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________________ ज्ञानाभाचवन्न जान्पतिबन्धकताविचार: * किये 'मामहं जानामि सुववन्तं दुःखवन्तं च' इति विपरीतप्रत्ययोऽपि दृश्यते । तथा | च ज्ञानवत्त्वज्ञानस्याऽवच्छेदकानन्तर्भावेल ज्ञानाभाववत्त्वज्ञानप्रतिबन्धकत्वं युक्तिमत् । किय तदनवच्छेदकस्य तदभावावच्छेदकाचे घटकारणतालवच्छेदकस्य द्रव्यत्तस्य घटकारणत्वाभावावच्छेदकत्वापतिः, अन्यथा घटाहावपि दैवप्यापत्तिरिति दिग । *गवलlla दोषान्तरमावेदान - किति । भामह, जानामा तिप्रत्ययात विलक्षण: मामहं जानामि मुखवन्तं दुःखवन्तने'ति विपरीतप्रत्ययोऽपि दृश्यते = अनुभूयते । ततः कश्रमात्मलाईछन्न झानाज्ञानोभयम्यभावत्वकल्पनं सगच्छन ! तथा च = 'मामहं न जानामी'त्यत्र ज्ञानपदस्य चाक्षषादी लक्षगारबीकाम्याचक्ष्यकन्चात, नत्ययपि 'मामह, जानामि मुखवन्तं द:खचन्तति प्रत्ययाच, ज्ञानवत्त्वज्ञानस्य - ज्ञनत्यावच्छित्रपकारताकज्ञानस्य. अवच्छेदकानन्नविन : ज्ञानत्वातिरिक्तावच्छेदकानवगाहित्वन जानाभाववत्वज्ञानप्रतिबन्धकत्वं .. ज्ञानामावविषयकज्ञानं प्रति प्रतिबन्धक ज्ञानत्वावच्छिन्ननदतिरिक्तधर्मानबन्छिन्त्रप्रतियोगिताकाभावप्रकारकज्ञानमात्रवृनिबंजस्यावच्छिन्नं प्रति प्रतिबन्धकत्वमिति यावत. युक्तिमत् । इत्यञ्च 'मामहं जानामि सुखवन्तं दाखवन्नञ्च' इति ज्ञानस्य स्वप्रकार भूतज्ञाननिष्ठप्रकारतावच्छेदकत्वेन विषयतया सुखाग्रगाहिल्वेन न मामहं न जानामी ति ज्ञान प्रति प्रतिबन्धक सम्मान . न वः सर्वज्ञस्य 'मामहं ने जनामी नि प्रत्ययापनिः, नस्य 'मामहं जानामी ति ज्ञानस्य स्वनिरूपिनाकारतावच्छेदकत्वेन ज्ञानत्वातिरिन्तधमानवगाहित्वन नत्प्रतिबन्धकलान । न का 'मामहं जानामि' इति प्रत्ययेऽपि 'मामहं चक्षषा न जानाना नि प्रतीत्यनापनिः, तस्बा ज्ञानल्यातिरिक्तचक्ष:करणकत्वावन्नित्वेन प्रतिबध्यानाको टिबहिर्भूतत्वात् । सा च सर्वज्ञ:गि निराचाधा, नरिमन मत्पादिज्ञानचदष्कान युपगमेन मांझपलक्षणगतिनाविद्यापविग्हम्यष्टत्वात् । न चैनम्वना तम्य ज्ञानाज्ञानं भयात्कन्द प्रसन्यत इति त्वगुपदम्बान्तम् । कि द्रव्यत्वावच्छेदनात्मनि ज्ञानाभावस्वरूपान्नन्नममाचशाने तदनवच्छेदकान्य तदभावावच्छेदकत्वे म्बीमियनाणं तु घटकारणतानवच्छेदकस्य = घनिष्ठकारवानिपिनदात्त्वाअवच्छिन्कारणतानवच्छंटकरस्य द्रव्यत्वस्य घटकारणवाभावावदकत्वापत्तिः = घनिरूपितकारणवाभाबन्दकत्वं प्रसन्न । न चटापना करें मुख्यत, गणादा द्रव्यवहारकाममात्यामागी न स्यादिति गुणाद: घटकारणत्वं प्रसज्यतेत्यां निष्काशयतः मलकागात: ! यता घटकारणतानवच्छेदकस्य :- यदीयारादिनिष्ठकार्यतानिरूपितघनिष्टकारणतानवच्छेदकस्य द्रव्ययम्य घटकाग्णवाभावावच्छेदकन्चापतिः = घनिष्टकारणत्याभावावगंदकन्वापतिः । ततो न तदनवच्छेदकन्य तदभावाबन्दकत्यकलपनमचितम । अन्यथा - नन्दनवन्दकस्य नदभावावन्दकन्द स्वीक्रियमाणे तु, आत्मनि आत्मत्व- द्रव्यत्वावन्दन ज्ञानाज्ञानोभयम्बम्पमिव घटादावपि पटत-नत्यत्वावच्छेदन रूप्यापत्तिः सप न होने की वजह उसका चाक्षप कभी भी होना नहीं है । दूसरी बात यह है कि 'मामहं न जानामि इस प्रतीति में विपरीत 'मामहं जानामि सुखवन्तं दाखवन्तं च' ऐसी प्रीति भी होती है। द्वितीय प्रनीति ज्ञानवत्वज्ञान = ज्ञानविषयक ज्ञान स्वरूप है और प्रथम प्रतीति ज्ञानाभावरत्वज्ञान = ज्ञानाभाषविषयक ज्ञान स्वरूप है। गामान्यतः तदभाषचनाज्ञान का तद्वत्ता ज्ञान प्रतिबन्धक होता है । फिर भी उपर्युक्त तभावानाजान = ज्ञानाभायवाचज्ञान का प्रतिबन्धक नदवत्ताज्ञान - ज्ञानबत्त्वज्ञान प्रतिबन्धक नहीं होता है, क्योंकि वह अवच्छंदकावगाही है। यदि 'मामहं जानामि गंगा जान उत्पत्र हुआ हो तो 'मामह न जानामि' ऐसा ज्ञान नहीं होता है । इसलिए अवच्छेदक का अन्नाव किये बिना ही ज्ञानवत्त्वज्ञान और ज्ञानाभावरन्यज्ञान में प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभाव मानना आवश्यक है । 'मामहं जानामि मुग्वबन्नं दाखवन्तं । यह ज्ञान ता प्रकारोभून ज्ञान के विषयविधया अवच्छे टकचेन सुख और दाम का अवगाहन करता है और 'मामहं न जानामि' यह ज्ञान भी प्रकारीभूत अभाव के प्रतियोगी ज्ञान के भवन्दकविधया ज्ञानत्वातिग्विन चाचपत्वादि का अवगाहन करता है। अतः उन दोनों के बीच प्रतिरश्यप्रतिबन्धकभाव नहीं माना जा सकता . यह फलिन होता है। नर सर्वज्ञ का मामई न जानामि' इस प्रतीति की आपनि नहीं भायेगी, क्योंकि सर्वज्ञ का 'मामहं जानामि' इस ज्ञान की प्रतिवध्यता के अवच्छंदक धर्म से वह भाक्रान्त है । 'मामह जानामि' यह ज्ञान ज्ञानत्वानिरिक्त धर्म का अवनोदकविधया अवगाहन नहीं करता है , यह नो स्पष्ट ही है । ताजवछेद दावाबरोदा नहीं हो सकता किश्च नद । भट्टमत में इसके अतिरिक्त दंप यह है कि आत्मा में जानाज्ञानोभयरूपता के समावेशाध ज्ञान के अनबन्दक दव्यत्व का ज्ञानाभाव का अबतक मानने पर तो घर में रही हटे घटीय रूप, ग्स आदि की कारगना के, नो घटत्यावचिन है, अनवच्छेदक द्रव्याव को घटकारणत्याभाव का अवच्छंदव. मानने की आपनि आयेगी, क्योंकि द्रव्यत्व घटीयरूपम्मानिष्टकार्यता
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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