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________________ मध्यमस्याबादरहस्य खण्ड: है मगर श्रीमदजी ने मन की कड़ी समीक्षा की है । पृथ्वी आदि भूतचनुष्क में रिक्त आत्मतन्त्र का स्वीकार आवश्यक है. यह सिद्ध कर के प्राचीन नास्तिकमत का संक्षेप से जा निराकरण यहाँ किया गश है वह स्याद्वादरत्नाकर. धर्मसंग्रहणी, स्याद्वादभंजरा आदि प्राचीन ग्रन्थों में विस्तार से उपलब्ध है । नव्य नास्तिक का मत यह है कि --> 'अवच्छेदकलासम्बन्ध में डादि के प्रति अवच्छेदकतासम्बन्ध से कारणीभूत शरीर में लाघव से तादात्म्यसम्बन्ध से ही कारणता का स्वीकार सङ्गन है, जिसके फलस्वरूप शर्गरानतिरिक्त आन्भद्रव्य की सिद्धि होती है। एवं अनुमिति भी मानस प्रत्यक्षात्मक ही है, न कि प्रत्यक्षभिन्न मा <- किन्तु श्रीमद महोपाध्यायजी ने अपना प्रकाण्ड प्रज्ञा से नव्यनास्तिक मत का निराकरण कर कं. आत्मा का दागा भिन्न एवं अनुमिति की मानस प्रत्यक्ष से भिन्न सिद्ध की है । इस विषय का भी विस्तार से निरूपण स्यावादकम्पलता में प्रथम स्तबक एवं न्यायालांक में श्रीमदजी ने किया है। प्रासङ्गिक रूप से दिशा और आकार में अभेद का (पृष्ठ ६८५.) श्रीमदजी ने निम्पण किया है । तत्पश्चात् शब्द में व्यत्व की सिद्धि के प्रमग में दाद को पवनगुण माननवाले नव्यन यायिक के मन का उन्मूलन किया गया है । आगे चल कर शब्द का नित्य माननंगलं मीमांसकों के मन का गचं गन्द को अनित्य माननेवालं नैयायिकों के मत का प्रतिपादन एवं प्रत्याख्यान कर के शब्द में नित्यानित्यत्व की सिद्धि की गई है (पृष्ठ ७३६) । तदनन्तर मन का अतिरिक्त सिद्ध कर के 'धर्म - अधर्म - आकाशजाँच - समय - पुद्रा ट्रय ह' इस जिनीवन द्रव्यविभाग की समाचानता स्थापित की गई है, (एप्प ७३९-७४३) । द्रव्यविभाग निरूपण के प्रसङ्ग में यहाँ जमा उदयविधेयभावनिरूपण उपलब्ध है. जहाँ तक हमारा ग्ल्याल, वैग उदेश्यविधेयभाव का मूक्ष्म प्रतिपादन अन्यत्र अपव्य है (गृष्ट ७४ पृष्ट ४.४।। जात्मा में चैतन्यात्मकता की मिद्धि के प्रसङ्ग से ज्ञानानात्मक आत्मग को मानने वाले मान्यनन का (पट ७६ } एवं ज्ञाना-ज्ञानामथस्वभाव आत्मद्रव्य के प्रस्थापक भट्ट के मन का (पृष्ठ ७६.७) निराकरण किया गया है। बाद में आत्मा को परिणामी, कर्ता और साक्षात भाका सिद्ध कर के योग - सांगव्य - भट्ट मत का निगन किया गया है (पृष्ठ ७७.) । तत्पशान ८१ इलाकों में नैयायिकादिगम्मत आत्मविभुत्वबाट की सूक्ष्म समीक्षा की गई है (पृष्ठ ७७०-८१७) । तदनन्तर आत्माद्धतमत का निराकरण कर के अनेक आत्मा की सिद्धि की गई है (पृष्ठ ८२) और अनुप पौगलिक है' इस बात का निर्देश (पृष्ठ ८२६) किया गया है । आगे चल कर माक्ष के प्रति समुचित ज्ञान और क्रिया में मोक्षकारणता का प्रतिपादन कर के विस्तारार्थ स्वकृन ज्ञानकर्मसमुचयवाद की देखने का निर्देश किया गया है। हमारा सौभाग्य है कि महोपाध्यायकृत नयापदा ग्रन्थ की स्वीपज्ञ नयामृततर्राङ्गणानामक विनि के अन्तिम भाग में ज्ञानकर्मसमुचयवाद संपूर्णतया उपलब्ध है । बाद में प्रसङ्गसङ्गति से अन्यथासिद्धि की मननीय नीमांसा श्रीमदी ने की है। हमारा दर्भाम्प है कि पाँचवी अन्यथा मिद्रि के प्रतिपादन का प्रारम्भ होने के पश्चात श्रीमदजी का यह मध्यमपरिमाण +पादादरहल्यनामक विवरणग्रन्थ मूलादर्श में भी अनुपलब्ध है । इस (अन्यथासिद्धि) विश्ण का निरूपण वादवारिधि आदि ग्रन्धों ग ग श्रीमदजी की अनेकान्तब्यवस्थानामक. कृत्ति में विस्तार में उपलब्ध है, जिसके अनुसार मन त्रुटित व्याख्या का अनुसन्धान कर के ११वीं कारिका की मूल व्याख्या पूर्ण करने का प्रयत्न किया है और उसकी भी जपलता (संस्कृत टीका) और रमणीया (हिन्दी टीका) में निवेचना की है। १२वीं कीरिक + गोम्सदृष्टान्न से उत्पाद-यय-धान्य का प्रत्यक वस्तु में व्यापकता का, जो सर्वज्ञकथिन है, स्वीकार सत्सरीक्षाकुशल व्यक्ति । -इस विषय का प्रनिगढन कर के मूलकारश्री ने अष्टम प्रकाश का उपमंहार किया है । मगर प्रस्तुत मभ्यमानाय गावाटरहस्यनामक विवरणग्रन्थ त्रुटित होने की वजह १२वीं कारिका विवरण में अलङ्कत नहीं है। अनार ग्रन्धान ग १२ वी कारिका की लयुगरिमाग स्याद्वादरहम्य में जो व्याख्या उपलब्ध है, वहीं यहाँ मध्यमपरिमाण ज्यादादरहस्य नामक बरिन वारणमन्य के अनुसन्धान में मंने समाविष्ट की है, और उसका भी विवचन जयदता और रमणीया में किया है। टीमादयसपनाबारे में गरहितांगरत गगनाव पूज्य गुरुजनों का आदिप ल कर वि.सं. २: महा सुद ? के इशभ दिन सुबह करी ५समय पर मदार आगमनाभग्न में स्वादादरम्य ग्रंथ पर जयस्ता टाका प रमणच्या व्याख्या के मर्जन का श्रीगशा १. दिशादर्शनरस्ट की ओर से महापाभ्याप रानत पाहार इंच का प्रकादान हो चूका है. जिन गाना चोधितपनन भानुमती (सम्कृत) का न निदा पनी (गजगता) पाय गमावर है ।
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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