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१४२ मध्यमव्याद्वादहस्य खण्डः ३ का १९ * मुक्तावली प्रभा विजयादिकृतदर्शनम *
nect रूपत्वादिनी दाडरूपादेः कुतोऽन्यथासिदिति चेत् ? 'पूर्ववृत्तित्वाम'त्यस्याऽन्वयव्यतिरेकित्वमित्यर्थात् । न ह्यतिप्रसक्तेन रूपत्वादिनाऽन्वय-व्यतिरेक: सम्भवतीत्रोके । तच्चिन्त्यमित्यारे -> रूपत्वादिनाऽपि स्वाश्रयेत्यादिसम्बन्धेलान्वयळ्यतिरेकसाभवात् ।।
-* भयतना मुक्तावलीकारस्तु - 'बाय स्वातन्त्र्यण न्यायव्यतिरेको न स्तः किन्तु कारणमादायवान्चयन्यनिरेकी महान तदन्यवासद्धं यथा दण्डरूपमिति' (का, ११. म...२१२) इत्युकावन् । तत्र च प्रभाकार: कारणपदस्य स्वतन्त्रान्चबव्यतिरेकशामिपरतयः तद्भवछिन्ननिरूपितसाक्षात्सम्बन्धावछिन्नान्वयभ्यनिरंकशान्निस्तियविच्छिन्नतत्कायनिरूग्निनियनपूर्वनितश्रयत्वं तत्कानिकपितान्यधासिद्धमिति' ब्याचष्टे । .. ......... .
महादेवस्तु - 'स्वातन्त्र्येण नत्कार्यनिम्तपतान्वयव्यतिकिदान्यत्वं सति तन्कार्यकारणान्दिनस्वनिष्ठतत्कार्यनिरूपिनियतपूर्वनित्वग्रहविशेष्यनाकं यत् तत् नत्कार्य प्रत्यन्यथासिमित्यर्थः। कपालसंयोग घटावोत्यादिपर्ववत्तित्वग्रहनिष्यनायाः कपाल संयोगनिष्ठायाः कपालावच्छिन्नत्वात कंगालसंयाने निव्या निवारणाय सत्यन्तम् । दण्डात्वादिगरणाय विवामिनि' न्यारत्र्यातवान
गदाथरस्तु कारणतावाद ‘काग्मान्तरेण सह यदूपावभिन्नस्य यादहकार्य प्रति पूर्ववर्तित्वमगत नपान्छिन् नाशकार्य प्रत्यन्यथासिद्भम. यथा घटादिकं प्रति दण्ड पत्वाद्यच्छिन्नं दण्डसमवहित चक्रत्वाद्यच्छिन्नञ्च' इति न्यावष्ट ।
ननु अत्र = आधान्यथासिद्भलक्षण रूपत्वादिना दण्डरूपादेः घटं प्रति कृतोऽन्यथासिद्धिः स्यात. विनापि दण्डादिनान रूपत्वादिना दण्डरूपादा घरपूर्ववृत्नित्वादिग्रहसम्मवात इति चंन ? तब वदन्ति - येन गहब यस्य यं प्रति पूर्वनित गृहात | नत्र नदाद्यमिति नक्षगघटकस्य 'पूर्ववृनिवमित्यस्य अन्बपन्यतिरकिन्वमित्यर्थात् अन्वयव्यतिरेकग्रनियांगित्वमित्यादिति यावत् । ततश्च पन सहव यद्पावच्छिन्त्रस्य यं प्रति अन्चयल्यगिकतं गृहाते तत्र तद्रगावच्छिन्नं प्रथममित्यर्थी नभ्यते । दण्डझपादः घटादिकं प्रति दण्डरूपत्यादिना अन्वयल्यतिकिवं ग्राह्यं न तु रूपवन, अतिप्रमतत्यान ! न हानिप्रसन्न रूपत्यादिना दण्डझपादः घटे प्रति अन्यन्यनिरकः सम्भवति। समन्वय घटोत्यादान्वयन्यतिरेकप्रतियोगितावन्दकले नन्नेषु बटीयपीय-दण्डीयम्पादिपु घटकारणत्वकल्पनापन्या गौरवात दण्टुरूपयादिकमेव लविति ग्रहात दण्डरूपत्वना नधाचे दण्ड पत्यावन्निस्य दण्डान्वयव्यतिरेकभिन्नन्वयन्यतिरकारतियोगिन घटे प्रत्यन्पथामिद्धन्यसिद्भया घटकारणत्याज्यात विशेषणाभाक्प्रयुक्तविशिष्टाभावाश्रयत्वादिति एक ।
तचिन्त्यमिति अपर दन्ति- रूपत्यादिनाऽपि दण्डरूपादेः घटे पनि स्वाश्रयेत्यादिसम्बन्धन = म्याश्रयजन्यच्यापारसम्बन्धन प्रनि अन्यथामिद्ध मिद्ध होता है . ऐसा कुछ विद्वानों का कहना है ।
रूपापेन दण्डरूप में कारणता की शंकाएपरिहार नन्वत्र, । यहाँ इस शंका का कि → "यदि 'येन सहर यस्य पूर्ववृत्तिच...' म रूप में आय अन्ययामिद्ध का लक्षण बनाया जाय तर तो रूपचन दण्डरूप में घट कारणता की आपत्ति आयगी, क्योंकि इण्टरूप का दण्डम्पयन भान करना हो नभी दण्ड के साथ ही दण्डरूप का ज्ञान हो सकता है । मगर रूपत्वेन दण्डरूप का भान करना हो तब दण्ड के साथ ही उसका भान हो . यह नियम नहीं हो सकता, क्योंकि दण्ट का उसमें प्रवा ही नहीं होता है । नब ना रिना दण्ड के रूपवन दंडरूप में घटपूर्वनिता का भान हो जाने से रूपत्वेन दण्डरूप घट के प्रति अन्यथासिद्ध नहीं बन सकेगा" <-समाधान यह है कि प्रथम अन्यथासिद्ध के लक्षण में जो पूर्ववृनित्वपद है उसका अर्थ है कार्योत्पादान्वयन्यतिरेकप्रतियोगित्व। अर्थात् जिस धर्म से जिसमें कार्योत्पाद के अन्वय पर्व व्यतिरंक की प्रतियोगिता । तब लक्षण यह प्राप्त होगा कि जिस कारण के साथ ही जिस धर्म से जिसमें कार्य की उत्पत्ति के अन्यय-व्यतिरेक की प्रतियोगिता का भान हो यह उस कार्य के प्रति अन्यभासिद्ध है। दण्डरूप में घटोत्पाद के अन्य-न्यतिरक की प्रतियोगिता का भान रूपवन नहीं किन्तु दण्डरूपत्वेन हो होता है, क्योंकि रूपन्य तो दण्डप को छोड़ कर घटरूप. पटरूप आदि में भी रहता है, जिसमें घट के अन्वय-व्यतिरेक निरूपित प्रतियोगिता किसीका मान्य नहीं है। अन्वय-व्यनिग्कानियोगिनापच्छेदक धर्म नो अन्चय-न्यनिक निरूपिन प्रतियोगिना मे अतिरिक्तवृत्ति नहीं होना चाहिए । इमलिए दण्डपल्पन ही दण्डरूप में नाइश अन्वय-व्यतिरेक की प्रतियोगिता का भान मानना होगा । मगर तब तो टण्ड का भी अवश्य भान हो जायेगा, क्योंकि दादरूपन्न का शानिक घटक दण्ड है और घटक के भान के बिना घटित का भान कभी भी नहीं होता है । इमलिए रूपत्वेन दारूप में घट के प्रति अनन्यधासिद्धन्व की आपत्ति का अवकाश नहीं है . ऐसा कछ विद्वानों का कथन है।
नि । मगर यह कथन विचारणीय है, न कि चिना विचार के स्वीकार्य है - एसी अपर मनीपियों की गय है।