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________________ ७४० मध्यगस्याद्वाद रहस्ये खण्ड ३ का. १९ ॐ पृथिव्याः स्वतविचा 'एवं सति पृथिवी - जलयोर्भेदो न स्यादिति चेत् ? घटपट्योरिव किं न स्यात् ? द्रव्यतोऽयं न स्यादिति चेत् ? स्यादभिमतमेवेदं युक्तिसिद्धत्वात् । तथाहि पृथिवीतरेभ्यो भिद्यते गन्धवत्त्वादित्यत्र सर्वदा मन्धवत्वं भागाऽसिद्धम्, कदाचिद्रन्धवत्वं तु जलादों व्यभिचारीति । * जयला . = लब्धावसरों नैयायिकः प्रत्यवतिष्ठते एवं सति पृथिवी जलानलानिलादीनां गुगलवनेकधा विभजने सति पृथिवी - जलयोः भेदो न स्यात् एकविभाजकोषाध्याक्रान्तत्वात् । यद्यपि चैत्र-मैत्रादीनामात्मत्वेनैकचैव विभजनेऽपि चैवत्वादिना भेदोऽस्त्येव तथापि भेदपदमत्र वैजात्यपरमिति न दोषः । न हि चैत्र-मैत्रादीनामात्मत्वेन वैजात्यमनुभूयते । तथैव पृथिवीजलयारेकविभाजकी पाध्याश्रितले पृथिवीत्यादिना वैजात्यं नैव स्यादिति आक्षेपग्रन्थाभिप्रायः । स्याद्वादी प्रतिबन्धा समाधत्ते घटपदयोरिव किं न स्यात् । इति । यथा पृथिवीत्वन टपटपकधव विभजनेऽपि घटत्वादिना वैजात्यं समस्त्येव तत्र गुद्गलत्वेन पृथिवी जलयोरकधैव विभजनेऽपि पृथिवीत्यादिना बजात्यं स्यादवति न कश्चि विरोधः । = S जलदिनैयायिक आक्षिपति द्रव्यतः अयं भेदः न स्यात् । पुद्गलत्वकदेव विभजने पृथिव्यादीनामिवरती द्रव्यतः भेदो विजात्यं न स्यात् । यथा चैत्रमैत्रदेवदत्तादीनामात्मनेकमेव विभागे चैत्रादीनां मंत्रादितां वैजात्य नास्ति देवेन नैयायिकाभिप्रायः । स्याद्वादी इष्टापन्यासमाधनं स्यादभिमतं कवि एवं इदं पृथिव्यादीनां जलादिद्रव्यतः बेजान्या भावापादनं. युक्तिसिद्धत्वात् प्रामाणिकत्वात् । तर्हि पृथिवी स्वेतरभिन्ना गन्धवत्त्वादित्यनुमानाद का कथा इत्याशङकामपाकर्तुं स्याद्वादी आह तथाहीति । 'पृथिवी इतरेभ्यो भियते गन्धवत्त्वादित्यत्र अनुमान पक्षावच्छेदकावच्छिने किं सर्वदा गन्धवत्त्वमभिमतं कदाचिद्रा । इति विकला युगला समुपतिष्ठते । प्रथगं आह- सर्वदा उत्पत्तिक्षणतः प्रारभ्य विनाशशणपर्यन्तं गन्धवत्त्वं हेतुत्वेनाभिमतं तदा तत भागासिद्धम् = पक्षैकदेशसिद्धग, उत्पत्तीतरक्षणावच्छेदेन पृथिव्यां गन्धयन्वस्य सत्त्वऽपि उत्पत्तिक्षणावच्छेदेनाऽसत्त्वात् । द्वितीये आह कदाचित् = उत्पत्ति-स्थिति-प्रच्युतिक्षणान्यतमक्षणावच्छेदन पृथि॒व्या॑ गन्धवत्त्वं तु जलादी व्यभिचारीति । यदाकदाचिद्रन्धवत्त्वस्य करतूरिकाकुङ्कुमादिवासितजलादी सत्तेपि पृथिवीतरभेदस्य विरहात् । = = 2 - - = - - जलादिद्रव्य से भेद नहीं हो सकेगा, क्योंकि वे सब एकविभागान्तः पतित है - समाधान यह है कि यह स्यादभिमत कथंचिन् इष्ट ही है, क्योंकि पृथ्वी में जलादि द्रव्य में कथंचित् अभेद = आपेक्षिक अभेद स्वाद्वादी ने मान्य किया है। यहाँ यह प्रश्न नहीं करना चाहिए कि यदि पृथ्वी जलादि से कथंचित अभिन्न है, तब तो 'पृथ्वी स्वेतरभिन्ना गन्धवा इस व्यतिरेकी अनुमान का जो पृथ्वी में इतरभेद जलाविभेद का साधक है, क्या होगा ?' - इसका कारण यह है कि पृथ्वीपक्ष स्वेतरभेदसाधक उपर्युक्त अनुमान में जो गन्धवत्व हेतु बताया है उसका यदि सर्वदा पक्ष में विद्यमान होना अभिमत हो तब तो हेतु भागासिद्ध बन जायेगा । जो हेतु पक्ष के एक देश में रहता हो और पक्ष के एक देश में उसका अभाव भी रहता हो वह हेतु भागासिद्ध कहा जाता है । प्रस्तुत में पक्ष है उत्पत्तिक्षणविशिष्ट पृथ्वी से लेकर विनाशक्षण तक की पृथ्वी । उसका एक भाग है उत्पतिक्षणविशिष्ट पृथ्वी । उसमें गन्ध नहीं रहती है, क्योंकि उत्पतिक्षणावच्छेदेन द्रच्य निर्गुण गुणशून्य होता है यह प्रश्नकार प्रतिवादी नैयायिक की मान्यता है। पक्षतावच्छेदकावच्छिन में हेतु न रहने पर पक्षतावच्छेदकावच्छेदेन साध्य का अनुमान निरक्षित हेतु से नहीं हो सकता है। यदि वाचित गन्धवत्त्व हेतु हो तोह रह जायगा मगर वह इतरभेद = जलाविभेद का साधक नहीं हो सकेगा, क्योंकि वैसे तो कभी कभी जलादि उल्प में भी गन्ध होने पर भी साध्य = जलादिभेद नहीं रहने की वजह विवक्षित हेतु व्यभिचारी बनता है । साध्य को छोड़ कर रहनेवाला | हेतु साध्य का अनुमापक नहीं हो सकता है। यदि नेपारिक की ओर से यह कहा जाय कि "गन्धसमवायिकारणतावच्छेदक तो पृथ्वी ही है, न कि जलत्वादि भी जलादि में तो पृथ्वीत्व नहीं है । अतः जलादि कैसे गन्थारम्भक हो सकते हैं । हाँ, औपाधिक अन्यगत पृथ्वीसमवेत गन्ध की जल में प्रतीति मानी जाय तो बात अलग है तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो पूर्वकाल में सर्वा गन्ध से शून्य है, उससे तो कालान्तर में भी गन्ध का आरम्भ हो सकता नहीं है । पश्चात् काल में जलादि में गन्ध की उपलब्धि होती है, उसे औपाधिक मानने में गोरव है । अतः उसे स्वाभाविक अनीपाधिक जलादिगत गन्ध की प्रतीति मानना उचित है । अतः मानना होगा कि पहले जलादि में अनुद्भुत गन्ध =
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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