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________________ ६.१८ मध्यमस्वादादरहस्य स्वण्टः ३ - का... * गांगतसिद्धान्तममीक्षा * 'धम्र्येव सन् धर्मास्तु परिकल्पिता' इति चेत् ? ताई 'धर्मा एव सन्तो, धर्मी तु परिकल्पित' इति विपरीतमेव किं न रोचये: ? किवं क्षणस्थितिधर्मकत्वेऽपि निमज्जति वस्तुनो नीरूपाख्यत्वापत्या क्षणिकत्वसिन्दान्तहानेः किं न बिभेषि ? स्थादेवत् - 'धर्मधर्मिणावेव धर्मधर्मिभावो न त कश्चिदतिरिक्त इति 'घदो नीलो', 'नीलघटौ' इति प्रतीतेरविशेषापातात् तदविशिष्टबुब्दावतिरिक्तसमवायभानमावश्यकमिति स *नयता - तनश्वासत्ख्यातिरपि वस्तगत्या न सर्वधाऽसख्यातिरपि त कश्चिदसत्रच्याति: स्याद्वाभिमतान्न्यथाख्यातिपर्यवसितन सिध्यनीति नात्पर्याधः सूक्ष्मक्षिकया भावनीयः ।। पुनः बौद्धः शकते --> धर्येच सन धर्मास्त परिकल्पिना इति धर्मधर्म भावस्य काल्पनिकत्वमेव, कल्पिनघटितस्याकल्पिनत्त्वाच्योगात इति चेन् । तर्हि धर्मधर्म भावस्य सां निकत्वसराधना) 'धर्मा एव सन्तो, धर्मी तु परिकल्पित' इति विपरीनमेव किं न रोचयेः १ एकान्तद्रव्यार्थिकपर्याप्याथिकनयानुसारिणावुभावपि पक्षी मिथ्यनि तु ध्येयम् । किञ्च, एवं क्षणिकत्वव्यतिरिक्तधर्मा कल्पिता आहोस्वित् सर्व एवं ? इति पक्षाभ्यी परिपीडपिन परम्फरनि । नत्र माद्यान्नवद्य:, क्षणिकत्ववत् तदतिरिक्तधर्माणामपि वास्तवत्वास हात, धर्मत्वा विशेषात् । अन: कोशापानप्रत्यायनीयोऽयमानः पक्ष: । द्वितीयपने आह - क्षणस्थितिधर्मकत्येक निमज्जति = विज्ञायाग सति निकमवत् सर्वेषु तदितरेण धर्मप निवर्तमानेषु सन्सु वस्तुनी निमपात्यत्वापत्या = नि:स्वभावत्वापल्या क्षणिकत्व सिद्धान्तहाने: सांगतसत । किं न विभेपि ? साम्प्रतं नैयापिकः प्रत्यवतिष्ठतं - स्यादेतदिति । धर्म-धर्मिणी एव धर्मधर्मभावः लाघवान, न तु कश्चित् अतिरिक्तः - धर्मधर्मव्यतिरिक्त इत्यभ्युपगमे 'घटो नीलः' भीलपटी' इति प्रतीतेः, जानिविवक्षयरकवचनमन्यथा द्विवचनमबान माधु. अविशेपापातात् धर्मधर्मिणोरेव तत्र भानात. तदन्यस्य कस्यचिदमानात । उभयत्र द्रयान्वगाहन:पि प्रश्नमध वैशिष्टयाचगाहिनी, न त्वपग । तत् = तस्मात् दर्शनप्रतीत्योः साम्यग्रमणात, तन्निराकरणाय विशिएयुद्धी अतिरिक्तसमचायभानं - धर्मधर्मिन्यतिरिक्तसमवायसम्बन्धाबगाहनं, आवश्यकं इति अवश्यवलुप्तत्वान् सः = समवाय एव धर्मधर्मिभावः यः 'घटा नील' इति विशिष्टबुद्धी प्रतीयत इति स्त्र धर्मधर्मिभावावगाहन माल-घटी' इत्याविशिएप्रतीती च न ज्ञायत इति नत्र न में रहे हुए रजतत्व का पुरोवी शुक्तिपदार्थ में संमृष्टत्व = सम्बद्धवरूप से अवगाहन करती है, न कि सर्वथा तुच्छ पदार्थ का । अतः असत्स्याति के स्थान में अन्यधाख्याति अभिपिचत होनी है . यह सिद्ध हुआ । धर्मधामभावविवार में बौहरमतUSGL... धर्ये । यहाँ यह कहना भी योग्य नहीं है कि -> 'धी ही सत् है, धर्म तो परिकल्पित ही है', <- क्योंकि चिनिगमक न होने की वजह 'धर्म ही वास्तविक है, धी तो कल्पित है। यह भी कहा जा सकता है । अतः यही आपको क्यों पसंद नहीं आया ? इस प्रभ का आपके पास कोई प्रत्युनर नहीं होगा। इसके अतिरिक्त यह भी ध्यातव्य है कि - यदि सर धर्मों को सर्वथा काल्पनिक माने जाय और धर्मी को ही वास्तविक माना जाय तब तो आप क्षणिकबादी के सिद्धान्तानुसार सब धर्मी में रहनेवाला क्षणस्थितिधर्मकत्व = क्षणिकत्व भी काल्पनिक हो जायेगा। अतः 'सर्च क्षणिक' यह सिद्धान्त भी भान हो जायेगा । तथा क्षणिकत्व की भाँति कोई भी धर्म आपके इस सिद्धान्तानुसार धर्मी में न रह सकंगा, तर तो धर्मी निरुपारण्य - अनिर्वचनीय बन जायेगा तब 'क्षणिक सव' ऐसा निर्वचन भी कैसे हो सकेगा ? आपकी इस नवीन कल्पना के अनुसार नो क्षपिकत्वसिद्धान्त भी पलायन हो जाता है । क्या आपको इसका कोई खीफ नहीं है ? धर्म धर्मि भावमीमांतर्गत यायिका नजिकरणEH __ स्यादतन. । धर्मधर्मिभाव को अतिरिक्त मानने पर गौरव दोप प्रसक्त होने की वजह धर्मी और धर्म ही धर्मधर्मिभाव है, न कि उनसे अतिरिक्त . ऐसा माना जाय न तो 'घटो नीलः' और 'नीलपटी पे नोनों ही प्रतीति ममान बनने की आपत्ति आयेगी, क्योंकि धर्म और धर्मी से अतिरिक्त अन्य किसीका वहाँ भान नहीं होता है। मगर उक्त दो प्रतीति ममान नहीं मानी जाती हैं। प्रधम प्रतीति में धर्मिविधया केवल एक का ही भान होता है, जर कि दूसरी प्रतीति में थर्मिविधया दो व्यक्तियों का भान होता है । इसलिए उक्त प्रनीति में भेट की उपपत्ति के लिए धर्म और धर्मी से अतिरिक्त
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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