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________________ ६२५ गत्यमा ३ मा. ९. *पनि भाषास्त्रस् अकतयोपयुज्यते, न तु शब्दार्थ सम्बन्धतथा । व्यवहारादपि वाच्यवाचकभावः एव शब्दार्थयोः सम्बन्धः । तदेवं शबलवस्त्वभ्युपगम एव स्यादवादिनां श्रेयानिति प्राचां पद्धतिः ||९|| अथाने कान्ततादप्रामाणिकतां कापिलमतेवाऽपि संवादद्यति 'इशिति । इत्छन् प्रधानं सत्वाचेविरुदैर्गुम्फितं गुणैः । साख्यः सङ्ख्यावतां मुख्यो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ||१०|| सत्ताधैः = सत्वरजस्तमोभिः तिपीत्यप्रीतिविषादात्मकतया लाघवोपष्टम्भ-गौरवधर्मतया च विलक्षणस्वभावैः, गुणैः सुम्पिं तत्साम्यावस्थात्वमापन्नं, पधानं (इचम् ) अङ्गीकुर्वन् ॐ जयलता उपयुज्यते न तु शब्दार्थसम्बन्धया न सकेतस्य शब्दार्थसम्बन्धत्वम् । तदुक्तं प्रमाणनयतत्वालीकालङ्कारे' स्वाभाविक सामर्थ्य समयास्यागर्धबोधनिबन्धनं श(प्र.न.न. परि ४ / सु. ११) इति । ननु शक्ति संकेतयोः की विशेष उच्यते विशेष एव शक्तिः न तु शक्तिमात्रम् । न भापारहस्यस्वोपज्ञविवरणं शक्ति न सकेमात्रं किन्त्वनादिः शास्त्रीयोऽवाधित संत इति । अत्रत्यं तवञ्चत्कृत मोक्षरत्नाऽवग . = - प्रकारान्तरेण शब्दार्थसम्बन्धं दद्यायति व्यवहारादपि, = 'इदं पदस्यार्थस्य वाचकं वा एतच्छब्दवाच्य इत्याद्याकारकलोकव्यवहारादपि वाच्यवाचकभाव एवं शब्दार्थयोः सम्बन्धः न लोहादिः । उपसंहरति तदेवं = शब्दार्थयोः तान्त्रिकसम्बन्धसिद्धेः विवक्षितवाचकापेक्षा पदार्थ मायलं तदन्याभिधानापेक्षया चानभिलाप्यत्वमिनि शवलवस्त्वभ्युपगमः = एकत्वानेकत्वाऽभिलावानभिलायन्नादिनानाधर्मक तिपदार्थ कारः एव स्याद्रादिनां श्रेयानिति प्राचां = पूर्वाचार्याांगा. पद्धतिः । एतद्विस्तरस्तु स्याद्वादरत्नाकर - कल्पलतादितोऽवसेयः ||५|| प्रकरणकृतंव (भा.र.गा.२४ टीका. १.५११ ai engi létezi, onlangig comentari विधारथने नथाज्ये जमे वृतिरियं महारती - दामकारिकाप्रस्तावार्थमुपक्रमते अथेति । अयानयति सत्त्वार्थः = सत्त्वरजस्तमोभिरिति । विरुद्धैः = प्रीत्यप्रीतिविषादात्मकतया लाघवीपम्भवतया व विलक्षणस्वभावैरिति । सत्वं प्रीत्यात्मक कार्यहेतुद्गमनहेतुलाचचसमंतच रजीतरह शब्द और अर्थ के बीच पारमार्थिक सम्बन्ध सिद्ध हो गया तब तो घटादि अर्थ में प्रतिनियत घटादिपद की अपेक्षा अभिलाप एवं पटादिपद की अपेक्षा अनभिलास्यत्व धर्म रहेगा ही । अतः वस्तु में एकान्त से अनभिदाय का बोद्धसिद्धान्त अप्रामाणिक सिद्ध होता है । एवं अभिलाप्य अनभिलाप्य उभयात्मक होने से वस्तुमात्र शवन्द = चित्र यानी अनेक परस्पर तिया भासमान धर्मो से यम है यही स्वाहादियों का सिद्धान्त प्रामाणिक है। कर्पूर वस्तु सिद्ध करने की यह प्राचीन जैनाचार्यों की एक अनोखी निजी पद्धति है || || इस तरह ९ ची कारिका का विवेचन पूर्ण हुआ, जिसमें मुख्यतया नैयायिक और वैशेषिक की चित्ररूपानुरोध से स्याद्वाद में सम्मति का प्रदर्शन किया गया है। यह अभी हम देख चुके हैं। अब मूलकार श्रीमद् हेमचन्द्रसूरिजी महाराजा कापिलमत यानी सांख्यदर्शन के पुरस्कार से भी अनेकान्तवाद की प्रामाणिकता को सुसंवादित करते हैं। देखिये दसवीं कारिका का सामान्य अर्थ: अनेकान्त में सांख्यसम्मति १० वीं कालिका गन आदि विरूद्ध गुणों से व्याम ऐसे प्रशन तत्त्व का अभिलाप करनेवाला बुद्धिशालिओं में मुख्य सांख्य मनीषी भी अनेकान्तवाद का प्रतिषेध कर सकना नहीं है ॥१०॥ प्रकरणकार महोपाध्यायजी महाराज १० व कारिका की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि सांख्य विद्वान् प्रधाननामक एक तन्त्र का स्वीकार करता है जो सत्त्वगुण, रजोगुण एवं तमोगुण की साम्य अवस्था स्वरूप है। सत्वगुण प्रीत्यात्मक एवं लघु है। रजोगुण अप्रीतिस्वरूप एवं उपलम्भक= निष्क्रिय ऐसे सत्व और तमोगुण को अपने कार्य में उत्साह
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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