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________________ 1 ७२८ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः ३ का ११ ज्ञानादेः स्वात्तगेत्पन्नज्ञानादिनाश्यता प्रत्येव नाशत्वेन हेतुता, ज्ञानादेस्तु स्वोत्तरोत्पन्नज्ञानादिना पूर्वमेव नाशान विजातीयात्ममनः संयोगनाशनाश्यत्वमिति चेत् ? तर्हि प्रथमशब्दादेरपि प्रदेशान्तरे स्वोतरोत्पन्दितीयादि * गयलता कै सम्बन्धेन तादृशघटे जायते यत्र स्वप्रतियोगिजन्यत्वकालिको भयसम्बन्धेन कपालद्रयविजातीयसंयोगनाशः तादृशकार्यात्पादाव्यवहितपूर्वक्षणावच्छेदेन वर्तते इति सामानाधिकरण्येन कार्यकारणभावोपपतिः । इत्थं वाब्दचतुर्धक्षणकालीन विजातीयवनसंयोगनाशः स्वप्रतियोगिजन्यत्व- कालिको भयसम्बन्धेन तस्मिन् शब्दे वर्तते यत्र स्वप्रतियोगिजन्यत्व- कालिको भयसम्बन्धेन विजातीयवायुसंयोगनादाविशिष्टशब्दप्रतियोगिकनाशः प्रतियोगितासम्बन्धेन वर्तते इति सामानाधिकरण्येन कार्य-कारणभावसङ्गतिः | शब्दे चतुः क्षणस्थायित्वोपपत्तिश्च कालिकसम्बन्धानुपादाने शब्द प्रतियोगितमा पष्ठ- सप्तमादिक्षणेऽपि विशिष्टवादनाशोत्पादापात:, निशब्दे स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्धेन विजातीयवायुसंयोगनाशस्य सत्त्वात् । इत्थश्व शब्दस्य विजातीयपवनसंयोगनाशनाश्यत्वं सगच्छते । न चैवमेध ज्ञानादेरपि विजानीयात्नमनीयोगनाशनाश्यत्वं दुर्वारमिति वाच्यम्, ज्ञानादेस्तु स्वोत्तरोत्पन्नज्ञानादिना स्वोत्पादाव्यवहितोत्तरक्षणोत्पन्नज्ञानादिना पूर्वनेव विजानीयात्ममनः संयोगनाशीत्यादादवागिव नाशात् यांग्यविभुविशेषगुणानां स्वाव्यवहितोत्तरयोग्यगुणनादयत्वनियमात् अनित्यस्य विद्यमानस्यैव कालोपाधितया विनष्टं ज्ञानादी कालिकन विजानीयात्ममनोयोगनाशस्यासत्वात् न विजातीयात्ममन:संयोगनाशनाश्यत्वं विजातीयात्ममनोयोगनाशजन्पनाशनिरूपित प्रतियोगित्वमिति ज्ञानादेः चतुःक्षणस्थायित्वप्रसङ्ग इत्यथाशयः | = = प्राञ्चः प्रतिचन्द्या शब्दे विजातीयसमीरसंयोगनाशनाश्यत्यनपाकुर्वन्ति तति । ज्ञानादेः स्वाव्यवहितोत्तरज्ञानादिनाश्यत्वादगीकारे प्रथमशब्दादेरपि = प्रथमद्वितीयाद्यचरमपर्यन्तशब्दस्यापि प्रदेशान्तरे = अन्यायच्छेदन आकाशे स्वोत्तरोत्पन्नसम्बन्ध है स्वप्रतियोगिजन्यत्व- कालिकोभय, कार्यतावच्छेदक धर्म है स्वविशिष्टप्रतियोगिकनाशत्व । जैसे विजातीयपवन संयोग की पांचवी क्षण में विजातीयपवनसंयोगनाश होगा, जो स्वप्रतियोगिजन्य एवं विद्यमान ऐसे शब्द में स्वप्रतियोगिजन्यत्व - कालिकोभयसम्बन्ध ये रहेगा | अतः संयोग की पाँचवें क्षण में निरुक्त सम्बन्ध से विजातीयपवनसंयोगनाशविशिष्ट शब्द का नाया उक्त विजातीयसंयोग के छ क्षण में यानी शब्द के पाँचवें क्षण में प्रतियोगिता सम्बन्ध से उसी शब्द में उत्पन्न होगा जिसमें स्वप्रतियोगिजन्यल सम्बन्ध