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________________ ६.७२ मध्यमस्यादादरहस्य खण्डः ३ . का.११ * विशिष्टय दाप्ठयारगाडिज्ञाननिरूपणम * | तथात्वे तत्संशयेऽप्यनुदबुन्दसंस्काराद् विशिष्टवैशिष्ट्यप्रत्यक्षापतेरिति चेत् ? अत्र केचित, अनुमितेर्मानसत्वव्याप्यत्वे चाक्षुषादिसामग्यां सत्यां भिन्नविषयकानुमितिर्न स्यात, भोगान्यमानसं प्रति चाक्षुषादिसामग्याः प्रतिबन्धकत्वात् । न च चक्षुर्मनोयोगादिविगमो -* जयलता *विषयितापसिंछन्नं प्रत्येव तथात्व - कारणचाभ्युपगमे । अननापादकग्रन्धः प्रदर्शितः कार्यनावन्दकपटकीभूतं विशिमचविष्ट्रय (10 विदाय विशेषगं तत्रापि विशेषणानमिति रीत्या (एकत्र द्वयमितिरूपेण (3) विशिष्टस्य चरिदमित्य प्रकारंग (2) एकविशिर परवशिष्टयमिति ग्यापन चाचगन्तव्यम् । आपादकमुकवाद पाद्यमाहः - तत्संशये = दहनादिसन्देह, मनि अधि अनुयुद्धसंस्कारात् परामशादिविरहदवायां विशिष्वैशिष्ट्यप्रत्यक्षापतेः। संस्कारोबोधरिरहेण विशिष्टरशिष्ट्याचगाहिस्मृनेस्तदानीमसम्भवः परामर्श-सादृश्यज्ञान-पदज्ञानाभावेन च तादृशानुमित्युपमितिशान्दचा चानुत्पाद इति पारिशेषन्यायन विशिष्टबेसिश्यप्रत्यक्षगपत्तिः । एतेन कार्यत नवच्छेदकावच्छिन्नत्यागार प्रत्यापिति नरतम लक्षात नराचमेवाभ्यायमनि गम्यतास्तिकमनोपसंहारः । नूतनचार्वाकमतनिराकरणाय त्रुवत अब केचित् - तादात्म्यन अनुमिनः यदा समवायन अनुमिनित्याद: मानसत्तच्याप्यत्वं |जानससाक्षात्कारवृत्तिल्वे स्वीक्रियमाणे तु चाक्षुषादिसामग्रयां सत्यां तन्ननिचध्यताबछेदकालिङ्गिततेन सगानविषयकानुमितिरित्र हिनविषयकानुमितिः अपि न स्यान् = जायेत. भोगान्यमानसं = सुखदः ग्वान्यनरसाक्षात्कारान्यमानसत्वानि प्रति चाक्षुपादिसामग्र्याः = मानसेतरज्ञानसामग्र्याः प्रतिबन्धकत्वात् । नासुधादिसामग्रीसमवधान:पि सुखादिमानमसाक्षात्कारी. ट्यदर्शनात् 'भोगान्ये त्युक्तम् । भवन व घटचक्षुःसन्निकर्पदशायामपिं यूमादिपरामशदिनलानुमित्याधुनिः । ततश्चनुमिनित्वस्य पराशसमबत्तत्वमेवा हंति । न च चक्षुर्मनोयोगादिविगमात्तरं = चक्षुर्मनःसन्निकांदिवसाव्यरहितानग्कालायच्छंदन, एव कल्पना करने पर भी अनुमिति को प्रमित्यन्तर मानने की आपत्ति नहीं आयेगी। वह इस तरह . 'दण्डवान् पुरुषः' इत्याकारक प्रत्यक्ष में विज्ञप्य है पुरुष और विगेपण है दण्ड तथा विशेपणनावच्छेदक है दण्डत्व । जिसको दण्डत्यप्रकारक ज्ञान होता नहीं को कभी भी 'दण्डी पुरुए' ऐसा साक्षात्कार नहीं हो सकता, क्योंकि विशिष्ट वैशिष्ट्य अवगाही प्रत्यक्ष के प्रति विशेषणतावांटकप्रकारक ज्ञान कारण होता है । विदोषणतावदकीभूनदण्डलाकारक ज्ञान में जन्य होने में जैसे 