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________________ * मूतंन जन्यरूपकारणतासमर्थनम् * | महापे ज, द्रव्यत्वेन वा हेतुत्वं मूर्तवाहिना वा ? इति तथापि विनिगमनाविरहात् । परे तु केवलनीलादिकपालेऽवच्छेदकतया तदवारणाय स्वाश्रयवृतिद्रव्यसगवायसाबन्धे -* ाराला - नालत्वावचिन्न प्रत्यगि, समवायन द्रव्यम्य हेतुत्वं न त रूपस्य नीलादों हेतुत्वन । इत्यश्च नानाजानीयरूपदवयवरकारबरिन्धले अध्यायनानि नानारूपाण्यवीराद्यन्न इत्यभ्युपगमागि निर्वहनि घटादाववन्दकतया रूपांत्पत्तिप्रसङ्गश्च परिहनो भवति, घटादी समवायन द्रव्यविरहात् । नीलादेः हेतुत्वानुपगमादतिलाधयमेनन्कल्प इत्यूचुः । ___ तदपि न चाम, अवच्छेदकतासम्बन्धन जन्यरूपत्वावच्छिन्नं प्रने समवायन द्रव्यत्वेन वा हेतुत्वं मूर्तत्वादिना वा ? आदिपान भूनवादग्रहणम इति तथापि चिनिगमनाविग्हात् । न च भूतत्वस्यापकष्टपरिमाणवचरूपतया कारणतवच्छन्दक गौरवात द्रव्यत्यनंब तत्त्वमिति वक्तव्यम्, क्रियात्मवादिकारणताबन्दकता मनत्वस्य जानित्वाङ्गाकारात । न च भूतत्वादिना सहकमिति शकीयम्, भूत्त्वस्य जातित्वानुगमात्। चिनिगमनाविरहानोक्तहेतुहेतुमद्भाशेषगमा ज्यायानिनि भावः । वस्तुतस्तु सम्भवति बलमा गुरुविशेषधर्म सामान्य धर्मस्य कारणतानबदकत्वात सामान्यधर्नम्प द्रव्यत्वस्य न काग्णतावच्छकदत्वं किन्तु लघुनों मूतत्वस्यैवति अबच्छेदकनासम्बन्धेन जन्यम्पत्यापन्छिन्नं प्रनि सम्बायन मूर्तत्वन काग्णत्वं वन मर्हति । इदन्नु प्रकृतकल्पे दूषणं स्यात जाबन्दकतासम्बन्धन रूप उत्पन्न तनत्र सम्बन्धना वयच रूपोत्पनिवारणायामवचंद्रदकतारमण रूपं प्रनि अवच्छंदकतया रूपं प्रतिबन्धकं कल्पनीयमिति गौरवम् । न चाऽवयविनि समवयेनात्पद्यमानमेव रूपमवदन्तया वयचे उत्पनुमहात्यविनि रूपस्य प्रतिबन्धकस्य सत्त्वेन रूपसारविरहादेव नाचवे वच्छंदतया तदा रूपात्पन्नापतिरिति वाच्यम्, एवं ह्ययावनिष्टरूपाभावोऽवच्छंदकतया रू पनि हेतुर्वान्य: स्यात् । तथा व नानारूपवत्कारारब्धवटस्य नील. रूमादीलकपालिकारच्छंदनाउनत्यनिग्रसङगत, तदवयविनि कपाले रुपसत्त्वादिति दिक । नन अवच्छेदकतया नीलादी ममवायन नीलादः कारणत्वस्वीकारपक्ष न केवलनालादिकपाले पि अवच्छनकतया नीलादिक जायेत, समवायन नीलादेस्तत्र सत्यात् । तन्निवारणकृतेश्वच्छदकतासम्बन्धन नीलदा स्वाश्रयवृत्ति-व्यस मदायसम्बन्धन नीलाभायादरेव कारणत्वं कल्पनीयम् । यदि कपालं नीलपीतादिकपालिकारब्धं स्यातदेव स्वस्य + नालायभावस्य जाश्रये = नौलपीतादिकापालिकासमवेतकपाले समवायेन वृत्ति यद् घटद्रव्यं तत्तमवायस्य नीलपीतकपालिकारब्धकपाले सत्चन तत्र स्वाश्रयवृत्तिद्रव्यसमवायेन नीलाद्यभावस्य सत्त्वादवच्छेदकतया नीलादिकमुत्पद्यत । पर केवलनीलादिकपाले निरुक्तसंसर्गेण नीलाद्यभावविरहान्न तत्र नालाद्युत्पत्तिरित्यारायवतामपरेषां अन्याय'वृत्तिनानारूपबादिनां मतमाह अपरै न्विति । केवलनीलादिकपाले अबच्छेदकनया तद्वारणाय = नीलाद्युत्पनिवारणाय स्वाथ्यवृत्ति-द्रन्यसमवायसम्बन्धेन निकरीत्या अवश्यकल्प्यहेतुताकस्य नीलायभावम्यैव | में नीलादि रूप की उत्पनि की आपनि का परिहार करने के लिए इस तरह कार्यकारणभाव का स्वीकार करने हैं कि - -> अवच्छेदकता सम्बन्ध में जन्यरूपत्वावभिन्न के प्रति ममवायसम्बन्ध मे द्रव्यत्वेन इन्य हेतु बनता है। जैसे नील • पीनकपाल. दयागय घटस्थल में कपाल में ममवाप सम्बन्ध से घटात्मक द्रव्य रहने की वजह यहाँ अवजेटकता सम्बन्ध सं रूप की उत्पनि हो सकती है - होती है । मगर घट में समवाय सम्बन्ध में कोई भी द्रव्य रहता नहीं है । अत एव घट में अवच्छेदकता सम्बन्ध से रूप की उत्पत्ति नहीं हो सकती है किन्नु गमवायसम्बन्ध में ही उत्पत्ति हो सकती है, जिसका कारण है स्वसमवापिसमवंतत्व सम्बन्ध से कपालरूप । इस तरह घट में अवच्छेदकतामम्बन्ध में रूपांत्पति का प्रमत नहीं हो मकता' <-। ताप, इति । मगर अमुक विद्वानों का इसके प्रतिवाद में यह कथन है कि -> अवच्छेदकनासम्बन्ध मे जन्यम्प । के प्रति समवाय सम्बन्ध को द्रव्य को द्रव्यत्वेन कारण मानना या मुर्नत्वेन । इस विषय में कोई रिनिगमक नक नहीं है। द्रव्यय की भाँति मूर्तल को भी कारणताऽवदक धर्म माना जा सकता है, क्योंकि अबदकनासम्बन्ध से जहाँ रूप उत्पन्न होता है वहाँ समयाय सम्बन्ध से द्रव्य की भाँनि मूर्तपदार्थ भी अवउप पडता ही है। कारणताअबतक धर्म में पिनिगमनाविरह होने से उपर्युक्त कार्य कारणभाव भी अश्रद्धय है । प्राधान्यामनाय जी ! - अपरमत पर । अवांछनकतासम्बन्ध से घटादि अवय में रूप की उत्पनि के प्रमों को हटाने के लिए अपर विद्वानों का पहाँ यह कथन है कि 'अवच्छेदकता सम्बन्ध में जाने के प्रति ममवाय सम्बन्ध में नील को कारण मानने पर ना केवल नीलरूपवाले कपाल में भी अवच्छेदकना सम्बन्ध से नील रूप उत्पन्न हान की आपत्ति आयगी, क्योंकि वहाँ समवाय सम्बन्ध
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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