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६५२ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड ३ का. १९ * त्रुटिचाधुपकारकरणात
सतित्वे त्रुटिग्रहार्थ प्रत्यासतित्वमावश्यकमेवेति तेत् ? व द्रव्यतत्समवेतप्रत्यक्षे महत्त्वस्य समवाय-सामानाधिकरण्याभ्यां पृथक् कारणत्वात् । च परमाणौ पृथिवीत्वादिप्रत्यक्षापत्ति
ॐ जयत्राता
महदुद्भूतरूपतत्समवेतत्वत्वादिना प्रत्यासनित्वस्वीकारावश्यकत्व इति । अयमथाशयः स्वसंयुक्तसमंतत्वस्य स्वसंयुक्तसमवेतत्वत्यादिना प्रत्यक्षकारणतावच्छेदकप्रत्यासत्तित्वस्वीकारे यशुकपरमाणुरूपयो: चाक्षुपं स्यात् चक्षुषः स्वसंयुक्तसमवेतत्वसंसर्गेण तत्र सत्यात् । न च तत्प्रत्यक्षं भवति । अतः चाक्षुषकारणतावच्छेदकप्रत्यासत्तिनध्यं महत्त्वस्य प्रदेश: शरीरात्यवादिनाऽवश्यं कर्तव्यः । तथापि इन्द्रियरूपाद: चाक्षुपं दुर्निवारं तत्र स्वसंयुक्तमहत्त्ववत्समवेतत्वसंसर्गेण चक्षुषः सन्यात | अतः तदप्रत्यक्षत्वानुरोधेनोद्धृतरूपस्याऽपि तन्न निवेशः कार्यः । ततश्च विषयतासम्बन्धेन तत्समवेत प्रत्यक्षत्वावच्छिन्नं प्रति स्वसंयुक्तमहदुद्धृतरूपवत्समवत्त्वसंसर्गेण | मन: चक्षुः सार्शनेन्द्रियान्यतमस्य कारणत्वं शरीरात्मादिना स्वीकर्तव्यम् । तथा च वसंरेप्रत्यक्षानुपपत्तिः, तत्समवायिनों द्वयस्य महस्वहीनत्वेन तत्र स्वमंयुक्त महदुद्भूतरूपवत्समवेतत्वसन्निकर्षेण चक्षुषीऽन्वात् । अतः त्रुटिग्रहार्थं = बसरेगुचाक्षुषोपपत्तये संयोगस्य स्वातन्त्र्येण प्रत्यासत्तित्वं प्रत्यक्ष कारणतावच्छेदकसत्रिकर्षत्वं आवश्यमेव । इत्यञ्च चापानुरोधेन चक्षुः स्वसंयोगसम्बन्धेन प्रत्यक्ष कारणत्वाभ्युपगमे शरीरात्मवादिनः 'संयोगस्य पृथकप्रत्यमनित्या: कल्पनलाघवमिति वचनं लक्त इति तुल्यगौरवमुभयते इति शरीरातिरिकात्मवादिनस्तात्पर्यम् ।
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नञ्पनास्तिकास्तदराकुर्वन्ति नेति । लौकिकविषयतासम्बन्धेन द्रव्यतत्समवेत प्रत्यक्षं महत्त्वस्य उपलक्षणात तपस्य च समवायसामानाधिकरण्याभ्यां पृथक् कारणत्वादिति । अयं शरीरात्मवाद्यभिप्रायां लौकिकविषयतया द्रव्यप्रत्यक्षं प्रति महत्त्वोद्भूतरूपयोः समवायन द्रव्यसमवतसाक्षात्कारं प्रति च तयो: सामानाधिकरण्येन कारणत्वम् । ततश्च द्रव्यतत्समवेत प्रत्यक्षं प्रति स्वसंयुक्तसमवेतत्वत्वेन प्रत्यासत्तित्वमनपायम् । स्वसंयुक्तसमवेतत्वमत्रिकर्षण नेत्रवति यशुक्रे समवायेन परमाणुरूपं च सामानाधिकरण्येन महत्त्वस्य इन्द्रियपिशाचादौ समवायेन तदीयपदी च सामानाधिकरण्येतस्य विरहान्न तत्साक्षात्कारापतिः । | एवं प्रत्यक्षप्रत्यासत्तिमध्ये महत्वोद्भूतरूपवीरप्रवेशेन न त्रुटियाक्षुषाधिन संयोगस्य पृथकप्रत्यासनित्वं कल्पनीयग, चक्षुः संयुक्तशुकसने संगी स्वरांयुक्तसमवेतत्वसम्बन्धेन चक्षुषः सत्यात् ।
