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________________ * मनःप्रकरणसंवादावादनम * मनसोऽपि चानतिरेके न किश्चिदनिष्टं नः, पृथिव्यादेः पुदलत्वेनेकधैव विभजनात् । -* जयलता *अविरुद्धमित्यनेनारयान्वयः । कादाचित्कत्वलक्षणपर्यायलक्षणेन उत्खानत्वात् = निकिनत्वान. उपेनत्व दिति वावत् । शब्दः पर्यायः = द्रव्यपरिणामः । अभूत्वा भवनं भूत्वा स्थित्वा च्यवनमित्यव कादाचित्कत्वमुच्यने । तच पर्यायलक्षणं घटादी पये प्रसिद्धम् । कुलालादिव्यापारात प्राक् घटत्वा दिना भूत्वा पश्चाद् घटत्वन भवन किञ्चित्कालं स्थित्वा चटत्वादिना विपद्धत च । तद्वदेव कण्ठताल्यादिव्यापारात्माक शब्द ना-मूचा पश्चा-छन्दत्वेन भवन उत्कर्षत आर्यालकाया असारभ्य सभामग्रमितकानं स्थित्वा हान्दवन रूपेण विलायते चेति घटादिः यथा मृत्पर्याय: नथा दाब्दांऽपि पदलाव्ययायः । परं मर्यथा न पांय द्रव्यात्मताया अपि तत्र स्वीकारात् । अतो द्रव्यवन ध्रौव्यमयविरुदमिति भावः। एतन 'नापि सर्वथा द्रव्यं, पयांयान्मनाम्बाकागन् । स हि पुलस्य पर्याय: क्रमशः तत्रंदात (प्र.न.त. '५/१- न्या.र.पृ. ६०.६) इनि वादिदेवसूरिबचनमापं व्याख्यातम् । पतावता प्रबन्धेन शाकादशोऽपि नातिरिच्यते, निमित्तानस्यैव शब्दसमवायिकारणलान' (दश्यतां ७:१तमे घाटं) इति यता नास्तिकेनाक्तं तनिरस्तम् । यत्तु पूर्व चाकिन 'मनोऽपि चासमवेत भूनम । - व पृथिवीत्वादी विनिगमका गावादतिरको युक्तः, गानिंबाटत्व पि तत्तदात्मा:कृष्टत्वेन विशेषसम्भवादिति' (दृश्यता ६४७ तमे पृष्ट) इत्युक्नं तन्मनसिकृत्य सिंहावलोकनन्यायनाह - मनसोऽपि चानतिरेके किमुत दिगादरित्यपिशान्द्रार्थः, न किश्चिदनि नः = अस्माकं स्थाद्वादिनाम । कुतः ' पृथिव्याः पुद्गलल्वेनेकधैव न त्वनेकधा विभजनात् = विगागकरणात । द्रव्याणामनन्नत्वपि प्रथिवी-गल नेजा-याय -मनांद्रयाणां अनमनेन पद्दत्यन मडग्रहसम्भवात् पुदलत्वस्यैव द्विगाजकोपाधिािन न माया पडलद्रव्यानिरिक द्रव्यत्यमग्नन्मने गम्भवतानि मनसः स्नापद्रव्यातिरका निक्षेपास्मभिमत एवति न तन्निगम कश्चिन्प्रयत्न स्माभिर्विधय: चानक प्रनि । किन्तु यत्पूर्व चाशक: मनसाः समतभूतत्वादिकं प्रतिपादितं तत्र वदन्ति → नम्य गीतिक धिना गलत्यादिक बन्यत्रा:विनियमात प्रथिोत्यादिग़हिन्यसिद्धेः । न चान्यनमत्वेन निर्णयानुक्तविनिगमकचिन्तनीचित्यमिति वाच्यम्. तथापि ज्ञानादिजनकात्मप्रतियोगिकविजातीयसंयोगं प्रति मनस्त्वेन बजात्येन हेतुन्वानस्य धन्य यतिरिक्तत्वगिद्धेः । न च एप्तिकाले ज्ञानांतपादः कालविशेषम्य विधत्वादेव न तु विजातीयमन:संयोगबिरहादिदि बान्यम, अनन्तकालविशेषाणां तत्तापायानन्तज्ञानविरोधित्वकल्पनामोक्ष्य जन्यज्ञानमात्र विजातीयात्ममनोयोगहेतत्वकल्पनाया एव युक्तत्वात, अतिरिक्तशालोपगमे नास्तिकानामापसिद्धान्तापाताच । पतन पार्थिवादित्वे:पि तत्तदात्माकृष्टत्वेन विशेषसम्भवादित्यपि प्रत्युक्तम्, ज्ञानजनकतावच्छेदकोटी ननन्दम्पनिवेश नहागौरबान । अम्माकं मन्नु दीर्घकालिकसंज्ञाभिधानव्यक्तज्ञानजनकत्वेनैव गर्भजपश्चन्द्रियाणामक गृहीत्तमनंवर्गणास्कन्धात्मक पौदगलिक मनः मिव्यान न चोन्करज्ञानजनकतावच्छेदिका शरीरनिष्ठत्र जाति: कलयत जान नेत्यं स्वतन्त्रमन: सिद्धिरिति वाच्यम्, शगंगेन्कयांपकपाध्या ज्ञानोत्कर्षाकदिर्शनान तन्त्रियामकत्वेन मनोनिशेषस्पैच पृधिन्यप्तेजीबान्यतिरिक्तस्य पौदर्गालकस्य सिद्धिरित्यधिक न मन:प्रकरणादवसंयम । राया तिति मGI अHि - दादी मनसी. । पहले नास्तिकों ने जो कहा था कि-मन भी दिशा आदि की भांति अतिरिक्त नहीं है (पृ.६४५) यह बस्नग्य तो हमारे प्रति तनिक भी प्रतिकूल नहीं है, क्योंकि पृथिवी. जल आदि पदार्थ का हम म्यादातरी पुलन्द धर्म की अपेक्षा विभाग करते हैं । पृथिवी, जल, तेज, यायु, मन ये मब पुद्गल ही हैं । अतः पुदलन्न धर्म की अपेक्षा न मय का एक ही विभाग में समावेश होना न्याय्य है । यहाँ यह शंका हो कि → यदि पृथ्वी. जन्न, नेज आदि का एक ही विभाग में समावेश किया जाय तब तो पृथी और जल में परम्पर भेद ही नहीं हो सकंगा । जैसे एक ही विभाग में समाविष्ट होने से चैत्र, मैत्र, देवदत्त आदि में भेद यानी आत्मन्च की अपेक्षा जात्य नहीं होता है. ठीक वैसे ही प्राविभाग में प्रविष्ट होने की वजह पृथ्वी, जल आदि में भी भेद नहीं हो सकंगा' <ी उसका ममाशन यह है कि एक विभाग में प्रविष्ट होने में भेद का विलय हो जाय - यह कोई नियम = व्यानि नहीं है। अन्यथा धट, पट आदि भी पृधी हाने मे या द्रव्य होने से एक ही विभाग में ममाविष्ट हान में परस्पर भित्र नहीं हो सकंग । मगर उनमें भी भेद ने मिड ही है । अतः एकविभागाश्रित होने पर भी घट, पद की, भौति पृथ्वी, जल में भी भेद हा मकता ही है। यहाँ इम शंका का कि --> 'पृथिवी, जल आदि द्रव्य का पुद्रलयन एक ही विभाग में ममाचंदा करने पर अधिषी का इनर व्य
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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