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________________ ८६४ मध्यमस्या दादरहस्ये वण्डः ३ . का..? यापकताद्वयगर्भककारणतावाद:* अनुपधायकहेतुसाधारण्याय 'अवच्छेदके'त्यादि। धूमादी रासभादेहेतुत्ववारणाय 'नियतपूर्ववृत्तीति।धूमत्वाधाश्रया यावन्त: प्रत्येकं तत्तदव्यवहितप्राक्कालावच्छेदेन तत्तदधिकरणे विशेष -* जयतता - न्यथासिद्भिनिरूपकनावच्छेदकत्वविरहात् । न चैनस्कपालत्ववत कपालल्यस्याप्येतटा न्यधासिद्धत्वनिरूपकतानवच्छेदकत्वमेवेति वाच्यम्, तथा सति कपालत्ववत: नल्कपालादपि पनवटांतत्त्यापतेः । नन्यन्यथासिद्धिनिरूपकतापर्याप्त्यधिकरण-निरतपूर्ववनित्वस्येव कारणतान्त्रमस्तु क्रिमवच्छेदकपदनिवेशेन ? इत्यादाइकायामाहुः अनुपधायकहेतुसाधारण्याय = धूमादिस्वरूपायंग्यकारणसङ्ग्रहाय 'अवच्छेडक' त्यादि = अवच्छेदकरूपबत्त्वोगदानम् । अन्यथा धूमदिलक्षणफलोत्पनियायनलादाबंब निरूक्तकारणत्वं स्यान, न तु फलोत्पत्त्यव्यायानलादी तदन्यवहितोत्तरकाल भूमाभावेन धमनियतपूर्ववृनित्यस्य तत्र विरद्वात् । न च अन्यथासिद्धिनिरूपकतानबच्छेदककात्तिरवृनिताचच्छंदकरूपयन कारणत्वनित्यवान्यतां किं पूर्वक्तित्वचशनिबंशनात वाच्यम, नथा मति धमध्वंसे धमकारणत्वापनः । न चान्यवहितोत्तरवनिवेशान्नायं दोष इति वाच्यम्. धूगकारणत्वस्य भूमप्रागभावेऽव्यानेः धुमप्रागभावध्यंसे तित्र्याप्तेश्च । न चास्तु पूर्ववृत्तित्वन्विशः किन्न नियतपदं नातिप्रयोजनमिति वाच्यम्, धूमाटी = धूमादिकार्य प्रति रासभादेः हेतुत्ववारणाय 'नियतपूर्ववृत्ती' ति पदस्यापि सार्थकल्यात, नियमतोऽव्यवहितपूर्वकालवृत्तीत्यर्थ: । नेनन व्यवहितानलादरिदानीं धूमजनकत्वापत्तिः न च इमान्यवहितपूर्वकाल क्वचिद्रासमादरपि सत्संदेतासभाद्यन्यावर्तकं इति वाच्यम्, तद्रासमत्वादिना रासभादिव्यावर्तकत्वेनास्य सफन्दत्त्वात, गसमत्वादिना त्व स्थासिझेरवाऽहतुत्वान् । न च तद्रासभल्लादिनापि तत पचाहतुत्वमिति वक्तव्यम्, सद्भूमादिकं प्रनि तद्विद्भदिकालतद्रासनादेः तत्कागासहभृतत्वेन याक्तान्यधासिद्धयभावात. विशेष्यभागमाफल्याय नियतपूर्वनितावच्छेदकेन पन कारणत्वाऽव्यवहारस्तपणे . वान्ययासिद्धयांच्यत्वाच । यद दैशिकव्यापकतावच्छेदकत्वमपि नियनपूर्ववृनिनावच्छेदकाविशेषणं, इत्थञ्च दैशिकव्यापकताशालितजयूमदेमिधाहेनत्यवारणाय कालकव्यापकत्वनिवेशः । अत एव देशक कालिकव्यापकताद्वयगर्भनकमेव कारणत्वमिति वदन्ति । वस्नुसस्तु धूमत्वाद्याश्रया याचन्नः प्रत्येकं तनदव्यवहितपर्वकालापदेन = तत्तत्कात्यिस्यव्यय हेतपूर्वभागावन्दन तराधिकरणे = तत्चत्कार्यनिरूपिन-कार्यतावच्छेदकसम्बन्धावदिनाधेयतानिरूपिताधिकरणतावच्छिन्ने विशेपणतया वर्तमानश्य