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________________ मध्यमस्याद्वादरहस्य खबर:-३ हुला । अध्यापन आदि कार्य में अधिक कायम रहने की वजह मंत्र मास तक प्रथम खंड के कंबल १४ पृष्ठ तक लखनकार्य हुआ । मत्र मास में मद्रास स कोईम्बतर की और पूज्य विद्यागुरुदेव निराजश्री जयसुन्दरविजयजी म.सा. (वर्तमान में पन्यामप्रवर) की पावन निश्रा में बिहार का शुभारंभ हुआ और विहार काल के दौरान प्रथम खण्ड के पृ.४५ से पृ. ५. नक व्यायाधर का निर्माण हुआ । 'परमपूज्य वर्धमाननगनिधि दादागुरुदेव श्रीमविजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महागज की पवित्र निश्रा में काईचतुर में चातुर्मामनवर स लंकर मासक्षमण (३१ उपवास) तपश्चर्या की पूर्णाहति पर्यन्त व्याख्याद्वयसहित पृ.१.१ म पृ.१८ तक लपवन हुआ । गतुगर के गप भाग में प्रथम खण्ड का अवशिष्ट कार्य (पृ.१८१ में पृ.२१७ क की दानां व्यारन्याओं का गर्जन) समा । बानुर्मास के बाद कोईम्बतर से इरोड़ होकर महामास में बंगलोर हुंचे जयक विका * चार दिनीन बाट के पृ.२१८ म पृ.५२. तक टीकाद्वय का कार्य हुआ । तत्पश्चान वनलार मं प्राय: ५ माम की स्थिरता के काल में .: तक दोनों विचनाशा का सृजन हुआ । बाद में बैंग्लोर सं हुबली की और बिहार काल के मध्य में प....५ तक दोनों ज्याच्या ओं का कार्य सम्पन्न हुआ। परमपूज्य दादागमदेवश्री का धन्यनिश्रा में हुबलीनगर में चानुमामाचा में सिद्धि नष का शुभारंभ किया और उसकी समाप्ति तक नृतीय ग्बण्ड के ...... स पृ.७, तक दानां व्याख्या का आलंग्वन हमा । उप चन्नुमास के शेष भाग में प्रस्तुत तृतीय खण्ड के .. ..... नक दाना टीकामा पर्जन के साथ वि.सं. १८ कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा के दिन सुबह टीकाइयकार्य समाम हुआ । प्रतिदिन प्रायः / घंटे तक संयमीओं के अध्यापन कार्य को मुग्ध कर के जो समग चरता था उसम. २१ नाम की कालिक अवधि में, उपयुक्त जयलता एवं रमणीया दानों व्याच्याओं का सृजन एवं समापन हुआ। इसमें पाद गुरुजनों की महती मा एवं महाले आशिष ही प्रधान कारण है. अन्यथा इतना लम्बा • चौडा जटिल कार्य करना मा बस की बात ही कहाँ ? न्यारन्यादयस्वरूप बडे हिमालय के एयरस्ट दिखिर तक पहुंचना मेर जन पंग जन के लिये स्वप्न में भी नामुमकिन था । माना कि गुरुजनों की कृपाग्यमय रॉकंद / मुनिक को पाकर मैं वहाँ तक पहुंच गया, जिसके बाद आनंद की कोई अवधि ही नहीं रही । कुलकर के कुल १,७८. का मंग हस्नलिखित मंटर मुद्रण के तानां वण्डों में मिल कर ८८५ प में समाविष्ट है । महल मुहूर्त में गारंभ के पश्चात टीकादय का सर्जन कार्य नियमित रूप में आगे चलता रहा और बीच में प्रायः किसी भी विग्न न रुकावट नहीं इाली . सा गुरुजनां की गर्यपास्ति एवं प्रभाव का अनुठा फलास्वाद करने का सहभाग्य पत्रं सद्भाग्य मिला. जिससे प्राप्त आनंद के अनुभव की शब्दावली में बांध कर विज वाचकवर्ग के सामने पेश करने के लिंग में असमर्थ है । जब गांव : उUPICHAR नव्यन्याय की गई परिभापिक पदावली में गर्भित नवीन अकाट्य तकंजाल से जिस ग्रन्थ का प्राय: प्रत्यक पवित न्याम है. ग अनिटिल प्रस्नल ग्रन्थ की संस्कन और हिन्दी का का सर्जन एवं संपादन करना में वास की बात ही कहाँ ? किन्नु स्वर्गस्य सिद्धान्तमहोदधि मूरिशिगर्माण सुविशालगन्चाधिपति गहाणु अमणी भगवान प्रेममूरीश्वरजी महाराजा * पट्टारकार संघहिचिन्तक न्यायविशारद वर्धमाननगनिधि गच्छाधिपति दादागुरुदेव श्रीमदविजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महागजा के मङ्गल आदि में दाकर कार्य भी खुकर बन गया । मो जीवन में गुरुकृपा का या गव में बहा कल्पनानीन चमत्कार नि:सन्दिग्धता में कहा | मकन। ।। आपके पट्टालङ्कार सादिवाकर सुविशालकमंग़ाहित्यगर्जक समतारागर गरिवर श्रीमदविजय जयघोपसूरिजी महागज की भी मल अवसर पर कैसे चमर सकता है जिनकी कृपा म एवं अगलय मार्गदर्शन से हमाग संयमवश्ग सदा प्रसन्न - प्रफुलिन जी पाया रहा है । माम भवाध में इवता हई हमाग मा का, अनि पाग की एमाह किये बिना नियाजकृगारज दादा कर के रमणीय रत्नत्रय का दान करने वाले सामानावर पविजयजापानमा कायमचंगगा सुन्निर हेमचन्द्रग्जिी मसान की निर्धासिकता की काय मूल मकना : प्रस्तन ग्रन्य के प्रथम खण्ड क संशोधक तकसमान पतामवाप्रतिनाममात्र विद्यागुरुदेव पंन्यासप्रवर श्री जयसुन्दरविजयजी गणिवर मार्गदर्शन मंशाचनमहायता के चिना में यह भगारय कार्य कर हांगिल कर सकता ?
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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