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________________ * ऋजुमतप्रकाशनम् * एकाशि- ताऽव्याप्यवृत्तीनि नानावपाण्येत । न चावचछेदकतया नीलाद्यभावादिसामग्रीबलात्पीताधवयवावच्छेदेन नीलाद्यापतिः, अवच्छेदकतया जन्यरूपत्वावच्छिन्नं प्रत्येवाडवच्छेदकतया रूपत्वावच्छिन्नाभावस्य हेतुत्वात् । न चैवमपि नील-पोतावयवार पीतावरावा - यI . एकडेगिनस्विनि । शिरोमणिभट्टाचार्य मनानपाचनान्यतयः नः पूनःकल्पाला पिया। नंयार तत्र = नानाजानीयरूपनववारच्चवर्यानि, अनन्दकतासम्बन्धन अन्याप्यवृतीनि नानारूपाणि एच उत्पमन्त । न च नाई 'एक मां' इति प्रततिः कथं : इत्पदीरणीयम, को चान्यगदिशः' इतित्रत लम्याः समकवविषयल्यान । एतेन अनिरिग,कचित्ररूपकल्पनापि परास्ना, गौरवात् । नचादि नियन्गभिन्न प्रति नारन्यादिना इतृत्वं व्यभिचागत. मगबन तन्नादमात्रारब्धःपि नापन:, नीदना-तिनम्त्यादिनातभावं. पाकचित्र भिचागन् । न च पकजांच मामामार इन वान्यम्, तथापि चित्रम्धले नालानिमाणीवाद मालामापनियानी-मादी लिन पाद: प्रनिबन्धकल्पकल्पन माग्मान। आधयाप्यनिनागरिकपन य गरयः । नाहि. बच्छदकनया गालादा मप उत्पन्न पुनम्जना गम्बन्धेनाध्यय नालादिरूपांत्यनिवारणाय अव-दकनासम्म धन रादिक. प्रति असन्तासम्वन नामद निवन्धमात कलगर्गमिर्गत गारचम । न चाकसमन्वन्नाम दमित्यजावनीयम, नापिनीन्यभाषादिमामलयालम सन्चादिल्याबद्रकापालनमापक्रमन्नं न चेति । समादधत --> अवशेदकतया = स्वनिरूपनारदकतासम्बन, जन्यरूपत्वान्छिन्नं = 'पूची निगन्या जन्यम्। मात्र नजान्यायमित्र, प्रति एक, न न नाला वाहिन्न प्रति. अवच्छेदकनया रूपत्वावच्छिन्नाभारस्य देतवान = प्रतिबन्धका भाविधता कारणामुपागात, नाजियागावापान भरतस्य कामकागमाधाना कार्यतावमटकत्वाव्यांगायत्यताम् । गयक धनं. पीतादिम्पसत्त्वना:वच्छेदकतासम्बन्धन पत्तावप्रिनिमागिताफगावरान विरहान पानाधवयवावच्छे टेन नीलाधुनिमदर । न हि पनि प्रनिबन्धक कार्यमुत्नुहनि । चित्र पवाद नपाइने ->न चेति । एवमपि = गौरवात अनन्दकन्या नालाही पटकनमा नालागाजतः । कारणत्वं परित्याग :बच्छेदकासम्बन्धन गन्यम् पल्मापच्छिन्न बन्छरकतया मालाछिन्ना नवम्प कागवायगा:-17. ! नीलपीतावयवारये पटादा पीतावयवावदन पाक - राजनीतिजागयोग गनि. पानावयचारलंदन रनोत्पनिकाले प्रतिवाद में अन्य प्राञ्जल विद्वानों का यह वक्तव्य है कि ताइम = नानारूपवढ्ययवजन्य घट स्वात्मदानम्कान अबदन मपविहीन तो नहीं हो सकता, क्योंकि सब लोगों को उसी घट में संपवना की जो बद्धि होती है, उस अमात्मक नहीं कहीं जा सकती । वह प्रतीति ही उस घट में रूप को सिद्ध करता है । हाथ कंगन को भारमी वया: प्रत्यक्षद्धि होने में मारा घट को नीरूप नहीं माना जा सकता । अन्यप्रावृति जारूपनातिना. एकद- इनि । यहाँ नयायिक एकदशीय विद्वानों का यह वक्तव्य है कि अनेकरूपवाने अवयों सं आरब्ध घट में अन्याप्यनि अनेक रूप ही उत्पन्न होने हैं । चित्र घट में 'इह एकम्प' यह प्रतीनि 'पको धन्याशिः' इस प्रीति की भाँनि ममूहगन एकत्व के द्वारा उगन होती है। यहाँ यह शंका हो कि –> 'जिग अचयवानटेन घट में पीन रूप रहता है यहां भी नील आदि म्प उत्पन्न होने की आपनि आयगी, क्योंकि पानावयवावन्दन नीलाभाव, रक्ताभाव आदि विद्यमान है, जो नीलादि रूप का हेतु होना है' -तो यह निराधार है, क्योंकि अबजेटकतासम्बन्ध मे पाभाव जन्यरूपन्नादिअवच्छिन्न के प्रति ही हतु होला है, न कि नीलन्य ग्यतत्वादिभवछिन्न के प्रति । भाशय यह है कि मप के अन्यायनिवपक्ष में अवच्छेदकतासम्बन्ध में रूप उत्पन्न हो जाने के बाद पुन: उसी सम्बन्ध में अवयर में रूप की उत्पत्ति का वारण करन के लिए अवच्छेदकतासम्बन्ध में अन्य सपके प्रति ही अच्छंटकतासम्बन्ध में रूप का प्रतिबन्धक नान कर अवच्छंदकतासम्बन्ध में रूपाभाव को हेतु माना जाता है । अवच्छेदकतासम्बन्ध में नीर के प्रते अवच्छेदकनासम्बन्ध में नीलाभाव का, पीत के प्रति पीनाभाव को हेतु नहीं माना जाता, क्योंकि मा स्वीकार करने में गौपच है 1 अनः पीतात्रयवावदन म.पाभाव केवल जन्य रूप का इंतु है, न कि नील कप बा । जन्य रूप तो वहाँ उत्पन्न आ ही है, क्योंकि बटोनिक्षणारछेनेन घट में कपाटावच्छेदेन रूपाभाव रहा हुआ भा। अनः वाद में पीतावयवावरेंदन नीलादि की उत्पत्ति का आपादन नहीं
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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