पर्याज्यनधिकरणत्वात्मक अभिमत है। पनघट की अपेक्षा अन्यथासिद्धिनिरूपकनावच्छेदक कपालत्व से भिनत्व भले ही एतत्कपालत्व में न हो, मगर अन्यमासिविनिरूपकतावच्छेदकत्वपर्याप्ति का अनधिकरणव नो रतत्कपालत्व में रहता ही है, क्योंकि तपदान्यधा-सिद्धिनिरूपकताचच्छेदकत्व केवल एतत्कपालत्व में पर्याप्त नहीं है। इसलिए एतन्कपालन्वेन एतद्घट के प्रति अन्यथासिद्धव की आपनि नहीं है . यह फलित होता है । यदि कंबल अन्ययासिद्धिअनिरूपकन्ये सति नियतपूर्व-वृतित्व को ही कारणत्व माना जाय नर तो धूम को अयवहितोनरक्षण में उत्पन्न न करेनवाले = अनुपधायक हेतु अथांत स्वरूपयोग्य कारण अनि में भूमकारणता न रह सकेगी, क्योंकि उस अग्नि के उत्तर क्षण में धूम उन्पत्र नहीं होने की वजह उस अग्नि में कार्यनियतपूर्ववृत्सित्व नहीं रहता है । फलानुपधायक हेतु के संग्रहार्थ अवछेदक का ग्रहण कर के उपर्युक्त कारणतास्वरूप का निर्वचन करना जरूरी है। तब कार्योत्यत्त्यन्याय अग्नि आदि हेतु में कारणता की अनुपपत्ति नहीं होगी, क्योंकि फलानुपधायक अग्नि में नियतपूर्ववृत्तित्व न होने पर भी वह धमनियतपूर्वनिअग्रिसजातीय होने की वजह नियत-पूर्ववृत्तिनावच्छेदक धर्म अग्नित्व हो अनि में रहता ही है। अत: उसमें धूमकारणता की असंगति = अनुपपनि अव्याप्ति नहीं है । पति केवल अन्यथासिद्धिनिरूपकतानवच्छेदक-पूर्ववृनितावच्छेदकरूपवत्त्व का कारणत्व कहा जाय तब तो धूम के प्रति रासभ आदि भी हेतु बन जायेंगे । मगर रासभ धूम के प्रति नियमन अव्यरहितपूर्ववर्ती नहीं है। इसलिए उसमें धूमादिकारणत्व के परिहागर्थ नियतपूर्ववृत्तित्व का ग्रहण किया गया है। नच रासभ में धूमादि की कारणना की आपनि को अवकाश नहीं रहता है । परिवार कारणत्वलक्षण -यायिक धूमन्या. । मगर वास्तविकता को लक्ष्य में ली जाय तच नैयायिक की ओर से कारणना का यह स्वरूप कहा जाता है कि कार्यतावच्छेदकीभूत घूमन्वादि के जितने भी आश्रय = अधिकरण धूम हैं उनमें से प्रत्येक की अव्यवहितपूर्वक्षणावच्छेदेन उनके = धूमादि के अधिकरण में स्वरूपसम्बन्ध - विशेणनाविशेषसम्बन्ध से जो अभाव रहता है उस अभाव की कारणतावच्छंटक तत् तत् सम्बन्ध से अवच्छिन प्रतियोगिता का अनवोदक जो धर्म है नहत्त्व ही विवक्षित कारपना है . यह निहितार्थ है । जैसे धूमयावच्छिन सकल धूम में से प्रत्येक धूम के आश्रय पर्वत, चत्वर, महानस आदि में रहनेवाला रासभअभाव घटाभाव, पदाभाव आदि होगा, जो संयोग आदि तत् ततं कारणतावच्छेदक सम्बन्ध से अवच्छिन्न प्रतियोगिता का निरूपक
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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