष होने का स्वीकार किया जाय तब तो शब्दगोचर आरण प्रत्यक्ष का निमित्त कारण विजातीय पवनसंयोग को मानना या बिजातीय आत्ममनोयोग को मानना या विजातीय श्रोत्रमनायांग को मानना ? इसमें कोई नियमक = विनिगमक नहीं होने से श्रावणजनकताअवच्छंटक जानि की विजातीय वायुसंयोग की भाँति विजातीय आन्ममनोयोग एवं विजातीय श्रोत्रमनःसंयोग में भी कल्पना करनी होगी, जिसके स्वीकार में महा गौरव दोप मीमांसक के सर पर आयेगा।। म मीमांसा को सांस्यमतप्रवेशापति कि. । इसके अतिरिक्त यह भी दोप आ सकता है कि यदि मन को नित्य मान कर निमित्त विशेष सं उसकी अभिव्यक्ति को मान्यता दी जाय नब तो घट आदि सभी पदार्थों को भी नित्य मान कर कुलाल, दण्ड आदि से उनकी मी अभिव्यक्ति = बुद्धि होती है, न कि उत्पत्ति - यह भी निर्विवादरूप से माना जा सकता है, क्योंकि आलेप और परिहार दोनों मत में समान ही रहेंगे। मगर ऐसा मानने पर भीमसिक महादाय का सारख्य मन में प्रवेश हो जायगा, क्योंकि वान की भाँति घट, पट आदि सर पदार्थ नित्य सत् = कारण में विद्यमान होते हुए कारणविटोप से केवल ज्ञात होते हैं .
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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