SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मनः गुणस्वभावनम ग्दर्शनादेः प्रकृष्यमाणत्वेन सिध्देन परमप्रकर्षेण सिध्दमिथ्यादर्शनात्यन्तनिवृत्त्यन्यथानुपपत्या संसारात्यन्तनिवृत्तिसिद्धेः कचिदिनिवृत्तौ आत्मनि सिद्धं गुणस्वभावत्वमन्यत्राऽप्यात्मत्वात्यथानुपपत्त्या साध्यते । दोषस्वभावत्त्वं तु विरोधाद् बाध्यते' इति अष्टसहस्सा यत्प्रपञ्चितं * नगलता * कर्मोदनिमित्तत्वात् । स चात्मनः प्रतिपक्ष एव । ततः परिक्षयों । तथा हि यो यत्रागन्तुकः स तत्र स्वनिरिनिमित्तविवर्द्धनबशात्परिक्षसी यथा जात्यंहेनि ताम्रदिमिश्रणकृतः कालिकानि. आगन्तुकश्चात्मन्यज्ञानादिगंलः इति स्वभावहेतुः । न तावदयमसिद्धः । कथम् ? यो यत्र कादाचित्क में तत्रागन्तुकः यथा स्फटिकाश्मनि लोहिताद्याकारः । कादाचित्कचात्मनि दीपः इति । न चेदं कादाचित्कत्वमसिद्धम् सम्यग्ज्ञानादिगुणाविर्भावदशायामात्मनि दीपानुपपतेः । ततः प्राकृतत्सदावाभृतिदशायानपि तिरोहितदोषस्य सद्भावान्न कादाचित्कत्वं सातत्यसिद्धिरिति चेत न गुणस्याप्येवं सातत्य । त च हिरण्यगर्भादिर्वेदार्थज्ञानकालेऽपि वेदार्थज्ञानप्रसङ्गः । ज्ञानाज्ञानयोः परस्परविरुद्धत्वादेकका प्रसङ्ग इति चेन ? नहि गुणस्यापि पुनराविभूतिदर्शनाद् दीपकालेऽपि सत्तामात्र सिद्धिः सर्वथा विशेषात् । तथा चात्मनी दीपस्वभावयसिद्धिद गुणस्वभावत्यसिद्धिः कुतो निवात ? विरोधादिति चेत ? दोपस्वभावत्वसिद्धिरेव निवासतां तस्य गुणस्वभावत्वसिद्धः । कुतः सेति चेत १ दोषस्वभावत्वसिद्धिः कृतः १ संसारित्वान्यथानुपपत्तेरिति चेत् तत्सारित्वं सर्वस्यात्मनो वचनाद्यनन्तं तदा प्रतिवादिनाऽसिद्धं, प्रभाणतो मुक्तिसिद्धेः । कुत इति चेतु इसे प्रचताः । कचिदात्मनि संसारात्यन्तं निवर्तन तत्कारणात्पन्तनिवृत्यन्यथानुपपत्तेः । संसारकारणं हि मिथ्यादर्शनादिकतुभगप्रसिद्धं कचिदत्यन्तनिवृत्तिमत तद्विधिसम्यग्दर्शनादिपरमप्रकर्षसद्भावात् । यत्र द्विधिपरमकसद्भावतच तदत्यन्तनिवृत्तिमद् भवति यथा चक्षुपि तिमिरादि । नदमुदाहरणं साध्यसाधनभर्मविकलं कस्यचिचक्षुपि तिमिरादेरत्यन्तनिवृतित्वप्रसिद्धेस्तद्विधिविशिष्टाञ्जनादिक सद्भावसिद्धे निर्विवादकत्वात । कथं मिथ्यादर्शनादिविरोधि सम्यग्दर्शनादि निश्चीयत इति तत्प्रकर्षे तदपकदर्शनात् । श्रद्धि प्रकृष्यमाणं यदकपति नन् द्विरोधि सिद्धम यथोपस्पर्शः प्रकृष्यमाणः शीतस्तद्विरेश्री मिथ्यादर्शनादिकमपकर्षति च प्रकृष्यमाणं कचित्सम्यग्दर्शनादि, तन (१ ततः ) तद्विरोधि । कथं पुनः सन्दर्शनादः कचितारक सिद्ध इति चेतु ? प्रकृत्र्यमाणत्वात् । गद्भि प्रकृष्यमाणं