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नमन मागरम न पपान पर * शहकावकाशात् । त शरीरस्याऽऽत्मत्वे मृतकलेवरेऽपि ज्ञानोत्पत्ति: स्यादिति वाच्यम् ज्ञानजनकविजातीयमन:संयोगापगमात । आत्मनः शरीरानतिरेके संयोगस्य पृथकप्रत्यासत्तित्वाऽकल्पनलाघवमपि ।
A दवाणुकपरमाणुसपाधप्रत्यक्षाय चतुःसंयुक्तमहत्वरूपवत्समवायत्वादिना प्रत्या
त्वचिंगेविलपि पगकनम् । न च शरीरस्य आत्म पगाणप. शामा सामान. मृतकलंपि. किमन निद्रापन्देहे इत्यपिशब्दार्थः, ज्ञानोत्पनिः स्यात, नत्यामग्रीसच्चादिति वाच्यम्, नदान जानजनकविजातीयमन:संयोगापग-॥ मान् = ज्ञानारामवापिकारणस्य विजातीयमन:पयोगस्य इगर बिनाशात् नबनातानि:, कलतमा मग्यापन कार्यजनकलान .
आत्मशरोग्यादी स्वप्नं दृष्टयन आत्मनः शरीगननिरके = देहाभिन्नत म्याक्रियमाणे, संयोगस्य पृथकप्रत्यामनिवाकल्पनलाघवमपि। इदमत्राकृतम् - साताशगरव दिनते रम्मानमसाक्षात्कार मन्म: स्वसंरकरामतत्वसम्बन्धन काम्पत्वं सम्भवति, देहस्वरूपस्यात्मनः मन: मंयुकावयवरामशेतन्यान् । पर दागति निन्मदिमते आत्मना निरन्याचेन तन मनस: स्वसंयुक्नसमवेतवसम्बन्धो न सम्भवतःति स्वसंगांगगम्बन्धस्य तदनन्यायकारणतायटक प्रत्यास निमिया कमनीयत्वम् । शरारत्ताचादिमन्तु लौकिक विषयतया इन्यदलाचनप्रत्यक्षात्यावाच्छन्न प्रतिरक्तसमय सम्बन्धनचन्द्रियापक पदम भ्यागम्यते । तथाहि घरस्य चन:संयुकिवालसमवेतवन घरम्पादश्च नक्ष:संयुकयामतन्वन नक्षपः ला स्वसंयुक्तरगतमम्बन्धन सवान तत्र लौकिकविषयनया दाक्षपापपत्ति: सुकम। अना नात्यशरीरमादिना योगम्य स्वातन्त्र्येण लाफिकविषयनामिनदा. प्रत्यक्षनिष्ठकार्यतानिरूपित कारणतावच्छेदकतानित्वं कल्पगमति गायबम । कश्चित्तु आधुनिक गतिरीकात्मनागमन झाररात्मना; संगोमाकम्पनलाय गत्याचष्टे. नन्न. अनमग्रन्थानमनापन: ।
अनिग्निात्मवादी गइकन अनि चदित्यनेनान्चति । द्रुयणकपरमाणुरूपाद्यप्रत्यक्षाय = इयष्क . परमाविमा मार्दनामप्रत्यक्षमा पपनये वक्षःसंयुक्तमहदभूतरूपवत्समवायत्वादिना प्रत्यासनिन्ने - चक्षणः स्वतंयुकला मंचनत्यम्य संसक्त
मन:संयोग नहीं होने की वजह उसमें ज्ञान की उत्पत्ति होती नहीं है । अतः अगर को ज्ञान = चतन्य का उपादान कारण मानने में कोई दांप नहीं है।
मालीसामवादी को प्रत्याशिलाशा आन्मनः। शरीर को ही आत्मा मानने में एक लाभ यह है कि संयोग को प्रत्यक्ष जनकप्रत्यासनि मानने की कोई आवश्यकता नहीं रहने मे माश्चात्कारजनकतावच्छंटक सम्बन्ध के शरीर में भी राघब होता है। देखिये, आत्मशरीरबादी के मन में आत्मा के मानस प्रत्यक्ष की कारणतावच्छेदक पनयामनि होगी स्त्रसंयुक्रममवतन्य । स्व = मन, उसमें संयुक्त शरीगवपर, उममें समवेत है शरीर । शरीर में स्वमंयुक्तसमवेतत्वसम्बन्ध में मन रहन से वहाँ विषयतासम्बन्ध मे मार्गस्वरूपात्मगोचर मानम साक्षात्कार उत्पन्न होगा। मरीतिरिक्तात्मवादी नयायिकादि के मत में आत्मा निन्चयब होने से मन का आत्मा के माध स्वसंयुक्तसमवनत्व सम्बन्ध नहीं हो सकता । अन: आत्मभानसात्या के अनुगंध में स्वर्मयोगसम्बन्ध को ही भान्ममानमप्रत्यक्ष की कारणतावच्छेदकान्यासत्ति माननी होगी। स्व = मन, उसका संपांग आत्मा में होने से मन स्वर्मयोगगम्बन्ध में आत्मा में रह कर वहाँ विषयता सम्बन्ध से मान्ममानमसाक्षात्कार को उत्पन्न करेगा । इस तरह शरीरातिरिक्तात्मवादी के मत में आत्ममानस के अनुरोध से गंयोग की स्वातन्त्र्येण प्रत्यक्षकारणताषचंद्रदक सम्बन्ध मानना आवश्यक होता है जब कि शरीरात्मवादी के मत में किसी भी प्रत्यक्ष की कारणतावच्छनकनन्यायत्तिविधया योग का स्वतन्त्र स्वीकार करना आवश्यक नहीं है । सभी द्रव्यों का स्वसंयुक्तसमवायमम्बन्ध से ही प्रत्यक्ष हो सकता है । जैस चक्षुसंयुक्त काल में समवेत बट में स्वसंयुक्तसमतत्व सम्बन्ध में बन रहने में वहाँ विषयता सम्बन्ध में घटगोचर चाक्षुप माक्षात्कार होता है। एवं अन्यत्र भी स्वसंयुक्तसमवेतत्व सम्बन्ध में ही द्रव्य और द्रव्यममयन के प्रत्यक्ष की उपपनि हो जाने में संयोग को पृथक् प्रत्यक्षकारणतावच्छेदक सम्बन्ध मानने की गरागत्मघाटी के मन में आवश्यकना न होने में लापन है ।
थ.। यदि यह कहा जाय कि -> 'द्वयणक, परमाण एवं चक्ष आदि के रूप के चाक्षुप के परिहागर्थ चक्षुःसंयुक्तममवाय को वक्षःसंयुक्तमहर तरूपचन्ममवायत्वरूप से हो चाक्षुप प्रत्यक्ष का काराणनावच्दक सम्बन्ध मानना परंगा जिमक फररूप में द्वपणुक और परमाणु में महत्व एवं वन आदि में उदभुत रूप नहीं होने में इयणुक एवं घर - परमाणु भाटि के रूप