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* बाधा दयांदापागदः *
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सोने - न तावदेकमात्मनि बोधांश-द्रव्यांशी भिन्ना, अन्यथाऽऽत्मन्दयापत्तेः । न वात्रांशोऽवयव: सम्भवति, निरवयवत्वादात्मतः, न वा प्रदेश: सर्वस्यैव बोधांशत्वात, सर्वस्यैव द्रव्यांशत्वाच्च । तथा च सर्वावच्छेदेन प्रकाशाप्रकाशोभयापतिः । विरुध्द चैतत, एकावच्छेदेन भावाभावोभयासमावेशात् ।
- गयला * दोधी न वटा काटिमाटीकेत । ननश्च गुणदोषामयग्नभावत्वमेवात्मनि सिध्यति इत्याहुः ।।
यद्ययभञ्यादायगन्मान गुणदागोभयस्वभावत्वमविरुद्धं, परषामययविगुणेऽवयवगुणस्येबास्माकं विभावगुण पाय स्वभावगणपर्यायस्य तत्वसम्भवान. शुद्धात्मत्वावृतत्वावच्छेदकलंदन चौमयसमावास्याप्याविरोधादात्म। प्रदेशाटकनिर्देशकबारमर्पस्यायतनिकलत्वात् तथागि प्राधान्यन व्यपदेशा भवतीति न्यायानुसारिणीयमन्तिरिति प्रकरणकारणव असहस्रीतात्पर्यविवरण प्राभितं तथापि प्रकृते 'बोधांश-द्रव्यांशबारेत प्रकाशाप्रकारूपन्यादि ति ममतखण्दनार्थ प्रकारान्नंगणापक्रमने प्रकरणकार; अत्रांच्यत इति । एकत्रात्मनि ज्ञानाज्ञानी भवसमावास्तदा म्बत बन्दा न्दबन्दकर्मदलाभ: स्यात, अन्यथा तद्विरोधात । च म सम्भवनि । तथाहि न तावत् एकत्र आत्मनि बोधांदा-द्रव्यांशी परस्पर भित्री मम्भवतः, अन्यधा = एकान्ततः आत्मच्य-पयांभेदाभ्युपगमे तु आत्मद्वयापत्तेः । कपालतन्तूनां परम्पर भिन्नत्वेन बटपटद्वयवनः । न च अत्र आत्मनि अंशो - झानांश, अवयवः सम्भवति, तस्य गुणल्लादचयवसम्य तु द्रव्यमाननिल्यात् । न चात्र द्रव्यलक्षणीपिं अंशः सम्भवति, त्वन्मते निरवयवत्वात् = अन्वयज्ञानारचलान आत्मनः । न च स्याद्वादिमतापेक्षया आत्मनो माज्यप्रदेशात्मकत्वात नानांशी दव्यांशो वा प्रदेशः सम्भवतीति वाच्यम. स्यादिमतानुसारेण सर्वस्येच आत्मप्रददास्य - आत्मप्रदात्यावच्छिन्नरय एव बोधांशत्वात, बाधांशस्य प्रकाशरूपत्वस्वीकारे सांवच्छंदनात्मनि प्रकाशरूपत्वापनिः, सर्वस्यैर आत्मप्रदेशस्य = आत्मप्रदशल्या . वच्छिन्नस्य द्वन्यांशत्वात द्रव्यांशस्या:प्रकाशरूपत्तोपगम च सर्वांवच्छंदनात्मनि अग्रकाशरूपत्वागतिः । तदेवाह - नथा च = बांधांश-द्रव्यांदायाः प्रकाशाप्रकाशरूपत्वमकृत्य म्यानिमत सांगत आत्मप्रदेशः तम्प ज्ञानांशत्व द्रव्यांशत्वस्वीकारे । आत्मनि सर्वावदन = सर्वानप्रदशवच्छंदन प्रकाशाप्रकाशोभयापत्तिः = ज्ञानाज्ञानभयस्यनावासनः । ततः कि? इत्याह - विम्द्धं चैतत = मर्यात्मप्रदेशावदनात्मनि ज्ञानाज्ञानामयस्वरूपत्वकल्पनं, एकत्र धर्मिणि एकावदेन भावाभाचीभया
करने में कोई अनुपपनि नहीं है, क्योंकि सभी जीवों में जो गंधांश है वह प्रकाशस्वरूप है और द्रन्यांश है वह अप्रकाशस्वरूप अज्ञानरवरूप है। इसलिए सभी जीवों में ज्ञानाज्ञानस्वरूपत्व का स्वीकार ही उचित है । पहाँ इस शंका का कि → 'ज्ञान और अज्ञान तो परस्पर विरोधी हांत है । अतः प्रत्येक जीव में ज्ञानाज्ञानाभयस्वभाव की कल्पना नहीं हो सकती है' - समाधान यह है कि ज्ञान और अज्ञान परस्पर विरोधी नहीं हैं। जैसे स्यावादी एक हो घटाढे धर्मी में भेद और अभेद दोनों का स्वीकार करते हैं ठीक वैसे ही प्रत्येक जीन में ज्ञान और अज्ञान की कन्यना करना असंगत नहीं है । भंद और अभेद की भाँति ज्ञान और अज्ञान में विरोध न होने से जीव में ज्ञानाज्ञानस्वभाव की स्वीकृति करने पर ही सुपुप्ति के उत्तरकालीन "मुखमहमस्वापस न किञ्चिदवेदिप' अर्थात् “मैं सुख-चैन से सो गया, कुछ भी मुझे मालूम नहीं हुआ ऐसी प्रतीति की संगति हो सकती है। सुख नो अवश्यरंदनीय होने मे निद्रा में सुख का अनुभव = ज्ञान ना हुआ ही है फिर भी 'न किश्चिदवेदि' इस प्रतीति से अज्ञान का भी स्वीकार करना आवश्यक है। इस प्रतीति की उपपत्ति जीच को ज्ञानाऽज्ञानोभयस्वरूप मानने पर सरलता से संगत हो सकती है। इसलिए जीव को ज्ञानाज्ञानीभयस्वभावाला मानना ही युक्त है, न कि केवल ज्ञानस्वभावाला या केवल अज्ञानस्वभाववाला । यह भट्टानुयायिओं का मन्नत्र्य है । भेटाभेदाविरोध की सिद्धि प्रथम कारिका की व्यारन्या से ज्ञातव्य है, देखिये पृ. ७५)
* ाजाज्ञानोमयस्वभातपादि भष्ट्र के मतको समालोचना उत्तरपक्ष :- अत्रो. । भट्ट के उपर्युक्त मन्तव्य के खिलाफ प्रकरणकार श्रीमट्ट का यह वक्तव्य है कि एक ही आत्मा में बोधांश और द्रव्यांश भिन्न हो तर तो 'बोधांश ही प्रकाशस्वरूप है और दोश ही अप्रकाशस्वरूप है' पह माना जा सकता है. क्योकि अपडेदकमंद में एक धमी में विरोधी धर्म का समावेश हो सकता है। मगर एक ही आत्मा में बांधांश
और द्रव्यांश परस्पर भिन्न नहीं होते हैं, क्योंकि तब दो आत्मा के स्वीकार की समस्या मुंह फाड़ खड़ी रहती है । एक पोधांशस्वरूप आत्मा दसर्ग द्रव्यांशलक्षण आत्मा । मगर ऐसा नहीं है। इसलिए अवच्छेदक भेद का स्वीकार आमा में ज्ञान