से एवं कालिक सम्बन्ध से शब्दनाशा व्यवहितपूर्वक्षणावच्छेदेन विजातीयपवनसंयोगनाश रहता है । अतः उक्त कार्यकारणभाव के स्वीकार पक्ष में विजातीय पवनसंयोग के द्वितीय क्षण में उत्पन्न होनेवाला शब्द उक्त क्रम से अपने पांचवें क्षण में नष्ट होने से चार क्षण तक स्थायी रह सकता है । कालिक सम्बन्ध का निवेश करने से विजातीयवायुसंयोगनाश के तृतीय, चतुर्थ आदि क्षणों में वह शब्द अविद्यमान होने से काल की उपाधि नहीं बनता है। अतएव कालिक सम्बन्ध से वह विजातीयपवनसंयोगनाश से विशिष्ट नहीं बनता है। सामग्री नहीं होने से तब शब्दनाशोत्पाद को अवकाश नहीं है । इस कार्यकारणभाव को मान्य करने पर ज्ञानादि में विजातीय आत्ममन: संयोग के नाश से नाश्यता की एवं चतुः क्षणस्थायित्व की आपत्ति को अवकाश नहीं है, क्योंकि ज्ञानादि का तो स्वान्यवहितोत्तर क्षण में उत्पन्न ज्ञानादि से पहले ही नाश हो चुका है । यांग्यविभुविशेषगुण का स्वाऽव्यवहितोत्तरवती गुण नाशक होता है। - यह प्रसिद्ध प्राचीननैयायिकसिद्धान्त है | इस कार्यकारणभाव के अनुसार विजातीय आत्ममन:संयोग के द्वितीय क्षण में उत्पन्न ज्ञानादि का तो तदुत्तरवर्ती ज्ञानादि से विजातीय आत्ममन:संयोग के चतुर्थ क्षण में यानी अपने तृतीय क्षण में एवं उत्तरवर्ती ज्ञानादि के द्वितीय क्षण में ही नाश हो जाने से पञ्चम क्षण में होनेवाला विजातीय आत्ममन:संयोगनाश स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्ध से विवक्षित ज्ञानादि में रहने पर भी कालिक सम्बन्ध से उसमें नहीं रहता है। अविद्यमान पदार्थ कालिक सम्बन्ध से किसीका अधिकरण नहीं हो सकता है। अतः विवचित ज्ञानादि तब स्वप्रतियोगिजन्यत्व- कालिको भयसम्बन्ध से विजातीयआत्ममनः संयोगनाशविशिष्ट नहीं होने से विजातीय आत्ममन: संयोग के प्रथम क्षण में ज्ञानादि के नाश का प्रसन्न नहीं है। सामग्री नहीं होने पर कार्योत्पाद का आपादन कैसे हो सकेगा ? अतः ज्ञानादि की क्षणचतुष्कस्थापिता का कोई अनिष्ट प्रसङ्ग सावकाश नहीं है' - तर्हि । तो यह वक्तव्य भी असंगत है, क्योंकि यह तुल्यन्याय से वन्दनाश में भी लागू पड़ता है । मतलब कि यह कहा जा सकता है कि योग्यविभुविशेषगुण स्वोत्तरवर्ती योग्य गुण से नाश्य होने के नियम से प्रथमादि शब्द का आकाश में अन्याचच्छेदेन = प्रदेशान्तर में स्वाऽव्यवहितोत्तरक्षणावच्छेदेन उत्पन्न द्वितीयादि शब्द के द्वारा नाश हो जायेगा, जिस समय विजातीयपवनसंयोगनाश तो उत्पन्न भी नहीं हो सकता। तब वह शब्द का नाश कैसे कर सकेगा ? क्रम इस तरह होगा प्रथम क्षण में शब्दनिमित्तकारण विजातीय पवनसंयोग उत्पन्न होगा, दूसरे क्षण में शब्द पैदा होगा और उक्तसंयोगजनक
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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