SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ":मयमयादादरहस्ये खदः . का, * भूतदतुष्यमात्रतन्यन्यापहः * वैधय॑मथ भेदो नो नाभाव इति धी:पुनः । भेदाभेदविकल्पाभ्यां गस्तेयं धर्मधर्मिणोः ॥9॥ भेदे ह्यान्तरापतिरभेदे त्वेकशीघेता । पक्षान्तरस्पृहा कक्षाप्रवेशे लो न चान्यथा ॥२॥ स्वतो व्यावृत्तिरेषां चेदनुवृत्तिन किं स्वतः । एवं चेज्जैनसिन्दान्तस्पर्शिने भवते नमः ॥३॥ न शक्ति विज्ञा स्वभावत: कार्यप्रतिनियमोऽपि पसरतः, प्रातिस्विकरूपण कारणत्वस्थाऽप्ययोगात, तृणारणिमणिन्यायेन कारणतास्थले व्यभिचाराद वैजात्यत्रयकल्पनात एक - जालनाurarisarain मुद्रा पद्यत्रितयेन तन्मतमपाकमुपक्रमते - वैधय॑मिति । मधेपनस्तदर्थ एवं योज्य: अध नः = अस्माकं चार्वाकाणां मंद बंधयं = भृत्तान्तरनिष्ठकार्यजनकातिशयान्पातिदा शालित्वम्प भेदः = अन्योन्याभावः न तु भूनचतुष्कानिरिक्तः अभाव इनीयं धीः = नास्तिकमति: पुन: धर्मधर्मिणीः भेदाभेदविकल्पाभ्यां ग्रस्ता || तथाहि तादावधम्यलक्षणधर्मस्य ॥ भूतादिमिनः भेद स्वाक्रियमाणे अर्थान्तरापत्तिः = तत्त्वान्तरप्रसङ्गः हि = एख, नत्य ततः अभेद = अनतिरि एकशे पिता = मूतमानत्वमंग, ननश्च न स्वभानभदा पने: । पक्षान्तरस्पृहा = चार्वाकर भेदाभेदपक्षाभिलषः नः = अस्मान म्यादादिनां कक्षाप्रवेशे = मने प्रथा एवं पूर्णत न व अन्यथा = ज्याद्वादापलाप ॥२।। एषां = भूतानां स्वत पब मिधी व्यावृत्तिः चारकिणप्यते ताई सां = भूतानां अनुवृत्तिः अपि किं न स्वत विष्यते भवता । एवं = अभ्युपगम्यत विषां म्बन निरिति चेन ? नहि. स्वतान्नवृत्तिन्याउत्तिशालिभाचाङ्गीकारण जैनसिद्धान्तस्पर्शिने = अनेकान्तराष्ट्रान्तप्रविणाय भवत नागंकाय नमः अस्तु, सधर्मिकलान ||३|| पनेन = मृतवतप्कनचरामान्दको पेन, शक्ति = मादकतादिजनकदाक्नेि विना स्वभावत एवं कार्यप्रतिनियमः = नित-कारणोत्पनिककार्यव्यवस्थापनप्रकार: अपि परास्तः प्रातिस्विकरूपण = प्रत्येकमाऋत्तियण, कारणत्वस्यापि चावांकमन अयोगात = असम्भवन, पधिन्यादानां क्रमकपल-पत्र- बालकादीनां च भूतमानत्वं न्त्र प्रातिस्विकरूपस्यैव विग्रहात, तथा च क्रमुकाफलपत्रादिषु डब वालुकाशकलङ्कमादिबपि मादतीतायेत, न बा तत्रायविशेषात् । ततश्च व्यवहारबाधः । अतिरिफ्नानातिरिकरूपान्युपगने म तच्चान्तरणसजन प्रतिज्ञासन्न्यासः । वस्तुतःप्रत्येकमपि कामुकादिषु मदशक्तिरस्त्यरेत्यस्माभिः स्वात्रि पतंत्वया पुनरनुमानापलापिना प्रत्येकं भूतेषु ज्ञानशक्त: स्वाकर्तुमशक्यत्वमेव, स्वीकार पि वा शक्त: तत्त्वान्तरत्वप्रसङ्गस्य दवांग्यम् । शक्तिपक्ष प्रसङ्गत: म्यापति - नणारणिमाणिन्यायेन कारणतास्थल व्यभिचारात वजात्यत्रयकल्पनात इति । न किया जाय तब नो पृथ्वी, जर आदि में भेद मिद्ध नहीं होने की वजह पृथ्शी, जल आदि परस्पर संकीर्ण हो जायेंगे, क्योंकि परस्पर भिन्नता उनमें अगिद्ध है तब तो चार भूत न होकर केवल एक ही भूत रहेगा । यदि भेद का स्वातन्त्र्याण ग्वीकार किया जाय तर 'भूतबतष्क ही पारमार्थिक है' इस चार्याकमिद्धान्त का भार हो जायगा। अत: चाकमन में केवल चार भूत की सिद्धि ही नामुमकिन है । यदि चार्वाक की ओर से यह कहा जाय कि → हमारा अभिमत भेट वैधय॑स्वरूप है, न कि अतिरिना अभावस्वरूप <-ना यह कल्पना(धी) भी धर्म-धर्मी के भेदाभेदविकल्प में ग्रस्त हो जायेगी ॥१॥ वह इरा तरह-यदि भूतस्वरूप धर्मी में वैधम्यस्तरूप धर्म भिन्न होगा तब पुनः पक्षम नन्च की कल्पना की आपत्ति चार्वाक के पक्ष में आयेगी और अभिन्न मानने पर तो कही गप रहेगा यानी या तो कंबल भन - धर्मी रहेगा या कंचल वैयऱ्या, पांकि दोनों पर अभिन्न है । भूत एवं वैधयं दोनों को प्रथक सत्ता न रहेगी। पधान्नर यानी भेदाभेद पक्ष की हा करने पर तो चाक का हमार गत में ही प्रवेश हो गया, अन्यथा आपकी उपदरित कल्पना की उपपनि नहीं हो सकती ॥२॥ भूतों में स्वतो व्यानि = भेट मानेंगे भात भेदक धर्मान्नर के यिना ही एक भूत स्वयं दुसरे भूत मे व्यावृन हो जायगा - ज्यावृत्तिवृद्धि गर्न च्यावृनिव्यवहार को करेगा. ऐसा वाक मानेंगे तब ना चागें भूत अनुवनिद्धि एवं अनुवृत्तिन्यवहार भी स्वतः ही करंग - यह भी क्यों न माना जाय ! यदि एवं मानने के लिए चायांक तैयार हो जायेगा कि. भून स्वतः अनुनि पर्व न्याति करते है. तब तो चार्वाक जैनसिद्धान्त का स्पर्श = ग्वीकार करने की बजह हमारा मार्मिक यन जायेगा । मार्मिक चार्वाक भैया ! आपको नमस्कार । तितमान काल में लाधव - प्यादानी * ता. । यदि यहाँ यह शझ हो कि -> 'अतिरिक्त शक्ति के स्वीकार के बिना ही स्वभावचिशंप से प्रधिची आदि | भूतां के कार्य गन्ध आदि का प्रतिनियन = नियम्न होगा' तो यह भी इसलिए निराधार हो जाती है कि चारों भूनों
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy