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________________ '७७८ - __ । * आत्मविभुत्ववादारम्भः * भाषितेऽत्र भगवन्मतस्पृशां कर्णकोटरकुटुम्बिनि स्फुटं । आः किमेतदिति भूरिसम्भमादाह गौतमिकुटुम्बमुच्चकैः ॥9॥ आत्मा विभुर्भवति नि:क्रियताख्यहेतोः, व्योमेव मूर्तिमति सक्रियता हि सिदा । नाऽसिन्दिमधमनिबन्धनमेति तस्मादस्माकमेष नियमः खलु तर्कसिन्दः ॥२॥ अनोत्तरं → परिमाणमवच्छिन्नमत रूपादियोगिता । मूर्तिराद्यात्मनि स्पष्टा, दितीया व्याप्तिभहगभूः ॥३॥ -* गयलता. * -- आत्मा विभुत्वमुक्तं हि, न्यायाचार्येण साम्प्रतम् । यदेकाशीतिगाथानिः तद्रहस्यं निशम्यताम् ।।१।। भगवन्मतस्पृशां = जिनेन्द्र मानिन्नानां रदं. कर्ण कोटामुनिति : भोजगहयो: स्वस्वजने अत्र = आत्मदहपरिमाणे भाषिते स्वकर्णकोटरप्रविष्ट 'आः किमेतत् स्याद्वादिभिः उक्तं ?' इति गौतमिकुटुम्बकं = नैयायिकवृन्दं भूरिसम्भ्रमात् उच्चकैः आह ।।१।। तद्वक्तव्यमेव दर्शयति - आत्मा विभुः भवनि निःक्रियताख्यहेतोः न्यो मेव । प्रयोगस्त्वैवं आत्मा विभुपरिमाणाश्रयः निष्क्रियत्वान्, गगनवत् । न च निष्क्रियत्वमात्मनि कुत: सिद्धमिति वाच्यम्, यतो मूर्तिमति हि = एव सक्रियता सिद्धा स्वस्या मूर्नत्वच्याप्तत्वमावेदयति । सा हि मूर्ति; जीवाद् च्यावर्तमाना स्वत्र्याच्यां सक्रियतामपि निवर्तयत्ति, व्यापकाभावस्य साप्याभाव| साधकत्वात् । अतएवात्मनि विभुत्वसाधर्न निष्क्रियत्वं असिद्धिगन्ध = स्वरूपासिद्धिदापलक्षगंदगन्धं अनिबन्धनं = निष्कारण : आकस्मिकं न एति = न प्राप्नोति । तस्मात् कारणात् अस्माकं नैयायिकानां एप नियमः = विभुत्व-निष्क्रियत्वयोः ब्याप्य - व्यापकभावः तर्कसिद्धः = विपक्षबाधकयुक्तिसाहाय्य; खलु = एव । ततो विभुत्वमेवात्मनी युक्तमिति नैयायिकाशयः ।।२।। यद्यपि निष्क्रियत्वं गुणादी विभत्वन्यभिचारे, त्र्यत्वे सतीति विशेषणे तु विनिगमनाविरहः तथापि निष्क्रियद्रव्यमात्रवृत्तिवैजात्यस्य हेतुलमित्यत्र नैयायिकाशयः प्रतिभाति । ननु आत्मनि निष्क्रियत्वसाधिका:मूर्तिप्रतियोगिता मूर्तिः किं अवच्छिन्नपरिनाणात्मिका यदुत रूमादियोगिता या ? इति विमलीभावमाचिद् विकल्पयुगलमत्र सनुपतिष्टन इत्याशयेन प्रकरणकार: प्रत्युत्तरयति । अत्रोत्तरनिति । अबजिननं - सावच्छिन्न परिमाणं मूर्तिः उत्त रूपादियोगिता ? आद्या = सावच्छिन्त्रपरिभाणस्वरूपा मूर्नि: आत्मनि स्पष्टा 'अर्धधनुःप्रमागीsहमित्यादिस्वरसवाहिसार्वजनीनप्रतीते: प्रसिद्धत्वात । यदि च रूपादियोगितास्वरूपा द्वितीया मूर्तिरभिमता तर्हि ब्याप्तिभगभूः | करनेवाले स्यावादियों के कर्णकोटर के लिए कुटुम्नी जन जैसी 'आत्मा देहपरिमाणवाली है। यह स्फुट वाणी जब गौतमीय (नैयायिक) कुटुम्न के कर्णकोटर की कुटुम्बिनी बनती है तब नैयायिक वृन्द 'ओह ! यह क्या रोल दिया ?' इस तरह अत्यन्त सम्भ्रम में चिल्लाता है ।शा नैयायिक कहता है कि 'आत्मा विभु है, क्योंकि वह निष्क्रिय है। जो निष्क्रय होता है वह विभु होता है जैसे गगन। आत्म भी निष्क्रिय है। अतएव गगन की भौंति बद्द सर्वव्यापिपरिमाणाश्रय है। यहाँ यह शंका करना कि → 'भान्मा में निष्क्रियत्व हेतु ही नहीं रहता है, तर उसके बल पर आत्मा में विभु परिमाण की सिद्धि कैसे हो सकेगी ?' - इसलिए अनुचित है कि आत्मा में निष्क्रियत्व की सिद्धि अमूर्तत्व हेतु से होती है । जो मूर्त होना है उसी में क्रिया उत्पन होती है, जैसे घट, पट । मतसय कि मूर्तत्व का व्याप्प सक्रियत्व है। आत्मा में मूनत्व नहीं होने से सक्रियत्व नहीं हो सकता है, क्योंकि ज्यापकाभाव व्याप्याभाव का साधक होता है। अतः आत्मपक्षक विभुत्वसाध्यक निष्क्रियत्व हेतु निष्कारण असिद्धि दोप की गन्ध को भी छूता नहीं है । इसलिए हमारा यह नियम = न्याप्ति तक सिद्ध = विपक्षबाधकतर्क से सिद्ध है । अतएन आत्मा में विभुपरिमाण निगवाध है - यह नैयायिकबक्तब्य है ॥२॥ LSICAL में मूत्व है अत्रो.। मगर यह उपर्युक्त नैयायिककथन विचार करने पर असंगत प्रतीत होता है। इसका कारण यह है कि नयायिकाभिमत क्रियत्वब्यापक मुनि (मतत्व) का मतलब क्या अबजिन परिमाण है या रूपादियोगिता = रूपादिआश्रयत्व ! ये दो पक्ष उपस्थित होते हैं । इसमें से प्रथम पक्ष का आश्रय करने पर तो आत्मा में मूर्ति की ही स्पष्टतया सिद्धि हो जायेगी, क्योंकि 'मैं फीट लम्बा है। इत्यादि सार्वजनीन प्रतीति से आत्मा में साच्छिनपरिमाणबत्त्व सिद्ध ही है । मतलब कि जब मूनच ही आत्मा में रहता है नब अमूर्तत्व हेतु से आत्मा में निनियन्व की सिद्धि कर के विभुत्व की सिद्धि करने का नयायिक का मनास्य कैसे मफल होगा ? कथमपि नहीं । इसलिए पदि दूसरे पक्ष का स्वीकार किया जाय कि -- 'मूर्ति = मूनत्व
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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