अतिरिक्तात्मवादिदाङ्गकामपाकर्तुमुपक्रमन्तं • न वेति वाच्यमित्यनेनान्वेति । परमाणी पृथिवीत्वादिप्रत्यक्षापत्ति
के साथ चक्षु का स्वसंयुक्तमहद्भूतरूपवत्समवाय सम्बन्ध नामुमकिन बनने से आपादित चाक्षुष का परिहार हो सकेगा। मगर इस परिस्थिति में एक नयी समस्या खड़ी होगी कि त्रसरेणु का चाक्षुप न हो सकेगा, क्योंकि त्रसरेणु के अवयव द्र्यगुक में महत्त्व नहीं होने से स्वसंयुक्तमहदुद्भूतरूपवत्समंतत्वसम्बन्ध से चक्षु की सरेणु में उपस्थिति नहीं है । अतः त्ररेणु | के चाक्षुप की उपपत्ति के लिए दो संयोग को स्वतन्त्र प्रत्यक्षकारणतावच्छेदक सम्बन्ध मानना ही होगा तभी स्वसंयोग सम्बन्ध से में चक्षु के होने की वजह उसमे विषयता सम्बन्ध से चाक्षुप उत्पन्न हो सकेगा। इस तरह त्रुटिया के अनुरोध से संयोग में पृथक प्रत्यक्षकारणतावच्छेदकप्रत्यासतित्व की कल्पना आवश्यक ही है तब शरीरात्मवादी के मत में प्रत्यासतिलाघव कैसे मुमकिन होगा ! ←←
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* महत्व और उद्भूतरूप में स्वतन्त्रकारणता
न.द्र. तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि लौकिकविषयता सम्बन्ध से वन्यप्रत्यक्ष के प्रति समवाय सम्बन्ध से महत्त्व एवं उदभूत रूप में स्वतन्त्र कारणता मान लेने पर एवं लौकिकविपयता सम्बन्ध से द्रव्यसमवेतविषयक प्रत्यक्ष में सामानाधिकरण्य सम्बन्ध से महत्त्व एवं उद्भूत रूप को स्वतन्त्रतया कारण मान लेने से चक्षुः संयुक्तसमवाय को स्वसंयुक्तररमतत्वरूप से भी कारण मानने में परमाणुरूप, द्व्यणुक, चक्षु आदि के रूप के प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं हो सकती है। द्वयणुक में समवायसम्बन्ध से महत्त्व ही नहीं रहता है एवं परमाणु, चक्षु आदि के रूप में सामानाधिकरण्यसम्बन्ध से क्रमश: महत्त्व एवं उद्भूत रूप ही नहीं रहते हैं । कारणान्तरविरह की वजह उनके प्रत्यक्ष की आपत्ति को अवकाश कहाँ ? त्रसरेणु में तो समवाय सम्बन्ध से महत्त्व रहता है । अतः द्वयक के महत्त्वहीन होने पर भी स्वसंयुक्तसमवेतत्वसम्बन्ध से त्रुटि में चक्षु रहने की वजह रेणु का चाक्षुप निराबाध है । इस तरह संरेणु का चचसंयुक्तसमवेतत्वसम्बन्ध से ही प्रत्यक्ष सम्भव होने से संयोग की पृथक प्रत्यक्षकारणतावच्छेदक प्रत्यासत्ति मानने की शरीरात्मवादी के मन में आवश्यकता नहीं है ।
अयोग्यवृत्तिधर्मायोज्यमपिभावकूट प्रत्यक्षमात्र का कारण
न च । यहाँ यह भी कहना कि 'स्वसंयुक्तसमवेतत्वसम्बन्ध को प्रत्यक्षकारणतावच्छेदकप्रत्यासत्ति मानने पर तो