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________________ ६२, * कवरत्वेन ना पा सम्भवः * तरिता एवं सति केवलज्ञानदर्शनयो: सामान्यविशेषयोरुपसर्जनाउनुपसर्जनत्वानुपपत्या ताज्ञानदर्शनलक्षणाऽव्याः । न हि केवलिया संकासानिलिया सोम्मिलनानुमिलने सम्भवतः, अभिप्रायविशेषरूपस्य जयस्य छद्मस्थज्ञान एवोपयुक्तत्वात् ।। -* Alrll *लम्यते । गुमाशाने तु मुख्यत्वन निशेषग्राहकल्पस्या:पि सन्चत्र मुरून्यत्वन सामान्यमा त्रग्राहकल्यम्वरूप दर्गनलक्षणं बर्तन इति न दर्शनलक्षगातिन्याप्तिः । या विशेषग्राहकनयान मिलनाबृनवीधत्वं दर्शनलनगं विशेपनाहकनयोन्मिलना वृनयोधन्न ज्ञानलक्षणं, नन न मात्रपदनिवेशगौरवम । समालोचयनि तचिन्न्यमिति । छायन्थिकागदपक्षमा प्रकृतलक्षणयों: समाचानचंग्यच्यापकत्वाचिन्ताबी जमाबंदयान - पवं सति = उन्मिरितस्यनारमनविषयत्वस्य मग्न्यत्वं विपरीतन्यग्य वापसजनवागन्यवगन्दगगां गांन, कंवलज्ञानदर्शनयां: सामान्यविशेषयाः = करस्नानदर्शनविपर्यानसामान्यचिगवांझायाः, उपमर्जनानुपमर्जनत्वानुपपन्या नत्र - कंवलकानदारांनाः. ज्ञानदर्शनलक्षणाव्याते: । कवलज्ञानविपर्याभृताच उन्मिदितम्यग्रहकनारपयत्वरक्षणमुख्यत्वम्य कंग्लज्ञानविषय भृतसामान्य चानुन्मिलितम्भग्राहकनायविषयत्ता पोपस जनावरपा प्रपत्चात विशयग्राहकनयामिलनाप्रपला पत्तागस्य सामान्यग्राहकनपानुन्मिलन - प्रवृत्तयो धत्वस्वरूपरय वा जानलक्षणस्य केवलन्नान व्याप्तिः । एवं कंबलदर्शनीवरीत मामान्य जन्मिालिनम्वग्राहकलाजपय - त्वात्मकमन्यत्वस्य विदात्र चानुन्मिलितम्यग्राहकनविषयत्वस्वरूपांगरा जगत्वस्य विरहात विरग्राहकनानुनिगलनग्रवनबंधनात्याकरण ग:मान्य ग्राहकनया मिलनाचनबाधत्वरवरूपस्य वा दानलक्षणस्य केवाइटदानाच्या मः । तामेत्र स्पष्टयत्ति न हि केवलिना मंवेदने क्रमकतग्प्रवृनिनियामक नयांन्मिलनानुन्मिलने सम्भवतः, अभिप्रायविटापरूपस्य नयस्य छद्मस्थज्ञान पापयुक्तत्या| दिनि । नयान्मितनं तदनुम्मिलन क्रमग ज्ञानदर्शनान्यनग्रनि व्ययम्धागयत: : परन्न नयम्याभिनायबिंदापम् पवना मनवाय यह असंगन है, क्योंकि दर्शन का लक्षण केवल इतना ही नहीं है कि मुग्यत: सामान्यग्राहकांधत्व किन्नु मुख्यतः सामान्यमात्र का ग्राहक बांधन्य ही दर्शन का लक्षण है। प्रमाण ता सामान्य और विज्ञप दोनों का प्राधान्यन ग़ाहक है, न कि प्राधान्यन मामान्पमात्र का । अतः प्रमाण में दर्शन के लक्षण की अतिच्याति का अवकाश नहीं है <-। तचिन्त्यम । मगर यह वक्तव्य भी ऑस्व मैंद कर बिना सोच ममता के उपादय नहीं है, किन्नु विचारणीय है । | इसका कारण यह है कि उमको मान्य करने पर केवलज्ञान में ज्ञान के लक्षण की एवं कवलदर्शन में दर्शन के लक्षण की अन्याप्ति आयेगी। यह इस तरह-केवलज्ञान विशेष का अनुपसर्जनत्व में और सामान्य का उपसर्जनत्वन ग्रहण करना है । फिर भी केवलज्ञानविषयीभूत विशेप में मिलितविशेपनाहयानविपयना नहीं होने में तत्त्वम्प मुग्न्यान्य नहीं है। एवं केवलज्ञानविपयीभून सामान्य में अनुमिलिनसामान्यग्राहक नय की विपयता नहीं होने में तस्वरूप उपमननन्य नहीं है। जबकि केवलज्ञानविषयीभूत सामान्य और विशेष में क्रमशः उपमनन्त्र और अनुपमनत्य ही नहीं है व उपमनान सामान्यग्राहकस्य एवं अनुपम नन्न विशेपनाहकत्वग्वरूप ज्ञान का लक्षण ही फंसे रहेगा ! अतः कंचनजान में ज्ञानन्नमण की अन्याप्ति आयगी 1 इस तरह केवलदर्शन के विषयभूत मामान्य में उम्मिलितगामान्यग़ाहक नय की रिपयनारवरूप मुख्यत्व एवं केवलदान के विप्पभूत विमाप में अनुन्मिलित विशेषगाहक नय की विपयनात्मक समजनत्व नहीं होने की वजह प्राधान्यन सामान्यमात्रग्राहकत्वस्यरूप दर्शनलक्षण ही नहीं रहेगा । अतः केवलान में भी दर्शन के लक्षण की अध्यामि प्रायगी । यहाँ यह शंका नहीं करनी चाहिए कि -> 'केवलज्ञाननिषयीभुन विशेप और कंबलदानविषयीभून सामान्य में उमिलिन खशाहकनय विषयता एवं केवलज्ञानविपर्याभून मामान्य और केवनदर्शन विषयीभूत विशप में अनन्मिदिनम्वग्राहकनयविषयता क्या रहता नहीं है ? <- इसका कारण यह है कि ऋमिक ज्ञान और दर्शन की प्रवृत्ति के नियामक नय के उन्मिलन आर अनुमिलन कलिगचंदन में नहीं होते हैं। नप नो अभिप्रायविडोपान्मक है। अनच छद्मस्या के ज्ञान में ही दृष्टिकोणविशेगात्मक नय का उपयोग होना है. कवली के ज्ञान में नहीं । अनः नय के जन्मिन्न और अनमिसन ग टिन अनुपसर्जनत्व आर उपमजनत्व: कचरतानदर्शन के विषयभूत भामान्यविशेष में नागमकिन हान म नदघाटन ज्ञानदर्शन के लक्षण भी कंबल ज्ञान और कवल दर्शन में नंगत नहीं हो सकने । अनः उपसर्जनत्व और अनुपमजनत्य की जादा व्याया ममाचीन नहीं है . यह फालन होता है। अन्य गति में भी उपभर्जनन्द और अनुपगर्जनल की निक्ति नहीं हो सकती है - यह हम अभी विवचन कर आये है । अत: उपसर्जनत्वेन मामान्यग्राहक को ज्ञान कहना और नाम नायन विटोप के ग्राहक का दर्शन कहना भी अमंगत है ।
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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