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________________ का. ४५ २४६२ मध्यरयावादरम्ये खण्डः ३ ** मांगा चेतनाधर्मत्वात् । अत एव चेतनाऽपि न प्रतिबिम्ब: किन्तु ज्ञानमेव, अमूर्तप्रतिबिम्बासम्भवात् । भास्तु 'मामहं न जानामी 'त्यात्मनि ज्ञायमानेऽपि न जानामी 'ति ज्ञानाज्ज्ञानाऽज्ञानोभयस्वभाव एवात्मा । अत एव मिथ्यादर्शनप्रकर्षापकर्षवत्त्वेन तद्विशेधितया सिद्धस्य सम्य विपयितास्वरूपी घटाकर काममस्तु । स तु न जडः सम्भवति चेतनाधर्मत्वात् चेतनाथमंस्प चेतनात्मकन्यात् धर्मस्य जात्मकत्ववत् अन्यथा तथाविधधर्मधर्मिभावाऽयोगात । अत एव = विषयिताम्पाकारस्य चेतनाधर्मत्वादेर, चेतनाऽपि न प्रतिविम्व: जडबुद्धिप्रतिविम्वले नत्वप्रसङ्गात् । किन्तु ज्ञानं एव चेतना पडवान्यं अमूर्त प्रतिविम्बाऽसम्भवात् । न हि कालप्रकृतिप्रमृतिप्रतिशिवं कदाचिदपि दृष्टम बुद्धेरपि चैतन्यत्वात् न प्रतिविम्वादयाः सम्भवात् । एतेन बुद्धिर्जा प्रकृति जन्यत्वादित्यपि प्रत्युक्तम्, तोरसितान ज्ञानामि चैतन्यरूपतासिधाञ्च । तमूर्त्तमूर्जप्रतिचिदं कल्पचन् कापिका कथं न विदुषां हास्यतां व्रजेत् १ न मूर्त्तस्य विषयाकारधारित्वं कचिद दृष्टन प्रतिविम्बस्य पोद्गलिकत्वं तु स्याद्वादरत्नाकरादितोव्ययम् । विस्तरतः सांख्यमतनिरासस्तु स्वाद्वादकल्पलतादितां बोध्यः । योगसारख्या निराकृत्य साम्प्रतं गमकर्तृगारी तन्मनमावेदयति भट्टास्तु इति आहुरित्यनेनाऽस्यान्चयः । ‘मामहं न जानामी’नि आत्मनि ज्ञायमानेऽपि = नाशज्ञानसन्चदशायामपि ' न जानामी 'तिज्ञानात् अज्ञानवत्त्वमपि तत्र निराबाधमिति सिद्धं ज्ञानाज्ञानोभयस्वभाव एवात्मेति । ततो न केवलमात्मने ज्ञानमयत्वं युक्त न वा अज्ञानमयत्वं किन्तु ज्ञानाज्ञानोभयमयत्वं ज्ञानाज्ञानी भयात्मकत्वमिति यावत । ज्ञानञ्च गुणोऽज्ञानख दोष इति सिद्धगात्मनां गुणदोषो नयात्मकत्वम् । गुण-दोन पदाविष्यति । अत एव आत्मनां गुणदोषोभयस्वभावत्वादेव. अस्य चान्ये यत्प्रपञ्चितं तत्राऽयमनुयोग इत्यनेनान्वयः । मिथ्यादर्शनति । अत्र सोपी गित्वात्पूर्वापरानुसन्धानद्योतनाय साम्प्रत मष्टसहत्र्यामुपलभ्यमानः पाठः प्रदर्शित । नक्तं तत्र विद्यानन्देन प्रथमपरि आममीमांसाचतुर्थकारिकाव्याख्यायां द्विविधां ह्यात्मनः परिणामः स्वाभाविक आगन्तुक । नत्र स्वाभाविकी जन्तज्ञानादिगत्मस्वरूपत्वात् मलः पुनरज्ञानादिरागन्तुकः, बुद्धि में चेतना का प्रतिविम्व तो नामुमकिन है, क्योंकि बेतना अमूर्त है। अमुर्त का कभी भी प्रतिबिम्ब पडता नहीं है, अन्यथा काल, आकाश आदि का भी प्रतिविम्ब आरसी में उत्पन्न होने में कोई बाधा नहीं होगी । अतः चेतना की ज्ञानात्मक मानना ही युक्त है और वह ज्ञानात्मक चैतन्य पुरुष में रहने की वजह पुरुष चेतन कहा जाता है ऐसा मानना सांख्य मनीषियों के लिए उचित है। ज्ञान की बुद्धि का धर्म मानने पर तो बुद्धि ज न हो कर चेतन वन जायेगी । इसलिए ज्ञान की जड बुद्धि का धर्म माननेवाले सांख्यों का मत अश्रद्धेय है । - आत्मा ज्ञानाऽज्ञानोमयात्मक है मह पूर्वपक्ष: भा । आत्मा के बारे में भट्ट के अनुयायियों का यह कथन है कि आत्मा न तो केवल ज्ञानस्वभाव है और न तो केवल अज्ञानस्वभाव है किन्तु ज्ञानाज्ञानोभयस्वभाव है । उसका कारण यह है कि 'मामहं न जानामि' ऐसी प्रतीति लोगों की होनी है जिसमें अपद से आत्मा ज्ञायमान = ज्ञानाश्रय होने पर भी न जानामि' अर्थात् 'ज्ञानवाला में नहीं हूँ' यह प्रतीति होती है । उक्त प्रतीति में ज्ञायमान होने से आत्मा ज्ञानस्वभावसिद्ध होती हुई भी केवल ज्ञानस्वरूप इसलिए नहीं कहीं जा सकती कि तब न जानामि यह प्रतीति अनुपपन्न बन जाती है । केवल ज्ञानस्वरूप आत्मा में ज्ञानाभाव नहीं हो सकता है। इसलिए उक्त प्रतीति के बल से आत्मा को ज्ञानाज्ञानोभयस्वभाववाली = ज्ञानाज्ञानांभवात्मक माननी की युक्त है। आत्मा गुणदोषोभयस्वभाववाली है यह निश्चित होता है। इसलिए अष्टहग्री ग्रन्थ में विद्यानन्द ने आत्मा में केवल गुणस्वभावत्व का प्रतिपादन किया है वह असंगत है । पहले दिवम्बर आचार्य विद्यानन्द ने अष्टसही ग्रन्थ में क्या कहा है ? यह सुनिये - आत्मा में केवल गुणस्वभावत्व है अष्टलक्ष्मीकार मिथ्या । संसार का कारण मिथ्यादर्शन आदि है, जिसका अपकर्ष और प्रकर्ष होता है । वह नभी संगत हो सकता है जब उसके विरोधी गुण का प्रकर्ष और अपकर्ष हो । जैसे सैन्य का प्रकर्ष होने पर उष्णता का अपकर्ष होता है और सैन्य का अपकर्ष होने पर उष्णता का प्रकर्ष होता है, क्योंकि सैन्य और उष्णता परस्पर विरोधी हैं। मिथ्यादर्शन आदि के अपकर्ष और उत्कर्ष की उपपति जिनके प्रकर्ष और अपकर्ष के अधीन है वहीं सम्यग्दर्शनादि शब्द से प्रतिपाय है। मिथ्यादर्शनादि - -
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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