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________________ ५६८ मध्यमस्याद्वादाहस्थे खण्ड: ३ का. १४ * भावस्वरूपा: ज्ञानानीकारः ** स्थादभिमतमेतत् आत्मत्वावच्छेदेन प्रकाशो द्रव्यत्वावच्छेदेन चाप्रकाश इति, मैतम्, एवं सति सर्वशोऽपि 'मामहं न जानामी 'ति जानीयात् । ततो य एवं जानाति तत्र ज्ञानपदं चाक्षुषादिपरम् । * जयलता है समावेशात् । न हि वृक्षे एकावच्छेदेनेव कपिसंयोग-तदभावसमावेशी दृष्टचरः किन्वच्छेदकभेदेनेव । ततश्च ज्ञान- तदभाववी'रात्मन्य भिन्नात्मप्रदेशावच्छेदेन समावेशोऽपि निशितवरधारकरालविरोधकुठारहारजर्जरित एव । नचाज्ञानं न ज्ञानाभावः किन्तु भावान्तरमेवेति वाच्यम्, भावात्मकस्याज्ञानस्य ज्ञानविन्दाचंच मधुसूदनमतसूदनेऽपास्तत्वात् भावान्तरस्वरूपाज्ञानस्वकारे नवापसिद्धान्ताच । ततां नात्मनि ज्ञानाज्ञानोभयस्वभावकल्पना श्रेयस्करी | भट्टा: शङ्कन्तं - स्यादभिमतमेतत् यदुत आत्मनि आत्मत्वावच्छेदेन प्रकाशः = ज्ञानं, आत्मत्वस्य ज्ञानरसमवायिकारणतावदकत्वात् द्रव्यत्वावच्छेदेन चाप्रकाशः = अज्ञानं द्रव्यत्वस्य ज्ञानसमायिकारणतावच्छेदकत्वात् । यथा दण्डादी दण्डवाद्यबच्छेदेनानन्यथासिद्धत्वं द्रव्यत्वावच्छेदेन धान्यधासिद्धत्वम् । वच्छेदकभेदेनेव विरोधपरिहारात् । ततः प्रत्येकमात्मनि आत्मत्स्य वापच्चंदनाची निरदिकस्य तदभाववच्छेदकले विरोध प्रतियन्ति नीषिणः । प्रकरणकारस्तन्निराकुरुते - मैवमिति । एवं सति आत्भत्व द्रव्यत्व लक्षणावच्छेदेन ज्ञानाज्ञानयोर्विरोधमपहत्व सर्वस्मिन्त्रात्मनि ज्ञानाज्ञानाभ्यस्वरूपत्वकल्पने सति सर्वज्ञः सर्वविद् अपि 'मामहं न जानामीति जानीयात् । द्रव्यत्यावच्छेदेन न जानामीति प्रतीत्युपपत्तेः । ततश्च सर्वशोऽप्यसर्वज्ञः स्वात् । न चाभिमतमिदम् । ततो यः छमस्थः मामह न जानामि इति एवं जानाति तत्र उद्यस्थे आत्मनि ज्ञानपदं 'जानामी' तिपदं चाक्षुपादिपरं वहिरिन्द्रियजन्यप्रत्यक्षादिबांधेच्छयोच्चरितमिति स्वीकर्तव्यम् । ततो मामहं न जानामीत्यस्य अनुष्यवसायस्य अहगात्मकर्मकचाक्षुपादिज्ञानानाश्रयः इत्येवार्थः । आत्मविषयकस्यानुव्यवसायज्ञानस्य सत्येऽपि चाक्षुषादिप्रत्ययस्याऽसत्येनात्मनि न ज्ञानाज्ञानी भयस्वरूपत्वमापद्यत ।। न हि नीलपटयति भूतले पीताऽसत्त्वदशायां भूतलं बद-तद्भावो भयाधिकरणं भवति तथा व्यवहियते वा । तलव नात्मनी आनाज्ञानांभयस्वरूपत्वं कल्पयितुमर्हति । = = = अज्ञान उभय के समावेशार्थ नहीं किया जा सकता। अतएब आत्मा में प्रकाशाप्रकाशउभयात्मकता को भी मान्यता नहीं दी जा सकती। दूसरी बात यह है कि आत्मा में बोधांश या द्रव्यांश के स्वरूप में भानुयायी अवयव का स्वीकार