'दपट्टी पुरुषः' यह ज्ञान यात्मक है ठीक वैसे ही 'पर्वतो वहिमान' यह अनमित्ति भी स्थनिरूपितविशेषणतावच्छेदकीभूतवाहित्यप्रकारक 'वहिव्यायधूमवान पर्चतः' इम पगमर्श ज्ञान में जन्य होने की वजह प्रत्यक्ष ही है, न कि प्रत्यक्षभिन्न प्रमा। अत: अनुमिनि में विशेपणनावच्छेदकप्रकारकज्ञानन्यतावच्छेदकविधया सिद्ध प्रत्यक्षत्व का ही स्वीकार गहन्त है । अनः अतिरिक्त प्रमा की मिद्धि को अवकाश नहीं है। विश. । यदि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि → ' विपणनावदकप्रकारक ज्ञान का कार्यताचछेदक प्रत्यक्षत नहीं है किन्तु विशिष्टवैशिष्टयविसयित्व (ज्ञानत्य) ही है। कारणतारच्छेदक धर्म कंवल विशेषागतावोदकप्रकारकाम नहीं है किन्तु विशेषणतावच्छेदकाभावानकारकत्वविशिष्ट विशेषणतावचंद्रकप्रकारकत्व है। अतः संदाय की उत्पत्ति की # आपत्ति न आयेगी और विशेपणतावच्छंदकप्रकारक ज्ञान में अन्य होने पर भी अनुमिनि में प्रत्यक्षत्व की आरनि नहीं होगी' - तो यह भी असंगत है, क्योंकि वैसा मानने पर तो परामादिचिन्हकाल में अग्नि का सन्देह होने पर भी अनुदुचुद्ध संस्कार में चिशिमवैशिएयाबगाही प्रत्यक्ष की आपत्ति आयगी, क्योंकि परामशांदिन होने से अनुमिति आदि की एवं संस्कार उदयुद्ध न होने में स्मृति की उत्पति की तब सम्भावना न होने में पारिशेप न्याय में ताशा प्रत्यक्ष की ही आपत्ति आयेगी । अत: प्रत्यक्षत्व का ही विशेपणताअवच्छेदकप्रकारक ज्ञान का कार्यनाअवरोदक मानना सगर है। तब तो अनुमिति को मानस प्रत्यक्ष मानना ही सगत होता है। अतः प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। इस प्रतिका का त्याग नहीं होगा । का अनुमति परीक्षा ही है - समाधाज ] एकदेशीय उत्तरपक्ष :- अत्र केचि । यहाँ अन्मानपरोश्नवादी कुछ विद्वानों का पह कथन है कि अनुमितित्व को मानसत्पन्याप्य मानने पर यानी अनुमिति को मानस प्रत्यक्षस्वरूप मानने पर तो चाक्षुपाटिसामग्री होने पर भिऋविषयक अनुमित्ति ही उत्पन्न न हो सकेगी, क्योंकि भोगान्य मानस प्रत्यक्ष के प्रति चाक्षुपादिसामग्री प्रतिवन्धक होती है। आशय यह है कि घटचक्षुसभिकर्ष होने पर भी धूमपरामर्श से अग्नि की अनुमिनि होती है, क्योंकि ममानविषयकानुमिति के प्रति ही चाक्षपादिसामग्री प्रतिबन्धक होती है। मगर अनुमिति को मानस प्रत्यक्षात्मक मानन पा तो उस अवस्था में अग्नि की अनुमिति नहीं हो सकेगी, क्योंकि भोगान्य मानम माक्षात्कार के प्रति चाक्षुपादिभामग्री प्रतिबन्धक होती है। वहाँ यह कथन कि → भिरिपयक
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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