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________________ * मानायक कागंगदः * साहल्यो यघनेकान्तं प्रतिक्षिपेत, तदा न सहस्त्याला = परीक्षाणां मुख्यः, तत्प्रतिक्षधे स्वाभिमतप्रधानस्यैव विलयन स्वाधिरूढशाखाचो दनकौशलशालित्वातस्य । 'सङ्ख्यावता' इति निर्धारण षष्ठी । यदि तु याव च Tansitisri it प्रतिक्षिपेदेव ।।१०।। अध लोकार्यातकानां व्यवहार यावलम्बेिनां सकलतालिकबाद्यानां किं सम्मत्याऽसम्मत्या वा ? इति तेषामतग(ग)लामेवाऽऽविष्कुक्ति -> crit'रिति । विमति: सम्मतितापि चाकश्यामन्यो । परलोकात्ममोशेषु वरय मुलति शेमुखी ॥११|| - ali - प्रातिम्पापं सच्चतमागणकार्यान्सहकारकच । सन्चनममा स्वयमकिये गजमा म्यन = बकाये उत्गहं = प्रयन्नं कार्यने । | तम्गगस्त विपादम्प घोगमनहत-गायकलितश्च । तदनं सात्यकारिकाया "सन्ध प्रकाशकानरमपएम्भक चल रजः। गुम्बग्गमय नमः प्रदीपबचायती निः' ।।१३। इति । परीक्षाणामितान काणागति 'पाठः श्रेयान कडा पर्गअन्त इति | परीक्षा: = पराक्षका इनि यादिन्यं आध्ययः । निर्धारण = अवधारणाधे । 'इटना धारगति न्यावना-वधारणं योजनि | - यदि तु सड़ग्यावतां मध्य राज्यों मन्य : तदानकान्तं न प्रतिक्षिपदनि । स्वाभिमतप्रकृतितन्वय ग्याद्रादीपजीवकाचात. उपनावकम्योपजाच्या प्रेक्षया हानबलत्याच तततिक्षपा न्याय्य डांत गवः। शेषमनिगडितामति न लन्यने । सोपयोगिचाद वीतरागस्तोत्रविवरणगपरदन - तथा कापिलो-पि न स्याद्वादापदापचापलापमानमादित्य तदेव स्तुतिकृत्यधयन्नार --> 'इन्टिात । ह वीनगन ! बड़ाच्यावनां मगच्या मुव्याभिभवनामधेयः सादग्य : प्रधानं - प्रकृति, महतायुत्पादभूलन मन्च जम्नमामि: न्यान्यचिगवदधैरपि धिनमाउरुद्धतया भिदधान; म्यान्मन्गे नानिकान्तमनगख्यगाख्यान । न-मत है प्रकृति का महदायाभिक मागम्यते । न्न: सांग्ल्यान्नकान्ननादमख पर <-इन |१०| होनाnindi15short समय वहाल.Foruोया 1911 एकादमाकानको पातमार . अति । लोकार्यातकानामिति । कोक आयनं = बिस्ताणं ग्रिमिति यावत यत्प्रत्यक्ष प्रमाण नागदन्तीति टाकायत्तिका: नास्तिकानि याचत तपास । न्यबहारदर्नयावलम्बिना = मिनिविल्यवहारमयाभागा. भ्युपगन्जगणाम । तथाहि - लोकग्राहम्बा त बस्त. किमनवा अनुयायधिमा वस्तारिकरूपनकटापकिया । पटवलोकव्यवहार. पधमन्तर्गत तम्यबाटनग्राहक प्रमाणभुपरभ्यने, मतमय अप्रत्या प्रमाणावर गावात् । प्रगागमन्तरा च विचास्य कमशक्यत्यात । प्रत्यक्षागाचरम्य लोकव्यवहाग्गुनचादय कल्पिनत्व मान्यचमभ्युपगन्द्र गोमत्यभिरायः । न बैषां व्यवहारदुनयावलम्चित्वं स्वभनादेनेवाला है । जब कि तमांगुण विपादात्मक एवं गुरुभूत है, जिसकी वजह जदता उत्पन्न होती है। परस्पर विरुद्ध एम गुणों की साम्य अबाया की भननवाली प्रकृति का स्वर्णकार करनेवाला मान्य यदि अनकान्नबाद का उन्मूलन कग्गा तब ना नह बुद्धिशालिनी में गम्य न होगा, क्योंकि अनेकानबाट का उच्छंद करने पर स्वाभिमन प्रधानमन्त ( प्रकृति) का विलग हो जायेगा । पकानयाद में विरुद्ध सत्त्वगुण-रजोगुण-नांगण का एक भी में समावेश ही कैसे हो सकता है ? विगड धों का एक धर्मी में समावेश करना ही तो अनेकान्नबान का प्रतिविम्ब है । अतः अनकान्नबान का उच्छद करने पर प्रधान नन्त्र का ही उच्छंन हो जान से जिम गामा पा वर हैं. ताका कारने की कुशलता मांगन्य का TH हो जायगी ! मुलकारिका में मान्यवनां' पर जो पए। विनि है उसका अर्थ है निर्धारण । अधांत वृद्धिशालिओं की मध्य में गांव यदि मुख्य हांगा, तब अनकान्नवाद का निरंग नहीं ही कंग्गा ।१।। इस तरह १: जी कारिका के द्वारा अनकानाबाद में मांस्य की मम्मति बना कर मुलकार श्रीमदजी 'यहाग्नयाभास के अनुसारी पत्रं सबल आस्तिक दर्शनधादिओं ग गाहा लोकायनिक - नास्तिकों का अनकान्नवाद में संगति या अनमनि में क्या ?' इग गागा गे उनका अवगणना का ५ वीं काग्किा ग आविष्कार करते हैं। कारिका का अर्थ निम्गंक्त है। * If | ehalkitleft पलक, आत्मा. मात्र के विषय में ही जिमकी वद्धि मूह बनी हुई है से चायांक . नास्तिक की सम्मान या विप्रतिपति को टूटने की आवश्यकता है। नई ॥११॥ ।
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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