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|| श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः ||
अवतरणिका
"मेरी कृति क्यों पसंद नहीं आई ? क्या वह मौलिक एवं अच्छी नहीं है ?'
"जी हजरत ! वह मौलिक भी है और अच्छी भी। किन्तु इस कृति का जो भाग भौलिक है वह अच्छा नहीं है और जी भाग अच्छा है वह तनिक भी मौलिक नहीं है
मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्ड :
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पर्युक्त प्रसन में एकान्नयादी के सिद्धान्तों का प्रतिविम्व निहित है। उनमें तनिक भी मौलिकता नहीं है या आंशिक भी समानता नहीं है ऐसा नहीं है किन्तु उनमें जो मौलिकता है वह मिथ्यात्व एवं कुतर्कण्टक और कुयुक्तिस्वरूप कंकड़ों से व्याप्त होने के सबब भयावह है और उनमें जा समाई समीचीनता है वह मौलिक एकान्तवादनिर्मित नहीं है, अपितु जनकान्तवाद पर अवलम्बित है। एकान्तवाद में उपलब्ध मौलिकता एवं सत्यता विश्वल है, क्योंकि यह मीतिकमा मिध्यात्वत्रयुक्त है और सत्यना अनेकान्सवादप्रयुक्त है, द्वादशाङ्गीमूलक है। जैसे प्राज्ञ प्रेमीजन इत्र की आमोद और कृत्रिम आकार होने पर भी मौलिक जड़ता एवं प्राणहीनता के सवव कागज के फूलों के ग्राहक बनते नहीं हैं ठीक वैसे ही प्राज्ञ मुमुक्षुजन भी स्वचित् स्याद्वादस्वीकारमूलक मत्वना एवं सरस्वतीप्रसादप्रयुक्त तर्कगर्भितला होने पर भी मौलिक मिध्यात्व एवं के सिद्धान्तों के उपासक बनते नहीं हैं। जब कि अनेकान्तवाद में उपलब्ध मौलिकता तथा मन्पना ठीक वैसे ही व्याप्त है जैसे प्राकृतिक गुलाब में निहित सौंदर्य और सुवास अतएव परमात्मप्रेमी मु सापेक्षवादस्वरूप सुमन मे सचिदानंदस्वरूप परमेश्वर की पूजा पर्युपासना किये बिना रह नहीं सकते। परदर्शनी के एकान्न सिद्धान्तों में जी क्वाचित्क कादाचित्क सत्यता उपलब्ध होती है वह भी मौलिक सम्पक सापेक्षवाद पर ही निर्भर है। यह निरूपण कलिकालसर्वज्ञ श्रहमचंद्राचार्यजी ने वीतरागस्तीय के अष्टम प्रकाश में किया, जिसके रहस्यार्थ ऐदम्प की व्यक्त करने के लिये महापाध्याय श्रीमद् पशाविजयजी महाराज ने स्याद्वादरहस्य नामक तीन विवरण ग्रन्थ बनाये
मध्यमपरिमाण स्याद्वाद रहस्य ग्रन्थ के दो खण्डों का प्रकाशन होने के बाद तृतीय खण्ड वाचकवर्ग के करकमल में प्रस्तुत हो रहा है, जिसमें पूर्वचन उपलता (संस्कृत टीका) एवं रमणीचा (हिन्दी टीका) का समावेश किया गया है। वीतरागस्तांन के अष्टम प्रकाश की ९.१०.११.१२वीं कारिकाओं का विवरण प्रस्तुत तृतीय खण्ड में समाविष्ट है। वीं कारिका में चित्रप का स्वीकार करनेवाले वैशेषिक एवं नैयायिक भी स्वाद्वाद का स्वीकार करते हैं। इसका निर्देश पल है। इस कारिका में निहित रहस्यार्थ का चंतन श्रीमदजी ने नत्र्य न्याय की पारिभाषिक पदावली में हृदयंगम वाली से किया है। यद्यपि साम्प्रदायिक प्राचीन नैयायिक एवं वैशेषिक जिस पद्धति से स्वतन्त्र चित्र रूप का प्रस्थापन करते है उसमें अनेकान्तवाद का प्रतिविम्ब अदुष्टचर है तथापि नीलपीत रक्तादिकपाल से आरब्ध घट में नीलपीताभवजन्य चित्ररूप निरवती भवजन्य चित्ररूप आदि अनेक चित्र रूप का स्वीकार करनेवाले नैयायिकदेशीय के मत में तो अनेकान्तवाद का अङ्गीकार अनिवार्य ही है
इस विषय का महोपाध्याय ने अप्रतिम प्रतिभा से प्रतिपादन किया है। चित्ररूपविषयक विशेष विवेचन के लिये श्रीमदजी ने स्वरचित व्यत्ययाद और चित्ररूपप्रकाश का अवलोकन करने की सूचना की है। साम्प्रतकाल में श्रीमदजी का समवादगर्भित वादनामक ग्रन्थ उपलब्ध है जिसमें प्रथमपाद है चित्ररूपप्रकाश व्यापवादार्थ ग्रन्थ अभी अप्राप्य है। इनके अलावा स्याद्वादकल्पलता (स्तबक्र. ६. कारिका, ३७), नयापदेश, आत्मख्याति आदि श्रीमदजी के ग्रन्थों में भी चित्र रूप का विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। चित्र अमंद, सामान्य विशेष, उपसर्जनत्य अनुपसर्जनत्व, वाच्यत्यावाच्यत्व आदि के विरोध का परिहार शब्द और अर्थ के बीच संकुलनामक सम्बन्ध के स्थान में वान्यवाचकभाव सम्बन्ध का स्थापन कर के वों कारिका का विवरण समाप्त किया गया है । मिश्रः विरुद्ध सत्त्वगु का अपलाप कर नहीं मना
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मांगा के पश्चात् भेद किया गया है। अंत में
रजांगुण, तमोगुण से घटित प्रकृतितत्त्व का स्वीकार करनेवाला सांख्य मनीषी भी अनेकान्तवाद इस विषय का संक्षित निरुपण १०वीं कारिका एवं उसके विवरण में उपलब्ध है । ११वीं कारिका में परलोक, आत्मा, मोक्ष के बारे में भ्रान्त नास्तिक के मत की उपेक्षा की १. दिव्यदर्शन ट्रस्ट की प्रस्तुत माला ग्रन्थ का प्रकाशन हो चुका है, जिसमे गतिश्री पशविजयी हेमरता (संस्कृत टीका एवं चहा (हिन्दी) टीका का समावेश किया गया है।
कलिकालसर्वज्ञजी
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