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________________ मध्यमस्वाज्ञादरहस्ये खण्ड: 3 का. १५ श्रावणसमवाय- श्रावणविशेषणतादिना गुणत्व-ककारभेदादिग्रह इत्यप्याहु: । नयलता है ननु कोलाहले व्यञ्जकतारतम्या कल्पना न युक्ता, साक्षात्सम्बन्धापेक्षा परम्परासम्बन्धकल्पने गररवात् भ्रान्ती मानाभावादिति चेत् ? तर्हि अस्तु स्वाश्रयविपतिया कत्वादिकं विजातीयवायुसंयोगकार्यतावच्छेदकम, तथापि अनन्तशब्दात्पत्तिनाश-तत्प्रागभावादिकल्पनाती लाघवम् । यत्रा स्वनिरूपितलौकिकविषयितया ककाराचंद विजातीयनिमित्तपवनकार्यतावच्छेदकमस्तु क्षेत्रीय मंत्री शुकीयककारार्धक्याद व्यञ्जकवैचित्र्यादेव तत्तत्ककारादिवैलक्षण्यतीत्युपपत्तेः कोलाहले यावदुवर्णभानं भवत्येव, अन्यथा तत्तारतम्यप्रत्ययानुपपत्तेः किन्तु कत्वादिश्रावणसामग्रीविरहादेव न कत्यादिप्रकारकप्रत्ययस्तदानीं जायते । न चै कोलाहले कत्वादिवत गुणत्व ककारभेदादिग्रहोऽपि न स्यादिति वाच्यम्, श्रावणसमवाय श्रावणविशेषणतादिना गुणत्वककारभेदादिग्रह इत्यस्य सुतात् । स्वनिष्ठापितानिपितली किकविषयतासम्बन्धेन गुणत्वग्रहं प्रति प्रतियोगितासम्बन्ध श्रावणप्रत्यक्षविपयीभूतशब्दानुपातिकसमवायस्य कारणत्वमित्यभ्युपगमेन मकारादिनिष्ठगुणत्वमानोपपत्तिः तथा स्वनिरूपितलौकिकपियतासम्बन्धेन कारभेद - खकार भेदकत्वात्यन्ताभाव खत्वात्यन्ताभावादिप्रत्यक्षं प्रति श्रवणसाक्षात्कार विपर्या भूतगकारादिविशेषणतयाः हेतुमित्यङ्गीकारेण गकारादिवृत्तिककार भेदादिश्रावणसङ्गतिः । एतेन दत्वादिना कोलाहले ककारादिश्रम समर्थितं क्रमशः प्रोक्तकारणद्वयेन तदुतानसम्भवात् इत्यपि अन्य मीमांसका आहुः । इतरे मीमांसकास्तु एवा कार हत्याकारकप्रत्यभिज्ञया गकारादेस्तावत्कालमवस्थानस्य विषयीकृतत्वेनान्तराभृतशब्दादिनाऽनाशेन नाशकाभावाद्वनित्यत्वतिभिः । न च प्रत्यभिज्ञा तज्जातीयत्वविषयिणी, बाधकाभावात्. अन्यथा सर्वत्रापि तथाभाव मंदीच्छेदापत्तिः न च तारत्व- मन्दत्वरूपविरुद्धधर्माध्यासो वाधकः प्रत्यभिज्ञानबलेन तस्य नित्यत्वसिद्धी दिव्यायुधगंत्वस्य कल्पनात् श्री वासुधर्मस्य तारत्वादेरपि ग्रहणसम्भवात् स एवं तार स एवान्यापेक्षया मन्द' इतिप्रतीतः तारतमन्द्रत्वयोरविरोधादिति वदन्ति । - *** शावर भाष्यसंवाद एके तु - 'सोऽयं ग' इत्यादिप्रत्यभिज्ञाचलाद्वर्णानां नित्यत्वम् । न चैवं सति उत्पन्नो गो विनष्टांग इत्यादितानेसनिरिति शङ्कनीयम् गादिव्यञ्जकवाय्वादिसंयोगविभागलक्षणनादगतो यादविनाशशविषयकत्वस्वीकारात् । 