तत्कवचित्परमप्रकर्षसद्भाव भारदृष्टम् या नमगि परिमाण प्रकृष्यमाण सम्पन्दर्शनादि । तस्मान्परमकसावा | परत्वापरत्वायां व्यभिचार होत येन तयोरपि सायंन्तजगादिनां एनप्रकर्षाभावसिद्धेः न चापर्यन्तं जगदिति वक्तुं शक्यं विशिष्टसन्निवेशत्वान्पर्वत । यत्पुनरपर्यन्त नभ विशिष्ट सिद्धं यथा व्यास विशिष्ट सन्निवेशं च जगत् । तस्मात्मनः सपर्यन्तमिति निर्गादिनमन्यत्र । संसन्त इति चेत ? न तस्याप्यभाजावेषु परमप्रकर्षसद्भावसिद्धी प्रकृष्यमाणलेन प्रतीनः । एतेन मिथ्यादर्शनादिभिन्नभिचारः प्रत्याख्यतः नेणगायव्येषु परमकसद्भावात् । विरोधितया सिद्ध होने वाले सम्यग्दर्शनादि का अपकर्ष और प्रकर्ष होता है चरम = उत्कृष्ट प्रकर्ष भी अवश्य होना चाहिए, क्योंकि तारतम्यवाले भावों का उत्कर्ष अवश्य कहीं पर विश्रान्त होता है, जैसे परिमाण के उत्कर्ष का विश्राम गगनपरिमाण में होता है । जब सम्यग्दर्शनादि का चरम प्रकर्ष होता है तब मिव्यादर्शनादि की अत्यन्त निवृति होनी चाहिए, क्योंकि सम्यग्दर्शनादि उसका विरोधी होना है। जैसे गर्मी के दिनों में मध्याद काल में गगन स्वच्छ होने पर तप्त रास्ते पर गरमी का प्रकर्ष होता है या टाटा (फेक्टरी) की भट्टी में उष्णता का एकम होता है तब सैन्य की अत्यन्त निवृति उच्छेद होता है ठीक वैसे ही यह संगत हो सकता है । जब सम्यग्दर्शन, केवलज्ञान आदि गुणों के परमप्रकर्ष से मियादर्शन, मिथ्याज्ञान आदि दोषों की अत्यन्त निवृत्ति सिद्ध हो गई तब तो उसकी अन्यथानुपपत्ति के बन्द से संसार की भी अत्यन्त निवृत्ति सिद्ध हो जायगी। इस तरह परमप्रकृष्ट सम्यग्दर्शनादि से जिस आत्मा में संसार का अत्यन्त उच्छे मित्र होगा उसमें गुणस्वभावत्व की सिद्धि हो जायेगी, क्योंकि स्वभाव का उसमें स्वीकार करने पर तो दोष की सर्वया निवृत्ति ही अनुपपत्र हो जायेंगी। उसका विरोध होगा। आय के अधिकरण किसी एक आत्मा में गुणभाव की सिद्धि हो जाने पर तो अन्य भव्य अभव्य, जातिभव्य, दुग्भव्य आदि में भी गुणस्वभावत्व की सिद्धि हो जायेगी. क्योंकि वेसा न मानने पर उसमें आत्मत्य की अन्यथा अनुपपनि हो जायेगी । यहाँ अनुमानप्रयोग इस तरह होगा कि अभव्य, जातिभय आदि आत्मा गुणस्वभाववाली है, आत्मत्व की अन्यथा अनुपपति होने से मुक्तजीवन ऐसा मानने पर अपसिद्धान्त आदि दोषों को भी अवकाश नहीं है. क्योंकि अभव्य जातिभव्य आदि में सत्ता में तो केवलज्ञान, सम्यग्दर्शनादि गुण विद्यमान ही है। वह निरोहित है - वह अलग बात है । यह है अवीकार दिगम्बर जैनाचार्य विद्यानन्द का वक्तव्य । ४६३ =
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy