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________________ ७८ मध्यमस्याद्वाद रहस्य खण्ड ३ का. १५ * जन्यतावच्छेदकविचारः ** अत्र प्रतिक्रिया युक्तं तज्जन्यसत्त्वं लघुगदितमवच्छेदकं जन्यतायाः, तत्किं तत्रापि हेतुर्न भवति नियति: कालिके नैव वादिन् ! पाशास्ज्जुः किलात्र प्रभवति भवतो बन्धनावन्ध्यबीजं, साक्षी लाक्षीणमूर्तिर्विभुनि भवति भोः कोऽपि संगोपितात्मन् 11901 जयलचा औ | घटत्व-पटत्वादीनामानन्त्येन कार्यतावच्छेदकानन्त्यप्रयुक्तानन्तकार्यकारणभावापत्तिः । ततो न कार्यत्वावच्छिन्ननिरूपितकालिकसम्वनिक स्वीस ! ननु जन्यत्वं न कालिकेन घटत्वादिस्वरूपं नानाविधं किन्तु स्वरूपसम्बन्ध एवं जन्यत्वमिति न जन्यत्वावच्छिन्ने दृष्टस्य कालिकेन हेतुत्वे गौरवमित्याशङ्कायां नैयायिक आह अथ स्वरूपसम्बन्धः तत् = जन्यत्वं अभिमतं अस्तु तथा तथापि अनित्याभावत्वं = अनित्याभावप्रतियोगित्वं = प्रागभावप्रतियोगित्वं एव तत् = जन्यत्वं स्वीकर्तुमर्हति । परन्त्वेवमपि गौरवमपरिहार्यमेव स्वरूपसम्बन्धरूपस्य प्रागभावप्रतियोगित्वलक्षणस्य जन्यत्वस्य प्रतियोगिभेदेन भिन्नत्वात् । तथा च कार्यतावच्छेदकानन्त्यप्रयुक्तानन्तकार्शताया: कालिकसम्बन्धावच्छिनाया अदृष्टनिष्ठायाः स्वीकर्तव्यत्वेनानन्तकार्यकारणभावापत्तिस्तदवस्थैव । ततो न जन्यत्वावच्छिन्नं प्रति कालिकेनादृष्टस्यकं कारणत्वमुक्तं युक्तं किन्त्वत्मदभिमतं द्विविधमेवेति नात्मवैभवोऽस्माकं दुर्लभ इति नैयासिकाशयः ॥ अत्र = निरुक्तनैयायिकनये स्याद्भादिनामियं प्रतिक्रिया कालिकसम्बन्धावछिन्नजनकतानिरूपिताया जन्यतायाः अवच्छेदकं कालिकन घटत्वादत्वाद्यपेक्षया प्रागभावप्रतियोगित्वापेक्षया वा लघुगदितं जन्यसत्वं एव युक्तं = पुक्त्यनपेतं तस्य द्रव्यजन्यनावच्छेदकतया सिद्धत्वेन क्वात् अदृष्टकार्यताऽन्यूनानतिरिक्तवृत्तित्वाच्च तत् = ततः तस्मात् कारणात हे वादिन् ! तत्राऽपि = जन्यसत्यावन्नपि कालिकनैव नियतिः तत्तद्रव्य क्षेत्रकालभावभव भाविपरिणामनैयत्यान्यधानुपपत्त्या लग्नात्मलाभा नियतिपदवाच्या किं हेतुः न भवति ? भवतीति स्वीक्रियते नैयायिकेन तदा परमतप्रवेदाः आत्मवैभवासिद्धिश्व नियत्यैव विप्रकृष्ट| देशादी जायमानकार्यजातनैयत्यापपत्तेः । न चैन्द नेयत्वं स्वभावप्रयोज्यं, स्वभावस्य कार्येकजात्यप्रयोजकत्वात् । न भवतीत्युच्यते नैयायिकेन तदा नात्मवैभवस्वीकारेऽपि नियतरूपावच्छिन्नसमग्रकार्यव्यवस्था सङ्गगच्छत इति किलात्र उभयतः पाशारज्जुः प्रभवति यस्मात् भवतो नैयायिकस्य उभयत्रापि प्रदर्शितरीत्या बन्धनाऽवन्ध्यवीजं भवति । अतो भोः ! संगोपितात्मन ! ऐसे मार्ग का अभाव नहीं है, क्योंकि कालिकसम्बन्ध से घटत्व सभी कार्यों में ही रहने से कार्यत्वसमनियत होने की वजह समस्त कार्यों का अनुगमक हो सकता है। मगर इस तरह कार्यता कालिकसम्बन्ध से पटत्वादि स्वरूप भी बनती है। मतलब कि कालिकसम्बन्ध से घटत्व पटत्वादि धर्म से भिन्न कार्यत्वनामक एक अतिरिक्तधर्म की अप्रामाणिक कल्पना नहीं हो सकती है । एवं घटत्व पटत्वादि धर्म अनन्त होने से घटत्य, पटत्वादि अनन्त धर्मों से अवछिन अदृष्टनिष्ठ कालिकसम्बन्धावच्छिन्न कारणता अत्यन्त गुरु बन जायेगी । अतः कार्यत्वावच्छिन के प्रति अदृष्ट को कालिकसम्बन्ध से कारण नहीं माना जा सकता । यदि कार्यत्व को स्वरूपसम्बन्धात्मक माना जाय तब वह अनित्याभावत्व = प्रागभावप्रतियोगित्वात्मक ही हो सकता है । स्वरूपसम्बन्धात्मक प्रागभावप्रतियोगिता प्रतियोगिभेद से भिन्न होने की वजह पुनः कार्यता अवच्छेदक आनन्त्य प्रयुक्त अनन्त कारणता के स्वीकार का गौरव बज्रलेप बन जायेगा । इसलिए जन्यत्वावच्छिन्न के प्रति कालिकसम्बन्धावच्छिन्न अदृष्टनिष्टकारणता का स्वीकार संगत नहीं है ॥९॥ जन्यसत्व में कार्यतावच्छेदकता मुमकिन छ स्याद्वादी :- मगर विचार करने पर कालिकसम्बन्धावच्छिन्न कारणता से निरूपित कार्यता के अवच्छेदकविधया जन्यमत्त्व की स्वीकार किया जा सकता है, क्योंकि वह कालिकसम्बन्ध से घटत्व, पटत्व आदि की अपेक्षा एवं प्रागभावप्रतियोगित्व की अपेक्षा लघुधर्मस्वरूप कहा गया है। अब तो अदृष्ट में कालिकसम्बन्ध से अवच्छिन्न कारणता का, जो जन्यसत्त्वावच्छिन्न है, स्वीकार मुमकिन ही है । तब आत्मा के विभुपरिमाण की सिद्धि कैसे हो सकेगी ? क्योंकि इस कार्यकारणभाव में संयोग सम्बन्ध का ही निवेश नहीं किया गया है । दूसरी बात यह है कि हम तो निर्यात में भी कालिकसम्बन्ध से अवच्छिन कारणता का, जो जन्यसत्त्वावच्छिन्न है, स्वीकार कर सकते हैं । हें वादी नैयायिक कालिकसम्बन्ध से ही नियति जन्यमत्वावच्छिन्न के प्रति कारण हो सकती है या नहीं यदि हाँ ऐसा जवाब आग देंगे तब तो कार्यनयस्थ की संगति नियति में ही हो जायेगी। कहाँ कर, किसको किस तरह, किस प्रमाण में किस चीज का मिलना १ इस नियम की व्यवस्था तो नियति ही कर लेगी, क्योंकि नियत रूप से ही पदार्थों की उत्पत्ति के अनुरोध से यह मानना आवश्यक है कि सभी पदार्थ किसी
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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