'वायवीयाः संयोगविभागाः शब्दमभिव्यञ्जयन्तो नादशब्दवाच्या (शर. भर. पू. १०१ ) इति शावरभाप्यकारः । तारत्वमन्द्रत्वादेः वायुधर्मत्वमेव, अन्यथाऽनन्तवर्ण. तत्यागभाव-ध्वंस-तत्कार्यकारणभावकल्पनापत्या महागौरवात् । न चैवं तयोः श्रीग्राद्यत्वानुपपतिरिति वक्तव्यम् व्याशुकनिष्ठगुणानां मध्यं रूपमात्रस्य॒ चक्षु॑र्ग्राह्यत्वद्धर्माणां मध्ये तारत्वादिमात्रस्याज्जायत्या तद्ग्रायत्वकल्पने क्षतिविरहादिति व्याचक्षते । कश्चित्तु 'उतम्भ की विनष्टीक इत्यादिप्रतीतः सोज्यं का उत्पादिप्रत्यभिज्ञायश्व प्रामाण्योपपादनामीत्यादसकारादिविशेष्यक श्रावणप्रत्यक्ष के प्रति अनेकविध दोषाभावों को कारण मानने की अपेक्षा स्वाश्रयलोकिकविपवितासम्बन्ध में कत्व, सत्व, गव, गुणत्व शन्य, ककारभेद, खकारभेद आदि को ही विजातीय वायुसंयोग का कार्यता अवच्छेदक मानना अर्थात् भित्र भित्र विजातीय वायुसंयोगों को ही स्वतन्त्ररूप से गत्वप्रकारक गुणत्वादिप्रकारक, ककारभेदादिप्रकारक गकारादिविशेष्यक प्रत्यक्षों का कारण मानना भी मुनासिब ही है । * श्रावणसमवायआदि गुणत्वादिप्रत्यक्ष में कारण मीमांसकविशेष - श्रावणम् । अन्य मीमांसकों का यह कथन है कि कोलाहल के समय सुने जाते वर्णों में कल्ब, ख़त्व, गत्व आदि का प्रत्यक्ष दोपविशेष के कारण नहीं होता है मगर फिर भी तब गुणत्व, ककारभेद आदि का नो गकारादि में भान हो सकता ही है, क्योंकि स्वनिरूपितळी किविपयतासम्बन्ध से गुणत्व - शब्दत्व आदि प्रकारक धावणप्रत्यक्ष के प्रति प्रतियोगिता सम्बन्ध में श्रावणसमवाय अर्थात् श्रवणप्रत्यक्षविषयीभूतान्दानुषंगिक समवाय कारण है । जिस किसी पुरुष को गकारादि का बोलाहल में शब्दत्व-गुणत्वरूप से भान होता है वह स्वनिरूपितली किकविपयतासम्बन्ध से शब्दत्व, गुणत्वादि में रहता है और कार आदि समवाय के गुणत्व, शब्दत्व आदि प्रतियोगी होने की वजह कार आदिअनुयोगिक समवाय भी प्रतियोगितासम्बन्ध वहीं रहना है। इस तरह गकारादि में जिस पुरुष को ककारभेद आदि का श्रावण प्रत्यक्ष होता है उसके उपपादनार्थ यह कहा जा सकता है कि स्वनिरूपित लौकिक विपयता सम्बन्ध से ककारभेद - कन्वात्यन्ताभाव आदि से विशिष्ट प्रत्यक्ष के प्रति श्रावणविशेषणता कारण है । ककारभेदआदिप्रकारक श्रावणप्रत्यक्ष स्वनिरूपितलौकिकत्रिपयतासम्बन्ध से ककारभेद आदि में रहना है और वहीं श्रवणप्रत्यक्षविषयीभूतगकारादिविशेषणता भी रहती ही है, क्योंकि ककारभेद आदि गकारादिविशेषण होता है ।
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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