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________________ - - -. * अनुमिटरपर्गक्षतापादनम * तजातिवदन्यज्ञानसामग्रीत्वादिना प्रतिबन्धकत्वेऽपि विशेषणतावच्छेदकप्रकारकज्ञानजन्यतावच्छेदकतया सिदस्य प्रत्यक्षत्वस्यवानुमितो युक्तत्वात् । विशेषणतावच्छेदकाभावाप्रकारकरचे सति विशेषणतावच्छेदकप्रकारकत्वेन विशिष्टवैशिष्ट्यविषयित्वावच्छिनं प्रत्येव -* गयलता *पतिः । न चैवं प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभावद्वितयकलानगीरचमतिरिच्यन इति वाच्यम्, तथापि त्वन्मतापेक्षया तन्त्र लाघवात् । नतीन प्रतिज्ञासन्न्यासापनिरिनि नवीननास्तिकाकूतम् ।। ननु जिल्लासाः कारीगानुभिणमितिगान्दबोधवृनिवजात्यायच्छिन्नं पनि मानरेनरसामग्र्याः मुस्मूपांचिरहकालिकस्मृनिमात्रविजात्ययन्छिन प्रनि च मानसान्यज्ञानमामग्रया: निबन्धकत्वमित्येवं कल्पनापक्षया बुभुत्सा विरहकालीन्ननुमित्यादिचतुष्टय - माशरणमेकमेव वैजात्यं कल्पयित्वा तवच्छिन्न प्रति तज्जातिमदन्यज्ञानसामग्रया एवं प्रतिबन्धकवं कल्पनीयं लापवान् । ततश्च म्मृतिनिज्ञानवव्याप्यजानिमत्त्वेनानुमिन्यादानामपि परोक्षतमवति नयायिकाशङ्कामपाचिकीर्षवो नूतननास्तिका बदन्ति - तज्जातिवदन्यज्ञानसामग्रीलादिना प्रतिवन्धकले - प्रतिबन्धकल्वस्वीकार अपि विशेपणतावच्छेदकप्रकारकज्ञानजन्यतावच्छेदकतया = विशेषगतावच्छेदको यग्य प्रलारस्तज्ञाननिष्ठा या जनकता तत्रिरूपिताया जन्यताया अवच्छंदकत्वन सिद्धस्य प्रत्यक्षत्वस्यैव अनुमिती = अनुमित्युगमत्यादी स्वीकर्तुं युक्तत्वात् । विशेषतावच्छेदकप्रकारकज्ञानजन्यज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वनियमो 'दण्डी पुरुष' इत्यादिप्रत्यक्ष प्रसिद्ध एव, पुरुषनिष्ठविशेष्यतानिरूपितदण्डनिष्ठविशेषणतानिरूपितावच्छेदकताश्रयदाइत्वाइसाक्षात्कार सति 'दाण्डी कप' इति साक्षात्कारानुदयात् । 'पर्वतो रहिमान' इत्यायनमितरपि स्वनिरूपितपर्वतनिष्ठविशेध्यतानिरूपितदहननिष्ठविशेषणनावन्दकहित्यप्रकारकण 'बहिच्याप्यधूमवान पर्वत' इत्याकारकपरामर्शज्ञानेन जन्नत्वात प्रत्यक्षतर्मय । अनुमिते: परोक्षत्वे तादृशनियमभङ्गप्रसङ्ग एवं बाधक इति न प्रमाणान्तरसिद्धिरिति नूतननास्तिकाशयः ।। न विशेषणतावच्छेदकप्रकारकज्ञानस्य विशिष्टवैशिष्टयादगाहिमानत्वावच्छिन्नं प्रत्येव कारणचं न तु विशिष्टवैशिष्ट्यप्रत्यक्षल्यावच्छिन्न प्रति । ततश्चानुमितविशेषणतारच्छेदकप्रकारकज्ञानजन्यत्वपिन साक्षात्कारत्यापतिः, कार्यतावच्छेदकावचित्रस्यानापाद्यत्वादिति नैयाबिकाशङ्कामपाकमभिनववर्षाका व्याचक्षते - विशेपणतावच्छेदकाभाराप्रकारकत्वे सति विशेपणताबजेटकप्रकारकत्वेन रुगण विशेषणनावदकरकारकस्य विशिश्वैशिष्टयविपयित्वावच्छिन्नं = विशिष्टवैशिष्टय वगाहि प्रतिवन्धक मानने हैं। मतलब यह है कि स्मृति द्विविध होती हैं, इच्छा के बिना होनेवाली पर्च इच्छा के अनन्तर होनेवाली। जो स्मृनि इच्छा के बिना होती है उसमें हम एक जातिविशप का स्वीकार करते हैं, जो स्मृतित्व की व्याप्य = न्यूनवृत्ति है और तदवच्छेदन = उनवजात्यावच्छिन के प्रति स्मृतिभिन्मज्ञानसामग्री को प्रतिवन्धक मानते हैं । अतः जब स्मरणाभिलाप और चाक्षुपादिसामग्री दोनों की उपस्थिति होती है तब उक्तवजात्यशून्य इच्छा के अनन्तर होने वाली स्मृति का उदय हो मकता है । इस तरह मानस अनुमिनि, उपमिति, शब्दांध में एक जातिविशेप का स्वीकार कर के नदवच्छिन्न के प्रति मानसेना. ज्ञानसामग्री को प्रतिबन्धक मानने से एवं इच्छा के चिना होनेवाली स्मृति में अन्य जातिविशेप का महीकार कर के नदवभिन्न के प्रति स्मृतिभिन्नज्ञानरामग्री की प्रतिबन्धकता मान्य करने से ही सब कुछ महत हो सकता है तर क्यों अनुमिति को अतिरिक्त प्रमा मानी जाय ? अतिरिक्त अनमिनि प्रमा के स्वीकार पक्ष में नीन प्रतिवध्य-प्रतिबन्धकभार की कल्पना का गौरव है जब कि मानस अनुमिति पक्ष में केवल दो प्रतिवध्य-प्रतिबन्धकभाव की कल्पना करने से लापच है । अतएव अनुमिनि आदि को मानस प्रत्यक्षात्मक मानना ही मुनासिब है। नजा। यदि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि » जिज्ञासाचिरहकालीन अनुमिति आदि तीन और तादृश स्मृति में भिन्न भिन्न वैजान्य का स्वीकार करने पर दो प्रतिवध्य-प्रतिबन्धकभाव की कल्पना पड़ती है । इसकी अपेक्षा उचित यही है कि इन चारों में एक ही बजात्य की कल्पना की जाय भी. नदवच्छिन्न के प्रति तजातिमान् ज्ञान से भित्र ज्ञान की सामग्री को प्रतिबन्धक माना जाप । एक ही प्रतिवध्य-प्रतिबन्धकभाव की कल्पना करने से सब सङ्गानि हो सकती है। ना फिर क्यों द्विविध प्रतिबध्य-प्रतिवन्धकभार की गौरवग्रस्त कल्पना की जाय ? मगर नव नास्तिक के सर पर अनुमिति को भिन्न प्रमा मानन की आपनि आयेगी, क्योंकि परोक्ष स्मृति में रहनेगली ही ज्ञानत्वयाप्य जाति अनुमिति में रहती है। अनः अनुमिति को प्रत्यक्ष नहीं मानी जा सकती' -तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि जिज्ञामाविरहकालिक अनुमिनिउपमिति-शादरोध-स्मृति में एक जाति मान कर नदवच्छिन्न के प्रति नज्जातिमदन्य ज्ञान की सामग्री में प्रतिबन्धकता की
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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