ही नहीं कर सकते हैं, क्योंकि उनके मतानुसार आत्मा निम्नयर है। यद्यपि जनमतानुसार आत्मा में असंख्येय प्रदेश है तथापि जैननम्मत आत्मप्रदेश का स्वीकार भट्ट बोधांशविधया या द्रव्यांशविधया नहीं कर सकता है, क्योंकि जैनसम्मत सर्व आत्मप्रदेश बोधांशात्मक है और सभी आत्मप्रदेश द्रव्यांदस्वरूप है। फिर भी आत्मप्रदेश को स्वरूप या द्रव्यांशस्वरूप माना जाय तब तो आत्मा में सर्वात्मप्रदेशावच्छेदेन प्रकाश और अप्रकाश उभयात्मकता की आपत्ति आयेगी, क्योंकि 'बोधांश प्रकाशस्वरूप है और द्रव्यांश अप्रकाशस्वरूप है' - यह भङ्गनत है । मगर यह मानना तो बिरुद्ध है, क्योंकि बिना अवच्छेदकभेद के एक ही धर्मो में भाव और अभाव का समावेश नहीं हो सकता है। अतः एकावच्छेदेन आत्मा में ज्ञानाज्ञानोभयस्वरूप की कल्पना त्याज्य | है । अज्ञान तो ज्ञानाभावात्मक हो है यह तो पूर्वपक्षी बने हुए भट्ट का ही सिद्धान्त है । 'मामहं न जानामि' प्रतीति की उपपचि स्वाद । यदि यहाँ यह कथन हो कि आत्मप्रदेशात्मक एकावच्छेदेन आत्मा में ज्ञान और अज्ञान दोनों का समावेश मत हो; फिर भी आत्मत्वावच्छेदेन प्रकाश ज्ञान एवं द्रव्यत्वावच्छेदेन अप्रकाश = अज्ञान का स्वीकार तो एक ही आत्मा में हो सकता है, क्योंकि अवच्छेदकीभूत आत्मत्व और अन्यत्व परस्पर भिन्न होने से एक आत्मा में ज्ञान और अज्ञान के विरोध का परिहार हो जाता है । अतएव प्रत्येक आत्मा को ज्ञानाज्ञानोभयात्मक मानना युक्तिसंगत ही है क्या आप स्थानादी को यह अभिमत हो सकता है ?" तो यह भी मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि अवच्छेदकभेद से ज्ञान और अज्ञान के विरोध का परिहार कर के सर्व आत्मा में ज्ञानअज्ञानाभस्वभाव का स्वीकार करने पर तो सर्वज्ञ को भी 'मामहं न जानामि अर्थात 'मैं मुझे नहीं जानता हूँ ऐसी प्रतीति होने की आपनि आयेंगी, क्योंकि द्रव्यत्वावच्छेदेन सर्वज्ञ में ज्ञानाभाव का समावेश डोने से आपके मतानुसार कोई बाध नहीं आयेगा । इसलिए 'सामहं न जानामि' अहं आत्मकर्मकज्ञानानाश्रय' इस प्रतीति में ज्ञानपद को चाक्षुपाविज्ञानपरक मानना चाहिए । अर्थात् ज्ञानपद की चाक्षुषादिप्रत्यय में लक्षणा करनी उचित है। तब उक्त प्रतीति का अर्थ होगा 'अहं आत्मकर्मकचाक्षुपादिप्रत्ययानाश्रयः । अनुव्यवसाय ज्ञान का आश्रय होते हुए भी चाक्षुरादिज्ञान का अनाश्रय बनने में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि अनुव्यवसाय मानस प्रत्यक्ष है, न कि चाक्षुप प्रत्यक्ष और आत्मा में उत =
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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